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InstaPDF - in Jivitputrika Vrat Katha 628
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कथा
JIVITPUTRIKA
VRAT KATHA
जीमूतिाहन के नाम पर ही जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पडा है। आइए जानते हैं त्रक
जीमूतिाहन कौन हैं और उनकी कथा क्या है।
पुि की रक्षा के लिए त्रकया जाने िािा व्रत जीवित्पुत्रिका या लजवतया का विशेष महत्व है। इस दिन माताएं
अपनी संतान की रक्षा और कुशिता के लिए वनजजिा व्रत करती हैं। जीमूतिाहन के नाम पर ही
जीवित्पुत्रिका व्रत का नाम पडा है। आइए जानते हैं त्रक जीमूतिाहन कौन हैं और उनकी कथा क्या है।
जीमूतर्वाहन के पपता ने र्वृद्धार्वस्था में र्वानप्रस्थ आश्रम में जाते समय इनको
राजससिंहासन पर बैठाया पकन्तु इनका मन राज-पाट में नहीं लगता था। र्वे राज्य का
भार अपने भाइयों पर छोडकर स्वयिं र्वन में पपता की सेर्वा करने चले गए। र्वहीं पर
उनका मलयर्वती नामक राजकन्या से वर्वर्वाह हो गया। एक ददन जब र्वन में भ्रमण
करते हुए जीमूतर्वाहन काफी आगे चले गए, तब उन्हें एक र्वृद्धा वर्वलाप करते हुए
ददखी. इनके पूछने पर र्वृद्धा ने रोते हुए बताया – मैं नागर्विंशकी स्त्री हूिं और मुझे एक
ही पुत्र है। पसिराज गरुड के समि नागों ने उन्हें प्रवतददन भिण हेतु एक नाग सौंपने
की प्रवतज्ञा की हुई है। आज मेरे पुत्र शिंखचूड की बसल का ददन है। जीमूतर्वाहन ने र्वृद्धा
को आश्वस्त करते हुए कहा – डरो मत. मैं तुम्हारे पुत्र के प्राणों की रिा करिंगा. आज
उसके बजाय मैं स्वयिं अपने आपको उसके लाल कपडे में ढिं ककर र्वध्य-सशला पर
र्वे उसे लपेटकर गरुड को बसल देने के सलए चुनी गई र्वध्य-सशला पर लेट गए। वनयत
समय पर गरुड बडे र्वेग से आए और र्वे लाल कपडे में ढिं के जीमूतर्वाहन को पिंजे में
आिंख में आिंसू और मुिंह से आह वनकलता न देखकर गरुडजी बडे आश्चयय में पड गए।
गरुड जी उनकी बहादुरी और दूसरे की प्राण-रिा करने में स्वयिं का बसलदान देने की
दहम्मत से बहुत प्रभावर्वत हुए. प्रसन्न होकर गरुड जी ने उनको जीर्वन-दान दे ददया तथा
आसश्वन कृष्ण अष्टमी के प्रदोषकाल में पुत्रर्वती मदहलाएिं जीमूतर्वाहन की पूजा करती
हैं। कैलाश पर्वयत पर भगर्वान शिंकर माता पार्वयती को कथा सुनाते हुए कहते हैं पक
आसश्वन कृष्ण अष्टमी के ददन उपर्वास रखकर जो स्त्री सायिं प्रदोषकाल में जीमूतर्वाहन
की पूजा करती हैं तथा कथा सुनने के बाद आचायय को दसिणा देती है, र्वह पुत्र-पौत्रों
का पूणय सुख प्राप्त करती है। व्रत का पारण दूसरे ददन अष्टमी वतथथ की समाप्तप्त के
पश्चात पकया जाता है। यह व्रत अपने नाम के अनुरप फल देने र्वाला है।