श्रुति स्मृति पुराण

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श्रुति स्मृति पुराण

१. त्रिविध स्रोत
प्रायः इनका नाम एक साथ लिया जाता है, जैसे पूजा के पूर्व सङ्कल्प में-श्रुति-स्मृति पुराणोक्त फलप्राप्त्यर्थं। या जगद्गुरु शङ्कराचार्य की स्तुति में-श्रुति स्मृति
पुराणानामालयं करुणालयम्। तुलसीदास जी रामचरितमानस मङ्गलाचरण में वेद-पुराण-तन्त्र को सम्मिलित माना है-नाना पुराण निगमागम सम्मतं यद्, रामायणे
निगदितं क्वचिदन्यतोऽपि। सामान्यतः निगम का अर्थ वेद तथा आगम का अर्थ तन्त्र है। नये फै शन में वेद की पूजा तथा तन्त्र की निन्दा हो रही है। वेद, तन्त्र, पुराण
सभी का दुरुपयोग हो सकता है, इनमें इन शास्त्रों का दोष नहीं है, उपयोग करने वाले का दोष है। वेद तथा तन्त्र सम्बन्धित हैं-वेद का अर्थ विश्व या उसका ज्ञान है,
उसके अनुसार चलने वाली संस्था या व्यवस्था तन्त्र है, जैसे राजतन्त्र, लोकतन्त्र, उद्योग तन्त्र। ऋक् (१०/७१) में ज्ञान का एक साधन रूप में तन्त्र का उल्लेख है-
त एते वाचमभिपध्य पापया सिरीस्तन्त्रं तन्वते अप्रजज्ञयः (ऋक् , १०/७१/९)
वाजसनेयि सं. में अश्विनीकु मार को तन्त्रज्ञ कहा गया है-
अश्विना धर्मं पातं हार्द्वानमहर्दिवाभिरूतिभिः। तन्त्रायिणे नमो द्यावापृथिवीभ्याम्। (वाज. सं. ३८/१२)
निसर्ग से जो प्राप्त हो वह विद्या है। उस विद्या द्वारा जो क्रिया महः में होती है वह महाविद्या या तन्त्र है।
सभी संस्थायें वेद के अनुसार ही चल रही हैं, अतः तन्त्र की निन्दा वेद की भी निन्दा है-
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भाव्यम्॥ २॥
(पुरुष सूक्त, माध्यन्दिन यजुर्वेद, ३१/२)
चातुर्वर्ण्यं त्रयो लोकाश्चत्वारश्चाश्रमाः पृथक् ।
भूतं भव्यं भवच्चैव सर्वं वेदात् प्रसिद्ध्यति ॥ (मनु स्मृति, १२/९७)
इन श्लोकों में वेद का अर्थ विश्व वेद तथा शब्द वेद दोनों है। वेद रूपी विश्व से ही ३ लोक हो सकते हैं। किन्तु चातुर्वर्ण्य शब्द वेद के अनुसार हैं। तन्त्र का प्रयोग
अथर्वाङ्गिरस विद्या कहा गया है, इस रूप में भी तन्त्र वेद का अंग या सहायक है-
श्रुतिरथर्वाङ्गिरसीः प्रकु र्यादविचारयन् (मनुस्मृति, ११/३३)
दण्डनीत्यां च कु शलमथर्वाङ्गिरसे तथा। (याज्ञवल्क्य स्मृति, १/३१३)
भागवत पुराण में वेद को निगम कहा गया है-
निगम कल्पतरोर्गलितं फलं शुकमुखादमृतद्रवसंयुतम्, पिबत भागवतं रसमालयं मुहुरहो रसिका भुविभावुका:। (श्रीमद् भागवत, १/१/३)
निगम का सामान्य अर्थ है निसर्ग या प्रकृ ति (सृष्टि) से आगत। नितरां गच्छन्त्यत्र गोचर सञ्चर इति निपातितः। या देवीभागवत पुराण (१/५/६) में-
कथङ्कारं वाच्यः सकलनिगमागोचरगुण, प्रभावः स्वं यस्मात् स्वयमपि न जानासि परमम्॥
सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्मा को समझ नहीं आ रहा था कि सृष्टि कार्य कै से करें। तब उन्होंने पुराण द्वारा पूर्व कल्प की प्रक्रिया का स्मरण किया और वेदों की रचना की।
ध्यान की विधि, प्रयोग, अनुसन्धान-ये सभी तन्त्र के विषय हैं जिनका बिना वर्णन के उल्लेख है।
प्रथमं सर्व शास्त्राणां पुराणं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥
(वायु पुराण, १/६१, मत्स्य पुराण, ५३/३)
२. वाक् अर्थ प्रतिपत्ति
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्तये। जगतः पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ॥ (रघुवंश, १/१)
गिरा-अरथ जल बीचि सम कहियत भिन्न न भिन्न।
वन्दौं सीताराम पद जिन्हहिं परमप्रिय खिन्न॥ (रामचरितमानस, बालकाण्ड, १८)
इनका मूल वेद में है- द्वे ब्रह्मणी वेदितव्ये शब्दब्रह्म परं च यत् ।
शाब्दे ब्रह्मणि निष्णातः परंब्रह्माधिगच्छति ॥ (मैत्रायणी उपनिषद् ६/२२)
इयं या परमेष्ठिनी वाग्देवी ब्रह्म संशिता। (अथर्व १९/९/३)
वाचीमा विश्वा भुवनानि अर्पिता (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/८/४)
वागिति पृथिवी, वागित्यन्तरिक्षं, वागिति द्यौः। (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद्, ४/२२/११)
विश्व रूप में वेद पुरुष कहा है, वाक् रूप में स्त्री या देवी-
शब्दात्मिकां सुविमलर्ग्यजुषां निधानमुद्गीथ रम्य पद-पाठवतां च साम्नाम्।
देवी त्रयी भगवती भव भावनाय वार्ता च सर्व जगतां परमार्ति हन्त्री॥ (दुर्गा सप्तशती, ४/१०)
अर्थ (जगत्) और वाक् (शब्द) में प्रतिपत्ति (सामञ्जस्य) को विश्व-वेद या जातवेद (जिसका जन्म हुआ) कहा है-
अनादिनिधनं ब्रह्म शब्दतत्त्वं निरञ्जनम्। विवर्त्ततेऽर्थभावेन प्रक्रिया जगतो यतः॥ (वाक्यपदीय, ब्रह्मकाण्ड, १)
जातवेदसे सुनवाम सोममरातीयतो निदहाति वेदः। (महानारायण उपनिषद् ६/२, ऋक् १/९९/१)
त्वं सोम क्रतुभिः सुक्रतुर्भूस्त्वं दक्षैः सुदक्षो विश्ववेदाः। (ऋक् १/९१/२)
विश्वा अपश्यद् बहुधा ते अग्ने जातवेदस्तन्वो देव एक। (ऋक् १०/५१/१)
३. सृष्टि का वेदत्व
सृष्टि से पूर्व शून्य मन था जिसका शून्य वेद था। उस श्वोवसीयस (शून्य स्थित) मन में इच्छा हुई निर्माण करने की। वहीं से वेद आरम्भ हो गया। विश्व के ५ स्तरों के
३-३ मनोता (मन जैसे तत्त्व) हैं-
(क) स्वयम्भू वेद-दृश्य जगत् १०० अरब ब्रह्माण्डों का समूह है जिनकी गणना शतपथ ब्राह्मण में दी है। इसके ३ मनोता कहे गये हैं।
तिस्रो वै देवानां मनोताः, तासु हि तेषां मनांसि ओतानि। वाग् वै देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि। गौः हि देवानां मनोता, तस्यां हि तेषां मनांसि
ओतानि। अग्निः वै देवानां मनोता, तस्मिन् हि तेषां मनांसि ओतानि। अग्निः सर्वा मनोता, अग्नौ मनोताः संगच्छन्ते। (ऐतरेय ब्राह्मण २/१०)
व्यक्त विश्व में प्रथम मण्डल के ३ मनोता (संकल्प का क्रिया रूप) थे-वेद, सूत्र, नियति।
१. वेद-प्रति विन्दु अन्य के बारे में जानता है या प्रभावित होता है। यह ज्ञान ३ प्रकार का है-मूर्त्ति ऋक् , गति यजु, तथा महिमा या प्रभाव साम है।
२. सूत्र-यह २ पिण्डों के बीच का सम्बन्ध है। यह भी ३ प्रकार का है-सीमाबद्ध के न्द्र के साथ सत्य। ऋत् की सीमा या के न्द्र नहीं है। सत्य-ऋत् में कोई एक सीमा या
के न्द्र है। (भागवत १०/२/२६-सत्यस्य सत्यं ऋत-सत्य नेत्रं, सत्यात्मकं त्वां शरणं प्रपद्ये)।
३. नियति-यह परिवर्तन की दिशा है। यह २ विपरीत दिशाओं में है-सञ्चर-प्रतिसञ्चर (सांख्य का तत्त्व समास) या सम्भूति-असम्भूति (ईशावास्योपनिषद्)। दोनों
गतियों का नियन्त्रण या समन्वय हृदय से होता है जिसके तत्त्व हैं-हृ = आहरण या लेना, द= देना, य = यम या नियमन, चक्रीय गति। (बृहदारण्यक उपनिषद्,
५/३/१)
(ख) ब्रह्माण्ड वेद-इसमें आकर्षण (भृगु) तथा विकिरण (अङ्गिरा = अंगारा) रूप २ धारा हैं। पदार्थ या तेज के घनत्व के हिसाब से भृगु-अंगिरा के ३-३ भेद हैं-
अग्निरादित्ययमा-इत्येतेऽङ्गिरसः ....वायुरापश्चन्द्रमा-इत्येते भृगवः (गोपथ ब्राह्मण पूर्व २/९)। भृगु-अंगिरा का समन्वय या स्रोत (सूर्य) से अन्त (यम) तक का प्रवाह
उत्पादक पूषा या एकर्षि अत्रि है-पूषन्नेकर्षे यम-सूर्य प्राजापत्य (ईशावास्योपनिषद् १६)। इनसे ३ प्रकार के निर्माण है-
१. इट् या इड़ा (ईंट) = निर्माण सामग्री, उर्क , भोग। इट् के ३ रूप हैं-अन्न = उपभोग की वस्तु, गौ = निर्माण का स्थान तथा क्रिया, श्रद्धा = ईंटों के बीच का
योग-सूत्र (आकर्षण, रासायनिक बन्धन, स्नेह)।
२. उर्क (work) निर्माण की दृश्य क्रिया या गति है। इसके ३ स्तर हैं-आपः = मिश्रण के लिये पदार्थ या क्षेत्र है। इसमें गति होने से मिश्रण होता है। जन्म के लिये
माता समान होने के कारण यह गति रूप वायु मातरिश्वा है (तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति-ईशावास्योपनिषद्, ४)। विराट् निर्मित पिण्ड का आकार है, जिससे वह
परिवेश से विशिष्ट दीखता है (विशेषेन राजते = विराट् )। रस विश्व निर्माण का मूल पदार्थ है।
३. भोग निर्माता के उपभोग लायक पदार्थ है इससे उसका काम चलता रहे। यह भी ३ स्तर का है-दधि (घना या ठोस)-सूर्य के चारों तरफ मंगल तक ठोस ग्रह हैं,
जिसे दधि समुद्र कहा गया है (उसका व्यास मंगल की कक्षा है)। मधु सौर मण्डल का सक्रिय तेज है, जिसे आदित्य भी कहा है। (भागवत में यूरेनस तक की कक्षा को
मधु समुद्र कहा है। यहां तक सौर वायु (ईषा-यजुर्वेद १/१) जाती है अतः इसे ईषा-दण्ड (विष्णु पुराण २/९ के अनुसार व्यास = ३००० सूर्य व्यास) भी कहा है।
घृत परमेष्ठी का विरल सार पदार्थ है जिससे सूर्य मधु तथा घृत का निर्माण करता है।
दधि हैवास्य लोकस्य (पृथ्वी का) रूपम्, मध्वमुष्य (स्वर्ग का) घृतमन्तरिक्षस्य (सूर्य रूपी तारों के बीच का क्षेत्र)-शतपथ ब्राह्मण (७/५/१/३), गायत्रमयनं (सूर्य से
२४ अहर्गण = २१ बार २ गुणा, यूरेनस कक्षा तक) भवति ब्रह्मवर्चसकामस्य स्वर्णिनम् मधुना अमुष्मिन् लोक उपतिष्ठते। (ताण्ड्य महाब्राह्मण १३/४/१०),
घृतभाजना आदित्याः (शतपथ ब्राह्मण ६/६/१/११)
(ग) सौर मण्डल-इसका के न्द्रीय क्षेत्र ज्योति है, २७ अहर्गण तक गौ है जहां क्रतु (सृष्टि यज्ञ) सम्भव है। जहां तक सूर्य का तेज आकाश गंगा से अधिक है वह वाक्
है। वाक् सौर मण्डल का आयतन है अतः इसे आयु भी कहते हैं।
ज्योतिर्हिरण्यम् (शतपथ ब्राह्मण ४/३/४/२१, गोपथ पूर्व २/२१ आदि)
ज्योतिरेष य एष (सूर्यः) तपति-(कौषीतकि ब्राह्मण २५/३,९)
शत योजने (१०० सूर्य व्यास तक) ह वा एष (आदित्यः) इतस्तपति (कौषीतकि ब्राह्मण ८/३)
गौ देवानां मनोता (ऐतरेय ब्राह्मण २/१०, कौषीतकि ब्राह्मण १०/६)
साहस्रो (१००० सूर्य व्यास तक) वा एष शतधार उत्सः (यजु १३/४९) यद् गौः (शतपथ ब्राह्मण ७/५/२/२४)
मित्र एव क्रतुः। स यदेव मनसा कामयतऽ इदं मे स्यादिदं कु र्वीयेति स एव क्रतुः (शतपथ ब्राह्मण ४/१/४/१)-विष्णु पुराण (२/७/८) के अनुसार मैत्रेय मण्डल १
लाख योजन (सूर्य व्यास) तक है।
त्रिंशद् धाम वि-राजति वाक् पतङ्गाय धीमहि। प्रति वस्तोरहद्युभिः। (ऋक् १०/१८९/३)-यह सूर्य से ३० धाम या ३३ अहर्गण तक है। संवत्सर (सूर्य से १ वर्ष में
जहां तक प्रकाश जाता है) आयुः (शतपथ ब्राह्मण ४/१/४/१०)
असौ लोक (द्यु) आयुः (ऐतरेय ब्राह्मण ४/१५), आयुर्वा उष्णिक् (२८+२ धाम तक)-ऐतरेय ब्राह्मण (१/५)
१. ज्योति के ३ रूप-अग्नि = के न्द्र भाग, विद्युत् = विद्युत् कणों का प्रवाह -वायु या ईषादण्ड, आदित्य।
२. गौ के ३ रूप-वसु, रुद्र, आदित्य। निर्माण स्थान वसु की पुत्री। आदित्य तेज से निर्माण-यह स्वसा = बहन है। पदार्थों के टू टने (रुद्र) से निर्माण होता है = रुद्र
की माता है। माता रुद्राणां दुहिता वसूनां स्वसा आदित्यानां अमृतस्य नाभिः।
प्र नु वोचं चिकितुषे जनाय मा गामनागामदितिं वधिष्ट॥ (ऋक् ८/१०१/१५)
३. आयु के ३ अर्थ हैं-आयतन = कितना पदार्थ इस क्षेत्र में आ सकता है।
आय = कितना धन आया, आयु = शरीर कितना समय चल सकता है।
इनके ३ माप छन्दों में हैं-गायत्री (२४), त्रिष्टु प् (४४), जगती (४८)
गायत्री सौर पृथ्वी है (जहां तक के पिण्ड सूर्य की कक्षा में रहेंगे)। त्रिष्टु प् महर्लोक तथा जगती ब्रह्माण्ड की माप है (अहर्गण क्रम में प्रत्येक धाम पिछले से २ गुणा)
मनुष्य की आयु के भी ३ भाग हैं-गायत्री = २४ वर्ष तक गात्र का विकास, उष्णिक् (पगड़ी) = २८ वर्ष तक परिवार या संस्था का मुख्य तथा उसके बाद जगती =
४८ वर्ष तक समाज कार्य।
सम्पत्ति भी ३ प्रकार की है-शरीर के भीतर की योग्यता (गायत्री), बाहर की अदृश्य सम्पत्ति (श्री), दृश्य सम्पत्ति (लक्ष्मी)। (घ) चान्द्र मण्डल-इसके ३ मनोता हैं-
रेत, यश, श्रद्धा।
१. रेत परमेष्ठी पदार्थ का कण रूप है। इसकी सघनता के ३ रूप हैं-सोम द्रव की तरह फै ला है। नाभनेदिष्ट में नाभि के न्द्र है पर सीमा नहीं है। हिरण्य में के न्द्र और
सीमा दोनों हैं।
२. यश रेत का प्रभाव है। इसके ३ स्तर हैं-सुरा (मद्य) मन का नियन्त्रण कम करता है। पशु = उपभोग की वस्तु। सोम = अनुपयुक्त फै ला पदार्थ।
३. श्रद्धा दो भूतों के बीच का सम्बन्ध है। श्रवा (रेखा) + धा (धारण) = दो पिण्डों के बीच १ रेखा में सम्बन्ध। यह सम्बन्ध ३ प्रकार का है-पत्नी, आपः, तेज।
पत्नी बराबर का सम्बन्ध है। असुर सभ्यता में पत्नी सम्पत्ति है, भारतमें पत्नी = स्वामिनी (पति का स्त्रीलिंग रूप)-यो मे प्रतिबलो लोके स मे भर्ता भविष्यति (दुर्गा
सप्तशती ५/१२०)। आपः (जल) सम्बन्ध में दोनों एक दूसरे से मिल कर एकाकार हो जाते हैं। तेज में दूर से सम्बन्ध होता है-शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध द्वारा।
(ङ) पृथ्वी-भूमण्डल के मनोता हैं-वाक् , गौ, द्यौ।
१. वाक् = पृथ्वी का क्षेत्र। वेद में ३ प्रकार की पृथ्वी है, पृथ्वी ग्रह, सूर्य का आकर्षण क्षेत्र, सूर्य जहां तक विन्दु रूप में दीखता है। इनकी माप छन्दों में गायत्री
(२४), त्रिष्टु प् (४४), जगती (४८) है।
२. गौ-पृथ्वी ३ रूपों में गौ है-निर्माण का स्थान, साधन, क्रिया। सौर मण्डल की तरह इसके भी ३ भाग हैं-वसु, रुद्र, आदित्य। पर इसमें अपना तेज नहीं है। सूर्य से
जो किरण आती है वह गो है, उसका जो भाग पृथ्वी में रहता है वह धेनु है (अग्निं तं मन्ये यो वसुः, अस्तं यं यन्ति धेनवः- ऋक् ३/५३/८)। सूर्य का तेज सावित्री है,
जो पृथ्वी द्वारा उपयोग हुआ वह गायत्री है।
३. द्यौ= आकाश। सीमा के भीतर का पिण्ड भूमि है। उसका प्रभाव क्षेत्र आकाश में फै ला हुआ है, वह भूमा है। ३ सीमाओं को ३ साम कहा है (त्रिसामा-विष्णु
सहस्रनाम)। ३ द्यौ हैं-
भूमि (पृथ्वी), अन्तरिक्ष (चन्द्र कक्षा, जहां तक के पिण्ड पृथ्वी की परिक्रमा कर सकते हैं-आकाश का १ लाख योजन का जम्बू द्वीप), द्यौ= जहां तक के पिण्डों का
पृथ्वी गति पर प्रभाव पड़ता है (शनि कक्षा तक का क्षेत्र, सूर्य व्यास = अक्ष का १००० गुणा, सहस्राक्ष)।
४. सृष्टि वेद की अपौरुषेयता
(क) अज्ञेयता-पूरी सृष्टि का का थोड़ा ही अंश दीखता है। वही वस्तु ज्ञात हो सकती है जिसका साम हम तक पहुंचे। अतः सृष्टि अज्ञेय अर्थ में अपुरुषेय है।
एक अन्य अर्थ में अपौरुषेय है। सृष्ट जगत् पुरुष है, पर यह मूल स्रोत का एक ही पाद है। बाकी ३ पाद आकाश में सदा मूल रूप में रहते हैं, उनको मिला कर पूरुष
कहा गया है। पुरुष के दृश्य स्तरों का भी अधिष्ठान उनसे बड़ा तथा अज्ञात है, वह भी अपौरुषेय पूरुष है।
एतावानस्य महिमातो ज्यायांश्च पूरुषः। पादोऽस्य विश्वा भूतानि त्रिपादस्यामृतं दिवि॥३॥
ततो विराडजायत विराजो अधिपूरुषः। स जातो अत्यरिच्यत पश्चाद् भूमिमथो पुरः॥५॥
(वाजसनेयि यजुर्वेद, अध्याय ३१)
व्यक्ति पुरुष भी जब परम को प्राप्त करता है तब वह पूरुष हो जाता है। पाप द्वारा विद्ध होने पर पुरुष पुनः पुरुष हो जाता है-
असक्तोह्यचरन् कर्म परमाप्नोति पूरुषः। (गीता, ३/१९)
अथ के न प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पूरुषः। (गीता, ३/३६)
(ख) छन्द द्वारा माप-वाक् तथा अर्थ (विश्व)-दोनों की माप छन्द द्वारा है। विश्व का समरूप वर्णन करने के लिये जितना ब्रह्म की माप है उतनी ही वाक् की माप-
सहस्रधा पञ्चदशान्युक्था यावद्द्यावापृथिवी तावदित्तत्।
सहस्रधा महिमानः सहस्रं यावद् ब्रह्म विष्ठितं तावती वाक् ॥ (ऋक् , १०/११४/८)
ब्रह्म का सृष्टि रूप जो वेष्टन है, उसकी माप तो हो जाती है, पर उसके सहस्र (अनन्त) उक्थ (स्रोत) या सहस्र महिमाओं की माप सम्भव नहीं है। इन महिमाओं के
कारण यज्ञ से जो निर्माण हो रहे हैं, उनकी भी माप नहीं है।
विश्व के १० आयाम हैं जिनमें ५ आयाम से यान्त्रिक विश्व का वर्णन होता है-रेखा, पृष्ठ, आयतन या स्तोम, पदार्थ, काल (वैषेषिक में काल भी पदार्थ है)।चेतना के
६ स्तर को षड्विध पुरुष कहते हैं। ६ से १० तक के आयाम हैं-पुरुष (चेतना, जो चिति कर सके ), ऋषि (रस्सी-दो पिण्डों या कणों का सम्बन्ध), नाग या वृत्र
(पदार्थों को घेरने वाली सतह), रन्ध्र या नन्द ( पिण्ड या ऊर्जा के घनत्व में कमी जिसके कारण गति या परिवर्तन होता है-), रस या आनन्द (मूल समरूप स्रोत,
त्रिसत्य, हर स्थान, दिशा, समय में समान)। इनके वर्ग के अनुसार दर्शन के तत्त्व या लिपि के वर्ण हैं-
सांख्य के ५ x ५ = २५ तत्त्व, २५ वर्ण की रोमन लिपि, अतिरिक्त अक्षर।
शैव दर्शन के ६ x ६ = ३६ तत्त्व, लैटिन, अरबी, रूसी, गुरुमुखी (ॐ मिला कर ३६ अक्षर)
७ x ७ = ४९ मरुत् के समान ४९ अक्षर की देवनागरी लिपि
कला ८ x ८ = ६४ अक्षर की ब्राह्मी लिपि
वेद की विज्ञान वाक् में (८+९) का वर्ग, ३६ x ३ = १०८ स्वर, ३६ x ५ = १८० व्यञ्जन, १ ॐ।
सहस्र लिपि - १०-१५ हजार वर्ण व्योम (तिब्बत) के परे चीन जापान में।
५. मापों की समानता
इसके कई उदाहरण हैं-
(१) आकाश में पृथ्वी को ही मापदण्ड माना गया है। पृथ्वी के भीतर ३ धाम हैं तथा बाद के धाम क्रमशः २-२ गुणा बड़े हो जाते हैं। इसे वेद में अहः माप कहते हैं,
इनका योग अहर्गण है। यदि पृथ्वी की त्रिज्या त है तो क अहर्गण की दूरी = त २ घात (क-३)। सौर मण्डल ३० धाम तक है, पृथ्वी के ३ धाम मिला कर ३३
धाम हैं। हर धाम का प्राण एक देव है। ३३ धाम के ३३ देवता हैं, जिनके चिह्न क से ह तक व्यञ्जन वर्ण हैं। देवों के चिह्न रुप नगर की लिपि होने के कारण इसे
देवनागरी लिपि कहते हैं। १६ स्वर वर्ण मिला कर ४९ अक्षर हैं, जो ४९ मरुत् के चिह्न हैं। ४९ अहर्गण ब्रह्माण्ड (आकाशगङ्गा) की माप है। ब्रह्माण्ड का आभामण्डल
कू र्म क्षेत्र था जिसमें ब्रह्माण्ड रूप विराट् बालक या महाविष्णु का जन्म हुआ। उसकी माप ५२ अहर्गण है, अतः ५२ शक्तिपीठ हैं। अ से ह तक अक्षरों द्वारा पूरे विश्व
का वर्णन होता है अतः विश्व या उसकी प्रतिमा मनुष्य अहं है। मनुष्य शरीर रूपी क्षेत्र का क्षेत्रज्ञ (आत्मा-गीता, अध्याय १३) रूप में क्ष, त्र, ज्ञ-३ अक्षर जोड़ते हैं,
जिनको सिद्ध लिपि कहते हैं। इसे सिखाने के समय ॐ नमः सिद्धम् कहा जाता था। माहेश्वर सूत्र के ४३ अक्षर श्रीयन्त्र के ४३ त्रिकोण हैं, या ४३ अहर्गण महर्लोक
की माप है। यह आकाशगङ्गा की सर्पिल भुजा की मोटाई के व्यास का गोला है, जिसके भीतर सूर्य है। इसे वेद में अहिर्बुध्न्य तथा पुराण में शेषनाग कहा है। इसके
१००० तारा शेष के १००० सिर हैं, जिनमें १ सिर सूर्य पर पृथ्वी विन्दुमात्र है। प्लुत तथा अयोगवाह वर्णों को मिलाकर ब्राह्मी लिपि में ६३ या ६४ अक्षर होते है। यह
तपः लोक की माप है जहां तक का प्रकाश हम तक सिद्धान्त रूप में पहुंच सकता है। तपः लोक की माप ६३.५ अहर्गण है अर्थात् ८.६४ अरब प्रकाश वर्ष दूरी तक।
दृश्य जगत् की सीमा के प्रायः
यदक्षरपरिमाणं तच्छन्दः।(ऋक् सर्वानुक्रमणी २/६)
छन्दांसि वा अस्य (अग्नेः) सप्त धाम प्रियाणि। (शतपथ ब्राह्मण ९/२/३/४४, वा.यजु १७/७९)
...द्वात्रिংशतं वै देवरथाह्न्यन्ययं लोकस्तং समन्तं पृथिवी द्विस्तावत्पर्येति ताং समन्तं पृथिवीं द्विस्तावत्समुद्रः पर्येति..... (बृहदारण्यक उपनिषद् ३/३/२)
अयं वै (पृथिवी-) लोक एवश्छन्दः । (शतपथ ब्राह्मण ८/५/२/३, वा.यजु १५/४)
अयं वै (पृथिवी-) लोको मायं हि लोको मित इव ।
(शतपथ ब्राह्मण ८/३/३/५, वा.यजु १४/१८)
मा छन्दः तत् पृथिवी, अग्निर्देवता.. (मैत्रायणी संहिता २/१४/९३, काठक संहिता ३९/३९)
अस्तभ्नाद् द्यामृषभो अन्तरिक्षममिमीत वरिमाणं पृथिव्याः । (ऋक् ८/४२/१)
यस्य भूमिः प्रमा अन्तरिक्षमुतोदरम् । (अथर्व १०/७/३२)
मा = माप, माता। प्रमा = अन्तरिक्ष, माप से बड़ी इकाई। पृथ्वी के भीतर ३ लोक-
पृथिव्यामिमे लोकाः (पृथ्वी, अन्तरिक्ष, द्यौ) प्रतिष्ठिताः (जैमिनीय ब्राह्मण उपनिषद्, १/१०/२)
त्रिं॒शद्धाम॒ वि रा॑जति॒ वाक् प॑त॒ङ्गाय॑ धीयते । प्रति॒ वस्तो॒रह॒ द्युभिः॑ ॥ (ऋक् १०/१८९/३, साम ६३२, १३७८, अथर्व ६/३१/३, २०/४८/६, वा. यजु ३/८,
तैत्तिरीय सं १/५/३/१) ब्रह्मा तपसि प्रतिष्ठितम् (ऐतरेय ब्राह्मण, ३/६, गोपथ ब्राह्मण, उत्तर, ३/२)
त्रिषष्टिर्वा चतुःषष्टिर्वर्णां शम्भुमते मताः (पाणिनीय शिक्षा, ३)
स यत्कू र्मो नाम। एतद्वै रूपं कृ त्वा प्रजापतिः प्रजा असृजत। यदसृजत् अकरोत् तत् यद् अकरोत् तस्मात् कू र्म (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/५)
यदिमान् लोकान् प्रजापतिः सृष्ट्वेदं सर्वमशक्नोद् ....... तत् शक्वरीनां शक्वरीत्वम् (ऐतरेय ब्राह्मण, ५/७)
सौर मण्डल की पृथ्वी १००कोटि योजन की है जो नेपचून तक की कक्षा है। पृथ्वी व्यास १००० योजन का १० लाख गुणा है अर्थात् २ घात २० या २३ अहर्गण।
२४ अक्षर का गायत्री छन्द है। हर छन्द के अक्षर २ तक कम या अधिक हो सकते हैं। अतः गायत्री छन्द में सौर मण्डल की पृथ्वी की माप है। उसमें पुनः गायत्री ( २
घात २४) से गुणा करने पर ब्रह्माण्ड की माप होगी। स्वयं पृथ्वी की माप मनुष का कोटि गुणा (२ घात २३.५ या गायत्री) है। अतः गायत्री को लोकों की माप कहा
गया है। पृथ्वी गायत्री है, सौर मण्डल सावित्री तथा ब्रह्माण्ड सरस्वती है।
गायत्री वा इयं पृथिवी (शतपथ ब्राह्मण, १/७/२/१५, ४/३/४/९, ५/२/३/५)
गायत्र्या वै देवा इमान् लोकान् व्याप्नुवन् (ताण्ड्य महा ब्राह्मण, १५/१०/९)
द्यौः सावित्री (गोपथ ब्राह्मण पूर्व १/३३, जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण, ४/२७/११)
एष वाव स सावित्रः। य एष (सूर्य्यः) तपति (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१०/११/७)
मनो वै सरस्वान् (शतपथ ब्राह्मण, ७/५/१/३१, ११/२/४/९)
आपस्तम्ब सूत्र में इसी क्रम से सवन होता है-गायत्री, सावित्री, सरस्वती-
बालां बालादित्य मण्डलमधय्स्थाम्, ब्रह्मदैवत्यां गायत्रीं नामदेवतां ध्यायामि।
माध्यन्दिने तां युवादित्यमण्डलमध्यस्थाम्, रुद्रदैवत्यां सावित्रीं नामदेवतां ध्यायामि।
अथ सायं तां वृद्धां वृद्धादित्य मण्डलमध्यस्थाम्, विष्णुदैवत्यां सरस्वतीं नामदेवतां ध्यायामि।
६. शब्द वेद की अपौरुषेयता
इसके बारे में पाश्चात्य मतों की नकल पर कई कल्पनायें की गयी हैं-यह आकाश से गिरी है, या सृष्टि के आरम्भ में ईश्वर ने मनुष्य को दिया। अव्यक्त निराकार ईश्वर
ने किस मनुष्य को देने के लिये क्यों चुना या बिना भाषा ज्ञान के कै से दिया यह स्पष्ट नहीं है। किस सृष्टि के आरम्भ में दिया या कौन सी शाखा दी इसका कोई उल्लेख
कहीं नहीं है। हर सूक्त के अलग अलग ऋषि भिन्न स्थान और समय में हुए थे, उनको एक साथ कै से दिया इसका कोई वर्णन नहीं है। के वल निराधार कल्पनाएं तथा
उन पर डटे रह कर विवाद करते हैं। भारत के वेद तथा अन्य शास्त्रों में इसकी विस्तृत चर्चा है, उसे बिना पढ़े अनर्गल विवाद होता है जिसे कु छ लोग शास्त्रार्थ
समझते हैं। वैदिक साहित्य में अपौरुषेयता के ४३ मतों का सङ्कलन पण्डित मधुसूदन ओझा ने वेद धर्म व्याख्यानम् आदि ग्रन्थों में किया है। इनकी सूची तथा व्याख्या
उनके शिष्य पण्डित मोतीलाल शर्मा ने उपनिषद् विज्ञान भाष्य, खण्ड २ में किया है। मधुसूदन वागामृतम् (अंग्रेजी) खण्ड १ में श्री रामनाथन ने भी इसका सारांश
दिया है। इन लोगों की अधिकांश पुस्तकें निम्नलिखित लिंक पर उपलब्ध हैं-
shankarshikshayatan.org/resources
संक्षेप में ४ प्रकार की अपौरुषेयता है-
(१) व्यक्तिगत प्रभाव से मुक्त-सूक्तों का दर्शन या अनुभव ऋषियों ने समाधि अवस्था में किया था जब उनके मन में एकत्व था, किसी के प्रति राग द्वेष या स्वयं का
अहङ्कार नहीं था।
अजान् ह वै पृश्नीन् तपस्यमानान् ब्रह्म स्वयम्भू अभ्यानर्षत् । तदृषयोऽभवन् । त एवं ब्रह्म यज्ञमपश्यन् । (तैत्तिरीय आरण्यक, २/९/१)
= अजपृश्नि नामक ऋषियों ने वेद पाने के लिये घोर तप किया जिससे स्वयम्भू ब्रह्मा उनको वेद देना स्वीकार किया। वेद ग्रहण करने के कारण उनको ऋषि कहा
गया। उन्होंने ब्रह्म को यज्ञ रूप में देखा।
यामृषयो मन्त्रकृ तो मनीषिण अन्वैच्छन् देवास्तपसा श्रमेण ।
तां दैवी वाचं हविषा यजामहे सा नो दधातु सुकृ तस्य लोके ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण २/८/८/१४)
आप्तोपदेशः शब्दः। (न्याय सूत्र १/१/७) = आप्त (जिनको ज्ञान प्राप्त है) का उपदेश शब्द (ध्वनि, वेद) है।
(२) समन्वय-वेद में किसी एक व्यक्ति का उपदेश नहीं है, यह हजारों वर्षों के विभिन्न स्थानों के कई ऋषियों के ज्ञान क समन्वय है। अतः इसमें देश, काल या व्यक्ति
का कोई पक्षपात नहीं है। यह सार्वभौम एवं सनातन है। सम्बन्धित मीमांसा सूत्र हैं-
वेदांश्चैके संनिकर्ष पुरुषाख्याः (१/१/२७) अनित्यदर्शनाच्च । (२८) उक्तं तु शब्दपूर्वत्त्वम् (२९) आख्याः प्रवचनात् । (३०) परं तु श्रुति सामान्यमात्रम् (३१) कृ ते
वा विनियोगः स्यात्, कर्मणः सम्बन्धात् (३२)
= वेद प्रायः पुरुष द्वारा हैं। (२७) इसमें अनित्य का भी दर्शन है (२८) वेद के पूर्व शब्द आदि की सृष्टि होनी चाहिये (२९) प्रवचन मनुष्य द्वारा ही हो सकता है।
(३०) तात्कालिक अनुभवों को सामान्य या शाश्वत किया गया है। (३१) जड़ क्रियाओं को भी चेतन कर्म जैसा वर्णन सादृश्य आधार पर किया गया है।
(३) अतीन्द्रिय ज्ञान-सामान्यतः मनुष्य ५ प्राणों द्वारा ५ ज्ञानेन्द्रियों से ज्ञान प्राप्त करता है। किन्तु सामान्य के अतिरिक्त २ और प्राण हैं, जिनको असत् (अनुभव से
परे) प्राण कहते हैं-ऋषि तथा पितर (परोरजा)। अतः प्राणों की संख्या प्रायः ५ या कभी कभी ७ कही जाती है।
असद्वा ऽइदमग्र ऽआसीत् । तदाहः – किं तदासीदिति । ऋषयो वाव तेऽग्रेऽसदासीत् । तदाहुः-के ते ऋषय इति। ते यत्पुराऽऽस्मात् सर्वस्मादिदमिच्छन्तः श्रमेण
तपसारिषन्-तस्मादृषयः (शतपथ ब्राह्मण, ६/१/१/१)
परोरजा य एष तपति (बृहदारण्यक उपनिषद् ५/१४/३)
सप्तप्राणा प्रभवन्ति तस्मात्, सप्तार्चिषः समिधः सप्त होमाः।
सप्त इमे लोका येषु चरन्ति प्राणा गुहाशया निहिताः सप्त सप्त। (मुण्डकोपनिषद् २/१/८)
पञ्चस्रोतोऽम्बुं पञ्चयोन्युग्रवक्रां, पञ्चप्राणोर्मिं पञ्चबुद्ध्यादिमूलाम्।
पञ्चावर्तां पञ्चदुःखौघवेगां, पञ्चाशद् भेदां पञ्चपर्वामधीमः॥ (श्वेताश्वतर उपनिषद् १/५)
मन द्वारा ग्रहण करने के लिये ७ प्राण हैं जिनको अग्नि (यहां मस्तिष्क पिण्ड) की ७ जिह्वा कहा गया है। मन के बाहर व्यक्त करने के लिये भी ७ जिह्वा हैं। दोनों मिला
कर १४ (मनु = १४) जिह्वा हैं। या अग्नि की दोनों प्रकार की जिह्वा ही मन की वृत्ति या क्रिया हैं।
तस्य सप्तधा प्रान्तभूमिः प्रज्ञा। (योग सूत्र २/२७)
अग्निजिह्वा मनवः सूरचक्षसो विश्वेनो देवा अवसा गमन्निह। (ऋग्वेद १/९८/७, यजुर्वेद २५/२०)
काली कराली च मनोजवा च सुलोहिता या च सुधूम्रवर्णा।
स्फु लिङ्गिनी विश्वरुची च देवी लेलायमाना इति सप्त जिह्वाः॥ (मुण्डकोपनिषद् १/२/४)
२ अतीन्द्रिय प्रकार के ज्ञान को दैवी वाक् कहा गया है-
नमो ऋषिभ्यो मन्त्रकृ द्भ्यो मन्त्रविद्भ्यो मन्त्रपतिभ्यो । मा मामृषयो मन्त्रकृ तो मन्त्रविदः प्राहु (दु) र्दैवी वाचमुद्यासम् ॥ (वरदापूर्वतापिनी उपनिषद्, तैत्तिरीय आरण्यक,
४/१/१, मैत्रायणी संहिता ४/९/२)
यामृषयो मन्त्रकृ तो मनीषिण अन्वैच्छन् देवास्तपसा श्रमेण ।
तां दैवी वाचं हविषा यजामहे सा नो दधातु सुकृ तस्य लोके ॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, २/८/८/१४)
(४) ३ विश्वों का एकीकरण-वेद में मनुष्य को विश्व की प्रतिमा कहा गया है, पृथ्वी भी बाह्य विश्व की प्रतिमा है या उसके अनुसार निर्मित है। आकाश में ही पृथ्वी
तथा उस पर मनुष्य की सृष्टि हुई है, अतः इनका सम्बन्ध तर्क युक्त है पर विज्ञान के प्रयोग से यह देखना सम्भव नहीं है। यदि आकाश रचना का पृथ्वी या मनुष्य पर
दृश्य प्रभाव होता तो अरबों वर्षों तक पृथ्वी एक ही तरह सूर्य कक्षा में नहीं घूमती। अन्य तारा इतने दूर हैं कि सूर्य के अतिरिक्त प्रायः किसी का प्रभाव नहीं है। ब्रह्माण्ड
की प्रतिमा रूप में एक गणना शतपथ ब्राह्मण में है कि दृश्य जगत् में जितने ब्रह्माण्ड हैं, उतने ब्रह्माण्ड में तारा (नक्षत्र) तथा उतने ही हमारे मस्तिष्क में कलिल
(cell, लोमगर्त्त) हैं। लोमगर्त्त समय की एक माप है जो १ सेकण्ड का प्रायः ७५,००० भाग है। १ संवत्सर में जितने लोमगर्त्त होंगे उतने ही ब्रह्माण्ड के नक्षत्र- प्रायः
१०० अरब। यह अनुमान १९८५ में पहली बार किया गया। ३ प्रकार के विश्वों का उल्लेख गीता के अध्याय ८ में है-आधिदैविक (आकाश की सृष्टि), आधिभौतिक
(पृथ्वी पर सृष्टि), आध्यात्मिक (मनुष्य शरीर के भीतर का विश्व)।
प्रतिमा विश्व-स ऐक्षत प्रजापतिः (स्वयम्भूः) इमं वा आत्मनः प्रतिमामसृक्षि। आत्मनो ह्येतं प्रतिमामसृजत। ता वा एताः प्रजापतेरधि देवता असृज्यन्त-(१) अग्निः
(तद् गर्भितो भूपिण्डश्च), (२) इन्द्रः (तद् गर्भितः सूर्यश्च), सोमः (तद् गर्भितः चन्द्रश्च), (४) परमेष्ठी प्राजापत्यः (स्वायम्भुवः)-शतपथ ब्राह्मण (११/६/१/१२-
१३)
स्वयम्भू -शतपथ बाह्मण (६/१/१/८), परमेष्ठी-वारि वा अप् रूप-शतपथ बाह्मण (६/१/१/९-१०), सूर्य त्रयी विद्या (श्रुतेः त्रीणि पदाः)-शतपथ बाह्मण
(११/६/१/१), भूमण्डल भूपिण्डः-शतपथ बाह्मण (६/१/२/१), भूक्षेत्र-शतपथ बाह्मण (६/१/२/३), चन्द्र मण्डल-शतपथ बाह्मण (६/१/२/४)
विश्व की प्रतिमा मनुष्य-पुरुषोऽयं लोक सम्मित इत्युवाच भगवान् पुनर्वसुः आत्रेयः, यावन्तो हि लोके मूर्तिमन्तो भावविशेषास्तावन्तः पुरुषे, यावन्तः पुरुषे तावन्तो
लोके ॥ (चरक संहिता, शारीरस्थानम् ५/२)
जितने नक्षत्र उतने लोमगर्त्त-एभ्यो लोमगर्त्तेभ्य ऊर्ध्वानि ज्योतींष्यान्। तद्यानि ज्योतींषिः एतानि तानि नक्षत्राणि। यावन्त्येतानि नक्षत्राणि तावन्तो लोमगर्त्ताः। (शतपथ
ब्राह्मण १०/४/४/२)
पुरुषो वै सम्वत्सरः॥१॥ दश वै सहस्राण्यष्टौ च शतानि सम्वत्सरस्य मुहूर्त्ताः। यावन्तो मुहूर्त्तास्तावन्ति पञ्चदशकृ त्वः क्षिप्राणि। यावन्ति क्षिप्राणि, तावन्ति पञ्चदशकृ त्वः
एतर्हीणि। यावन्त्येतर्हीणि तावन्ति पञ्चदशकृ त्व इदानीनि। यावन्तीदानीनि तावन्तः पञ्चदशकृ त्वः प्राणाः। यावन्तः प्राणाः तावन्तो ऽनाः। यावन्तोऽनाः तावन्तो निमेषाः।
यावन्तो निमेषाः तावन्तो लोमगर्त्ताः। यावन्तो लोमगर्त्ताः तावन्ति स्वेदायनानि। यावन्ति स्वेदायनानि, तावन्त एते स्तोकाः वर्षन्ति। (शतपथ ब्राह्मण १२/३/२/५) =
पुरुष संवत्सर है। दोनों में लोमगर्त्त की संख्या समान है। संवत्सर में १०,८०० मुहूर्त्त हैं (३६० दिन ३० मुहूर्त्त)। मुहूर्त्त को ७ बार १५-१५ से विभाजित करने पर
लोमगर्त्त होता है। उसका भी १/१५ भाग स्वेदायन है जो १ सेकण्ड का प्रायः ११,२०,००० भाग है। इतने समय में प्रकाश प्रायः २७० मीटर चलता है। इतनी ही
दूरी तक वर्षा की बून्दें (स्तोक) हवा में चलती हैं। अतः इसे स्वेद (जल विन्दु) का अयन (चलना) कहते हैं।
७. ज्ञान के स्तर
शैव दर्शन में ३ प्रकार के तत्त्वों की ३ विद्या कही गयी हैं-शुद्ध तत्त्व, शुद्धाशुद्ध तत्त्व, अशुद्ध तत्त्व। शिवसूत्र की स्वामी विष्णुतीर्थ टीका (योगश्री पीठ, ऋषीके श) में
इनकी ऋग्वेद के नासदीय सूक्त से तुलना की गयी है। शुद्ध तत्त्व सृष्टि का मूल है, उस समय देव भी नहीं थे, अतः वह जाना नहीं जा सकता है। अशुद्ध तत्त्व दृश्य
जगत् या प्रकृ ति के २४ तत्त्व हैं। इनको जान सकते हैं। गीता में ज्ञान प्राप्ति को कर्म का प्रभाव कहा गया है (कर्मचोदना)-
ज्ञानं ज्ञेयं परिज्ञाता त्रिविधा कर्मचोदना। करणं कर्म च कर्त्तेति त्रिविधः कर्मसंग्रहः॥१८॥
ज्ञानं कर्म च कर्त्ता च त्रिधैव गुणभेदतः। प्रोच्यते गुणसंख्याने यथावच्छृ णु तान्यपि॥१९॥
कर्म के ३ भाग हैं-कर्त्ता (ज्ञान अर्थ में द्रष्टा), करण (साधन), कर्म (वास्तविक क्रिया या दर्शन)
गुण के भेद या अनुभव ३ हैं-ज्ञान (जैसा या जितना ज्ञान है, उसी के अनुसार अनुभव), कर्म (किस प्रकार से देखा गया), कर्त्ता (द्रष्टा की योग्यता, प्रकृ ति के
अनुसार)।
ज्ञान प्राप्ति कर्म का हमारे भीतर प्रभाव (चोदना) है। सृष्टि का पूर्ण ज्ञान अनन्त है। इसका कु छ ही भाग जाना जा सकता है (ज्ञेय) जिस वस्तु का कु छ प्रकाश ध्वनि
आदि हम तक पहुंचती हो या उसका साम द्रष्टा तक हो। उससे भी बाहरी ज्ञान ही होता है-अतः ज्ञाता को परिज्ञाता कहते हैं।
आधुनिक सृष्टि विज्ञान का दार्शनिक विवेचन मैक द्वारा किया गया जिससे आइंस्टीन प्रभावित थे, यद्यपि उसमें थोड़ा परिवर्तन कर दिया। अर्नेस्ट मैक के ३ सिद्धान्त
कहे जाते हैं-
(१) ज्ञेय तत्त्व पर ही विज्ञ्न आधारित हो।
(२) सभी गति सापेक्ष है, विश्व का कोई स्थिर के न्द्र नहीं है। (शुद्धाशुद्ध तत्त्व-परिज्ञान)
(३) आकाश की सृष्टि (आधिदैविक) पर ही किसी वस्तु की गति आदि निर्भर है। (वेद की प्रतिमा विश्व का अंश)।
विकीपिडिया से मैक सिद्धान्त तथा कु छ सन्दर्भ उद्धृत किये जाते हैं-
Ernst Mach-Machian physics- (1) It should be based entirely on directly observable phenomena (in line
with his positivistic leanings.
(2) It should completely eschew absolute space and time in favor of relative motion.
(3) Any phenomena that would seem attributable to absolute space and time (e.g., inertia and centrifugal
force) should instead be seen as emerging from the large scale distribution of matter in the universe.
The last is singled out, particularly by Albert Einstein, as "the" Mach's principle. Einstein cited it as one
of the three principles underlying general relativity. In 1930, he stated that "it is justified to consider
Mach as the precursor of the general theory of relativity", though Mach, before his death, would
apparently reject Einstein's theory.[b] Einstein was aware that his theories did not fulfill all Mach's
principles, and no subsequent theory has either, despite considerable effort.
Knowledge and Error
Fundamentals of the Theory of Movement Perception
https://www.scribd.com/document/261471906/Knowledge-and-Error-Mach
https://www.dpz.eu/fileadmin/content/Neurobiologie/PDF/mach.pdf
A general book on perception can be seen on this link-
https://www.researchgate.net/publication/310832124_Perception_Theories
जैन दर्शन में ज्ञान के स्तर हैं-के वल ज्ञान, अवधि ज्ञान, श्रुति ज्ञान। विश्व में ज्ञान का अनन्त विस्तार के वल ज्ञान है। किसी तात्कालिक घटना का अनुभव श्रुति ज्ञान
है क्योंकि यह श्रुति आदि ५ ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से प्राप्त ज्ञान है। वेद मन्त्र इसी प्रकार ऋषि द्वारा प्राप्त इन्द्रिय तथा अतीन्द्रिय ज्ञान है, अतः वेद को श्रुति कहते हैं।
श्रुति से एक ही समय का ज्ञान होता है। समय के साथ क्या परिवर्त्तन हुआ, इसके लिये बार बार देखना पड़ता है। कई काल के ज्ञान को अवधि ज्ञान कहते हैं। यह
पुराण है-पुरा नवति इति पुराणः (निरुक्त)-पुराना कै से नया हुआ, या सृष्टि विज्ञान पुराण है। इतिहास के वल कालक्रम से घटनाओं का वर्णन है। इतिहास = इति ह
आस = ऐसा ही हुआ था। वह क्यों और कै से हुआ, यह पुराण है।
श्रुति के अनुसार स्मृति होती है (मनुस्मृति, २/७-९)। या रघुवंश (२/२) में कहा है श्रुतेरिवार्थं स्मृतिरन्वगच्छत्। इसका यह अर्थ नहीं है कि वेद के वल सुन कर याद
किया जाता था, लिखा नहीं जाता था। यदि के वल वंश या गुरु परम्परा से सुन कर रटा जाय तो के वल उसी ऋषि मे मन्त्र याद रहेंगे। अन्य काल या स्थान के ऋषियों
के क्या मन्त्र थे यह नहीं जान सकते हैं। इनकी संहिता या संकलन तभी हो सकता है जब वे लिखित रूप में हों। ऐसा संकलन मनुष्य ब्रह्मा (स्वायम्भ्व मनु) से कृ ष्ण
द्वैपायन तक २८ ब्रह्मा ने किया है। श्रुति तथा स्मृति दो भिन्न वस्तु हैं, सुन कर स्मरण करने की कोई चर्चा नहीं है-
श्रुतिस्तु वेदो विज्ञेयो धर्मशास्त्रं तु वै स्मृतिः (मनुस्मृति, २/१०)
आधुनिक प्रचार के अनुसार श्रुति (वेद) सुन कर स्मृति याद हो जायेगी, जैसे भौतिक विज्ञान पढ़ने पर रसायन शास्त्र याद हो जायेगा।
श्रुति अनुभव जन्य ज्ञान है। धर्मशास्त्र या कानून को स्मृति इसलिये कहते हैं क्योंकि सबको धर्म-अधर्म का स्वाभाविक ज्ञान रहता है। कोई अपराधी हत्या करने के
बाद यह तर्क नहीं दे सकता कि उसे पता नहीं था कि हत्या भी अपराध होता है। कानून की डिग्री पाना जरूरी नहीं है।
८. वेद का वर्गीकरण
वेद को त्रयी कहते हैं पर संख्या रूप में इसका अर्थ ४ है।
त्रयी = १ मूल + ३ शाखा।
इसका प्रतीक पलास दण्ड है जिससे ३ पत्ते निकलते हैं, अतः वेदारम्भ संस्कार में पलास दण्ड का प्रयोग किया जाता है और वेद स्रष्टा ब्रह्मा का भी प्रतीक है।
यस्मिन् वृक्षे सुपलाशे देवैः सम्पिबते यमः। अत्रा नो विश्यतिः पिता पुराणां अनु वेनति॥ (ऋक् १०/१३५/१)
सर्वेष्ं वा एष वनस्पतीनां यानिर्यत् पलासः। (स्वायम्भुव ब्रह्मरूपत्त्वात्) -ऐतरेय ब्राह्मण २/१)
ब्रह्म वै पलाशस्य पलाशम्। (शतपथ ब्राह्मण २/६/२/८)
ब्रह्म वै पलाशः। (शतपथ ब्राह्मण १/३/३/१९)
आकाश में मूल परात्पर अव्यक्त धाम से ३ धाम हुए-परम (ब्रह्माण्डों का समूह, स्वायम्भुव मण्डल), मध्यम (ब्रह्माण्ड या परमेष्ठी मण्डल), अवम (सौर मण्डल)-
या ते धामानि परमाणि यावमा या मध्यमा विश्वकर्मन्नुतेमा । (ऋग्वेद १०/८१/४)
इसी प्रकार एक मूल अथर्व वेद से ऋक् , यजुः साम-३ शाखायें निकलीं तथा मूल भी बचा रहा-
ब्रह्मा देवानां प्रथमं सम्बभूव विश्वस्य कर्ता भुवनस्य गोप्ता। स ब्रह्म विद्यां सर्व विद्या प्रतिष्ठामथर्वाय ज्येष्ठ पुत्राय प्राह। अथर्वणे यां प्रवदेत ब्रह्मा ऽथर्वा तां पुरो वाचाङ्गिरे
ब्रह्म-विद्याम्। स भरद्वाजाय सत्यवहाय प्राह भरद्वाजो ऽङ्गिरसे परावराम्। (मुण्डकोपनिषद्,१/१/१,२)
द्वे विद्ये वेदितव्ये- ... परा चैव, अपरा च। तत्र अपरा ऋग्वेदो, यजुर्वेदः, सामवेदो ऽथर्ववेदः, शिक्षा, कल्पो, व्याकरणं, निरुक्तं , छन्दो, ज्योतिषमिति। अथ परा यया
तदक्षरमधिगम्यते। (मुण्डक उपनिषद्, १/१/४,५)
इसी प्रकार मन्त्र संहिता से ३ शाखायें निकलीं-ब्राह्मण, आरण्यक, उपनिषद्। ३ शाखाओं को मिलाकर भी ब्राह्मण ही कहते हैं।
मन्त्र ब्राह्मणयोर्वेद नामधेयम् (आपस्तम्ब श्रौत सूत्र, २४/१/३१, सत्याषाढ़ श्रौत सूत्र, १/१/७, बौधायन गृह्य सूत्र, २/६/३)
(१) मन्त्र या संहिता (मन्त्रों का सङ्कलन)-मन्त्र मन से सम्बन्धित हैं-मननात् त्रायते इति मन्त्रः--जो मनन द्वारा त्राण करे वह मन्त्र है। मनुष्य का मन स्वयम्भू तथा
ब्रह्माण्ड की प्रतिमा है-सभी में १०० अरब (खर्व) कण हैं। भ्रूमध्य का आज्ञा चक्र तपःलोक की प्रतिमा है। ब्रह्माण्दों के सङ्कलन की तरह मन्त्रों का सङ्कलन है।
(२) ब्राह्मण-यह ब्रह्माण्ड का प्रतिरूप है जो विश्व की सबसे बड़ी रचना के रूप में समझा जाता है।
(३) आरण्यक-यह सौर मण्डल की प्रतिमा है जिसकी अरा (किनारा या पर्व) से समय की माप होती है।
तमेकनेमिं त्रिवृतं षोडशान्तं शतार्धारं विंशति प्रत्यराभिः।
अष्टकैः षड्बिर्विड्वरूपैकपाशं त्रिमार्ग भेदं द्विनिमित्तैक मोहम्॥
(श्वेताश्वतर उपनिषद्, १/४)
= विश्व चक्र का एक धुरा (नेमि),३ आवरण, १६ अरा (किनारा), ५० धार, २० छोटे किनारे, ६ अष्टक तथा ३ मार्ग हैं। मोह तथा उसके २ कारणों से मुक्ति के
मार्ग हैं-भक्ति, क्रिया, ज्ञान। ये ३ मार्ग विशेषतः भक्ति आरण्यक का मुख्य विषय है।
पञ्चपादं पितरं द्वादशाकृ तिः दिव आहुः परे अर्धे पुरीषिणम्।
अथेमे अन्य उ परे विचक्षणं सप्त चक्रे षडर आहुरर्पितम्॥
(ऋक् , १/१६४/१२, श्वेताश्वतर उपनिषद्, १/११)
= संवत्सर रूप प्रजापति के ५ पाद (ऋतु), पितर (संसार उत्पन्न करने वाले हैं। उनकी १२ आकृ ति (मास) है। इसका बाहरी आधा भाग (अहर्गण माप से) परार्ध
योजन का है तथा जल रूप (वरुण-क्षेत्र, शनि से अन्धकार दिशा में)। अन्य लोग इसे ७ चक्र (छन्द, युग या योजन की माप, लोक, या ग्रह) तथा ६ अरा (ऋतु) के
रथ में बैठा बताते हैं।
(४) उपनिषद् (उप = निकट, निषद् = बैठना)-यह पृथ्वी के समरूप है, जो सृष्टि का आधार है। इस पर पाद रखा जाता है, अतः यह पद्म है, अथवा सृष्टि निर्माण
का अन्तिम स्तर है। प्रथम रूप शीर्ष है (ऊर्ध्वमूलं-गीता, १५/१)। उपनिषद् में भी अन्तिम निष्कर्ष है, जो पूर्व वर्णनों का स्थिर सिद्धान्त है-
अरण्यमियान्नपुनरेयात्-इत्युपनिषत् (ब्रह्मसूत्र, ३/४/४०-शाङ्कर भाष्य)
नाना तु विद्या अविद्या च। स यदेव विद्यया करोति, श्रद्धया उपनिषदो तदेव वीर्य्यवत्तरं भवति (छान्दोग्य उपनिषद्, १/१/१०)
तस्योपनिषदहरिति, तस्योपनिषदहमिति (बृहदारण्यक उपनिषद्, ६/५)
तस्माद्वा अप उपस्पृशति-इत्युपनिषत् (शतपथ ब्राह्मण, १/१/१/१)
तस्य वा एतस्याग्नेर्वागेव उपनिषत्, अथादेशा उपनिषदाम् (शतपथ ब्राह्मण, १०/४/५/१)
अथ खल्वियं सर्वस्यै वाच उपनिषत् (ऐतरेय आरण्यक, ३/२/५)
तत्र विदिते सांख्ये औपनिषदे ब्राह्मणि विषयः (गीता, २/३१, नीलकण्ठी व्याख्या)
वेदस्योपनिषत् सत्यम्, सत्यस्योपनिषद्दमः। दमस्योपनिषद्दानं, दानस्योपनिषत्तपः।
तपसोपनिषत्त्यागस्त्यागस्योपनिषत्सुखम्। सुखस्योपनिषत्स्वर्गः स्वर्गस्योपनिषच्छमः॥
महाभारत, शान्ति पर्व, मोक्ष पर्व, २५१/११,१२) वेद के ४ विभागों का प्रायः ५० प्रकार से तैत्तिरीय ब्राह्मण में वर्णन है, जिनमें एक है-
ऋग्भ्यो जातां सर्वशो मूर्त्तिमाहुः, सर्वा गतिर्याजुषी हैव शश्वत्।
सर्वं तेजं सामरूप्यं ह शश्वत्, सर्वं हेदं ब्रह्मणा हैव सृष्टम्॥ (तैत्तिरीय ब्राह्मण, ३/१२/८/१)
इस विभाजन के आधार पर विद् धातु के भी ४ अर्थ हैं-
तत्त्व वेद विद् धातु का अर्थ
मूर्त्ति ऋक् सत्ता (स्थिति)-विद् सत्तायाम् (पाणिनीय धातुपाठ, ४/६०)
गति यजुः लाभ (प्राप्ति)-विद्लृ लाभे (६/१४१)
ज्ञान साम ज्ञान-विद् ज्ञाने (२/५७)
सन्दर्भ अथर्व विचार करना-विद् विचारणे (७/१३)
विद् चेतनाख्यान निवासेषु (१०/१७७)
सनातन ब्रह्म रूप अथर्व वेद के ३ भागों को अग्नि, वायु रवि भी कहते हैं-
अग्नि वायु रविभ्यस्तु त्रयं ब्रह्म सनातनम्। दुदोह यज्ञ सिद्ध्यर्थं ऋग्यजुस्साम लक्षणम्॥ (मनुस्मृति, १/२३)
ऋक् तथा अन्य वेदों में भी अथर्व का प्रथम वेद के रूप में उल्लेख है-
त्वामग्ने पुष्करादध्यथर्वा निरमन्थत। मूर्ध्नो विश्वस्य बाधतः॥१३॥
तमु त्वा दध्यङ्ङृ षिः पुत्र ईधे अथर्वणः। वृत्रहणं पुरन्दरम्॥१४॥
(ऋक् , ६/१६/१३-१४, वाज. यजु. ११/३२-३३, १५/२२-२३, साम, ९/१०, तैत्तिरीय सं. ३/५/११/३-४, ४/४/१)
९. वेद शाखा विभाजन
ब्रह्म सम्प्रदाय की परम्परा-१. ब्रह्मा (स्वायम्भुव मनु), २. वसिष्ठ, ३. शक्ति, ४. पराशर, ५. कृ ष्ण द्वैपायन व्यास। व्यास के ४ शिष्यों से ४ वेदों की परम्परा चली-
१. पैल-ऋक् , वैशम्पायन-यजु, जैमिनि-साम, सुमन्तु-अथर्व। (विष्णु पुराण, अंश ३ के अध्याय ३-६ में २८ व्यासों की सूची तथा शाखा विभाग दिये गये हैं। यहां
की सूची शतपथ ब्राह्मण हरिस्वामी भाष्य में दीनानाथ चुलेट शास्त्री की भूमिका से है।
ऋग्वेद का ब्रह्म सम्प्रदाय-
भगवान् वेदव्यास
श्रुतर्षि पैल
६. इन्द्रप्रमिती १. बाष्कलिः
माण्डू के य
सत्यश्रवाः बोध्यः अग्निमाता पाराशरः याज्ञवल्क्यः शांखायनः (कौषीतकिः)
२ ३ ४ ५ २१
सत्यहितः
सत्यश्रियः
७ रथीतरः ८ शाकल्यः ९ भारद्वाजः
पैलजः छत्रवलाक आश्वलः १० मुद्गलः
१५ १६ १७ ११ गोखलः तापनापः पन्नगारिः आर्जवः
१२ सुतपाः १८ १९ २०
१३ वत्सः
१४ शैशिरी
ब्रह्म सम्प्रदाय में कृ ष्ण यजुर्वेद की शाखायें-
१. वैशपायनः २. विदः ६४. प्राच्यकठः
२. लौहित्यः ३५. भार्गवः ६५. कापिष्ठलकठः
३. शावधः ३६. मधुकः ६६. वारायणः
४. पलाण्डुः ३७. पिङ्गः ६७. चारायणः
५. आलम्बिः ३८. श्वेतके तुः ६८. श्वेतः
६. कलिङ्गः (पलः) ३९. प्रजादर्पः ६९. श्वेताश्वतरः (उपमन्युः)
७. कमलाहः ४०. कहोडः ७०. पाताण्डिः
८. ऋचाभः ४१. याज्ञवल्क्यः ७१. मैत्रेयः
९. आरुणिः ४२. शौनकः ६१-७१ इति चरणव्यूहे
१०. तण्डी ४३. आनङ्गः चरकाणां १२ भेदाः
११. श्यामायनः ४४. उनिरः ७२. मनुः
१२. कठः ४५. तालः ७३. वराहः
१३. कलापः ४६. यास्कः (पैङ्गिः) ७४. दुन्दुभिः
१४. चुलभिः ४७. खाण्डायनः कठान्तेवासी ७५. एकिः
१५. सुमतिः ४८. पिञ्जुलकठः क्रौञ्चद्वीपे ७६. हरिद्रुः
१६. देववरः ४९. औदलकठः शाकद्वीपे ७७. श्यामः
१७. अनुकृ ष्णः ५०. सपिच्छलकठः " श्यामायनः
१८. आयुः ५१. मुद्गलकठः काश्मीरदेशे ७२-७७ इति चरणव्यूहे
१९. अनुभूमिः ५२. शृङ्गलकठः सृजदेशे मैत्रायणीयानां सप्त भेदाः
२०. आप्रीतः ५३. सौभरकठः सिंहलदेशे ७८. हारिद्रुणः
२१. कशाश्वः ५४. मौरसकठः कु शद्वीपे ७९. छागलिः
२२. सुनूलिः ५५. चुचुककठः यवनदेशे ८०. तुम्बुरुः
२३. वाष्कलिः ५६. योगकठः " ८१. उलुपिः
२४. शुकः ५७. हापिलकठः " ७८-८१ इति कलापानां
२५. लौकिः ५८. दौसलकठः सिंहलदेशे चत्वारो भेदाः पातञ्जलमहाभाष्ये
२६. भूरिश्रवाः ५९. धौषकठः क्रौञ्चद्वीपे तत्त्वबोधिन्यां च
२७. सोमाविः ६०. जृम्भकठः श्वेतद्वीपे ८२. आसुरिः
२८. आतुनान्तक्यः ४८-६० इति १३ कठाः ८३. गर्गः
२९. धौम्यः ------- ८४. शर्क्क राक्षः
३०. काश्यपः ६१. चरकः ८५. मृगः
३२. इलकः ६२. भ्राजिष्ठकठः ८६. वसवः
३३. उपमन्युः भृष्ठकपिष्ठलकठः ८२-८६ इति हारिद्रूणविणां
पञ्चभेदाः चरणव्यूहे।
ब्रह्म सम्प्रदाय में सामवेद शाखाजैमिनिः
सुमन्तु
सुत्वा
सुकर्मा
पौष्यञ्जिः कौशिक्यो हिरण्यनाभः
लोकाक्षिः कु थुमिः १५ कु शिटिः १६ लाङ्गलिः
सौमित्रिस्तण्डि ५ रसपारसः पाराशरः १३ भागवित्तिः १४. तेजस्वी
पुत्रो राणायनीयः राडः १
मूलचारी आसुरायणः महावीर्यः २
मूलचारी पञ्चमः ३
सुके तिपुत्र शृङ्गिपुत्रः वैशाखी वाहनः ४
प्राचीनयोगपुत्रः पतञ्जलिः तालकः ५
चैलः प्राचीनयोगः सुरालः सहसात्यपुत्रः लाङ्गलिः पाण्डकः ६
१ २ ३ ४ ५ कालिकः ७
कृ त्तिः राजकः ८
गौतमः ९
आजबस्तः १०
सोमराजः ११
पृष्ठघ्नः १२
परिकृ ष्टः १३
उलूखलकः १४
यवीयः १५
६. भालुकिः ७. कामहानिः ८. जैमिनिः ९. लोमगामी वैशालः १६
१०. कण्डः ११. कोलहः १२. शालिहोत्रः अङ्गुलीयः १७
कौशिकः १८
सालिः १९
मञ्जरिः २०
सत्यः २१
कापीयः २२
कानिकः २३
पाराशरः २४
ब्रह्म सम्प्रदाय में अथर्ववेद शाखा
सुमन्तुः
कबन्धः
पथ्यः वेदस्पर्शः
जाजलिः कु मुदादिः शौनकः मोदः ब्रह्मबलः पिप्पलादः शौक्कायनिस्तपनः
बभ्रुः सैन्धवायनः
मुञ्जके शः
आदित्य सम्प्रदाय में वेद शाखा
आदित्य
योगीश्वर याज्ञवल्क्यः
शांखायनः कण्वमाध्यन्दिनादिः सामश्रवा (कौथुमः) शौनक प्रभृतिः
ऋग्वेदी यजुर्वेदी सामवेदी अथर्ववेदी
आदित्य सम्प्रदाय में ऋग्वेद शाखा-
योगीश्वर याज्ञवल्क्य
शांखायनः कौषीतकी
आदित्य सम्प्रदाय में शुक्ल यजुर्वेद की १५ शाखा
योगीश्वर याज्ञवल्क्यः
१. जाबालाः नार्मदाः वैदर्भदेशे
२ बौधेयाः रणावटाः दक्षिणे देशे आभीरे गुर्जरे
३. कण्वाः क्वचित् कर्णावटाः इत्यपि ख्याताः कर्णाटके द्राविडे महाराष्ट्रे
४. माध्यन्दिनाः प्रायः सर्वत्र (उत्तर प्रदेशे सरयूपारीणा इति) श्रुताः
५. शापेयाः नागराः गुर्जर देशे
६. तापायनीयाः नारमर्दवाः नर्मदा तीरे (नेमाड प्रान्ते)
७. कपोलाः भृगु गौडाः गुर्जर देशे (भगोरा, भार्गव इति) श्रुताः
८. पौण्ड्र वत्साः त्रिवाडी मेवाडा इति ख्याता गुर्जर देशे
९. आवटिकाः श्रीमाळवी इति ख्याता गुर्जर देशे
१०. परमावटिकाः आद्यगौडाः मरुदेशे (मारवाड प्रान्ते)
११. पाराशराः गुर्जरदेशे मरुदेशे च प्रसिद्धाः
१२. वैनधेयाः कं कराः बौध्य पर्वते (बुअध जिला, ओडिशा)
१३. गालवाः माळवी इति ख्याताः वैदर्भे सौराष्ट्रे च (काठियावाड प्रान्ते)
१४. कात्यायनाः कास्ताः वैदर्भे नर्मदा संगमे महाराष्ट्रे च
१५. बैजवापाः नारायण सरोवर प्रदेशे (काठियावाड प्रान्ते)
आदित्य सम्प्रदाय में सामवेद शाखा
योगीश्वर याज्ञवल्क्य
सामश्रवाः कु थुमिः
रसपारसः पाराशरः भागवित्तिः तेजस्वी
आसुरायणः
वैशाखी
प्राचीनयोगपुत्रः पतञ्जलिः
लाङ्गलिः
भालुकिः कामहानिः शालिहोत्रः जैमिनिः लोमगामी
कण्डः कोलहः
आदित्य सम्प्रदाय में अथर्ववेद शाखा
योगीश्वर याज्ञवल्क्यः
शौनकः
कु मुदादिः जाजलिः जाबालः सैन्धवायनः बभ्रुः
मुञ्जके शः
चरण व्यूह में सामवेद के भेद
राणायनीय सालमुख्य कालाप महाकालाप कौथुम लाङ्गलिक
सारायणीय वातरायणीय वैधृत प्राचीन तैजस अनिष्टक
राणायनीय के ९ भेद में लाङ्गल और कौथुम कहे गये हैं। अन्य ७ भेद हैं- शाट्यायनीय, सात्वत, मौद्गल, खल्वल, महाखल्वल, गौतम, जैमिनीय।
साम तर्पण विधि के १३ एद इस प्रकार हैं-१. राणायण, २. शाट्यमुन्य, ३. व्यास, ४. भागुरि, ५. औलुण्डि, ६. गौल्गुलवी, ७. भानुमान औपमन्यव, ८. काराटि,
९. मशक गार्ग्य, १०. वार्षगण्य, ११. कु थुम, १२. शालिहोत्र, १३. जैमिनीय।
१०. कृ ष्ण द्वैपायन द्वारा शाखा विभाजन
वेदों का संकलन २८ व्यासों द्वारा हुआ। व्यासों की सूची तथा कृ ष्ण द्वैपायन द्वारा शाखा विभाजन पुराणों में दिया है।
कू र्म पुराण, अध्याय ५२-अस्मिन्मन्वन्तरे पूर्वं वर्त्तमाने महान् प्रभुः। द्वापरे प्रथमे व्यासो मनुः स्व्वायम्भुवो मतः॥१॥
बिभेद बहुधा वेदं नियोगाद् ब्रह्मणः प्रभोः। द्वितीय द्वापरे चैव वेदव्यासः प्रजापतिः॥२॥
तृतीये चोशना व्यासश्चतुर्थे स्याद् बृहस्पतिः। सविता पञ्चमे व्यासः षष्ठे मृत्युः प्रकीर्तितः॥३॥
सप्तमे च तथैवेन्द्रो वसिष्ठश्चाष्टमे मतः। सारस्वतश्च नवमे त्रिधामा दशमे मतः॥४॥
एकादशे तु ऋषभः सुतेजा द्वादशे स्मृतः। त्रयोदशे तथा धर्मः सुचक्षुश्च चतुर्दशे॥५॥
त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोडशे तु धनञ्जयः। कृ तञ्जयः सप्तदशे ह्यष्टादशे ऋतञ्जयः॥६॥
ततो व्यासो भरद्वाजस्तस्मादूर्ध्वं तु गौतमः। वाचश्रवाश्चैकविंशे तस्मान्नारायणः परः॥७॥
तृणबिन्दुस्त्रयोविंशे वाल्मीकस्तत्परः स्मृतः। पञ्चविंशे तथा प्राप्ते यस्मिन्वै द्वापरे द्विजाः॥८॥
पराशरसुतो व्यासः कृ ष्णद्वैपायनोऽभवत्। (सप्तविंशे तथा व्यासो जातूकर्णो महामुनिः)
स एव सर्व वेदानां पुराणानां प्रदर्शकः॥९॥
पाराशर्यो महायोगी कृ ष्णद्वैपायनो हरिः। आराध्य देवमीशानं दृष्ट्वा स्तुत्वा त्रिलोचनम्॥१०॥
तत् प्रसादादसौ व्यासं वेदानामकरोत् प्रभुः॥११॥
अथ शिष्यान् स जग्राह चतुरो वेदपारगान्। जैमिनिश्च सुमन्तुश्च वैशम्पायनमेव च॥१२॥
पैलं तेषां चतुर्थश्च पञ्चमं मां (सूत) महामुनिः। ऋग्वेदपाठकं पैलं जग्राह स महामुनिः॥१३॥
यजुर्वेद प्रवक्तारं वैशम्पायनमेव च। जैमिनिं सामवेदस्य पाठकं सोऽन्वपद्यत॥१४॥
तथैवाथर्ववेदस्य सुमन्तुमृषिसत्तमम्। इतिहासपुराणानि प्रवक्तुं मामयोजयत्॥१५॥
एक आसीद्यजुर्वेदस्तं चतुर्द्धा प्रकल्पयत्। चतुर्होत्रमभूत्तस्मिंस्तेन यज्ञमथाकरोत्॥१६॥
आध्वर्यवं यजुर्भिः स्यादग्निहोत्रं द्विजोत्तमाः। औद्गात्रं सामभीश्चक्रे ब्रह्मत्वश्चाप्यथर्वभिः॥१७॥
ततः सत्रे च उद्धृत्य ऋग्वेदं कृ तवान् प्रभुः। यजूंषि तु यजुर्वेदं सामवेदं तु सामभिः॥१८॥
एकविंशतिभेदेन ऋग्वेदं कृ तवान् पुरा। शाखानान्तु शतेनैव यजुर्वेदमथाकरोत्॥१९॥
सामवेदं सहस्रेण शाखानां प्रविभेद सः। अथर्वाणमथो वेदं बिभेद कु शके तनः॥२०॥
भेदैरष्टादशैर्व्यासः पुराणं कृ तवान् प्रभुः। सोऽयमेकश्चतुष्पादो वेदः पूर्वं पुरातनः॥२१॥
व्याकरण महाभाष्य-उपलब्धौ यत्नः क्रियताम्। महान् शब्दस्य प्रयोगविषयः। सप्तद्वीपा वसुमती, त्रयो लोकाः, चत्वारो वेदाः साङ्गाः सरहस्याः बहुधा भिन्नाः-
एकशतमध्वर्युशाखाः, सहस्रवर्त्मा सामवेदः, एकविंशतिधा बाहवृच्यं, नवधाऽऽथर्वणो वेदः। वाकोवाक्यं, इतिहासः, पुराणं, वैद्यकमित्येतावाञ्छब्दस्य प्रयोगविषयः॥
(पतञ्जलि, व्याकरण महाभाष्य, १/१/१)
ऋग्वेदस्य तु शाखाः स्युरेकविंशति संख्यकाः। नवाधिकशतं शाखा यजुषो मारुतात्मज॥१२॥
सहस्रसंख्यया जाताः शाखाः साम्नः परन्तप। अथर्वणस्य शाखाः स्युः पञ्चाशद् भेदतो हरे॥१३॥ (मुक्तिकोपनिषद्)
एकविंशति शाखायामृग्वेदः परिकीर्तितः। शतं च नव शाखासु यजुषामेव जन्मनाम्॥
साम्नां सहस्रशाखाः स्युः पञ्चशाखा अथर्वणः॥ (सीतोपनिषत्, ५)
शाखा विभाजन का अर्थ-स्वायम्भुव मनु के समय से ब्रह्म सम्प्रदाय की शाखायें थीं। विश्व के विभिन्न भागों मे कु छ भिन्न प्रकार से संकलन हुआ था। कृ ष्ण यजुर्वेद की
शाखाओं का प्रचार पुष्कर द्वीप के अतिरिक्त अन्य सभी द्वीपों में था। पुष्कर द्वीप में हिरण्याक्ष का शासन था जिसने वेदों को नष्ट कर दिया था। रामायण के अनुसार
श्वेताश्वतर शाखा को नष्ट किया था-
आनयेयं तवादेशाच्छ्वेताश्मश्वतरीमिव। युक्तं यत्प्राप्नुयाद्राज्यं सुग्रीवः स्वर्गते मयि (किष्किन्धा काण्ड, १३/५०)
ब्रह्माण्ड पुराण (१/१/२०/३६) के अनुसार रसातल या पुष्कर द्वीप (दक्षिण अमेरिका) में हिरण्याक्ष का शासन था। अतः श्वेताश्वतर शाखा का नया रूप उपमन्यु
द्वारा वर्णित है। कश्यप के समय आदित्य थे, या विवस्वान् को आदित्य कहा जा सकता है जिनके पुत्र वैवस्वत मनु थे। उनके समय आदित्य सम्प्रदाय आरम्भ हुआ।
इसका उद्धार याज्ञवल्क्य द्वारा हुआ। महाभारत काल में वर्णित शुक्ल यजुर्वेद की शाखाओं का के वल भारत में ही विस्तार दिखाया गया है। व्यास के द्वारा एक तार्कि क
विभाजन विश्व के तत्त्वों के अनुसार है जिसका उल्लेख कू र्म पुराण आदि में पतञ्जलि के महाभाष्य में भी है।
वेद में १० आयाम के विश्व का वर्णन है। एक रेखा पर शून्य से १० आगे तथा १० पीछे २१ विन्दु होंगे। या अथर्व वेद शौनक शाखा के प्रथम मन्त्र के अनुसार विश्व
का विभाजन २ प्रकार से है, ३ तथा ७ में। दोनों मिलाकर ३ x ७ = २१ भाग होंगे अतः मूर्ति रूप ऋक् की २१ शाखा होंगी। यजुर्वेद गति का वर्णन करता है, १०
आयाम में १० प्रकार की गति तथा एक स्थिर स्थान मिला कर १० x १० +१ = १०१ शाखा होंगी। सामवेद १०० विदुओं की १० प्रकार महिमा होगी।अतः
सामवेद की १० x १० x १० = १००० शाखायें हैं। आकाश में महिमा या प्रभाव क्षेत्र १००० गुणा दूरी तक रहता है। मनुष्य भी १००० व्यक्तियों से ही व्यक्तिगत
स्म्बन्ध रख सकता है। अतः इसे सह+स्र = साथ चलना कहते हैं। पर आकाश में पृथ्वी का १००० गुणा या २ घात १० की माप १०+३ = १३ अहर्गण होती है,
अतः व्यवहार में सामवेद की १३ शाखा ही हैं जिनका साम तर्पण विधि में निर्देश है।
अथर्ववेद की ५० या ९ शाखा कही गयी हैं। पृथ्वी का ५० गुणा क्षेत्र २ घात ६ अर्थात् ९ अहर्गण है। अतः शब्द रूप में ९ शाखा हैं।
११. उपलब्ध वेद शाखा
व्याख्यान अतथा अध्यापन क्रम से ऋग्वेद की ५ शाखायें हैं-१. शाकल, २. वाष्कल, ३. आश्वलायन, ४. शाङ्खायन, ५. माण्डू के य। इसकी अन्य शाखाओं का भी
उल्लेख है-१. गालव, २. शालीय, ३. रौशिरि, ४. पराशर, ५. जातूकर्ण्य, ६. शांखायन, क् ७. कौषीतकि, ८. महाकौषीतकि, ९. शाम्ब्य, १०. बह्वृच, ११. पैङ्ग्य,
१२. उद्दालक, १३. गज, १४. वाष्कलि की ३ शाखायें, १५. ऐतरेय, १६. वसिष्ठ, १७. सुलभ, १८. शौनक।
वाष्कल की मन्त्र संख्या १०,६२२ तथा शाकल की १०,३८१ है। पर वेद का अधिकांश लुप्त होने के कारण इसमें मतभेद है। मन्त्र संख्या १०,४०२ से १०,६२८
तक, शब्द संख्या १,५२,८२६ तथा शब्दांश संख्या ४,३२,००० है जो कलियुग की वर्ष संख्या है। इस कारण यह भी अनुमान किया जाता है कि ऋग्वेद के मन्त्रों
में ज्योतिष का सिद्धान्त तथा ग्रहों की प्रतिवर्ष या युग के बाद की स्थिति है। वर्तमान युग में शाकल्य संहिता उपलब्ध है जिसमें ११ बालखिल्यों (खिल = परिशिष्ट
या उपसंहार) मिला कर १०२८ सूक्त हैं। इसका २ प्रकार से विभाजन किया गया है। एक विभाजन में १० मण्डल, ८५ अनुवाक् और २००८ वर्ग हैं। दूसरे विभाजन
के अनुसार ८ अश्ःटक, ६४ अध्याय तथा १०२८ सूक्त हैं। अभी आश्वलायन संहिता का भी प्रकाशन हुआ है। इसके भी २ प्रकार के विभाजन हैं-१० मण्डल
अनुवाक् तथा सूक्त में विभाजित हैं जिनमें १०७६१ मन्त्र हैं जो शाकल संहिता से २०९ मन्त्र अधिक हैं। अन्य प्रकार से यह ८ अश्ःटक तथा ६४ अध्याय में
विभाजित है। २०१९ में श्री अमलधारी सिंह के २० वर्ष के परिश्रम से शांखायन संहिता ४ खण्डों में सान्दीपनी वेदविद्या प्रतिष्ठान उज्जैन से प्रकाशित हुई है।
शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयि संहिता में ४० अध्याय, ३०३ अनुवाक् एवं १९७५ कण्डिका हैं। काण्व संहिता में ४ दशक, ४० अध्याय, ३२८ अनुवाक् तथा २०८६
मन्त्र हैं। कृ ष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी शाखा में ४ काण्ड, ५४ प्रपाठक, ६५४ अनुवाक् तथा ३,१४४ कण्डिका हैं। कठ शाखा में ५ खण्ड, ४० स्थानक, (+१३
अनुवचन), ८४३ अनुवाक् , ३०९१ मन्त्र हैं। कपिष्ठल शाखा का अधूरा रूप वाराणसी में उपलब्ध था जिसके आधार पर श्री रघुवीर ने १९४१ में इसका संस्करण
प्रकाशित किया। ऋग्वेद के समान यह अष्टक तथा अध्याय में विभक्त है। कृ ष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता ७ काण्ड, ४४ प्रश्न या अध्याय, ६५१ अनुवाक् या
प्रकरण तथा २१९८ कण्डिका में विभक्त है। १ कण्डिका में नियमतः ५५ शब्द होते हैं। इस शाखा के सभी ग्रन्थ उपलब्ध होने के कारण सामान्यतः इसे ही कृ ष्ण
यजुर्वेद कहा जाता है। मैत्रायणी संहिता श्री सातवलेकर जी द्वारा वलसाड (गुजरात) से प्रकाशित है।
सामवेद-इसमें के वल राणायणी, कौथुमी, तथा जैमिनीय शाखायें उपलब्ध हैं। एनीबेसण्ट की पुस्तक सेक्रे ट डाक्टरिन में कु थुमि मुनि के दर्शन का उल्लेख है जिनको
उन्होंने कू टहूमि लिखा है। कौथुमी शाखा का भाष्य सहित प्रकाशन तिरुपति के राष्ट्रीय संस्कृ त विद्यापीठ से पण्डित बेल्लिकोठ रामचन्द्र शर्मा द्वारा हो रहा था। हार्वर्ड
विश्वविद्यालय ने उनको १ करोड़ रुपये में यह करीदने का प्रस्ताव दिया पर उन्होंने कहा कि वेद बेचने की चीज नहीं है। इस अपराध के कारण राधाकृ ष्णन् ने
राष्ट्रपति बनते ही श्री रामचन्द्र शर्मा को बर्खास्त किया तथा प्रेस से तैयार पाण्डु लिपि को वापस लाकर हार्वर्ड को बेच दिया और पैसा स्वयं रख लिया। के वल २ ही
खण्डों का संशोधन हो पाया था जो हार्वर्ड से प्रकाशित हो पाये। बाकी २ भाग संशोधक के अभाव में अभी तक प्रकाशित नहीं हो पाये हैं। पूर्ण रूप में के वल जैमिनि
शाखा ही उपलब्ध है जिसे आजकल सामवेद कहा जाता है।
कौथुमीय शाखा मन्त्र जैमिनीय शाखा मन्त्र
पूर्वार्चिक ५८५ ५८७
आरण्यक ५१ ५९
उत्तरार्चिक १२२५ १०४१
महानाम्नि ६ ६
योग १८७५ १६९३
कौथुमीय गान जैमिनीय गान
ग्रामगेय गान ११९७ १२३२
आरण्यक गेय गान २९४ २९१
ऊह गान १०२६ १८०२
ऊह्य गान २०५ ३५६
योग २७२२ ३६८१
अथर्ववेद की ९ शाखायें कही गयी हैं-पैप्पल, दान्त, प्रदान्त, स्नात, सौत्न, ब्रह्मदावल, शौनक, दैवीदर्शनी, चरणविद्या।
अथर्ववेद की मन्त्र संख्या १२,३०० है किन्तु वर्तमान उपलब्ध शौनक शाखा में २० काण्ड, ३८ प्रपाठक, ७६० सूक्त तथा ६००० मन्त्र हैं। किसी किसी शाखा में
८० अनुवाक् भी हैं। पिप्पलाद शाखा की एक प्रति कश्मीर राजा के पास जम्मू संग्रहालय में थी जिसे चुरा कर जर्मनी के कै सर संस्था में रखा गया। वहां से डा.
रघुवीर ने लिख कर उसे प्रकाशित किया था। ओड़िशा संग्रहालय की प्रैति को विश्वभारती के श्री दीपक भट्टाचार्य ने २ खण्डों में प्रकाशित किया। ओड़िशा के गांवों से
५ प्रतियां संग्रह कर पुरी के पण्डित कु ञ्ज बिहारी उपाध्याय ने संशोधित पैप्पलाद संहिता २००१० में प्रकाशित की।
ब्राह्मण ग्रन्थ-ऋग्वेद-१. ऐतरेय ब्राह्मण में ४० अध्याय (८ पञ्चिका) २८५ कण्डिका हैं।
२. शांखायन ब्राह्मण में ३० अध्याय, तथा २२६ खण्ड हैं।
३. कौषीतकि ब्राह्मण।
यजुर्वेद-शुक्ल-१. माध्यन्दिन शतपथ ब्राह्मण में १४ काण्ड, १०० अध्याय ४३८ ब्राह्मण तथा ७,६२४ कण्डिका हैं। काण्व शतपथ ब्राह्मण में १७ काण्ड, १०४
अध्याय, ४३५ ब्राह्मण तथा ६,८०६ कण्डिका हैं। माध्यन्दिन में ६८ प्रपाठक हैं, किन्तु काण्व शतपथ में प्रपाठक नहीं हैं। जाबाल ब्राह्मण का उल्लेख है किन्तु
उपलब्ध नहीं है।
कृ ष्ण-१. तैत्तिरीय ब्राह्मण ही पूर्ण रूप से उपलब्ध है, जिसमें ३ भाग या काण्ड हैं। प्रथम २ काण्डों में ८-८ अध्याय या प्रपाठक हैं, अतः इसे अष्टक भी कहते हैं।
तृतीय काण्ड में १२ प्रपाठक हैं, जिन्हें भट्ट भास्कर ने प्रश्न भी कहा है। इसमें कु ल ३५३ अनुवाक् हैं। शतपथ की तरह यह भी सस्वर है। काठक ब्राह्मण अपूर्ण है।
अन्य अनुपलब्ध ब्राह्मण हैं-चरक, श्वेताश्वतर, काठक, मैत्रायणी, खाण्डिके य।
सामवेद-१. प्रौढ़ (ताण्ड्य) ब्राह्मण, २. षड्विंश ब्राह्मण, ३. सामविधान ब्राह्मण, ४. आर्षेय ब्राह्मण, ५ देवताध्याय ब्राह्मण, ६. छान्दोग्योपनिषद् ब्राह्मण, ७.
संहितोपनिषद् ब्राह्मण, ८. वंश ब्राह्मण।
ताण्ड्य ब्राह्मण को अध्याय संख्या के अनुसार पञ्चविंश ब्राह्मण तथा सबसे बड़ा होने के कारण महाब्राह्मण भी कहा जाता है। षड्विंश ब्राह्मण ताण्ड्य का ही उत्तर भाग
मान कर इसे २६वां अध्याय कहा गया है। इसमें ६ अध्याय हैं। सामविधान ब्राह्मण में ३ अध्याय हैं। आर्षेय में ६ अध्याय, देवताध्याय में ४ खण्ड हैं। छान्दोग्य
उपनिषद् ब्राह्मण के पहले २ प्रपाठक में विवाह कर्म के मन्त्र हैं। बाकी ८ प्रपाठक उपनिषद् हैं। संहितोपनिषद् में ५ तथा वंश ब्राह्मण में ३ खण्ड हैं।
जैमिनीय शाखा में के वल ३ ब्राह्मण उपलब्ध हैं-जैमिनीय, जैमिनीयोपनिषद् तथा जैमिनीयार्षेय।अ न्य अनुपलब्ध-भाल्लवि, शाट्यायन, हारिद्रविक।
अथर्ववेद-पैप्पलाद शाखा का गोपथ ब्राह्मण उपलब्ध है जिसके पूर्व भाग में ५ प्रपाठक, १३५ कण्डिका तथा उत्तर भाग में ६ प्रपाठक १२३ कण्डिका हैं।
आरण्यक-ऋग्वेद-१. ऐतरेय में ५ आरण्यक हैं-गवामयन, २. में प्राणविद्या तथा पुरुष (४-६ अध्याय ऐतरेय उपनिषद्), ३. संहितोपनिषद्, ४. महानाम्नी ऋचा, ५.
निष्कै वल्य शास्त्र।
२. शांखायन आरण्यक में ३० अध्याय हैं।
३. कौषीतकि आरण्यक में ३ खण्ड तथा १५ अध्याय हैं। ३-६ अध्याय कौषीतकि उपनिषद् है।
यजुर्वेद-शुक्ल-शतपथ ब्राह्मण का अन्तिम (माध्यन्दिन का १४वां, काण्व का १७वां) काण्ड ही बृहदारण्यक है। इसके अन्तिम ६ अध्याय उपनिषद् है।
कृ ष्ण-तैत्तिरीय आरण्यक।
सामवेद-तवलकार आरण्यक को जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण भी कहा जाता है। इसका एक भाग तवलकार उपनिषद् है, जो के न शब्द से आरम्भ होने के कारण
के नोपनिषद् भी कहा जाता है। छान्दोग्य आरण्यक को अरण्य गान भी कहा जाता है।
अथर्व वेद-इसमें कोई आरण्यक उपलब्ध नहीं है।
उपनिषद्-११३१ उपनिषदों में १०८ को मुक्तिकोपनिषद् में मुख्य कहा गया है। इनमें १० ऋग्वेद के , १९ शुक्ल यजुर्वेद के , ३२ कृ ष्ण यजुर्वेद के , १६ सामवेद के
तथा ३१ अथर्व वेद के हैं। वासुदेव लक्ष्मण पणसीकर जी ने १०८ उपनिषद् प्रकाशित कराये हैं (निर्णय सागर प्रेस, मुम्बई)। अड्यार थियोसोफिकल सोसाइटी द्वारा
१७९ उपनिषद् प्रकाशित हुए हैं। मुम्बई के गुजराती प्रिण्टिंग प्रेस से प्रकाशित उपनिषद् वाक्य महाकोष में २३८ उपनिषदों के उद्धरणों का संग्रह है। मुख्य १३ हैं जिन
पर वेद आचार्यों के भाष्य हैं-ईश, के न, कठ, मुण्डक, माण्डू क्य, प्रश्न, ऐतरेय, तैत्तिरीय, छान्दोग्य, बृहदारण्यक, श्व्तेताश्वतर, कौषीतकि, मैत्रायणी।
१२. स्मृति ग्रन्थ
वैदिक साहित्य को श्रुति तथा उसके आधार पर समाज व्यवस्था के नियमों को स्मृति कहते हैं।मनुस्मृति सबसे अधिक विख्यात है, जिस पर मेधातिथि की विस्तृत
टीका है। इसका अंग्रेजी अनुवाद श्री गंगानाथ झा द्वारा ९ खण्डों में मोतीलाल बनारसी दास द्वारा प्रकाशित है। इसके अतिरिक्त नाग प्रकाशन द्वारा प्रकाशित अष्टादश
स्मृति में इनको हिन्दी अनुवाद सहित दिया गया है। इनके नाम हैं-१. अत्रि स्मृति, २. विष्णु, ३. हारीत, ४. औशनस, ५. आङ्गिरस, ६. संवर्त्त, ७. लघु यम
स्मृति, ८. आपस्तम्ब, ९. बृहस्पति, १०. कात्यायन, ११. पाराशर, १२. व्यास, १३. शङ्ख, १४. लिखित, १५. दक्ष, १६. गौतम, १७. शातातप, १८. बुध।
इसके अतिरिक्त याज्ञवल्क्य स्मृति बृहत् है जिसकी कई टीका प्रकाशित हैं।
१३. पुराण-इतिहास
घटनाओं का कालक्रम में वर्णन इतिहास है। इतिहास = इति + ह + आस = ऐसा ही हुआ था।
घटना क्रम के अतिरिक्त उनका विज्ञान समझने के लिये पुराण है। दीर्घकाल के सृष्टि निर्माण या लघुकाल के वंश चरित, दोनों तभी लिखॆ जा सकते हैं जब समय
समय पर उनका निरीक्षण और वर्णन हो। विज्ञान समझने के लिये भी एक क्रिया तथा उसके कु छ समय बाद परिवर्तन का अध्ययन जरूरी है। अतः विज्ञान का
आधार वेद तभी बन सकता है जब कि काल-क्रम से निसर्ग का निरीक्षण हो। निसर्ग से आगत होने के कारण ही वेद निगम है। मनुष्य ब्रह्मा को चिन्ता हुई-सृष्टि का
आरम्भ कै से करें। इसके लिये पुराणों का स्मरण किया। इससे पता चला कि पहले कै से सृष्टि हुई थी। उसके अनुसार पुनः वैसे ही सृष्टि हुई। निर्माण की विधि समझना
तन्त्र का विषय है। अतः पुराण-निगम-आगम ये तीनों अनादि हैं जिनको रामचरितमानस में स्रोत कहा है। यह मूल पुराण १०० करोड़ श्लोकों का था।
मत्स्य पुराण (५३/२-१०)-इदमेव पुराणेषु पुराण पुरुषस्तदा। (२)
पुराणं सर्व शास्त्राणां प्रथमं ब्रह्मणा स्मृतम्। अनन्तरं च वक्त्रेभ्यो वेदास्तस्य विनिर्गताः॥३॥
पुराणमेकमेवासीत् तदाकल्पान्तरेऽनघ। त्रिवर्गसाधनं पुण्यं शतकोटि प्रविस्तरम्॥४॥
पुराण का एक अर्थ सनातन या पुराण पुरुष भी है जो ब्रह्म का क्रियात्मक रूप है-
त्वमादिदेवः पुरुषः पुराणः त्वमस्य विश्वस्य परं निधानम् (गीता ११/३८)
संख्यात्मनः शास्त्रकृ तस्तवेक्षा छन्दोमयो देव ऋषिः पुराणः (भागवत पुराण ८/७/३१)
परिवर्तनशील विश्व का वर्णन पुराण है। यदि वेद या पुराण एक ही समय के हों तो यह पता नहीं चल सकता कि उसके बाद अब तक कितना समय बीता। इसकी
परिभाषायें हैं-
पुरा परम्परां वक्ति पुराणं तेन तत् स्मृतम् (पद्म पुराण १/२/५३)
यस्यात् पुरा ह्यनन्तीदं पुराणं तेन चोच्यते (वायु पुराण उत्तर ४१/५५)
यस्मात् पुरा ह्यभूच्चैतत् पुराणं तेन तत् स्मृतम् (ब्रह्म पुराण १/१/१७३)
पुराणं कस्मात्। पुरा नवं भवति (निरुक्त ३/१९)
वेद के लिये पुराणों की जरूरत थी अतः वेद में भी पुराणों का उल्लेख है-अथर्व (११/७/२५)-ऋच सामानि छन्दांसि पुराण यजुषा सह।
उच्छिष्टाज्जज्ञिरे सर्वे दिवि देवा दिविश्रिता।
एवं वा अरेs स्य महतो भूतस्य निःश्वसित-मेतद्यदृग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो s थर्वाङ्गिरस इतिहासः पुराणं विद्या उपनिषदः श्लोकाः सूत्रा-ण्यनुव्याख्यानानि
व्याख्यानानि अस्यैवैतानि निःश्वसितानि । (बृहदारण्यक उपनिषद् २/४/१०, शतपथ बाह्मण १४/२/४/१०)
ऋग्वेदं भगवोऽध्येमियजुर्वेदँ सामवेदमाथर्वणं चतुर्थमितिहासपुराणं पञ्चमं वेदानां वेदं पित्र्यँ राशिं दैवं निधिं वाकोवाक्यमेकायनं देवविद्यां ब्रह्मविद्यां भूतविद्यां क्षत्रविद्यां
नक्षत्रविद्याँ सर्पदेवजनविद्यामेतद् भगवोऽध्येमि। (छान्दोग्य उपनिषद् ७/१२)
इतिहास पुराणं तर्पयामि (बौधायन धर्मसूत्र २/५/९/१४)
इत्युक्त्वान्तःपुरद्वारमाजगाम पुराणवित् (रामायण, अयोध्याकाण्ड २/१५/१८)
इतिहास पुराणानामुन्मेषं निर्मितं च यत्। (६३)
चातुर्वर्ण्य विधानं च पुराणानां च कृ त्स्नसः (६४)-महाभारत (१/१/६३,६४).
१४. जल प्रलय बाद स्वायम्भुव मनु द्वारा पुराण
सूर्य के प्रबल ताप के कारण जब लोक जल रहे थे (३१,००० ई.पू. का कल प्रलय), तो एक ब्रह्मा स्वायम्भुव मनु (२९१०२ ई.पू.) ने पुराणों का पुनरुद्धार किया
जो त्रिवर्ग (धर्म-अर्थ-काम) का साधन था और उसमें वेद तथा उसके अङ्ग और धर्मशास्त्र आदि थे। वेद उद्धारक रूप को हयग्रीव कहा गया है। उनको नष्ट करने वाले
असुर को भी हयग्रीव कहा गया है। यह एक ही पुराण था जिसे ब्रह्माण्ड पुराण कहा है।
बृहन्नारदीय पुराण-ब्रह्माण्डं च चतुर्लक्षं पुराणत्वेन पठ्यते।
तदेव व्यस्य गदितमष्टादशधा पृथक् ॥१॥ पाराशर्येण मुनिना सर्वेषामपि मानद (२)ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/६)-
अस्मात् कल्पात्ततः पूर्वं कल्पातीतः पुरातनः॥ चतुर्युगसहस्राणि सह मन्वन्तरैः पुरा॥१५॥
क्षीणे कल्पे ततस्तस्मिन् दाहकाल उपस्थिते। तस्मिन् काले तदा देवा आसन् वैमानिकस्तु वै॥१६॥
ततस्तेषु गतेषूर्ध्वं त्रैलोक्येषु महात्मसु। एत्तैः सार्धं महर्लोकस्तदानासादितस्तु वै॥४२॥
तच्छिष्या वै भविष्यन्ति कल्पदाह उपस्थिते। गन्धर्वाद्याः पिशाचाश्च मानुषा ब्राह्मणादयः॥४३॥
सहस्रं यत्तु रश्मीनां स्वयमेव विभाव्यते। तत् सप्त रश्मयो भूत्वा एकै को जायते रविः॥४५॥
क्रमेणोत्तिष्ठमानास्ते त्रींल्लोकान्प्रदहंत्युत। जंगमाः स्थावराश्चैव नद्यः सर्वे च पर्वताः॥४६॥
शुष्काः पूर्वमनावृष्ट्या सूर्य्यैस्ते च प्रधूपिताः। तदा तु विवशाः सर्वे निर्दग्धाः सूर्यरश्मिभिः॥४७॥
जंगमाः स्थावराश्चैव धर्माधर्मात्मकास्तु वै। दग्धदेहास्तदा ते तु धूतपापा युगान्तरे॥४८॥
उषित्वा रजनीं तत्र ब्रह्मणोऽव्यक्तजन्मनः। पुनः सर्गे भवन्तीह मानसा ब्रह्मणः सुताः॥५०॥
ततस्तेषूपपन्नेषु जनैस्त्रैलोक्यवासिषु। निर्दग्धेषु च लोके षु तदा सूर्य्यैस्तु सप्तभिः॥५१॥
वृष्ट्या क्षितौ प्लावितायां विजनेष्वर्णवेषु च। सामुद्राश्चैव मेघाश्च आपः सर्वाश्च पार्थिवाः॥५२॥
शरमाणा ब्रजन्त्येव सलिलाख्यास्तथानुगाः। आगतागतिकं चैव यदा तत् सलिलं बहु॥५३॥
संछाद्येमां स्थितां भूमिमर्णवाख्यं तदाभवत्। आभाति य्स्मात् स्वाभासो भाशब्दो व्याप्तिदीप्तिषु॥५४॥
सर्वतः समनुप्राप्त्या तासां चाम्भो विभाव्यते। तदन्तस्तनुते यस्मात् सर्वां पृथ्वीं समन्ततः॥५५॥
अध्याय ७-प्राक् सर्गे दह्यमाने तु पुरा संवर्तकाग्निना॥९॥सप्तसप्त तु वर्षाणि तस्या द्वीपेषु सप्तषु॥१३॥
ऊपर लिखा है कि सूर्य का तेज ७ गुणा बढ़ने के कारण (सप्त-रश्मयः) होने के कारण ध्रुवीय बर्फ पिघल गयी तथा पूरे विश्व में व्यापक वर्षा हुई। इस प्रलय के बाद
स्वायम्भुव मनु का काल आरम्भ हुआ जिनके बाद कलि आरम्भ तक ७१ युग बीत गये-प्रति युग ३६५ या प्रायः ३६० वर्ष का होगा-
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/९)-स्वां तनुं स तदा ब्रह्मा समपोहत भास्वराम्। द्विधा कृ त्वा स्वकं देहमर्द्धेन पुरुषोऽभवत्॥३२॥
स वै स्वायम्भुवः पूर्वम् पुरुषो मनुरुच्यते॥३‌६॥ तस्यैक सप्तति युगं मन्वन्तरमिहोच्यते॥३७॥
ब्रह्माण्ड पुराण (१/२/२९)-त्रीणि वर्ष शतान्येव षष्टिवर्षाणि यानि तु। दिव्यः संवत्सरो ह्येष मानुषेण प्रकीर्त्तितः॥१६॥
त्रीणि वर्ष सहस्राणि मानुषाणि प्रमाणतः। त्रिंशदन्यानि वर्षाणि मतः सप्तर्षिवत्सरः॥१७॥
षड्विंशति सहस्राणि वर्षाणि मानुषाणि तु। वर्षाणां युगं ज्ञेयं दिव्यो ह्येष विधिः स्मृतः॥१९॥
१५. द्वितीय जल प्रलय के बाद मत्स्य द्वारा उद्धार
१०,००० ई.पू. के जल प्रलय के बाद ९५३३ ई.पू. में मत्स्य अवतार द्वारा पुराणों का पुनः निर्माण हुआ जब दोनों पद्धतियों के अनुसार प्रभव सम्वत्सर था
(विष्णुधर्मोत्तर पुराण, ८२/७-८)
निर्दग्धेषु च लोके षु वाजिरूपेण वै मया। अङ्गानि चतुरो वेदाः पुराणं न्यायविस्तरम्॥५॥
मीमांसा धर्मशास्त्रञ्च परिगृह्य मया कृ तम्। मत्स्य रूपेण च पुनः कल्पादावुदकार्णवे॥६॥
१६. २८ व्यासों के संस्करण
२८ युगों में २८ व्यास हुए थे जिनका ब्रह्माण्ड (१/२/३५), वायु (९८/७१-९१), कू र्म (१/५२), विष्णु (३/३), लिङ्ग (१/७/११, १/२४), शिव (३/४),
देवीभागवत (१/२, ३) आदि पुराणों में वर्णन है। हर युग में, ब्रह्मा से बादरायण तक २८ व्यासों ने प्रायः ४ लाख श्लोकों में पुराण संहिता लिखी।
देवीभागवत पुराण (१/३)-द्वापरे द्वापरे विष्णुर्व्यासरूपेण सर्वदा। वेदमेकं स बहुधा कु रुते हितकाम्यया॥१९॥
अल्पायुषोऽल्पबुद्धींश्च विप्राञ्ज्ञात्वा कलावथ। पुराणसंहितां पुण्यां कु रुतेऽसौ युगे युगे॥२०॥
स्त्रीशूद्रद्विजबन्धूनां न वेदश्रवणं मतम्। तेषामेव हितार्थाय पुराणानि कृ तानि च॥२१॥
अतीतास्तु तथा व्यासाः सप्तविंशतिरेव च। पुराणसंहितास्तैस्तु कथितास्तु युगे युगे॥२४॥
ऋषयः उचुः-ब्रूहि सूत महाभाग व्यासाः पूर्वयुगोद्भवाः। वक्तारस्तु पुराणानां द्वापरे द्वापरे युगे॥२५॥
सूत उवाच-द्वापरे प्रथमे व्यस्ताः स्वयं वेदाः (पुराण के बाद) स्वयंभुवा।
प्रजापति (कश्यप) द्वितीये तु द्वापरे व्यास कार्यकृ त्॥२६॥
तृतीये चोशना (उशना = शुक्र, कवि) व्यासश्चतुर्थे तु बृहस्पतिः।
पञ्चमे सविता (विवस्वान्) व्यासः षष्ठे मृत्यु (वैवस्वत यम) स्तथापरे॥२७॥
मघवा ( १४ इन्द्रों में वैकु ण्ठ इन्द्र) सप्तमे प्राप्ते वसिष्ठस्त्वष्टमे स्मृतः।
सारस्वतस्तु (वाणी-हिरण्यगर्भ के पुत्र अपान्तरतमा) नवमे त्रिधामा दशमे तथा॥२८॥
एकादशेऽथ त्रिवृषो भरद्वाजस्ततः परम्। त्रयोदशे चान्तरिक्षो धर्मश्चापि चतुर्दशे॥२९॥
त्रय्यारुणिः पञ्चदशे षोड़शे तु धनञ्जयः। मेधातिथिः सप्तदशे व्रती ह्यष्टादशे तथा॥३०॥
अत्रिरेकोनविंशेऽथ गौतमस्तु ततः परम्। उत्तमश्चैकविंशेऽथ हर्यात्मा परिकीर्तितः॥३१॥
वेनो वाजश्रवश्चैव सोमोऽमुष्यायणस्तथा। तृणविन्दुस्तथा व्यासो भार्गवस्तु ततः परम्॥३२॥
ततः शक्तिर्जातूकर्ण्यः कृ ष्णद्वैपायनस्ततः। अष्टाविंशति संख्येयं कथिता या मया श्रुता॥३३॥
१७. कृ ष्ण द्वैपायन द्वारा विभाजन
कृ ष्ण द्वैपायन (बदरी वन में रहने के कारण बादरायण) व्यास ने पुराणों को १८ भागों में बांटा-
व्यासरूपमहं कृ त्वा संहरामि युगे युगे। चतुर्लक्ष प्रमाणेन द्वापरे द्वापरे सदा॥९॥
तथाष्टादशधा कृ त्वा भूलोके ऽस्मिन् प्रकाश्यते। (१०) नामतस्तानि वक्ष्यामि शृणुध्वं मुनिसत्तमाः। (१२)
देवीभागवत पुराण (१/३/२) के अनुसार इनकी सूची है-
मद्वयं भद्वयं चैव ब्रत्रयं व-चतुष्टयम्। अनापलिंगकू स्कानि पुराणानि पृथक् पृथक् ॥
म से २ पुराण-मत्स्य, मार्क ण्डेय
भ से २-भागवत, भविष्य
ब्र से ३-ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त्त।
व से ४-विष्णु, वामन, वाराह, वायु।
अ-अग्नि, ना-नारद, प-पद्म, लिं-लिङ्ग, ग-गरुड़, कू -कू र्म, स्का-स्कन्द।
१८. सृष्टि तथा पुराणों का क्रम
१८ पुराणों का क्रम सृष्टि निर्माण क्रम के अनुसार है। मधुसूदन ओझा ने इनका वर्णन जगद्गुरुवैभवम्, अध्याय २ में किया है। उनके शिष्यों ने भी इसकी व्याख्या की
है-पं. गिरिधरलाल शर्मा का पुराण परिशीलन (बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, पटना, १९९८, पृष्ठ २७-३३), सुर्जनदास स्वामी का पुराण रहस्य (१९८७, जयपुर)
आदि। पुराणों का क्रम है-
(१) सृष्टि वाद, (२) मतवाद, (३) अवतारवाद, (४) आयतिवाद, (५) आयतनवाद।
(१) सृष्टिवाद-प्रथम ६ पुराण उक्थ (स्रोत) हैं-ब्रह्म-ब्रह्मा से सृष्टि हुई। (२) पद्म-ब्रह्मा की उत्पत्ति पद्म से हुई। (३) विष्णु-विष्णु की नाभि से पद्म निकला। (४)
वायु-विष्णु का स्थान शेष-नाग (आकाशगङ्गा की सर्पाकार भुजा) है जो वायु (गति) रूप है। (५) भागवत-शेषनाग क्षीर सागर (ब्रह्माण्ड का आधार गोलोक, उससे
उत्पन्न आकाशगङ्गा-Milky way), (६) नारद-भागवत की प्रेरणा नारद से मिली (सर्वव्यापी रस में जब चेतना प्रविष्ट हुई तब वह नर से उत्पन्न नार कहा गया)।
(२) मतवाद-सृष्टि के बारे में ४ मत हैं-(७) मार्क ण्डेय पुराण-यह ३ गुणों सत्त्व, रज, तम से सृष्टि का वर्णन करता है। (८) अग्नि-हिरण्यगर्भ सबसे पहले (अग्र) था
अतः उसे अग्नि (अग्रि) कहा गया। उसी से सृष्टि हुई। आकाश में सृष्टि के ५ पर्व भी सघन पिण्डों के रूप में अग्नि हैं। (९) सूर्य (भविष्य)-सूर्य से पृथ्वी तथा इसके
प्राणियों का निर्माण हुआ है। (१०) ब्रह्म वैवर्त्त-वेदान्त दर्शन के अनुसार सम्पूर्ण विश्व ब्रह्म का विवर्त्त है।
(३) अवतारवाद-अगले ६ पुराण विष्णु के अवतार क्रम में हैं-(११) लिङ्ग-३ प्रकार के दृश्य जगत् (लिङ्ग = बाह्य चिह्न)। मूल लिङ्ग स्वयम्भू है। गति का आरम्भ
ब्रह्माण्ड से हुआ जिसे बाण द्वारा प्रकट करते हैं (३ दिशा में ३ बाण लिङ्ग)। पृथ्वी पर दृश्य रूप अनन्त प्रकार के हैं, उनको इतर (अन्य, other) लिङ्ग कहते हैं। ये
प्रकाश द्वारा दीखते हैं। १२ मास में सूर्य ज्योति के १२ प्रकार ज्योति होने से १२ ज्योतिर्लिङ्ग हैं। (१२) वराह-मूल स्रोत फै ला हुआ पदार्थ है जो जल के विभिन्न
स्तर है। निर्मित पिण्ड भूमि है। बीच की निर्माणाधीन अवस्था वराह है जिसके २ अर्थ हैं-मेघ (जल-वायु मिश्रण) या सूअर (जल-स्थल का प्राणी)। आकाश में ५
प्रकार के वराह हैं-आदि (पूर्ण विश्व का), यज्ञ (ब्रह्माण्ड का), श्वेत (सौर मण्डल का), भू (जिस पदार्थ से पृथ्वी बनी), एमूष (निकट का वायुमण्डल), (१३)
वामन-सौर मण्डल में सूर्य ही वामन है। ठोस ग्रहों का क्षेत्र मंगल तक है जो दधिवामन है (भागवत पुराण स्कन्ध ५ में दधि समुद्र का आकार मंगल कक्षा है), (१४)
कु मार (स्कन्द)-सभी ग्रह सूर्य से निकले (स्कन्न, या स्कन्द) हैं जो उससे उत्पन्न होने के कारण कु मार भी कहे जाते हैं। इसके ७ विवर्त्त कहे गये हैं जो वंशानुक्रम के
भी ७ स्तर हैं। (१५) कू र्म-आकाश में सृष्टि कू र्म से आरम्भ हुई जिससे ब्रह्माण्ड बना। हर स्तर पर सृष्टि कू र्म आधार पर मन्थन से हुई (तस्मिन्नपो मातरिश्वा दधाति-
ईशावास्योपनिषद्)। (१६) मत्स्य-आकाश में १०० अरब ब्रह्माण्ड मत्स्य की तरह तैर रहे हैं। हर स्तर पर व्यक्तिगत पिण्ड प्रायः स्वतन्त्र हैं।
(४) आयतिवाद-(१७) गरुड़-यह दो प्रकार की गति (सञ्चर-प्रतिसञ्चर, या निर्माण-विनाश) का या जीवन मृत्यु के चक्र का वर्णन करता है। यह परमात्मा का वाहन
होने के कारण आत्मा का भी वाहन है।
(५) आयतन-(१८) ब्रह्माण्ड-यह आकाश में पिण्डों की स्थिति (आयतन = विस्तार) का वर्णन करता है।
१९. लोमहर्षण परम्परा
लोमहर्षण के ८ शिष्यों में काश्यप, सावर्णि, शांशम्पायन ने संहिताओं का संकलन किया।
विष्णु पुराण (३/४/१८)-काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। लौमहर्षणिका चान्या तिसृणां मूलसंहिता॥
वायु पुराण (६१/५७) ब्रह्माण्ड पुराण (२/३/६५-६६)-त्रिभिस्तत्र कृ तास्तिस्रः संहिता पुनरेव हि॥।५७॥
काश्यपः संहिता कर्ता सावर्णिः शांशपायनः। मामिका च चतुर्थी स्यात् सा चैषा पूर्व संहिता॥५८॥
२०. शौनक की महाशाला
शौनक की महाशाला (विश्वविद्यालय) में महाभारत युद्ध के बाद ८८,००० विद्वानों ने पुराणों का संकलन किया। इसके अध्यक्ष उग्रश्रवा थे। यह परीक्षित जन्म के
बाद १००० वर्षों तक (२१३८ ई.पू. तक) चलता रहा। इसे नैमिषारण्य में शौनक का १००० वर्ष का सत्र कहा गया है।
शौनको ह वै महाशालोऽङ्गिरसं विधिवदुपसन्नः पप्रच्छ ॥३॥-मुण्डक उपनिषद् (१/१/२-३)
भागवत पुराण (१/१/४)-नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥
पद्मपुराण, सृष्टिखण्ड (५) अध्याय १-
सूतमेकान्तमासीनं व्यासशिष्यो महामतिः। लोमहर्षणनामा वै उग्रश्रवसमाह तत्॥२॥
पुराणं चेतिहासं वा धर्मानथ पृथग्विधान्(१५) अथ तेषां पुराणस्य शुश्रूषा समपद्यत (१७)
तस्मिन् सत्रे गृहपत्ः सर्वशास्त्र विशारदः(१७) शौनको नाम मेधावी विज्ञानारण्यके गुरुः (१८)
पद्मपुराण, उत्तरखण्ड (१९६/७२)-
कलौ सहस्रमब्दानामधुना प्रगतं द्विज। परीक्षितो जन्मकालात् समाप्तिं नीयतां मखः॥
भागवत पुराण (१/१/४)
नैमिषेऽनिमिषक्षेत्रे ऋषयः शौनकादयः। सत्रं स्वर्गाय लोकाय सहस्रसममासत॥
२१. विक्रमादित्य संस्करण
उज्जैन के सम्वत् प्रवर्त्तक सम्राट् विक्रमादित्य (८२ ई.पू.-१९ ई. तक) काल में भी बेताल भट्ट की अध्यक्षता में पुराणों का वैसे ही सम्पादन हुआ जैसा पहले शौनक
की महाशाला में हुआ था। अतः उसके ज्योतिषीय विवरण उसी काल से मिलते हैं। पुराण संकलन के स्थानों को भी विशाला (विशेष शाला) कहा गया जैसे शौनक
संस्था को महाशाला कहते थे। एक तो उज्जैन के पास ही था, जिसके कारण उज्जैन को विशाला भी कहा गया है। एक उत्तर बिहार के वैशाली की राजधानी थी।
बद्रीनाथ में भी शंकराचार्य द्वारा ब्रह्म सूत्र की व्याख्या होने के कारण उसे बद्रीविशाल कहते हैं।
भविष्य पुराण, प्रतिसर्ग पर्व ४, अध्याय १-
एवं द्वापरसन्ध्याया अन्ते सूतेन वर्णितम्। सूर्यचन्द्रान्वयाख्यानं तन्मया कथितम् तव॥१॥
विशालायां पुनर्गत्वा वैतालेन विनिर्मितम्। कथयिष्यति सूतस्तमितिहाससमुच्चयम्॥२॥
तन्मया कथितं सर्वं हृषीकोत्तम पुण्यदम्। पुनर्विक्रमभूपेन भविष्यति समाह्वयः॥३॥
नैमिषारण्यमासाद्य श्रावयिष्यति वै कथाम्। पुनरुक्तानि यान्येव पुराणाष्टादशानि वै।।४॥
तानि चोपपुराणानि भविष्यन्ति कलौ युगे। तेषां चोपपुराणानां द्वादशाध्यायमुत्तमम्॥५॥
सारभूतश्च कथित इतिहाससमुच्चयः। यस्ते मया च कथितो हृषीकोत्तम ते मुदा॥६॥
तत्कथां भगवान् सूतो नैमिषारण्यमास्थितः। अष्टाशीति सहस्राणि श्रावयिष्यति वै मुनीन्॥८॥
२२. विदेशी विकृ ति
अकबर के समय में भी भविष्य पुराण में कई अध्याय जोड़े गये जिनमें कई में अकबर को पृथ्वीराज चौहान का अवतार कहा गया है। उसने विक्रमादित्य की नकल
कर नवरत्न भी बनाये तथा उसके लगान व्यवस्था को भी आरम्भ किया। शेरशाह आदि मुगलों को विदेशी रूप में विरोध कर रहे थे, अतः अपने को भारतीय दिखाने
के लिये किया। ब्रिटिश काल में एरिक पार्जिटर तथा विलियम जोन्स ने भी कु छ हेराफे री की जिससे उनका कालक्रम बदला जा सके । भविष्य पुराण में कु छ अध्याय
जोड़ कर कहा कि अंग्रेज हनुमान् के वंशज हैं जिनको भगवान् राम ने आशीर्वाद दिया था कि तुम्हारे वंशज भारत पर राज्य करेंगें। हनुमान् के वंशज होने के कारण वे
मनुष्य को हुमैन (Human) कहते हैं। हनुमान मरुत् के पुत्र हैं तथा इंगलैण्ड मरुत् कोण दिशा में है।

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