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एक फूल की चाह

पाठ व्याख्या
1. उद्वेललत कर अश्रु रालियााँ,
हृदय चचताएाँ धधकाकर,
महा महामारी प्रचंड हो
फैल रही थी इधर उधर।
क्षीण कंठ मत
ृ वत्साओं का
करुण रुदन दद
ु ाांत ननतांत,
भरे हुए था ननज कृि रव में
हाहाकार अपार अिांत।
िब्दाथथ –उद्वेललत – भाव-ववह्वल, अश्रु-रालियााँ – आाँसओ
ु ं की झडी, महामारी – बडे स्तर
पर फैलने वाली बीमारी, प्रचंड – तीव्र, क्षीण – दबी आवाज़, कमज़ोर, मत
ृ वत्सा – जजस मााँ
की संतान मर गई हो, रुदन – रोना, दद
ु ाांत – जजसे दबाना या वि में करना कठठन हो,
ननतांत – बबलकुल, अलग, अत्यंत, कृि – पतला, कमज़ोर
े़
व्याख्या – कवि कहता है कक एक बड स्तर पर फैलन िाली बीमारी बहुत भयानक रूप स
फैली हुई थी, जिसन लोगों की भािनाओं को ठस पहुुँचात हुए आुँखों स आुँसओ
ु ं की नदियाुँ
बहा िी थी। कहन का तात्पयय यह है कक उस महामारी न लोगों क मन में भयानक डर बैठा
दिया था। कवि कहता है कक उस महामारी क कारण जिन औरतों न अपनी संतानों को खो
दिया था, उनक कमिोर पड़त गल स लगातार दिल को िहला िन िाला ऐसा ििय ननकल
रहा था जिस िबाना बहुत कदठन था। उस कमिोर पड़ चुक ििय भर रोन में भी अत्यधिक
अशांनत फैलान िाला हाहाकार निपा हुआ था।
२. बहुत रोकता था सखु िया को,
‘न जा िेलने को बाहर’,
नहीं िेलना रुकता उसका
नहीं ठहरती वह पल भर।
मेरा हृदय कााँप उठता था,

1
बाहर गई ननहार उसे;
यही मनाता था कक बचा लाँ ू
ककसी भााँनत इस बार उसे।
शब्िाथय –ननहार – िखना
व्याख्या – कवि कहता है कक इस कविता का मख्
ु य पात्र अपनी बटी जिसका नाम सखु खया
था, उसको बार-बार बाहर िान स रोकता था। लककन सुखखया उसकी एक न मानती थी
और खलन क ललए बाहर चली िाती थी। िह कहता है कक सुखखया का न तो खलना रुकता
था और न ही िह घर क अंिर दटकती थी। िब भी िह अपनी बटी को बाहर िात हुए
िखता था तो उसका हृिय डर क मार काुँप उठता था। िह यही सोचता रहता था कक ककसी
तरह उसकी बटी उस महामारी क प्रकोप स बच िाए। िह ककसी तरह इस महामारी की
चपट में न आए।
३. भीतर जो डर रहा निपाए,
हाय! वही बाहर आया।
एक ठदवस सखु िया के तनु को
ताप तप्त मैंने पाया।
ज्वर में ववह्वल हो बोली वह,
क्या जानूाँ ककस डर से डर,
मुझको दे वी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
शब्िाथय –तनु – शरीर, ताप-तप्त – ज्िर स पीडड़त
व्याख्या – कवि कहता है कक सखु खया क वपता को जिस बात का डर था िही हुआ। एक दिन
सखु खया क वपता न पाया कक सखु खया का शरीर बख
ु ार स तप रहा था। कवि कहता है कक
उस बच्ची न बख
ु ार क ििय में भी अपन वपता स कहा कक उस ककसी का डर नहीं है । उसन
अपन वपता स कहा कक िह तो बस ििी माुँ क प्रसाि का एक फूल चाहती है ताकक िह ठीक
हो िाए।

2
४. क्रमि: कंठ क्षीण हो आया,
लिचथल हुए अवयव सारे ,
बैठा था नव नव उपाय की
चचंता में मैं मनमारे ।
जान सका न प्रभात सजग से
हुई अलस कब दोपहरी,
स्वणथ घनों में कब रवव डूबा,
कब आई संध्या गहरी।
शब्िाथय –लशधथल – कमिोर, ढीला, अियि – अंग, स्िणय घन – सुनहर बािल
व्याख्या – कवि कहता है कक सुखखया का गला इतना कमिोर हो गया था कक उसमें स
आिाज़ भी नहीं आ रही थी। उसक शरीर का अंग-अंग कमिोर हो चुका था। उसका वपता
ककसी चमत्कार की आशा में नए-नए तरीक अपना रहा था परन्तु उसका मन हमशा धचंता
में ही डूबा रहता था। धचंता में डूब सखु खया क वपता को न तो यह पता चलता था कक कब
सब
ु ह हो गई और कब आलस स भरी िोपहर ढल गई। कब सन
ु हर बािलों में सरू ि डूबा
और कब शाम हो गई। कहन का तात्पयय यह है कक सुखखया का वपता सखु खया की धचंता में
इतना डूबा रहता था कक उस ककसी बात का होश ही नहीं रहता था।
५.सभी ओर ठदिलाई दी बस,
अंधकार की ही िाया,
िोटी सी बच्ची को ग्रसने
ककतना बडा नतलमर आया।
ऊपर ववस्तत
ृ महाकाि में
जलते से अंगारों से,
झुलसी जाती थी आाँिें
जगमग जगते तारों से।
शब्िाथय –ग्रसना – ननगलना, नतलमर – अंिकार

3
व्याख्या – कवि कहता है कक चारों ओर बस अंिकार ही अंिकार दिखाई ि रहा था जिस
िखकर ऐसा लगता था िैस कक इतना बड़ा अंिकार उस मासूम बच्ची को ननगलन चला
आ रहा था। कवि कहता है कक बच्ची क वपता को ऊपर विशाल आकाश में चमकत तार ऐस
लग रह थ िैस िलत हुए अंगार हों। उनकी चमक स उसकी आुँखें झल
ु स िाती थीं। ऐसा
इसललए होता था क्योंकक बच्ची का वपता उसकी धचंता में सोना भी भल
ू गया था जिस
कारण उसकी आुँख ििय स झुलस रही थी।
6. दे ि रहा था जो सुजस्थर हो
नहीं बैठती थी क्षण भर,
हाय! वही चुपचाप पडी थी
अटल िांनत सी धारण कर।
सुनना वही चाहता था मैं
उसे स्वयं ही उकसाकर
मझ
ु को दे वी के प्रसाद का
एक फूल ही दो लाकर।
शब्िाथय –सुजस्थर – िो कभी न रुकता हो, अटल – जिस दहलाया न िा सक
व्याख्या – कवि कहता है कक िो बच्ची कभी भी एक िगह शांनत स नहीं बैठती थी, िही
आि इस तरह न टूटन िाली शांनत िारण ककए चुपचाप पड़ी हुई थी। कवि कहता है कक
उसका वपता उस झकझोरकर खुि ही पूिना चाहता था कक उस ििी माुँ क प्रसाि का फूल
चादहए और िह उस उस फूल को ला कर ि।
7. ऊाँचे िैल लििर के ऊपर
मंठदर था ववस्तीणथ वविाल;
स्वणथ कलि सरलसज ववहलसत थे
पाकर समठु दत रवव कर जाल।
दीप धूप से आमोठदत था
मंठदर का आाँगन सारा;

4
गूाँज रही थी भीतर बाहर
मुिररत उत्सव की धारा।
शब्िाथय –विस्तीणय – फैला हुआ, सरलसि – कमल, रविकर िाल – सूय-य ककरणों का समूह
आमोदित – आनंिपण
ू य
व्याख्या – कवि मंदिर का िणयन करता हुआ कहता है कक पहाड़ की चोटी क ऊपर एक
विशाल मंदिर था। उसक विशाल आुँगन में कमल क फूल सूयय की ककरणों में इस तरह
शोभा ि रह थ जिस तरह सूयय की ककरणों में सोन क घड़ चमकत हैं। मंदिर का पूरा आुँगन
िूप और िीपकों की खुशबू स महक रहा था। मंदिर क अंिर और बाहर माहौल ऐसा लग
रहा था िैस िहाुँ कोई उत्सि हो।
8.भक्त वंद
ृ मद
ृ ु मधुर कंठ से
गाते थे सभजक्त मुद मय,
‘पनतत ताररणी पाप हाररणी,
माता तेरी जय जय जय।‘
‘पनतत ताररणी, तेरी जय जय’
मेरे मुि से भी ननकला,
बबना बढे ही मैं आगे को
जाने ककस बल से ठढकला।
शब्िाथय –सभजक्त – भजक्त क साथ,दढकला – िकला गया
व्याख्या – कवि कहता है कक िब सुखखया का वपता मंदिर गया तो िहाुँ मंदिर में भक्तों क
झुंड मिुर आिाि में एक सुर में भजक्त क साथ ििी माुँ की आरािना कर रह थ। ि एक
सरु में गा रह थ ‘पनतत ताररणी पाप हाररणी, माता तरी िय िय िय।‘ सखु खया क वपता
क मुँह
ु स भी ििी माुँ की स्तनु त ननकल गई, ‘पनतत ताररणी, तरी िय िय’। कफर उस ऐसा
लगा कक ककसी अनिान शजक्त न उस मंदिर क अंिर िकल दिया।
9. मेरे दीप फूल लेकर वे
अंबा को अवपथत करके
ठदया पुजारी ने प्रसाद जब

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आगे को अंजलल भरके,
भूल गया उसका लेना झट,
परम लाभ सा पाकर मैं।
सोचा, बेटी को मााँ के ये,
पण्
ु य पष्ु प दाँ ू जाकर मैं।
शब्िाथय –अंिलल – िोनों हाथों स
व्याख्या – कवि कहता है कक पुिारी न सुखखया क वपता क हाथों स िीप और फूल ललए
और ििी की प्रनतमा को अवपयत कर दिया। कफर िब पि
ु ारी न उस िोनों हाथों स प्रसाि
भरकर दिया तो एक पल को िह दठठक सा गया। क्योंकक सुखखया का वपता िोटी िानत का
था और िोटी िानत क लोगों को मंदिर में आन नहीं दिया िाता था। सुखखया का वपता
अपनी कल्पना में ही अपनी बटी को ििी माुँ का प्रसाि ि रहा था।
10. लसंह पौर तक भी आाँगन से
नहीं पहुाँचने मैं पाया,
सहसा यह सन
ु पडा कक – “कैसे
यह अिूत भीतर आया?
पकडो दे िो भाग न जावे,
बना धूतथ यह है कैसा;
साफ स्वच्ि पररधान ककए है,
भले मानष
ु ों के जैसा।
िब्दाथथ –लसंह पौर – मंठदर का मुख्य द्वार,पररधान – वस्र
व्याख्या – कवि कहता है कक अभी सखु खया का वपता प्रसाि ल कर मंदिर क द्िार तक भी
नहीं पहुुँच पाया था कक अचानक ककसी न पीि स आिाि लगाई, “अर ,यह अिूत मंदिर क
भीतर कैस आ गया? इस पकड़ो कहीं यह भाग न िाए। ‘ ककसी न कहा कक इस चालाक
नीच को तो िखो, कैस साफ़ कपड़ पहन है, ताकक कोई इस पहचान न सक। कवि यहाुँ यह
िशायना चाहता है कक ननम्न िानत िालों का मंदिर में िाना अच्िा नहीं माना िाता था।

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11. पापी ने मंठदर में घुसकर
ककया अनथथ बडा भारी;
कलुवषत कर दी है मंठदर की
चचरकाललक िचु चता सारी।“
ऐं, क्या मेरा कलष
ु बडा है
दे वी की गररमा से भी;
ककसी बात में हूाँ मैं आगे
माता की मठहमा के भी?
िब्दाथथ –कलुवषत – अिुद्ध,चचरकाललक – लम्बे समय से,िुचचता – पववरता
व्याख्या – कवि कहता है कक ककसी न कहा कक मंदिर में आए हुए सभी भक्त सुखखया क
वपता को पापी कह रह थ। ि कह रह थ कक सखु खया क वपता न मंदिर में घुसकर बड़ा भारी
अनथय कर दिया है और लम्ब समय स बनी मंदिर की पवित्रता को अशुद्ि कर दिया है ।
इस पर सखु खया क वपता न कहा कक ऐसा कैस हो सकता था कक माता की मदहमा क आग
उसकी अशद्
ु िता अधिक भारी हो। सखु खया क वपता क कहन का तात्पयय यह था कक िब
माता न ही सभी मनुष्यों को बनाया है तो उसक मंदिर में आन स मंदिर अशुद्ि कैस हो
सकता है ।
12. मााँ के भक्त हुए तुम कैसे,
करके यह ववचार िोटा?
मााँ के सम्मुि ही मााँ का तुम
गौरव करते हो िोटा।
कुि न सन
ु ा भक्तों ने, झट से
मझ
ु े घेरकर पकड ललया;
मार मारकर मुक्के घूाँसे
धम्म से नीचे चगरा ठदया।
िब्दाथथ –िोटा – बुरा, घठटया,सम्मुि – सामने
व्याख्या – कवि कहता है कक सुखखया क वपता न भक्तों स कहा कक उसक मंदिर में आन स

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मंदिर अशुद्ि हो गया है इस तरह का घदटया विचार यदि तुम सब क मन में है तो तुम
माता क भक्त कैस हो सकत हो। यदि ि लोग उसकी अशुद्िता को माता की मदहमा स भी
ऊुँचा मानत हैं तो ि माता क ही सामन माता को नीचा दिखा रह हैं। लककन उसकी बातों
का ककसी पर कोई असर नहीं हुआ। लोगों न उस घर ललया और उसपर घुँस
ू ों और लातों की
बरसात करक उस नीच धगरा दिया।
13.मेरे हाथों से प्रसाद भी
बबिर गया हा! सबका सब,
हाय! अभागी बेटी तुझ तक
कैसे पहुाँच सके यह अब।
न्यायालय ले गए मुझे वे,
सात ठदवस का दं ड ववधान
मुझको हुआ; हुआ था मझ
ु से
दे वी का महान अपमान!
शब्िाथय –अभागी – जिसका बरु ा भाग्य हो,न्यायालय – न्याय करन का स्थान
व्याख्या – कवि कहता है कक िब भक्तों न सुखखया क वपता की वपटाई की तो उसक हाथों
स सार का सारा प्रसाि बबखर गया। िह िख
ु ी हो गया और सोचन लगा कक उसकी बटी का
भाग्य ककतना बुरा है क्योंकक अब उसकी बटी तक प्रसाि नहीं पहुुँचन िाला था। लोग उस
न्यायलय ल गय। िहाुँ उस सात दिन िल की सिा सुनाई गई। अब सुखखया क वपता को
लगन लगा कक अिश्य ही उसस ििी का अपमान हो गया है । तभी उस सिा लमली है ।
14. मैंने स्वीकृत ककया दं ड वह
िीि झक
ु ाकर चप
ु ही रह;
उस असीम अलभयोग, दोष का
क्या उत्तर दे ता, क्या कह?
सात रोज ही रहा जेल में
या कक वहााँ सठदयााँ बीतीं,

8
अववश्रांत बरसा के भी
आाँिें तननक नहीं रीतीं।
िब्दाथथ –स्वीकृत – स्वीकार कर,अववश्रांत – बबना ववश्राम के
व्याख्या – कवि कहता है कक सखु खया क वपता न लसर झक
ु ाकर चप
ु चाप उस िंड को
स्िीकार कर ललया। उसक पास अपनी सफाई में कहन को कुि नहीं था। इसललए िह नहीं
िानता था कक क्या कहना चादहए। िल क ि सात दिन सखु खया क वपता को ऐस लग थ
िैस कई सदियाुँ बीत गईं हों। उसकी आुँखें बबना रुक बरसन क बाि भी बबलकुल नहीं सूखी
थीं।
15. दं ड भोगकर जब मैं िूटा,
पैर न उठते थे घर को
पीिे ठे ल रहा था कोई
भय जजथर तनु पंजर को।
पहले की सी लेने मझ
ु को
नहीं दौडकर आई वह;
उलझी हुई िेल में ही हा!
अबकी दी न ठदिाई वह।
िब्दाथथ –ठे ल – धकेलना, जजथर – थका
व्याख्या – कवि कहता है कक िब सुखखया का वपता िल स िूटा तो उसक पैर उसक घर
की ओर नहीं उठ रह थ। उस ऐसा लग रहा था िैस डर स भर हुए उसक शरीर को कोई
िकल कर उसक घर की ओर ल िा रहा था। िब िह घर पहुुँचा तो हमशा की तरह उसकी
बटी िौड़कर उसस लमलन नहीं आई। न ही िह उस कहीं खल में उलझी हुई दिखाई िी।
16. उसे दे िने मरघट को ही
गया दौडता हुआ वहााँ,
मेरे पररचचत बंधु प्रथम ही
फूाँक चुके थे उसे जहााँ।
बुझी पडी थी चचता वहााँ पर

9
िाती धधक उठी मेरी,
हाय! फूल सी कोमल बच्ची
हुई राि की थी ढे री।
िब्दाथथ –मरघट – िमिान, बंधु – ररश्तेदार
व्याख्या – कवि कहता है कक सखु खया क वपता को घर पहुुँचन पर िब सखु खया कहीं नहीं
लमली तब उस सुखखया की मौत का पता चला। िह अपनी बच्ची को िखन क ललए सीिा
िौड़ता हुआ शमशान पहुुँचा िहाुँ उसक ररश्तिारों न पहल ही उसकी बच्ची का अंनतम
संस्कार कर दिया था। अपनी बटी की बझ
ु ी हुई धचता िखकर उसका कलिा िल उठा।
उसकी सुंिर फूल सी कोमल बच्ची अब राख क ढर में बिल चुकी थी।
17. अंनतम बार गोद में बेटी,
तुझको ले न सका मैं हा!
एक फूल मााँ का प्रसाद भी
तझ
ु को दे न सका मैं हा।

व्याख्या – कवि कहता है कक सुखखया का वपता सखु खया क ललए िुःु ख मनाता हुआ रोन
लगा। उस अफसोस हो रहा था कक िह अपनी बटी को अंनतम बार गोिी में न ल सका। उस
इस बात का भी बहुत िुःु ख हो रहा था कक उसकी बटी न उसस किल माता क मंदिर का
एक फूल लान को कहा था िह अपनी बटी को िह ििी का प्रसाि भी न ि सका।
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