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बिहार में जमीनी स्तर पर मौजूदगी और ‘स्वाभाविक’ गठबंधन की बदौलत वामदलों ने अपना प्रदर्शन सु धारा

छह और चार सीटों पर चुनाव लड़ने वाली भाकपा और माकपा ने दोनों


ने दो-दो सीटें जीती हैं ले किन भाकपा (माले ) का 19 में से 12 सीटों पर
सफल रहना चौ ंकाता है , जिसका 63 फीसदी का स्ट्राइक रे ट भाजपा के
67 फीसदी के बाद दूसरे नंबर पर है .
सान्या ढींगरा 14 November, 2020 1:39 pm IST

ले फ्ट पार्टी/सोशल मीडिया


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नई दिल्ली: बिहार में चु नावी हाशिये पर रहे वामपं थी दलों ने महागठबं धन की छत्रछाया में 29 में से 16
सीटों पर जीत हासिल कर लं बे समय बाद वापसी की है . हालां कि, महागठबं धन सत्तारूढ़ एनडीए को सत्ता
से हटाने में नाकाम रहा ले किन भारतीय कम्यु निस्ट पार्टी, भाकपा-मार्क्सवादी (माकपा) और भाकपा
(मार्क्सवादी-ले निनवादी) लिबरे शन हाल में सं पन्न विधानसभा चु नावों में सबसे ज्यादा फायदे में रहने
वाली पार्टियों के तौर पर उभरी हैं .
क् रमश: छह और चार सीटों पर चु नाव लड़ने वाली भाकपा और माकपा ने दोनों ने ही दो-दो सीटें जीती हैं
ले किन भाकपा (माले ) का 19 में से 12 सीटों पर सफल रहना चौंकाता है जिसका 63 फीसदी का स्ट् राइक
रे ट भाजपा के 67 फीसदी के बाद दस ू रे नं बर पर है .

इस नतीजे के कारणों को ले कर कुछ मतभिन्नता है — कुछ विश्ले षकों और पर्यवे क्षकों ने इसे राष्ट् रीय
जनता दल (राजद) का साथ मिलने का नतीजा बताया है जबकि अन्य का तर्क है कि वामपं थ चु नावी
विफलताओं के बाद भी लगातार जारी रहने वाला एक वै चारिक आं दोलन है जिसकी अथक मे हनत रं ग
लाई है .

ले किन ऐसे समय जब वामपं थी केवल केरल में सत्ता में हैं और पश्चिम बं गाल और त्रिपु रा जै से अपने
पु राने गढ़ों में भी अपनी ताकत गं वा चु के हैं , दिप्रिं ट ने बिहार के विशिष्ट सामाजिक-राजनीतिक ताने -बाने
को गहराई से समझने की कोशिश की जिसने इस परिणाम को सं भव बनाया है .

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बिहार में नई ताकत नहीं

विश्ले षकों का तर्क है कि बिहार चु नावों में वामपं थियों के प्रदर्शन का मूल आधार विभिन्न इलाकों में एक
लं बे समय से उसकी वै चारिक मौजूदगी है .

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प्रयागराज स्थित जी.बी. पं त सामाजिक विज्ञान सं स्थान के निदे शक बद्री नारायण ने कहा कि ये चु नाव
नतीजे वामपं थी दलों के लिए बहुत ज्यादा मायने रखते हैं क्योंकि इसने घड़ी की सु इयों को अविभाजित
बिहार के उस समय की ओर घु मा दिया है जब विधानसभा में इनके करीब दो दर्जन विधायक हुआ करते थे .
वास्तव में 1995 तक भी बिहार विधानसभा में वाम दलों के 25-35 विधायक थे . भाकपा हर चु नाव में 20-25
सीटें हासिल करती थी.

इसके बाद भाकपा और माकपा का जनाधार तो सिकुड़ गया ले किन 1973 में भाकपा (माले ) के विभाजन के
बाद गठित भाकपा (माले ) लिबरे शन हर चु नाव में पांच-छह सीटें जीतता रहा. इसने इस बार राजद और
कां गर् े स के साथ हाथ मिलाने से पहले कभी किसी मु ख्यधारा की पार्टी के साथ गठबं धन नहीं किया था.

विशे षज्ञों का मानना है कि राज्य पर ‘मं डल’ राजनीति का प्रभाव ही यह वोट बे स घटने की वजह बना.
टाटा सामाजिक विज्ञान सं स्थान में प्रोफेसर अश्विनी कुमार का तर्क है , ‘बिहार की राजनीति के
मं डलीकरण ने वामपं थ को चोट पहुंचाई. लालू प्रसाद यादव के रूप में एक कद्दावर ने ता के उदय ने यहां
जातीय समीकरण को राजनीति पर हावी कर दिया. पर पिछले कुछ सालों में नक्सल आं दोलन ने बिहार में
अपनी जड़ें मजबूत की है और यह एक अर्ध-दलित आं दोलन बन गया है .’

भाजपा ने ता और शिक्षाविद डॉ. सं जय पासवान कहते हैं , ‘1960 के दशक तक केंद्र और बिहार दोनों में
वामपं थी अहम विपक्षी दल की भूमिका में थे . ले किन गै र-कां गर् े सवाद और समाजवाद के उभार के साथ वे
ू रों के साथ हाथ मिलाने की जरूरत पड़ने लगी.’
कमजोर होने लगे और उन्हें दस

उन्होंने कहा, ‘जब लोहिया ने यह परिभाषा दी कि भारत में जाति ही वर्ग है तो इसने सीधे तौर पर वाम
दलों को चोट पहुंचाई. और वामपं थियों के एकदम हाशिये पर पहुंचाने वाला आखिरी झटका निश्चित तौर
पर लालू प्रसाद यादव का कद बढ़ने से लगा, जिन्होंने बिहार में जाति की पहचान को ही राजनीति का
केंद्र बना दिया. ले किन राजनीति का खे ल दे खिए कि जहां लालू की मं डल राजनीति वामपं थियों के पतन
का कारण बनी वहीं, उनका पु तर् ही वामपं थियों के फिर से उभरने में मददगार बना.’

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को बै ठक

वर्ग संघर्ष का इतिहास

कई विश्ले षकों का कहना है कि वामपं थी पार्टियों खासकर भाकपा (माले ) लिबरे शन की जीत को सिर्फ
इसलिए तवज्जो न दे ना कि वह महागठबं धन का एक हिस्सा थी, चु नाव में शानदार प्रदर्शन न करने के
बावजूद राज्य में पार्टियों की लगातार मौजूदगी को आधे -अधूरे ढं ग से समझना ही होगा.

लालू के जीवन पर आधारित किताब गोपालगं ज से रायसीना तक के सह-ले खक और वरिष्ठ पत्रकार


नलिन वर्मा कहते हैं कि वामपं थी दलों, विशे ष रूप से लिबरे शन (जिसकी जड़ें 1960 के दशक के
नक्सलबाड़ी आं दोलन से जु ड़ी हैं ), ने जिन सीटों पर सफलता हासिल की है , उनके त्वरित विश्ले षण से पता
चलता है कि इन सभी क्षे तर् ों में खे तिहर मजदरू ों और नक्सल आं दोलनों का इतिहास रहा है .

वर्मा ने कहा, ‘यदि आप इन क्षे तर् ों को ध्यान से दे खें तो पाएं गे कि वहां हमे शा वामपं थियों की उपस्थिति
रही है क्योंकि यहां वर्ग सं घर्ष का लं बा इतिहास रहा है . मं डल-मं दिर की राजनीति से भले ही राजनीतिक
रूप से उनकी मौजूदगी को ग्रहण लग गया हो ले किन वै चारिक रूप से उनकी उपस्थिति लगातार बरकरार
रही है .’

उन्होंने आगे कहा, ‘वामपं थी खे तिहर मजदरू ों, किसानों, मजदरू वर्गों के मु द्दों पर राजनीति करते हैं …ये
आं दोलन आधारित दल हैं इसलिए जब चु नावी प्रदर्शन नहीं करते हैं तो भी उनकी जगह बनी रहती है
क्योंकि उनके कैडर समाज में काम करते हैं जहां सामं तवाद चलता रहता है .’

विश्ले षकों का कहना है कि यह बात खासकर भाकपा (माले ) लिबरे शन के सं दर्भ में एकदम सच है , जो
बिहार में मजदरू तबके और वर्ग के आधार पर शोषण के मु द्दों को उठाता रहा है .
अपना नाम न बताने की शर्त पर पटना स्थित जगजीवन राम इं स्टीट्यूट ऑफ पार्लियामें ट् री स्टडीज के
एक जाने -माने प्रोफेसर ने कहा, ‘अत्यं त पिछड़ा वर्ग (ईबीसी) और दलितों के बीच उनका एक समर्पित
जनाधार है , खासकर उन इलाकों में जहां वर्ग हिं सा होती है .’

उक्त प्रोफेसर ने कहा, ‘निश्चित तौर पर यह तो नहीं कहा जा सकता कि वामपं थी पूरे दलित वर्ग और
ईबीसी का प्रतिनिधित्व करते हैं . ले किन इन समु दायों के बीच एक ऐसा वर्ग है जो हिं सा और शोषण को
अपना दुर्भाग्य मानकर बर्दाश्त नहीं करता है और वही तबका इन्हें वोट दे ता है .’

प्रोफेसर ने तर्कों के साथ समझाया कि वामपं थियों ने पश्चिमी जिलों सीवान, भोजपु र, बक्सर, रोहतास,
जहानाबाद और यहां तक कि पटना में भी, जिसे सं युक्त रूप से भोजपु र क्षे तर् के तौर पर जाना जाता है ,
क्यों बे हतरीन प्रदर्शन किया.

प्रोफेसर ने आगे बताया, ‘चारु मजूमदार (कम्यु निस्ट ने ता) के समय से ही भोजपु र क्षे तर् वर्ग सं घर्ष का गढ़
रहा है . इसलिए यह ‘कोई और क्षे तर् ’ नहीं है जहां वामपं थियों ने अच्छा प्रदर्शन किया है … 1960 के
दशक में यह क्षे तर् खूनखराबे और हिं सा से प्रभावित रहा था.’

तथ्य बताते हैं कि भारत के पहले भाकपा माले सांसद रामे श्वर प्रसाद ने 1989 में भोजपु र से ही चु नाव
जीता था. भाकपा माले ने उस समय 1982 में स्थापित इं डियन पीपु ल्स फ् रं ट के तहत चु नाव लड़ा था.

प्रोफेसर ने कहा, ‘भाकपा माले के पास यहां एक मजबूत कैडर है , भले ही छोटा ही सही. वे समर्पित कैडर
हैं . यही वजह है कि आप भाकपा माले के उम्मीदवारों की जीत में एक बड़ा अं तर दे ख पा रहे हैं .’

दिप्रिं ट के एक विश्ले षण के अनु सार, वास्तव में कांटे के इस मु काबले में भाकपा (माले ) लिबरे शन की जीत
का औसत अं तर लगभग 23,000 वोट रहा है , जिसमें बलरामपु र विधानसभा क्षे तर् में महबूब आलम की
53,078 वोट की सबसे अधिक अं तर वाली जीत शामिल है .

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‘राजद के साथ स्वाभाविक गठबंधन’

प्रोफेसर ने स्पष्ट किया कि हालां कि, इन क्षे तर् ों में उनका मजबूत वै चारिक आधार है फिर भी महागठबं धन
का हिस्सा बनने से वामपं थी दलों को राजनीतिक ऊर्जा मिली.

जै सा ऊपर उल्ले ख किया जा चु का है भाकपा (माले ) लिबरे शन नक्सल आं दोलन के साथ निकटता से जु ड़ा
रहा है और वामपं थी दलों में सबसे कट् टर है . 1989 में मु ख्यधारा की राजनीति में शामिल होने से पहले कई
वर्षों तक भूमिगत रहा और कभी भी किसी मु ख्यधारा की पार्टी के साथ गठबं धन का हिस्सा नहीं बना.

उदाहरण स्वरूप, 1970 के दशक में लाल से ना कही जाने वाली पार्टी की सशस्त्र शाखा ने भोजपु र, गया,
छपरा, सिवान, पटना और औरं गाबाद जिलों— जिसमें अधिकां श में उसने इस बार सीटें जीती हैं , में
जमींदारों के खिलाफ हिं सक सं घर्ष का सहारा लिया. यही कारण है कि भूमिहारों की तरफ से मु काबले के
लिए रणवीर से ना जै से सं गठनों का गठन किया गया.
प्रो. अश्विनी कुमार ने बताया कि भाकपा (माले ) ने लं बे समय तक ‘यादव शासन’ के खिलाफ जं ग लड़ी
थी, जो कथित तौर पर राजद की दे न थी.

ले किन नारायण कहते हैं कि यह एक नया वामपं थ है जो इस विधानसभा चु नाव में उभरा है . उन्होंने कहा,
‘यह ऐसा वामपं थ है जो समझता है कि लोकतं तर् में लचीलापन कितना जरूरी है . यही वजह है कि भाकपा
(माले ) लिबरे शन आगे बढ़ गया और उसने यहां तक कि कां गर् े स के साथ भी गठबं धन किया है , जिसके बारे
में पिछले 20 सालों में उसने सोचा भी नहीं होगा…. चु नावी राजनीति आपको यही सब सिखा दे ती है . एक
तरह से यह वामपं थियों के लिए खु द को फिर से खड़ा करने का उपयु क्त अवसर है .’

नारायण ने कहा कि राजद की अपनी बदलती राजनीति भी इस गठबं धन का आधार बनी. उन्होंने कहा,
‘जाति को रोजगार जै से बड़े आर्थिक मु द्दों के साथ जोड़कर बात करने की कोशिश ने राजद को वामपं थियों
के लिए एक स्वाभाविक सहयोगी बना दिया.’

नलिन वर्मा ने इससे सहमति जताई, ‘इतिहास बताता है कि वामपं थियों ने 1990 के दशक तक लालू के
साथ गठबं धन किया, जिसके बाद वह भी पहचान की राजनीति में शामिल हो गए. ले किन अब जब कुछ
खालीपन नज़र आया और पहचान को दरकिनार कर भाजपा विरोधी गठबं धन बनाने की आवश्यकता पड़ी
तो दोनों फिर से एक साथ आ गए.

उन्होंने कहा, ‘राजद जब कमाई, पढ़ाई, दवाई और सिं चाई की बात करता है , तो यह निश्चित तौर पर वे
मु द्दे उठा रहा है जो वामपं थी उठाते रहे हैं . इसलिए गठबं धन कारगर रहा. यह एक बै नर के तले आने जै सा
है .’

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‘ज्यादा अर्थ न निकालें ’

हालां कि, सें टर फॉर पॉलिसी रिसर्च में फेलो राहुल वर्मा ने नतीजों का निहितार्थ वामदलों के ‘पु नरुत्थान’
के रूप में निकाले जाने को ले कर आगाह किया.

उन्होंने कहा, ‘उन्होंने सभी सीटों पर राजद की वजह से जीत हासिल की है . यहां तक कि पिछली बार जब
उसके साथ गठजोड़ा किया, तो उन्होंने 20 सीटों पर जीत हासिल की थी. परिणाम का यह निहितार्थ
निकालना गलत होगा कि यह वामपं थियों का पु नरुत्थान है , क्योंकि वामपं थियों के लिए यह अस्तित्व की
लड़ाई है , पु नरुत्थान की नहीं. वामदल अगर कल पश्चिम बं गाल में तृ णमूल कां गर् े स के साथ गठबं धन कर
लें तो जीत जाएं गे ले किन इसका मतलब यह नहीं है कि यह बं गाल की राजनीति में फिर से एक प्रमु ख
ताकत बन जाएं गे.’

यह पूछे जाने पर कि वामपं थी दलों को इतनी सीटें क्यों दी गई होंगी जब उनकी तरफ से राजद को कुछ
मिलना नहीं था, राहुल वर्मा ने कहा कि राजद अपना मतदाता आधार बढ़ाने की कोशिश कर रहा था और
‘मु स्लिम-यादव पार्टी’ का टै ग हटाना चाहता था तो उसे वामदलों की तरफ से कुछ दलित और ईबीसी
वोटबैं क का साथ मिलने की उम्मीद थी.
नारायण ने भी कुछ इसी तरह की राय जताई. उन्होंने कहा, ‘यह मानना गलत होगा कि राजद के बिना भी
वाम दलों को इतने वोट मिलते . उनके पास बे हद सीमित जनाधार है . ले किन कां गर् े स के विपरीत इसमें –
गठबं धन से लाभ उठाने की क्षमता है .

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