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Sanskrit Sample Unit - 3&&
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UGC – NET
संस्कृत
इकाई - तत
ृ ीयः
दर्शन-साहित्य
इकाई - तत
ृ ीयः
दर्शन-साहित्य
'दर्शन' र्ब्द की ननष्पत्ति 'दृर् ्' धातु से हुई है । 'दृर् ्' का अर्श है दे खना। 'दृश्यते
अनेन इनत दर्शनम' के अनुसार, जिसके द्वारा दे खा िाए वही दर्शन है । सामान्यतः
नेत्र ही दे खने के लिए स्र्ि
ू साधन हैं और नेत्रों द्वारा होनेवािा प्रत्यक्ष ज्ञान
चाक्षुष-प्रत्यक्ष (Eye-Perception) कहिाता है । पर उक्त साधन स्र्ूि दर्शनों का
है । मूितः दर्शन का सम्बन्ध अन्तदृशजष्ि से होता है । यहााँ दर्शन से अलिप्राय
आत्मदर्शन से है । 'छान्दोग्योपननषद' में 'डर' र्ब्द का प्रयोग 'आत्मदर्शन' के लिए
िी हुआ है ।
येद और उपननषद् श्रनु त कहिाते हैं। सिी हहन्दु धमाशविम्बी इनके प्रामाण्य
(Authority) को मानते हैं। न्याय, वैर्ेत्तषक, साांख्य, योग, मीमाांसा और वेदान्त
ये छह आजस्तक दर्शन श्रुनत से गौण तकश को श्रुनत और उसके प्रामाण्य को तकश
के सार् स्र्ान दे ते हैं। िेककन चावाशक, बौद्ध और िैन-दर्शन, िो कक नाजस्तक
दर्शन कहिाते हैं, श्रनु त और उसके प्रामाण्य को नहीां मानते। ऐसा त्तवश्वास ककया
िाता है कक ऋत्तषयों को सत्य का साक्षात्कार (Intuition) हुआ र्ा और वह वेद
और उपननषदों में लित्तपबद्ध है ।
मीमांसा के संदर्श में र्ारतीय दर्शन
प्रमाणमीमांसा
और 6. अनप
ु िजब्ध। इस दर्शन के अनस
ु ार ज्ञान का प्रामाण्य उस ज्ञान की
उत्पादक सामग्री में त्तवद्यमान रहता है , अर्ाशत ् प्रमाणां स्वतः उत्पाद्यते। अतः
यह दर्शन स्वतः प्रामाण्यवाद कहिाता है ।
ज्ञान कैसा हो? यह ज्ञात होने के बाद ही ज्ञान की प्राजतत की उपयुक्त त्तवधध का
प्रयोग वास्तत्तवक ज्ञान की प्राजतत के ननलमत ककया िाता है जिसे 'तत्त्वमीमाांसा'
कहा िाता है । 'तत्व' र्ब्द 'तन ्' धातु से 'जक्वप' प्रत्यय करने पर ननष्पन्न होता
है । इसका अर्श होता है -मि
ू लसद्धान्त, परमतत्व, परमात्मा, मि
ू तत्त्व, प्रकृनत
इत्याहद। तत्व को सजृ ष्ि का मूि घिक िी कहते हैं। पार्ुपत-मतानुसार पर्ु, पनत
एवां पार् तीन तत्त्व हैं। र्ाक्त- मतानुसार मघ, मााँस, मत्स्य, मुद्रा एवां मैर्ुन-ये
न्याय-सत्र
ू ' में प्रमेय (वह त्तवषय, िो िाना िाता है ) के 12 िेद ककये गए हैं -
आत्मा, र्रीर, इजन्द्रय, अर्श, बुद्धध, मन, प्रवत्तृ ि, र्ेष, िाव फि, दःु ख और
अपवगश। यह दर्शन लिन्न-लिन्न र्रीरों में लिन्न-लिन्न आत्मा का मानता है ।
इसके अनुसार, आत्मा की न तो उत्पत्ति होती है और न ही नार्। अत: यह
चैतन्य तर्ा ननत्य है । िड़ िगत ितों से अर्ाशत क्षक्षनत, िि, पावक और समीर
से बना है । ईश्वर सांसार के स्रष्िा, पािक और सांहारक हैं। वह िीवों के कमाशनुसार
िगत ् की स्रजष्ि और िीवों के सुख-दःु ख का त्तवधान करते हैं। यह न पाप, पण्य
और मोक्ष को स्वीकार करता है तर्ा ईश्वर-द्वारा व्यक्त होने के कारण िेद को
प्रामाणणक मानता है ।
वैर्ेत्तषक िोग िगत की वस्तुओां के लिए पदार्श र्ब्द का व्यवहार करता है । कोई
िी वस्तु, जिसे नाम से अलिहहत ककया िा सके और जिसे ज्ञान का त्तवषय बनाया
िा सके ‘पदार्श' कहिाती है । ये दो प्रकार के हैं. 1. िाव पदार्श, िैसे-द्रव्य, गुण,
कमश, सामान्य, त्तवर्ेष तर्ा समवाय, 2. अिाव पक्ष, िैसे रात्रत्र में सय
ू श का न
होना।
वैर्ेत्तषक मतानस
ु ार, सांसार के सिी कायश-द्रव्य चार प्रकार के परमाणुओां-(पथ्
ृ वी,
िि, तेि और वाय)ु से लमिकर बनते हैं। इसीलिए वैर्त्ते षक मत को परमाणव
ु ाद
िी कहते हैं। इस मत के अनस
ु ार, परमाणओ
ु ां की गनत का सत्र
ू धार ईश्वर है । वही
सजृ ष्ि और सांहार के कताश (महे श्वर) हैं। यह सजृ ष्ि के प्रिय की जस्र्नत को िी
स्वीकार करता है । इसके अनुसार र्रीर, इजन्द्रय, बुद्धध, मन तर्ा अहां कार से
यक्
ु त िीवात्मा अपने बद्
ु धध, ज्ञान और कमश के अनस
ु ार सख
ु या दःु ख का िोग
करते हैं। प्रिय के पश्चात ् केवि चार िूतों-पथ्
ृ वी, िि, तेि और वायु के परमाणु
तर्ा पााँच ननत्य द्रव्य (हदक् , काि, आकार्, मन एवां आत्मा) और िीवात्माओां
के धमाशधमशिन्य िावना या सांस्कार मात्र बच िाते हैं, जिनको िेकर कफर अगिी
सजृ ष्ि बनती है ।
योग-दर्शन के अनस
ु ार, मनष्ु य त्तववेक (र्रीर, मन, इजन्द्रय इत्याहद से आत्मा
लिन्न है , ऐसा ज्ञान) से मुजक्त प्रातत कर सकता है । यह दर्शन मख्
ु यतया
व्यावहाररक पहिू पर िोर दे ते हुए आत्मर्ुद्धध और समाधध का अभ्यास करने
के त्तवषय में बतिाता है । इसके अनुसार, िीव एक स्वतन्त्र परु
ु ष है , िो स्र्ूि
र्रीर और त्तवर्ेषतः सक्ष्
ू म र्रीर (इजन्द्रय, मन, बद्
ु धध और अहां कार) से सम्बद्ध
है । यह स्विावतः र्ुद्ध चैतन्य स्वरूप है । धचत स्विावतः िड़ है , परन्तु आत्मा
के ननकितम सम्पकश म रहने के कारण वह आत्मा के प्रकार् से प्रकालर्त हो
उठता है । ननमि होने के कारण उस पर आत्मा का प्रनतत्रबम्ब पड़ता है , जिससे
उसमें चैतन्य का आिास आ िाता है ।
आचारमीमांसा
धमश, अर्श, काम और मोक्ष के सम्यक त्तववेक के सार् िीवन में सांतलु ित कायश
करना ही आचार है । प्रत्येक त्तववेकर्ीि व्यजक्त के मन में िीवन और सांसार के
रहस्य, िन्म-मत्ृ यु के कारण, पन
ु िशन्म अर्वा मोक्ष, आत्मा और परमात्मा का
रहस्य इत्याहद िानने की प्रवत्तृ ि होती हैं ।
न्याय - दर्शन में प्राणी इस दःु ख बहुि सांसार से सदा के लिए मुजक्त पा िे इस आचार
की मीमाांसा की गई है | न्याय-दर्शन दःु ख से अत्यांत त्तवमोक्ष को अपवगश करता है | मोक्ष
के मागश के त्तवषय में इस दर्शन का मानना है की मोक्ष-प्राजतत-हे तु सवशप्रर्म धमश- ग्रन्र्ों
के आत्म त्तवषयक उपदे र्ों का श्रवण, मनन एवां ध्यान करना चाहहए। इससे मनष्ु य
आत्मा को र्रीर से लिन्न समझने िगता है । इस तरह लमथ्या ज्ञान का अन्त हो िाने
पर सांधचत कमों का फि िोग िेने पर कफर से मनुष्य िन्म-ग्रहण के चक्र में नहीां
पड़ता, तिी मनुष्य को मोक्ष या अपवगश की प्राजतत होती है ।
िैन-दर्शन के अनस
ु ार पव
ू श-िन्म के त्तवचार, वचन तर्ा कमों के कारण िीवों को िन्म-
ग्रहण करने के दःु ख को िोगना पड़ता है । िन्मग्रहण की यही प्रकक्रया बन्धन कहिाता
है । यह दर्शन िन्म-ग्रहण के बन्धन से छिकारा पाकर मोक्ष की प्राजतत हे तु िीव के
अज्ञान का नार् और ज्ञान की प्राजतत को आवश्यक समझता है । इसीलिए यह दर्शन
सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चररत्र इन त्रत्ररत्र पर बि दे ता है ।
बुद्ध ने आत्मा, र्रीर, पुनिशन्म इत्याहद त्तवषयों पर ज्यादा ध्यान न दे कर दःु ख, द:ु ख
के कारण और दःु खननरोध िैसे त्तवषयों को अधधक महत्त्वपूणश माना। बुद्ध के अनस
ु ार
त्तवषयों से अनासजक्त से तष्ृ णाओां का नार्, द:ु खों का अन्त, मानलसक र्ाजन्त, ज्ञान,
प्रज्ञा तर्ा ननवाशण-प्राजतत सम्िव है ।
बौद्ध-दर्शन में र्ीि, समाधध तर्ा प्रज्ञा को ननवाशण-प्राजतत का मागश बताया गया है ।
योग-दर्शन में आचार के लिए अष्िाांग साधनों का वणशन ककया गया है । ये अष्िाांग
साधन हैं-यम, ननयम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधध।
मीमाांसा-दर्शन के अनुसार वैहदक धमश और वेद त्तवहहत कमों का पािन करना और उनके
द्वारा बताए गए ननत्तषद्ध कमों का त्याग करना धमश कहिाता है । इस दर्शन में वेद -
प्रनतपाहदत धमश को स्वीकार करते हए उसे तीन िागों में त्तविक्त ककया गया है -1,
कतशव्य, 2. काम्य और 3. प्रनतत्तषद्ध। इसके अनतररक्त स्मनृ तग्रन्र्ों में वणणशत प्रायजश्चत
कर के सेवन का िी त्तवधान ककया गया है । इसमें स्वगश की प्राजतत केिा यज्ञ को साधन
माना गया है -स्वगश कामो यिते। इस दर्शन िक्ष्य मोक्ष की प्राजतत है ।
Unit - 3
MCQ
Questions
And
Answers
(B) अन्नंर्ट्ट :
(C) िट्िालिरामः
(D) अनन्तनारायणः
(B)न्याय-दर्शनेन
(D) योग-दर्शनेन
(A) त्तवश्वनार्ः
(B) रामनार्ः
(B) न्याय-दर्शनेन
(C) पूवशमीमाांसा-दर्शनेन
(D) योग-दर्शनेन
(A)2
(B)4
(C)3
(D)5
(A) कणादः
(B) कण्वः
(A)8
(B)7
(C)10
(D)12
(A) पर्
ृ क
(B) घननष्ठः
(C) सम्बन्धः
(D) त्तवकारः
(A) त्तववेकात्मकः
(B) त्तवचारात्मकः
(C) सकारात्मकः
(D) चलनात्मकः
(A) 22
(B)24
(C)18
(D)20
(A) अष्ि
(B) नव
(C) सतत
(D) दर्
(A) द्रव्य:
(B) गुणः
(C) अपर:
(D) आकार्ः
(A) उपादानम ्
(B) समवानयः
(C) असमवानयः
(D) ननममत:
(A)9
(B)2
(C)6
(D)5
(A) कोऽत्तप न
(B)1
(C)4
(D) अनन्तम ्
(A)7
(B)9
(C) अनन्तम ्
(A) परः
(B) पथ्
ृ वीः
(C) र्ब्दम ्
(D) प्रसारणम ्
(A) रसः
(B) र्ब्दम ्
(C) सांयोगम ् .
(D) सामान्यम ्
(A) वाक्यम ्
(B) वाक्यार्शम ्
(C) पदम ्
(D) पदार्शम ्
20. द्रव्यमजस्त :
(A) कािम ्
(B) महाकािम ्
(C) रूपम ्
(D) रसः