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परा वे का 1

म हे राचा मराज र ता

परा वे का
िव त
द परमेिशत ु
परािदश पे
र संिव नमु ।१

आ कां तत् उ
दयं परमे तु: ।
परा आिद श पेण
र सं दं नुम: ।।१।।

(उस) सं त् देवी करता ,


• जो जग प होकर जगत् से उ अ त् परे है,
• जो परमे र का दय अ त् सार बनी ई है
• तथा जो परा आ अ त् परा, परापरा और अपरा श
से क त बनी ई है।
स्फु
न्तीं
र्णां

यं
कां
दं
श्री
हृ
वि
हृ
स्फू
मैं
प्रा
वि
श्वा
न्मा
श्व्
शि
न्तीं
त्मि
प्रा
सि
श्व
श्व
द्रू
क्ति
त्मि
वि
शि
वि
रू
र्य
शि

क्ति
हृ
क्षे
दि
हु
दु

:
त्ती

रू
की
र्था

वि
:
र्था

स्तु

त्ती
चि
ति
त्ती

र्णां

र्ण

र्था
हूं
हु

क्ति
यों
परा वे का 2

इ ख परमे र काशा
का िवमा भाव
िवम ना िव कारे िवशव काशेन िव संहरणे
चाकृ माह –इ िव रणम ्
य िन म अनी जड स ।२

इह खलु परमे रः काश आ ,


काशः च म भावः ।
म नाम कारेण काशेन,
शव सं हरणेन च अकृ म अहं - इ रणं ।
यिद म त् अनी रो जधः च स त।२।
• व तः इस शैव म परमे र काश- प
है।
• काश का पारमा क भाव यानी प
म ।
• इस जगत् सृ , और संहार ,
भा क प से “अहं कास” को, अ त् “
ही इस सृ और संहार करता ”- इस
कार सहज-भावना करने को म कहते

• य यह व- काश म से र त होता तो
म हीन अ र जड प सू काश भी
संग आते अ त् वे जड काश भी ई र
माने जाते!
म्
त्
र्थि
स्फु
र्शा
र्श
र्श
ज्ये
प्र
प्र
वि
वि
प्र
वि
स्व
प्र
हैं
वि
प्र

स्तु
दि
दि
प्रा

र्शो
श्च
र्श
शि
र्श
त्रि
निः
वि
लु
में
की
र्वि
की
हैं
वि
शि


की
वि

रू
वि
र्शः
ष्टि
:
श्व
नि
श्व
स्व
श्वा
प्र
र्श
श्वा
स्या
श्व
स्या
स्थि
ष्टि
र्था
ति
:
स्व
प्र
प्र
र्ग
ति
स्थि
में
:

वि

त्रि
रू
वि
स्व
ति
वि
त्मा
श्व
श्व
र्श
श्व

श्व
त्मा
रो
प्र
प्र
,

र्या
प्र

प्र
दि

हि
श्च
वि
प्र
ति
,

प्र
में
स्व
वि
र्था
र्श
प्र
स्व
हुं
रू
स्फु
श्व
श्व
ज्ये
रू


मैं

स्व
स्वा
स्फु
चि
स्व
स्व
स्फु
हृ
स्प
त्या

ख्य
र्तृ
प्रा
र्तृ
न्द
त्त्या
न्य
त्वं
प्र

न्त्र
श्व
शि
त्ता
ब्दै
दि
न्त्र्य

दि
,

श्व

स्फु
म्ब
र्य

स्वा
,
वि

मों
द्धो
न्धी
ब्दैः

वि
ए ए

चैत
ष्य
,
र्शः
र्शः
त्
न्त्र्यं
हृ

दय,
परा वे का

ते
त्म
क ता,
-
द्घो
र्श
,

ना
चि
परमे रस
नो

श रागमेष ू

त ता,
,

इस कार के
र सार
षि
स्प

मु ऐ ,
िवम

रता, सार,
,
न्द
ख्य
त्म
हृ
त म ् परमा

द्घो
कि
से उ
म्पू
:
रसोिदतापरावाक ्

ष्य
-
न्यं
दयं
न्यं
र्ण
श्व
यं उ त परावाक्,
स्प
,
त्या
र्यं
ख्यं
स्व
,

। ३।

न्दः
दि
म को स
र्तृ

िचत ् च ैत

श्व
म ु मै

क , रत्-ता, सारो, दयं ,


र्य

स्त्रों
,

त्वं

में

- इ िद श आगमेषु उ ते ।३।
,

या गया है।
शैव-शा
परावाक् , त ,परमा नो मु ऐ ,
एष एव च म - त् , चैत , रस उिदता

:
3
परा वे का 4

अ ए अकृ माहिम सत काश प


परमे र पारमे श िशवा
धर जगदा र काश च
एतदे अ जगत क मजड
जगत का म एतदधीन काश मे ।।४।

अतदेव अकृ म अहं इ सत


यं काश पः परमे रः
पारमे श या व आिद धर अ
जगदा ना र काशते च ।
एतत् एव अ जगतः क म् अजड म् च, जगतः
का म् अ एतत् आधीन काश म् एव

• इसी म के फल प सहज पू ह प
- काशा परमे र अपनी ऐ यु
त श से व- त से लेकर पृ वीत
तक जगत् प से कास आता है और कट
होता ।
• इस व का इस कार से व त होना ही व
का क पन तथा चेतनता है।
• जगत यह का ता भी अ त् जग
घटपटा जड पदा व भी इसी व काश के
अधीन है।
र्ति
स्फु
र्य
र्या
र्तृ
ते
यं
स्व
स्व
स्वा
प्रा

र्य
ण्य
प्र
शि
त्व
शि
श्व

वि
प्र
श्व
न्त्र्य
:
हैं
न्त

त्म
र्त्ता
की
र्या
दि
:

स्य
र्श


क्ति
रू
त्व
स्फु
पि
त्मा
स्य
त्रि
रू
क्त
त्रि
श्व
त्म
पि
ति
र्य
शि
ना
प्र
वि
:
शि
प्र
र्थ
स्व
श्व
ति
श्व
क्त्या
रू
र्ग
ति
त्व
र्तृ
-
ति
त्त्व

त्व
में
प्र
प्र
प्र
र्था
प्र
त्त्वः
त्त्व

दि


:
णि

श्व
त्व
त्वं
शि
स्व
त्व

-
र्णा
र्य
त्व
, 

द्व

क्त
न्तः
प्र
र्ती

न्ता
प्र
थि
प्र

रू
शि
रू

त्त्व
:
परा वे का 5

एवंभ ू जग काश पा कु हे रादिभिह मे


िभ वे ऽ काशमान काशनायोगा
िच ।।५।

एवम् भूतम् जगत् काश पात्


करतुम् महे रात् अ म् एव ।
वे अ काशमान न
काशन अयोगात् न िकं त् त् ।५।

• इस भां वृ आ यह जगत् काश प


इस जगत् के क महे र से अ ही ठहरा है।
• य इस जगत् को काश प व से
एवं संब त माना जाता तब तो अ का त
बनकर यह जगत कु छ भी न रहता अ त् इस
कोई भी स अनुभव न आती।
त्
त्
त्
त्
र्तु
र्म
तं
त्वे
त्वे
किं
भि
प्र
दि
प्रा
न्न
न्न
श्र
शि
त्स्या
द्य
द्य
ति
त्वे
न्धि

प्र
श्व
त्ता
प्र
प्र
त्त
प्र

र्त्ता
हु
प्र
भि
प्र

रू
न्न
श्व
में
चि
रू
त्वे

स्व
प्र
स्या

रू

भि

प्र
शि
श्व
न्‍न

र्था
प्र

स्व

भि
रू
शि
न्न

न्‍न
की

परा वे का 6

अन े जग अ भगवत काशा
कदािच ितरोधीयते
एत काशन े ित ल काशमानिम जग
आ णभू क िनरो श यात ्
क त यमवित त ।।६।

अनेन च जगता अ भगवतः


काश कं पं न कदा त रोधीयते।
एतत् काशनेन ल
काशमानम् इदं जगत् ष नः ण भूतं
कथं रो म् श यात् ,
कथं च तत् म् अव त ।६।

• ऐसे (क प और का प) जगत् से इस
भगवान का काशा क प कदा पन
सकता।
•( ) स काश के रा यह जगत अपनी
को करके का त बना आ है, ऐसे
ही अपने जीवन बने ए काश का रोध करने
यह जगत् स कार सम हो सकता है और
कै से उसका राकरण करके यं ठहर सकता
है।
त्
त्
क्नु
ष्ठे
थं
तं
ष्ठां
थं
द्धुं
कं
दं
पं
प्र
प्र
स्थि
में
क्यों
प्रा

त्म
त्प्र
ति


शि
नि
कि
प्र
नः

त्म
र्तृ

न्नि
रू
प्रा
जि
द्धु
प्रा
नि
रु
रू


नि
प्र
ता
कि
ध्य
रु
प्त
प्र
ध्य
प्र
प्र
स्व
क्नु
ति
स्य
स्य
प्र
स्य

ष्ठां
त्म
हु
र्य
प्र
चि

रू
ब्ध्वा
त्म
प्र
ब्ध्वा
रू
द्वा
शि
ति
ति
प्र
:
र्थ

स्व
प्रा
ष्ठे

प्र

पि
नि
त्म
,

हु

छि

रू
हीं

परा वे का 7

अत व न साधकिम बाधकिम माण


इ नसं ु धाना कसाधकबाधक- मातृ पत
चा स व:
त मारण
ए व स वमनमु तां
ता भा माण
ए पत पू िस महे र
यं श संवदे निस ।।७।
अतः च अ व नः साधकम् एदं बाधकं एदं
माणम् - इ अनुसंधाना क साधक बाधक -
मातृ पयता च अ सदभावः।
तत् स वे िकं माणम् ?
इ व स वम् अनुम तां ।
ता क् भावे िकं माणम् ?
इ पतया व पु महे र यं
काश स संवेदन म् ।

• अतः “इस व प व को करने वाले ये


माण ।” इस वा क व का ख न करने
वाले ये माण इस कार साधक और बाधक
प व के रा ही इस व का
अ दीख पडता है।
• (भाव यह है आ क तथा ना क. दो
म करने स है, अतः परमे र उनके
अ करने से पू ही यं है।)
क्
म्
म्
म्
म्
स्तु
स्तु
र्वा
वे
वे
यां
दं
दं
स्व
प्र
प्र
प्र
प्र
व्य
वि
त्य
ति
ति
ति
ति
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स्त्ति
सि
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द्द
स्य
क्ति
श्चा
र्श
प्रा
शि
ग्र
द्भा
प्र
द्ध
रू
द्भा
त्व
स्तु
स्व
ष्ट्ट
स्य
रू
स्व
त्वं
हैं
ष्टृ
रू
प्र
भ्दा
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रू
स्य
शि
द्भा
शि
त्वं
द्भा
स्व
ति
र्व
त्म
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स्य
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प्र
रू
स्तु
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शि

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स्व
र्व
प्र
प्र
त्ता
स्य
स्ति
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त्म
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द्घ

प्त

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द्ध
त्म
,

स्य
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द्ध

सि
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सि
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-

द्ध
द्ध

शि
प्र
स्ति

श्व
श्व

स्य
रू
ण्ड
स्य
प्र
श्व
स्व
नों
या
में
-
परा वे का 8

माणम यमा मा भवित त



माण तदधीनशरीर णनीलसखािदवे
चाितश स भासमान वेदकै क प
स िमितभाज िस अिभनवा काश
माणवराक क पयोगः।।८।

िकं च माणं अ यम आ माणं भव ,


त माण तत् अधीन शरीर नील सुख आिद वे
च अ श सदा भासमान वेदक एक प
स भाजः अ नव अ काश
माण वराक कः च उपयोगः ।८।

• दस
ू री बात यह भी है माण त् अनुमान
आ दु भी स मातृ प माण के
आ त रह कर माण बनता है, वेही मातृ प
माण, शरीर, ण तथा नील, सुख वे
को अपने अधीन रख कर स शय प से सदा
भासमान है।
• इसी भां ता- प तथा संपू न के
के बने ए मातृ- काश को करने के
ए कं वल-मा नवीन अ का काशक
माण चारा कया योजन रखता है।
र्व
र्थ
णं
द्यं
प्र
प्र
प्र
प्र
लि
प्र
किं
स्य
र्व
प्रा
न्द्र
दि
श्रि
प्र

प्र
शि
ति
प्र
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स्य

प्र
य्य
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ष्टा
ति
ति
प्र
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द्धौ
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प्र
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स्य
प्र
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बि
स्य
त्य
र्थ
र्वा
त्य
रू
प्र
ति
प्र
सि
प्र

प्र
प्र
प्र
र्ण
र्था
र्थ
रू
द्ध

श्रा
रू
प्र
ज्ञा
प्र
स्य

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रू

स्य
ति
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स्य
रू
स्य
द्य

स्य

द्यं

वि
वं
ट्त्रि
ण्डा
प्रा
स्ता
सि
शि
र्श
द्धा

ब्द
ब्द
न्त
र्णा

त्त
त्वा
इस
प्रा
शि
न्ता
प्त
ट्त्रिं
सि
परा वे का

हु
भ र पू
त्त्वों
द्ध
त्म
त्त
र को
र्णा
त्त्व
शि
र्ण

के
त्वा
न्ता
क्त
प्र

स्व
ही ३६ (छतीस) त
त्म
परमिश ए ष श

वि
ञ्चः
रू
न्ता
कः

र्शा

र्श
र्ण
ए चश रािशमयपू ह

से संयु
के
आ है।
प्र
त्मा

ञ्च
एवं च श रा मय पू अह

ब्दों
त्वा
पराम सार त परम व एव

:

होने पर संपू
त्
द्रृ
ष शत त व आ कः प ।९।

शि

परम सार

का
प ।।९।

प से जग पता के
परम व
9
परा वे का 10

ष श च िश श सदािश ई
श ु िव मा क िव रा का िनया प ु
कृ ब ु अहंका मन च िज
वा पा पा उप श र ग
आका वा व सिल भूमय इ ता ।।१०।

छतीस त के नाम ये :-
I. १. व, २. श , ३. सदा व
४. ई र ५. शु
II. ६. माया ७. कला ८.
९. राग १०. काल ११. य
III. १२. पु ष १३. कृ
IV. १४. बु १५. अहंकार १६. मन
V. १७. १८. चा १९. च
२०. २१. ण
VI. २२. वाकू २३. पा २४. पाद
२५. पायु, २६. उपं ,
VII. २७. श २८. २९. प
३०. रस ३१. ग
VIII. ३२. आकाश ३३. वायु ३४. व ,
३५. स ल ३६.भू
क्
क्
यु
यु
क्षु
र्श
त्ये
प्र








ट्त्रिं
द्ध
प्रा
ति
जि
शि
श्व
त्त

द्या
लि

णि
ह्व
त्त्वा
द्धि
त्त्वों

शि


श्रो
ब्द
नि
रु
द्धि
या


त्र


ह्नि





,

ला

स्थ
घ्रा
द्ध

मि
न्ध
वि

स्थ
द्या
:

स्प
हैं
द्या
ब्द

प्र
श्रो
क्ति


त्व
र्श
क्ति


त्र
णि
स्प


ति

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:





रू

नि


नि
ति
:
रू

वि
श्व
ह्लि

ति
द्या
क्षू

ह्वा


न्ध

शि

रु


घ्रा



परा वे का 11

अथ ै ल णािन

त िशवत ना इ - न- या क-के वल-


पू न भाव प परमिश ए ।।११।

अथ एषां ल ण ।

त व त नाम इ न या क -
के वल पू आन भाव पः परम व एव ।११।

इनके ल ण ये :-

इन से य प से इ श , नश और
याश प के वल पू आन से यु
परम व ही “ वत ” कहलाता है।
र्णा
षां
क्रि
त्र
त्र
प्रा
में
शि
शि
शि
न्द
र्ण
क्ति
क्ष
नि
स्व
क्ष
त्त्वं
श्च
क्ष
स्व
त्त्वं
शि
रू
रू
रू
न्द
नि
हैं


स्व
:

च्छा
च्छा
त्त्व
च्छा
ज्ञा
ज्ञा
रू

र्ण
क्रि
क्ति
क्रि

त्म
ज्ञा
त्म
शि
न्द

क्ति

क्त

परा वे का 12

१२ अ जग िम पिरगृहीतवत परमे र
थम एवेच श त

अ जगत् म् इ म् प गृहीतवतः
परम् ई र थम एव इ श त म् ।

इस जगत् को बनाने इ धारण करने वाले


परमे र के थम अ त् सर पर जो इ -
श उ होती है, व श -तं है। अतः इस
परम व को यह इ पू तः अंकु त होने को हो
है।
म्
च्छां
प्र
क्ति
प्रा
स्य


श्व
शि
शि
स्प
श्व
स्य
त्प
न्द

स्य
न्न
प्र
स्र
प्र
त्स्त्र
ष्टु
छा
स्प
च्छा
च्छा
स्प
ष्टु
न्द
की
क्ति
न्द
हीं
र्ण
र्था
त्त्व
च्छा
रि
क्ति

च्छा
प्र

त्त्व
रि
क्ति

:
त्त्व
श्व
च्छा
स्य

परा वे का 13

१३ अ ितहते सदेवा रायमणिम जग


नाह या सदािशवत ।

अ हत इ त् सदेव अकुं रायमाणम् इदं जगत


आ न अह या अ तं पं सदा व
त म् ।

इसी कार अंकुरायमाण यह जगत् प संब


पू हंभाव से आ त आ ही सदा वत
कहलाता है। इसका पराम “अहं-इदं” है।
त्
म्
त्
तं
पं
दं
स्वा
स्व
त्त्व
र्णा
प्रा
प्र

त्म
ति
शि
प्र
त्म
प्र

न्त
च्छ
च्छ
त्वा
न्त
च्छा
च्छा
त्वा
द्य
दि
स्थि
च्छा
र्श
हु
द्य
रू
स्थि
ङ्कु

रू
स्व
रू
शि

त्त्व
शि
न्धी
त्त्व

परा वे का 14

१४ अंकुिर जगदह यावृ तमी रत म ्

अ तं जगत् अह या आवृ तं ई र त म्।

अंकु त बनकर जगत् प- हंता आवृ


ठहरा आ ई र-त कहलाता है।
तं
प्रा

ङ्कु
रि
रि
शि
हु
श्व
न्त
त्त्व
न्त

स्व
रू
त्य
त्य
अ्र
स्थि
स्थि

की
श्व
श्व
त्त्व
त्त्व
त्ति

में

परा वे का 15

१५ अह द योरै ितप श ु िव

अह इद यः प शु ।

अहंता अ त् पस और इदंता अ त्
जगत् संब दो के युगप व के न को
(अ त् इस त स को अहंता त है
उसी द पर इदंता भी अव त है।) शु -
त कहते ।
न्ते
त्त्व
प्रा

र्था
न्त
शि
र्जे

र्था
न्धी
न्त
हैं
न्त

त्त्व
स्व
क्य
नों
रू
में
क्य
प्र
जि
ति
प्र
म्ब
त्तिः
न्धी
स्थि
द्भा
त्ति
टि
:
द्ध
में
वि
द्ध
द्या
ज्ञा
द्या
द्ध

स्थि
वि

र्था
द्या

परा वे का 16

१६ पे भावे भेद मा

पेषु भावेषु भेद था माया।

परमे र का ही प बने ए पदा भेद था


का होना ही माया-त कहलाता है।
षु
षु
स्व
प्रा

स्व
श्व
शि
स्व
रू
रू
स्व
रू
त्त्व
प्र
प्र
था
हु
या

र्थों

में
प्र
परा वे का 17

१७ य परमे र पारमे मायाश


गहू िय संकुिचत हकताम ते त प ु षसं :
अयमे मा मोिहत क ब न संसा
परमे रादिभ ऽ अ मोह:।परमे र भवेत ्
इ जालिम ऐ जािलक स िद
िव िभ िपत ै िच मु
परमिश ए
यदा त परमे रः पारमे माया श या पं
गूह सं कु त हकताम् अ ते तदा पु ष
सं ।
अयं एव माया मोिहतः क ब नः सं सारी।
परमे रात् अ अ अ मोहः।
परमे र न भवत्।
इ जालम् इव ऐ जा क इ या सं पािदतः

अ जा त ऐ तु त् घनो मु परम
व एव।
• जब त तः परमे र अपनी ऐ वती मायाश
से अपने ही ता क प को पा कर
संकु त जीव-भाव को करता है, तब इसे
“पु ष” सं दी जाती है।
• इसी परमे र को उस समय माया से मो त बना
आ क -ब से यु संसारी कहते ।
• ऐसी दशा परमे र से अ होते ए भी इसे
मोह होता है पर परमे र को यह मोह न होता।
• जसे इ जाल (जादग ू री) ऐ - जा क
(जादगू र) को अपनी इ से संपा त करने के
कारण त न करती।
• अत एव शु के रा जाने ए प
लाभा क ऐ से यु बना: आ यह जीव
न और मु परम व ही बनता है।
स्तु
श्नु
तु
र्म
र्य
र्या
न्ते
स्वे
पं
भ्रा
भ्रा
वि
शि
हु
चि
न्द्र
न्द्र
ज्ञः
प्रा
द्या
रु
हि
द्घ
न्तेः

यि
चि
श्व
श्व
शि
श्व
:
त्वा


त्वा
त्म
थ्य
न्द्र
दा

भ्र

र्म
स्य
भि
मि
श्व

ज्ञा
या
में
द्ध


द्या
श्व
न्ध
वि
न्नो
श्व

चि
पि
क्त
भि
नों
द्या
न्द्र
र्य
हीं
न्द्र
ज्ञा
पि
न्नः
श्व
श्व
श्व
त्त्वि
ग्रा
ग्रा
श्व
:
:

श्व
शि
द्वा
श्व
स्य
र्यः
लि
पि
क्‍त
क्त
च्छा
श्व
र्या
र्म
स्व
प्रा
स्य

भि
स्य

रू
श्व
न्ध
न्द्र
प्त
चि
स्य
न्ध
न्न
श्व
स्व
:
श्नु
र्य
,
च्छ
हु
हु
द्ध
क्त
दि
लि
दा
च्छ
या
नो
छि
स्व
हु
श्व

री
हीं
रू
क्तः
हैं

हि
क्त्या
रु
स्य
क्त

म्पा
स्व

रू

:

स्व
रू
ज्ञ
क्ति

रू

.
परा वे का 18

१८ अ स क स पू िन
पक श योऽसंकुिचताऽ संकोच हणे
कलािव रागका -िनयित पत भव

अ स क ,स , पू
पक च,
श यो असं कु त अ सं कोच हणेन
कला, , राग, काल, यती प तया भव ।

• इस परमे र स क ता, स ता प, पू ता,


ता और पकता (नामक) श यां य
सदा असंकु त ही ,
• तथा संकोच को धारण करने पर म से
कला- राग-काल और य प से
संकु त सी बनती ।
र्व
र्तृ
र्व
र्ण
व्या
नि
नि
क्त
प्रा
स्य
त्य
त्य

चि
पि
शि
त्वं
वि
द्या
स्य
वि
र्व
व्या
श्व
द्या
त्वं

द्या
चि
र्तृ
की
व्या
त्वं
चि
क्त
त्वं

र्व
र्व
हैं
हैं
त्वं

पि
ज्ञ
र्तृ

त्वं
ज्ञ
नि
रू
र्ण
त्वं
र्व
नि
त्वं
ज्ञ
पि
या
ग्र
रू

ति
क्ति
क्र
त्वं
रू
रू
न्ति
त्य

ग्र

र्ण
द्य
त्वं
न्ति
पि

परा वे का 19

१९ अ क ना अ पु ष िक हे

अ कला नाम अ पु ष िकं त् करतृता हेत।ु

इन से कला नामक त , इस पु ष को य त
का कराने का हेतु है ।
र्तृ
प्रा
त्र

में
र्य
शि
त्र
ला
स्य

रू
स्य

त्त्व
स्य
रू
स्य
चि
रु
ञ्च
त्क
नि
ता
मि
तुः

वि
वि
प्रा
द्या
द्या

शि
कि
द्या
चि
किं
नि
ज्ञ

त्वं
२० िव
ज्ज्ञ
परा वे का

मि
त्व
िकं त्

का कारण है।
ज्ञा
िच

म्
सी य त

कारणम्।
कारण

चि
वि
द्या
न अथवा (संकु त)
20
परा वे का 21

२१ रा िवषये िभ :

रागो षयेषू अ वं गः।

ष अनुरं त होना राग कहलाता है।


वि
प्रा

यों
शि
वि
गो
में
जि
भि
ष्व
ष्य
ष्व
ङ्ग


परा वे का 22

२२ का भावा भासनाभासना का
मोऽव द भूतािद

कालो िह भावनां भास नाभासना कानां


मः अव दको भूत आिदः।

भा त अ त् गोचर तथा अभा त (न खाई


देने वाले) पदा के म का अलगाव करने वाले
भूत, भ त् और वततमान को काल कहते । ‘
च्छे
नां
नां
क्र
क्र
प्रा

सि
शि
वि
लो
च्छे
ष्य
र्था
हि
को

र्थों

दृ
ष्टि
क्र
:

त्म
सि
त्म

दि
हैं

परा वे का 23

२३ िनयित ममे क ने क इ
िनयमनहे

य मम इदं क न इदं क
ए यमन हेतःु ।

यह मेरा क है और यह मेरा कतं न है’ - ऐसे


य के हेतु को य कहते ।
म्
म्
र्त
र्त
दं
दं
नि
नि
ति
प्रा

तिः
मों
शि
नि
तुः
र्त
:
व्य

-
र्त
नि

व्यं
ति
व्य
र्त
हैं
व्यं
व्य

व्य
हीं
ति
परा वे का 24

२४ एत प क अ पावरक

कं चकिम उ

एतत् प कम् अ प आवरक त्


क कं ए उ ते ।

इस काशा परमे र के पारमा क प को


ढांपने कारण इन कला आ पांच त को
कंचुक कहते ।
त्
म्
त्
ते
प्रा

प्र
ञ्चु
शि
क़े
ञ्च
ति
ति
त्मा
ञ्च
च्य
च्य
हैं

स्य

स्व

श्व
स्य
रू
स्व
रू
दि
थि
त्वा
त्वा

स्व
त्त्वों
रू
परा वे का 25

२५ महदा पृिथ त मूलकार


कृ ित
ए स रज म सा व अिवभ

महद् आिद पृ वी अ नां त नां


मूल कारणं कृ
एषा च स व रजः तमसां
सा अव अ भ पा ।१७।

• बु -त से लेकर वी-त तक २३ त
का मुलकारण कृ ही है।
• स गुण, रजोगुण और तमोगुण सा व
को कृ कहते ।
• (इस कृ ये ती गुण अ भ प से
ठहरे ।
सां
नां
नां
णं
प्र
षा
द्धि
त्तो
प्रा
म्य

प्र
में

शि
हैं
:
प्र
त्त्व

ति
त्त
त्त्व
स्था
दि
ति
प्र
थि
-
में
तिः
प्र
स्त
वि
हैं

ति
प्र
व्य

क्त
थि
न्ता
नों
न्ता
रू

म्या

त्व
त्त्वा
त्त्वा
स्था
वि
की

क्त
म्या
रू
क्त
त्त्वों
रू
स्था
पा

नि
वि
प्रा
श्च


शि
ल्पों
र्थों
श्च
श्रौ
रि
है।
णि
प्र
वि

(पदा
ति
वि
णी
परा वे का

बि
यों
म्ब
य का

के
ल्प

प्र
ल्प
२६ िन यकािर

ति
नि

प्र
बि
श्च
का

म्ब
िवक

म्ब
का)

रि
णी
द्धिः
ध्दि

द्धि
ितिब धािर

बु

धा णी बु ।

को धारण करने वाली बु


य कराने वाली और
26
परा वे का 27

२७ अहंका ना ममे ममेदिम िभमा


साधन

अहंकारो नाम मम इदं न मम मम इदम् इ


अ मान साधनम् ।

‘यह मेरा है और यह मेरा न है’, - इस कार के


अ मान का साधन अहंकार है।
म्
दं
प्रा
भि
भि

शि

रो

-

हों

त्य
प्र
ति

परा वे का 28

२८ म संक साधन

मनः सं क साधनम्।

संक का साधत मन है।


म्
प्रा

ल्पों
शि
नः
ल्प
ल्प

परा वे का 29

२९ एत यम करण । १८।

एतत् यम् अ कारणम् ।१८।

यह तीन अंतःकरण कहलाते ।



त्
म्

प्रा

शि
त्र
त्र
न्तः
न्तः

हैं

त्व
ग्र
ब्द
ब्द
प्रा
क्

ज्ञा
शि
-
स्प
स्प
नां
सि
ब्द
र्श
क्षु
क्र
-

रू
न्द्रि
र्जि
रू
स्प

ह्वा
नि
िवषया
र्श
३० श
ग्र
परा वे का

क्र
णि
-
श्रो

-
घ्रा
रू
त्र
न्ध


मे
र्व
हण साधनान
ज्ञा
नि
-
त्व
त्म
न्ध

न्द्रि
नि

-
वि
पं च न इ या ।

और ना का- ये पांच
ज्ञा
श्रो
क्षुः
त्व
न्धा
त्र
यों
वि
हैं
श - श- प-रस और ग
न्द्रि
जि

ने
-

हणसाधना

त्म
णा पं

ह्वा
- क् च

नि
घ्रा
त्र
ग्र

नां

जि
यां ।
नि
ह्व
न े या
का

करने के साधन, मपू क कान, चा, ने ,


णा

ष को हण
प रस ग आ कानां षयाणां कमेण
30
परा वे का 31

३१ वचनादा िवहर
िवस न यासाधना पिरपा वा पा
पा पायपू पं क या

वचन आदान हरण स आन आ या


साधना प पाढया वाक् पा पाद पायू उप
पं च क इं या ।

बोलना, हण करना, हार करना, मल


गता और षय आन प याओं के साधन
क पू क वाणी, हाथ, पाँव, पायू और उप ये
पांच क यां कहलाती ।
क्
र्गा
र्मे
-
त्या
प्रा
र्म


शि
र्व
-
र्म
मि
र्मे
न्दा
ग्र
न्द्रि
द्रि
रि
त्म

वि
वि
स्था
क्रि
णि
-
नि

वि

वि

न्द
-
र्ग
नि
हैं
णि
रू
न्द्रि

क्रि
न्द
णि
ट्या

त्म
श्रा
क्रि
स्थ
दि
स्था
-
नि
णि
परा वे का 32

३२ श र ग
सामा कारा प त

श प रस ग
सामा आकाराः पं च त ।

• श - शे प-रस और ग जहां सामा


आकार से र त ।
• अ त् इन पांच ष को जहां अंग-अंगी-भाव
'न रहता, या जहां ये पां श आ
अ भाव से ठहरते , उन श - द- प-रस
और ग को पांच त कहते ।
र्श
ब्द
ब्द
प्रा
हीं
र्था
भि

शि
नि
न्‍न
न्या
स्प
स्प
न्ध

ब्द
र्श
-
रू
रू
हि
स्प
:
हैं
ञ्च
वि
-

रू
न्धाः
न्‍मा
न्मा
यों

हैं
न्मा
-

त्रा
त्र
चों
न्ध
त्रा
णि

णि
-

ब्द
ब्द
हैं
न्धा

स्प

:
दि
न्य
रू
परा वे का 33

३३ आकाशमवकाश द

आकाशम् अवकाश दम् ।

आकाश न देने वाला है।


म्
प्रा

शि
स्था
प्र
प्र


परा वे का 34

३४ वाय ु स वन

वायुः सं जीवनम् ।

वायु जीवन दान करता है


म्
प्रा

शि
:
प्र
ञ्जी


परा वे का 35

३५ अ हकः पाचक

अ दाहकः पाचकः च

अ जलाने तथा पकाने का का करती है।


र्दा
प्रा
ग्ति
ग्निः

शि
ग्नि
,

श्च

र्य

परा वे का 36

३६ सिललमा यकं व

स लं अ यकं व पं च।

जल आ यन (तरी ) और ढता दान करता है।


पं
लि
प्रा

शि
प्या
प्या
प्या
द्र
रू
,
द्र
रू
दृ


प्र

परा वे का 37

३७ भूिमरधािर

भू धा का।

पू वी सम पदा और को धारण
करती है।
थि
मिः
प्रा

शि
रि

स्त

का

र्थों
व्य
क्ति
यों
परा वे का 38

४० य धबीज श महा म
त दयबीज िव मेत राचर
(परा का)
इ यनी प भ िर
पेऽ तमेत ग

यथा ध बीज श पा महा मः।


तथा दय बीज म् एतत् चर अचरम्।
(परा का)
ए आ य नी परा भटटा का पे
दय बीजे अ र् भूतम् एतत् जगत।

“जैसे है बढ-बीज , श प महा वृ ।


वेसे ही त्-बीज जडचेतन यह ।। ”

परा का त व त इस नी से यह जगत
पराभ का प दय-बीज के म ठहरा आ
है अ त् उसी दय-बीज, के अ त है।
त्
म्
र्णि
र्भू
स्थं
रू
हृ
त्या
ति
था
प्रा

र्था
त्रिं
शि
म्ना
हृ
न्य
हृ
न्त
त्रि
त्रि
ट्टा
शि
था
ग्रो
हृ
म्ना
शि
शि
रि

न्य

त्या
ग्रो
न्त
रू

हृ
ज्ज
त्या
स्थं
न्‍त्र
स्थं
में
रा
में
वि
हृ
में
श्व
श्व

स्थः
क्ति
ट्टा
क्ति
च्च
का

रू
रू
क्ति
रि
रू
न्त
वि
पो
रू
र्ग
ध्य
ति

श्व

द्रु
क्ष

में

द्रु

:

हु

परा वे का 39

४१ कथ य घटशरावादी मृ कारा
पारमा मृदवे य जलािद वजाती
िवचा मा व जलािदसामा मे
भवित त पृिथ िदमाया त सत
मीमां मा सिद भवे
अ पग िन मा घा ययां
िवसृ कृ ितमा सका एवाविश
तद तमेक श
कथं ? यथा घट शराव आिदनां मृद् काराणां
पारमा कं पं मृद् एव यथा वा जल आिद व-
जातीनां चा माणं व तं पं जल आिद
सामा व भव , तथा पृ आिद माया अ नां
त नां सत मीमां मानं सत् इ एव भवेत।्
अ अ पद मानं धातु अ कं
य अंशं सृ कर मा पं ः सकार एव
अव ते तत् अ तम् एक शत् त म् ।२३।

( ) कै से यह सारा इस दय-बीज ठहर


आ है ? (उ र) से का घडा, थाली
का ही कार होकर, वा क
ही है अथवा जेसे जल-स आ -व ओं का
व त प अ त् : बरफ का वा क
प चार करने पर सामा जल ही है, वेसे ही
पृ वी त से लेकर मायात तक इक स त
का प चारने पर सत् प ही है। इस सत श
का भी य पण या जाये तो धातु के अ
को कट करने वाले अस् भु घातु के अत्
यांश को छोडकर सकार ही शेष रहता है। उसी
सकार ये पृ वी से लेकर माया तक इक स
त अ त ।
त्रिं
म्
म्
त्
र्य
र्ग
र्थ
त्ये
ते
कं
णं
नं
पं
तं
पं
णं
नां
नां
नां
कं
णां
नां
शं
प्र
हु
मि
व्य
रू
प्र
प्र
त्त्वा
त्य
त्त्व
त्थ
थि
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ट्टी

न्त
शि
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ज्य
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शि
न्यं
स्य
,
पि
र्थि
र्थि
ष्य
रू
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न्त
प्र
पि
वि
था
त्त्व
दि
र्भू
रू
वि
रू
रू
?
त्त्वं
वि
व्य
स्य
त्त
नि
वि
र्य
त्रिं
थि
स्य
हैं
तिः
रू
था
ज्य
स्थि
व्या
त्र
जें

र्था
त्त
नि
न्त
रू
रू
प्र
त्त्व

स्य
रू
व्य
पः
र्ग
प्य
वि
,
मि

प्य
कि
रू
श्व
था
ट्टी
स्थि
ति

म्ब
थि

न्य
न्ता

वा
न्धी

रू
वि

वि
त्त्व
भ्रा
हृ
स्त
त्र
रू
त्व
रू
वि
दि
ति
वि
र्द्र
त्त्वा
व्य
द्वि
र्थ
द्र
ञ्ज
ष्य
दृ
व्य
न्य
त्त्व
स्तु
ष्टि
त्ती
में
ञ्ज
प्र
द्र
स्त
में

त्ती

आ्रा

न्ता
वि
मि

दि
त्त्वों
ट्टी
र्थ
त्त्वं
ब्द

परा वे का 40

४२ त प श ु िव सदािश त
न यासारा श िवशेष
औकारेऽ पगम पेऽन ु
श मयेऽ ता

ततः परं शु ई र सदा व त


न या सारा श शेष त
औ-कारः अ उपगम पे
अनु र श मये अ ता ।

• इन उपरो इ ती त सै परे शु त ,
ई र-त , और सदा वत , न और या
के सार बने ए , अ त् इन तीन त
पस न और या ही धान बने
ए ।
•श शेष होने के कारण ये तीन त
पारमा क प को अंगीकार करने वाले
अनु रश के सूचक औकार अ त ।
त्

र्थि
भ्यु
र्भू
द्ये
रं
ज्ञा
ज्ञा
स्व
हु
श्व
क्ति
क्ति
प्रा
रू

त्त
हैं
त्त
क्रि
शि
क्रि
वि
तः
त्त्व

क्ति
म्ब
क्त
क्ति
न्त
द्ध
न्धी
हु
स्व
वि
भ्य्
क़
णि
द्या
रू
णि
हैं
ज्ञा
ध्द
रू
नि
ग्व
श्व
क्ति

न्त
शि
र्था
क्ति
र्भू
श्व
त्त
रू
त्तों


वि
क्रि
त्त्व

नि
-
शि
त्वा
मैं

ज्ञा
त्वा
त्त्वा
द्ध
न्त
प्र

त्त्वों
त्त्व
वि

नि
र्भू
द्या
त्त्वा

में
क्रि
हैं
नि
त्त्व

परा वे का 41

४३ अ परमू सृ िवस नीय


ए भूत दयबीज महाम िव म
िव परमिश एवोदयिव ित न ज
- भा

अतः परम् उ अधः सृ पो नयः।


एवं भूत दय-बीज महामं आ को
मयो उ परम व एव उदय
न त् ज भाव ।

इन उपरो तीन त के वाचक औकार से भी


उ भाव , ऊ सृ प और अध:सृ प स
है (जो वत र श त ) का वाचक है,
अ त् स व और श अ त है।
इस र इन तीन बीजा- से बने ए (सौः)
दय-बीज का अपना अनपायी - प पू
अहंपराम प, मय और परम व
ही है, यतः वही परम व इस स जगत का
उदय न तथा का न होने के कारण
सारभूत प बना है।
र्ध्वा
र्ज
वं
श्रां
वि
स्था
हृ
स्व
च्च
प्रा
र्था
श्वो
श्व

प्र
शि
स्था
त्वा
त्ती
क्रा
वः

शि
स्य
तः
जि
स्व
स्य
र्णः
र्श
क्त
वि

में
रू
नि
हृ
हृ
श्व
रू
र्ध्व
त्त्व
में
ध्वे
स्व
शि
त्ती
वि
श्रौ
वि
र्णः
श्वां
धः
त्त्वों

श्व
ष्टि
स्य
शि
ति
स्य

रू
क्ति
ष्टि
ष्टि

रू
रू
क्ष
शि
क्ति
त्त्व
पो
स्था
रों
न्त्रा
वि
त्र
वि
म्पू
त्म
स्व
श्वो
र्ज
न्त
र्ण
को
त्ती
स्था
त्म
र्भू
रू
र्ण
ष्टि
हु
रू

त्व
श्व

:
वि
न्नि

र्ण
श्रा

वि
यो
शि
न्ति

र्ग
परा वे का 42

४४ ई दयबी त वे समािवश च
परमा दी त: णा धारय
लौिककव मा जीव ए भव
देहपा परमिशवभ र ए भव ।।२६।।

ई शं दयबीजं त तो यो वेद समा श च,


सौः परम अ तो दी तः,
णान् धारयन् लौिककवत् व मानो जीवन मु
एव भव ।
देह पाते परम व भ रक एव भव ।

• ऐसे दयबीज को जो कोई जानता है और इस


समावेश करता है, वही त वृ से दी त बना
आ है।
• ऐसा पु ष घारण करता आ एवं अ
सांसा क ज भाँ वहार करता आ
भी जीव ही है।
• वह शरीर गने के प त् परम व ही बनता है।
न्
न्
न्मु
र्थ
र्त
ते
शं
जं

प्र
हु
द्व
प्रा

हृ
शि
रि
हृ
द्द
रु
ति

न्मु
द्व
त्या
तो
हृ
क्त
प्रा

र्थ
नों
शि
णों
नो
क्षि
की
त्त्व
क्रो
ट्टा
क्षि

ट्टा
,

श्चा
त्त्व
प्रा
ति

त्त्व
तो
क्त

व्य

यो
र्त
ष्ठि

ति
शि

ति
वि
हु
ति
क्षि

ति
हु

ति
क्तः

में
न्य
,

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