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भारत में शिक्षा, शक्ति एवं आचारयुक्त मान का पर्याय बनकर खड़ी हो।

भारत की संतान विश्व में नैतिकता तथा आध्यात्मिकता के लिए प्रसिद्ध है। ईशा से 300 वर्ष पर्वू ग्रीक
राजदतू मेगस्थनीज ने लिखा,”किसी भारतीय को झठू बोलने का अपराध नहीं लगा। सत्यवादिता तथा सदाचार
उनकी दृष्टि में बहुत ही मल्ू यवान वस्तएु ं हैं।“

अमेरिका में रहे चीनी राजदतू हु शिह कहते हैं- "India conquered and dominated China culturally for
20 centuries without ever having sent a single Soldier across her border. This cultural
conquest was never imposed by India on her neighbours. It was all the result of voluntary
searching, voluntary learning, voluntary pilgrimage and voluntary acceptance on the part
of China," इस प्रकार भारत की शिक्षा ने भौतिक और आध्यात्मिक दोनों क्षेत्रों में ऐसे ज्ञान आविष्कृ त किए
जिनके ऋणी आज भी विश्व कै दार्शनिक तथा वैज्ञानिक हैं। प्राचीन काल में भारत को बौद्धिक तथा सांस्कृ तिक
क्षेत्र में विश्व में जो गौरव प्राप्त था उसका श्रेय भारत की प्राचीन शिक्षा पद्धति को ही है। अपनी विशिष्ट शिक्षा पद्धति
के कारण ही भारत ने अनेक शताब्दियों तक न के वल विश्व का सास्ं कृ तिक नेतत्ृ व किया, अपितु उद्योग धधं ो,
कला कौशल तथा चिकित्सा एवं विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों में भी अग्रणी रहा। भारतीय संस्कृ ति एवं दर्शन की
विजय पताका, जावा, समु ात्रा, श्याम, चीन, जापान, कोरिया , तिब्बत तथा मध्य एशिया के देशों में हजारों वर्षों
तक लहराती रही।

प्राचीन भारत ज्ञान विज्ञान एवं औद्योगिक शिक्षा आदि में विश्व में अग्रणी रहा। यहां के विद्यालयों एवं उच्च शिक्षा
कें द्रों में देश विदेश के छात्र अध्ययन करते थे। उच्च शिक्षा के साथ-साथ भारत में सामान्य जन की शिक्षा की भी
व्यवस्था थी। उपनिषद साहित्य में एक राजा का यह कथन है कि “मेरे राज्य में कोई निरक्षर नहीं है” इस कथन को
निराधार नहीं माना जा सकता। डॉ अलतेकर के अनसु ार उपनिषद काल में भारत में साक्षरता 80% थी। प्राचीन
भारत में शिक्षा किसी एक वर्ग अथवा वर्ण तक सीमित नहीं थी वरन सामान्य जन तक प्राथमिक शिक्षा, स्त्री शिक्षा
एवं सभी वर्गों के लिए शिक्षा प्रचलित थी। धर्म संस्कृ ति एवं सदाचरण की शिक्षा समाज को लोकशिक्षण के
माध्यम से साधु सन्यासी एवं परु ोहितों के द्वारा प्राप्त होती थी। इसी कारण समाज के सर्व सामान्य व्यक्ति का नैतिक
स्तर भी उच्च था।

शिक्षा के कें द्र गरुु कुल, ऋषियों के आश्रम, मठ तथा मंदिर भी रहे। इसके अतिरिक्त भारत में बड़े बड़े
विश्वविद्यालयों का विकास हुआ जहां प्राचीन विश्व के जिज्ञासु विद्वान और छात्र अपनी ज्ञानपिपाशा शांत करने के
लिए आते थे और निशल्ु क शिक्षा प्राप्त कर इस देश से ज्ञान विज्ञान के ग्रथं ों का अध्ययन ही नहीं करते बल्कि बल
अपने देश की भाषा में उसका अनवु ाद करके अपने देश ले जाते थे। लेकिन भारत पर विभिन्न समय पर विदेशी
आक्रातं ाओ ं ने भारत की शिक्षा के ढाचं े को बहुत अधिक नक ु सान पहुचं ाया और शिक्षा का सारा तत्रं तहस-नहस
कर दिया। मस्लिु म आक्रांताओ ं के कारण नारी शिक्षा का पर्णू रूप से विध्वंस हो गया। लगभग प्राचीन
विश्वविद्यालय में तक्षशिला का स्थान सर्वोच्च था समाज अध्यात्म ज्ञान विज्ञान व चिकित्सा की हर विधा के लिए
विश्व विख्यात था। इस विश्वविद्यालय का विध्वसं हूणों के निरंतर आक्रमणों से हुआ।
विश्व विख्यात नालदं ा विश्वविद्यालय जहां षडतलपदीय मठों का निर्माण कराया गया था जिनमें 10000 विद्यार्थियों
के लिए 1510 अध्यापकों की व्यवस्था थी। यह विश्वस्तरीय पस्ु तकालय था। इस विश्वविद्यालय का विध्वंस
मस्लि
ु म आक्रमणकारी बख्तियार खिलजी द्वारा तेरहवीं शताब्दी में किया गया। सभी छात्रों अध्यापकों तथा
भिक्षओ ु ं की हत्या कर सपं र्णू विश्वविद्यालय एवं समृद्ध पस्ु तकालय अग्नि की लपटों में जला डाला। उच्च शिक्षा
कें द्रों में नालंदा विश्वविद्यालय के पश्चात पर्वी
ू भारत शिक्षा की दृष्टि से अधिक विकसित और समन्ु नत था
विक्रमशिला विश्वविद्यालय शिक्षा का महान कें द्र था जिसे 1203 में बख्तियार खिलजी ने नष्ट कर दिया था।
वल्लभी विश्वविद्यालय गजु रात में वल्लभी नामक स्थान पर स्थित था। मैत्रेयक नरे शों (490-775 ई.) के काल में
इस विश्वविद्यालय विकास हुआ। 12 वीं शताब्दी के बाद अरब आक्रमणों की तीव्रता से इस शिक्षा कें द्र पर भी
उसका प्रभाव पड़ा और इसका महत्व कम पड़ गया।

ओदतं परु ी विश्वविद्यालय बिहार में स्थित था। पर्वी


ू भारत का यह ज्ञान मंदिर बख्तियार खिलजी द्वारा 1197 ईस्वी
में विध्वशिंत किया गया था। प्राचीन उत्तरी बंगाल (अब बंग्लादेश) के बोगरा जिले में स्थित जगदलपरु
विश्वविद्यालय पर्वीू भारत का ज्ञान मंदिर मस्लि
ु म आक्रमण द्वारा 1203 ईस्वी में विध्वंस किया गया। मस्लि ु म
आक्रातं ाओ ने भारत की शिक्षा प्रणाली, शिक्षा के सस्ं थानों को नष्ट करने की परू ी कोशिश की और भारत के
पस्ु तकालयों को नष्ट करने का प्रयत्न किया लेकिन भारतीय संस्कृ ति की जड़े वैसी की वैसी रही, वे संस्कृ ति की
जड़ों को नष्ट नहीं कर सके । लेकिन जब अंग्रेज भारत में आए उन्होंने भारत की बची-खचु ी शिक्षा प्रणाली को
पर्णू त: जड़ों से उखाड़ने की योजना बनाई। गरुु कुलों को समाप्त कर दिया गया। 1775 ई. में भारत के गवर्नर जनरल
लार्ड नार्थ ब्रक
ु ने अंग्रेजी भाषा की महत्ता को बताया। 1829 में भारत के गवर्नर जनरल लार्ड विलियम वेन्टिक ने
भारतीय शिक्षा में अग्रं ेजी भाषा पर बल दिया।
सन 1835 में मैकाले ने अपनी शिक्षा संबंधी टिप्पणी की घोषणा की। मैकाले की शिक्षा टिप्पणी वास्तव में एक
राजनैतिक दस्तावेज थी। मैकाले को भारत में ईसाइयत के प्रसार के साथ शिक्षा में बड़ी रूचि थी। इसका मल ू
उद्देश्य भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की नींव मजबतू करना तथा चिरस्थाई ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना करना था
ताकि भारत के लोग अतीत के गौरव को भल ू जाएं। वह शिक्षा के द्वारा भारत में एक ऐसा वर्ग स्थापित करना
चाहता था जो पर्णू ता ब्रिटिश सरकार का राज भक्त हो। उसने अपनी घोषणा में स्पष्ट रूप से लिखा, हमें व्यक्तियों
का एक ऐसा वर्ग बनाना चाहिए जो रक्त तथा रंग से भारतीय हो परंतु स्वभाव नैतिकता एवं बद्धि ु से अंग्रेज हो। कुछ
साल बाद ही 1853 में एचएच विल्सन ने हाउस ऑफ कॉमर्स में स्वीकार किया कि, "हम लोगों ने अंग्रेजी शिक्षित
वर्ग की सृष्टि की है जिसको अपने देशवासियों के प्रति तनिक भी सहानभु ति ू नहीं है।"

यरू ोपीय बद्धि


ु जीवियों की इस निकृ ष्ट मानसिकता की झलक मैक्समल ू र के इन शब्दों से स्पष्टतया ज्ञात हो जाती है
जब (उसको भारत के साहित्य तथा धार्मिक ग्रथं ों के विकृ तिकरण को कहा गया था। अपना कार्य पर्णू करने के
पश्चात तत्कालीन इग्ं लैंड की महारानी को लिखे पत्र में मैक्समल ू र लिखता है" We have totally uprooted the
Indian culture by interpolating its sacred literature, if still the Christianity doesn't prevail
in India the whole responsibility goes to British rulers".
1947 तक तो अंग्रेजों के इस षड्यंत्र के परिणाम स्वरूप कुछ लोग तो अंग्रेजीयत में ढल गए और यदा-कदा
उन्होंने अपने विचारों से इसकी पष्टि
ु भी की, लेकिन फिर भी आजादी के दीवाने भारतीय सस्ं कृ ति और जड़ों से जड़ु
कर भारत के अतीत से जड़ु े रहने में आत्मगौरव की अनभु ति ू करते रहे। किंतु आजादी के बाद दृष्टिविहीन नेतत्ृ व
और भोग लालसा यक्त ु प्रशासन ने विगत वर्षों में भारत में एक नया इडि ं या बना रखा है। भारत में ही भारतीय दर्शन
धर्म विज्ञान परंपरा की बात करने वालों को पोन्गा और प्रतिगामी समझा जाता है। इन इडि ं यनस् को मैकाले की
शिक्षा प्रणाली ने तैयार किया है ऐसे इडि
ं यंस की सृष्टि और दृष्टि यरु ोप एवं पाश्चात्य जगत में रचती और बसती है ,
वह पर्णू ता बदल चक ु े हैं।

दर्भा
ु ग्य से स्वतत्रं ता के पक्षात भारत की शिक्षा और इतिहास का क्षेत्र कुछ ऐसे लोगों को सौंप दिया गया जिन्होंने
अंग्रेजों की योजना भारतीयों को भारतीयता की जड़ों से उखाड़ने का काम जारी रखा। धर्मनिरपेक्षता के नाम पर जो
भारतीयता भारतीय संस्कृ ति, भारतीय भाषाओ ं के उत्थान, भारतीय प्राचीन गौरव अध्यात्म और हिदं त्ु व की बात
करें उसको सांप्रदायिक घोषित करना शरू ु कर दिया। भारतीय शिक्षा का पाठ्यक्रम और इतिहास भी इस प्रकार से
निर्धारित किया गया कि हिदं त्ु व की बात करने वाले देश के दश्ु मन है, हिदं ू धर्म को भगवा आतक ं के नाम से
घोषित करने का षडयंत्र किया जाने लगा। अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर उन लोगों को प्रश्रय देना शरू ु कर
दिया गया, जो भारत तेरे टुकड़े होंगे इश ं ाअल्ला-2 के नारे लगाने की विचारधारा से सम्बंधित है। इस प्रकार की
विचारधारा के लोगों को बद्धि ु जीवी का तमगा बांटना शरू ु कर दिया गया, भारत में अंग्रेजों ने शासन और प्रशासन
का एक ऐसा तंत्र खड़ा किया था जिससे भारत के संसाधनों को लटू ा जा सके लेकिन जिसकी खबर किसी के
कानों तक भी ना पहुचं पाए। स्वतत्रं ता के पश्चात वह लटू समाप्त होने के बजाय और विकसित हो गया। शासन
प्रशासन और राजनीति में घर बैठे आदमी करोड़पति और अरबपति बनते गए। ऐसा नहीं कि अच्छे लोग नहीं आए
ईमानदार छवि के लोग भी कहीं दिखाई देते हैं. लेकिन उन्हें खतरों से खेल कर अपनी ईमानदारी के साथ अपना
वजदू बनाने में कड़ी मेहनत करनी पड़ती है। एक ऐसा वर्ग भारत में इस शिक्षा प्रणाली ने पैदा किया है जो अपने
बच्चों को खर्चीले अंग्रेजी माध्यम विद्यालय में पढ़ाते हैं। उनके व्यक्तित्व और चरित्र का मापदडं यरू ोप तथा
पाश्चात्य जीवन दर्शन एवं शैली में है उन्हें पाश्चात्य जगत की गल
ु ामी स्वतत्रं ता से अधिक प्रिय है।

अग्रं ेजी भाषा से विभषि ू त बड़े-बड़े विद्वानों की जमात खड़ी है। जिसका नियंत्रण नौकरशाहों के रूप में प्रशासन पर
है न्यायपालिका पर है, विधायिका पर है और सबसे अधिक लोकतत्रं के चौथे स्तभं मीडिया और अग्रं ेजी मीडिया
पर है। आज स्वतंत्रता के इतने वर्षो उपरांत भी हर सरकारी और गैर-सरकारी नौकरी के दरवाजे पर अंग्रेजी का
पहरा बैठा है, जब तक व्यक्ति अंग्रेजी नहीं जानेगा कोई सम्मानजनक नौकरी नहीं प्राप्त कर सकता। परिणामस्वरूप
पत्थर तोड़ने वाला दिहाड़ीदार भी चाहता है कि उसका बच्चा अंग्रेजी स्कूल में पहली कक्षा से ही अंग्रेज़ी पढ़ना
शरू ु कर दें चाहें घर में रोटी मिले ना मिले। इसका परिणाम हम इसके द्वारा नकलची बन सकते हैं। पोपरटंत कर
अपनी मेधा शक्ति एवं सृजनशीलता का गला घोट सकते हैं, भमू डं लीकरण एवं वैश्वीकरण के झडं ाबरदारों के
गल ु ाम बन सकते हैं और शहीदों के बलिदान से प्राप्त आजादी को भी गंवा सकते हैं।
इसी शिक्षा प्रणाली का परिणाम है कि हम मानसिक रूप से कमजोर हो गए हैं , बौद्धिक रूप से पिछलगु हो गए हैं।
लगभग 140 करोड जनसख्ं या का देश खेलों में अतं रराष्ट्रीय स्तर पर कहां खड़ा है? बौद्धिक दृष्टि से ज्ञान-विज्ञान में
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कहां खड़े हैं? कितने नए-नए अविष्कार हम कर पाए हैं? आत्मनिर्भरता की ओर कितने
प्रयत्न हुए हैं खाद्यान्न के क्षेत्र में तो भला हो श्री लाल बहादरु शास्त्री जी का जिनके आवाहन पर देश के किसान
का आत्मबल बढ़ा और संपर्णू राष्ट्र का नैतिक बल हिलोरें मारने लगा। लेकिन शास्त्री जी के साथ क्या इस देश के
लोगों ने न्याय किया?
अब प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि हमें कै सी शिक्षा की आवश्यकता है?

ऋषि ऋण: हमारी प्राचीन शब्दावली के अनसु ार हर एक पीढ़ी द्वारा चक ु ाने योग्य कर्जों में एक है ऋषि ऋण| हमारे
अतीत के ऋषि-मनि ु यों तपस्वीयों ने बचा बढ़ाकर अगली पीढ़ियों के लिए छोड़ रखे इस ज्ञान की धरोहर का
संरक्षण संवर्धन करना ही उस ऋण को चक ु ाने का मार्ग है। कोई भी राष्ट्र यदि अपना स्वत्व बचाकर रखना चाहता
है तो हर एक व्यक्ति को हर एक पीढ़ी को यह ऋण चक ु ाना ही पड़ेगा। कोई भी पीढ़ी इससे कर्तव्यच्यतु हुई तो राष्ट्र
जीवन की अक्षणु धारा खडि ं त होगी, शष्ु क होगी। क्रमशः उस राष्ट्र का अस्तित्व ही क्षीण होगा। याने भारत की नई
पीढ़ियों के लिए प्रस्तावित शिक्षा क्रम में विद्यार्थियों के स्तर के अनकु ू ल विज्ञान-तत्रं ज्ञान, तत्वज्ञान और आध्यात्म
ज्ञान से लेकर राजनीति, अर्थनीति, समाजनीति तक कृ षि, उद्योग, शिक्षा, स्वास्थ्य से लेकर कला साहित्य संगीत
तक सभी क्षेत्रों में अब तक भारत की उपलब्धियां क्या है? इसकी यथार्थ चेतना और अभिमान विकसित हो ऐसे
कार्यक्रम एवं वातावरण का समावेश करना चाहिए।

इन सभी क्षेत्रों की उपलब्धियों की वैचारिक पृष्ठभमि ू क्या है? इसी विश्व में अद्वितीय माने गए हमारे मल
ू भतू जीवन
सिद्धांतों की विशेषताएं क्या है? उदाहरणार्थ धर्म और संस्कृ ति का यथार्थ रूप राष्ट्रसंबंधी, समाजसबं ंधी विशिष्ट
संकल्पनाए, मनष्ु य के परमपरुु षार्थ संबंधी, सख ु सबं ंधी मौलिक दृष्टि और उनकी प्राप्ति के लिए यहां पर विकसित
नाना साधना मार्ग, परुु ष-स्त्री सबं धं , व्यक्ति, परिवार, समाज, मानव, समदु ाय, सकल चराचर, सृष्टि के आपसी
संबंधों के बारे में आध्यात्मिक दृष्टिकोण। सकल मानव समदु ाय के गरुु स्थान स्थान, मातृस्थान पर विराजमान और
शोभायमान होने के लिय प्रेरक तत्व माने गए इन विचारों और आचारों की समझ और अनभु ति ू को आत्मसात कर
तथा विकसित करने पर ही हमारा समाज फिर से एक बार अपने पर्वू के वैभव के साथ खड़ा हो सके गा।

तुलनात्मक चर्चा आवश्यक: मनष्ु य को अपने विकास के शिखर तक ले जा सके ऐसी समग्र शिक्षा प्रदान करने
में सहभागी होने वाले माताओ-ं पिताओ,ं शिक्षकों के प्रशिक्षण के लिए अग्रस्थान देना आवश्यक है। अतीत में
विभिन्न माध्यमों से घर पर षोडश संस्कार दिए जाते थे। इतिहासकार के एम पन्नीकर के अनसु ार आज भी हमारे
समाज में हिदं त्ु व का अंश यदि कुछ बचा है जिस कारण संसार में हमें हिदं ू कह कर पहचानते हैं तो वह घरों के उन
संस्कारों परंपराओ ं के कारण ही है। किंतु आज वे अल्पमात्र में ही प्रचलन में है। उनका सारभतू भाव तो प्रायः मिट
गया है।

इस सदं र्भ में एक एक बात ध्यान में रखना विशेषकर शिक्षक और पालक वर्ग के लिए अति आवश्यक है। शिक्षकों
के लिए आचरण के नैतिक मान बिदं ु निर्धारित किए जाने चाहिए। अगर कोई शिक्षक उन नैतिक मान बिदं ओ ु ं का
आचरण नहीं करता है तो उसको शिक्षक/आचार्य पद से तरु ं त पद मक्त ु कर दिया जाना चाहिए। तभी शिष्यों में
आचार्य और बड़ों के प्रति श्रद्धा और मान का निर्माण होगा। तथापि सबसे महत्वपर्णू बात यह है कि बड़े बजु र्गु
अपने कहे के अनसु ार स्वयं नहीं बर्ताव करें गे तो छोटों की बची-खचु ी सच्ची श्रद्धा व मान भी ध्वस्त हो जाएगा।

आज की परीक्षा पद्धति एवं मल्ू याक ं न विधा दोनों ही विद्यार्थियों के समग्र जीवन विकास के लिए बाधक है।
परीक्षा में के वल अंक प्राप्त करना ही आगे की उच्च शिक्षा, उसके अधिक धनार्जन, सख ु -सवि
ु धाओ,ं नौकरी-
चाकरी का मानदडं बन गया है। इस प्रकार हमारे समस्त जीवन का भविष्य ही ऐसे अंको पर अवलंबित हो गया है।
डार्विन के सिद्धांत ‘शक्तिशाली ही जीवित रहेगा’ यह जंगल नियम ही यहां पर लागू हुआ है। अपने व्यक्तित्व के
संबंध में व्यापक देवी स्वरूप के स्थान पर ऐसा घोर विकृ त चित्र कोमल मनों पर अंकित करने की घातक पद्धति
और कौन सी होगी? मनष्ु य में स्थित परिपर्णू ता को अभिव्यक्त करना ही शिक्षा का लक्ष्य है, ऐसा कहने वाली
विवेकानंद की वाणी कहाँ? और आज के हमारे इन शिक्षाविदों की व्यक्ति विनाश की यह विद्या कहाँ?

शिक्षा शक्ति का स्त्रोत: शिक्षा-खनिज, जल, विद्यतु , कोयले जैसी ही देश की प्रजा भी एक ससं ाधन नहीं बल्कि
वह देश के सर्वतोंन्मखु ी साक्षात शक्ति का स्त्रोत है। अपना यह शक्ति स्त्रोत समृद्धि करने के लिये बालकों, यवु कों
को सर्वतोंन्मखु ी शिक्षा सस्ं कार प्रदान करने की व्यवस्था होनी चाहिए। ऋग्वेद में सचि ू त किया है कि विद्यार्थी,
आचार्य, स्वाध्याय, सहपाठी, व्यवहारिक अनभु व, इन चारों का एक चतर्थां ु श भाग प्राधान्य रहे। हर एक अव्यस्क
विद्यार्थी लड़का हो या लड़की के लिए अपनी आयु स्तर, परिसर, आवश्यकता आगे के जीवन की रचना प्रतिभा-
झक ु ाव के अनसु ार वैविध्यम्य शिक्षा क्रम की रचना हो ऐसे अनेक पहलओ ु ं द्वारा भारतनिष्ठ चिंतन होना आवश्यक
है।

कुल मिलाकर विश्व में कहीं भी जाएं तो मैं भारत पत्रु या भारत पत्रु ी हूं, ऐसा गर्व से सिर ऊंचा उठाकर कहें। उसी
प्रकार वहां के लोग नतमस्तक होकर नमन करें ऐसे आदर्श विचार और आचारयक्त ु व्यक्तियों का निर्माण करने की
शिक्षा सस्ं कारों की व्यवस्था होने पर ही, भारत अपनी प्राचीन दिव्य परंपरा की मशाल ऊंची उठाकर बढ़ता
जाएगा।

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