इस आघात से चाणूर धराशाही हो गया और कृष्ण भी नीचे गिर गया परन्तु उसने तीव्रगति से अपना संतुलन बना लिया। परन्तु बृहत्काय

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इस आघात से चाणूर धराशाही हो गया और कृष्ण भी नीचे गगर गया परन्तु उसने तीव्रगतत से अपना संतुलन

बना ललया। परन्तु बह


ृ त्काय/दै त्यकाय चाणूर उठ न सका। वह हांफते हुए वही पर गगर पड़ा। कृष्ण ने इस अवसर
को भााँप ललया। उसने ऊाँची छलााँग लगाई और पूणण बल के साथ चाणूर के वक्षस्थल की बायीं ओर कूदकर उसकी
पसललयााँ तोड़ दी। चाणूर के मुख से रक्त धारा फूट गई।

कृष्ण चाणूर के ऊपर खड़ा हो गया और कूदकर उसकी दाईं ओर की पसललयां भी चूर-चूर कर दी। चाणूर तनिःसहाय
अवस्था में पड़ा था। टूटी हुई पसललयों से तनकलने वाला रक्त उसके स्वासकोष/फेफड़ों में भरने लगा और उसका
दम घुटने लगा। उसके मुख से रक्त बहने लगा, परन्तु मख
ु से जितना रक्त तनकला रहा था उसे अगधक फेफड़ों
में भर रहा था। उसका तनिःश्वास अवरुद्ध हो रहा था। चाणरू ववशालकाय पशु समान तड़प रहा था और कुछ ही
क्षण पश्चात वह बबलकुल शांत हो गया/उसका अंत हो गया। चाणूर मर चूका था। मुजष्टक भी खड़ा नहीं हो पा
रहा था। वह भी ववशालकाय था परन्तु मोटा था। बलराम उसकी गदण न पर खड़ा हो गया और उसका गला घोट
कर वध कर ददया। स्फूततण/चपलता और बुद्गध प्रयोग से उन्होंने लमलकर दो दै त्यों का बध कर ददया और कंस
केवल तनिःसहाय होकर दे खता रहा। िैसे ही वो दोनों गचत्त हुए कूट दौड़ता हुआ आखाड़े में आया। बलराम के गोप
सखाओं ने कंस के रथ का पदहया उसके पास फेंका। उसने उस पदहये को कूट के ऊपर फेंक कर मारा और उसका
अंत कर ददया। एक और मल्ल तुषाला वहााँ आया, कृष्ण ने उसे टं गड़ी मारकर गगरा ददया। िैसे ही वह गगरा,
कृष्ण ने उसकी बायीं िंघा अपने एक पैर से दबाया और दायीं िंघा को पकड़कर उसे चीर ददया। वह पीड़ा से
छटपटाने लगा तुरंत कृष्ण ने उसकी िंघाओं बीच में पैर से तीव्र प्रहार ककया और उसका िीवनान्त कर ददया।
कंस अपने लसंहासन से उठ खड़ा हो गया। उसका लसंहासन अखाड़े के ककनारे एक उच्च स्थान पर बनाया था। वह
लगभग १० फुट ऊंचाई पर था। कंस ऊंचे मंच पर एक बड़े लसंहासन पर बैठा था। वह पण
ू त
ण िः अधीर हो गया था।
वह इतना भयभीत हो गया कक वह अपने लसंहासन पर ही खड़ा हो गया, और दोनों बालकों से अपनी दरू ी बढ़ा रहा
था िो उसे भ्रम वश १०० फीट/पग लम्बे प्रतीत हो रहे थे। कंस उच्च स्वर से गचल्ला रहा था "उन्हें मारो... उन्हें
मारो.... उन्हें मारो... " उसका स्वर शनैिः शनैिः क्षीण होता गया। वह चारों ओर अपने अंग रक्षकों को ढूंढने लगा।
ककन्तु उनमें से एक भी नहीं ददखा। उसे कुछ दरु ी पर अन्तिः पुर के प्रवेश पर खड़ा प्रबल ददखाई ददया। उसने
एकाकीपन की ऐसी भावना कदावप अनुभव

नहीं की थी। उसे सत्यता/यथाथण का बोध होने लगा।

"आि अपने भय एक साथ एकाकी, क्या मैं महाबली कंस ही हूाँ ? आि मेरी सेना, मेरे सहायक, मेरे योद्धा सभी
पलायन कर गए। मरे मल्ल योद्धा मारे गए। मेरा बाणकंटक कहााँ है ? मेरे सभी कुदटल धमी कहााँ हैं? वे सभी
लोग कहााँ हैं िो मेरी उदारता पर पल रहे थे ? कंस यह िानने का यत्न कर रहा था कक वे बालक कहााँ हैं ?”
उसने अपनी खड्ग तनकाली और घुमाने लगा, ककन्तु वायु के लसवा उसे कुछ न लमला। कृष्ण ने दरू से ही कंस
के भ्रलमत अवस्था को पढ़ ललया। वह उसे हवा में खड़ग चलाता दे ख हाँसने लगे। कृष्ण ने कुवलयापीड के
ववरुद्ध प्रयोग ककया गया भाला उठा ललया। बलराम ने टोकते हुए कहा, "तुम इसके साथ क्या करना चाहते
हो? मुझे लगता है हम इसे सहिता से बंदी बना सकते हैं। उसके सभी सैतनक भाग चुके हैं।" ककन्तु कृष्ण ने
असहमत होते हुए कहा, "दाऊ, हमें इस ववषय में भावुक नहीं होना चादहए। मेरा मत स्पष्ट है । हमारा स्वधमण,
राष्रधमण के आगे/मागण में नहीं आने चादहयें। इसने हमें युद्ध के ललए ललकारा था। यदद आप इसे िीववत छोड़

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