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Caste Question
Caste Question
प्राचीन काल में वर्ण और जाति के उद्भव को समझने के लिए तीन संदर्भो के सहारे विश्लेषण करने की
कोशिश करें गे.
1- पौराणिक
2- औंजरों के विकास के कालानुक्रम के अनुसार उस दौर की आर्थिक और सामाजिक संरचना
3- द्वंदात्मक भौतिकवाद, ऐतिहासिक भौतिकवाद और अंतर्विरोध का नियम
पौराणिक सन्दर्भ में हम उन्हीं तथ्यों या परिघटना को लेंगे जो व्यापकता के साथ यथार्थ होने की
संभावना को समेटे हुए हैं. इनमे से पहला ऋग्वेद के सातवें मंडल में दर्ज दशराज्ञ युद्ध, दस
ू रा 300 से
अधिक रामायण के कथानक का प्रचलन और तीसरा वर्ण व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था में शूद्र वर्ण का
स्थान.
दशराज्ञ युद्ध: ऋग्वेद के सातवें मण्डल में दशराज्ञ युद्ध का वर्णन है . ऋग्वेद के अनुसार यह युद्ध रावी नदी
के तट पर सम्पन्न हुआ. इस यद्ध
ु में ग्यारह कबीले शामिल थे. एक तरफ परु
ु , अलीन, अन,ु भग
ृ ,ु
भालन, दस, द्रह्
ु यु, मत्स्य, परसु और पणि नामक कबीले थे तो दस
ू री तरफ भरत कबीले का तत्ृ सु गोत्र
का सुदास था. सुदास का पुरोहित वशिष्ठ ऋषि थे। इस युद्ध में सुदास जीतता है . बताते चलें कि
वशिष्ठ ऋषि जो सुदास के पुरोहित थे. ऋषि गोत्र परम्परा में जैन-बौद्ध ग्रंथों में भी हैं. तीन ऋषि
वशिष्ठ, गौतम और कश्यप वैदिक और जैन-बौद्ध धारा दोनों में मिलते हैं. जबकि जैन-बौद्ध धारा वर्ण
व्यवस्था का अंग नहीं रहा है . सन्दर्भ से स्पष्ट है कि उपरोक्त यद्ध
ु के अंतर्विरोधों के वजह से उस
समय वशिष्ठ, गौतम और कश्यप ऋषि गोत्र के कुछ कबीलाई समूह गंगा के दोआब में प्रस्थान कर
गए होंगे जो महावीर जैन और गौतम बुद्ध के पूर्वज थे. इस युद्ध से यह भी जाहिर होता है कि यह
ईसा पूर्व 1500-1000 की घटना होगी. मध्य एशियाई जनजातियों का एक हिस्सा दे व असुर कबीलाई
समह
ू का विरोधी था. दे वों और असरु ों के आपसी अंतर्विरोध और पारिस्थिकी में हो रहे बदलवों ने
दे वों को सिन्धु नदी पार कर भारतीय उपमहाद्वीप में प्रवेश करने को विवश किया होगा. इससे यहाँ
पर पहले से ही मौजूद कबीलाई समूहों से युद्ध की स्थिति बनेगी. ईरानी पौराणिक ग्रंथ ज़िन्द अवेस्ता
में दे व और असुर एक दस
ू रे के विरोधी समूह के रूप में दर्ज हैं. इस ग्रंथ में दे वों की निंदा और
असुरों की प्रसंशा की गई है . जबकि इसके विपरीत ऋग्वेद में असुरों की निंदा और दे वों की प्रशंसा है .
यानी ऋग्वेद में दे व और असरु दोनों चरित्र भारतीय उपमहाद्वीप के नहीं हैं. ऐसा नहीं है कि मध्य
एशियाई जनजाति भारतीय पहली और अंतिम बार प्रवेश किया होगा. परु ातात्विक और लिखित
साक्ष्यों के हवाले से विद्वानों ने साबित किया है कि भारतीय उपमहाद्वीप में बाहरी जनजातियों की
आगमन की प्रक्रिया दशराज्ञ युद्ध से पहले और बाद में भी लगातार जारी रही है . लेकिन ईसा पूर्व
1500-1000 के बीच मध्य एशियाई जनजाति दे वों के आना इससे पहले और बाद के जनजातियों के
आगमन से गण
ु ात्मक रूप से भिन्न है . क्योंकि पशच
ु ारण अवस्था के दे व जब भारतीय उपमहाद्वीप
में कदम रख रहे होते हैं तब वे कांस्य यग
ु में प्रवेश कर चक
ु े रहते हैं. यज्ञ, हवन और रथ इसके
निशानी हैं. वे जनजाति से वर्ग समाज में संक्रमण के दौर से गुजर रहे होते हैं. उनके बीच
जनजातीय वर्ग पुरोहित, योद्धा/सैनिक और विस ् (आम उत्पादक आबादी) अस्तित्व में आ चुके होते
हैं.
शूद्र-
यह वर्ण व्यवस्था के सोपानक्रम का चौथा वर्ण है जो शुद्ध रूप में जनजातीय पहचान लिए हुए है .
यह वर्ण व्यवस्था में सामाजिक और सम्पति रखने के अधिकार से वंचित वर्ण है . यह वर्ण व्यवस्था के
उभरते राज्य का क़ानूनी हिस्सा नहीं रहा है . बल्कि उभरते राज्य के परिधि का हिस्सा रहा है . इसे हम
वर्ण व्यवस्था का केंद्रीय चरित्र भी कह सकते हैं. क्योंकि इसके बिना वर्ण व्यवस्था को समझना असंभव
है . वैदिक ग्रंथों में शूद्र की उत्पत्ति के बारे में कुछ खास पता नहीं चलता है . जो कुछ पता चलता है वह
यह कि ईश्वर ने जन्मजात ऊपर के तीन वर्णो की सेवा के लिए ही शूद्रों को पैदा किया है . यह
परिकल्पना परू ी तरह वर्ण व्यवस्था के शासक वर्गों के पूर्वाग्रहों के अलावा कुछ नहीं है . इससे शूद्र वर्ण
के उत्पत्ति की भौतिक जमीन नहीं पता चलता है . शूद्र वर्ण को समझने के लिए वैदिक धारा के विरोधी
जैन, बौद्ध और द्रविड़ ग्रंथों की मदद से इसके उत्पत्ति के मामले में कुछ मदद मिल सकती है . बौद्ध ग्रंथ
में शूद्र शब्द के जगह सुद्द शब्द का इस्तेमाल हुआ है । जैन और बौद्ध ग्रंथों में सुद्द शब्द जहां भी
इस्तेमाल हुआ है उससे सुद्द समुदाय के प्रति नफ़रत नहीं झलकता है . बौद्ध ग्रंथों के हवाले से सद्द ु शब्द
का अर्थ शद्ध
ु (पवित्र, अवगण
ु रहित) भी होता है . इस तरह शद्ध
ु शब्द के प्राचीनता को तलाशा जाए तो
सुद्द ही होना चाहिए. शूद्र शब्द का आधार भी सुद्द शब्द ही है । इस तरह सुद्द शब्द से शुद्ध और शूद्र
शब्द की व्युत्पत्ति जान पड़ती है । लेकिन मसला यह है कि आखिर 'सुद्द ≈ शुद्ध' अपने मूल अर्थ से
विपरीत अर्थ ग्रहण करने वाला शूद्र शब्द कैसे बना? शूद्र शब्द अपवित्रता और वर्ण व्यवस्था में
सामाजिक अधिकार और संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित श्रमिक आबादी जुड़ा हुआ है . इसकी चर्चा
भी हम आगे करें गे.
ब्राह्मण- दर्शन और पौरोहित्य कार्य को अंजाम दे ने वाला जनजातीय वर्ग है. ब्राह्मण वर्ण दक्षिण एशियाई और
मध्य एशियाई दो भिन्न शारीरिक रं ग और बनावट वाले जनजातियों के मिश्रण से अस्तित्व में आया है
इसलिए द्विज है . ब्राह्मण वर्ण में दे व (आर्य) और शूद्र पष्ृ ठभूमि के पुरोहित शामिल हैं. ब्राह्मण आज
भी आर्थिक और सामाजिक रूप से वर्चस्व में है . जबकि समाज के अन्य तीनों वर्णों में बड़े पैमाने
पर विघटन दे खे जा सकते हैं. इसका कारण वर्ण व्यवस्था का आर्थिक और सामाजिक ढांचा है .
परम्परागत रूप से ब्राह्मण के हिस्से में दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और समाज के मूल्य-परम्पराओं से जुड़े हुए
काम ही उसके जीवन यापन के हिस्से रहे हैं. जिसके सहारे वह आज भी अपने पहचान को बनाए हुए ही
नहीं बल्कि वर्चस्व में भी है .
क्षत्रिय – क्षत्रिय का काम युद्ध के मोर्चे पर अपनी जनजाति का अगुवाई करना रहा है . शारीरिक रूप से
बलिष्ठ यह वर्ग जानवरों के शिकार में भी नेतत्ृ वकारी भमि
ू का निभाता रहा होगा. दर्शन, ज्ञान-विज्ञान में
इस वर्ग की भी भागीदारी संभव है लेकिन उतना नहीं जितना ब्राह्मण का हो सकता है . क्षत्रिय वर्ण में दे व
(आर्य) और शूद्र पष्ृ ठभूमि के क्षत्रिय शामिल हैं. राज्यसत्ता के अस्तित्व में आने के साथ ही इस वर्ण का
परम्परागत काम विलुप्त हो गया. इसलिए यह भी द्विज है .
वैश्य- यह वर्ण आर्य (दे व) जनजाति का बहुलता वाला समूह है जिसमें दक्षिण एशियाई जनजाति की बहुत
कम आबादी शामिल रही होगी. इसलिए यह भी द्विज है . वर्ण व्यवस्था स्थापित होने के शुरुआती चरण
में , जब सामाजिक अधिकार और सम्पति रखने के अधिकार की दर्जेबंदी नहीं की गई होगी तब तक
विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग नहीं था. क्योंकि वर्ण व्यवस्था स्थापित होने से ठीक पहले निजी सम्पति
अस्तित्व में नहीं आया था. यह श्रमिक वर्ग रहा है जो उत्पादन की कार्रवाई से जुड़ा हुआ था.
औंजरों के विकास के कालानुक्रम के अनुसार उस दौर की आर्थिक और सामाजिक संरचना :
नवि
ृ ज्ञान (मानव-शास्त्र) वैज्ञानिकों का मानना है कि सभी मानव प्रजातियां ईसा पर्व
ू लगभग 65000 हजार
साल पहले अफ्रीका से निकली हैं और धीरे -धीरे दनि
ु या के सभी भ-ू भागों में फैल गईं. इन मानव प्रजातियों
का प्रकृति से संघात के साथ धीरे -धीरे मस्तिष्क का विकास हुआ और वे अपने दो पैरों पर खड़े होने के
साथ ही अपने दोनों हाथों का इस्तेमाल करना भी सीखा. मानव समाज की विकास की प्रक्रिया उत्पादन के
औजारों के विकास के साथ अभिन्न रूप से जुड़ा हुआ है . उत्पादन के औजारों के विकास के लिहाज से
समाज वैज्ञानिकों ने इसे चार कालखंडों में बांटा है .
1- पुरापाषाण काल
2- नवपाषाण काल
3- कांस्य/ताम्र युग
4- लौह यग
ु
पुरापाषाण काल- इस दौर में मानव पत्थरों, जानवरों की हड्डियों और पेड़-पौधों के जड़ो/टहनियों में बिना
किसी बदलाव के उसे औजार के रूप में इस्तेमाल करना सीखता है . यह दौर पूरी तरह मातस
ृ त्तात्मक
समाज का होता है . कंदमल
ू और फल उसके मख्
ु य आहार होते हैं.
नवपाषाण काल- इस दौर में मानव पत्थरों, जानवरों की हड्डियों और पेड़-पौधों के जड़ों/टहनियों को नुकीला
या धारदार बनाकर उसे औजारों के रूप में इस्तेमाल करना सीख लेता है . इस दौर में श्रम के बंटवारे की
जमीन तैयार होती है . इस दौर में कंदमल
ू और जानवरों का शिकार मख्
ु य उत्पादन की कार्रवाई होती है .
साथ ही वे जानवरों को पालतू बनाना सीख रहे होते हैं. यह दौर मातस
ृ त्तात्मक समाज से पितस
ृ त्तात्मक
समाज में संक्रमण का दौर होता है .
कांस्य/ताम्र यग
ु - इस दौर में मानव तराशे गए पत्थरों, हड्डियों और पेड़-पौधों के जड़ो/टहनियों के
इस्तेमाल के साथ रांगा और तांबा धातु की खोज कर लेता है . रांगे और तांबे की मिक्स धातु से कांसे के
औजारों का भी इस्तेमाल करना शुरू कर दे ते हैं. इस दौर में श्रम विभाजन पूरी तरह स्थापित हो जाता है .
पशप
ु ालन उत्पादन का मख्
ु य क्रियाकलाप होता है लेकिन कृषि अभी शरु
ु आती दौर में होती है . इस कालखंड
में समाज पूरी तरह मातस
ृ त्तात्मक समाज से पितस
ृ त्तात्मक समाज में बदल चुका रहता है . इसी दौर में
श्रम विभाजन के रूप में तीन वर्ग परु ोहित, सैनिक और विस ् (उत्पादन की कार्रवाई में लगी आम आबादी)
अस्तित्व में आते हैं. पिछले दोनों कालखंडों से यह गुणात्मक रूप से भिन्न है . यह कालखंड जनजातीय
समाज से वर्ग समाज में संक्रमण का दौर होता है . इसी कालखंड में भारतीय उपमहाद्वीप में वर्ण
व्यवस्था और यूरोप में दास प्रथा अस्तित्व में आता है .
ईसा पर्व
ू 65000 हजार साल पहले जो मानव प्रजातियां दनि
ु या के अलग-अलग भ-ू भागों में बिखर
गईं उनमें से बहुत सारे तो नष्ट हो गईं लेकिन जो मानव प्रजातियां अपने अस्तित्व को बचाए रखीं. वे
प्राकृतिक आपदाओं के कारण अप्रवासन के वजह से एक दस ू रे से टकराती रहीं. इन अप्रवासनों से ठीक
पहले सभी जनजातियां का औजारों के विकास और इस्तेमाल के उपरोक्त कालखंडों के अलग-अलग दौरों
में रहना स्वाभाविक है . मतलब कि कोई जनजाति पुरापाषाण में , तो कोई नवपाषाण काल में , तो कोई
कांस्य यग
ु के दौर में भी प्रवेश कर चक
ु ी हो सकती है . ऐसे में प्राकृतिक आपदाओं या मौसम के बदलाव
के वजह से खाद्यान्न संकट आने पर कोई जनजाति दस
ू रे भौगोलिक क्षेत्र में अप्रवासन के लिए बाध्य हो
सकती है . ऐसे में प्रश्न उभरता है कि-
1- यदि दो जनजाति आपस में टकराती है जिसमें से एक परू ी तरह जनजातिय अवस्था में हो यानी उनमें
अभी श्रम विभाजन अस्तित्व में न आया हो और दस
ू री जनजाति श्रम विभाजन की अवस्था में प्रवेश कर
चुकी हो यानी उनमें परु ोहित, सैनिक और विस ् वर्ग अस्तित्व में आ चुके हों, तो दोनों जनजातियों से
मिलकर नया समाज कैसा बनेगा?
2- यदि आपस में टकराने वाली दोनों जनजातियां श्रम विभाजन के दौर में प्रवेश कर चुकी हों. यानी दोनों
जनजातियों में परु ोहित, सैनिक और विस ् वर्ग अस्तित्व में आ चक
ु े हों, तो दोनों जनजातियों से मिलकर
नया समाज कैसा बनेगा?