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मानव समाज का आदिम कबीलाई समाज से आधुनिक समाज तक पहुंचने में प्रमुख तीन चरण हैं। हर चरण की

उत्पादन की कार्रवाई और उससे निर्मित संपत्ति संबंध बुनियादी रूप से एक दस


ू रे से बिल्कुल भिन्न हैं। मार्क्सवाद के
शब्दों में मानव समाज का विकास परिमाणात्मक से गुणात्मक में तब्दील होता जाता है और दस
ू रे चरण में पहुँच
जाता है । यूरोप में गु लामी प्रथा और दक्षिण एशिया में वर्ण व्यवस्था अस्तित्व में आने से पहले यानी परिवार,
निजी सं पत्ति और राज्य के अस्तित्व में आने से पहले भी वर्ग समाज के दो आदिम रूपों के अस्तित्व में होने की
सं भावना लगती है । जिसमें वं श परम्परा, सामूहिक सम्पति किन्तु असमान उपभोग और धर्म का आदिम रूप
अस्तित्व में था। ईश्वर की परिकल्पना अभी नहीं आई रही होगी। प्राकृतिक शक्तियों को वश में करने या
मनाने के टोटके ही प्रचलन में रहा होगा।

1- आदिम साम्यवाद- सामूहिक कंद-मूल संग्रहण, सामूहिक शिकार, पूरी तरह प्रकृति पर निर्भरता और शारीरिक
आवश्यकता के अनस
ु ार उपभोग

2- जनजातीय वर्ग और संपत्ति संबंध- वंश, सामूहिक संपत्ति किन्तु असमान उपभोग, श्रम विभाजन के आधार पर
शरु
ु आती सामाजिक जिम्मेदारी की दर्जेबन्दी और प्रकृतिक शक्तियों को मनाने या वश में करने के लिए तरह-तरह के
अनुष्ठान यानी धर्म के आदिम रूप का उदय। आदिम वर्ग समाज और संपति से निर्मित समाज के दो उप चरण हैं-

A- मातृ सत्तात्मक समाज/ मातृ वंशीय परम्परा –

यह कालखण्ड काफी लं बा रहा होगा। यह दौर तु रं त उस बाद का होगा जब मानव प्रजाति का अन्य
जानवरों से अलग विकास सं भव हुआ होगा। जै से मस्तिष्क का विकास। किन्तु मानव प्रजाति शारीरिक
रूप से अन्य जानवरों से काफी कमजोर था। इस दौर में मानव प्रजाति का मु ख्य आहार कन्दमूल था।
जानवरों का शिकार करना आसान नहीं रहा होगा। सं भोग की प्रक्रिया जानवरों ही जै सी थी। जिसे
फ् रे डरिक एं गेल्स ने 'परिवार, निजी सं पत्ति और राज्य की उत्पत्ति' में यूथ विवाह का नाम दिया है । उस
समय पै दा होने वाले बच्चे केवल मां से ही पहचाने जा सकते थे । और इसलिए महिलाओं के सामाजिक
अधिकार पु रुषों के मु काबले ज्यादा रहे होंगे । सामूहिक सं गर् हण से प्राप्त कन्दमूल अनु पातिक रूप से
समूह की महिला मु खिया ज्यादा उपभोग करती रही होंगी। उस समय पिता का पहचान करना सम्भव नहीं
था। इसलिए वं श परम्परा मां से ही चलती थी। यह कालखण्ड पु रापाषाण का ही रहा होगा जिसमें औजारों
का अविष्कार और इस्ते माल नहीं शु रू हुआ था। वे कंदमूल प्राप्त करने के लिए प्रकृति प्रदत्त पत्थरों,
जानवरों के हड्डियों और पे ड़ों से टू टे डालियों का जस का तस इस्ते माल करते रहे होंगे ।

B- पितृ सत्तात्मक समाज/पितृ वंशीय परम्परा-

नव पाषाण काल में जनजातीय समाज मातृ सत्तात्मक से पितृ सत्तात्मक समाज में सं क्रमण का काल है । यह
दौर मानव प्रजाति द्वारा सामूहिक रूप से जानवरों का शिकार करने की शु रुआत हुई। इस दौर में टू टे पत्थरों,
हड्डियों या उन्हें तोड़कर नु कीले अवशे षों को औजार के रूप में इस्ते माल किया गया होगा। अब भोजन में
कन्दमूल के अलावा ज्यादातर मौकों पर मांस भी शामिल करना आसान हो गया होगा। तीर धनु ष और आग का
अविष्कार इसी कालखण्ड में हुआ होगा। जानवरों का शिकार के वजह से पु रूष का वर्चस्व कायम होना सं भव सा
लगता है । दस ू रा पै दा होने वाले बच्चों की सु रक्षा और अधिक से अधिक बच्चों को जिं दा रखने की चाहत ताकि
उनके समूह की आबादी बढ़ सके, उत्पादन कार्रवाई के सामूहिक अवसरों पर महिलाओं की भागीदारी लगातार
कम होते जाना स्वाभाविक सा लगता है । और इस तरह पितृ सत्ता ने मातृ सत्ता को मात दी होगी। इस दौर में
भी सं पत्ति सामूहिक किंतु उपभोग असमान था जो सामूहिक उत्पाद का आसमान उपभोग को दर्शाता है ।
भारतीय पौराणिक इतिहास में ऋषी परम्परा पितृ सत्ता का ही ताकीद करता है । अभी भी परिवार, निजी सं पत्ति
और राज्य अस्तित्व में नहीं आया है । अब कबीले का मु खिया पु रूष होता है । सम्भव है कि मु खिया की पत्नी का
विशे ष पहचान हो और कबीले की अन्य महिलाएं सं भोग की सामूहिक प्रक्रिया को अपनाते हों जो मातृ वंशीय
परम्परा में मौजूद थी। ले किन कबीले का मु खिया उसी समूह का हिस्सा होने के वजह से उत्सव के विशे ष
अवसरों पर वह खु द और उसकी पत्नी सामूहिक सं भोग की प्रक्रिया में शामिल होते होंगे । सामाजिक विकास
प्रक्रिया के इसी दौर में शिकार के दौरान या प्राकृतिक आपदाओं के वजह से एक कबीलाई समूह अपने
भौगोलिक क्षे तर् को लाँघकर दसू रे काबिले के भौगोलिक क्षे तर् में प्रवे श किया होगा और दो या दो से अधिक
कबीले आपस में टकराए होंगे । फिर एक नई सामाजिक परिघटना अस्तित्व में आई।

3- आधनि
ु क वर्ग और संपत्ति संबंध- परिवार, निजी संपत्ति, राज्य और आधनि
ु क धर्म का रूप। उत्पादन की पद्धति
और उपभोग के लिहाज से इसे दो में बांटा जा सकता है ।

A- सामंतवाद

B- पंज
ू ीवाद

संपत्ति संबंधों के लिहाज से 'जनजातीय वर्ग और संपत्ति संबंध' का दस


ू रा चरण सबसे अधिक जटिलताओं और
अंतर्विरोधों से भरा हुआ है । सबसे पहले इसी चरण में सामाजिक जिम्मेदारी के रूप में पुरोहित, योद्धा और विस ्
(उत्पादन की कार्रवाई में लगी आम जनता) वर्ग अस्तित्व में आते हैं। इसी चरण में जब दो या दो से अधिक कबीलाई
जनजातियां एकदस
ू रे से टकराते हैं तो दक्षिण एशिया में वर्ण व्यवस्था और यूरोप में दास/गुलामी प्रथा अस्तित्व में
आता है । इसी चरण में प्रकृति की शक्तियों को नियंत्रण करने वाले ईश्वर की परिकल्पना सामाजिक अंतर्विरोधों को
भी हल करने की भी भूमिका में आता है । इसके पहले प्रकृति के साथ मानव समूह का तथा स्त्री और पुरुषों के बीच ही
अंतर्विरोध था। लेकिन अब उपरोक्त दोंनो अंतर्विरोधों के साथ ही एक कबीलाई जनजाति का दस
ू रे कबीलाई जनजाति
से सांस्कृतिक अंतर्विरोध, परु ोहित का योद्धा और विस ् के साथ अंतर्विरोध, योद्धा का परु ोहित और विस ् से अंतर्विरोध,
विस ् का परु ोहित और योद्धा के साथ अंतर्विरोध, स्त्री का पितस
ृ त्ता से अंतर्विरोध और समूहिक सम्पति का असमान
उपभोग का अंतर्विरोध काम करने लगता है .

मार्क्सवादी समाज विज्ञान आने के बाद हम समाज विकास के दो चरणों आदिम साम्यवाद और 'आधुनिक वर्ग और
संपत्ति संबंध' (सामंतवाद और पूंजीवाद) से बखूबी परिचित हैं। अभी भी समाज विकास के एक निश्चित कालखण्ड
में दक्षिण एशिया में वर्ण व्यवस्था और इसके गर्भ से जन ्मी जाति व्यवस्था तथा यरू ोप में दास/गुलामी प्रथा के
अस्तित्व में आने के कारणों की तलाश नहीं हो पाई है क्योंकि आधुनिक वर्गों के उदय और उससे निर्मित संपत्ति
संबंधों से वर्ण व्यवस्था और गल
ु ामी प्रथा की व्याख्या नहीं हो पाती है । आधनि
ु क समाज में परिवार, निजी संपत्ति,
राज्य और धर्म की भूमिका स्पष्ट रूप से दिखाई दे ती है और साथ ही उन सम्पति संबंधों से सभी वर्गों और सामाजिक
समूहों के परिचित होने के वजह से सभी वर्ग या सामाजिक समूह अपने अधिकारों के लिए सचेतन संघर्ष की स्थिति
में होते हैं। इस दौर में समाज के बड़े वर्ग को या सामाजिक समूह को लंबे समय तक सामाजिक अधिकारों और संपत्ति
रखने के अधिकार से शासक वर्ग वंचित नहीं रख सकता है । ऐसी स्थिति में संपत्ति विहीन वर्गों का विद्रोह स्वाभाविक
है । जबकि समाज विकास का एक ऐसा दौर भी है जब दक्षिण एशिया में शूद्र वर्ण और यरू ोप में गुलाम जो उस समय
समाज की बड़ी आबादी थी, कानन
ू ी तौर पर संपत्ति विहीन हो गई थी। उस दौर में निजी संपत्ति अस्तित्व में आई ही
नहीं थी सिर्फ असमान उपभोग ही अस्तित्व में आया था। यदि उस दौर में संपत्ति संबंध इतने स्पष्ट होते जो सामंती
और पँज
ू ीवादी काल में है , तो दक्षिण एशिया की बड़ी आबादी शद्र
ू वर्ण और यरू ोप की बड़ी आबादी गल
ु ामों को
सामाजिक अधिकारों और संपत्ति रखने के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता था। दक्षिण एशिया और यरू ोप
में गुलामी प्रथा स्थापित हो जाने के बाद उत्तरोत्तर काल में जैसे-जैसे संपत्ति संबंध का निजी स्वरूप स्पष्ट होता
गया वैसे-वैसे शद्र
ू ों और गल
ु ामों का शासक वर्गों के खिलाफ विद्रोह बढ़ता ही गया।

जनजातीय वर्ग और संपत्ति संबंध के इस कालखण्ड में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व में आना बहुत ही महत्वपूर्ण और
अनूठी परिघटना है । हम कह सकते हैं कि संपत्ति संबंधों के विकास के इस दौर में पहली बार दो या दो से अधिक
कबीलाई जनजातियां आपस में टकराई हैं। इलाकाई वर्चस्व और युद्ध के बाद बचे हुए आबादी से वर्ण व्यवस्था का
आर्थिक और सामाजिक संरचना निर्मित हुई है । शुरुआती समय में वर्ण व्यवस्था में भिन्न संस्कृति वाले दो ही
कबीलाई जनजाति के होने की ज्यादा संभावना है । वर्ण व्यवस्था का सामाजिक और आर्थिक संरचना वर्ण(चमड़ी का
रं ग), वर्ग और जनजातीय संस्कृति से मिलकर बना है । जैसे ही कम से कम दो जनजातियों की प्रतिनिधित्व करने
वाला वर्ण व्यवस्था अन्य कबीलाई जनजातीय समूहों से टकराता जाता है , वर्ण व्यवस्था की परु ानी आर्थिक और
सामाजिक संरचना के साँचे से गज
ु रती विभिन्न कबीलाई जनजातियां अपने जनजातीय मल्
ू यों और संस्कृति को
लिए हुए जाति की संस्था में रूढ़ होती जाती हैं। जनजातीय मूल्यों-मान्यताओं का जाति का संस्थागत रूप लेना मुख्य
रूप से वर्ण व्यवस्था का आर्थिक और सामाजिक ढांचा ही आधार मुहैया कराता है ।

दास प्रथा और तीन वर्गों का उद्भव –

ऐसा नहीं होगा कि दो या दो से अधिक भिन्न कबीले पहली बार टकराए होंगे और उसमें एक की जीत और दस ू रे
की हार हुई होगी। अपने भौगोलिक क्षे तर् ों के उल्लं घन से वे गाहे -बे गाहे टकराते रहे होंगे और इस दौरान
कबीलों में पु रोहित, योद्धा और विस् (उत्पादक कार्रवाई में लगी आम आबादी) में श्रम विभाजन स्वाभाविक
रूप से आकार लिया होगा। ले किन सामाजिक विकास का एक ऐसा वक्त भी आया होगा जब भौगोलिक क्षे तर् ों
के वर्चस्व के लिए सचे तन तौर पर एक कबीला दस ू रे कबीले पर हमला किया होगा। ऐसी स्थिति में दो ही सूरत

बनती है वह यह कि एक हारे गा तो दसरा जीते गा। जीतने वाले कबीले का वर्चस्व कायम होगा और हारने वाले
कबीले को सामाजिक अधिकारों से महरूम कर गु लाम बना लिया जाएगा। इस प्रकार समाज एक नए दौर में
प्रवे श करता है और परिवार, निजी सं पत्ति और राज्य की स्थापना के लिए अग्रसर होता है और धर्म अपना
आधु निक रूप ग्रहण करता है । दुनिया के प्राचीन सभ्यताओं में जहाँ भी गु लामी प्रथा अस्तित्व में आया वहां
जीतने वाले कबीले ने वर्चस्व कायम किया और स्वाभाविक वर्गीय अं तर्विरोधों के अलावा रं गभे द भी एक
अं तर्विरोध के रूप में अस्तित्व में आया।

दक्षिण एशिया में वर्ण व्यवस्था और तीन वर्गों का उद्भव –


दक्षिण एशिया में भी वही हुआ जो दुनिया के अन्य सभ्यताओं में हुआ। ले किन यहाँ एक बु नियादी भिन्नता है
वह यह कि यहाँ यु द्ध में मात खाई आर्य कबीले का वर्चस्व कायम हुआ। यह बहुत ही है रान करने वाली बात है
कि ऐसा कैसे सं भव है । इस गु त्थी को हल करने के लिए दक्षिण एशिया में प्रचलित 300 से ज्यादा रामायण के
आख्यानों से गु जरना होगा। दक्षिण एशिया में प्रचलित रामायण के आख्यानों से साफ जाहिर होता है कि
रामायण का मूल चरित्र से दक्षिण एशिया में बसी हुई जनजातियां उस कबीलाई समूह से सां स्कृतिक और
व्यापारिक रूप से परिचित थीं। मतलब रामायण का मूल चरित्र दक्षिण ऐशियाई है । दस ू रा रामायण के
ज्यादातर आख्यानों को दक्षिण एशिया की अन्य जनजातियां सकारात्मक रूप से दर्ज की हैं यानी रामायण के
कालखण्ड में हुए सं घर्ष को अपना सां स्कृतिक विरासत और हिस्सा मानती हैं । यदि वह बाहरी आक् रमणकारी
होता और जीत हासिल किया होता तो यहाँ की अन्य जनजातियां उस घटना को विरोधी स्वर में दर्ज करतीं।
रामायण के कालखण्ड में आर्य और शूदर् जनजातियों के बीच हुए हार-जीत को वर्ग अं तर्विरोध और जनजातीय
सां स्कृतिक पहचान ने पूरे घटनाक् रम को ही पलट दिया है । पहले ही चर्चा किया जा चु का है कि दोनों कबीलाई
समूहों में पु रोहित, योद्धा और विस् अस्तित्व में आ चु के थे । दोनों कबीलों में सं पत्ति सामूहिक थी किन्तु उपभोग
में अं तर आ चु का था। उत्पादन का ज्यादा हिस्सा पु रोहित और योद्धा स्वाभाविक रूप से इस्ते माल करें गे । निजी
सं पत्ति का अस्तित्व नहीं आया था। स्वाभाविक रूप से सामाजिक जिम्मे दारी के रूप में गै रबराबरी पै दा हो चु की
थी। निजी सं पत्ति का अस्तित्व न होने के वजह से समाज की आम आबादी अपने हक-हुकू क के लिए सजग नहीं
रह सकती। हां एक बात जरूर हो सकता है वह यह कि आम आबादी जिस कबीलाई सां स्कृतिक पहचान का
हिस्सा है उसे वह खोना नहीं चाहे गी। और ठीक यही हुआ है । आर्य जनजाति शूदर् जनजाति से हारी है और
आत्मसमर्पण की है और वक्त गु जरने के साथ आर्य और शूदर् जनजाति के समानार्थी वर्ग आपस में मिश्रित हुए
हैं ले किन शूदर् जनजाति की आम आबादी अपनी शूदर् जनजातीय सां स्कृतिक पहचान छोड़कर मिश्रित
पहचान अपनाने से इनकार किया है । इससे एक समस्या पै दा हो गई वह यह कि शूदर् जनजाति की ने तृत्वकारी
पु रोहित और योद्धा अपने उपभोग के वर्गीय अधिकारों के वजह से मिश्रित ने समाज में बने रहे जिससे शूदर्
जनजाति की आम आबादी ने तृत्व विहीन हो गई।
चु की विकसित होते हुए राज्य में शूदर् जनजाति की आम जनता ने शामिल होने से मना कर दिया होगा तो ऐसे
में विकसित होते राज्य में सं पत्ति और सामाजिक अधिकारों से वं चित हो जाना स्वाभाविक है । अब मिश्रित
नए समाज में शूदर् जनजाति के पु रोहित और योद्धा अपनी जनता से कट जाने के कारण स्वाभाविक रूप से
अल्पमत में आ जाएं गे। तब उस समाज में वही होगा जो जनजाति बहुमत में होगी। यानी हारी हुई आर्य
जनजाति के पु रोहित और योद्धा अपने जनजाति के आम जनता के साथ बने रहने के कारण स्वाभाविक रूप से
अपने दर्शन, ज्ञान-विज्ञान और परम्पराओं को विकसित करते रह सकते हैं और इस तरह आर्य जनजाति हारने के
बावजूद भी अपना वर्चस्व कायम रख सकती है । रं ग रूप के अनु सार भी उभरा नया समाज दो वर्णों (शरीर का
रं ग) का होगा। ले किन हकीकत में हुआ यूं होगा कि श्रम विभाजन के वजह से दोनों वर्ण (शरीर का रं ग)
पु रोहित, योद्धा और विस् में बं ट जाएं गे। यदि वर्गों का मानदण्ड बनाया जाय तो वर्ण(रं ग) तीन हुए ले किन श्रम
विभाजन के वजह से उसे ब्राह्मण, क्षत्रिय और वै श्य ही कहा जाएगा। ब्राह्मण, क्षत्रिय और वै श्य वर्ग और
वर्ण के पहचान को समे टे हुए है । उभरते राज्य में तीनों वर्ण(वर्ग और शरीर का रं ग) सं पत्ति सं बंधों और
सामाजिक अधिकारों से तो लै स होंगे ले किन शूदर् जनजाति की आम जनता इससे महरूम होगी क्योंकि उसने
मिश्रित समाज के नए पहचान को अपनाने से मना किया है । हम पहले ही बता चु के हैं कि उस दौर में सं पत्ति
सं बंध स्पष्ट नहीं थे इसलिए शूदर् जनजाति की आम जनता को यह भनक भी नहीं रही होगी कि भविष्य में
उनका भयानक नु कसान होने वाला है । अब चौथा वर्ण शूदर् अपने आप में एक वर्ण हुआ जो स्वाभाविक रूप में
तो उत्पादन की कार्रवाई में लगा हुआ है ले किन उभरते राज्य के कानूनी रूप में सं पत्ति और सामाजिक अधिकारों
से वं चित होगा। और अं ततः इसे वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बनाए रखने के लिए शूदर् वर्ण को ऊपर के तीनों वर्णों
की से वा करने की जिम्मे दारी थोपी गई।
संदर्भ ग्रंथ -
1- परिवार निजी सं पत्ति और राज्य की उत्पत्ति - फ् रे डरिक एं गेल्स
2 - लोकायत - दे वीप्रसाद चट् टोपाध्याय
3 - शूदर् ों का प्राचीन इतिहास - रामशरण शर्मा
4 - पूर्व मध्यकालीन भारत का सामं ती समाज और सं स्कृति - रामशरण शर्मा
5 - तीन सौ रामायणें - ए के रामानु जन

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