अंतरजातीय विवाह के प्रतिबंध पर सम्पति ही केंद्र में

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वर्ण व्यवस्था के आर्थिक-सामाजिक संरचना को तभी दीर्घजीवी बनाया रखा जा सकता था जब जनजातीय

पहचान को जिंदा रखा जाए। जो आगे चलकर मूल जातियों के रूप में अस्तित्व में आईं। वर्ण व्यवस्था
के ढाँचे में नाते-रिश्ते के चार संभावनाएं बनती हैं जिसका ऊपर जिक्र किया गया है । इस ढाँचे में वर्गीय
मूल्य-मान्यताएं और जनजातीय मूल्य-मान्यताएं परस्पर एकता और संघर्ष के सहअस्तित्व में हैं। इस
स्थिति में नाते-रिश्ते की सबसे आदर्श स्थिति सम-वर्गीय और सम-जनजातीय बनेगी। जो जनजाति में
अंतर्विवाही और गोत्र बहिर्विवाही होगी। लेकिन यह आदर्श स्थिति तभी बनेगी जब स्त्री-परु
ु षों का अनप
ु ात
हमेशा बराबर बना रहे । जबकि यह सम्भव नहीं है । ऐसे में यदि जनजातीय पष्ृ ठभूमि समान हो तो भी
वर्गीय सीमा का उल्लंघन अनिवार्य हो जाता है । इसके लिए वर्ण व्यवस्था में अनुलोम विवाह की इजाजत
है क्योंकि इससे पितस
ृ त्ता पर कोई आँच नहीं आने वाला है । जबकि इसके ठीक उल्टा प्रतिलोम विवाह में
दिक्कत है । वैश्य, क्षत्रिय और ब्राह्मण वर्ग में उत्तरोत्तर आबादी कम होने के कारण स्त्री-परू
ु ष का
संतुलन लगातार संकट की स्थिति में रहे गा। इसलिए प्रतिलोम विवाह पर पाबंदी लगाई गई है ।

वर्ण व्यवस्था में नाते-रिश्तों की दस


ू री स्थिति सम-वर्गीय और अंतर-जनजातीय की बनती है जो
वर्ण व्यवस्था के लिए सबसे घातक है । यह विवाह जनजाति के साथ गोत्र भी बहिर्विवाही होगा। क्योंकि
एक तो समाज अभी जनजातीय समाज से वर्गीय समाज में संक्रमण के दौर से गज
ु र रहा होता है जिसके
वजह से अंतर-जनजातीय विवाह एकाएक कायम नहीं हो सकते थे। दस
ू रे अंतर-जनजातीय विवाह से आर्य
जनजाति का वर्चस्व कमजोर होगा। दस
ू री तरफ शूद्र जनजाति की आम आबादी जो उभरते राज्य के ढाँचे
से बाहर होने के साथ ही सम्पतिविहीन होती है । वे अपने नाते-रिश्ते अपने ही जनजाति में अंतर्विवाही
किं तु बहिर्विवाही गोत्र का पालन करते हैं। वर्ण व्यवस्था का यह ढाँचा जब जैन, बौद्ध धर्म के सामाजिक
ढाँचे के संपर्क में आएगा जो खुद ही जनजातीय समाज से वर्गीय समाज में संक्रमण की अवस्था में होता
है । जिसमें जनजातीय समाज के प्रारं भिक वर्ग ब्राह्मण, क्षत्रिय और किसान/शिल्प वर्ग जरूर होंगे। तब
नाते-रिश्ते के जनजातीय नियमों को पालन करते हुए समनार्थी वर्गों में विलय कर जाएंगे और
सम्पतिविहीन शेष आबादी अनायास ही शूद्र पहचान ग्रहण कर लेगी। यह परिघटना तबतक चलती रह
सकती है जब तक एक जनजातीय समाज का वर्गीय समाज में विलय होता रहे ।

अंतरजातीय विवाह के प्रतिबंध पर सम्पति ही केंद्र में

भारत के वर्ण व्यवस्था के ढांचे में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चार वर्ण हैं। वर्ण व्यवस्था में शूद्र(विस ्-
आम आबादी) को छोड़कर तीनों वर्ण आर्य और शूद्र जनजाति के ब्राह्मण, क्षत्रिय और विस ् संयुक्त वर्ग
का प्रतिनिधित्व करते हैं। जिसे वर्ण विभाजन के रूप में दर्ज किया गया है । यह प्रतिनिधित्व दक्षिण
एशिया में वर्ण व्यवस्था स्थापित होने के साथ ही अस्तित्व में आया। उपरोक्त में शूद्र शुरू से ही
अल्पमत में हैं। वर्ण व्यवस्था स्थापित होने के साथ ही जैसे ही राज्य अस्तित्व में आया सम्पति रखने
और सामाजिक अधिकार ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य को सुनिश्चित हो गए किन्तु शूद्र (विस ्-आम आबादी)
सामाजिक अधिकार और सम्पति रखने के अधिकार से वंचित हो गया क्योंकि शूद्र(विस ्-आम आबादी)
उभरते राज्य से बाहर थे। वर्ण व्यवस्था में वैवाहिक संबंध स्थापित होने के दौरान वर्ग और जनजातीय
पष्ृ ठभमि
ू दो पहलओ
ु ं का अवश्य ही सख्ती से पालन किया जाता था। आर्य और शद्र
ू जनजाति का
ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य अपने ही वर्ग और जनजाति में ही वैवाहिक संबंध स्थापित करते थे। बहुत संभव
हुआ तो दो वर्गों ब्राह्मण और क्षत्रिय के बीच रोटी-बेटी का लेन-दे न हो सकता था क्योंकि ये ही दो
विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग थे। लेकिन जनजातीय पष्ृ ठभमि
ू एक ही होना चाहिए। बाद में इस पर भी सख्त
पाबंदी लगा दी गई क्योंकि वर्ण व्यवस्था के ढांचे का उलंघन होता जिससे जनजातीय मूल्य-मान्यताओं
पर आँच आ जाने का भय था। जनजातीय मूल्य-मान्यताओं की सुरक्षा सर्वोपरी थी।

वर्ण व्यवस्था के आर्थिक, सामाजिक ढाँचे से निकली जातियां-

वर्ण व्यवस्था के आर्थिक-सामाजिक ढाँचे को ईसा पूर्व 322-185 मौर्य साम्राज्य के कालखण्ड में बड़ी
चन
ु ौती मिली होगी जब जैन और बौद्ध धर्म सम्पर्क में आया। जैन और बौद्ध धर्म खद
ु कई जनजातियों
का प्रतिनिधित्व कर रहा था लेकिन वे जनजातियां एक ही भौगोलिक क्षेत्र में रहने के वजह से एक दस
ू रे
से परिचित होंगी और एक दस
ू रे के संस्कृति से लेन-दे न स्वाभाविक रूप से रहा होगा। जैसे ही वैदिक
संस्कृति और बौद्ध संस्कृति एक दस
ू रे के संपर्क में आए वर्ण(चमड़ी का रं ग) विलप्ु त हो गया और बचा
सिर्फ जातिय पहचान (जनजाति)। दस
ू री जनजातियों के वर्ण व्यवस्था में विलय की एक बार फिर प्रक्रिया
चली. प्रत्येक जनजाति में ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य जनजातीय वर्ग अवश्य ही रहे होंगे. जैन और बौध
धर्म के आर्थिक, समाजिक ढांचे में भी ब्राह्मण और क्षत्रिय विशेषाधिकार प्राप्त वर्ग रहे होंगे जो समता
पर आधारित जनजातीय समाज से वर्गों में विभक्त जनजातीय समाज में स्वाभविक रूप से अस्तित्व में
आए होंगे क्योंकि यह स्वाभाविक श्रम विभाजन ही था. अभी तक वर्ण व्यवस्था से बाहर पड़ी जनजातियाँ
जैसे ही वर्ण व्यवस्था के सामाजिक ढांचे से सम्पर्क में आईं होंगी वैसे ही अलग-अलग जनजातियों के
ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य सम्पतिशाली वर्ग समनार्थी वर्गों में शामिल हो गए होंगे. जैन और बौध धर्म
के सामाजिक ढांचे में वैश्य की बड़ी आबादी सम्पतिविहीन रही होगी जो वर्ण व्यवस्था के सामाजिक ढांचें
में आते ही शूद्र की पहचान प्राप्त कर लेंगी. एक बार फिर समाज वर्ण व्यवस्था के अनुसार पन
ु र्गठित हो
जाएगा. वर्ण व्यवस्था में शामिल प्रत्येक जनजातियां जातियों के रूप में तीन रूपों में उभरकर आएंगी-
1- अपने मूल जनजातीय नामों के साथ

2- स्थान विशेष के साथ जहाँ की विशिष्ट जनजाति निवासी होगी

3- गोत्र टोटम के साथ

उपरोक्त तीनों वर्गीकरण जनजातियों के जाति के रूप में अस्तित्व में आने का है . उपरोक्त तीनों नामों
से अस्तित्व में आईं जातियां जो इस विलय के घटनाक्रम से ठीक पहले जनजाति ही थी, से ब्राह्मणों,
क्षत्रियों और वैश्यों का वर्ण व्यवस्था में विलय होता है तो यह भ्रम पैदा करने लिए पर्याप्त है कि जातियों
के अन्दर सामाजिक और आर्थिक है सियत वाले समह
ू ों का विलय हो रहा है . जबकि यह विलय जातियों
के अंदर से नहीं बल्कि जनजातियों के अन्दर से वर्गों का वर्ण व्यवस्था में विलय होता है . यह प्रक्रिया
उस समय तक चलता रहता है जब तक अमुक जनजाति वर्ण व्यवस्था के ढांचे में परू ी तरह समाहित
नहीं हो जाती. जैसे ही विलय की प्रक्रिया परू ी हो जाएगी तो वह अमुक जनजाति जाति के रूप में रूढ़ हो
जाएगी और बंद समूह में बदल जाएगी. जातियों के अस्तित्व में आने के शुरुआती समय में मख्
ु य रूप से
उपरोक्त वर्गीकरण से मूल जातियों का निर्माण हुआ होगा। जैसे ही मूल जातियों (जनजाति) के लोग
अलग-अलग पेशों में गए, पेशों के साथ जुड़कर उप-जातियों का निर्माण हुआ। वर्ण व्यवस्था के नियम के
अनस
ु ार अपने जनजाति से इतर किं तु एक ही गोत्र में शादी की सख्त मनाही है । यह वर्ण व्यवस्था में
सख्ती के साथ पालन हुआ. ऐसे में उप-जातियों के बनने के साथ एक ही पेशे से कई जनजातियों जुड़
जाएंगी। चुकी एक ही पेशे से जुड़ी एक जाति है लेकिन इस जाति में कई जनजातीय पष्ृ ठभूमि के लोग
हैं। ऐसे में जाति एक ही होने के बावजद
ू गोत्र बहिर्विवाही हो जाएगा। जिसका पालन हमारे समाज में
होता है । प्रत्येक जातियां वर्ण व्यवस्था के ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र चारों वर्णों में से किसी न किसी
के अंग हैं। सर्वविदित है कि वर्ण व्यवस्था में शूद्र सामाजिक अधिकार और संपत्ति रखने के अधिकार से
वंचित है । भारत में कोई भी रोटी-बेटी का रिश्ता एक ही जाति में ही नहीं बल्कि एक ही वर्ण में भी
करता है । ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य के अंदर आने वाली जातियाँ अपने ही जाति में रोटी-बेटी का रिश्ता
करने के साथ अपने ही वर्ण में भी करते हैं। यह स्थिति अंग्रेजों के आने तक बनी रही। इससे दो बातें
सनि
ु श्चित हो जाती हैं। पहला यह कि संपति के संसाधनों पर तीनों वर्णों का वर्चस्व बना रहता है जो
लगभग ईसा पूर्व 1500-1000 के दौरान अस्तित्व में आया। दस
ू रा जनजाति और गोत्र के नियमों का
उल्लंघन भी नहीं होता है । यदि ब्राह्मण, क्षत्रिय या वैश्य की कोई जाति अपने जैसे ही आर्थिक है सियत के
किसी शूद्र पष्ृ ठभूमि के निचली जाति से रोटी-बेटी का रिश्ता करता है तो ऊपर के तीनों वर्णों का सम्पति
के संसाधनों से वर्चस्व खत्म हो जाएगा। आजादी के बाद शूद्र पष्ृ ठभूमि से आर्थिक रूप से सम्पन्न
जातियों को यदि अंतरजातीय विवाह कर सकें तो सम्पति संसाधनों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का
वर्चस्व टूटे गा क्योंकि जैसे ही रोटी-बेटी के रिश्ते बनेंगे वैसे ही वर्णों का ऊपर से नीचे और नीचे से ऊपर
आवागमन शुरू हो जाएगा और वर्ण व्यवस्था का ढांचा टूट जाएगा जिसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य
वर्चस्व के शीर्ष पर हैं. संपत्ति के संसाधनों पर ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य का वर्चस्व बनाए रखने के लिए
ही अंतरजातीय विवाहों पर सख्त प्रतिबंध है ।

स्रोत ग्रन्थ-

1- ‘भारत में जाति और प्रजाति’ – जी. एस. घर्ये



2- ‘लोकायत’- दे वी प्रसाद चट्टोपाध्याय

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