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श्रवणेंद्रिय द्वारा जिस काव्य से आनंद प्राप्त किया जा सके, वह श्रव्य काव्य है । जिसके अंतर्गत उपन्यास, कविता,
कहानी, निबंध को लिया जा सकता है । इन्हें न सिर्फ सुना जा सकता है , बल्कि पढा भी जा सकता है । इसके विपरीत
जो काव्य नयनेंद्रिय का विषय बने अर्थात जिसे प्रत्यक्ष दे खकर अवलोकन से रस भाव की अनुभूति हो उसे दृश्य
काव्य कहा गया है । इस दृष्टि से दृश्य काव्य ही मंच और मंचीय विधा है । दृश्य की प्रत्यक्ष योजनायें] वस्तु का विधान,
पात्र योजना, उनकी वेषभष
ू ा, हावभाव, संवाद आदि उपकरणों से दृश्य काव्य का विधान का किया जाता है ।
दृश्य काव्य के अंतर्गत रूपक का एक भेद है - नाटक। नाट्य शास्त्रों में अभिनय संबंधी जितने भी तत्व स्वीकारें
गये है , उसमें नाटक भी है । नाटक शब्द की उत्पत्ति 'नट्' धातु से होती है । जिसका अर्थ है 'साहित्यिक भावों का
प्रदर्शन।' दस
ू रे अर्थ में नाटक का संबंध अभिनेता से होता है और अभिनेता की विभिन्न अवस्थाओं की अनुभूति को ही
नाटक कहते है । संस्कृत साहित्य में नाटक के लिए रूपक शब्द का प्रयोग होता है ।
नाटक की परिभाषा इस प्रकार दी जा सकती है - "साहित्य की जिस विधा में अभिनेता मूल का, पात्र का अपने
उपर आरोप कर उसी प्रकार आचरण करते है , जिस प्रकार उन ऐतिहासिक या पौराणिक या समसामायिक पात्रों ने
किया। अगर मूल पात्र कल्पित है , तब भी नाटककार ने उनके जिन कार्य व्यापार की कल्पना की है , वैसा ही अनुकरण
अभिनेता जिस विधा में करता है , वह विधा रूपक या नाटक कहलाती है ।" नाटक में केवल साहित्यिक नहीं, बल्कि
अन्य ललित कलाओं का भी समन्वय होता है । जैसे - संगीत नत्ृ य चित्र आदि।
नाटक के तत्व
नाटक साहित्य की परु ातन विधा है । भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों ने नाटक के स्वरूप, विधायक तत्वों की
विस्तार से चर्चा की है ।
भारतीय नाटक परं परा में आ.भरतमुनी का नाम सर्वप्रथम आता है । इन्होंने अपने 'नाटयशास्त्र' में रूपक या
नाटक के चार तत्व स्वीकार किए है - संवाद, गान, नाट्य, रस। 'दशरूपक' के रचयिता धनंजय ने नाट्य या रूपक के
तीन प्रमुख तत्व दिए है - वस्तु, नेता, रस। कई विद्वानों ने इनके साथ अभिनय और वत्ति
ृ को भी नाटक के तत्व के
रूप में स्वीकार किया है । अतः भारतीय परं परा की दृष्टि से नाटक के चार तत्व माने गये है ।
1. वस्तु
वस्तु से तात्पर्य कथा वस्तु से है । वस्तु नाटक का प्रधान तत्व है । भारतीय आचार्यो ने वस्तु के स्रोत संगठन की
दृष्टि से नाट्य वस्तु का विस्तत
ृ विवेचन किया हैं। नाटयवस्तु का समुचित विकास हो इसलिए भारतीय नाटयशास्त्र
में वस्तु के भेद आदि का विस्तार से विचार किया है । साथ ही नाटयवस्तु जिन संवादों के माध्यम से प्रकट होती है ,
उसपर भी ध्यान दिया है ।
2. नेता
भारतीय आचार्यों ने चार प्रकार के नायक या नेता माने है - धीरोदात्त, धीरललित, धीरप्रशांत, धीरोद्धत। इसी
प्रकार नायिका भी स्वरूपवती, गुणवंती, शीलवती, यौवन, माधुर्य आदि से संपन्न प्रसन्नमन, स्नेहिल, स्निग्ध,
भावपूर्ण मधुर वचन बोलनेवाली, शोभरहित, योग्य नत्ृ य-संगीत की जानकार हो।
3. रस
भारतीय नाटयशास्त्र में रस की सिद्धि ही नाटक का उद्देश्य मानी गई है । भरतमुनी के अनुसार रस के अभाव में
नाटक में कोई प्रयोजन सिद्ध नहीं होता। नाटक में श्रंग
ृ ार रस, वीर, शांत में से कोई एक रस प्रमुख होना चाहिए और
शेष रसों की निष्पति अंगी रस के अश्रित रूप में होनी चाहिए। भारतीय नाट्य शास्त्र में रस प्रक्रिया का विस्तत
ृ
विवेचन किया गया है ।
4. अभिनय
नाट्य के समचि
ु त विषय का या वस्तु विधान का प्रेक्षागह
ृ ों में बने रं गमंच पर अभिनेताओं द्वारा प्रस्तत
ु ीकरण
अभिनय कहलाता है । भारतीय नाट्य शास्त्र में अभिनय के भेद तथा रं गमंच का विस्तार से विवेचन किया गया है ।
अभिनय मुख्यत चार प्रकार का होता है - आंगिक, वाचिक, आहार्या, सात्विक।
1. कथावस्तु या कथानक
यह नाटक का प्राणतत्व है । कथावस्तु ऐतिहासिक, पौराणिक, कल्पित, मिश्रित किसी भी प्रकार की हो सकती है ।
आजकल ऐतिहासिक, पौराणिक कथाप्रसंगों का प्रतिकात्मक तथा मिथकीय प्रयोग कथावस्तु के रूप में किया जा रहा
है । कथावस्तु दो प्रकार की होती है - आधिकारिक कथा और प्रासंगिक कथा। पाश्चात्य धारणा के अनुसार
कथाविकास में संघर्ष तत्व प्रधान होता है । तथा नाटक का अंत प्रायः दख
ु ांत होता है ।
2. चरित्र चित्रण
पात्र योजना तथा चरित्र चित्रण के प्रति पाश्चात्य दृष्टि स्वाभविक और यथार्थ रही है । अतः भारतीय आचार्यों के
समान नायक तथा अन्य चरित्रों के प्रति आदर्शवादी दृष्टि पाश्चात्य विद्वानों की नहीं है । अरस्तु के अनुसार चरित्र
चित्रण में नाटककार को चार बातों की ओर ध्यान रखना चाहिए- अच्छा चरित्र, औचित्य का ध्यान, जीवन के अनरू
ु प,
चरित्र में सुसंगति। चरित्र चित्रण से तात्पर्य उसके आभ्यंतरित रूप और बाहय व्यक्तित्व के प्रकटन से है और यह
प्रकटन नाट्यव्यापार तथा संवादों के माध्यम से हो सकता है । पात्रों को व्यक्ति पात्र तथा प्रतिनिधी पात्र दो भागों में
विभाजित किया जा सकता है ।
3. कथोपकथन या संवाद
नाटक संवादों के द्वारा लिखा जाता है । पात्र के चरित्र चित्रण का विकास, रोचकता, वातावरण सज
ृ न संवादों के
माध्यम से होता है । इस तत्व के अभाव में नाटक की कल्पना ही साकार नहीं हो सकती। संवाद जितने सार्थक,
संक्षिप्त, वक्र, शक्ति संपन्न होते है , नाटक उतना ही सफल होता है । अतः संवादों की भाषा, सरल, सुबोध, प्रवाहपूर्ण
होनी चाहिए।
4. दे शकाल वातावरण
नाटक में जिस दे शकाल का दृश्य उपस्थित किया जाता है , उसे साकार करने के लिए नेपथ्य, वेषभष
ू ा, रं गभष
ू ा,
भाषा, सांस्कृतिक संकेत आदि पर ध्यान दे ना अनिवार्य है । पाश्चात्य नाट्यविदों ने दे शकाल का निर्वाह करते समय
संकलन त्रैय निर्वहन का प्रतिपादन किया है । संकलन त्रैय अर्थात ् स्थल, समय, काल की एकता। कथा के युग के
अनस
ु ार ही समाज, राजनीति परिस्थितियों का अंकन नाटक में होना चाहिए। ऐतिहासिक नाटकों में तो इन तत्वों का
निर्वाह अत्यंत अपरिहार्य है । सफल नाटककार दृश्य विधान, मंच व्यवस्था, वेषभूषा, अभिनय आदि के द्वारा सजीव
वातावरण की सष्टि
ृ कर लेता है ।
5. भाषा शैली
संवादों को सरस एवं प्रभावशाली बनाने के लिए भाषा शैली का आश्रय लेना अनिवार्य है । नाटक की भाषा सहज,
सरल, सजीव, अभिनयानुकूल होनी चाहिए। गंभीर तथा हास्य-व्यंग्य प्रधान शैली तो सर्वश्रुत है । यह माना जाता है
कि सफल शैली के लिए सरलता अनिवार्य शर्त है । साथ ही वह कलात्मक एवं प्रभावशाली भी होनी चाहिए। भाषा के
अलंकृत, लाक्षणिक, वक्र और प्रभावपूर्ण होने पर नाटक का सौंदर्य अधिक बढ़ जाता है ।
6. उद्देश्य