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मन, तु मि तीर्थे सदा रत। 

अयोध्या, मथु रा, माया,    काशी, कांचि, अवंतिया,


द्वारावती, आर आछे जत ॥१॥
तु मि चाह भ्रमिबारे ,    ए सकल बारे बारे ,
मु क्तिलाभ करिबार तरे । 
से केवल तव भ्रम,    निरर्थक परिश्रम, 
चित्त स्थिर तीर्थे नाहि करे ' ।।२।।
तीर्थफल साधुसंग,    साधुसंगे अंतरं ग,
श्रीकृष्णभजन मनोहर। 
जथा साधु , तथा तीर्थ,    स्थिर करि' निज चित्त,
साधु संग कर निरं तर ।।३।।
जे तीर्थे वै ष्णव नाई,    से तीर्थे ते नाहि जाइ,
कि लाभ हाँटिया दूरदे श। 
जथाय वै ष्णवगण,    से ई स्थान वृद ं ावन,
से ई स्थाने आनंद अशे ष ॥४॥
कृष्णभक्ति जे ई स्थाने ,    मु क्तिदासी से ईखाने ,
सलिल तथाय मंदाकिनी। 
गिरि तथा गोर्वधन,    भूमि तथा वृद ं ावन, 
आविर्भूता आपनि ह्लादिनी ॥५॥
विनोद कहिछे भाई,    अमिया कि फल पाइ,
वै ष्णव-से वन मोर व्रत॥६॥

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