Rekha Kumari: International Journal of Sanskrit Research 2017 3 (3) : 134-136

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International Journal of Sanskrit Research 2017; 3(3): 134-136 

International Journal of Sanskrit Research2015; 1(3):07-12 

ISSN: 2394-7519
IJSR 2017; 3(3): 134-136
© 2017 IJSR ऋक् पर्ाितशाख्य का पिरचय एवं काल िनधार्रण
www.anantaajournal.com
Received: 26-03-2017
Accepted: 27-04-2017 Rekha Kumari
Rekha Kumari
Department of Sanskrit पर्स्तावना
University of Delhi, Delhi, यह पर्ाितशाख्य ऋग्वेद का एकमातर् उपलब्ध पर्ाितशाख्य है। इसके रिचयता आचायर् शौनक
India
है जो िक स्वयं ऋग्वेद की शैिशरीय शाखा के अनुयायी थे। ऋ. पर्ा. के उपो ात म शौनक ने
पर्ितज्ञा की है िक वह शैिशरीय शाखा के उच्चारण सम्बंधी सम्पूणर् ज्ञान के िलये इस
पर्ाितशाख्य शा का कथन करे ग।
इससे यह पर्तीत होता है िक वतर्मान ऋ. पर्ा. शैिशरीय शाखा का है। शैिशरीय शाखा
शाकल शाखा के अंतगर्त एक उपशाखा है परं तु इसकी संिहता उपलब्ध नही है। इसीिलये
वतर्मान ऋ.पर्ा. को शाकल शाखा का माना जाता है। अनु ु प्. ितर् ु प् और जगती छन्द मे
िनब यह पर्ाितशाख्य अध्याय. पटल. वगर् और ोक के कर्म मे पर्ा है।
भारतीय पर्ाचीन गर्न्थकार ने अपने गर्न्थ म अपने िवषय म कु छ भी िनदश नह िकया है
क्य िक उनका एकमातर् उ ेश्य ज्ञान की वृि करना था, आत्माख्यापन नह । इसी कारण
पर्ाचीन गर्न्थ और गर्न्थकार का उिचत समय िनधार्िरत करना समस्या ही है। “पर्ाितशाख्य”
गर्न्थ भी इसके अपवाद ही ह।
अतः “पर्ाितशाख्य ” के रचनाकाल का िनणर्य भी एक गूढ समस्या ही है। िकतु िफर भी
िव ान ने अपनी सूझ-बूझ के अनुसार तथ्य एवं पर्माण पर्स्तुत िकये ह, अतः मत-वैषम्य भी
स्वभािवक ही है। िकसी भी गर्न्थ का काल िनधार्रण करने के िलये उसके गर्न्थकार के काल
का ज्ञान होना अित आवश्यक है। सामान्यतः िजन पर्ाितशाख्य के नाम िमलते ह उनके
कतार् के िवषय म भी यह संदेह बना रहता है िक व उस पर्ाितशाख्य के रिचयता ह या
उपदेशक ह।
1. पर्ो. रे िग्नयर और डॉ. मंगलदेव शा ी ने ऋ. पर्ा. को एक लेखक की कृ ित नह माना है।
शा ी जी ने ऋ. पर्ा. को तीन भाग मे िवभक्त कर उनको िभ -िभ समय मे
िवरिचत माना है। 1
2. गोल्डस्टु कर महोदय ने भी शौनक को ऋ.पर्ा. का कतार् नह माना है। 2
3. परं तु षड्गुरुिशष्य ारा माने गये शौनक के दस गर्न्थ 3 मे ऋ. पर्ा. का उल्लेख होने के
कारण आचायर् शौनक ऋ. पर्ा. के रिचयता िस होते ह।
4. िवष्णुिमतर् ने भी ऋ. पर्ा. को िशक्षाशा का नाम देते हुए शौनक को इसका रिचयता
माना है। “अतः आचाय भगवान् ौनकौ वेदाथर्िवत्सुह्र्द भूत्वा...पुरुषिहताथर् मृग्वेदस्य
Correspondence िशक्षाशा ी कृ तवान्”। 4 ऋ.पर्ा.का समय िव ान ने यास्काचायर् के बाद मे माना है,
Rekha Kumari एक बडा िवषय यह भी है िक पर्ाितशाख्य गर्न्थ की रचना पािणिन से पूवर् है या बाद
Department of Sanskrit
University of Delhi, Delhi, म।
India
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International Journal of Sanskrit Research  
 

ऋ. पर्ा. तो पर्ाितशाख्य म सवर्पर्ाचीन, पर्ामािणक है और ऋ.पर्ा. मे पािणिन का नामोल्लेख नह है िकतु अ ाध्यायी


पर्ितपा की दृि से सबसे बडा है। इसके काल िनधार्रण के के सूतर् म शौनक का उल्लेख है।
िलये िन तर और उच्चतर सीमा ही पर्ाप्य है अतः उिचत
रुप से कोई एक िनि त सीमा िनधार्िरत नह की जा सकती “शौनकािदभ्यश्छन्दिस”(अ.4.3.106)
है। पर्ाितशाख्य म सवार्िधक पर्ाचीन ऋ. पर्ा. के अध्ययन से यिद माना जाये तो इस पर्कार ऋ.पर्ा. की पूवर्ता िनि त हो जाती है |
ज्ञात होता है िक पर्ाितशाख्य की रचना िनरुक्तकार यास्क परं तु दृढ पर्माण के अभाव के कारण िनि त नह है िक इस सूतर् मे
पर्युक्त शौनक शब्द ऋ.पर्ा. के कतार् शौनक ही ह । युिधि र मीमांसक ने
के बाद हुई होगी, इसके िलये दो युिक्तयां ह।
यास्क, शौनक, पािणिन, िपगल और कौत्स सभी को लगभग
“न दाशतय्येकपदा कािचदस्तीित वै यास्कः” (ऋ. पर्ा.
समकािलक िक्त माना है। 11 उनके अनुसार यही समय
17.42) पर्स्तुत सूतर् मे शौनक ने यास्क का स्मरण िकया है। 5
ऋक्पर्ाितशाख्य की रचना का है। उन्होन ऋक्पर्ाितशाख्य और
बृह ेवता म अनेक स्थल पर शौनक ने यास्क के अ ाध्यायी की रचना के समय म स्वल्प अन्तर माना है। युिध र
देवतािवषयक मत को भी उद्धृत िकया है और कह तो मीमांसक ने पािणिन का समय 2900 िव. पू िनधार्िरत िकया है।
पा ात्य और भारतीय िव ान के अनुसार
यास्क के मत को ज्य क त्य िलया है।
यास्क के िवषय म आधुिनक पा ात्य िव ान के मत म यास्क का
अतः अिधकांश िव ान ने यास्क का समय 700 ई. पू. माना काल ईसा से 700 ई,पू ह और पािणिन के िवषय म कीथ आिद िव ान्
है। इस पर्कार ऋ.पर्ा. के कतार् शौनक 700 ई. पू. के बाद के पािणिन का समय 350 ई.पू मानते ह। बेल्वेकर ने पािणिन को पंचम
ह और उनका गर्न्थ ऋ. पर्ा. भी 700 ई. पू. के बाद का ही या चतुथर् शती ई. पू. माना है। 12 भारतीय िव ान म प. िव बन्धु,
डॉ. सूयर्कान्त, सत्यवर्त सामशर्मी तथा गोल्डस्टु कर जैसे िव ान ने
रहा होगा। एक अन्य मत यह भी है िक ऋ. पर्ा. पािणिन
पर्ाितशाख्य को पािणिन से अवार्चीन ठहराया है।
अ ाध्यायी से पूवर् का है, क्य िक ऋ. पर्ा. के कु छ सूतर् डॉ.किपलदेव शा ी ने प.िव बन्धु और डॉ.सूयर्कान्त के मत का िनदश
अ ाधयायी मे पर्ा होते ह। अ ाध्यायी मुख्य्ता लौिकक करते हुये िलखा है िक-“पािणनीय अ ाध्यायी तथा पर्ाितशाख्य म पर्युक्त
सािहत्य के िलये है परन्तु साथ ही साथ इसम वैिदक अनेक पािरभािषक शब्द की गंभीर तुलना करके िव ान ने ऐसे पयार्
ाकरण भी िदया गया है। जहां पर लौिकक संस्कृ त म संकेत पर्स्तुत िकये ह जो हम ए.सी.बनल के िनष्कषर् को मानने के िलये
अंतर होता है उसके तुरंत बाद पािणिन वैिदक ाकरण का ू र् पर्ाितशाख्य अपने वतर्मान रूप म पािणिन
बाध्य कर देत ह िक संपण
सूतर् देत ह। से अवार्चीन है, परं तु ये सभी पर्ाितशाख्य िकसी न िकसी पर्कार एक ऐसे
“पर्ेष्यबर्ुवोहर्िवषो देवतासम्पर्दाने” 6 सूतर् ’पर्ेष्य बर्ुवोहर्िवषो’ ाकरण से सम्ब है जो पािणिन सम्पर्दाय से पूवर् पर्िति त था”। 13
इन शब्द के कमर् म चतुथ िवभिक्त का िवधान करता है, गोल्डस्टु कर ने पर्ाितशाख्य को अ ाध्य्यायी से पूवर् मानने वाले िव ान
के मत का खण्डन करते हुए पािणिन को ऋक्पर्ाितशाख्य के कतार् से दो
परं तु वेद म इन शब्द के कमर् म ष ी िवभिक्त होती है।
पीढी पहले माना है। 14 उनका िवचार है िक दोन गर्न्थ के ाकरण
इसीिलये अ ाध्यायी म उपयुर्क्त सूतर् के तुरंत बाद “चतुथ्यर्थ
की संज्ञा देकर पर्ाितशाख्य को पािणिन से पूवर् ठहराया उिचत नही है,
बहुलं छन्दिस” 7 सूतर् का पाठ िकया है। लौिकक संस्कृ त के
क्य िक िकसी भी लेखक ने पर्ाितशाख्य को ाकरण नह माना है। 15
िलये “भाषायाम्” और वैिदक के िलये “छन्दिस” पद िदया
परं तु ठोस युिक्तय के अभाव म यह मत आज िव ान ारा गर्ा नह
जाता है। है। ऋक्पर्ाितशाख्य को अ ाध्यायी से पूवर्वत माना जाता है।
पर्ो. लाइिवज, मैक्समूलर, वेबर तथा रॉथ इत्यािद िव ान ऋक्पर्ाितशाख्य के कतार् का समय िनरूक्तकार यास्क और पािणिन के
सभी पर्ाितशाख्य को पािणनी से पूवर्वत मानते ह। 8 मध्य म माना जाता है।
वासुदव े शरण अगर्वाल ने अपने शोध पर्बंध म अब तक उपलब्ध सभी
मैक्समूलर के अनुसार सम्पूणर् ध्विनिवषयक पर्णाली, िजस मत की आलोचना करते हुए पािणिन का समय 450 ई.पू से 400 ई.पू
पर पािणिन ाकरण िनिमत है वह पर्ाितशाख्य से िलया के मध्य अथार्त् 5 व शती ई. पू माना है। पा ात्य िव ान म
गया है। 9 मैक्डानल ने भी पर्ाितशाख्य की पूवर्ता को स्प तः गोल्डस्टु कर ने पािणिन का समय 7 व शती ई.पू. िनि त िकया है।
स्वीकार िकया है। उनके शब्द का िहदी रूपांतर इस पर्कार अिधकतर मान्य मत के अनुसार पािणिन का समय पांचव शताब्दी
है- “सामान्यतः पर्ाितशाख्य की रचना पािणिन से पूवर् मानी ई.पू. ही उिचत जान पडता है।
जाती है, कारण पािणिन के गर्न्थ म िनस्सन्देह पर्ाितशाख्य 1. लाइिबज, मैक्समूलर, वेबर तथा रॉथ आिद पा ात्य िव ान के
के साथ संबंध पर्कट होता है यह कहना या मानना कह अनुसार “पर्ाितशाख्य ” का काल पािणिन से पूवर् है, िकतु
अिधक सच होगा िक पािणिन ने आज उपलब्ध पर्ाितशाख्य
गोल्डस्टु कर के अनुसार सभी “पर्ाितशाख्य ” की रचना पािणिन के
के पर्ाचीन स्वरूप का भलीभांित उपयोग िकया है। हां,
बाद हुई है।
वैिदक संिध जैसे पर्करण म पािणिन का िववेचन
पर्ाितशाख्य की भांित समगर्ता नह है। 10
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2. कु छ िव ान के अनुसार पािणिन के सूतर् तथा पर्ाितशाख्य के 2. पािणिन: िहज प्लेस इन संस्कृ त िलटरे चर. पृ 226।
अध्ययन से ज्ञात हुआ है िक डॉ.सूयर्कान्त ारा संपािदत
3. आषार्नुकर्मणी, छन्दोनुकर्मणी, देवतानुकर्मणी,
अथवर्वेदीय पर्ा. को छोङकर सभी पािणिन से पूवर् ह।
अनुवाकानुकर्मणी, सुक्तानुकर्मणी, ऋिग्वधान,
पर्ितपा िवषय की दृि से पर्ाितशाख्य आज उपलब्ध ाकरण गर्न्थ पादिवधान, बृह ेवता, ऋगपर्ाितशाख्य और शौनक
मे अंशत: समान है तथा अंशतः िभ भी। िव ान का एक मत यह भी
स्मृित।
है िक ऋ.पर्ाितशाख्यकार शौनक पािणिन से पूवर् के रहे ह गे क्य िक
4. वीरे न्दर् कु मार वमार्. ऋ.पर्ा. पृ. 25।
उनके ारा अपनाई गयी सूतर्शैली उन्ह हर दशा मे पािणिन पूवर् ही
िस करती है। (डॉ. सत्यकाम वमार्. संस्कृ त ाकरण का उ व और 5. ऋ. पर्ा.17.42।
िवकास. पृ. 40-42) वा. पर्ा. के कु छ सूतर् समान रुप से पािणिन अ. म 6. अ ाध्यायी, 2.3.61
पर्ा होते ह। 7. अ ाध्यायी, 2.3.62।
8. वीरे न्दर् कु मार वमार्, ऋग्वेद पर्ाितशाख्य एक पिरशीलन,
 उच्चैरुदा ः। वा. पर्ा.1.108;पा.अ.1.2.29। पृ० 8।
 नीचैरनुदा ः। वा. पर्ा.1.109;पा.अ.1.2.30। 9. History of ancient Sanskrit literature, page no. 62.
 ष ीस्थाने योगा। वा. पर्ा.1.136;पा.अ.1.1.66। 10. चारूद अनूिदत “संस्कृ त सािहत्य का इितहास”
(वैिदक भाग), पृ. 246-247
चूंिक वा.पर्ा. के कु छ सूतर् पािणिन ने उद्धृत िकये है तो यह िस होता 11. संस्कृ त ाकरणशा का इितहास (पर्थम भाग), पृ .
है िक पािणिन का अ ाध्यायी वा.पर्ा. से बाद का होगा, और भी वा.पर्ा. 239-240
ऋक्पर्ाितशाख्य से बाद का है िजससे यह कहा जा सकता है िक पािणिन 12. िसरच्म आफ संस्कृ त गर्ामर. पृ 22-25।
और उनकी रचना शौनक कृ त ऋक्पर्ाितशाख्य के बाद की रचना है।
13. संस्कृ त ाकरण म गणपाठ की परं परा और आचायर्
वीरे न्दर् कु मार वमार् ने अिधकतर िव ान के अनुसार पािणिन का समय
500 ई. पू. माना है। इस पर्कार कहा जा सकता है िक शौनक का समय
पािणिन, पृ. 17.
14. पािणिन िहज प्लेस इन संस्कृ त िलटरे चर, पृ. 226
600 ई. पू. और 700 ई. पू. के मध्य मे रहा होगा।
15. वही. पृ . 213

िनष्कषर्
िनष्कषर्तः िव ान के मतानुसार कहा जा सकता है िक
वैिदक ाकरण म सबसे पहले हुए ऋक् पर्ाितशाख्य के
समय की उच्चतम सीमा यास्क के समय 700 ई.पू. है और
िन तम सीमा पािणिन का समय 500 ई. पू. है। अतः यह
कहा जा सकता है िक पर्ाितशाख्य का समय यास्क के बाद
तथा पािणिन से पूवर् म है। अथार्त् पर्ाितशाख्य की रचना
700 ई. पू. तथा 500 ई. पू के मध्य म है। ऋक्पर्ाितशाख्य
और ऋक्क्पर्ाितशाख्यकार के काल-िनधार्रण-िवषय म पर्ा
हुये िव ान के िविभ मत के आधार पर ऋक्पर्ाितशाख्य
का समय 600 ई. पू के आसपास का माना जा सकता है।
परं तु वैिदक वांङ्मय मे पर्ाितशाख्य के महत्व को देखकर
इनका काल िनि त कर देना कोई सरल कायर् नही है
अथार्त इस िवषय पर अभी और अिधक शोध की
आवश्यकता है िकतु तब तक िव ान के पर्माण युक्त मत
का ही आशर्य लेकर ऋक्पर्ाितशाख्य को 700 ई. पू. और 500
ई. पू के मध्य म ही माना गया है।

संदभर् सूची:
1. ऋ. पर्ा. पर्थम पुष्प. पृ. 68-69।

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