NAGMATI VIYOG KHAND - II Sem Prof Krishna Singh

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स्नातकोत्तर सत्र-3

पत्र-9 (नवम ्)
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'नागमती- ववयोग-खंड पदमावत का प्राण बिन्द ु है ',

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मलिक मोहम्मद जायसी कृत 'पदमावत'महाकाव्य का 'नागमती ववरह-खंड' हहन्दी


साहहत्य की अद्ववतीय वस्तु है ।पदमावत में जायसी ने संयोग तथा ववयोग
दोनों प्रकार के श्ंग
ृ ार का वणणन ककया है , पर सम्पूणण काव्य में प्रधानता ववयोग
श्ंग
ृ ार की है ।सूफी साधकों की साधना के लिए ववप्रिंभ श्ंग
ृ ार अधधक महत्वपूणण
है ,इसलिए पदमावती में जायसी का ववप्रिम्भ श्ंग
ृ ार को महत्व दे ना सहज
स्वाभाववक है ।कवव ने ववयोग वणणन में जजस कुशिता का पररचय हदया है ,उसी
कुशिता का पररचय संयोग वणणन में भी हदया है ।संयोग श्ंग
ृ ार वणणन हे तु जायसी
ने षड्ॠतु वणणन का सहारा लिया है और ववप्रिम्भ के लिए िारहमासे का। भारतीय
साहहत्य में इन दोनों की परम्परा रही है ।वैसे िारहमासे की परम्परा अपभ्रंश में हीं
दे खने को लमिती है ।
ववनयचंद्र सरू रकृत ' सेलमनार चतष्ु पाहदका'ई.सन ् की तेरहवीं शताब्दी के प्रारम्भ की
रचना है ।इसमें राजमती के ववरह वणणन के लिए िारहमासे को अपनाया गया
है ।इसी प्रकार 'धमणसूरर स्तुतत'में भी िारहमासा लमिता है िेककन इसमें कवव ने
नातयका के ववरह-वणणन के िदिे अपने गरु
ु का स्मरण ककया है ।प्राकृत की
अंगववज्जा में 'िारहमासे' का फुटकि वणणन लमिता है ।अद्दहमाण ने ' 'संदेशरासक'
में षड्ॠतु वणणन का उपयोग नातयका के ववरह वणणन के लिए ककया है ।ऐसे भी
उदाहरण लमिते हैं जजनमें हहन्दी के सूफी कववयों ने षड्ॠतु का वणणन ववप्रिम्भ
श्ंग
ृ ार के लिए भी ककया है ।उसमान की धचत्राविी में षड्ॠतु वणणन तथा िारहमासा
दोनों का उपयोग नातयका के ववरह की पीर के वणणन के लिए हुआ ।नूर मुहम्मद
ने 'इन्द्रावती' में षड्ॠतु वणणन का उपयोग संयोग श्ंग
ृ ार वणणन के लिए ककया
है ।'इन्द्रावती ' में ववरह के प्रसंग आये हैं, िेककन कवव ने िारहमासे का वणणन नहीं
ककया है ।
जायसी ने ववयोग का हृदयग्राही वणणन ककया है ।'पदमावत' में दो स्थिों पर
जमकर ककया गया यह यह वणणन अत्यंत हृदयस्पशी है ,अलभभत
ू करने वािा है ।
1)नागमती का ववयोग
2)पदमावती ,नागमती का वविाप
नागमती ववयोग खंड तथा नागमती संदेह खंड ववप्रिम्भ श्ंग
ृ ार के उत्कृष्ट
उदाहरणों में है ।हहन्दी साहहत्य में ववरह-वणणन के ऐसे उदाहरण कम हीं दे खने को
लमिते हैं ।नागमती के ववरह -वणणन में जायसी आध्याजत्मकता को जैसे भूि से
गये हैं ।नागमती आदशण पत्नी है ।उसके अंतर का तनगढ
ू और गंभीर प्रेम जायसी के
ववरह- वणणन में प्रकट हुआ है ।कवव को उसकी करूण दशा का ममणस्पशी वणणन
करने में अद्भुत सफिता लमिी है ।नागमती के ववरह-ववदग्ध हृदय की
संवेदनशीिता के चरम उत्कषण को दे खकर ऐसा प्रतीत होता है कक प्रेम के चतरु -
धचतेरे कवव ने नागमती को स्वयं में साकार कर लिया है । नागमती एक गह
ृ णी के
रूप में धचबत्रत हुई है ।साधारण स्त्री के सुख-दख
ु को ध्यान में रखते हुए हीं जायसी
ने नागमती के ववरह का वणणन ककया है ,अतएव वह हृदय को अलभभत
ू कर दे ता
है ।नागमती ईष्याणिु है ,पतत के मंगि की कामना करने वािी है ।अपने सख
ु -दख
ु की
उपेक्षा कर पतत के सख
ु में अपने को सुखी मानने वािी है ।जायसी के इस ववरह-
वणणन में नागमती का यह रूप िडे सन्
ु दर ढं ग से उभर आया है ।अतएव वह वणणन
अत्यंत करूण हो उठा है ,व्यथा स्वंय मुखररत हो उठी है ।डा. कमि कुिश्ेष्ठ का
मत है कक "वेदना का जजतना तनरीह,तनरावरण,
मालमणक, गंभीर,तनमणि एवं पावन स्वरूप, इस ववरह-वणणन में लमिता है ,अन्यत्र
दि
ु णभ है ।"
नागमती के ववरह -वणणन के लिए जायसी ने िारहमासे का सहारा लिया है ।एक-एक
माह के क्रम से नागमती की ववयोग-व्यथा का सजीव धचत्र प्रस्तुत ककया है ।जायसी
ने आसाढ मास से िारहमासे का प्रारम्भ ककया है ।मैनासत मे आसाढ मास से हीं
िारहमासे का प्रारम्भ होता है ।
जायसी ने अपने िारहमासे में उत्तर प्रदे श के ग्रामीण जीवन को पूणण रूप से ध्यान
में रखा है ।जायसी के वणणन की ववशेषता तो इस िारहमासे में अवश्य लमिती है
कफर भी वह वणणन परम्परा युक्त हीं कहा जा सकता है ।षड्ॠतु अथवा िारहमासे
का वणणन उद्दीपन की दृजष्ट से हीं ककया गया है ।वैसे ऋतुओं की लभन्न-लभन्न
अवस्थाओं और व्यापारों का सक्ष्
ू म तनरीक्षण जायसी ने ककया है ।इसका पररचय पद-
पद पर िारहमासे में लमिता है ।
जायसी ने प्राकृततक दृश्यों का अत्यंत हीं आकषणक और मनोहारी वणणन ककया
है ।ववरह की अवस्था में वे सभी सख
ु द दृश्य नागमती के लिए दुःु खदायक लसद्ध
होते हैं ।
ग्रामीण जीवन ,कृषकों के अनुभव और सहज ववश्वासों की झांकी िारहमासे की
तनम्नलिखखत पंजक्तयों
में हम दे ख पाते हैं-"अद्रा िाग िीज भई
ु िेई।मोहह पाय बिनु को आदर दे ई।
पुख नक्षत्र लसर ऊपर आवा।हौं बिनु नाह मंहदर को छावा।।
साधारणतुः कृषक गांवों में इस समय छप्पर छाने आहद का काम करते हैं ।पन
ु वणसु
मघा तथा पूवाण फाल्गुनी नक्षत्रों में उत्तर प्रदे श के पूवी भागों में खूि वषाण होती है ।
"सावन िररस मेह अतत पानी ।
भरना भर हौ बिरह झरु ानी।।
िागु पुनवणसु पीउन दे खा, मैं िाउरी कह कन्त सरे खा।
िाट असझ अथाह गंभीरा।जजउ िाउर भा भवै गंभीरा ।।
जग जि िडू ड जहााँ िगी ताकक।मोर नाव , खेवक बिनु थाकी।।
भर भादौं दभ
ू र अतत भारी ।कैसे भरो रै न अंधधयारी ।।
िररस मघा झंकोरी-झंकोरी।मोर दइ
ु नैन चुिहह जस ओरर।।
पुरबिया िाग पह
ु ु लम जि परू र।आकर जवास हुईं हों झरी।।
अन्य महीनों की ववशेषताओं को इसी प्रकार ध्यान में रखकर जायसी ने सजीव
धचत्र उपजस्थत ककया है । इस िारहमासे के वणणन में
जायसी पर ग्रामीण जीवन का इतना अधधक प्रभाव पडा कक जेठ असाढ का वणणन
करते हुए वे भि
ू गये है कक नागमती महिों की रानी है ।साधारण गह
ृ स्थों की
छ्पप्पर छाने की
धचंता का रानी नागमती में उभर आना, धचंता-ग्रलसत होना।जायसी की िेखनी का
ममणस्थि में डूिकर ग्रामीण जीवन का सहज स्वाभाववक वणणन इस खंड को
उत्कृष्टता प्रदान करती है ।
इस िारहमासे में िहुत स्थिों पर जायसी ने ववरह कातरता का इतना अधधक
मालमणक वणणन ककया है कक नागमती ववयोग खंड पदमावत का प्राण-ववन्द ु िन गया
है ।जायसी की ये उजक्तयां जजतनी सरि और कोमि है उतनी हीं करुणोत्पादक
है ।ववरहहणी की वववशता हृदय को छू जाती है।कुछ पंजक्तयााँ नीचे उद्धत की जाती
है : परवत समंद
ु अगम बिच वन िेहड घन ढं ख।
ककलम करर भेटौं कन्त तोहह ना मोहह पांव न पंख।।
यह तन जारौ छार कै,कहौं कक पवन
उडाउ।
मकु तेहह मारग होइ परौं कंत घरैं जहं पाउ।।
कंवि जो बिगसा मानसर छारहह लमिै सुखांई।
अिहु िेलि कफरर पिह
ु ै जौं वपय सींचहु आई।।
नागमती अपनी इस वववशता का संदेश वप्रयतम तक पहुंचाने के लिए
पशु पक्षक्षयों की सहानुभतू त चाहती है :वपय सौ कहे हु संदेसरा ऐ भंवरा ऐ काग।
सो धतन बिरहें जरर गई तेहहक धआ
ु ं हम िाग।।
नागमती के ववरह-जन्य द:ु ख और ताप का प्रततबिम्ि िाहर प्रकृतत में दे खने को
लमिता है ।
ववरह की मारी नागमती महिों के वैभव वविास,साज-सज्जा से ववमुख है ।उसके
लिए प्रकृतत का सौन्दयण, जस्नग्ध कमनीयता ,मियज
महकता और वासंती कौमायण आहद सभी तत्व कष्टप्रद हो गये हैं ।प्रकृतत में
पररवतणन होता है पर नागमती की ववरह-वेदना िढती जाती है ।कवव कहता
है :कुहुकक-कुहुकक जलस कोयि रोई।रक्त आंसु घंघ
ु धु च िन िोई।।
पै करमुखी नैन तज राती। को लसराव ववरहा दख
ु ताती।।
जहं -जहं ठाहढ होई िनवासी।तहं -तहों होई घुंघधु चन्ह कै रासी ।।
तेहह दख
ु िहे परास तनपाते।िोहू िडू ड उठे परभाते ।। दे खखअ जहााँ सोइ-होइ
राता।जहां सो रतन कहै को िाता।।
कवव का कहना है कक प्रकृतत में नागमती के दख
ु को भी दे खने का
उपाय उसके वप्रयतम को नहीं है अन्यथा वह अवश्य िौट आता।जजस दे श में
उसका पतत िसा हुआ है िगता है कक प्रकृतत के कोई भी उपकरण वतणमान नहीं
जो नागमती की याद उसे हदिाते।
न पावस ओहह दे सरे , न हेवंत िसत।
न कोककि न पपीहरा केहह सतु न आवहह कत।।
जायसी के ववरह-वणणन की सिसे िडी ववशेषता यह है कक उसमें हृदय की वेदना हीं
सामान्य रूप से अलभव्यंजजत हुई है ।ववरह -वणणन में अगर वस्तु व्यंजना हीं प्रधान
हो उठे तो वह हृदय को स्पशण नहीं कर पाता।जैसे-जेहह पंखी कहं आढिौं
कहह सो बिरह कै िात।सोई पंखी जाई डहह तररवर होई तनपात।।
नागमती जजस पक्षी को अपने ववरह का संदेश सन
ु ाती है और उसे वप्रयतम तक
पहुंचाने कहती है ,वह जि जाता है ।इतना हीं नहीं वह पेड भी जिकर नष्ट हो
जाता है ।ववरह-वणणन में अगर वस्तु-व्यंजना ही यहां प्रधान हो उठा है । जायसी के
ववरह -वणणन में अत्यजु क्तयों का अभाव नहीं, िेककन उनके द्वारा वस्तु व्यंजना
नहीं हुई है ,संवेदना हीं अलभव्यंजजत हुई है ।ऐसे वणणनों में जायसी ने अधधकांशतुः
हे तुत्प्रेक्षा अिंकार का सहारा लिया है ।जजसमें हे तु कजल्पत होता है िेककन अप्रस्तुत
वस्तु का स्वरूप वास्तववक होता है जो रस-ग्रहण में िाधा नहीं उपजस्थत होती।
आचायण रामचन्द्र शक्
ु ि ने नागमती के ववरह-वणणन पर हटप्पणी करते हुए ठीक हीं
कहा है कक इसमें नातयका अपना 'रानीपन' भि
ू जाती है ।उसके शीि में अवध क्षेत्र
की सामान्य स्त्री के दशणन होते हैं ।पतत के अभाव में उसके घर के छप्पर की
मरम्मत कौन करायेगा ; यह रानी नहीं ककसी साधारण स्त्री की धचंता है :"पख
ु नछत्र
लसर ऊपर आवा।हौंसिा बिनु नाह मंहदर को छावा।।"
नागमती के अश्ु-प्रवाह में भी ग्रामीण िोकगहृ का दृश्य साकार हो गया है :"िरसै
मघा झकोरी-झकोरी
मोरी हुई नैन चुिै जस ओरी।"
नागमती के ववरह-वणणन की ममणस्पलशणता का मूिाधार िोक तत्वों का ववतनयोग
है ।'िारहमासा' के िोकसाहहत्यगत काव्यरूप को ग्रहण कर जायसी ने अपने वणणन
में जान डाि हदया है ।इसमें ववप्रिम्भ के शास्त्रीय नहीं संवेदनात्मक रूप के दशणन
होते हैं ।िोकसंस्कृतत से संपजृ क्त के कारण यह रुहढमुक्त है ।इसकी
अपव
ू णता सहज धचत्रण से घहटत हुई है ।
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पाठ-िेखखका
कृष्णा लसंह
हहन्दी ववभाग, ए. एन.काॅिेज, पटना।

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