Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 114

टोपी शु ला

राही मासूम रज़ा


ज म : 1 िसत बर, 1925 । ज म थान : ग़ाज़ीपुर (उ र देश) । ारि भक िश ा वह ,
परवत अलीगढ़ यूिनव सटी म । अलीगढ़ यूिनव सटी से ही 'उदू सािह य के भारतीय
ि व' पर पी-एच.डी. । अ ययन समा करने के बाद अलीगढ़ यूिनव सटी म
अ यापन-काय से जीिवकोपाजन क शु आत । कई वष तक उदू-सािह य पढ़ाते रहे । बाद
म फ म-लेखन के िलए बंबई गए । जीने क जी-तोड़ कोिशश और आंिशक सफलता ।
फ म म िलखने के साथ-साथ िह दी-उदू म समान प से सृजना मक लेखन । फ म-
लेखन को ब त से लेखक क तरह 'घ टया काम' नह , बि क 'सेमी ए टव' काम मानते
थे । बी.आर. चोपड़ा के िनदशन म बने मह वपूण दूरदशन धारावािहक 'महाभारत' के
पटकथा और संवाद-लेखक के प म शंिसत ।

एक ऐसे किव-कथाकार, िजनके िलए भारतीयता आदमीयत का पयाय रही ।

कािशत पु तक : आधा गाँव, टोपी शु ला, िह मत जौनपुरी, ओस क बूँद, दल एक


सादा काग़ज़, कटरा बी आज़ू, असंतोष के दन, नीम का पेड़, कारोबारे तम ा, कयामत
(िह दी उप यास); मुह बत के िसवा (उदू उप यास); म एक फे रीवाला (िह दी किवता-
सं ह); नया साल, मौजे-गुल : मौजे सबा, र से-मय, अजनबी शहर : अजनबी रा ते (उदू
किवता-सं ह); अ ारह सौ स ावन (िह दी-उदू महाका ) तथा छोटे आदमी क बड़ी
कहानी (जीवनी) ।

िनधन : 15 माच, 1992

आवरण-िच : डॉ. लाल र ाकर

12 अग त, 1957 को जौनपुर (उ. .) म ज म । कानपुर िव.िव. से 1978 म कला म


ातको र एवं बनारस िह दू िव.िव. से डॉ टरे ट । मुख शहर म एकल व सामूिहक
दशिनयाँ । िविभ पि का म रे खांकन कािशत ।

डॉ. लाल र ाकर एम.एम. कॉलेज, गािजयाबाद के िच कला िवभाग म एसोिसएट


ोफे सर एवं अ य ह ।
पहला पु तकालय सं करण
राजकमल काशन ाइवेट िलिमटेड ारा
1966 म कािशत

राजकमल पेपरबै स म
पहला सं करण : 1987
तेरहवाँ सं करण : 2016

© नैयर रज़ा

राजकमल पेपरबै स : उ कृ सािह य के जनसुलभ सं करण

राजकमल काशन ा. िल.


1-बी, नेताजी सुभाष माग, द रयागंज
नई द ली-110 002
ारा कािशत

शाखाएँ : अशोक राजपथ, साइं स कॉलेज के सामने, पटना-800 006


पहली मंिजल, दरबारी िब डंग, महा मा गांधी माग, इलाहाबाद-211 001
36 ए, शे सिपयर सरणी, कोलकाता-700 017

वेबसाइट : www.rajkamalprakashan.com
ई-मेल : info@rajkamalprakashan.com

बी.के . ऑफसेट
नवीन शाहदरा, द ली-110 032
ारा मु त

TOPI SHUKLA
Novel by Rahi Masoom Raza

ISBN: 978-81-267-0911-3
भूिमका

मुझे यह उप यास िलखकर कोई खुशी नह ई । य क आ मह या स यता क हार है ।


पर तु टोपी के सामने कोई और रा ता नह था । यह टोपी म भी ँ और मेरे ही जैसे और
ब त-से लोग भी ह । हम लोग म और टोपी म के वल एक अ तर है । हम लोग कह -न-
कह कसी-न- कसी अवसर पर 'क ोमाइज' कर लेते ह । और इसिलए हम लोग जी भी
रहे ह । टोपी कोई देवता या पैग़ बर नह था । क तु उसने 'क ोमाइज' नह कया । और
इसिलए उसने आ मह या कर ली । पर तु 'आधा गाँव' ही क तरह यह कसी आदमी या
कई आदिमय क कहानी नह है । यह कहानी भी समय क है । इस कहानी का हीरो भी
समय है । समय के िसवा कोई इस लायक़ नह होता क उसे कसी कहानी का हीरो
बनाया जाए ।
'आधा गाँव' म बेशुमार गािलयाँ थ । मौलाना 'टोपी शु ला' म एक भी गाली नह है ।–
पर तु शायद यह पूरा उप यास एक ग दी गाली है । और म यह गाली डंके क चोट पर बक
रहा ँ । यह उप यास अ ील है–जीवन क तरह ।

-राही मासूम रज़ा


िवषय - सूची
एक
दो
तीन
चार
पाँच
छह
सात
आठ
नौ
दस
यारह
बारह
तेरह
चौदह
प ह
सोलह
स ह
अठारह
एक

"...भाई देखी आपने धम म पॉिल ट स ?" टोपी ने अपनी बात ख़ म क ।


"न ।" इ फ़न ने कहा । टोपी जब अपना थीिसस सुना रहा था तो इ फ़न कह और था ।
बात यह है क धम और पॉिल ट स से अलग भी कु छ िब कु ल ही घरे लू सम याएँ होती ह ।
और इन सम या पर सोचने का समय जभी िमलता है जब कोई िम भाषण दे रहा हो
और आप अके ले उसक 'ठाठ मारते ए सागर' जैसी भीड़ ह ।
इ फ़न के जवाब ने टोपी का मुँह लटका दया ।
" फर दखला दो ।" इ फ़न ने उसे चुमकारा ।
"यह जो धम समाज कॉिलज है न ?"
"हाँ, है ।"
"यह अगरवाल बिनय का है ।"
"है ।" इ फ़न ने क ं ारी भरी ।
"और बारासेनी बारहसेिनय का ।"
"हाँ ।"
"इन बारासेिनय क एक अलग कहानी है ।"
"वह भी सुना डालो ।"
"इनका शु नाम दुवादस ेणी है । भाई लोग ने देखा क यह सं कृ त नह चलती तो
झट से इसे िह दी म ा लेट कर दया । और दुवादस ेणी के बिनये बारहसेनी बिनये बन
गए । और अब इ ह यह याद भी न होगा क मुग़ल काल म इ ह ने अपना या नाम रखा
था ।"
"मगर ेणी क सेनी बनाकर तो लोग ने कोई तीर नह मारा ।" इ फ़न ने कहा । "यह
तो िबलकु ल ही ग़लत ा लेशन आ ।"
"यह अनुवाद कसी ोफ़े सर, या कसी महा महा उपा याय या कसी समसुलउलमा ने
नह कया था ।" टोपी जल गया, "साधारण लोग ने कया था । और साधारण मनु य
ामर क सम या पर िवचार नह करता । वह तो अपनी भाषा के नाम पर श द को
काट-छाँट लेता है ।" टोपी ने कहा ।
"मगर सेनी म तो खाना आता है ।" इ फ़न ने कहा ।
"आता होगा ।" टोपी उखड़ गया । "पर तु ेणी को भी सेनी बना िलया गया है ।" उसने
दाँत पीसकर कहा । यह दाँत पीसने का कोई अवसर नह था । पर तु टोपी को अपने उजले
दाँत ब त भले लगते थे । इसिलए वह मौक़ा-बे-मौक़ा उ ह दखाता रहता था । गहरा
काला रं ग । बफ़ क तरह सफ़े द दाँत । वह अपनी िनगे टव था और शायद अपने ंट क
राह देख रहा था ।
टोपी का पूरा नाम बलभ नारायण शु ला था । उसके बाप का नाम और क ठन था ।
दादा का नाम तो खुद टोपी को भी ठीक से याद नह होता था । पर तु जब भी इ फ़न
उससे कहता :
"टोपी ! यार तु हारा नाम शोरफ़ा के मुँह से तो िनकल नह सकता ।" तो टोपी जवाब
देता : "भाई ! उदू शोरफ़ा के मुँह से न िनकल सकता होगा । पर तु िह दी शोरफ़ा के मुँह से
अव य िनकल सकता है । आप ही का नाम कौन कहे क बड़ा सरल है । स यद जगाम
मुरतुजा अबदी । वाह ! म जानता ँ क नंिसयेशन ठीक नह आ । पर तु म उदूभाषी
नह ँ ।"
यह बात इ फ़न को हमेशा चुप कर देती । पर तु एक बात ज़ र साफ़ हो जाती क अब
कोई के वल शरीफ़ नह रह गया है । हर शरीफ़ के साथ एक दुमछ ला लगा आ है । िह दू
शरीफ़, मुसलमान शरीफ़, उदू शरीफ़, िह दी शरीफ़ : और िबहार शरीफ़ ! दूर-दूर तक
शरीफ का एक जंगल फै ला आ है । यह सोचकर इ फ़न सदा उदास हो जाता । पर तु म
आपको इ फ़न क उदासी क कहानी नह सुना रहा ँ । बात हो, रही थी टोपी क । यह
म बतला चुका क उसका नाम बलभ नारायण शु ला था । पर तु लोग उसे टोपी शु ला
ही कहा करते थे ।
बात यह है क अलीगढ़ यूिनव सटी जहाँ म ी, म खी, मटरी के िब कु ट,म खन और
मौलवी के िलए िस है, वह भाँत-भाँत के नाम रखने के िलए भी िस है । एक साहब
थे क़ा । एक साहब थे उ ताद छु वारा । (जो कसी िनकाह म लुटाए नह गए शायद) एक थे
इक़बाल हेडक े । एक थे इक़बाल हरामी । एक थे इक़बाल ए ी । और एक थे इक़बाल ख़ाली
। ख़ाली इसिलए क बाक़ तमाम इक़बाल के साथ कु छ-न-कु छ लगा आ था । अगर
इनके नाम के साथ कु छ न जोड़ा जाता तो यह बुरा मानते । इसिलए यह इक़बाल ख़ाली
कहे जाने लगे । भूगोल के एक टीचर का नाम 'बह ल कािहल' रख दया गया । यह टीचर
कोई काम तेज़ी से नह कर सकते थे । इसिलए इ ह कािहली का सागर कहा गया (वैसे
अरबी भाषा म पैिस फ़क सागर का नाम बह ल कािहल ही है !) भूगोल ही के एक और
टीचर िसगार सैन ज़ैदी कहे गए क उ ह एक ज़माने म िसगार का शौक़ चराया था
।...बलभ नारायण शु ला इसी िसलिसले क एक कड़ी थे । यह टोपी कहे जाने लगे ।
बात यह है क यूिनव सटी यूिनयन म नंगे िसर बोलने क पर परा नह है । टोपी को
िज़द क म तो टोपी नह पहनूँगा । इसिलए होता यह क यह जैसे ही बोलने खड़े होते
सारा यूिनयन हाल एक साथ 'टोपी ! टोपी !' का नारा लगाने लगता । धीरे -धीरी टोपी
और बलभ नारायण का र ता गहरा होने लगा । नतीजा यह आ क बलभ को छोड़
दया गया और इ ह टोपी शु ला कहा जाने लगा । फर गहरे दो त ने शु ला क पख़ भी
हटा दी । और यह के वल टोपी हो गए ।
पर तु एक दन टोपी ने बड़ी ऐि टिवटी क । यूिनयन का बजट-सेशन था । इ ह कोई
एतराज़ करना था । यह बग़ल वाले लड़के क टोपी ओढ़कर खड़े हो गए । (टोपी ब त बड़ी
थी ।) लड़क ने जो इ ह टोपी पहने देखा तो ब त बुरा माना ।
"यह बेईमानी है ।" पीछे से आवाज़ आई ।
इ ह ने बोलना शु कया तो लड़क ने टोपी उतारने के िलए शोर करना शु कया ।
आिख़र इ ह टोपी उतारनी पड़ी । जब यह नंगे िसर हो चुके तब लड़क ने खाज के अनुसार
'टोपी' का नारा मारा । उ ह ने फर टोपी पहनी और तब लड़के चुप ए । पर तु इनक यह
अदा लड़क को इतनी भायी क इ ह ने बजट म जो अमडमट पेश कया था वह मान िलया
गया ।
टोपी शु ला ब त ही यार टाइप के लोग थे । अपने उसूल के भी बड़े प े थे । और
उनका सबसे बड़ा उसूल यह था क दो ती म उसूल नह देखे जाते ।
यह जब यूिनव सटी म आए थे तो जनसंघी थे । धीरे -धीरे मुसिलम लीगी हो गए ।
इसका नतीजा यह आ क िह दू लड़के इ ह मौलाना टोपी कहने लगे ।
अलीगढ़ म बलवा हो गया क इ ह ने कठपुले के पार जाना इस डर से छोड़ दया क
कह मुसलमान होने के धोखे से मार न डाले जाएँ ।
िह दी से एम.ए. कर चुके थे । बेरोज़गार थे ।
कसी डी.ए.वी. कॉलेज म िह दी क एक जगह िनकली । इ फ़न ने अख़बार क क टंग
टोपी को भट क और कहा–
"एपलाई कर दो ।"
वह बोले : "भाई या फ़ायदा ?"
इ फ़न ने कहा : "अम नौकरी िमलेगी और या फ़ायदा ?"
बोले : "कॉिलज िह दु का है, मुझे नौकरी नह िमल सकती ।"
"तो कसी इसलािमया कॉिलज म अपलाई करो ।" इ फ़न ने जलकर कहा ।
पर तु टोपी इस पर भी तैयार नह ए । बोले : "मेरा नाम बलभ नारायण शु ला है
।"
यह वा तव म मह वपूण है क बलभ नारायण शु ला और उ ह के जोड़ीदार
कसी अनवर सैन जैसे लोग के िलए इस देश म कोई जगह है या नह । यहाँ कुँ जड़ ,
कसाइय , स यद , जुलाह , राजपूत , मुसिलम राजपूत , बारहसेिनय , अगरवाल ,
काय थ , ईसाइय , िस ख ...ग़रज़ क सभी के िलए कम या अिधक गुंजाइश है । पर तु
िह दु तानी कहाँ जाएँ ? लगता ऐसा है क ईमानदार लोग को िह दू-मुसलमान बनाने म
बेरोज़गारी का हाथ भी है ।
"धम म भी साली पॉिल ट स घुस आई है भाई !" टोपी ने झ लाकर कहा ।
"धम सदा से पॉिल ट स ही का एक प रहा है । न सोमनाथ का मि दर तुम बनवा
सकते हो और न द ली क जामा मसिजद म । तो धम मेरा-तु हारा साथ य देगा च घट
!"
"म सोच रहा ँ क शादी कर डालूँ ।" टोपी ने कहा ।
इ फ़न टोपी के शुभ या अशुभ िववाह के पर बात करने के िलए तैयार तो बैठा नह
था, इसिलए वह च क पड़ा ।
" या सोच रहे हो ?"
"म मज़ाक नह कर रहा ँ ।" टोपी ने कहा । "मेरे ाबल ज़ का यही एक हल रह गया
है । एक बार शादी कर लूँ फ़र देखूँगा इस साली दुिनया को ।"
" फ़र नह । फर ।"
"कोई फरक़ नह पड़ता ।"
"फरक़ नह फ़रक़ ।"
"बस आप लोग श द के तलवे चाटते रिहए ।" वह िबगड़ गया । "म तो अपने िववाह
क बात कर रहा ँ और आप भाषा-सुधार क योजना चलाने पर तुले बैठे ह ।"
"मगर शादी कससे कर रहे हो ?"
"यह मालूम होता तो आपसे य कहता ।" टोपी ब त खफ़ा हो गया । "भाई आप भी
कभी-कभी ब त टु िपड हो जाते ह ।"
"अबे तो या म लड़क पैदा क ँ ?"
"इससे या फ़ायदा होगा ?" टोपी ने कहा । "आपक पैदा क ई लड़क से म िववाह
तो कर नह सकता ।"
"तो ?" इ फ़न ने कया ।
" कसी से मेरा इ क़ करवा दीिजए ।"
"तु ह इ क़ करवा दूँ ?"
"हाँ ।"
"और खुद म य न कर डालूँ ?"
"ए भाई ख़बरदार जो उलटी-सीधी बात क !" वह िबगड़ा । "भाभी के होते इशक़
करोगे ?"
"देखो पि डत बलभ नारायण टोपी शु ला," इ फ़न ने कहा, "इ क़ लड़ाने या इशक़
करने के िलए तो लड़ कय क कमी नह है । मगर यह कोई ज़ री नह क जो लड़क
तुमसे इ क़ लड़ाए वह तुमसे शादी भी कर ले । इ क़ का तअ लुक़ दल से होता है और
शादी का तनख़ाह से । जैसी तनख़ाह होगी वैसी ही बीवी िमलेगी ।"
"अरे तो या यह लैला-मजनूँ और हीर-राँझा क कहािनयाँ के वल ोपेग डा ह । ?"
"यह कहािनयाँ िमिडल लास के पैदा होने से पहले क ह ।" इ फ़न ने कहा ।
"यानी पॉिल ट स साली इ क़ म भी घुस आई । इ क़ ठीक कहा न मने ?"
"ऐन ज़रा गाढ़ी हो गई थी । तुम अिलफ़ ही बोला करो ।"
" फर तुम एतराज करोगे क ज़बान को ख़राब करता ँ ।"
"न ।" इ फ़न ने कहा, " फर म कोई एतराज नह क ँ गा ।"
"तो फर इ क़ करवा दो ।" टोपी ने कहा, "और कसी मुसलमान लड़क से करवा दो तो
या कहना !"
" य ?"
"उसे लेकर पा क तान चला जाऊँगा । वैसे तीन पये ह गे ?"
" पये ?" इ फ़न फर च क पड़ा ।
"हाँ-हाँ, पये ।"
" पये या करोगे ?"
"यार भाई तुम ब त डल हो गए हो ।" टोपी ने अफ़सोस से कहा । " पये खरच क ँ गा
और या क ँ गा ।"
"ए टोपी !" इ फ़न क बीवी सक ना आ गई । "खाना खाकर जाना ।"
"राम राम राम ।" टोपी खड़ा हो गया । "भाभी, तुम एक दन अव य मेरा धम
करवाकर दम लोगी । कतनी बार क ँ क म मुसलमान के घर का खाना नह खाता ।"
" य नह खाते ?" इ फ़न जल गया । "तुम तो बड़े गितशील हो ।"
" ँ तो । पर तु आदत पड़ गई है ।" टोपी ने कहा । " फर भी जब घर जाता ँ तो रसोई
म जाने क इजाजत नह िमलती । माताजी मेरी थाली अलग रखती ह । कहती ह क म
मले छ हो गया ँ । पर तु माँ है । कभी-कभी यार कर ही लेती है । तो यार करने के बाद
सीधी गंगा नहाने जाती है । एक दन मने कहा, माताजी मुसलमान ने नहा-नहाकर
गंगाजी को कर दया है । जनाब वह खफ़ा हो ग और छह महीने तक मुझसे नह
बोल ।"
"और तेरे बाप ?" सक ना आ तीन चढ़ाती ई इ फ़न क कु रसी के ह थे पर बैठ गई
और दुप े से माथे का पसीना प छने लगी ।
इ फ़न ने क़लम ब द कर दया । अब घ ट कसी काम का सवाल ही नह पैदा होता
था ।
सक ना और टोपी म गहरी दो ती थी । पर तु दोन म एक िमनट नह पटती थी ।
सक ना िह दु से ब त खफ़ा रहती थी, य क उसके घरवाले आज़ादी के बलव म मारे
गए थे ।
"टोपी !" वह बोली । "म तुम लोग को खूब समझती ँ । यहाँ बैठकर न मालूम कौन
शील हो जाते हो..."
" गितशील ।" टोपी ने सहारा दया ।
"हाँ-हाँ–अरगती-परगती शील होगा कु छ । यह मुई भी कोई ज़बान है क बोलो तो
ज़बान िछनाल औरत क तरह सौ-सौ बल खाए ।"
"वह बात कहो । यह उपमाएँ य लुटा रही हो ?" टोपी ने कहा । " या कह रही थ ?"
"अरे तो या म तुझसे डरती ँ क नह क ग ँ ी !" सक ना ह थे से उखड़ गई । "कह यह
रही थी क यहाँ बैठकर परगती शील बनते हो मगर खाल के नीचे हो िह दू ही ।"
"अरे तो मने कब कहा क म मुसलमान हो गया ँ ।" टोपी बोला । 'म कोई पागल ँ क
िमजा रटी क युिनटी को छोड़कर िमना रटी क युिनटी म आ जाऊँगा ।'
"तुम जनसंिघय के जासूस हो ।"
"वैसे इस समय मुझे तीन पय क ज़ रत है ।"
"तीन पए नह ह मेरे पास ।"
"पाँच से भी काम चल जाएगा ।"
"हाँ, तु हारे बाप न जाने कौन नारायण शु ला ने यहाँ आँगन म नोट का जो पेड़
लगाया था ना, उसम इस साल ब त फल आए ह ।"
"कमाल है । िपताजी ने यह बात कभी मुझे बताई ही नह थी ।"
"इतना बड़ा कमाल भी नह है क तुम कमाल कहने लगो ।" इ फ़न ने कहा ।
सक ना को हँसी आ गई । उसने खूँट म बँधा आ पाँच का नोट िनकालकर टोपी क
तरफ़ बढ़ाया ।
"लो । मगर नौकर होते ही अदा कर देना ।"
"िलख र खा भाभी ।" टोपी ने उठते ए कहा । "सूद समेत एक-एक पाई अदा कर दूग
ँ ा
। और देखो पैस का जब ब त ठाला पड़ जाए तो मुझे एक नौकरी दलवा देना ।"
जब तक सक ना इस बात का कोई जवाब सोचे-सोचे, टोपी चलता बना ।
यह है वह बलभ नारायण शु ला जो इस कहानी का हीरो है ।
जीवनी या कहानी सुनाने का एक तरीक़ा यह भी है क कथाकार या जीवनीकार
कहानी या जीवन को कह से शु कर दे । जीवन ही क तरह कहानी के आर भ का भी
कोई मह व नह होता । मह व के वल अ त का होता है । जीवन के अ त का भी और
कहानी के अ त का भी । म य द आपको यह दखलाता क बलभ नारायण शु ला एक
पालने म याह गो त के एक लोथड़े क तरह पड़ा ाँव- याँव कर रहा है और उसक
कमर म काले नाड़े क करधनी है और उसके काले माथे पर काजल का एक काला टीका है,
तो स भव है क आप मुँह फे र लेते क इस ब े म या ख़ास बात है !–जब क सच पूिछए
तो हर कहानी और हर जीवनी शु वह से होती है ।
दो

संसार के तमाम छोटे-बड़े लोग क तरह टोपी भी बेनाम पैदा आ था । नाम क ज़ रत


तो मरनेवाल को होती है । गांधी भी बेनाम पैदा ए थे और गोडसे भी । ज म लेने के िलए
आज तक कसी को नाम क ज़ रत नह पड़ी है । पैदा तो के वल ब े होते ह । मरते-मरते
वह िह दू, मुसलमान, ईसाई, नाि तक, िह दु तानी, पा क तानी, गोरे , काले और जाने
या- या हो जाते ह ।
इस जगह हम इन झगड़ से कोई मतलब नह । अभी तो हमारे िलए के वल इतना जान
लेना ब त है क टोपी ने ज म िलया । हज़ार , लाख , करोड़ दूसरे बेट क तरह वह भी
दूसरा बेटा था । एक भाई उसक पीठ पर था और एक भाई क पीठ पर वह था ।
िजस रात उसने ज म िलया वह बरसात क एक सड़ी ई काली रात थी । हवा िबलकु ल
ब द थी । आकाश बादल से ठसा पड़ा था । एक तारे तक क जगह नह थी ।
इधर उसक माँ के पेट म दद शु आ और उधर िबजली चमक । बादल म दरार पड़
गई । पानी क चादर िगरने लगी । ऐसा लगता था जैसे बादल ओलती म फँ स गए ह ।
आँगन म पानी चमकने लगा । यूज़ उड़ गया । अँधेरा स पूण हो गया ।
उसक दादी 'हरे कृ ण हरे कृ ण' का जाप करने लग क न जाने कै सा रा स ज म
लेनेवाला है िजसने ज म लेने से पहले ही अ धेर मचा दया था । उसके िपता डॉ टर भृगु
नारायण शु ला नीले तेल वाले भी काफ़ परे शान थे । इस तूफ़ान म न दाई ही आ सकती
थी और न डॉ टरनी ही ।
ग़रज क पि डत बलभ नारायण शु ला को रात के ठीक बारह बजे खुद से पैदा हो
जाना पड़ा । पैदा होते ही टोपी ने अपनी छोटी-छोटी आँख से दुिनया को देखा । उसे जो
चीज़ दखाई दी वह बड़ी भयानक थी । वह डरकर रोने लगा और उस अ धकार को ढू ँढ़ने
लगा िजसम वह अब तक कु लबुलाया करता था । पर तु इितहास और समय का पिहया
उलटा नह चलता । टोपी को संसार ही म रहना था जब क यह भी स य है क काश
जानलेवा था । यही तो कारण है क बड़ी-बू ढ़याँ सौरी क कोठरी म काश और हवा
दोन ही को नह आने दया करती थ , (जहाँ बड़ी-बू ढ़य का ज़ोर चलता है वहाँ अब भी
यही होता है ।)
यह बात ग़लत है क ह वा ने आदम को गे ँ िखला दया था और बेचारे इस अपराध म
ज त से िनकाले गए । ज त का वह पेड़ वासना का पेड़ भी नह है जैसा क मानव-
िव ान वाले कहते ह । वह पेड़ है काश का । गुलामी, धम और काश का पुराना बैर है ।
आदम को जब काश िमला तो अ लाह िमयाँ ने उ ह तुर त ज त से िनकाल दया ।
काश का यह पेड़ कई पुरानी कहािनय म भी दखाई देता है । पि डत और नजूिमय
ने िहसाब लगाया और कहा क राजकु मार वैसे तो क़ मत का धनी है पर तु चौदह बरस
तक इस पर चाँद और सूरज का साया नह पड़ना चािहए । फर या था ? एक ख़ूबसूरत
वा टका बनाई गई िजस पर एक मोटा शािमयाना या त बू तान दया गया । राजकु मार
अपनी उ ा , छू छू , ख़वास , बाँ दय , कहा रय ...ग़रज़ क महल के पूरे तामझाम के
साथ उस वा टका म भेज दया गया । एक दन (जब चौदहवाँ बरस ख़ म हो रहा था)
राजकु मार ने देखा क एक चमकदार चीज़ छत से ज़मीन तक उग आई है । यह उलटा पेड़
काश ही का था । काश ने त बू म छेद कर दया था । बस जैसे ही राजकु मार ने काश
के पेड़ को देखा वैसे ही मुसीबत आने लग । नेचर सुपर-नेचुरल बनकर आई और अन-
नेचुरल वातावरण म पलनेवाले ब े को कृ ित से टकराना पड़ा । नतीजा यह क अ त म
नेचर ने नेचर को पहचान िलया । बड़ी मुसीबत आ , पर तु राजकु मार ने काश को हाथ
से न जाने दया । अ त म राजकु मार और उसक ेिमका का िववाह हो गया । कहानी
समा ई । हो सकता है क बाबा आदम क कहानी भी िबलकु ल यही हो । ज त पर तने
ए त बू म छेद हो गया हो...बूढ़ा बादशाह राजकु मार क राह देख रहा है, य क कहानी
अभी समा नह ई है । अभी तो राजकु मार डॉ टर वाड और हाइडरोजन बम और
काले-गोरे और िह दू-मुसलमान-दंग के जंगल म रा ता ढू ँढ़ रहा है ।
पर तु अपना बलभ नारायण शु ला न आदम था और न राजकु मार । इसिलए उसे न
शैतान का डर था और न नजूिमय का । वह तो के वल पि डत भृगु नारायण शु ला नीले
तेल वाले का दूसरा बेटा था । इसी 'के वल' म टोपी के जीवन क ैिजडी थी । यह कहानी
सच पूिछए तो इसी 'के वल' क है ।
डॉ टर पि डत भृगु नारायण नीले तेल वाले मुह ले-पड़ोस वाल के ख़याल म बड़े
भलेमानस थे । ब त धा मक आदमी थे । मि दर कभी-कभी जाते थे । कभी-कभार पूजा
भी कर िलया करते थे । पर तु उ ह ने शहर म एक बड़ा सु दर मि दर बनवा दया था ।
उ ह के वल एक शौक़ था–चुनाव लड़ने का । सदा हारे पर िह मत न हारे और हर चुनाव म
खड़े होते रहे । पहले कां ेस के टकट पर लड़े । हार गए । आज़ाद लड़े । हार गए । जनसंघ
के टकट पर लड़े । हार गए । पालामट से युिनिसपैिलटी तक का चुनाव लड़े और हारे ।
ऐसे हारनेवाले कहाँ िमलते ह ।
डॉ टर साहब फ़ारसी के रिसया और मसनवी मौलाना म के दीवाने थे । अ सर 'उफ़'
और 'बे दल' के शेर गुनगुनाते रहते थे । धुली ई उदू बोलते थे और उदू के क र िवरोधी थे
। इनशा अ लाह और माशा अ लाह और सुबहान अ लाह के नीचे बात नह करते थे ।
मुसलमान से नफ़रत करते थे । पर तु इसिलए नह क उ ह ने भारत क ाचीन स यता
को न कया है और पा क तान बना िलया है । बि क इसिलए क उनका मुक़ाबला
डॉ टर शेख़ शरफ़उ ीन लाल तेल वाले से था । यह डॉ टर शरफ़उ ीन उनके क पाउ डर
आ करते थे और उनके बेटे उ ह शफू चाचा कहा करते थे । शेख़ शरफ़उ ीन ने हरकत यह
क क नीले तेल का रं ग बदल दया । बस तेल का रं ग बदलकर वह डॉ टर बन गए और
भोली-भाली पि लक को दोन हाथ से लूटने लगे । रं ग बदलने से भी आदमी या- या हो
जाता है । टोपी एक ही है । सफ़े द हो तो आदमी कां ेसी दखाई देता है, लाल हो तो जा
सोशिल ट और के सरी हो तो जनसंघी !
फर भी डॉ टर भृगु नारायण का कारोबार ज़ोर पर था । नीला तेल रग-प म जान
डालता था । और आजकल के नौजवान को रग-प क बीमा रयाँ अिधक होती ह । नीला
तेल लुजलुजे प को तलवार क तरह स त बना देता था । (लाल तेल भी यही करता था
!) इसिलए डॉ टर भृगु नारायण के घर अ लाह के फ़ ल या भगवान् क दया से एक
बीवी, चार नौकरािनयाँ, दो नौकर, एक भस, दो अलसेिशयन कु ,े एक मोटर और तीन
ब े थे ।
पर तु बाबू भृगु नारायण इस कहानी के हीरो नह ह । डॉ टर साहब का प रचय तो म
इसिलए करवा रहा ँ क उ ह जाने िबना पि डत बलभ नारायण टोपी शु ला के
ि व को समझना क ठन हो जाएगा ।
टोपी क माँ रामदुलारी भी सीधी-सादी धा मक टाइप क घरे लू औरत थी । बड़ा भाई
मुने र नारायण शु ला उफ़ मु ी बाबू रामरा य प रषद् म गले-गले खड़े थे । और टोपी
के छोटे भाई भैरव नारायण को कां ेसी बनने का शौक़ था, य क इस पेशे म ऊपर क
आमदनी नीले तेल से भी अिधक थी । जब भी वह यह सुनता क फ़ु लाँ ा त का मु यम ी
मरा तो उसने सुइज़रलै ड के बक म पचास लाख क रक़म छोड़ी । और फ़ु लाँ ा त का
मु यम ी तो मु यम ी होने से पहले बस क ड टर था और अब देश के हर बड़े नगर म
उसक को ठयाँ ह और वह कई िमल का मािलक है, तो उसक आँख चमकने लगत और
वह अपनी माँ रामदुलारी क गोद म घुस जाता और कहता–
"हम तो मु यम ी बनगे ।"
" भू क लीला अपर पार है । अव य बनोगे ।" वह कहत और यह सुनकर भैरव को
यक़ न हो जाता क वह एक-न-एक दन मु यम ी अव य बनेगा । पर तु वह अपने िपता
से दल क बात कभी नह करता था । वह पेट-प छना था, इसिलए माँ का चहीता था ।
डॉ टर साहब तो मु ी बाबू पर फ़दा थे और मु ी बाबू मु ीबाई पर ।
मु ी बाबू को मु ीबाई क एक अदा पस द आ गई थी । वैसे तो शहर क सौ-सवा सौ
रं िडय क तरह वह भी एक रं डी थी । पर तु मु ीबाई ने अपने पेशे म भी धम का दामन
नह छोड़ा था । उसे मालूम था क एक-न-एक दन तो भगवान् को मुँह दखलाना ही
पड़ेगा । इसिलए उसने मकान क एक कोठरी म एक िशवालय बना रखा था । रोज़ सवेरे
नहा-धोकर वह नटराज, भोले शंकर, भूतनाथ क पूजा कर िलया करती थी । और शाम को
जब वह ब ीस हिथयार सजाकर अपनी दूकान खोलती तो इसका ख़याल रखती क गाना
तो जो चाहे वह सुन ले पर तु कोई शू या मले छ 'रहने' न पाए । उसे इसका बड़ा दुःख था
क एक मुसलमान ने उसका नथ उतारा था । मु ी बाबू इ ह बात पर तो जान देते थे ।
वह मु ीबाई से दस बरस छोटे थे । पर तु ेम म कह उ देखी जाती है !
यही कारण है क जब मु ी बाबू के ल क बात चली तो उ ह ने मुँह लटका िलया ।
और न के वल यह क मुँह लटका िलया बि क िववाह करने ही से इनकार कर दया ।
डॉ टर साहब ब त परे शान ए य क लड़क वाले तगड़ी असामी थे । एक लाख नक़द ।
एक मोटर । पाँच सेर सोना । तीन सेर चाँदी ।...डॉ टर साहब ने ऊँच-नीच पर िवचार
कया और मु ी बाबू को समझाने का फ़ै सला कया । पर तु मु ी बाबू को मु ीबाई के
िसवा भला और कौन समझा सकता था ! पाँच हज़ार लेकर मु ीबाई समझाने को तैयार
हो ग । वह साल-भर के िलए ब बई चली ग । डॉ टर साहब ने उ ह अपने एक मरीज़ के
नाम खत भी दया (उनका मरीज़ हीरो हो गया था ।) जब मु ीबाई कु छ कहे-सुने िबना ही
एक दन रफ़ू च र हो ग तो मु ी बाबू को डॉ टर साहब क बात मान लेनी पड़ी ।
पि डत सुधाकर लाल क इकलौती बेटी लाजव ती से मु ी बाबू का िववाह हो गया ।
लाजव ती बड़ी अ छी लड़क थी । बस एक आँख ज़रा ख़राब थी । बाएँ पैर को
घसीटकर चलती थी । रं ग ज़रा ढँका आ था । और मुँह पर माता के िनशान थे । पर तु इन
बात से या होता है ? शरीफ़ लोग म कह ब क सूरत देखी जाती है ! सूरत तो होती
है र डी क । बीवी क तो तबीअत देखी जाती है । लाजव ती सीरत और तबीअत दोन ही
क अ छी थी–यानी वह पि डत सुधाकर लाल क इकलौती बेटी थी । पि डतजी शहर के
सबसे बड़े वक ल थे । दस-बारह हज़ार क आमदनी थी । बड़े ज़म दार थे । कई कल-
कारखान के िह सेदार थे । उनके िपताजी ने बड़े ठाठ क थानेदारी क थी । और दादा ने
उससे भी यादा ठाठ क तहसीलदारी । कहते ह क पि डतजी के घर म अनाज क तरह
नोट को धूप दखलाई जाती थी । बाप-दादा ने डेढ़ सौ दूकान और पाँच हवेिलय के
अलावा स ह लाख का बक बैलस भी छोड़ा था । पर तु लाजव ती के ाई िबगड़ा आ
मुक़दमा तो था नह क वक ल साहब उसे सँभाल लेते । वह तो एक िबगड़ी ई श ल थी ।
बराबर वाल म कोई वर नह िमला । नीचे के लोग ने भी ल मी क भ ी मू त पर बेट
क बिल देना वीकार नह कया । बस एक पि डत भृगु नारायण नीले तेल वाले ऐसे िमले
िज ह ने कहा क ल मी ल मी होती ह ।
मु ी बाबू और लाजव ती क कहानी भी टोपी शु ला क कहानी का अंग नह है ।
असल म म चाहता यह ँ क आप लोग उन तमाम लोग को देख ल जो टोपी को हर तरफ़
से दबोचे ए ह ।
पर तु म यह देख रहा ँ क बात कु छ बेतरतीब ई जा रही ह । अभी मु ी बाबू और
लाजव ती के िववाह क बात िबला वजह िनकल आई । तभी तो बरसात क एक काली
रात म वह ब ा पैदा आ है जो आगे चलकर पि डत बलभ नारायण शु ला और उससे
भी आगे बढ़कर टोपी शु ला बनने वाला है ।
टोपी शु ला क सूरत खराब थी । पर तु थे बड़े शम ले । नंगे पैदा नह ए । िसर के
बाल सारे बदन पर उगाकर पैदा ए । नतीज़ा यह आ क सुबह को जब चमाइन आई
और रामदुलारी को मल-मलाकर अपने घर गई तो उसने अपने पित से कहा :
"दागदर साहब के घर बनमानुस भइल बाय ।"
टोपी का सारा निनहाल-दादीहाल खँगाल डाला गया क पता तो चले क यह ब ा
कस पर गया है । पर तु दूर-दूर इस कडे का कोई दखाई नह दया । फर या था ! सास
क ज़बान चल पड़ी । बेचारी रामदुलारी हैरान क इस ब े को ज म देकर वह कस
मुसीबत म फँ स गई । वह तो ख़ै रयत यह थी क जब उसक सास को गु सा आता था तो
वह लगभग फ़ारसी बोलने लगती थी । और रामदुलारी क समझ ही म नह आता था क
सास कह या रही है ।
सुभ ादेवी, यानी डॉ टर भृगु नारायण शु ला क माँ फ़ारसी क रिसया और िह दी क
दु मन थ । उनके िपता यानी नीले तेलवाले डॉ टर के नाना पि डत बालमुकु द फ़ारसी-
अरबी के कॉलर और उदू-फ़ारसी के किव थे । सुभ ा इकलौती बेटी थ । उ ह ने इ ह जी
भर के फ़ारसी पढ़ाई । सुभ ादेवी चोरी-चोरी फ़ारसी म शेर भी कहने लग । िजस घर म
याहकर आ वहाँ भी फ़ारसी का वातावरण था । डॉ टर भृगु के िपता खुद उदू-फ़ारसी के
आिशक़ थे । सुभ ादेवी जब घर के नौकर-चाकर से िछपाकर कोई बात कहना चाहत तो
पित से फ़ारसी बोलने लगत । उन पित-प ी के ख़याल म िह दी गँवा भाषा थी ।
बेचारी रामदुलारी तो अपनी सास क घरे लू भाषा भी ठीक से नह समझ पाती थी ।
उसके घर म िवधा क पर परा कु छ और थी । पर तु वह इतना अव य समझ गई क सास
पोते क पैदाइश से खुश नह ह ।
उसने डरते-डरते ब े क तरफ़ देखा । वह अब भी उतना बदसूरत था । और अपनी
बेहद लैक ए ड वाइट आँख से छत क तरफ़ देख रहा था ।
रामदुलारी का कलेजा सास क बात से पक गया । उसका दल ख ा हो गया । और
शायद इसी खटास के कारण उसका दूध फट गया । दूध फटा हो या न फटा हो, पर तु दूध
उतरा नह । उसे तरह-तरह के हरीरे िपलाए गए, भाँित-भाँित के हलवे और ल डू िखलाए
गए । सैकड़ टोने-टोटके कए गए । पीर -फ़क र क खुशामद क ग । अघो रय क
गािलयाँ सुनी ग । साधु के चरन छु ए गए–पर तु दूध नह उतरा ।
उधर टोपी शु ला क बदसूरती ने मु ी बाबू का बाजार और चढ़ा दया । जो चीज़
आती वह पहले मु ी बाबू को िमलती । कपड़े मु ी बाबू के बनते और टोपी को उनक
उतरन पहननी पड़ती । सुभ ा देवी तो उसे अपने पास फटकने भी नह देती थ । वह
शायद डरती थ क अगर उ ह ने टोपी को छू भी िलया तो उनके च पई रं ग पर दाग़ पड़
जाएगा । मु ी बाबू अलब ा जब देखो तब दादी क गोद म अँड़से ए ह । कभी दादी उ ह
'गुिल ताँ' क कहािनयाँ सुना रही ह, कभी 'ितल मे-होश बा' क सैर करा रही ह । कभी
'रामायण' सुना रही ह और कभी 'महाभारत' के वीर क कथाएँ याद करवा रही ह ।
अपने बलभ का भी जी चाहता क कोई उसे भी इसी यार से कहािनयाँ सुनाए ।
पर तु उसके चार ओर तो गहरा स ाटा था । जब भी वह कसी चीज़ के िलए िज़द करता,
डाँट दया जाता क कै सा िनल ब ा है क बड़े भाई का दाज करता है ।
नतीजा यह आ क टोपी को शेख़ सादी, अमीर हमज़ा क कथा, रामायण, महाभारत–
और बड़ से नफ़रत हो गई । वह इन सबको मु ी बाबू क पाट का समझने लगा । और
एक दन तो उसने ग़जब ही कर दया । दादी से बोला :
"दादीजी, आप उस काले-कलूटे कृ न को पूजती ह ना, तो एक-न-एक दन आपक पूजा
ज र काली हो जाएगी ।"
उस दन दादीजी को दो बात पर गु सा आया । पहली बात तो यह थी क उनका पोता
'ज़ र' को 'ज र' बोल रहा था । (टोपी उ ह िचढ़ाने के िलए उनके जीवन-भर यही करता
रहा ।) और दूसरी बात यह क उसने भु का मज़ाक उड़ाया था । उ ह ने ताने क कमान
चढ़ाकर रामदुलारी का कलेजा छलनी कर दया । उस दन रामदुलारी ने टोपी को जी
भरके ठ का ।
टोपी घर से भाग गया ।
तीन

ऐसा नह है क उसने भागने का फ़ै सला िबना सोचे-समझे ही कर िलया हो । छह-साढ़े छह


बरस का ब ा िजतना सोच सकता है, उतना उसने सोचा । िमसाल के िलए उसने खाने-
पीने और रात के सोने क सम या पर िवचार कया । पर तु यह भी कोई सम या ई ?
घर खाऊँगा और अपने िब तर पर सो जाऊँगा । यह फ़ै सला करने म अिधक-से-अिधक
तीन-चार सेकड लगे । इसिलए जब लोग को पता चला क वह भाग गया था तो सबने
अलग-अलग तरीके से उसे के वल एक ही बात समझाई क िबना सोचे-समझे उसे यह
मूखता नह करनी थी ।
पर तु म (यानी यह जीवनीकार) यह जानता ँ क टोपी शु ला ने सोचे-समझे िबना
कभी कोई काम ही नह कया । यही बाद म उसके जीवन क ेिजडी सािबत ई । पर तु
ये बात आप टोपी-गाथा म आगे चलकर खुद ही देख लगे ।
ख़ैर ! तो आ यह क जब उस दन रामदुलारी ने टोपी को ब त पीटा तो टोपी तमाम
ऊँचे-नीचे का िवचार करने के बाद घर से भाग खड़ा आ । और अगर वह घर से न भागता
तो शायद म यह जीवनी न िलखता । यह भागना उसके जीवन क मह वपूण घटना थी,
य क इ फ़न से उसक भट इसी कारण हो सक थी ।
टोपी जो भागा तो घर ही से नह बि क मह ले ही से भाग खड़ा आ । और मह ले से
िनकलकर उसने जो पहली चीज़ देखी वह यह थी क दो लड़के एक लड़के को मार रहे ह ।
उसे इतना िहसाब मालूम था क य द एक म एक जोड़ा जाए तो दो बन जाते ह । तो उसने
एक म एक जोड़ दया ।
लड़ाई ख़ म ई तो उसका कु रता चीर-चीर हो चुका था । उसके घुटने िछल चुके थे और
उसके मुँह पर नाखून क ख़राश पड़ चुक थ । इ फ़न का भी यही हाल था । पर तु
इ फ़न और टोपी म एक फ़क था । इ फ़न इकलौता बेटा था और टोपी बीच का । कहने म
यह बात भयानक नह मालूम होती । इस दद को तो वही जान सकता है जो खुद दूसरा
बेटा हो । सच पूिछए तो म यह जीवनी संसार-भर के दूसरे बेट के िलए िलख रहा ँ क वे
लाभ उठाएँ और अगर हो सके तो एक 'अ तरा ीय दूसरा बेटा संघ' बनाकर अपने हक़ क
लड़ाई आर भ कर । अगर काले-गोरे , िह दू मुसलमान,...ग़रज़ क सब बराबर ह तो दूसरा
बेटा भी पहले बेटे के बराबर य नह है । 'दूसरा बेटा र ा सिमित' बन गई होती तो म
यह बो रं ग जीवनी िलखने से वच गया होता । पर तु इस देश म जस का कोई काम तो
होता ही नह । पशु-पि य क र ा सिमितयाँ सैकड़े के िहसाब से िबक रही ह और दूसरे
बेटे मारे -मारे फर रहे ह । अवतार म भी िजसे देिखए वही पहला बेटा है । कसी अवतार
के िसर पर कोई बड़ा भाई हो तो बताइए ! ल मण और भरत जैसे भाई राम क छाया के
बोझ-तले िपसकर रह गए । तमाम छोटे भाई सपो टग का ट म आ जाते ह । आप खुद देख
लीिजए क इ फ़न बड़ा बेटा था इसिलए उसे अपनी कमीज़ के फटने का कोई दुःख नह
था । पर तु टोपी फटे ए कु रते को देखकर ऐसा घबराया क कु हिनय , घुटन और चेहरे से
रसते ए ख़ून को भी भूल गया ।
वह रोने लगा ।
"ब त चोट लगी है या ?"
"नह ।" टोपी ने कहा । "ई ना देख र ो क कु रता फट गया है ।"
"चलो, म तु ह दूसरा कु रता िप हा दूँ ।"
"ई तूँ क यसे बोल र ो ?"
"म इसी तरह बोलता ँ ।"
टोपी को यह तो मालूम था क वह इसी तरह बोलता है । पर तु उसे यह नह मालूम था
क वह इस तरह य बोलता है । इस तरह तो उसक दादी बोलती ह । उसने सोचा क
यह लड़का भी दादी क पाट का मालूम होता है ।
"तूँ हमरी दादी क जान यो ?" उसने सवाल कया ।
"न ।" इ फ़न ने कहा । "म तु हारी दादी को नह जानता ।"
"त तूँ उनक तरह काह बोल र ो ।"
इ फ़न हँस पड़ा । "शायद तु हारी दादी भी लखनऊ ही क ह ।"
"ई त ह म ना मालूम ।" उसने यह कह तो दया । बात भी ख़ म हो गई । पर तु उसका
दल साफ़ न आ । सारे लखनऊ वाले दादी क पाट के ह तो ?
"चलो हमारे घर चलो ।" इ फ़न ने कहा । "तु ह अपनी साइ कल दखलाएँ । वैसे
तु हारा नाम या है ?"
"ई लखनऊ कहाँ है ?"
"यहाँ से दूर है ।"
यह सुनकर उसको ढाँढस बँधा क अगर लखनऊ का लखनऊ भी दादी क पाट का हो
तो कोई फ़ नह य क लखनऊ दूर है ।
"हमारा नाम बलभ र नराएन ।"
"मेरा नाम इ फ़न है ।"
"ए ा छोटा-सा नाम है तोहरा ?"
"नह । यह मेरे घर का नाम है ।"
टोपी यह सुनकर उदास हो गया । यानी वह इतना गया-गुज़रा था क उसके िलए घर
का कोई नाम ही नह रखा गया । घर के नाम तो उनके रखे जाते ह जो यादा पुकारे जाते
ह । टोपी पुकारा ही नह जाता था !
"तोहरे पास साइ कल है ?" उसने सवाल कया ।
"हाँ । क ही तो आई है ।"
"िबलकु ल चमचमाती होइहे ?"
"हाँ ।"
वह इ फ़न के घर प च ँ ा तो स ाटे म आ गया । उसे वह घर ब त अजीब लगा । अजब
तरह से टेढ़े-मेढ़े लोटे, अजब तरह के बरतन, अजब तरह के कपड़े–ग़रज़ क सारा
वातावरण ही अजीब था ।
"यह कौन है ?" एक बूढ़ी औरत ने पूछा ।
"यह जाने कौन नारायन है ।"
"बलभ र ।" टोपी ने कहा ।
" कसके लड़के हो ?" एक जवान औरत ने पूछा जो इ फ़न क माँ िनकली ।
"हम डॉ टर िभरगु नरायन के लड़के ह ।"
"नीले तेल वाले डॉ टर िभरगू नारायन ?" यह सवाल एक बड़े हँसमुख आदमी ने कया
जो इ फ़न का बाप िनकला ।
"हाँ ।"
"इ फ़न िमयाँ, इ ह कु छ िखलाइए ।" उस आदमी ने कहा ।
"तूँ िमयाँ हौ जी?"
"िमयाँ ?" इ फ़न बौखला गया ।
"तूँ मुसलमान हौ ?"
"हाँ ।"
"औरो ई लोग ?"
"ये मेरे अ बू ह । ये मेरी अ माँ ह और ये द ा ।"
"हम ई ना पूछ रह ।" टोपी ने कहा । "का ईहो लोग िमयाँ ह ?"
"हाँ ।" इ फ़न के िपता मुसकराए । "हम लोग िमयाँ ह ।"
"तब हम िहआँ कु छ खा ओ ना सकते ।"
" य ?" सवाल इ फ़न ने कया ।
"हम लोग िमयाँ लोगन का छू आ ना खाते ।"
"मगर य नह खाते ?"
"िमयाँ लोग ब त बुरे होव ।"
सबने कोिशश क क वह कु छ खा ले । पर तु वह टस-से-मस न आ । हाँ इ फ़न क
छोटी-सी साइ कल देखकर वह ब त खुश आ ।
"ई तूँ कहाँ से मँगये हौ ?"
"मेरे च चू िवलायत से लाए ह ।"
"बेलायत के हर है ?"
इस का जवाब इ फ़न के पास नह था । पर तु वह यह भी कहना नह चाहता था
क यह बात उसे नह मालूम । इसिलए वह सुनी-अनसुनी करके साइ कल चलाने लगा ।
और पिहए क िन कल क ई तीिलयाँ जो चमक तो खुद टोपी अपना भूलकर
साइ कल के पीछे भागने लगा ।
वे दोन जाने कब तक यूँ ही खेलते रहते । पर तु एक नौकर ने खेल ख़ म कर दया ।
"छोटे सरकार, चिलए खाना खा लीिजए ।"
"चलो तुम भी खा लो ।" इ फ़न ने टोपी से कहा ।
"नाह । हम ना खा सकते ।"
"तो िमयाँ आप भी घर तशरीफ़ ले जाइए । खाने पर आपक राह देखी जा रही होगी ।"
नौकर ने कहा ।
"हम िमयाँ ना ह ।"
नौकर इ फ़न को लेकर चला गया । टोपी उस बड़े क पाउ ड म अके ला रह गया जो
भाँित-भाँित के फलदार पेड़ से भरा आ था । वह एक पेड़ के नीचे बैठकर यह सोचने लगा
क आिख़र उसके पास भी साइ कल य नह है । कमाल तो यह आ था क मु ी भ या
के पास भी साइ कल नह । वह यह सोचकर मुसकरा दया क जब वह छाती तानकर
मु ी भ या से यह कहेगा क उसके एक दो त के पास साइ कल है जो उसका च चू
िवलायत से लाया है तो मु ी भ या का मुँह लटक जाएगा । पर तु यह च चू या होता है
? अँह । कु छ होता इोइहे ! बात त है ई क हमरे दो त के पास साइ कल है ।–यूँ टोपी ने
एक दन चुपचाप इ फ़न को अपना दो त मान िलया । और इस जोश म वह यह भी भूल
गया क वह घर से भाग आया है । भूख लग रही थी । वह घर क तरफ़ चल पड़ा । पर तु
जब वह घर प च ँ ा तो घर म एक सनसनी फै ली ई थी । रामदुलारी के यहाँ तीसरा ब ा
हो रहा था ।
"भाई होई क बिहन ?" एक नौकरानी ने पूछा ।
"साइ कल ना हो सकती का ?" टोपी ने सवाल कया ।
बूढ़ी नौकरानी हँसते-हँसते लोट-पोट हो गई । उसने यह बात दोन जवान नौकरािनय
को सुनाई तो वे दोन भी जी खोलकर हँस । टोपी िखिसया गया ।
बाद म यह बात दादी यानी सुभ ादेवी और उसक माँ रामदुलारी को भी सुनाई गई ।
रामदुलारी मुसकरा दी । सुभ ादेवी ने नफ़ स उदू म टोपी क मूखता का रोना रो िलया ।
पर तु कसी ने यह नह सोचा क टोपी को एक साइ कल क ज़ रत है । और जब कसी
ने यह नह सोचा तो वह इ फ़न क तरफ़ खंचने लगा ।
आ ा हो तो यह इ फ़न के बारे म कु छ बताता चलूँ । यह बात कहानी और जीवनी
दोन ही के िनयम के िव है क पाठक को अँधेरे म रखा जाए । पाठक और गाहक म
फ़क़ होता है । लेखक और दुकानदार म अ तर होता है । दुकानदार को अपनी चीज़ बेचनी
होती है, इसिलए वह जासूसी कथाकार क तरह कु छ िछपाता है और कु छ बताता है ।
पर तु लेखक के पास बेचने के िलए कोई चीज़ नह होती । कहानी का ताना-बाना गफ़ हो
तो पाठक से झूठ बोलने क या ज़ रत है । म टोपी क कहानी को जासूसी कहानी
बनाए िबना ही आपको सुनाना चाहता ,ँ य क यह 'टोपी गाथा काल' है ही । यह टु ा
युग है । छोटे लोग ज म ले रहे ह । सौ दय पर रं ग-रं ग क क चड़ है । न तो वीर क गाथा
का समय है और न ृंगार रस बाँटने का । कोई युग कलयुग नह होता । पर तु टोपी-युग
अव य आर भ हो गया है । इसिलए लेखक का एक कत है क वह अपने पाठक से अपने
युग का प रचय कराए और यह बताए क इस भाग-दौड़ म वह खुद कहाँ खड़ा है ।
कृ ण ने अजुन से कहा था : म ही सब-कु छ ँ । म कृ ण नह ,ँ पर तु अपने पाठक से
कह रहा ँ क म ही टोपी ँ और म ही इ फ़न । म ही मु ी बाबू ँ और म ही भैरव ! म
यह युग ँ और आपसे अपना प रचय करवा रहा ँ ।–म लेखक भी ँ और पाठक भी । और
म जो लेखक ँ उस 'म' से इ फ़न का प रचय कराने क आ ा माँग रहा ँ जो पाठक है ।
इ फ़न के बारे म कु छ जान लेना इसिलए ज़ री है क इ फ़न टोपी का पहला दो त था
। इस इ फ़न को टोपी ने सदा इ फन कहा । इ फ़न ने इसका बुरा माना । पर तु वह
इ फन पुकारने पर बोलता रहा । इसी बोलते रहने म उसक बड़ाई थी । यह नाम का
च र भी अजीब होता है । उदू और िह दी एक ही भाषा, िह दवी के दो नाम ह । पर तु
अब खुद देख लीिजए क नाम बदल जाने से कै से-कै से घपले हो रहे ह । नाम कृ ण हो तो
उसे अवतार कहते ह और मुह मद हो तो पैग़ बर । नाम के च र म पड़कर लोग यह भूल
गए क दोन ही दूध देनेवाले जानवर चराया करते थे । दोन ही पशुपित, गोबरधन और
ज-कु मार थे । इसीिलए तो कहता ँ क टोपी के िबना इ फ़न और इ फ़न के िबना टोपी
न के वल यह क अधूरे ह, बि क बेमानी ह । इसिलए इ फ़न के घर चलना ज़ री है । यह
देखना ज़ री है क उसक आ मा के आँगन म कै सी हवाएँ चल रही ह और पर परा के
पेड़ पर कै से फल आ रहे ह ।
चार

इ फ़न क कहानी भी ब त ल बी है । पर तु हम लोग टोपी क कहानी कह-सुन रहे ह ।


इसिलए म इ फ़न क पूरी कहानी नह सुनाऊँगा बि क के वल उतनी ही सुनाऊँगा िजतनी
टोपी क कहानी के िलए ज़ री है ।
बात यह है क कोई कहानी कभी िबलकु ल कसी एक क नह हो सकती । कथाकार जब
यह बात भूल जाता है तो वह हीरो का क़द ऊँचा करने के िलए दूसरे च र को ऊपर या
नीचे से काटना शु कर देता है ता क हीरो दूर से दखाई दे जाए । पर तु कहािनय का
च र ही और होता है । कहानी कभी कसी एक क नह होती । कहानी सबक होती है
और फर भी उसक इकाई नह टू टती ।
इस कहानी का हीरो टोपी अव य है । पर तु यह कहानी या यह जीवनी के वल टोपी क
नह है । यह कहानी इस देश, बि क इस संसार क कहानी का एक लाइस है । लाइस
रोटी से कटकर भी रोटी ही का अंग रहता है । इसीिलए कथाकार को सावधान रहना
चािहए । वह अपनी मरज़ी से कसी को मार या िजला नह सकता । ेमच द अमरका त
और सक ना क शादी नह करवा सके , य क वह कहानी भारतीय जीवन का एक
लाइस है । उससे कटकर भी उसका एक अंग है । ेमच द के ज़माने म अमरका त और
सक ना तथा िवजयल मी और स यद हसन का िववाह नह हो सकता था ।
इसीिलए मने इसे ज़ री जाना क इ फ़न के बारे म आपको कु छ बता दूँ य क इ फ़न
आपको इस कहानी म जगह-जगह दखाई देगा । न टोपी इ फ़न क परछा है और न
इ फ़न टोपी क । ये दोन दो आज़ाद ि ह । इन दोन ि य का डेवलपमट एक-
दूसरे से आज़ाद तौर पर आ । इन दोन को दो तरह क घरे लू पर पराएँ िमल । इन दोन
ने जीवन के बारे म अलग-अलग सोचा । फर भी इ फ़न टोपी क कहानी का एक अटू ट
िह सा है । यह बात ब त मह वपूण है क इ फ़न टोपी क कहानी का एक अटू ट िह सा है
। म िह दू-मुसिलम भाई-भाई क बात नह कर रहा ँ । म यह बेवक़ू फ़ य क ँ ! या म
रोज़ अपने बड़े या छोटे भाई से यह कहता ँ क हम दोन भाई-भाई ह ? य द म नह
कहता तो या आप कहते ह ? िह दू-मुसलमान अगर भाई-भाई ह तो कहने क ज़ रत
नह । य द नह ह तो कहने से या फ़क पड़ेगा । मुझे कोई चुनाव तो लड़ना नह है । म तो
एक कथाकार ँ और एक कथा सुना रहा ँ । म टोपी और इ फ़न क बात कर रहा ँ । ये
इस कहानी के दो च र ह । एक का नाम बलभ नारायण शु ला है और दूसरे का नाम
स यद ज़रग़ाम मुरतुज़ा । एक को टोपी कहा गया और दूसरे को इ फ़न ।
इ फ़न के दादा और परदादा ब त िस मौलवी थे । का फ़र के देश म पैदा ए ।
का फ़र के देश म मरे । पर तु वसीयत करके मरे क लाश करबला ले जाई जाए । उनक
आ मा ने इस देश म एक साँस तक न ली । उस ख़ानदान म जो पहला िह दु तानी ब ा
पैदा आ वह बढ़कर इ फ़न का बाप आ ।
इ फ़न के िपता स यद मुरतुज़ा सैन भी िह दु का छु आ नह खाते थे । पर तु जब वह
मरे तो उ ह ने यह वसीयत नह क क उनक लाश करबला ले जाई जाए । वह एक
िह दु तानी क़ि तान म दफ़न कए गए ।
इ फ़न क परदादी भी िह दु का छु आ नह खाती थ । बड़ी नमाजी बीबी थ ।
करबला, नजफ़, खुरासान, काज़मैन और जाने कहाँ क या ा कर आई थ । पर तु जब कोई
घर से जाने लगता तो वह दरवाज़े पर पानी का एक घड़ा ज़ र रखवात और माश का
सदक़ा भी ज़ र उतरवात ।
इ फ़न क दादी भी नमाज़-रोज़े क पाब द थ , पर तु जब इकलौते बेटे को चेचक
िनकली तो वह चारपाई के पास एक टाँट पर खड़ी और बोल : "माता मोरे ब े को
माफ कर ो ।" पूरब क रहनेवाली थ । नौ या दस बरस क थ जब याह कर लखनऊ
आ , पर तु जब तक िज़ दा रह पूरबी बोलती रह । लखनऊ क उदू ससुराली थी । वह
तो मायके क भाषा को गले लगाए रह य क इस भाषा के िसवा इधर-उधर कोई ऐसा
नह था जो उनके दल क बात समझता । जब बेटे क शादी के दन आए तो गाने-बजाने
के िलए उनका दल फड़का । पर तु मौलवी के घर गाना-बजाना भला कै से हो सकता था !
बेचारी दल मसोसकर रह ग । हाँ इ फ़न क छटी और फर उसक मुसलमानी पर
उ ह ने जी भरकर ज मना िलया ।
बात यह थी क इ फ़न अपने दादा के मरने के बाद पैदा आ था ।
मद और औरत के इस फ़क को यान म रखना ज़ री है, य क इस बात क यान म
रखे बग़ैर इ फ़न क आ मा का नाक-नक़शा समझ म नह आ सकता ।
इ फ़न क दादी कसी मौलवी क बेटी नह थ बि क एक ज़म दार क बेटी थ । दूध-
घी खाती ई आई थ । पर तु लखनऊ आकर वह उस दही के िलए तरस ग जो घी
िपलाई ई काली हाँिड़य म असािमय के यहाँ से आया करता था । बस मायके जात तो
लपड़-शपड़ जी भर के खा लेत । लखनऊ आते ही उ ह फर मौलिवन बन जाना पड़ता ।
अपने िमयाँ से उ ह यही तो एक िशकायत थी क व त देख न मौक़ा, बस मौलवी ही बने
रहते ह ।
ससुराल म उनक आ मा सदा बेचैन रही । जब मरने लग तो बेटे ने पूछा क लाश
करबला जाएगी या नजफ़, तो िबगड़ ग । बोल :
"ऐ बेटा जउन तूँ से हमरी लाश न सँभाली जाए त हमरे घर भेज दहो ।"
मौत िसर पर थी इसिलए उ ह यह याद नह रह गया क अब घर कहाँ है । घरवाले
कराची म ह और घर क टोिडयन का हो चुका है । मरते व त कसी को ऐसी छोटी-छोटी
बात भला कै से याद रह सकती ह । उस व त तो मनु य अपने सबसे यादा खूबसूरत सपने
देखता है (यह कथाकार का ख़याल है, य क वह अभी तक मरा नह है !) इ फ़न क
दादी क भी अपना घर याद आया । उस घर का नाम क ी हवेली था । क ी इसिलए क
वह िम ी क बनी थी । उ ह दसहरी आम का वह बीजू पेड़ याद आया जो उ ह ने अपने
हाथ से लगाया था और जो उ ह क तरह बूढ़ा हो चुका था । ऐसी ही छोटी-छोटी और
मीठी-मीठी बेशुमार चीज़ याद आ । वह इन चीज़ को छोड़कर भला करबला या नज़फ़
कै से जा सकती थ !
वह बनारस के 'फ़ातमैन' म दफ़न क ग य क मुरतुजा सैन क पो टंग उन दन
वह थी । इ फ़न कू ल गया आ था । नौकर ने आकर ख़बर दी क बीवी का देहा त हो
गया । इ फ़न क दादी बीबी कही जाती थ ।
इ फ़न तब चौथे म पढ़ता था और टोपी से उसक मुलाक़ात हो चुक थी ।
इ फ़न को अपनी दादी से बड़ा यार था । यार तो उसे अपने अ बू, अपनी अ मी,
अपनी बाजी और छोटी बहन नुज़हत से भी था । पर तु दादी से वह ज़रा यादा यार
कया करता था । अ मी तो कभी-कभार डाँट मार िलया करती थ । बाजी का भी यही
हाल था । अ बू भी कभी-कभार घर को कचहरी समझकर फ़ै सला सुनाने लगते थे । नुज़हत
को जब मौक़ा िमलता उसक कािपय पर तसवीर बनाने लगती थी । बस एक दादी थी
िज ह ने कभी उसका दल नह दुखाया । वह रात को उसे बहराम डाकू , अनार परी, बारह
बुज, अमीर हमज़ा, गुलबकावली, हाितमताई, पंच फु ला रानी क कहािनयाँ सुनाया
करती थ ।
"सोता है संसार जागता है पाक परवर दगार । आँख क देखी नह कहती । कान क
सुनी कहती ँ क एक मुलुक म एक बादशा रहा..."
दादी क भाषा पर वह कभी नह मुसकराया । उसे तो अ छी-भली लगती थी । पर तु
अ बू नह बोलने देते थे । और जब वह दादी से इसक िशकायत करता तो वह हँस पड़त :
"अ मोरा का है बेटा ! अनपढ़ गँवारन क बोली तूँ काहे को बोले ल यो । तूँ अपने अ बा
ही क बोली बोलौ ।" बात ख़ म हो जाती और कहानी शु हो जाती :
"त ऊ बादशा का किहस क तुर ते ऐक ठो िहरन मार िलआवा... ।"
यही बोली टोपी के दल म उतर गई थी । इ फ़न क दादी उसे अपनी माँ क पाट क
दखाई द । अपनी दादी से तो उसे नफ़रत थी, नफ़रत । जाने कै सी भाषा बोलती थ ।
इ फ़न के अ बू और उसक भाषा एक थी ।
वह जब इ फ़न के घर जाता तो उसक दादी ही के पास बैठने क कोिशश करता ।
इ फ़न क अ मी और बाजी से वह बातचीत करने क कभी कोिशश ही न करता । वे दोन
अलब ा उसक बोली पर हँसने के िलए उसे छेड़त । पर तु जब बात बढ़ने लगती तो दादी
बीच-बचाव करवा देत :
"तै काहे को जाथै उन सभन के पास मुँह िपटावे को झाड़ू मारे । चल इिधर आ..." वह
डाँटकर कहत । पर तु हर श द श र का िखलौना बन जाता अमावट बन जाता । ितलवा
बन जाता...और वह चुपचाप उनके पास चला जाता ।
"तोरी अ माँ का कर रह ..." दादी हमेशा यह से बात शु करत । पहले तो वह चकरा
जाता क यह अ माँ या होता है । फर वह समझ गया क माताजी को कहते ह ।
यह श द उसे अ छा लगा । अ माँ । वह इस श द को गुड़ क डली क तरह चुभलाता
रहा । अ माँ । अ बू । बाजी ।
फर एक दन ग़ज़ब हो गया ।
डॉ टर भृगु नारायण शु ला नीले तेल वाले के घर म भी बीसव सदी वेश कर चुक
थी । यानी खाना मेज़-कु रसी पर होता था । लगती तो थािलयाँ ही थ पर तु चौके पर नह

उस दन ऐसा आ क बगन का भुरता उसे ज़रा यादा अ छा लगा । रामदुलारी खाना
परोस रही थी । टोपी ने कहा :
"अ मी ज़रा बगन का भुरता ।"
अ मी !
मेज़ पर िजतने हाथ थे क गए । िजतनी आँख थ वे टोपी के चेहरे पर जम गई ।
अ मी ! यह ले छ श द इस घर म कै से आया, अ मी ! पर परा क दीवार डोलन
लगी । अ मी ! धम संकट म पड़ गया ।
"ये ल ज़ तुमने कहाँ सीखा ?" सुभ ादेवी ने सवाल कया ।
"ल ज़ ?" टोपी ने आँख नचा । "ल ज का होता है माँ ?"
"ये अ मी कहना तुमको कसने िसखाया है ?" दादी गरज़ ।
"ई हम इ फ़न से सीखा है ।"
"उसका पूरा नाम या है ?"
"ई हम ना जनते ।"
"त कउनो िमयाँ के लइका के दो ती कर िलहले बाय का रे ?" रामदुलारी क आ मा
गनगना गई ।
"ब , तुमसे कतनी बार क ँ क मेरे सामने गँवार क यह ज़बान न बोला करो ।"
सुभ ादेवी रामदुलारी पर बरस पड़ ।
लड़ाई का मोरचा बदल गया ।
दूसरी लड़ाई के दन थे । इसिलए जब डॉ टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को यह पता
चला क टोपी ने कले टर साहब के लड़के से दो ती गाँठ ली है तो वह अपना गु सा पी गए
और तीसरे ही दन कपड़े और शकर के परिमट लाए ।
पर तु उस दन टोपी क बड़ी दुगित बनी । सुभ ादेवी तो उसी व त खाने क मेज से
उठ गई और रामदुलारी ने टोपी को फर ब त मारा ।
"त फर ज यबे ओकरा घरे ?"
"हाँ ।"
"अरे तोहरा हाँ म लुकारा आगे माटी िमलऊ ।"
...रामदुलारी मारते-मारते थक गई । पर तु टोपी ने यह नह कहा क वह इ फ़न के घर
नह जाएगा । मु ी बाबू और भैरव उसक कु टाई का तमाशा देखते रहे ।
"हम एक दन एको रहीम कबाबची क दुकान पर कबाबो खाते देखा रहा ।" मु ी बाबू
ने टु कड़ा लगाया ।
कबाब !
"राम राम राम !" रामदुलारी िघ ा के दो क़दम पीछे हट गई । टोपी मु ी क तरफ़
देखने लगा । य क असिलयत यह थी क टोपी ने मु ी बाबू को कबाब खाते देख िलया
था और मु ी बाबू ने उसे एक इक ी र त क दी थी । टोपी को यह भी मालूम था क
मु ी बाबू िसगरे ट भी पीते ह । पर तु वह चुग़लख़ोर नह था । उसने अब तक मु ी बाबू
क कोई बात इ फ़न के िसवा कसी और को नह बताई थी ।
"तूँ ह म कबाब खाते देखे र ो ?"
"ना देखा रहा ओह दन ?" मु ी बाबू ने कहा ।
"तो तुमने उसी दन य नह बताया ?" सुभ ादेवी ने सवाल कया ।
"इ झु ा है दादी !" टोपी ने कहा ।
उस दन टोपी ब त उदास रहा । वह अभी इतना बड़ा नह आ था क झूठ और सच के
क़ से म पड़ता–और स ी बात तो यह है क वह इतना बड़ा कभी नह हो सका । उस दन
तो वह इतना िपट गया था क उसका सारा बदन दुःख रहा था । वह बस लगातार एक ही
बात सोचता रहा क अगर एक दन के वा ते वह मु ी बाबू से बड़ा हो जाता तो समझ
लेता उनसे । पर तु मु ी बाबू से बड़ा हो जाना उसके बस म तो था नह । वह मु ी बाबू से
छोटा पैदा आ था और उनसे छोटा ही रहा ।
दूसरे दन वह जब कू ल म इ फ़न से िमला तो उसने उसे सारी बात बता द । दोन
जुग़रा फ़या का घ टा छोड़कर सरक गए । पंचम क दूकान से इ फ़न ने के ले खरीदे । बात
यह है क टोपी फल के अलावा और कसी चीज़ को हाथ नह लगाता था ।
"अ यसा ना हो सकता का क हम लोग दादी बदल ल ।" टोपी ने कहा । "तोहरी दादी
हमरे घर आ जाएँ अउर हमरी तोहरे घर चली जाएँ । हमरी दादी त बोिलयो तूँह लोगन
को बो-ल-थ ।"
"यह नह हो सकता ।" इ फ़न ने कहा । "अ बू यह बात नह मानगे । और मुझे कहानी
कौन सुनाएगा ? तु हारी दादी को बारह बुज क कहानी आती है ?"
"तूँ ह म एक ठो दा दय ना दे सक य ?" टोपी ने खुद अपने दल के टू टने क आवाज़
सुनी ।
"जो मेरी दादी ह वह मेरे अ बू क अ माँ भी तो ह ।" इ फ़न ने कहा ।
यह बात टोपी क समझ म आ गई ।
"तु हारी दादी मेरी ही दादी क तरह बूढ़ी ह गी ?"
"हाँ ।"
"तो फ़कर न करो ।" इ फ़न ने कहा । "मेरी दादी कहती ह क बूढ़े लोग मर जाते ह ।"
"हमरी दादी ना म रहे ।"
"मरे गी कै से नह ? या मेरी दादी झूठी है ?"
ठीक उसी व त नौकर आया और पता चला क इ फ़न क दादी मर गई ।
इ फ़न चला गया । टोपी अके ला रह गया । वह मुँह लटकाए िजमनेिज़यम म चला गया
। बूढ़ा चपरासी एक तरफ़ बैठा बीड़ी पी रहा था । वह एक कोने म बैठकर रोने लगा ।
शाम को वह इ फ़न के घर गया तो वहाँ स ाटा था । घर भरा आ था । रोज िजतने
लोग आ करते थे उससे यादा ही लोग थे । पर तु एक दादी के न होने से टोपी के िलए
घर खाली हो चुका था– जब क उसे दादी का नाम तक नह मालूम था । उसने दादी के
हज़ार कहने के बाद भी उनके हाथ क कोई चीज़ नह खायी थी । ेम इन बात का पाब द
नह होता । टोपी और दादी म एक ऐसा स ब ध हो चुका था जो मुसिलम लीग, कां ेस
और जनसंघ से बड़ा था । इ फ़न के दादा जीिवत होते तो वह भी इस स ब ध को िबलकु ल
उसी तरह न समझ पाते जैसे टोपी के घरवाले न समझ पाए थे । दोन अलग-अलग अधूरे
थे । एक ने दूसरे को पूरा कर दया था । दोन यासे थे । एक दूसरे क यास बुझा दी थी ।
दोन अपने घर म अजनबी और भरे घर म अके ले थे । दोन ने एक-दूसरे का अके लापन
िमटा दया था । एक बह र बरस क थी और दूसरा आठ साल का ।
"तौरी दादी क जगह हमरी दादी मर गई होत त ठीक भया होता ।" टोपी ने इ फ़न
को पुरसा दया ।
इ फ़न ने कोई जवाब नह दया । उसे इस बात का जवाब आता ही नह था । दोन
दो त चुपचाप रोने लगे ।
पाँच

टोपी ने दस अ ू बर सन् पतालीस को क़सम खाई क अब वह कसी ऐसे लड़के से दो ती


नह करे गा िजसका बाप ऐसी नौकरी करता हो िजसम बदली होती रहती है ।
दस अ ू बर सन् पतालीस का यूँ तो कोई मह व नह , पर तु टोपी के आ म-इितहास म
इस तारीख़ का ब त मह व है, य क इसी तारीख को इ फ़न के िपता बदली पर
मुरादाबाद चले गए । इ फ़न क दादी के मरने से थोड़े ही दन बाद यह तबादला आ
था, इसिलए टोपी और अके ला हो गया, य क दूसरे कले टर ठाकु र ह रनाम संह के तीन
लड़क म से कोई उसका दो त न बन सका । ड बू ब त छोटा था । बीलू ब त बड़ा था ।
गु डू था तो बराबर का, पर तु के वल अं ेजी बोलता था । और यह बात भी थी क उन
तीन को इसका एहसास था क वे कले टर के बेटे ह । कसी ने टोपी को मुँह नह लगाया ।
माली और चपरासी टोपी को पहचानते थे । इसिलए वह बँगले म चला गया । बीलू,
गु डू और ड बू उस समय के ट खेल रहे थे । ड बू ने िहट कया । गद सीधी टोपी के मुँह
पर आई । उसने घबराकर हाथ उठाया । गद उसके हाथ म आ गई ।
"हाउज़ दैट ।"
हेड माली अ पायर था । उसने उँ गली उठा दी । वह बेचारा के वल यह समझ सका क
जब 'हाउज़ दैट' का शोर हो तो उसे उँ गली उठा देनी चािहए ।
" आर यू?" ड बू ने सवाल कया ।
"बलभ र नराएन ।" टोपी ने जवाब दया ।
" इज़ योर फ़ादर?" यह सवाल गु डू ने कया ।
"भृगु नराएन ।"
" ।" बीलू ने अ पायर को आवाज़ दी । "ई िभरगू नराएन कौन ऐ ? एनी ऑफ़ अवर
चपरासीज़ ?"
"नाह साहब ।" अ पायर ने कहा, "सहर के मस र दागदर ह ।"
"यू मीन डॉ टर ?" ड बू ने सवाल कया ।
"यस सर !" हेड माली को इतनी अं ेज़ी आ गई थी ।
"बट ही लु स सो ल ज़ी ।" बीलू बोला ।
"ए!" टोपी अकड़ गया । "तनी जबिनया सँभाल के बोलो । एक ल पड़ म नाचे लिगहो
।"
"ओह यू सन ऑफ़ अ डट िपग ।" बीलू ने हाथ चला दया । टोपी लुढ़क गया । फर वह
गािलयाँ बकता आ उठा । पर तु हेड माली बीच म आ गया और ड बू ने अपने
अलसेिशयन को शुशकार दया ।
पेट म सात सुइयाँ भुक तो टोपी के होश ठकाने आए । और फर उसने कले टर साहब
के बँगले का ख़ नह कया । पर तु यह खड़ा हो गया क फर आिख़र वह करे या ?
घर म ले-देकर बूढ़ी नौकरानी सीता थी जो उसका दु:ख-दद समझती थी । तो वह उसी के
प लू म चला गया । और सीता क छाया म जाने के बाद उसक आ मा भी छोटी हो गई ।
सीता को घर के सभी छोटे-बड़े डाँट िलया करते थे । टोपी को भी घर के सभी छोटे-बड़े
डाँट िलया करते थे । इसिलए दोन एक-दूसरे से यार करने लगे ।
"टेक मत कया करो बाबू !" एक रात जब मु ी बाबू और भैरव का दाज करने पर वह
ब त िपटा तो सीता ने उसे अपनी कोठरी म ले जाकर समझाना शु कया ।
बात यह ई क जाड़ के दन थे । मु ी बाबू के िलए कोट का नया कपड़ा आया । भैरव
के िलए भी नया कोट बना । टोपी को मु ी बाबू का कोट िमला । कोट िब कु ल नया था ।
मु ी बाबू को पस द नह आया था । फर भी बना तो था उ ह के िलए । था तो उतरन ।
टोपी ने वह कोट उसी व त दूसरी नौकरानी के तक के बेटे को दे दया । वह खुश हो गया ।
नौकरानी के ब े को दे दी जानेवाली चीज़ वापस तो ली नह जा सकती थी, इसिलए तय
आ क टोपी जाड़ा खाए ।
"हम जाड़ा-ओड़ा ना खाएँगे । भात खाएँगे ।" टोपी ने कहा ।
"तुम जूते खाओगे ।" सुभ ादेवी बोल ।
"आपको इहो ना मालुम क जूता खाया ना जात पिहना जात है ।"
"दादी से बदतमीज़ी करते हो ।" मु ी बाबू ने िबगड़कर कहा ।
"त का हम इनक पूजा कर ।"
फर या था ! दादी ने आसमान िसर पर उठा िलया । रामदुलारी ने उसे पीटना शु
कया...
"तूँ दसवाँ म च प
ँ गइल बाड़ ।" सीता ने कहा । "तूँ ह दादी से टराव के त ना न चाही ।
कन ऊ तोहार दादी बािड़न ।"
सीता ने तो बड़ी आसानी से कह दया क वह दसव म प च ँ गया है । पर तु यह बात
इतनी आसान नह थी । दसव म प च ँ ने के िलए उसे बड़े पापड़ बेलने पड़े । दो साल तो
वह फ़े ल ही आ । नव म तो वह सन् उनचास ही म प च ँ गया था । पर तु दसव म वह सन्
बावन म प च ँ सका ।
जब वह पहली बार फे ल आ तो मु ी बाबू इ टरमीिडएट म फ़ ट आए और भैरव छठे
म । सारे घर ने उसे ज़बान क नोक पर रख िलया । वह ब त रोया । बात यह नह थी क
वह गाउदी था । वह काफ़ तेज़ था । पर तु उसे कोई पढ़ने ही नह देता था । वह जब पढ़ने
बैठता तो मु ी बाबू का कोई काम िनकल आता, या रामदुलारी को कोई ऐसी चीज़
मँगवानी पड़ जाती जो नौकर से नह मँगवाई जा सकती थी–यह सब-कु छ न होता तो
पता चलता क भैरव ने उसक कािपय के हवाई जहाज़ उड़ा डाले ह ।
दूसरे साल उसे टाइफ़ाइड हो गया ।
तीसरे साल वह थड िडवीज़न म पास हो गया । यह थड िडवीजन कलंक के टीके क
तरह उसके माथे से िचपक गया ।
पर तु हम उसक मुि कल को भी यान म रखना चािहए ।
सन् उनचास म वह अपने सािथय के साथ था । वह फ़े ल हो गया । साथी आगे िनकल
गए । वह रह गया । सन् पचास म उसे उसी दज म उन लड़क के साथ बैठना पड़ा जो
िपछले साल आठव म थे ।
पीछे वाल के साथ एक ही दज म बैठना कोई आसान काम नह है । उसके दो त दसव
म थे । वह उ ह से िमलता, उ ह के साथ खेलता । अपने साथ हो जानेवाल म से कसी के
साथ उसक दो ती न हो सक । वह जब भी लास म बैठता उसे अपना बैठना अजीब
लगता । इस पर िसतम यह आ क कमज़ोर लड़क को मा टरजी समझाते तो उसक
िमसाल देते :
" या मतलब है साम अवतार (या मुह मद अली) ? बलभ क तरह इसी दज म टके
रहना चाहते हो या ?"
यह सुनकर सारा दजा हँस पड़ता । हँसनेवाले वे होते जो िपछले साल आठव म थे ।
वह कसी-न- कसी तरह इस साल को झेल गया । पर तु जब सन् इ यावन म भी उसे
नव दज म ही बैठना पड़ा तो वह िबलकु ल गीली िम ी का ल दा हो गया, य क अब तो
दसव म भी कोई उसका दो त नह रह गया था । आठव वाले दसव म थे । सातव वाले
उसके साथ ! उनके बीच म वह अ छा-ख़ासा बूढ़ा दखाई देता था ।
वह अपने भरे -पूरे घर ही क तरह अपने कू ल म भी अके ला हो गया था । मा टर ने
उसका नो टस लेना िबलकु ल ही छोड़ दया था । कोई सवाल कया जाता और जवाब देने
के िलए वह भी हाथ उठाता तो कोई मा टर उससे जवाब न पूछता । पर तु जब उसका
हाथ उठता ही रहा तो एक दन अं ेज़ी-सािह य के मा टर साहब ने कहा :
"तीन बरस से यही कताब पढ़ रहे हो, तु ह तो सारे जवाब ज़बानी याद हो गए ह गे !
इन लड़क को अगले साल हाई कू ल का इ तहान देना है । तुमसे पारसाल पूछ लूँगा ।"
टोपी इतना शमाया क उसके काले रं ग पर लाली दौड़ गई । और जब तमाम ब े
िखलिखलाकर हँस पड़े तो वह िबलकु ल मर गया । जब वह पहली बार नव म आया था तो
वह भी इ ह ब क तरह िबलकु ल ब ा था ।
फर उसी दन अ दुल वहीद ने रसेज़ म वह तीर मारा क टोपी िबलकु ल िबलिबला
उठा ।
वहीद लास का सबसे तेज़ लड़का था । मानीटर भी था । और सबसे बड़ी बात यह है
क वह लाल तेल वाले डॉ टर शरफु ीन का बेटा था ।
उसने कहा, "बलभ र ! अबे तो हम लोगन म का घुसता है । ए थ वालन से दो ती कर
। हम लोग तो िनकल जाएँगे, बाक तुह त उ ह सभन के साथ रहे को इहै ।"
यह बात टोपी के दल के आर-पार हो गई और उसने क़सम खाई क टाइफ़ाइड हो या
टाइफ़ाइड का बाप, उसे पास होना है ।
पर तु बीच म चुनाव आ गए ।
डॉ टर भृगु नारायण नीले तेल वाले खड़े हो गए । अब िजस घर म कोई चुनाव के िलए
खड़ा हो गया हो उसम कोई पढ़-िलख कै से सकता है !
वह तो जब डॉ टर साहब क ज़मानत ज़ त हो गई तब घर म ज़रा स ाटा आ और
टोपी ने देखा क इ तहान िसर पर खड़ा है ।
वह पढ़ाई म जुट गया । पर तु ऐसे वातावरण म कोई पढ़ या सकता था ? इसिलए
उसका पास ही हो जाना ब त था ।
"वाह !" दादी बोल । "भगवान् नज़रे -बद से बचाय । र तार अ छी है । तीसरे बरस
तीसरे दज म पास तो हो गए ।"
"जब क शरफ़ु आ का बेटा फ़ ट आया है ।" डॉ टर साहब ने कहा । (वह डॉ टर
शरफु ीन को शरफ़ु आ ही कहा करते थे ।)
उसे अ दुल वहीद से नफ़रत हो गई । फ़ ट आने म उसका कोई क़ु सूर नह था । टोपी के
थड आने म भी उसका कोई हाथ नह था । पर तु िजस तरह वहीद से उसक तुलना क
गई थी वह बड़ी ही कड़ी चीज़ िनकली ।
उ ह दन वह कु छ नए लोग से भी िमला । ये लोग सवेरे-सवेरे लड़ाक को इक ा
करके लकड़ी िसखलाते, कु ती लड़वाते, परे ड करवाते और उनसे बात करते ।
टोपी अचानक उनके पास चला गया । हाथ -हाथ िलया गया । फर जब उसे यह पता
चला क यह वह पाट है िजसने गांधीजी को मारा है तो उसे बड़ा डर लगा । पर तु वह
उन लोग से िमलता रहा ।
उ ह लोग से उसे पहले-पहल यह पता चला क मुसलमान ने कस तरह देश का
स यानाश कया है । देश-भर म िजतनी मसिजद ह वे मि दर को तोड़कर बनाई गई ह
(टोपी को यह बात मानने म ज़रा शक था, य क शहर क दो मसिजद तो उसके सामने
बनी थ और कोई मि दर-वि दर नह तोड़ा गया था ।) गोह या तो मुसलमान का ख़ास
शग़ल है । फर उ ह ने देश का बँटवारा करवाया । पंजाब और बंगाल म लाख िह दू बूढ़
और ब को उ ह ने बेदद से मारा । औरत क लाज लूटी और या- या नह कया इन
मुसलमान ने ! ये जब तक देश म ह देश का क याण नह हो सकता । इसिलए मुसलमान
को अरब सागर म ढके ल देना हर िह दू नवयुवक का कत है ।
ये तमाम बात दल लगती थ । इन बात के बीच म कई बार उसे इ फ़न याद आया ।
पर तु जब वहीद फ़ ट आ गया तो उसे यक़ न आ गया क मुसलमान जब तक ह तब तक
िह दू चैन क साँस नह ले सकता ।
तो एक स े भारतीय और एक स े िह दू क तरह वह मुसलमान से नफ़रत करने लगा

और जब जुलाई सन् बावन म वह कू ल गया तो वह जनसंधी हो गया । इसिलए जब
सीता ने उसे यह ताना दया क वह दसव म पढ़ता है तो वह िबलिबला गया । बोला :
"दादी िमयाँ लोगन क भाषा बोलती ह । ह म त ई जना रहा क ऊहो मुसलमान हो
गई ह ।"
छह

इ फ़न क िज़ दगी ने िबलकु ल दूसरे रा ते पर सफ़र कया । राजनीित म उसे कोई


दलच पी नह थी । फर भी घर म जो बात होती थ वह उ ह सुनता तो था ही । और
चाहे उसे के वल ' पो स पेज' ही म दलच पी रही हो पर तु उसे उस प े के िलए पूरा
समाचारप हाथ म तो लेना ही पड़ता था ।
उसने जो कु छ सुना और समाचारप म जो कु छ पढ़ा वह र गटे खड़े कर देने के िलए
काफ़ था । वह सािह य का रिसया था । वािमक जौनपुरी, सािहर लुिधयानवी, अली
सरदार जाफ़री और दूसरे किवय क किवता और कृ च दर, अ बास और दूसरे
कथाकार क कहािनय ने उससे कहा क इस आज़ादी म कोई घपला है ।

कौन आज़ाद आ
कसके माथे से गुलामी क याही छू टी ।
अब यह पंजाब नह एक हस ख़ाबन ।
अब यह दोआब है, सेह आग ह पंजाबनी ।।
जामा मसिजद म अ लाह क जात थी ।
चाँदनी चौक म रात ही रात थी ।।
आस क े घड़े क तरह बह गई ।
सोहनी बीच तूफ़ान म रह गई ।।
अज आखां वा रस शाह नूँ ।
कत कबरां िव ो बोल ।।
ते अज कताबे-इ क दा ।
कोई अगला वरका खोल ।।

ते अज कताबे-इ क दा कोई अगला वरका खोल ! और ' कताबे-इ क' के प े तूफ़ानी


हवा म िबखर गए थे, लाश बनकर सड़ रहे थे और चीख़ बनकर गूँज रहे थे । पेशावर
ए स ेस म लाश को िगन रहे थे । एक तवायफ़ का ख़त बनकर पि डत नेह और
मुह मद अली िजनाह को ढू ँढ़ रहे थे...
"िस ख ने तो ग़ज़ब कर दया । बि य को करपान पर उछाल दया । एक तेरह
बरस क लड़क के साथ बीस िस ख ने िज़ना कया । वह बेचारी कह बीच ही म मर
गई..."
अ बू के कमरे से आवाज़ आ रही थ और वह दालान म बैठा वाजा अहमद अ बास क
कहानी 'सरदारजी' पढ़ रहा था...
"िमशटेक हो गई ।" वाजा साहब ही क कसी और कहानी क आवाज़ गूँजी ।
पर तु कससे िमसटेक हो गई ? इस का जवाब कोई नह देता था । चौदह-प ह
बरस क एक क ी आ मा इन सवाल के जंगल म भटक रही थी । ढाके से पेशावर तक
िज़ दगी के खिलयान म आग लगी ई थी । कटी ई फ़सल भी जल रही थ । खड़ी ई
फ़सल भी जल रही थ । ज़मीन से आसमान तक गाढ़ा कड़वा धुआँ अटा आ था । इतनी
जगह नह थी क भीतर क साँस बाहर आ जाए ।
"अ बू, या यह िह दू ब त ख़राब होते ह ?" एक दन उसने अपने अ बू से पूछा । "और
यह िसख तो ब त ही ज़लील मालूम होते ह ।"
तब उसे यह नह मालूम था क पूरबी और पि छमी पा क तान के िह दू और िसख भी
अपने अ बु से मुसलमान के बारे म यही सवाल कर रहे ह गे !
उसका ब त सीधा-सादा था । पर तु उसके अ बू सीधा-सादा जवाब न दे पाए ।
समाचारप कु छ कहते थे, आ मा कु छ कहती थी–और अटा आ धुआँ गला अलग घ ट
रहा था ।
फर भी कोई जवाब तो देना ही था ।
"नह बेटा !" अ बू ने कहा । "गु डे िह दू-मुसलमान नह होते ।"
"ले कन..."
"म भी जानता ँ क या हो रहा है ।" अ बू ने ब त खुरदरे लहजे म उसक बात काटी
। इ फ़न हैरान रह गया । उसके अ बू तो सदा मु कराया करते थे । यह आिख़र हो या
गया है ? यह आिख़र हो या रहा है ?
"डाँटने क या ज़ रत है ?" अ मी ने कहा, "हाँ बेटा, यह िह दू और िसख बड़े कमीने
होते ह ।"
" य ?" इ फ़न ने सवाल कया । अ मी चकरा ग । "और आिख़र अ लाह िमयाँ ने
इतनी ख़राब तक़दीर य िलख आिख़र ?"
"गुनाह का फल है बेटा !" अ मी ने कहा ।
"उन ब ने या गुनाह कया होगा ?"
"अ छा यादा बको मत ।" अ मी भी ख़फ़ा हो गई ।
उस दन पहली बार उसक िनगाह म अ लाह िमयाँ क इ ज़त कु छ कम ई । यह तो
कोई बात न ई क गुनाह कर बड़े और उसे भुगत ब े !
यह शक बड़ा भयानक था । इस शक ने उसे एकदम से िनह था कर दया । अ लाह
िमयाँ िह दु और िसख से िमल गए ह ।
उस रात उसने एक वाब देखा क अ लाह िमयाँ क सफ़े द दाढ़ी खून से लाल है और
वह िह दु और िसख क एक सभा म भाषण कर रहे ह...
"यह मुसलमान ब ा यहाँ कहाँ से आ गया ?" अ लाह िमयाँ ने उसक तरफ़ इशारा
कया । "इसे भी मार डालो ।"
यह सुनते ही सारा मजमा उसक तरफ़ लपका । वह भागा । दूसरी तरफ से एक बूढ़े
सरदारजी आ रहे थे । इ फ़न समझा क अब मारा गया । पर तु उन सरदारजी ने उसे
ज दी से अपने साफ़े म िछपा िलया । मजमे ने उ ह घेर िलया । एक ने तलवार मारी ।
सरदारजी क गरदन कट गई । लुढ़कता आ िसर एक तरफ़ भागा । भीड़ ने उस िसर का
पीछा कया । िसर एक सभा म घुस गया । एक बूढ़ा आदमी एक बूढ़ी ऐनक लगाए आधे
बदन से नंगा बैठा कु छ कह रहा था । िसर उसके पीछे चला गया । एक आदमी ने गोली
चलाई । बूढ़ी ऐनक वाला आदमी मर गया ।
सरदारजी का िसर फर भागा ।
कताब क एक दुकान म आग लगी ई थी । जवाहरलाल नेह अपनी कताब क
आग क रोशनी म अजीब लग रहे थे । उस िसर ने कहा :
"असी अहमद अ बास दा सरदारजी ह । ऐ लो ! तुसी अपनी अमानत सँभालो..."
साफ़ा खुल गया । इ फ़न उछलकर पि डतजी क जवाहर ब डी क जेब म चला गया ।
"तुम कौन हो ?" जवाहरलाल ने पूछा ।
"म इ फ़न ँ ।"
"नह ।" जवाहर ने कहा । "तुम भारत हो । मने तु ह आज फर पाया है । म फर तुम
पर एक कताब िलखूँगा ।"
भीड़ फर आ गई । सारे िह दू और िसख िज ा कै प लगाए ए थे । कई ने तुरक
टोिपयाँ भी पहन रखी थ । कई क शेरवािनय के कालर से खजूर का एक पेड़ झाँक रहा
था !
जवाहरलाल ने भीड़ को देखा । ग़ से से उनका मुँह लाल हो गया । वह इ फ़न को िलए
ए कताब के अलाव म फाँद पड़े । इ फ़न चीखा ।
उसक आँख खुल गई ।
जो ब े िगरती दीवार क छाँव म जवान ए ह उनक कहानी बड़ी अजीब है ।
इ फ़न क आँख खुली तो उसक आ मा अपने खोल म घुस गई ।
वह रोज़ क तरह उठा । उसने रोज़ क तरह हाथ-मुँह धोकर माँ-बाप को सलाम कया
। उसे रोज़ ही क तरह जीने क दुआ िमली । वह रोज़ ही क तरह कू ल गया । पर तु
कू ल के लोग उसे अजीब-अजीब दखाई देने लगे । उसे लगा क बाबू ि वेणी नारायण ने
उसे ज़ोर से मारा और ल मण को धीरे से–जब क दोन क ख़ता एक थी ! उसे लगा क
चौधरीजी ने उसके मुक़ाबले म रामदास को एक सवाल यादा जी लगाकर समझाया ।...
कू ल के सारे दो त उसे अजनबी दखाई देने लगे । उसने अपने-आपको िबलकु ल अके ला
पाया । उसे अपने क ध पर शेरवानी भारी लगने लगी । उस दन उसने चुपके से क़सम
खाई क वह िज़ दगी-भर शेरवानी ही पहना करे गा ।
खेल के घ टे म फु टबाल आ । इ फ़न अ छा खेलता था । दूसरी तरफ़ के टापर ने टाँग
मारी । इ फ़न लुढ़क गया । यह कोई ख़ास बात नह ई थी । मगर इस बार उसे ब त
ग़ सा आया । उसने फ़ौरन ही बदला िलया । वह लड़का िगर गया । मा टर साहब ने उसे
ब त डाँटा । वह फ़ ड से िनकाल दया गया । सारे लड़के खेल रहे थे । वह अके ला बाहर
खड़ा था और सोच रहा था क य द वह मुसलमान न रहा होता तो मा टर साहब ने उसे यूँ
न िनकाला होता ।
उस शाम वह घर प च ँ ा तो उसक माँ ने देखा क वह ब त उदास है । माँ ने उसका
यार िलया । द ली से मामू जो हबशी हलवा लाए थे वह हलवा इ फ़न को दया गया ।
मगर उसके चेहरे पर रं ग नह आया ।
" या बात है िमयाँ ?" द ली वाले मामू ने पूछा ।
"कु छ नह ।"
"मालूम होता है क आज कू ल म िपटे हो ।" मामू ने क़हक़हा लगाया ।
"पा क तान तो मुसलमान ने बनवाया है ना ?" उसने कया ।
"नह ।" मामू बोले । "पा क तान अं ेज़ ने बनवाया है ।"
"एक आप ही यह कहते ह ।" वह बोला । "म यह कहता ँ क जब मुसलमान ने
पा क तान बनवा िलया है तो आिख़र हम यहाँ या कर रहे ह ? अ बू, आप पा क तान
य नह चलते ?"
"आप इन बात पर सोचकर अपना व त य ख़राब करते ह ?" अ बू ने कहा ।
"िह दू मा टर हम जी लगाकर नह पढ़ाते ।" उसने कहा । "िह दू लड़के हम परे शान
करते ह । परस भवानी क िमठाई म मेरा हाथ लग गया तो उसने िमठाई फक दी और
बोला, 'ए िमयाँ इ पा क तान ना है' ।"
"यह बताओ क तुम जो नाना साहब के वहाँ गए थे तो गौरीशंकर साहब ने या तु ह
यार नह कया था ?" मामू ने पूछा ।
" कया था ।"
"तो या वह िह दू नह ह ?"
"तु हारे नाना िमयाँ िह दु का छु आ नह खाते तो या गौरीशंकर चा से उनक दो ती
नह है ?"
"है मगर..."
"यूँ ही अगर तु हारे दो त भवानी ने तु हारा छु आ नह खाया तो तुम उसे अपना दु मन
य समझ बैठे ?"
"इसिलए क उसने पा क तान वाली बात जो कही थी ।"
"कोई कहे क क वा कान ले भागा तो तुम या करोगे ? कान देखोगे या क वे के पीछे
भागोगे ? तुमने बनाया है पा क तान ?"
"जी नह ।"
" फर तुम य ख़फ़ा होते हो ?"
बात इ फ़न क समझ म आ गई । मगर वह बेनाम डर फर भी नह िमटा । वह कू ल
जाता रहा । पर तु धीरे -धीरे अपने िह दू दो त से िबछु ड़ता रहा । शंकर, रामदीन, भू,
भवानी, सीताराम...उसने इनम से कसी को अपने पास नह पाया । अब उसके चार तरफ़
वािजद, मुिह बुल हसन, सरवर...दूसरे तरह के नाम थे । पुराने सािथय म मुजािवर और
जमाल के िसवा और कोई साथ नह था ।
इस प रवतन को कसी ने महसूस नह कया । मा टर पढ़ाते रहे । लड़के पढ़ते रहे ।
मा टर ने यह जानने क ज़ रत ही नह समझी क यह देख क अब लड़क क दो ती का
आधार या है ।
लड़क ने भी इस पर िवचार नह कया क पुराने िम से अलगाव य हो गया है और
उन लड़क से दो ती य हो गई है जो पहले दो त नह थे ।
उदू के मौलवी साहब ने अलब ा यह बात महसूस क क उदू का लास छोटा हो गया
है–और अब कोई िह दू लड़का उदू नह पढ़ता ।
एक दन उ ह ने अपनी बीवी से कहा, "अगर यही रफ़तार रही तो उदू क पढ़ाई ख म
हो जाएगी ।"
"तो आिख़र हम पा क तान य नह चलते ?" बीवी ने पूछा ।
"दो साल के बाद रटायर होना है ।" मौलवी साहब ने कहा, "िज़ दा तो यहाँ रहा । अब
मरने के िलए वहाँ या जाऊँ !"
"जब देखो मरने-जीने क बात करने लगते हो ।" बीवी िबगड़ गई । "दो लड़ कयाँ पहाड़
क पहाड़ बैठी ह । या इनका अचार डालना है ।"
"मने भाई कलीमु ला को िलखा तो है । कराची म तो मुसलमान लड़क क इफ़रात है ।
..."
अब िजन मौलवी साहब क आ मा पर दो जवान बे टय के कुँ वारे पन का बोझ हो वह
ग़ािलब का ेम-का भला या पढ़ा सकते थे !
मगर जब वह हािज़री लेने लगते तो उदास हो जाते । मुह मद हनीफ़,
अकरमु ला,बद ल हसन, नजफ़ अ बास, बक़ाउ ला, मुह मद उमर िस ीक़ , िहज़ अली
ख़ाँ तोख़ी...एक ही तरह के नाम पुकारते-पुकारते वह बोर हो जाते । कहाँ गए वह
आशाराम, नरबदा साद,मातादीन, गौरीशंकर िस हा, माधोलाल अगरवाल,मसीह
पीटर,रौनक़ लाल...
यह जानकर उ ह और दुःख आ क िह दी के पि डतजी का रिज टर अब भरपूर होता
जा रहा है । नाम क रं गारं गी उनके रिज टर को छोड़कर पि डतजी के रिज टर म बसती
जा रही है ।
वह उन पि डतजी से जलने लगे िज ह ने उनका खज़ाना हिथया िलया था । इसिलए
वह िह दी क बुराई करने लगे :
"लाहौलिवला क़ु वत । या ल व ज़बान है । दो ल ज बोलो तो ज़बान बेचारी हाँफने
लगती है ।"
जब पि डतजी तक ये बात प च ँ तो उ ह ब त बुरा लगा । वह अ छी उदू, फ़ारसी
जानते थे । मगर मौलवी साहब क िज़द म उ ह ने उदू बोलना छोड़ दया । िह दी बोलने
म उ ह क ठनाई होती । पर तु वह िह दी ही बोलने लगे । उदू-फ़ारसी के जो श द उनक
ज़बान पर चढ़े ए थे उ ह कोिशश करके उ ह ने भुला दया ।
यह तनातनी इतनी बढ़ी क कू ल के सालाना मुशायरे क कमेटी म मौलवी साहब ने
पि डतजी का नाम नह रखा । मुशायरा आ । पर तु लड़क ने ब त शोर कया । फर
पि डतजी ने मुशायरे क चोट पर किव-स मेलन कया । शहर का पहला किव-स मेलन
आ । पर तु बाद म पि डतजी ने अपने एक दो त मौलवी अहमदु ला एडवोके ट से कहा :
"मुशायरे वाली बात पैदा न ई ।"
मौलवी अहमदु ला, जो िज़ला कां ेस कमेटी के सदर थे और िज़ला मुसिलम लीग के
सदर रह चुके थे, बोले :
"पि डतजी, रवायत एक दन म नह बनत । थोड़े दन म लोग मुशायर को भूल
जाएँगे ।"
पि डतजी को यह बात अ छी नह लगी, परतु वह चुप रह गए । और मौलवी
अहमदु ला साहब ने घर जाते-जाते यह फ़ै सला कर िलया क वह अपने छोटे बेटे
क़ु रबानअली और बेटी आएशबानो को िह दी पढ़वाएँगे य क उदू का भिव य तारीक है ।
उसी रात इ फ़न ने अपनी अ मी को जब एक किवता सुनाई िजसक स मेलन म बड़ी
तारीफ़ ई थी तो अ मी मुसकराकर बोल :
"भाड़ म जाए यह ज़बान । यह ज़बान है मुई ! इससे अ छी ज़बान तो हमारे वोहाँ क
मेहतरािनयाँ बोलती ह ।"
"अब यही ज़बान चलेगी ।" अ बू बोले जो िज़लाधीश होने के नाते स मेलन म गए थे ।
वह न जाते तो शहर के लोग कहते क मुसलमान कले टर था, इसिलए नह आया ।
"यह ज़बान य चलेगी अ बू ?"
"जब तुम और बड़े हो जाओगे तो समझ जाओगे ।"
"यह ज़बान या इसिलए चलेगी क यह िह दु क है ?"
"यह तुम हर व त िह दू-मुसलमान या करते हो ?" अ बू ने फर डाँट दया ।
वह कई बरस से यह देख रहा था क उसके अ बू िचड़िचड़े हो गए ह । पर तु उसक
समझ म यह नह आता था क ऐसा आिख़र हो य गया है ।
पर तु ऐसा हो गया था ।
सात

यह जो म बार-बार इ फ़न क बात करने लगता ँ तो इससे आप यह न समिझए क यह


कहानी टोपी और इ फ़न दोन क है । जी नह । यह कहानी के वल टोपी क है । पर तु
बार-बार इ फ़न क आ मा म झाँकना ज़ री है, य क देश म जो प रवतन हो रहा है
उसे के वल टोपी क िखड़क से नह देखा जा सकता । इ फ़न भी टोपी ही का एक प है ।
इस टोपी के बेशुमार प ह । बंगाल, पंजाब, यू.पी., आ , असम...सारे देश म यह टोपी
अपनी सम या का कशकोल िलए िवचारधारा , फ़लसफ़ , राजनीितय ...के दरवाज़े
खटखटा रहा है । पर तु कोई इसे सहारा नह देता । म इस कहानी को इतना नह फै ला
सकता क इसम टोपी के तमाम प समा जाएँ । इसिलए मने के वल दो प चुन िलए ह ।
टोपी के ये प एक-दूसरे से टकराते भी ह और एक-दूसरे के िबना अधूरे भी ह । टोपी–
या टोिपय के सामने िम रयास का है । पर पराएँ, मुह बत, नफ़रत, भरोसे,शक और
डर...
कबीर से लेकर गोलवलकर, और खुस से लेकर सदर अ यूब तक । और खुस और
कबीर से पहले जो कु छ था । और गोलवलकर और अ यूब के बाद जो कु छ होगा । टोपी
इस जानलेवा भँवर के बीच म है ।
टोपी हर युग म जानलेवा भँवर क गोद म ज म लेता है । वह हर युग म िगरती दीवार
क छाँव म पैदा होता है और अपने बदन क धूल साफ़ करने म उसे काफ़ दन लग जाते ह
। और इन दन वह िबलकु ल अके ला और बेसहारा होता है । उसक भाषा कोई नह
समझता । पर तु हम िजस टोपी का पीछा कर रहे ह वह हर युग के टोपी से मुि कल
सवाल है । आज हम उसक कोई तारीफ़ नह कर सकते ।
हर टोपी आज जनसंघी, मुसिलम लीगी, कां ेसी और क युिन ट सभी कु छ है । आज
उसका व टु कड़े-टु कड़े है । और उसका हर टु कड़ा एक नई भाषा बोल रहा है–और
अलग तरीक़े से सोच रहा है । इसीिलए हम बार-बार इ फ़न का मुँह देखना पड़ता है ।
इ फ़न जवान आ तो उसके पास कोई वाब नह था । वह पढ़ता रहा । एक दरजे से
दूसरे दरजे म जाता रहा । पर तु उसे यह नह मालूम था क उसे करना या है ।
आई.ए.एस. और आई.एफ़.एस. म बरस से कसी मुसलमान का नाम नह िनकला था ।
इ फ़न ने यह नह सोचा क ब त से िह दु का नाम भी नह िनकला है । वह इन
इ तहान म बैठा ही नह । और जब उसे रात आँख म काटने के बाद भी कोई वाब नह
िमला तो उसने दाढ़ी रख ली । अ लाह िमयाँ क तरफ़ से उसका दल साफ़ आ था ।
पर तु वह एक सहमी ई न ल का ितिनिध था, इसिलए वह नमाज़ पढ़ने लगा ।
िपता के मर जाने के बाद उस पर छोटे भाई-बहन का बोझ आ पड़ा । बाजी तो अपने
िमयाँ के साथ पा क तान जा चुक थ । इसे बार-बार बुला भी रही थ । पर तु इ फ़न
पा क तान नह गया । वह डरा आ था । पर तु वह अपने डर को जीतना चाहता था ।
एक िडगरी कॉलेज म उसे इितहास पढ़ाने क नौकरी िमल गई । वह ब त खुश आ ।
उसने पहले लास क बड़ी तैयारी क । पर तु जब वह लास गया तो उसने देखा क बुझी
ई आँख वाले लड़के लाश क तरह बैठे ए ह । कसी आँख क िखड़क से कोई आ मा
नह झाँक रही थी । आँख झपक रही थ । मािलक-मकान जैसे घबराहट म भागते समय
िखड़ कयाँ ब द करना भूल गया था । और िखड़ कयाँ हवा से खुल रही थ और ब द हो
रही थ । ब द हो रही थ और खुल रही थ । शीशे टू ट रहे थे । कवाड़ बरसात झेलते-
झेलते अधमुए हो गए थे ।
इ फ़न लास को देखकर काँप उठा ।
इन लड़क को या बतलाया जाए ? इनक समझ म यह बात कै से आएगी क दो
न दयाँ तीन नह हो जात –एक हो जाती ह । इन लड़क को यह कै से बतलाया जाए क
इितहास अलग-अलग बरस या ण का नाम नह है बि क इितहास नाम है समय क
आ मकथा का । पानीपत क लड़ाइयाँ, या ब सर क जंग या लासी का यु तो इस नदी
के बुलबुले ह ।...
मुसिलम राजपूत िडगरी कॉलेज !
लास म के वल मुसिलम राजपूत ही नह थे । शेख़, स यद, पठान सभी थे । कॉलेज म
िह दू, राजपूत, काय थ, भूिमहार, ठाकु र, अहीर, कु रमी सभी थे, पर तु इितहास के लास
म के वल एक िह दू लड़का था ।
एक दन औरं गज़ेब और िशवाजी मराठा क बात िनकल आई । इ फ़न का ख़याल यह
था क पृ वीराज चौहान और िशवाजी जैसे लोग रए शनरी थे य क वे िह दु तानी
नेशनिल म क धारा क राह म कावट डाल रहे थे ।
वह अके ला िह दू लड़का च बली संह खड़ा हो गया । और उसने गु गोलवलकर और
के .एम. मुंशी छाप इितहास का सबक़ फ़र-फ़र सुना डाला ।
"सर ! मुगल बादशाह ने भारत क ाचीन स यता को कया । मुसलमान स ाट
का युग भारतीय स यता का काला युग है । या ाचीन मि दर जैसी सु दर कोई एक
मसिजद बन सक ? इसी इं फ रआट का पले स के कारण औरं गज़ेब ने मि दर
िगरवाए..."
इ फ़न उस लड़के का मुँह देखता रह गया । पर तु वह इितहास का टीचर था । उसे
कु छ-न-कु छ तो कहना ही था ।
"जब अछू त के कान म िपघला आ सीसा डाला जा रहा था तो या ऊँची जात के
िह दू इं फ़ रआट का ले स म थे..."
पूरा घ टा इसी बहस म ख म हो गया । न च बली ने इ फ़न क बात मानी और न
इ फ़न ने च बली क । पर तु उस शाम को इ फ़न ब त उदास लौटा ।
" या बात है ?" उसक बीवी सक ना ने कया ।
उसने बात बता दी : "...और अगर लड़क के दमाग़ म यही बात भरी जाती रह तो
इस मु क का या बनेगा ? नई न ल तो हमारी न ल से भी यादा घाटे म है । हमारे पास
कोई वाब नह है । मगर इनके पास तो झूठे वाब ह । म िह ी पढ़ाता ँ । ऐसा लगता है
क िह दु तान क क़ मत म िह ी है ही नह । मुझे अं ेज़ क िलखी ई िह ी पढ़ाई
जा रही है । यही हाल पा क तान म होगा । वहाँ इसलामी छाप होगी तारीख़ पर ! पता
नह िह दु तानी िह ी कब िलखी जाएगी ।"
"म तो कहती ँ क पा क तान चले चिलए ।" सक ना ने कहा ।
"यह पढ़ाने के िलए क मुसलमान के आने से पहले िह दु तानी अनिसिवलाइ ड थे ?"
उसने इनकार म गरदन िहलाई । "नह ! दोन जगह पर धूल म र सी बटी जा रही है । म
पढ़ाने का काम ही छोड़ दूगँ ा ।"
पढ़ाने म उसे एक और क ठनाई भी हो रही थी । लड़के न अं ेज़ी समझते थे और न
उसक बोलचाल । वह पढ़ाता रहता और यह देखता रहता क उसक आवाज़ सपाट चेहर
से टकराकर वापस आ रही है ।
फर भी उसने य - य करके एक साल काट ही िलया । पर तु उसी साल मैने जंग
कमेटी के से े टरी के लड़के ने िह ी म एम.ए. कर िलया । उसके िलए एक जगह क
ज़ रत ई ।–तो शहर के िह दी समाचारप म यह िलखा जाने लगा क इ फ़न मुसिलम
लीगी है । औरं गज़ेब क तारीफ़ और िशवाजी क बुराई करता है ।
मैने जंग कमेटी ने उससे जवाब तलब कया । उ ह दन मुसिलम यूिनव सटी म एक
जगह िनकली थी । वह वह का ओ ड वाय था । ले िलया गया ।
और य सन् साठ म टोपी से उसक मुलाक़ात फर ई ।
आठ

टोपी और अलीगढ़ मुसिलम यूिनव सटी ! हो सकता है क आपम से ब त-से लोग को यह


बात आ य म डाल दे, य क हमने टोपी को जनसंघी बनने क हालत म देखा था । तो
वह अलीगढ़ या करने आया जो मुसिलम सा दाियकता का गढ़ है ?
म अगर के वल कथाकार होता तो इस का जवाब टाल जाता । पर तु म आपको एक
जीवनी सुना रहा ँ । टोपी अलीगढ़ के वल इसिलए आया क वह यह देख सके क
मुसलमान नौजवान कस तरह के वाब देखता है ।
देिखए बात यह है क पहले वाब के वल तीन तरह के होते थे–ब का वाब, जवान
का वाब और बूढ़ का वाब । फर वाब क इस फ़े ह र त म आज़ादी के वाब भी
शािमल हो गए । और फर वाब क दुिनया म बड़ा घपला आ । माता-िपता के वाब
बेटे-बे टय के वाब से टकराने लगे । िपताजी बेटे को डॉ टर बनाना चाहते ह, और बेटा
क युिन ट पाट का होल टाइमर बनकर बैठ जाता है । के वल यही घपला नह आ ।
बरसाती क ड़ क तरह भाँित-भाँित के वाब िनकल आए । लक के वाब । मज़दूर के
वाब । िमल-मािलक के वाब । फ़ म टार बनने के वाब । िह दी वाब । उदू वाब ।
िह दु तानी वाब । पा क तानी वाब । िह दू वाब । मुसलमान वाब । सारा देश
वाब क दलदल म फँ स गया । ब , नौजवान और बूढ़ के वाब वाब क ध मपेल
म िततर-िबतर हो गए । िह दू ब , िह दू बूढ़ और िह दू नौजवान के वाब मुसलमान
ब , मुसलमान बूढ़ और मुसलमान नौजवान के वाब से अलग हो गए । वाब
बंगाली, पंजाबी और उ र देशी हो गए ।
राजनीित वाल ने के वल यह देखा क एक दन िह दु तान से एक टु कड़ा अलग हो गया
और उसका नाम पा क तान पड़ गया । य द के वल इतना ही आ होता तो घबराने क
कोई बात न होती । पर तु वाब उलझ गए और सािह यकार के हाथ-पाँव कट गए । वाब
देखना ि , देश और उ का काम है । पर तु हमारे देश म आजकल ि वाब नह
देखता । जागते-जागते देश क आँख दुखने लगती ह–रही उ –तो वे वाब देखना भूल गई
ह।
आिख़र कोई कस बूते पर वाब देखे !
परतु ाइिसस यह है क कसी को वाब के इस ाइिसस का पता ही नह है य क
अपने ख़याल म सब कोई-न-कोई वाब देख रहे ह ।
इसिलए टोपी भी वाब देख रहा था । आ यह क एक कालरिशप का क़ सा था ।
टोपी भी उ मीदवार था । पर तु वह कालरिशप एक मुसलमान को िमल गया ! वह
मुसलमान लड़का कोई ब त क़ािबल-वािबल भी नह था । कालरिशप देनेवाल म उसका
कोई र तेदार भी नह था । पर तु उसके िपता के एक दो त (जो जनसंघी थे) कमेटी के
सदर थे । राजनीित अपनी जगह है, दो ती अपनी जगह । वह कालरिशप उस लड़के को
िमल गया । सात सौ बाईस िह दू लड़क को काटकर जब एक मुसलमान लड़के को
कालरिशप िमल गया तो टोपी को बड़ा ताव आया । चुनाँचे वह अलीगढ़ यूिनव सटी से
कोई कालरिशप पाने के िलए वाब देखने लगा ।
दूसरी तरफ़ उसक चेतना बार-बार यह करती रहती थी क पा क तान बन जाने
के बाद कसी मुसिलम यूिनव सटी क ज़ रत या है ?
और तीसरी बात यह थी क वह जानना चाहता था क िह दु तान का मुसलमान
नवयुवक कस कार सोचता है और कस रं ग के वाब देखता है ।
पर तु अलीगढ़ आकर वह ऐसे लोग म फँ स गया क उसका सारा ो ाम धरा रह गया
। सरदार जोगे संह । हािमद रज़वी । इक़ितदार आलम । के .पी. संह...िह दू, मुसलमान
और िसख लड़क का एक छोटा-सा िगरोह यूिनव सटी म एक और ही लड़ाई लड़ रहा था
।–ये एस.एफ. के लोग थे ।
मु ी बाबू ने चलते-चलते उसे होिशयार कर दया था क वहाँ मुसलमान से यादा
क युिन ट का डर है । पर तु वह अपने-आपको इन लोग से न बचा सका ।
वह उस इक़ितदार आलम का मुँह कै से ब द करता जो पा क तान का उतना ही बड़ा
िवरोधी था िजतना क खुद टोपी था । वह उस हािमद रज़वी को अपने पास से कै से हटा
देता िजसे कु छ मुसलमान लड़क ने इसिलए पीटा था क वह यह माँग कर रहा था क
मुशायरे के साथ किव-स मेलन भी होना चािहए और यूिनयन क तरफ़ से के वल ले चज
ऑन इसलाम क जगह तमाम धम पर ले चर कराना चािहए । मीलाद-ए-नबी के साथ-
साथ ज मा मी भी मनानी चािहए...
यही वे लोग थे जो यूिनयन के चुनाव म िह दू लड़क को खड़ा करते थे और उनके चुनाव
का काम करते थे, मार खाते थे, चुनाव हारते थे, पर तु िह मत नह हारते थे ।
"तुम य डरते हो ?" एक दन हािमद ने कहा । "तुम िमजा रटी क युिनटी के हो ?
चार करोड़ मुसलमान तीस करोड़ िह दु का या िबगाड़ सकते ह ?"
"चार करोड़ से भी कम थे साले जब उ ह ने मि दर तोड़कर मसिजद बनवा ली थ ।"
"िह दु ने तोड़ने य द ?" जोगे ने सवाल कया ।
"देखो शु ला," के .पी. बोला । "बात यह नह है । कल का िहसाब- कताब करने बैठ गए
तो सवेरा हो जाएगा । यहाँ चार करोड़ मुसलमान ह । और वह यह रहगे ।"
" य रहगे ?"
" य क हम यह के ह ।" इक़ितदार को गु सा आ गया । इक़ितदार को गु सा आता था
तो उसका सफ़े द रं ग गुलाबी हो जाता था । "इसी का नाम िह दू शावनइ म है । य रहगे
? यूँ पूछ रहे हो जैसे यह मु क तु हारे बाप का है !"
"वह तो है ।" टोपी ने कहा । "मेरे बाप का नह तो या तु हारे बाप का है । आ गए जने
कहाँ से बहे िबलाने और घर वाले हो गए ।"
"और तेरे बाप-दादा तो िसरफल के पेड़ क तरह यह उग आए थे !"
" लीज इक़ितदांर !" जोगे ने कहा ।
"नह याँ !" इक़ितदार ने उसका हाथ झटक दया । "इन िह दु का दमाग़ चल गया
है । िह ी पढ़ो, िह ी ? यहाँ सभी बाहर से आए ह..."
बात ब त बढ़ गई । टोपी खड़ा हो गया, मगर इक़ितदार बैठा ही रहा । और जब टोपी
बन-िबगड़ चुका तो वह िखलिखलाकर हँसने लगा ।
"चलो चाय िपलाओ और कां ेस वाल के िलए अपने बाप के नीले तेल क दो शीिशयाँ
मँगवा दो । उनक पॉिल ट स के रगप े लुजलुजा गए ह ।"
"अम यह तु हारे यहाँ दाढ़ी वाला कौन आ गया है ?" हािमद ने जोगे से पूछा ।
"िनकले जूिनयर ही ना ?" जोगे हँसा । "अरे भई यह वही जग़ाम साहब ह ।
बुलबुिलया के ज़माने म आ करते थे । मगर बाईगॉड या पीकर है ! सईद अ डा तो
कहा करता था क सुलतान याज़ी और मूिनस साहब से भी अ छा पीकर है ।"
"अम जाओ ।" के . पी. बोला । "कहाँ सुलतान याज़ी और मूिनस भाई और कहाँ यह
च घट ।"
"एम.ए. म टॉप कया था इ ह ने ।" जोगे बोला । "और डॉ टर ताराच द ने इनके
डेसटशन क इतनी तारीफ़ क क या कहा जाए !"
"मगर यह तो बड़ी थड रे ट हरकत है क एम.ए म टॉप करके दाढ़ी रख ली ।" इक़ितदार
ने कहा ।
"यह जरगाम साहब ह कहाँ के ?" टोपी ने पूछा ।
"जगाम नह , जग़ाम !" के . पी. बोला ।
"वाह !" जो, इक़ितदार और हािमद ने एक साथ नारा मारा । ग़ क िब दी खा जाने पर
जुमाना आ और के .पी. उदू ज़बान और अरबी श द को गाली देता आ सबको के फ़े डी
फूँ स तक ले गया ।
बग़ल वाली मेज़ पर बैठे ए लड़के कसी लड़क क बात कर रहे थे । और दूसरी तरफ़
कोई सीिनयर मु ला लड़क के एक गोल को चाय िपला रहा था । और क युिन ट के
इख़लाक़ पर तक़दीर कर रहा था ।
"... इस यूिनव सटी को िह दु का डर नह है । मगर क युिन ट का डर है । डॉ टर
ज़ा कर सैन ने पुरानी दु मनी िनकाली है । कोई िडपाटमे ट ऐसा नह िजसम क युिन ट
न घुस आए ह । खुदा क शान क मुसिलम यूिनव सटी क लड़ कयाँ नाचती ह और
कलचर के नाम पर ऐनटनी कु लोपे ा खेलती ह ।"
"यह बात तो िब कु ल ग़लत है ।" के .पी. ने कहा । "मुसलमान लड़ कय को लैला-मजनूँ
और शीर -फरहाद खेलना चािहए ।"
कई मेज़ के लड़के हँस पड़े । हँस पड़नेवाल म िह दू कम और मुसलमान यादा थे ।
"इस नीले तेल वाले रं ग ट को य िबगाड़ रहे हो पाटनर !" सीिनयर मु ला ने हा ।
के . पी. अव य जवाब देता पर तु उसी व त इ फ़न एक और ले चर के साथ आ गया ।
"साँलेक ।" के . पी. ने सलाम कया ।
"साँलेक !" इ फ़न ने जवाब दया । "किहए कौन कट रहा है ?"
"के .पी. कट रहे ह साहब ।" 'जो' ने कहा । "आइए ।"
दोन ले चरर वह बैठ गए ।
"सुना क आपका ामा बड़ा शानदार आ ।" इ फ़न ने के .पी. से कहा । "म तो उसी
दन द ली चला गया था । बड़ा अफसोस आ । यह कौन साहब ह ?" उसने टोपी क
तरफ़ इशारा कया ।
"भाई अपना नाम ले डालो ।" भाई खाँ ने कहा । "इनका नाम ज़रा रा ीय भाषा म हो
गया है साहब ।" इ फ़न मुसकरा दया ।
"बलभ नारायण शु ला ।"
इ फ़न च क पड़ा ।
"कहाँ से आए ?"
"बनारस से ।"
"अरे तुम डॉ टर िभरगूनरायन साहब के लड़के तो नह हो ?"
"जी हाँ ।"
"तु हारी दादी ने तु ह उदू सीखने के िलए यहाँ तक भेज दया ?"
"इ फ़न !" टोपी क आँख चमक । "इ तूँ दाढ़ी कब रख िलयो ?"
"यह मेरे बचपन का दो त है ।" इ फ़न ने के .पी. वग़ैरा से कहा । "इसका छोटा भाई
होनेवाला था और नौकरानी ने पूछा क भाई चाहते हो या बहन ? तो इ ह ने पूछा,
साइ कल नह हो सकती ।"
इतने ज़ोर का क़हक़हा पड़ा क 'के फ़े डी फ़ूँ स' क छत िहल गई और एक मेज़ पर बैठी
श र के दाने चुनती ई िचिड़या घबराकर उड़ गई ।
"साहब, हम इ ह इतने गज़ब का नह समझते थे ।" इक़ितदार ने कहा ।
"जभी तो िह दी म एम.ए. करने बनारस को छोड़कर अलीगढ़ आए ह ।" के .पी. ने टु कड़ा
लगाया ।
"तो िमयाँ लोग का छु आ खाने लगे तुम ?" इ फ़न ने पूछा । "और तु हारी वह
ज़बरद त चु टया या ई ?"
"तु हारी दाढ़ी के काम आ गई ।" टोपी ने जलकर कहा । कोई नह हँसा । इ फ़न
मुसकरा दया ।
"खा-पी चुके हो तो हमारे साथ आओ ।" इ फ़न खड़ा हो गया ।
"साहब, वह चाय आ रही है ।" के .पी. बोला ।
"इक़ितदार पी लगे ।"
"साहब वह िबल भी आ रहा है ।" के .पी. ने कहा ।
"वह नह आएगा ।"
इ फ़न िबल अदा करता आ टोपी को लेकर चला गया ।
दोन ब त खुश थे । पर तु दोन यह राज़ िछपाए ए थे । दोन याद को खँगाल रहे थे
। पर तु कसी के पास कहनेवाली कोई बात नह थी ।
बात यह है क दोन िह दु तान क आज़ादी से पहले िबछु ड़े थे ।
"तु हारी दादी तो िह दी के रा भाषा हो जाने से ब त ख़फ़ा ह गी !"
"वह मर ग ।"
"अरे ?"
"अरे या ? कब तक िज दा रहती ?"
"आिख़र वह तु हारी दादी थ ।"
"मेरी दादी तो उस दन मर गई थी िजस दन हम पंचम क दूकान से के ला ख़रीद रहे थे
। मने दादी बदल ली थी । अ बू कै से ह ?"
"उनका इि तक़ाल हो गया ।"
"बाजी ?" टोपी ने 'अरे ' नह कहा, बि क दूसरा सवाल कया ।
"बाजी पा क तान चली ग ।"
"मु ा ?" टोपी इस जवाब पर भी नह च का ।
"मु ा यह है । मु ी भी यह है ।"
बात समा हो ग । दोन चुप हो गए । दोन उदास हो गए । दोन के बीच म कोई
अनदेखी दीवार थी । दल के धड़कने क आवाज़ इधर से उधर नह जा पा रही थी ।
" या पा क तान के िबना काम नह चल सकता था ?" टोपी ने उस दीवार पर पहला
कु दाल मारा ।
"पता नह ।" इ फ़न ने कहा ।
"और अब म पा क तान को गाली भी नह दे सकता ।"
" य ?"
"बाजी जो वहाँ चली गई ह । या करता है उनका पित ?"
"पा क तान क एअरफ़ोस म लाइट लेि टने ट ह ।" इ फ़न ने कहा । "अ बू बीमार थे
तो बेचार को आने क इजाज़त भी न िमली । बाजी भी नह आ पा ।"
"तुम य नह गए ?"
"म अपने-आपको यह यक़ न दलाने के िलए नह गया क म िह दु से डरता ँ । "
"िह दु ने तु हारा या िबगाड़ा है ? या जीजा को िह दु ने नह आने दया ?"
"यह बात नह है ।"
" फ़र या बात है ।"
" फ़र नह फर ।" इ फ़न ने दाँत पीसकर कहा । टोपी िखलिखलाकर हँस पड़ा । कई
दीवार िगर गई । कई डर ख़ म हो गए । कई कार के अके लेपन दूर हो गए ।
"श द-सुधार-योजना अब तक चली जा रही है ।" टोपी ने कहा । "यार भाई वह भी या
दन थे !"
"हाँ ।"
दोन उदास हो गए । इ फ़न िह दु से डरता था और इसिलए उनसे नफ़रत करता था
। टोपी को भारत क ाचीन सं कृ ित से यार हो गया था, इसिलए वह मुसलमान से
नफ़रत करता था–पर तु दोन उदास हो गए । नफ़रत क दीवार पर चढ़कर पुरानी दो ती
ने जो झाँकना शु कया तो दोन उदास हो गए । पल-भर म बीते ए दन दोबारा गुज़रे
। सारी बात, सारी याद, सारे नारे ...दोन ने अपनी बरस क या ा फर क और यह
देखकर दोन उदास हो गए क घाटे म वे दोन ही रहे । िहपोक़े सी के जंगल म दो
परछाइय ने अपने-आपको अके ला पाया तो दोन िलपट ग ।
"यह तु हारी युिनवसटी अपने प ले नह पड़ी ।"
"अब देखो मेरी बीवी तु हारे प ले पड़ती है या नह ।"
इ फ़न का ांइग- म बड़ा सादा-सूदा था । दीवार नंगी थ । नक़ली आितशदान के
ऊपर शंकर का एक ब ट रखा आ था । और उस ब ट के पास िन कल कए ए े म म
दो तसवीर थ । एक इ फ़न क दादी क और एक इ फ़न के अ बू क ।
"शंकरजी क भोला समझकर फँ सा रहे हो ?"
"गोमती गंगा म िमलती है ना ।" इ फ़न मुसकराया । "मुझे िह दु से नफ़रत है,
ले कन शंकर से म यार करता ,ँ य क यह िबलकु ल आदमी के नाप के ह । बेवक़ू फ ।
कोई पूछे क भई समु दर मथने म तुम भी शािमल थे । फर ज़हर अके ले ही य पी गए?
अमृत पीनेवाल को ज़रा-ज़रा ज़हर भी चटा दया होता । मगर ज़हर शायद अके ले ही
पीना पड़ता है । आदमी और देवता म यही फ़क़ है शायद । ज़हर अके ले िशव पीते ह । ज़हर
अके ला सुक़रात पीता है । सलीब पर अके ले ईसा चढ़ते ह । दुिनया यागकर एक अके ला
राजकु मार िनकलता है । इ तहान के व त भीड़ नह लगती । बस हद-से-हद करबला म
स र-बह र आदमी इक ा हो जाते ह । आदमी सदा से इतना अके ला य है बलभ ?"
" य क यह उसके खाने का व त है ।" सक ना ने कमरे म आकर कहा ।
"यह मेरी बीवी सक ना है ।"
"यह अ दाजा तो मने भी लगा िलया था ।"
"इसक ज़बान पर हँसना मत ।" इ फ़न ने कहा, "इसके घर म उदू बोली जाती है । यह
दादी क िज़द म गँवार बन गया है ।"
"भाबी, यह बात नह है ।"
" फर या बात है ?"
सक ना ने कहा । उसक आँख म शरारत क क दील जल ग ।
"यह दो त मेरे बचपन के दो त बलभ नारायण शु ला ह ।"
"कोई आसान नाम नह रख सकते आप ?" सक ना ने सवाल कया ।
"यह एक बड़ा ही ख़ानदानी क़ म का ठे ठ िह दू है । िमयाँ लोग के हाथ का छु आ नह
खाता । या अब खाने लगे हो ?" इ फ़न ने टोपी शु ला से सवाल कया ।
"यह अ छी ख़बर है ।" सक ना ने कहा । "गँवार के खाने लायक़ कोई चीज़ इस व त
थी भी नह ।"
टोपी को यह बात बुरी लगी । इसिलए उसने सक ना क िज़द म खा लेने का फ़ै सला कर
िलया ।
उस दन उसने पहली बार कसी मुसलमान के घर खाना खाया । अलीगढ़ आकर थाली
क आदत तो छू ट गई थी । फर भी िजस ड ग से इ फ़न सालन िनकाल रहा था । उसी
ड गे से उसे अपने िलए सालन िनकालना अजीब लगा । िजस चमचे से सक ना दाल
िनकाल रहा थी उसी चमचे से अपने िलए दाल िनकालना आसान नह था । कई बार
उसका हाथ िहला और मेज़पोश पर कई बार दाल और सालन टपका । पर तु वह िह मत
नह हारा । दाल का मज़ा भी कु छ नया था । लहसुन से बघारी ई अरहर क दाल उसने
पहली बार खाई, य क उसके घर म लहसुन- याज का तो गुज़र नह था । उसके यहाँ तो
पतली दाल म क ा घी डाल जाता था । उस मज़े का भी जवाब नह था, पर तु सक ना क
बघारी ई दाल का मज़ा भी अपनी जगह था ।
"अब कभी न किहएगा खाने को ।" टोपी ने खाने के बाद कहा ।
" य ?" सक ना क खूबसूरत भव तन ग ।
"अरे भई इ ह समझाओ ।" टोपी ने इ फ़न से कहा, "म ब त गाढ़ा िह दू ँ ।"
"म भी ब त गाढ़ी मुसलमान ँ ।" सक ना ने कहा, "तु हारे जाने के बाद इन बरतन
को खूब धुलवाऊँगी ।"
"जो म न खाता तो या बरतन न धुलते ?" टोपी ने पूछा, "यही तो ग दापन है
मुसलमान का ।"
सक ना दाँत पीसकर रह गई ।
यूँ सक ना से टोपी क पहली मुलाक़ात खाने क मेज़ पर ई और पहली ही मुलाक़ात म
दोन लड़ पड़े ।
नौ

अभी सक ना के बारे म आपको के वल यह पता चला है क वह इ फ़न क बीवी थी । पर तु


वह इ फ़न क बीवी पैदा ही नह ई थी ।
सक ना एक खाते-पीते मुसलमान घराने क इकलौती लड़क थी । इकलौती यूँ क तीन
भाइय के बीच वह अके ली बहन थी । पर तु यह पा क तान बनने से पहले क बात है,
य क पा क तान बनने के बाद भाई भी इकलौता ही हो गया ।
स यद आिबद रज़ा छपरा के िस वक ल और ख़ानदानी आदमी थे । नक़वी स यद थे
। उनका स यदपन नए छपे ए नोट क तरह करारा था । वह दौलत से यादा ह ी के
क़ायल थे ।
स यद आिबद रज़ा एक ख़ानदानी कां ेसी थे । कां ेस म यह उनक तीसरी पु त थी ।
उनके िपता ा त कमेटी के सदर रह चुके थे । कई बार जेल भी जा चुके थे । वह खुद भी
िज़ला कमेटी के से े टरी थे और कु ल िमलाकर नौ साल आठ महीने बारह दन जेल म रह
चुके थे । उ ह ने कभी खादी के िसवा कु छ और पहना ही नह । खादी भी वह िनहायत
खुरदरी वाली पहनते थे । अब यह बताने क तो कोई ज़ रत रह नह जाती क वे
मुसिलम लीग क राजनीित के घोर िवरोधी थे । उनके चार ब े (सक ना और उसके तीन
बड़े भाई) उ ह क आ मा के तीन टु कड़े थे । तीन ही पा क तान के िवरोधी थे । तीन ने
अलीगढ़ म पढ़ा । क युिन ट कहे गए । बार-बार मुसिलम टू ड स फ़े डरे शन और
मुसलमान दादा ने उ ह पीटा । पर तु वे पा क तान का िवरोध ही करते रहे । ले कन
जब पी.सी. जोशी क क युिन ट पाट ने सन् पतालीस म मुसिलम लीग का साथ देने का
फ़ै सला कया तो तीन भाइय का दल ख ा हो गया ।
बड़े भाई ने कहा भी क अगर मुसलमान क नुमायंदगी लीग करती है तो सीधे
पा क तान िज़ दाबाद का नारा लगाना चािहए । यह नारा कामरे स आपको मुबारक
हो...
उसका दल इतना ख ा आ क वह राजनीित ही से अलग हो गया और अपने िपता के
साथ वकालत करने लगा ।
पतालीस के चुनाव म आिबद रज़ा कां ेस के टकट पर खड़े ए । उनक जमानत ज़ त
हो गई । उनक ज़मानत का ज़ त हो जाना कोई साधारण घटना नह थी । वह मुसलमान
म भी ब त चाहे जाते थे । पर तु उन दन मुसलमान को यह फ़ै सला करना था क
पा क तान बनेगा या नह । आम मुसलमान को यह ख़बर नह थी क पा क तान बना
भी तो छपरा म नह बनेगा । उ ह यह भी पता नह था क य द उ ह ने पा क तान जाना
चाहा तो उ ह अपने छपरा को तोड़ना पड़ेगा । स दय पुराने घर , स दय पुराने मह ल ,
स दय पुरानी सड़क और गिलय और स दय पुराने खेत-खिलयान को छोड़ना पड़ेगा ।
य द उ ह यह मालूम होता तो शायद स यद आिबद रज़ा क ज़मानत ज़ त न ई होती ।
तब शायद स यद आिबद को जूत का हार न पहनाया गया होता । तब शायद उ ह
िह दु का गुलाम न कहा गया होता :
" या आप उस स यद आिबद रज़ा को वोट दगे जो होली खेलता है ? या आप उस
स यद आिबद रज़ा को वोट दगे िजसक बेटी हर साल नामहरम िह दु को राखी बाँधती
है ? अगर आपक इसलामी ग़ोरत मर गई है तो आप ऐसा ज़ र क िजए । मगर याद
रिखए क क़यामत के दन आप आँ हज़त (पैग़ बर) को या मुँह दखाएँगे ! म मानता ँ
क स यद आिबद रज़ा एक पढ़ा-िलखा आदमी है । म यह भी मानता ँ क पहलवान
अ दुल ग़फू र साहब एक मद-जािहल ह । मगर म यह भी जानता ँ क आँ हज़त ने अरब के
पढ़े-िलख को छोड़ कर अनपढ़ िबलाले-हबशी रज़ी अ लाह ताला अनहो1 को अपनी
मसिजद का मोवि ज़न बनाया था । आप कसका साथ दगे ? िबलाल क िजहालत का या
अबू जेहल2 के इ म का ?...."
अलीगढ़ के एक नौजवान ने जो यह सवाल कया तो छपरा के मुसलमान क़ायल हो गए
और उ ह ने पहलवान अ दुल ग़फ़ू र को अस बली का 'मोवि ज़न' बनाने का फ़ै सला कर
िलया । तब भी स यद आिबद रज़ा ने उ ह समझाया :
"म जानता ँ क आप पहलवान को वोट देने जा रहे ह । ले कन म एक उसूल के िलए
लड़ रहा .ँ .." यहाँ पहला जूता आया । "शु या । म यह अज़ कर रहा था क मुसिलम
लीग एक धोखा है..."
"िह दू कु ा हाय-हाय !" मजमे ने जवाब दया ।
"म पैग़ बर नह ँ ।" आिबद रज़ा ने कहा, "लोग ने तो उन पर भी कू ड़ा फका है..."
"तू अपने को आँ हज़त से िमलाता है ।" एक नौजवान जोश म खड़ा हो गया । जमीअत
और कां ेस के लोग कमज़ोर पड़े । और जब स यद आिबद रज़ा क आँख खुल तो वह
अ पताल म थे ।
सक ना ने उस दन िज ा साहब को जी भर के गािलयाँ द ।
जब वह अपने बाप स यद आिबद रज़ा और अपने दो भाइय क लाश के पास प च ँ ी
तो उसे वे तमाम गािलयाँ एक-एक करके याद आ ग । वह चुनाव के दन क तक़रीर क
आवाज़ फर सुनने लगी । जान आब , जान आब ...
महेश ने स यद आिबद रज़ा से ब त कहा क बलव के दन ह, वह उनके घर आ जाएँ ।
यहाँ सभी कु छ हो सकता है । महेश को सक ना राखी बाँधती थी और महेश के िपता
स यद साहब के गहरे दो त म थे ।
" या मने मुसिलम लीग क मुख़ािलफ़त इसीिलए क थी क जब िह दु तान आज़ाद हो
तो म पनाह लेने के िलए तु हारे घर आऊँ ?" स यद साहब ने सवाल कया ।
"चाचाजी, ये बहस तो फर भी हो सकती ह ।" महेश ने कहा ।
"नह बेटे ! इस बहस का सही व त यही है ।"
"कम-से-कम सक ना को यहाँ से हटा दीिजए ।"
पर तु स यद आिबद रज़ा इस पर भी तैयार नह ए । कु छ ही दन पहले तो उ ह ने
सक ना का याह कया था । वह अब इ फ़न क अमानत थी ।
"मने वहाँ िलख दया है क कोई आकर सक ना को ले जाए । लखनऊ म बलवे नह हो
सकते ह ।"
मगर तीन बेट ने िज़द क और सक ना महेश के घर भेज दी गई । सक ना को
प चँ ाकर महेश वापस आ रहा था क रा ते म मार डाला गया । मीर साहब को महेश के
मारे जाने क ख़बर नह िमली । मगर उ ह और लोग के मरने क ख़बर िमलती रह ।
शहर क हालत ब त ख़राब हो चुक थी । हर आदमी अके ला हो गया था । जानी-
पहचानी गिलयाँ साँप बनकर रग रही थ , फन काढ़े पैर क चाप क राह देख रही थ ।
पैर क चाप क आवाज़ बदल गई थी । मे हती ई आवाज तो आती ही नह थी । हर
आदमी तेज़-तेज़ चल रहा था । हर क धे और पीठ पर आँख उग आई थ । परछाइयाँ
िह दू-मुसलमान बन गई थ और आदमी अपनी ही परछाइय से डरकर भाग रहा था । टू टे
ए वाब के रे ज़े शीशे क क चय क तरह तलव म चुभ रहे थे । पर तु वह दद से चीख़
नह सकता था । वह डरता था क कह कोई चीख़ क आवाज़ न सुन ले–कह कसी को
पता न चल जाए क वह कस गली म िछपा आ है !
आदमी ।
मनु य ।
दोन श द का अथ एक ही है । इन श द क आवाज़ एक-दूसरे से फर भी टकरा रही
थ । महेश मनु य था । उसे आदिमय ने मार डाला । स यद आिबद रज़ा आदमी थे । उ ह
मनु य ने मार डाला ।
तीसरा लड़का द ली म था । दोन लड़क ने स यद आिबद रज़ा को ब त समझाया क
यह घर से िनकलने के दन नह ह । पर तु स यद आिबद रज़ा ने कहा :
"यही तो घर से िनकलने के दन ह बेटे !"
"अ बा, आप समझते य नह ?" बड़ा बेटा झ ला गया ।
"तुम नह समझ रहे हो बेटा !" स यद आिबद रज़ा ने कहा । " या मने जेल म इसी दन
का इ तज़ार कया था ? तुम लोग िसफ़ मारे जा सकते हो । ले कन िह दु तान और
पा क तान क बि तय म मेरी ह नंगी क जा रही है । मेरे वाब के साथ िज़ना कया
जा रहा है । जूत का हार तुमने नह पहना था । और िज ह ने मुझे जूत का हार पहनाया
था वे अजनबी नह थे । तो या वही ठीक कह रहे थे ? इस सवाल का जवाब जानना
ज़ री है । और इस सवाल का जवाब जानने के िलए घर से िनकलना ही पड़ेगा ।"
तो वह घर से िनकले । वही ल बी अचकन । वही काली ईरानी टोपी । दािहनी तरफ़
बड़ा बेटा । बा तरफ़ छोटा बेटा । बाबू गौरीशंकर ने उ ह अपने घर क िखड़क से देखा ।
"स यद साहब !" वह चीख़े ।
सामने से एक जुलूस-सा आ रहा था । गौरीशंकर बाबू ब दूक लेकर लपके । पर तु उनके
प च ँ ने से पहले खेल ख़ म हो चुका था । स यद आिबद रज़ा क ईरानी टोपी लुढ़ककर
नाली म जा पड़ी थी ।
"तुम इ ह जानते हो ?" गौरीशंकर बाबू ने एक नौजवान को झंझोड़कर सवाल कया ।
"यह स यद आिबद रज़ा ह ।"
गौरीशंकर बाबू का ख़याल था क यह नाम कोई जादू कर देगा और टोपी नाली से
उड़कर स यद साहब के िसर पर आ जाएगी और वह मुसकराते ए उठ पड़गे । पर तु यह
नह आ । टोपी वह रही, नाली म ।
"तुम तो ऐसे कह रहे हो क यह आिबद रज़ा ह जैसे यह कोई देवता ह ।"
"नह , देवता तो तुम हो ।"
बाबू गौरीशंकर िसर झुकाए ए अपने घर म चले गए । िजस नौजवान को उ ह ने
झंझोड़ा था वह मह ले ही का था ।
पर तु यह ख़बर जंगल क आग क तरह फै ली क आिबद रज़ा मारे गए । छपरा स ाटे
म आ गया । बलवा क गया । आिबद रज़ा के सवाल का जवाब यही था । आिबद रज़ा के
सवाल का जवाब यह भी था क गौरीशंकर बाबू ने उस नौजवान के िख़लाफ़ गवाही दी ।
आिबद रज़ा के सवाल का जवाब महेश क लाश थी ।
पर तु सक ना को के वल वे गािलयाँ याद आ रही थ जो उसने पा क तान को दी थ ।
दूसरे साल उसने महेश के भाई रमेश को राखी नह बाँधी । उसने राखी ख़रीदी । पर तु
राखी से एक ईरानी टोपी झाँकने लगी । राखी को नाली म फककर वह अपने उस भाई को
ख़त िलखने बैठ गई जो द ली ही से पा क तान चला गया था ।
...म रमेश भ या को राखी य बाँधूँ ? या क ँ इ फ़न पा क तान आने पर राज़ी ही
नह होते ? मुझे तो इस मु क से नफ़रत हो गई है ।...
नफ़रत !
यह श द कै सा अजीब है ! नफ़रत ! यह एक अके ला श द रा ीय आ दोलन का फल है ।
बंगाल, पंजाब और उ र देश के इ कलािबय क लाश क क़ मत के वल एक श द है–
नफ़रत !
नफ़रत !
शक !
डर !
इ ह तीन ड िगय पर हम नदी पार कर रहे ह । यही तीन श द बोए और काटे जा रहे
ह । यही श द धूल बनकर माँ क छाितय से ब के हलक़ म उतर रहे ह । दल के
ब द कवाड़ क दराज़ म यही तीन श द झाँक रहे ह । आवारा ह क तरह ये तीन
श द आँगन पर मँडरा रहे ह । चमगादड़ क तरह पर फड़फड़ा रहे ह और रात के स ाटे
म उ लु क तरह बोल रहे ह । काली िब ली क तरह रा ता काट रहे ह । कु टिनय क
तरह लगाई-बुझाई कर रहे ह और गु ड क तरह वाब क कुँ आ रय को छेड़ रहे ह और
भरे रा त से उ ह उठाए िलए जा रहे ह ।
तीन श द ! नफ़रत, शक, डर । तीन रा स ।
"म हर िह दू से नफ़रत करती ँ ।" सक ना ने कहा ।
"ब त अ छा करती हो ।" टोपी ने कहा । "भाई मुझ पर और तुम पर अब शक नह कर
सकते । वैसे म भी मुसलमान से कोई खास यार नह करता ।"
"तो यहाँ य आते हो ?"
"यह तो मेरे एक दो त का घर है ।"
दो त !
तो यह श द अभी तक जी रहा है !

1. रसूल क मि जद म अज़ान दया करते थे । हबश के थे ।


2. अरब का एक कालर । मुसलमान नह आ तो मुसलमान उसे 'अबू जेहल' कहने लगे ।
दस

टोपी दूसरा लड़का था । वह डाँट सुनने, मु ी बाबू क उतरन पहनने और भैरव क िज़द
पर चुप रहने का आदी हो चुका था । अलीगढ़ म उसे कोई डाँटनेवाला नह था । वह या
करे और या न करे , यह बतानेवाला भी कोई नह था । इसीिलए कई लोग , और फर
ब त-से लोग से दो ती हो जाने के बाद भी वह अपने-आपको अके ला ही पाता रहा । यह
हालत ब त संगीन थी ।
यही कारण है क जब इ फ़न से मुलाक़ात ई तो वह जी उठा । और जब पहली ही
मुलाक़ात म सक ना ने उसे डाँट िपला दी तो दो बरस क यास बुझ गई । वह अपना सारा
समय इ फ़न ही के घर गुज़ारने लगा । इ फ़न होता या न होता, वह आ जाता । इ फ़न
क कताब उलटता-पलटता, सक ना क डाँट सुनता । पाँच बरस क शबनम को िह दी
पढ़ाने क कोिशश करता और इस पर सक ना क डाँट सुनता ।...
इ फ़न के यहाँ उसका आना-आना इतना बढ़ा क शमशाद माकट, टाफ़ लब और
'के फ़े डी फूँ स' और 'के फ़े डी अलफ़ लैला' म इसक बात होने लग ।
यूिनव सटी एक छोटी-सी ब ती है । शहर से अलग-थलग । यूिनव सटी म ब त-से लोग
यह तक भूल जाते ह क मुसलमान का ब मत पा क तान म है । कठपुले के पार
िह दु तान है । कठपुले के इधर यूिनव सटी । इसिलए लोग एक-दूसरे क टोह म लगे रहते
ह । कसक बीवी कसे देखकर मुसकराती है ! कौन लड़का आजकल कस- कस लड़क पर
आिशक है और कस- कस पर आिशक़ होनेवाला है ।...
से स !
ेशन !
फै िन टिस म !
"मौलाना मुह मद अली इस कमरे म रहते थे ।"
"हसरतज मोहानी, िलआकत अली, सदर अ यूब, लाला अमरनाथ, ग़ौस मुह मद,
शकू र, तलअत महमूद– कसने यहाँ नह पढ़ा साहब !"
"अलीगढ़ यूिनव सटी एक कलचर का नाम है ।"
"मजाज़ ने भी या ऐश कए ह गे साहब !"
"िजसने यहाँ नह पढ़ा वह गँवार है ।"
"यहाँ तो बेहारी भी आदमी हो जाते ह ।"
"नरिगस साली को देिखए । राजकपूर से छू टी तो सुनीलद से अटक गई ।"
"टोपी ने भी या हाथ मारा है !"
" या दन आ गए ह क मुसलमान लड़ कयाँ िह दु से दनादन याह कर रही ह !"
"बक़ िगरती है तो बेचारे मुसलमान पर ।"
"टोपी से अ छा तो कोई भी हो सकता है भई । चलो अज़ान हो गई ।"
इ फ़न ने सुनी-अनसुनी कर दी । सक ना टोपी को लेकर िप चर जाने लगी, पर तु टोपी
स ाटे म आ गया और एक दन जब उससे रहा न गया तो बोला :
"भाई, यह हमारी यूिनव सटी तो बड़ी ही घ टया जगह िनकली ।"
" य ?"
"म अब यहाँ नह आया क ँ गा ।"
" य ? या तुम सक ना से फँ स गए हो ?"
"यही कालीचरन तो रह गया है मेरे िलए ।" सक ना बोली ।
"अंकल टोपी आप..." शबनम बोली ।
"ख़बरदार जो फर मुझे टोपी कहा !"
"टोपी, खुदा के वा ते मेरी ब ी क ज़बान ख़राब न करो ।" सक ना ने िघिघयाकर कहा

"तु हारे खुदा के िलए म कोई काम य क ँ ?" टोपी ने कया । "अरे , उ ह तो मने
पा क तान भेज दया है ।"
"अंकल टोपी िह दू ह ।" शबनम ने ताली बजाकर यूँ कहा जैसे िह दू होना कोई बेवक़ू फ
हो ।
"तु ह कसने बताया ?"
"आज कू ल म मेरी एक ड कह रही थी क अ मी टोपी से फँ स गई ह । और टोपी
अंकल िह दू ह ।" शबनम ने ताली बजाई । "आप िह दू ह ।" उसने फर गाली दी ।
कमरे म स ाटा छा गया । टोपी का मुँह ग़ से से लाल हो गया । इ फ़न उदास हो गया ।
सक ना हँस पड़ी :
"यहाँ वाल को तो बदनाम करना भी नह आता ।" उसने कहा । "यह सुनकर इस टोपी
का दमाग़ चल जाएगा । कसी लड़क से इ क़ का इज़हार कर देगा और जूितयाँ खाएगा
।"
"आज राखी का योहार है । तुम मुझे राखी य नह बाँध देत ?"
राखी !
महेश ! रमेश !
राखी !
"म िह दु को राखी नह बाँधती ।"
" ीमती जगाम, राखी िह दु ही के बाँधी जाती है ।"
"मेरे िमयाँ का नाम िबगाड़ोगे तो मार डालूँगी ।"
"अंकल िह दू ह ।" शबनम ने अपनी गुिड़या के कान म कहा ।
"पर तु..."
"रहने दो अपना अरनतू परनतू ।" सक ना िबगड़ गई । " या इसिलए राखी बाँध दूँ क
यहाँ के कलिज भे मुझे तु हारे साथ बदनाम कर रहे ह ? म हर साल एक राखी खरीदकर
नाली म फक देती ँ ।"
"और यह भूल जाती हो क महेश ने तु हारी िहफ़ाजत क । और रमेश सफ़र करके
राखी बँधवाने आता रहा ।" इ फ़न ने कहा ।
"हाँ । मगर म यह नह भूल सकती क अ बा क ईरानी टोपी नाली म फं क गई थी ।"
"अरे तो या मने फक थी तु हारे अ बा क टोपी नाली म ?" टोपी उखड़ गया ।
"चुप । तू भी िह दू है ।"
"अरे , तो तुम मुझे नाली म फ़क दो । म भी टोपी ँ । बात बराबर हो जाएगी ।"
सक ना वहाँ से उठ गई । इ फ़न यूँ ही एक कताब उलटने-पलटने लगा । टोपी ल बे-
ल बे साँस लेने लगा । ये मुसलमान इस क़ािबल ही नह ह क कोई इ ह मुँह लगाए ।
"भाई तुम अपनी इस बीवी को लेकर पा क तान चले जाओ ।"
इ फ़न ने कोई जवाब नह दया । वह यह सोच रहा था क अगर टोपी क जगह कोई
मुसलमान रहा होता तो शायद लोग इतना बुरा न मानते ।
फर वही िह दू !
या यह श द यूँ ही पीछा करता रहेगा ? टोपी, तुम िह दू य हो–या फर म
मुसलमान य ँ ? य ? यह भी कतना अजीब श द है । मनु य को जवाब देने पर
मजबूर कर देता है । पर तु अगर कसी के पास जवाब ही न हो तो ? तो वह या करे
आिख़र ?
इ फ़न ने कताब फक दी ।
"तुम मुसलमान से नफ़रत करते हो । सक ना िह दु से िघन खाती है । म...म डरता ँ
शायद । हमारा अंजाम या होगा बलभ ? मेरे दल का डर, तु हारे और सक ना के दल
क नफ़रत–ये या इतनी अटल स ाइयाँ ह क बदल ही नह सकत ? िह ी का टीचर
कल या पढ़ाएगा ? वह इस सूरते-हाल को कै से ए स लेन करे गा क म तुमसे डरता था
और तुम मुझसे नफ़रत करते थे । फर भी हम दो त थे । म तु ह मार य नह डालता ?
तुम मुझे क़ ल य नह कर देते ? कौन हमारे हाथ थाम रहा है ? म िह ी नह पढ़ा
सकता । म रज़ाइन कर दूग ँ ा ।"
"यह कोई ब त अकलम दी क बात नह करोगे ।"
"मगर..."
"भाई !" टोपी ने उसे टोक दया । "अकलम दी कहने पर तुमने मुझे टोका य नह ?"
इ फ़न मुसकरा दया ।
दोन चुप हो गए । कु छ कहने-सुनने क ज़ रत ही नह थी । इ फ़न पहली बार अपने
डर पर शक कर रहा था । और टोपी पहली बार अपनी नफ़रत पर झुँझला रहा था । दो ती
झूठी है या डर ? दो ती झूठी है या नफ़रत ?...
"ले कन फर मुसलमान को नौक रयाँ य नह िमलत ?" इ फ़न ने यूँ सवाल कया
जैसे वे देर से िह दू-मुसलमान सम या पर बहस करते रहे ह ।
" य क उनके दल म चोर है ।" टोपी ने कहा ।
" या चोर है ?"
"यह चोर है क चूँ क उ ह ने पा क तान बनवा िलया है इसिलए भारत पर उनका या
हक़ रह गया है । भाई हर मुसलमान के दल म पा क तान क ओर एक िखड़क खुली ई
है ।"
" फर म पा क तान य नह गया ?"
टोपी के पास इस सवाल का कोई जवाब नह था । हाँ, फर यह इ फ़न पा क तान य
नह गया ? चार-साढ़े चार करोड़ मुसलमान यहाँ या कर रहे ह ? मेरे पड़ोसी कबीर
अहमद ने नया घर य बनवाया है ?...
"पर तु मुसलमान पा क तान क हॉक टीम के जीतने क खुशी य मनाते ह ?"
"यह सवाल यूँ भी कया जा सकता है क िह दु तान क हॉक टीम म मुसलमान य
नह होते ? या मुसलमान हॉक खेलना भूल गए ह ?"
"नह । पर तु इसका डर लगा रहता है क वह पा क तान से िमल जाएँगे ।"
डर !
तो यह डर दोन तरफ़ है । उदासी और गहरी हो गई । अँधेरा और बढ़ गया । यह डर
आिखर कहाँ-कहाँ है ! इस डर से िप ड छू टने क कोई श ल है या नह ...
"ले कन मुसलमान यह कै से सािबत कर क वे पा क तान से नह िमलगे अगर उ ह
पा क तान के िख़लाफ़ खेलाया ही नह जाएगा ?"
"मुसलमान क वफ़ादारी देखने के िलए हम अपना गो ड मेिडल तो नह खो सकते ना
?"
"मगर फर दूसरी श ल या है ?"
"फ़रज़ करो क हॉक नह यु हो रहा है । य द हम मुसलमान क वफ़ादारी देखने के
िलए उ ह फौज़ म ल और वे पा क तान से िमल जाएँ तो यह इ तहान कसे महँगा पड़ेगा
?"
इस लॉिजक ने टोपी का जी खुश कर दया । यह शक ही ठीक है । यह नफ़रत ही ठीक है
। अिधक-से-अिधक यही होता है न क बलवे होते रहते ह । सौ-दो सौ आदमी मारे जाते ह
।...
"सौ-दो सौ आदिमय क जान बचाने के िलए हम अपनी इं िडपडस को ख़तरे म नह
डाल सकते ।"
"तो ?"
"तो या ? या मने मुसलमान का ठीका िलया है ?"
टोपी पर झ लाहट सवार हो गई । वह इ फ़न पर झ ला रहा था क अगर वह
मुसलमान न रहा होता तो ऐसे परे शान कर देनेवाले िसर य उठाते ।...
हमारा पीछा नह छोड़ते । मनु य मौत को जीत सकता है, पर तु को नह जीत
सकता । कोई-न-कोई दुम के पीछे लगा ही रहता है...
"अगर मुसलमान इतने बुरे ह तो तुम उनक यूिनव सटी म पढ़ने य आए ?" इ फ़न ने
कया ।
"यह मुसलमान के बाप क यूिनव सटी है ?" टोपी ने कया, "के ीय सरकार से
जो एड िमलती है या उसम हमारा पैसा नह है ? सारे मुसलमान ग़ ार ह ।"
"हाँ" सक ना आ गई, "मेरे अ बा भी ग़ ार थे ?"
"तुम बात-बात म अपने अ बा को य घसीट लाती हो? अ बा न ए राम नाम हो गए
! जहाँ देखो वह मौजूद ह । बलव म और भी कई अ बा मारे गए ह ।" वह बरस पड़ा ।
फर वह घबरा गया । "सॉरी भाबी !"
वह तेज़ी से उठा और चला गया ।
जाते-जाते वह शबनम का यार लेना भी भूल गया वरना होता यह था क वह शबनम
का यार लेता और वह इस डर से ज दी से गाल प छने लगती क कह टोपी के रं ग का
ध बा न पड़ गया हो ।
"अंकल टोपी ने हम यार य नह कया ?" शबनम ने अपनी माँ से सवाल कया ।
"वह पागल हो गया है ।"
शबनम ने दूसरे दन कू ल म अपनी सहेिलय को यह बता दया क उसक अ मी
कहती ह क अंकल टोपी पागल हो गया है ।
सहेिलय ने यह बात अपनी-अपनी अि मय को बताई और बात का चरखा फर चल
पड़ा ।...
यारह

यह बात सारी यूिनव सटी म फै ल गई क सक ना ने टोपी को राखी बाँधने से इनकार कर


दया । कु छ लोग ने सक ना क िह मत क तारीफ़ क क उसने दखावे के िलए टोपी को
भाई तो नह बनाया । लानत है टोपी पर क माशूक़ा से राखी बँधवाने गया था ।
"य द यह बात तुमने नह बताई तो और कसने बताई ?" टोपी ने सक ना से कहा ।
"यह बात और कसे मालूम थी ?"
"अ छा देखो मुझसे यह यदी-पदी तो कया न करो । समझे ? गँवार ।"
"कमाल है । भाषा क तरफ़ से तु हारी शुभकामनाएँ ख म ही नह होत ।" फर वह
धीमा पड़ गया । "देखो भाभी, यह ब त सी रयस बात है । भाई से पूछ लो ।" वह इ फ़न
क तरफ़ मुड़ा । "तु ह बताओ भाई, इस यूिनव सटी म पढ़कर म कसी और यूिनव सटी
के लायक तो रह नह गया । य द यह कडल चालू रहा तो या मुझे यहाँ नौकरी िमलेगी
?"
"मेरा ख़याल था क तुम मेरी बेआब ई से परे शान हो रहे हो ।" सक ना बोली ।
"आजकल नौकरी का मह व कसी क आब से कम नह है ।"
"तो नौकरी पाने के िलए तुम मुझे बदनाम भी कर सकते हो ?"
"जब तक तु हारा िमयाँ तुम पर शक नह करता तब तक तु ह या परे शानी है ?" टोपी
बोला । " यह है क राखी वाली बात घर से बाहर कै से गई ?"
दूसरे दन यह बात भी घर से बाहर िनकल गई । और जब रहमत क चाय क दूकान म
कु छ लड़क ने टोपी पर जुमलेबाज़ी क तो टोपी क खोपड़ी नाच गई ।
"तु हारी सेहत य खराब हो रही है ?" टोपी ने जलकर कहा ।
घपला यह हो गया क िजस लड़के से टोपी ने यह बात कही थी वह एक छोटा-मोटा
घ टया-सा दादा था । उसने फ़ौरन आ तीन चढ़ा ली ।
टोपी को लड़ना-िभड़ना नह आता था । िपट गया ।
शहर के समाचारप इस ख़बर को ले उड़े । और यूिनव सटी म इ फ़न क क़ मत िगरने
लगी । यह बात सब मानते थे क वह ब त पढ़ा-िलखा और ज़हीन आदमी है । यह बात भी
सब मानते थे क वह ब त मेहनत से पढ़ाता है । पर तु अगर कसी टीचर क बीवी कसी
टू डट से फँ सी ई हो तो उसका पढ़ा-िलखा होना बेकार है । इसिलए यूिनव सटी म यह
बात आम तरीके से कही जाने लगी क वह रीडर नह हो सकता । नतीजा यह आ क
डॉ टर सुहल ै क़ादरी का भाव बढ़ने लगा ।
"यह डॉ टर ज़गाम के साथ नाइ साफ़ हो रही है ।" डॉ टर क़ादरी ने एक शाम को
टाफ़ लब के एक ि ज टेबल पर कहा, "उनक ज़ाती िज़ दगी से यूिनव सटी को या
ग़रज़ ? फ़ज़ क िजए क जो कु छ कहा जा रहा है वह ठीक भी है तो कहाँ िलखा है क कसी
टीचर क बीवी..."
"फ़ोर नो ं स ।" उनके पाटनर ने कॉल दी ।
"नो ।"
"फ़ाइव ल स ।" डॉ टर क़ादरी खेलने म लग गए ।
अब जब क इ फ़न क रीडरी ख़तरे म पड़ी ई थी, टोपी के ले चरर होने का सवाल ही
कहाँ उठता था । चुनाँचे िह दी िवभाग म अनवर मुजतबा ज़ैदी और रामिवलास 'बेखटक'
का भाव बढ़ने लगा ।
अनवर मुजतबा ज़ैदी साहब 'बेखटक' जी से जूिनयर थे । बेखटकजी का थीिसस सबिमट
हो चुका था और ज़ैदी साहब का थीिसस चोरी हो गया था ! पर तु उनका कहना था क
अलीगढ़ यूिनव सटी चूँ क इकलौती मुसिलम यूिनव सटी है इसिलए ज़ैदी साहब का हक़
सािबत है । सारे िह दु तान क नौक रयाँ िह दु के िलए ह तो या एक मुसिलम
यूिनव सटी भी मुसलमान क नह हो सकती ?
नौकरी !
सुना जाता है क पहले ज़मान म नौजवान, मु क जीतने, ल बी और क ठन या ाएँ
करने, खानदान का नाम ऊँचा करने के वाब देखा करते थे । अब वे के वल नौकरी का
वाब देखते ह । नौकरी ही हमारे युग का सबसे बड़ा ऐडवचर है ! आज के फ़ािहयान और
इ े-बतूता, वासकोिडगामा और काट, नौकरी क खोज म लगे रहते ह । आज के ईसा,
मोह मद और राम क मंिज़ल नौकरी है ।
नौकरी ! तीन अ र और दो मा ा का यह श द आज के वाब क कसौटी है । जो
इस कसौटी पर खरा उतरे वही खरा है । नौकरी ही से घर और प रवार क क पल फू टती
ह । अनवर मुजतबा ज़ैदी क शादी नौकरी पर ही टक ई थी ।
ज़ैदी अपनी चचाज़ाद बहन िबलक़ स फ़ा मा पर आिशक थे । िबलक़ स फ़ा मा भी उन
पर दम देती थी । चचा भी अपनी बेटी को पा क तान भेजना नह चाहते थे । हालाँ क
वहाँ से बड़े अ छे-अ छे र ते आ रहे थे । पर तु मु न िमयाँ (अनसर मुजतबा ज़ैदी) को
अगर नौकरी न िमली तो फर मजबूरन उ ह िबलक़ स क शादी पा क तान ही म करनी
पड़ेगी ।
पहले दल के बीच म बादशाह आया करते थे । अब नौकरी आती है । हर चीज़ क
तरह मोह बत भी घ टया हो गई है ।
... या बताऊँ ? िह दूगद से नाक म दम आ गया है । अगर हमारे िडपाटमट का हेड
कोई मुसलमान होता तो मुझे यह नौकरी ज़ र िमल जाती । मगर िब लो तुम दल थोड़ा
न करो । कह -न-कह नौकरी िमल ही जाएगी । िह दु तान क आज़ादी ने ब त गड़बड़
मचा रखी है ।...
िबलक़ स को यह ख़त िमला तो वह उदास हो गई; य क उसने तो कताब म यही
पढ़ा था क लैला को मजनूँ और शीर को फ़रहाद नह िमलता । वह हर नमाज़ म दुआएँ
माँगने लगी । पाक परवर दगार तू उस मूए हेड का दल फे र दे । तेरे इख़ितयार म या
नह है ।...
पर तु शायद उसक आवाज़ पाक परवर दगार तक नह प च ँ ी या शायद पाक
परवर दगार ने उसक दुआ का कोई खास नो टस नह िलया य क टोपी के साथ-ही-
साथ अनवर मुजतबा ज़ैदी भी कट गए । 'बेखटक' जी िलए गए ।
दूसरी तरफ़ डॉ टर क़ादरी रीडर हो गए ।
तीसरी तरफ़ िबलक़ स के िलए पा क तान का एक र ता मान िलया गया ।
जो िमला उसी ने बेखटक को मुबारकबाद दी । कसी ने उससे यह नह कहा, "भई यह
कै से हो गया ! टोपी तो तुमसे यादा क़ािबल आदमी है ।" हमारे देश म पढ़े-िलखे होने का
सबूत नौकरी है । इसीिलए कसी ने ज़ैदी साहब से भी यह नह कहा, "िमयाँ तुम कहाँ टाँग
अड़ा रहे थे ! बेखटक तुमसे अिधक पढ़ा-िलखा है ।" अब यूिनव स टय म पढ़े-िलखे होने
पर इतना यादा यान नह दया जाता ।
नौकरी बड़ी क़ाितल चीज़ है । बाहर से जो ए सपट आते ह उ ह अपने भ े और अगली
ेन पकड़ने क ज दी होती है । चुनाव हैड ऑफ़ दी िडपाटमट ही करता है । और उसक
अपनी पस द और नापस द होती है । वह उसी को लेता है िजसे वह पस द करता है । और
कभी-कभी तो वह यह भी नह कर पाता य क उस पर हजार तरह के दबाव पड़ते ह ।
"अब म यह भी नह कह सकता क िह दू होने के कारण नह िलया गया ।" टोपी ने
कहा । "भाई मुझे आपक बीवी के ेम ने कह का नह रखा ।"
"और मुझे तु हारे ेम म कह का न रखा ।" इ फ़न ने कहा ।
"तो आओ एक यूिनयन ऑफ़ िडफ टैड लवज़ बनाएँ ।"
"यूिनयन ऑफ़ िडफ़ टेड लवज़ !" इ फ़न ने दाँत पीसकर कहा ।
"अम तु ह इस समय भी भाषा क पड़ी है !"
इ फ़न हँस दया ।
"और अभी मने इस सचुरी क सबसे बड़ी ख़बर तो सुनाई ही नह ।" टोपी ने कहा ।
" या कह और नौकरी िमल गई ?" सक ना बोल पड़ी ।
"नौकरी कहाँ से िमल जाएगी !" टोपी बोला । "मेरा कालरिशप ब द हो गया ।"
"जेल म ?" शबनम ने सवाल कया ।
"हाँ ।"
"तो उसने चोरी क होगी !"
"यह तो बड़ी बे दा बात है ?" इ फ़न ने कहा ।
"इसम बे दगी क या बात है ?" टोपी ने कहा । "यूिनव सटी का कालरिशप था ।
उसने ब द कर दया ।"
"मगर य ?" सक ना ने कया ।
" य क म तु हारा आिशक़ ँ ।" टोपी ने बड़े ठाठ का 'श' िनकाला ।
"अंकल, यह आिशक़ या होता है ?"
"म तु हारी अ मी पर जान देता ँ ।" टोपी ने कहा ।
"िस टर आलेमा भी यही कह रही थ ।"
"अ छा !"
"जी हाँ ।"
"अपनी उस िस टर आलेमा से कह देना क म उस पर भी जान देता ँ ।"
"वह तो इि बुरी ह ।"
फर भी शबनम ने िस टर आलेमा तक टोपी का पयाम प च ँ ा दया । फर तो ग़ज़ब हो
गया । िस टर अं ेज़ी बोलना भूल ग । वह लास म म रोने लग । लड़ कयाँ ह ा-ब ा
रह ग क िस टर को हो या गया है । उ ह िस टर के रोने से यादा उनके उदू बोलने पर
आ य हो रहा था ।
िस टर ने मदर सुपी रयर से िशकायत जड़ दी...
"आ'इल किमट सुसाइड ।" उ ह ने नाक का सड़ाका मारते ए कहा ।
मदर सुपी रयर ने वाइस चांसलर को फ़ोन कया । वाइस चांसलर ने ा टर को ।
ा टर के यहाँ से टोपी का पुज़ा कट गया । और यह ख़बर सारी यूिनव सटी म फै ल गई क
टोपी दरअसल िस टर आलेमा िस ीक़ से इ क़ करता है ।
उधर िस टर आलेमा ने अपने कमरे म जाकर आँसू प छे । आँख को साफ़ करने के बाद
वह आईने के सामने खड़ी हो ग । उ ह जो कु छ दखाई दया उसे देखते-देखते वह िब कु ल
बोर हो चुक थ । प ा काला रं ग, छोटी-छोटी मैली आँख । चेचक के दाग़ । सुराहीदार
गरदन । कसी ई नुक ली छाितयाँ...अपनी छाितय को देखकर वह हमेशा शरमा जाया
करती थ और ज दी-ज दी कपड़े पहनने लगा करती थ ।
बदनामी का यह पहला प थर था जो उसके माथे पर लगा । वह जाने कब से उस प थर
क राह देख रही थ । यह प थर जो लगा तो सोया आ बदन जाग उठा ।
वह उसी व त िमस ज़ैदी से िमलने िडपाटमट ऑफ़ इं गिलश क तरफ़ चल पड़ । रा ते
म दखाई देनेवाली सुबुक भ ी, खूबसरत और बदसूरत लड़ कय क तरफ़ उ ह ने पहली
बार यार से देखा । उन तमाम लड़ कय का दद उनक समझ म आ गया जो इ क़ नह
कर सकत तो हाय अ ला मािजद भाई, ह टए हक म भाई आपने तो मुझे डरा
दया...करने लगती ह । उ ह के हॉ टल म एक लड़क थी क़मर । वह तमाम लड़ कय को
एक शायर के ख़त सुनाया करती थी । उ ह ने यह िलखा है और उ ह ने वह िलखा है । मेरी
सालिगरह पर उ ह ने यह साड़ी भेजी है...तमाम लड़ कयाँ उससे जलती थ क आिख़र
वह शायर उ ह ख़त य नह िलखता । फर एक दन क़मर क चोरी पकड़ी गई । वह
शायर क तरफ़ से खुद ही अपने-आपको ख़त िलखा करती थी । जब यह भाँडा फू टा तो
लड़ कय ने उसके सामने अपने और उस शायर के इ क़ क बात करनी शु कर द । वह
बेचारी घर भाग गई तो यहाँ यह उड़ गई क वह पेट िगरवाने गई है । फर वह नह आई ।
आलेमा ने तै कर िलया क आज वह क़मर को ख़त िलखेगी । वैसे उसे उड़ती-पड़ती-सी एक
खबर िमली थी क पा क तान म कसी बड़े ऑ फसर से उसक शादी हो गई है । इतने
छोटे-से मु क म इतने ब त सारे बड़े ऑ फसज़ कै से ह आिखर ! िह दु तान इतना बड़ा
मु क है । यहाँ तो लड़ कय को लक तक नह जुड़ते ।
"हैलो !" िमस ज़ैदी ने कहा । "भई यह सुनकर बड़ा अफ़सोस आ । इट इज़ द
िलिमट..."
िस टर आलेमा दन-भर हमद दयाँ बटोरती रह ।
बात यह है क मुसिलम यूिनव सटी के वातावरण म के वल बनावटी और घ टया यार
हो सकता है । यहाँ लड़ कयाँ इसिलए भेजी जाती ह क दूसरी लड़ कयाँ जब अपने घर
जाएँ तो उनक बात कर । इसिलए लड़ कयाँ हर व त चौक ा रहती ह । लोग क आँख
बचाकर इधर-उधर देखती रहती ह–ऐसे म यहाँ के ोफ़े शनल भाई ब त कम आते ह । यह
भाई अपनी बहन बदलते रहते ह । पर तु यह बात हद से आगे नह बढ़ पाती । अिधक-से-
अिधक दो-एक िप चर देख ली ग । क़ले पर िपकिनक हो गई । छोटे-मोटे तुहफ़े आए-गए
। हाथ-से-हाथ छू गए । आँख का ितनका िनकलवा िलया और एक-आध ख़त िलख-िलखा
िलए गए । बात ब त बढ़ी तो कु छ सहेिलयाँ उधर राज़दार हो ग और कु छ दो त-यार
इधर । और अगर बात इससे भी यादा बढ़ी तो उधर कसी 'आपा' ने अपने कमरे म कोई
वाब देख डाला और इधर कसी 'भाई' ने अपने कमरे म । वाब क मंिज़ल आते-आते
इि तहान के दन आ जाते ह । और भला इि तहान के दन म इ क़ िह दु तानी फ़ म के
िसवा और कहाँ हो सकता है !
इ मत चुग़ताई क 'टेढ़ी लक र' अभी तक िबलकु ल िसधी नह ई ह !
िस टर आलेमा भी इस गरज़ से अलीगढ़ भेजी गई थ क कसी भाई क बहन उ ह
पस द कर ले । पर तु ऐसा न हो सका । अब एक काली-कलूटी, कु चरी आँख वाली
चेचकज़दा िस टर आलेमा को कौन लड़क अपने भाई के िलए पस द करती ! उनसे
जूिनयर लड़ कयाँ पस द कर ली ग और उनके याह भी हो गए । पर तु िस टर आलेमा
कोरे बरतन क तरह धरी-क -धरी रह ग ।
आलेमा को अं ेज़ी बोलने का बड़ा शौक़ था । इसिलए वह जब हाई कू ल म थ तभी से
िस टर आलेमा कही जा रही थ । हद तो यह है क मुमताज़ आपा ( ंिसपल, ग ज़
कॉलेज) भी उ ह िस टर आलेमा ही पुकारती थ । फर जब वह का वट म पाट टाइम
टीचर हो ग और मदर सुपी रयर के नीचे आ गई तो उ ह िस टर होने से कौन रोक सकता
था !
िस टर आलेमा म एक खास बात थी । वह कभी िह मत नह हारती थ । इसीिलए तो
टोपी का पयाम िमलते ही उनके दल क कली यूँ िखली जैसे उसने बहार का पहला मौसम
देख िलया हो ।
उस रात वह सो न सक । टोपी के िलए उनका दल दुखता रहा । हाय कह बेचारा
रि टके ट न कर दया जाए ! मुझ मुरद को भी या सूझी थी आिख़र क तड़ से िशकायत
कर बैठी ! (िस टर आलेमा अं ेज़ी बोलती अव य थ पर तु सोच-िवचार का काम वह
अपनी मातृभाषा ही म करती थ ) ।
सवेरे वह ब त उदास उठ ।
" या रात सोई नह ?" बग़ल के कमरे वाली ने पूछा ।
"सोई तो ! मगर ब त बुरे-बुरे वाब देखे ।"
" वाब !" वह लड़क हँसी । " वाब न देखा करो िस टर आलेमा ! जो वाब देखने म
अ छे लगते ह वे तो और भी बुरे होते ह !"
िजस लड़क ने यह बात कही उसका नाम महनाज़ था । मामूली श ल-सूरत क लड़क
थी । पाँच-छह साल पहले जवान ई थी । ले चरर थी । पर तु वह िजसे पस द करती उसे
कोई और लड़क हिथया लेती और वह फर अके ली रह जाती । उसके लेटे ट आिशक़
डॉ टर वहीद ने अभी कु छ दन पहले डॉ टर शौकत फ़ा क़ से शादी कर ली थी–डॉ टर
िमस फ़ा क़ से ! (यह बताना ज़ री है क िमस फ़ा क़ औरत थ ) ।
डॉ टर वहीद से जब उसका इ क़ चल रहा था तो उसके िसवा तमाम लोग को यक़ न
था क इस बार उसक शादी ज़ र हो जाएगी । पर तु खुद उसे यक न नह आ रहा या ।
डॉ टर वहीद इ क़ के िसलिसले म काफ़ बदनाम आदमी थे । बस लड़क होनी चािहए
। उनक लाइन ऑफ़ ऐ शन भी िनराली थी । वह अपनी बीवी से आिजज़ थे । वह अपनी
घरे लू िज़ दग़ी के बारे म ब त उदास होकर बात करते और चारमीनार फूँ कते रहते ।
महनाज़ पर भी उ ह ने यही नु ख़ा आज़माया । महनाज़ वािजदा क सहेली थी । उसे ये
डाइलाग ज़बानी याद थे । वह डॉ टर से नफ़रत करती थी क उसने वािजदा जैसी लड़क
का दल तोड़ा है । फर भी डॉ टर के उदास लहजे क लहर उसे बहा ले गई । और जब वह
च क तो उसने देखा क वह दोन कनार से दूर है ।
इसीिलए वह वाब से डरने लगी थी ।
"म उन वाब क बात नह कर रही ँ ।" िस टर आलेमा ने कहा । उनक आवाज़ म
इतनी हसरत थी क महनाज़ च क पड़ी । वह और उदास हो गई ।
"यह टोपी है कौन ?" िस टर ने सवाल कया ।
"िह दी म रसच कर रहा है ।" महनाज़ ने कहा । "और िह ी वाले ज़ैदी साहब क
वाइफ़ सक ना ज़ैदी से फँ सा आ है ।"
"तो फर..." िस टर क ग ।
महनाज़ आगे बढ़ गई । िस टर आलेमा कॉरीडोर म अके ली रह ग । सुलतािनया
हॉ टल क दीवार एकदम से ब त ऊँची हो ग । िबलकु ल कसी जादुई फ़ म के जादुई
महल क दीवार क तरह । िस टर आलेमा ऐसी फ़ म से नफ़रत करती थ । फर भी
वह थोड़ी देर के िलए एक शहज़ादी बन ग िजसे कसी जादूगर ने अपने जादुई महल म
ब दी बना रखा है । वह अपने शहज़ादे क राह देखने लग ...
पर तु शहज़ादा खुद बड़ी मुसीबत म था । मुख़तार साहब िड टी ा टर उसे िघस रहे थे

"तो आप िस टर आलेमा पर जान देते ह ।"
"मुख़तार साहब वह बात..."
"आपने इस पर भी ग़ौर नह कया क वह उ म आपसे कतनी बड़ी ह ।"
"मुझे इस पर ग़ौर करने क ज़ रत ही नह है य क..."
"आप उन पर आिशक़ ह ।" मुख़तार साहब ने टोपी क बात काटी ।
"आप मेरी तो सुनते नह ।" टोपी झ लाने लगा ।
"ब कए ।"
"किहए तो गंगाजल हाथ म लेकर कह दूँ क म िस टर आलेमा से हरिगज़ इ क़ नह
करता । म तो उ ह जानता भी नह ।"
"गंगाजल मँगवाने म तो दुशवारी होगी ।" मुख़तार साहब बोले, " य क गंगा यहाँ से
तीस िमल दूर बहती है । इसिलए यह बताइए क आपने ज़ैदी साहब क ब ी के ज़ रए
िस टर आलेमा तक कोई पयाम भेजा था या नह ?"
"अव य भेजा था । य द िस टर आलेमा को यह कहने का अिधकार है क म भाई–मेरा
मतलब है ज़ैदी साहब क बीवी से लव करता ँ तो मुझे यह कहने का अिधकार है क म
उनसे लव करता ँ ।"
"तुम यहाँ लव करने आए हो या पढ़ने ?" मुख़तार साहब को भी गु सा आने लगा । "तुम
एक सीिनयर टू डट हो, इसिलए इस पहली ग़लती पर तु ह माफ़ करता ँ । तुम िस टर
आलेमा से माफ़ माँग लेना । िमयाँ पी-एच.डी. करके घर जाओ । क युिन ट क दो ती
तु ह ख़राब कर रही है ।"
ा टर ऑ फ़स से टोपी ब त झ लाया आ िनकला । यह तो कोई बात नह ई । उस
िस टर आलेमा क तो ऐसी-क -तैसी... ।
इि फ़ाक़ से उसी दन िमस ज़ैदी के घर िस टर आलेमा से उसक पहली मुलाक़ात हो
गई ।
"िस टर, कल राखी का यौहार है । आ जाऊँगा । राखी बाँध दीिजएगा ।"
िस टर ह ा-ब ा रह ग ।
दूसरे दन छु ी लेकर वह घर ग और फर वापस नह आ । उ ह ने इ तीफ़ा दया ।
यूिनव सटी म टोपी कु छ दन तक ख चा गया । फर लोग िस टर आलेमा को भूल गए ।
सक ना से उनक मुलाक़ात िशमला म ई । वह वहाँ भी लड़ कयाँ पढ़ाने का काम कर
रही थ ।
"हाउ इज़ टोपी ?" अलीगढ़ क तमाम बात कर लेने के बाद उ ह ने चुपके से सवाल
कया ।
"थीिसस िलख रहा है ।"
"अब तक ?"
"अरे नौकरी न िमले तो या करे ? घर पड़े रहने से तो अ छा है क आदमी पी-एच.डी.
ही कर ले ।"
बारह

कालरिशप ब द हो जाने से टोपी मुसीबत म फँ स गया, य क मु ी बाबू तो नेता बन


चुके थे । भैरव भी उसी रा ते पर जा रहा था । असल म बेरोज़गारी क सम या इतनी
ग भीर हो गई है क हर नवयुवक के वल नेता बनने के वाब देख सकता है । भैरव और
मु ी बाबू दोन ही ने एक दृि देखा । बाबू गोपीनाथ के वल एक बस-क ड टर थे । पढ़े-
िलखे िबलकु ल नह थे । एक क ा-सा घर था– फर जादू का डंडा घूमा । वह एम.पी.हो गए
। अब उनके पास एक मोटर, दो को ठयाँ और दो भसे थ । कई बक म िहसाब था । उनका
बेटा अमरीका म इं जीिनय रं ग पढ़ रहा था । बेटी क शादी उ ह ने इस धूम से क क लोग
देखते रह गए । कले टर उ ह सलाम करता था...और या चािहए कसी को ? इन दोन म
से कसी को डॉ टर भृगु नारायण के नीले तेल म कोई दलच पी नह थी ।
पर तु मु ी बाबू और भैरव ने दो अलग-अलग रा ते चुने । मु ी बाबू को िह दू-सं कृ ित
और स यता का नारा अ छा लगा । आिख़र यह मुसलमान जो गो-ह या करते ह और जो
एक िवदेशी भगवान क पूजा करते ह, यहाँ या कर रहे ह । अगर ये सारे मुसलमान
पा क तान भेज दए जाएँ तो जो नौक रयाँ इ ह िमलती ह वह भी िह दु ही को िमल
जाएँगी ।
नौकरी !
यह कै सा िघनौना श द है !
बात यह है क दो बार ऐसा आ क िजस जगह के िलए मु ी बाबू ने ए लाई कया वह
जगह एक मुसलमान को िमल गई ।
यह नौकरी दोधारी तलवार है । एक तरफ़ िह दु को मुसलमान से काटती है और
दूसरी तरफ़ मुसलमान को िह दु से ! हालाँ क बात यह है क देश नया-नया आज़ाद
आ है तो या उन लड़क का नौक रय पर अिधक अिधकार नह है िजनके बाप, मामू,
दूर के चचा, दूर के मामू (दूर का बाप होता नह । या होता है ?)...गरज़ क कसी भी
र तेदार ने आज़ादी क लड़ाई म िह सा िलया था ? बाक़ लोग तो घर म बैठे थे जब ये
दूर-पास के र तेदार गोिलयाँ खा रहे थे । या अगर म कसी कमीशन का मे बर ँ तो या
उनके नीचे आनेवाली तमाम नौक रय पर मेरे र तेदार या जाित-िबरादरी वाल का
हक़ यादा नह हो जाता ? आम लोग तो पागल ह । उनक समझ म यह छोटी-सी बात
नह आती । इसिलए एक तरफ़ यह कहा जाता है क कां ेस मुसलमान क दु मन है । यह
राज सेकुलर-वेकुलर कसी तरफ़ से नह है । सीधा-सादा िह दू राज है । देख लीिजए
पुिलस, फ़ौज म मुसलमान रखे ही नह जाते । जब कसी से लड़ाई होगी तब पता चलेगा
क धोती महाराज तोप क आवाज़ सुनते ही लु टया लेकर खेत क तरफ़ भागे जा रहे ह ।
और दूसरी तरफ़ यह कहा जा रहा है क यह सरकार मुसलमान को म खन लगाती है ।
सारे मुसलमान पा क तान के एजट ह । लड़ाई ई तो यह पा क तान से िमल जाएँगे !
मुसलमान लड़क के दल म दा ढ़याँ और िह दू लड़क के दल म चो टयाँ उगने लग ।
यह लड़के फ़िज स पढ़ते ह और कापी पर ओ३म् या िबसिम लाह िलखे िबना सवाल का
जवाब नह िलखते !
"साइं स पढ़ने से या होता है भाई !" टोपी ने जलकर कहा । "साइं ट फ़क दृि कोण भी
तो हो ।"
"यह या होता है ?" सक ना ने सवाल कया ।
"साइं ट फ़क एटी ूड शायद ।" इ फ़न ने कहा ।
"जी हाँ !" टोपी जल गया । "अनुवाद करते रिहए बैठकर ।"
"अम तो म या क ँ ?" इ फ़न भी िबगड़ गया ।
"तुम औरं गजेब को िडफ़ड करते रहो । और कर ही या सकते हो ?"
"भई तु हारा कालरिशप मने तो ब द करवाया नह है ।"
"वह तो आपक जौजा1 ने ब द करवाया ।"
"टोपी, तुम अरबी-फ़ारसी न बोला करो खुदा के िलए ।" सक ना ने हाथ जोड़कर कहा ।
"जौजा ! बीवी कह दया होता ।"
"तुम दोन म मेरी दादी क आ मा घुस गई है ।" टोपी ने कहा । फर इ फ़न क तरफ़
मुड़ा । "मालूम है क यूिनयन के चुनाव म या आ ? जमाअत के लड़के ने साहब बाग और
वी.एम.हाल से लीड कया है । इन दोन हाल म इं जीिनय रं ग और साइं स के लड़क का
ब मत है ।"
"बनारस म इं जीिनय रं ग और साइं स के लड़के कसे वोट देते ह ?" इ फ़न ने सवाल
कया । "जहाँ तक मुझे याद है, बनारस यूिनव सटी यूिनयन क कै िबनेट तक के िलए आज
तक कोई मुसलमान लड़का नह चुना गया है । मेजर पो ट को तो गोली मारो ।"
"भाई हम अलीगढ़ वाल को यह बड़ी बुरी लत पड़ गई है । जहाँ कोई बात ई वह
बनारस क बात िनकल आती है । बनारस यूिनव सटी एक िह दू यूिनव सटी है । वहाँ सब-
कु छ हो सकता है । पर तु यहाँ ? यह पा क तानी कारख़ाना ब त दन नह चल सकता ।"
"देखो ।" सक ना चमक , "यह िह दू िम ठू कै सा टायँ-टायँ बोल रहा है । वह
यूिनव सटी पा क तानी कारख़ाना है ?"
"नह है तो और या है ? िह दु तान-पा क तान म के ट के मैच ह तो यहाँ के लड़के
मसिजद म भीड़ लगा देते ह दुआ माँगने के िलए । इन ईिडयट लोग को यह तक तो पता
नह क यहाँ अ लाह िमयाँ का जु रज़िड शन नह है । और अगर हो भी तो तुम
पा क तान के जीतने क दुआ य माँगते हो भाई ! और फर रोएँगे क हम नौक रयाँ नह
िमलत । हमसे वफा का सबूत माँगा जाता है । हमने स ावन म यह तीर मारा था और
सन इ स म वह तोप चलाई थी । कोई पूछे भ कूओ, तुम सन साठ म या कर रहे हो ?"
"जाओ पूछ आओ ।" सक ना ने चुमकारकर कहा ।
"अम म य जाऊँ ? मरने दो कमब त को । म तो कल घर जा रहा ँ ।"
" य ?"
"एक तो िपताजी को फु सलाना है । क ग ँ ा पी-एच.डी. तो कर ली । डी.िलट भी कर लूँ
तो डबल डॉ टर बन जाऊँगा और तब नीला तेल बेचूँगा । डॉ टर बलभ नारायण
एम.ए., पी-एच.डी., िड.िलट ! गँवार इतनी बड़ी िडगरी देखकर रौब म आ जाएँगे । पैस
का आराम रहेगा । छह महीन से एक धेला नह भेजा है पू य िपताजी ने । फर एक काम
और करना है । यूिनिसपैिलटी का चुनाव हो रहा है । बड़े भाई साहब जनसंघ के टकट पर
खड़े हो गए । छोटे भाई साहब कां ेस के टकट पर । इसिलए म आज से क युिन ट हो गया
ँ । इन दोन के बीच म जो क युिन ट खड़ा हो गया है उसको सपोट क ँ गा । कु छ
मुसिलम यूिनव सटी का हक़ भी अदा हो जाएगा । वह क युिन ट मुसलमान है । और म
भाबी से इ क़ लड़ाते-लड़ाते बोर भी हो गया ँ ।"
सक ना ने कु शन मारा, मगर टोपी िनशाना खाली देखकर खड़ा हो गया । "अब के वल
एक परे शानी है ।"
" कराया नह होगा ।" सक ना ने बड़े भोलेपन से कहा ।
"हाँ ।"
"म नह देने क ।"
"पर तु तुम यह सहन नह कर सकत भाबी क तु हारा देवर िबना टकट पकड़ा जाए ।
सोचो क तु हारी इस महान यूिनव सटी क कतनी बदनामी होगी जब पेपज़ म यह यूज
छपेगी क अलीगढ़ मुसिलम यूिनव सटी से पी-एच.डी. करके डी. िलट करनेवाला एक
टू डट िबना टकट या ा करते पकड़ा गया ।"
"म कर लूँगी सहन ।"
"तो उधार दो ।"
"पहले ही के उधार तुमने कब वापस कए ह !"
"सूद समेत लौटाऊँगा । या मेरे बाप को मरने दो । या फर मुझे एक नौकरी िमल जाने
दो ।"
"शादी कर लो । फर पैस-े ही-पैसे ह ।"
"घर म एक पैसे वाली ब आ चुक है । च गु से पहले के भारत का पोिल टकल मैप
है उसका मुँह । म कसी िबना पैसे वाली से क ँ गा ।"
"अपनी सूरत देखी ?"
"रोज़ देखता ँ । सात पए ह गे । सात न ह तो दस या बीस से भी काम चल जाएगा
।"
सक ना जानती थी क पैसे तो उसे देने ही ह गे । टोपी को भी इसका यक़ न था । पर तु
बीच वाले डाइला स क आदत पड़ गई थी ।
बात यह है क सक ना और टोपी एक-दूसरे को ब त चाहने लगे थे । पर तु सक ना ने
उसक कलाई म राखी नह बाँधी ।...
टोपी िजस िड बे म बैठा उसम बड़ी भीड़ थी । शायद भीड़ ही िह दु तानी रे ल क सबसे
बड़ी पहचान है । टोपी ने यूिनव सटी वाली काली शेरवानी पहन रखी थी ।
"म खा लूँ तो बै ठए ।" खाना खाते ए एक बेहद टा प पर िलखे ए पि डत जी ने
कहा ।
" या यह नह हो सकता क आप खाना भी खाते रह और म बैठ भी जाऊँ ?"
"तुम यहाँ बैठ जाओ बेटा !" पि डतजी ने सामनेवाली बथ पर बैठे ए एक नौजवान से
कहा । वह आ गया । "आप वहाँ बैठ जाइए ।"
"वहाँ य बैठ जाऊँ ?"
"अरे तो या महाराज के िसर पर बैठोगे ?" एक त दवाला चीख पड़ा ।
"यह बाबा का िसर है ?" टोपी ने बथ क लकड़ी बजाई ।
"इस तरह ठना हो तो पा क तान जाओ ।" त द बोली ।
बात टोपी क समझ म आ गई । वह हँस पड़ा ।
"माफ़ क िजएगा ।" बाबा से माफ माँगकर वह दूसरी बथ पर बैठ गया । पर तु उसने
यह अव य महसूस कया क आस-पास बैठे ए लोग उससे ब त खफ़ा ह!
पि डतजी का खाना ख़ म हो गया तो त दवाला पि डत जी से बात करने लगा । धीरे -
धीरे आस-पास के लोग भी बात म शािमल हो गए । आस-पास वाल म एक मुसलमान
भी था ।
"मगर सेठ साहब !" उस मुसलमान ने कहा । "अगर म मुसलमान ँ तो इससे यह कहाँ
सािबत होता है क म पा क तानी ँ या यह क म िह दु तानी बनकर इस मु क म रहने
को तैयार नह ?ँ "
"आप इ ह ीमान् को देिखए ।" त द ने टोपी क तरफ़ इशारा कया, "यह देख रहे थे
क बाबा भोजन कर रहे ह क तु..."
"म िह दू ँ ।" टोपी ने कहा, "म बलभ नारायण शु ला ँ । और चिलए मान िलया क
म सेख सलामत ँ तो या आ ? ये बच याि य के बैठने को लगी ह । म बाबा का खाना
छीन तो नह रहा था न । आप ही लोग मुसलमान को भारत-िवरोधी दल म ढके ल रहे ह ।
या यह शेरवानी मुसलमान है ? यह तो किन क के साथ आई थी । यह पाजामा भी
किन क ही का है ।..."
"िह दू-मुसलमान का भेद-भाव झूठा है बेटा !" पि डत जी ने कहा । "यह तो भगवान्
क लीला है..."
"भगवान् बेचारे को य घसीट रहे ह पि डत जी ! म िह दू ,ँ पर तु कह मुझे एक
नौकरी नह िमलती, य क म मुसिलम यूिनव सटी म पढ़ता ँ । मुझे आप अपने साथ
नह बैठने देते, य क म शेरवानी पहने ए ँ । और यह त दवाले ीमान् तो मुझे
पा क तान भेजे दे रहे ह । अरे बाबा, य द म मुसलमान रहा होता तो तु ह खाता देखकर
खुद ही दो कदम पीछे हट गया होता । अब यह मुसलमान ही तो ह । कै से बैठे माफ़ माँग
रहे ह मुसलमान होने क ! यह बेचारे आपसे यह नह कह सकते क तुम होते कौन हो मुझ
पर शक करनेवाले ! म भी एक भारतीय नाग रक ँ । इनके दल पर तो आज डर क एक
और तह जम गई होगी । अब यह सफ़र करगे तो कसी ऐसे िड बे म बैठगे िजसम दस-बीस
मुसलमान भी ह । और जब कोई इनसे यह कहेगा क िह दू मुसलमान को चैन से नह
रहने दगे तब इ ह यह या ा याद आएगी । य द आप रे ल के कसी आम िड बे म भोजन
नह कर सकते तो सरकार से किहए क वह कु छ िह दू िड बे चलाए िजनम आप आराम से
भोजन कर सक । ीराम तो भीलनी के जूठे बेर खा ल और आप मुझे अपने पास बैठने भी
न द क म मुसलमान ँ !..."
बग़ल म बैठे ए मुसलमान का दमाग़ इधर-से-उधर भागने लगा ।
वह पचास-पचपन बरस का एक पढ़ा-िलखा आदमी था । पा क तान का वाब उसने
भी देखा था । उसने नारे भी लगाए थे । छपरा के स यद आिबद रज़ा को जूत का हार
पहनाने म वह आगे-आगे था, वह मुसिलम नेशनल गा स का सालार रह चुका था । उसे
अपनी कई तक़रीर याद आती रहती थ । वह एक छोटा-मोटा-सा बड़ा आदमी था ।
तक़रीर करने खड़ा होता था तो पंडाल तक़रीर के नार से गूँज उठा करता था । वह नमाज़
नह पढ़ता था । रोज़ा नह रखता था । शराब पीता था...पर तु दीन-मोह मदी के बचाव
के िलए वह भी खड़ा हो गया था । फर पा क तान बन गया । वह पा क तान नह गया–
वह कां ेसी हो गया ! िज़ला कमेटी का मे बर हो गया । पर तु ख र के नीचे वह अब भी
मुसिलम लीगी था । वह मौक़े क तलाश म था । पहले तो उसने पा क तान जाने के बारे म
सोचा । पर तु जब उसने यह देखा क छोटे-बड़े तमाम लीडर पा क तान जा रहे ह तो
उसने अपना इरादा बदल दया । उसने कहा तो यही क वह मौक़ा-पर त लीडर क तरह
मुसलमान को िह दु के रहमो-करम पर नह छोड़ सकता । पर तु दल म वह
मुसलमान का बड़ा लीडर बनने का ो ाम बना रहा था । दो बे टय क शादी कर चुका
था । वे पा क तान म खुश थ । तीसरी के िलए पा क तान म कोई वर नह िमल रहा था
और िह दु तान म तो ख़ैर लड़क का काल ही था ।
"...आप अगर मुसलमान घराने म पैदा हो गए होते तो ? पैदा होने पर कसका इख़ यार
है भला..." टोपी क आवाज़ दूर से आ रही थी ।
मिलकज़ादा अ दुल वािहद 'तम ा' ने टोपी क यह बात दमाग़ क डायरी म नोट कर
ली । वह मुसकराए । इस लड़के को बात कहना नह आता । उ ह ने आँख ब द कर ल ।
सामने एक बड़ मजमा था–
"म पूछता ँ ।" उ ह ने अपनी आवाज़ सुनी । (अपनी आवाज़ उ ह ब त पस द थी)
दोन हाथ क उँ गिलयाँ उ ह ने शेरवानी क ऊपरी जेब म घुसेड़ ल । "म सवाल करता ँ
क अगर म मुसलमान घराने म पैदा आ तो इसम मेरा या क़ु सूर है ? आपम से कौन
क़सम खाकर कह सकता है क वह अपनी मरज़ी से कसी घराने म पैदा आ है ?" वह के
और मजमे को देखकर मुसकराए । मजमा हँसने लगा ।...
"...साहब आप ही बताइए !"
वह च के । त दवाला उनक तरफ़ देख रहा था ।
"जी हाँ और या !" उ ह ने झट से कहा ।
"सुन िलया ।" त दवाले ने टोपी से कहा ।
टोपी हैरान रह गया । "आप यह कह रहे ह क मुसलमान के ब मत का दल
पा क तान म लगा रहता है ?"
अ छा तो यह बात थी !
वह मुसकराए । "सभी का दल पा क तान म लगा रहता है ।" उ ह ने कहा । " या वह
कल तक हमारे ही देश का एक अंग नह था ? आदमी चाँद क तरफ़ य देखता है ?
य क वह धरती का एक अंग है । हाँ, मेरा दल पा क तान म लगा रहता है य क
उनक बेवक़ू फ़य से िह दु तानी मुसलमान को नुक़सान होता है । 'तम ा' साहब ज़मीन
और चाँद क उपमा से ब त खुश ए । इस उपमा को भी उ ह ने दल क डायरी म नोट
कर िलया ।
त दवाले लाला नैनसुख साद इस तक़रीर के िलए तैयार नह थे, य क अपने इस
पर उ ह ने हर मुसलमान को घबरा जाते देखा था । इसीिलए उ ह ने उस मुसलमान को
ग़ौर से देखा जो उनका जाल काटकर अलग खड़ा मुसकरा रहा था ।
"मुसलमान हमारे भाई ह..." लालाजी ने कहना शु कया । "भूल-चूक सभी से हो
जाती है । म तो आए दन क तनातनी से डरता ँ । मरते तो मु ी-भर ही ह, बाक़
कारोबार महीन के िलए ठप हो जाता है..."
टोपी को मतली होने लगी । वह जानता था क बग़ल म बैठे ए मुसलमान ही क तरह
लालाजी भी झूठ बोल रहे थे ।
वह उठकर पेशाब करने चला गया । वहाँ से िनकलकर वह थोड़ी देर तक िखड़क से
बाहर झाँकता रहा । हर तरफ़ रात थी । हर तरफ़ अँधेरा था । हर तरफ़ स ाटा था । रे ल
क िखड़ कय से काश झाँक रहा था । पर तु कता कह नह था, य क रे ल चली जा
रही थी । पल-भर को कोई चीज़ दखाई देती । फर अँधेरा उसे िनगल लेता । वह बोर हो
गया । हर तरफ़ फै ले ए अँधेरे का बोझ उसक आ मा पर पड़ रहा था । फर अँधेरे का एक
टु कड़ा उसक आँख म पड़ गया । आँख़ मलता आ वह अपनी सीट क तरफ़ चल पड़ा ।
बहस ख़ म हो चुक थी । लालाजी क नाक बोल रही थी । पि डत जी गे आ चादर
तानकर लेट चुके थे । मुसलमान या ी ने उनके पैर को फै ल जाने क इजाज़त दे दी थी ।
वह टोपी क जगह पर बैठा ऊँघ रहा था ।
टोपी को देखते ही वह खड़ा हो गया । ऐसा लग रहा था जैसे उसक चोरी पकड़ी गई हो

"बै ठए,बै ठए ।" टोपी ने कहा । "म आपक जगह पर बैठ जाता ँ ।"
"मगर..."
"म इ ह जगा दूगँ ा । म मुसलमान नह ँ ।"
पि डत जी ने मुँह पर से चादर सरकाई ।
"पैर समेट लीिजए ।" टोपी ने कहा ।
" य ?" पि डतजी ने कहा । "तुम अपनी जगह पर बैठो ।"
"म कह और बैठ जाऊँगा ।" मुसलमान या ी ने कहा ।
"कह और य बैठ जाओगे ?" टोपी भ ा गया । " या पा क तान जाओगे ?"
उसक आवाज़ के करारे पन ने पि डतजी का पाँव समेट दया । वह बैठ गया और दल-
ही- दल म उस मुसलमान या ी को गािलयाँ देने लगा ।
"आप कहाँ जा रहे ह ?" मुसलमान या ी ने पूछा ।
"बनारस ।"
"म भी वह जा रहा !ँ "
"ज़ र जाइए ।"
"आप मुसिलम यूिनव सटी म पढ़ते ह ?"
"जी हाँ ।"
"म भी वह पढ़ा करता था । दस मारिसन कोट म रहा करता था ।"
"म भी उसी कमरे म रहता ँ ।"
इतना ही ब त था । दोन म दो ती हो गई । अलीगढ़ क बात िनकल आ । फर दोन
कसी बात पर ज़ोर से हँस पड़े । लालाजी क आँख खुल गई ।
"कौन इसटेशन है ?" उ ह ने घबराकर पूछा ।
"कोई टेशन नह है ।" टोपी ने कहा ।
"कहाँ जा र ो ?"
"घर ।" टोपी ने दाँत िनकाल दए । "मेरे िपताजी डॉ टर ह,नीले तेल वाले । हम तीन
भाई ह । एक का िववाह हो गया है । दो का नह आ है । डाक का पता..."
"तूँ िभरगू बाबू के लड़के हो का ?"
"हाँ ।"
"ई आिख़र मु ी बाबू अउर भैरो बाबू आपुसे म काह लड़ रहे ह ?"
"आपुसे म ना लड़ त कै से लड़ ?"
लालाजी इस पर हँस पड़े ।
"त तू ँ खड़े हो गए हो यो ?"
"हम पंिडत जी के सोये के वासते ना खड़े हो सकते ।"
पंिडतजी ने अपना वह पाँव, जो धीरे -धीरे टोपी क कमर तक फै ल गया था,समेट िलया

"डॉ टर साहब हमरे लासफ़े लो रहे ।..."
टोपी कच कचाकर कु छ कहना चाहता था, पर तु क गया । िपताजी ही या कम थे
क अब रे ल म उनके लासफ़े लो भी िमलने लगे । उसे डर था क अगर उसने लाला जी
का मुँह ब द न कया तो बनारस तक िपता जी क बात होती रहेगी । पर तु अब तो वह
यह भी नह कह सकता था क वह डॉ टर भृगु नारायण नीले तेल वाले का बेटा नह है ।
उसने बड़ी बेबसी से उस मुसलमान या ी क तरफ़ देखा ।
"िह दु तान-पा क तान म यु अव य होगा ।" दीवार के पीछे से आवाज़ आई । बग़ल
वाले के िबन से राजनीित का ेत बोला । "तब िमयाँ लोग को आटे-दाल का भाव मालूम
होगा ।"
"पता है, अकबर के िख़लाफ़ महाराना परताव के साथ कतने मुसलमान थे ?" कसी ने
सवाल कया, "और िशवाजी के सारे ख़त फ़ारसी म ह ? अगर िह दु तान-पा क तान म
लड़ाई ई तो यह दो मु क क लड़ाई होगी, दो मज़हब क नह ।"
"लड़ाई कसी क हो । िमयाँ लोग साथ पा क तान ही का दगे ।"
"पा क तानी िह दू कसका साथ दगे ?" कया गया, "वफ़ादारी क तराजू म दो ही
प ले होते ह िम टर !"
स ाटा हो गया !
"सारे भारतीय मुसलमान पा क तानी कु े ह ।"
"िह दु तान के आदिमय को पा क तानी कु ा कहते शम नह आती ? िसर पर चु टया
उगा लेने से आदमी भगवान् नह हो जाता ।"
"मुसलमानी करवा लेने से आदमी पैग बर भी नह हो जाता । यहाँ रहना है तो िह दू
बनकर रहना पड़ेगा ।"
"तो वहाँ के िह दु को मुसलमान बनकर रहना पड़ेगा ।"
"ईहो फिसल िबगड़ गइल ।" सामनेवाले के िबन से आवाज़ आई । "भगवान् ठ गइल
बाड़न ।"
"कहाँ के हो?"
"बिलया िजला का ह । मंजूरी करे के गइल रहल । बाक अब मजू रयो ना बाय ।"
"हरीऽऽ...ओ३म् । हरीऽऽ...ओ३म् । टोपी के पास वाले पि डत जी उठ बैठे ।
"िह दु तान-पा क तान यु समा हो गया हो तो सो जाइए ।" टोपी ने उधर झाँककर
कहा ।
उस के िबन के बाक़ लोग िखलिखलाकर हँस पड़े और टोपी के सामने बैठे ए मुसलमान
या ी ने इतमीनान क एक साँस ली ।

1. जौजा : प ी ।
तेरह

शाम क चाय के व त मेज़ पर तूफ़ान आ ही गया ।


टोपी घर प चँ ा तो दोन भाई चुनाव क मी टंग म भाषण देने गए ए थे । डॉ टर
साहब अपनी दूकान पर थे । रामदुलारी ने उसे सीधे गंगा नहाने के िलए भेज दया । वह
या करता ? अपने एक दो त के घर जाकर वह नहाया । टैप से भी तो गंगा ही का पानी
आता था आिख़र तो गंगा तक जाने क या ज़ रत थी ?
" कसका इलकशन लड़ाने आए हो ?" दो त ने पूछा । इस दो त का नाम िवश भर था ।
ब त ही क र कार का अराजनीितक आदमी था । 'िच ा' म उसके कपड़े क दुकान थी ।
यह दूकान उससे पहले उसके िपता और उनसे पहले उसके दादा क रह चुक थी । उसका
कहना था क राजनीित ध धे को चौपट कर देती है । दूकानदार को राजनीित से या काम
? चमार, मुसलमान और ठाकु र...सभी गाहक ह । वह दूकानदार ही या जो अपने गाहक
को खुश न रख सके ! चुनाव के दन म जो भी आता वह उसी को वोट देने का वादा कर
लेता । वह जनसंघी भी था और मुसिलमलीगी भी । कई मुसलमान प रवार उसके दादा के
ज़माने से उसके गाहक थे । उनम से दो पा क तान चले गए । पा क तान न बना होता तो
वे अब भी उसी के गाहक होते । उसक राजनीित यही थी । पर तु टोपी से यह पूछना भी
ज री था क वह कसका काम करे गा ।
"हम क लन का एलकशन लड़ाएँगे ।" टोपी ने कहा ।
इस जवाब के िलए िवश भर जैसा अराजनीितक आदमी भी तैयार नह था ।
"क लन ?"
"हाँ ।"
िवश भर हँस पड़ा । उसे यक़ न था क टोपी मज़ाक़ कर रहा है । पर तु घर पर शाम को
चाय पीते समय जो बात ई उसे कसी ने मज़ाक़ नह समझा ।
"यह तो मुसिलम यूिनव सटी से आया है । तु हारा ही काम करे गा ।" मु ी बाबू ने टोपी
क तरफ़ इशारा करते ए भैरव से कहा ।
"ब त से ऐसे लोग भी मेरा काम कर रहे ह जो मुसिलम यूिनव सटी से नह आए ह ।"
भैरव ने कहा, "यह तो अपने-अपने कनिव शंज़ क बात है भैया ! आप मुझसे पोिल टकल
बात न कया क िजए । जनसंघ देश को पीछे ले जाना चाहती है ।"
"और तुम अपने बैल क जोड़ी म मुसलमान को हल क तरह जोतकर देश को आगे ले
जाना चाहते हो ? यह नेह देश का बेड़ा ग़क़ करके दम लेगा । मुसलमान मोतीलाल, फर
स यद हसन के ज़माने से नेह प रवार क कमज़ोरी बन गए ह ।"
"वे या के कोठे का दीपक देश-भर क काश नह दे सकता ।"
मु ी बाबू यह सुनकर उखड़ गए । उ ह पता था क कां ेस के लाउड पीकर पर तो
राजनीित बघारते ह और कानाफू सी यह करते ह क मु ी बाबू बोड को दालमंडी बना दगे
। पर तु यह उ ह ने कभी सोचा भी नह था क यह बात भैरव कहेगा–और उनके मुँह पर
कहेगा ।
"आप सुन रहे ह िपताजी ?"
"सभी सुन रहे ह ।" टोपी ने कहा, "और आपने जो कु छ कहा था उसे भी सबने सुना था
।"
"मने ठीक कहा था ।"
"वह तो पता नह ।" टोपी ने कहा । "पर तु भैरव अव य ठीक कह रहा है । नाम है
जनसंघ और देश के कसी देहात म इस पाट का ऑ फ़स तक नह है । इसका नाम जनसंघ
नह बिनया संघ होना चािहए भैया !"
"तो आप भैरव बाबू का इलकशन लड़ाने पधारे ह ?" मु ी बाबू बोले ।
"जी नह ।" टोपी ने कहा । "म क लन का इलकशन लड़ाने आया ँ ।"
"उस मुसलमान का ?" मु ी बाबू और भैरव ने एक साथ कया ।
"भैरव बाबू, आपको िह दू-मुसलमान से या मतलब ? आप तो सेकुल र म और
सोशिल म क बात करते ह गे । टकट के वा ते कां ेसी हो गए हौ का ?"
"अब ई घर क ई दसा होगइल बाय क तूँ भ यन के िखलाफ एगो िमयाँ का चुनाव
लड़ाए के आइल बाड़ा ?" रामदुलारी बेचैन हो गई । "ए ही मोए कहत रहल क एके
अ लीगढ़ उ लीगढ़ ना भेजे के चाही... ।"
उस रात रामदुलारी को न द नह आई । उसक समझ म यह नह आ रहा था क कोई
भाई अपने भाइय का िवरोध कै से कर सकता है–और वह भी एक िमयाँ के िलए ?
रामदुलारी राजनीित नह जानती थी । वह मुसलमान क दुशमन भी नह थी । यह
बात उसने उड़ती-पड़ती सुन ली थी क कोई पा क तान बन गया है । पर तु िह दी के
समाचारप से उसे यह बात अव य मालूम हो चुक थी क सरहद पार के मुसलमान ने
िह दु पर बड़े जु म तोड़े ह । इसीिलए वह मुसलमान से डरने लगी थी । इसीिलए जब
टोपी अलीगढ़ भेजा जा रहा था तो उसने िवरोध कया था । और आिख़र वही आ िजसका
उसे डर था । टोपी मुसलमान से िमल गया था । वह इसी पर हैरान थी क मु ी बाबू और
भैरव म ठन गई है–पर तु बलभ ने तो लय ही कर दया । कल-युग म जो न हो जाए वह
कम है । वह अभी यह तै नह कर पाई थी क मु ी बाबू और भैरव म कौन अजुन है और
कौन दुय धन क बलभ आ गया–यह बलभ या है ?
खुद टोपी के दमाग म उसक तसवीर ब त साफ नह थी । उसम यह प रवतन के वल
राजनीितक चेतना के आधार पर नह आ था । इस प रवतन म उसके लड़कपन का हाथ
भी था । उसका लड़कपन मु ी बाबू के उतरन पहनने म गुज़रा था । उसका लड़कपन भैरव
के अिधकार को मानने म गुज़रा था । उसे यह बात मालूम नह थी क वह अपने दोन
भाइय से नफ़रत करता है । पर तु क लन ? क लन कहाँ से आ गया ? टू ड स फ़े डरे शन म
जाने के बाद भी उसने क युिन ट िवचारधारा को पूरी तरह मान नह िलया था । वह कई
पर क युिन ट पाट क िवचारधारा से सहमत नह था । जब वह क युिन ट पाट का
मे बर हो गया तब भी कई बात पर उसका िवरोध जस-का-तस रहा । वह पाट को इस
बात पर माफ़ नह कर सकता था क उसने जंग म अं ेज़ का और पा क तान के बारे म
मुसिलम लीग का साथ दया था । फर क लन कहाँ से आ गया ? अगर वह बनारस न
आता तो कसी को ख़याल भी न आता । पर तु वह बनारस आया । य आया ? उसके मन
क गहराई म कह यह ख़याल डंक मार रहा था क सक ना ने उसे राखी नह बाँधी । इसी
राखी के कारण वह अब तक सलीमा से अपने यार क बात तक नह बता सका था । उसके
सामने कशन संह और सीमा, डॉ टर रईस और शि के जोड़े थे । फर भी वह सलीमा से
अपने यार क बात करने से डरता था ।
सलीमा शाहजहाँपुर के एक पठान प रवार क बेटी थी । च पई रं ग और बड़ी-बड़ी
काली आँख वाली । सलीमा जब अलीगढ़ आई थी तो क र िह दू-दु मन थी । अलीगढ़
आने के बाद पहली बात उसने यह सुनी क सक ना टोपी से फँ सी ई है । यह सुनकर उसे
सक ना और टोपी दोन से नफ़रत हो गई ।
फर एक दन जब िह दी िवभाग के एक जलसे म टोपी ने एक पेपर पढ़ा तो वह टोपी से
िभड़ गई । उसने िह दी को िह दु क भाषा कहा और नतीजा यह िनकाला क िह दु
क भाषा रा ीय भाषा नह हो सकती ।
"...उदू कसी ले चरर क बीवी नह है क कोई उसे फँ सा ले..." टोपी का काला रं ग
लाल हो गया ।
सारी यूिनव सटी म सनसनी फै ल गई । अ दु ला हॉल से लेकर वी.एम. हॉल तक
स ाटा हो गया ।
यह उसी दन क बात है िजस दन से कथाकार ने यह कहानी शु क थी और टोपी ने
इ फ़न से कहा था क वह कसी मुसलमान लड़क से यार करना चाहता है । यह बात
कहते व त टोपी के यान म दूर-दूर सलीमा नह थी । पर तु जब बाद म उसने सोचा तो
उसे शक होने लगा ।
एक, दो, तीन, चार बरस गुज़र गए । टोपी जो कहता सलीमा उसका िवरोध करती ।
सलीमा जो कहती टोपी उसका मज़ाक़ उड़ाता...ये बात इतनी बढ़ क दोन के नाम एक
साथ िलए जाने लगे । सलीमा क टोपी क सलीमा कहा जाने लगा और टोपी को सलीमा
क टोपी !
आप कथाकार से यह न कर क सलीमा क बात उसने इतनी देर के बाद य छेड़ी
। सलीमा क बात छेड़ने का अवसर यही है । म कोई आपको टोपी और सलीमा क ेम-
कहानी तो सुना नह रहा ँ । पर तु इस समय जहाँ हम ह वहा सलीमा क बात िनकाले
िबना काम नह चल सकता । य द ऐसा न होता तो म आपको सलीमा क बात ही न
बताता । कथाकार का कत यह नह है क वह अपने हीरो के िवषय म सब-कु छ ही बता
डाले । सारी िज़ दगी बड़ी बो रं ग होती है । कथाकार यह बो रं ग िह से छाँट देता है । जो
अपने पा के जीवन के बो रं ग िह से न काट सके वह कथाकार नह है । कथाकारी क
कला सुनने से यादा न सुनाने क कला है । पर तु यह तभी स भव है जब कथाकार अपने
कै रे टज़ के बारे म सब-कु छ जानता हो । म टोपी के बारे म सब-कु छ जानता ँ इसीिलए
मने इतनी दूर आकर सलीमा क बात िनकाली है । अगर सलीमा क बात शु ही म छेड़
दी जाती तो आप इस कहानी को भी एक साधारण ेम-कहानी समझकर सलीमा को
हीरोइन मान लेते और यह सोचकर खुश या नाखुश होने लगते क एक िह दू लड़के और
एक मुसलमान लड़क का इ क़ लड़वाकर म नेशनल इं टगरे शन का काम कर रहा ँ ।
पर तु म जानता ँ क इ क़ लड़वा देने से इं टगरे शन नह होता । अगर ऐसा होता तो
ेमच द के 'मैदाने-अमल' का अंजाम कु छ और ही होता ।
इसिलए म आपको फर यह बताना चाहता ँ क यह टोपी क ेम-कथा नह है बि क
उसक जीवनी है । इसिलए सलीमा को इस कहानी क हीरोइन मान लेने क भूल करने
क राय म नह दूग ँ ा।
बात यह है क सक ना और टोपी क बात के वल मुसिलम यूिनव सटी म सीिमत नह
रह गई थी । छु य म लड़के घर जाते ह । छु याँ न ह तो पैसे मँगवाने के िलए लड़के
ख़त िलखते ह । चुनाँचे इन लड़क और ख़त के साथ बात भी या ा करती ह ।
सबसे पहले यह बात मु ी बाबू को मालूम ई क टोपी एक मुसलमान ले चरर क
बीवी सक ना से फँ सा आ है । मु ी बाबू ने यह बात सबसे पहले िबसिम लाजान को
बताई । अब आप मुझसे यह न पूिछए क मु ी बाबू और िबसिम लाजान का या तुक है ।
खुद म भी यह देखकर ब त हैरान आ था । पर तु अगर मु ी बाबू को भी दालमंडी के
भरे -पूरे बाज़ार क सैकड़ िह दू रं िडय को छोड़कर मुसलमान िबसिम लाजान पस द
आ तो म या क ँ ?
"तो इसम घबराने क या बात है ?" िबसिम लाजान ने कहा । "म भी तो मुसलमान ँ
। अ माँ िपछले ही साल तो हज कर आई ह ।"
"वह रं डी नह है ।"
"आप बड़े भोले ह ।" िबसिम लाजान ने मुसकराकर कहा । "आपको या पता क कौन
रं डी है और कौन रं डी नह है । म आपको इस बाज़ार म न िमलती तो या आप मुझे रं डी
मानते ? या यह बात मेरे माथे पर िलखी है क म रं डी ँ ?"
"मगर..."
"मँझले िमयाँ क शादी कर दीिजए । आपक शादी भी तो आपको मु ी बाई से बचाने
ही के िलए क गई थी ।"
"पता नह वह कहाँ होगी ।"
"वह ग़ाज़ीपुर के एक ख़ाँसाहब के घर बैठ गई है ।"
" या !" मु ी बाबू च क पड़े । "मु ीबाई कसी ख़ाँसाहब के घर बैठ गई है ?"
"जी हाँ ।"
"मगर यह कै से हो सकता है ।"
" य ?"
" या वह मुसलमान हो गई ?"
" कसी के घर बैठे रहने के िलए मुसलमान हो जाने क शत कब से लग गई ?"
मु ीबाई का ग़ सा मु ी बाबू ने टोपी पर उतारा । उ ह ने वह ख़त डॉ टर साहब को
दखा दया । डॉ टर साहब चुप रह गए । अगर सक ना कसी क बीवी न रही होती तो
शायद वह परे शान ए होते । पर तु जब कु छ दन बाद वैसा ही एक ख़त भैरव ने दखाया
तो वह कु छ परे शान ए और जब एक रात यही बात रामदुलारी ने बताई तो वह सोच म
पड़ गए और उ ह ने टोपी को घाटे पर याह देने का फ़ै सला कर िलया ।
रटायड थानेदार बालकृ ण क इकलौती लड़क को कोई वर नह िमल रहा था । तो
उसे एक वर िमल गया । यह िबलकु ल इि फ़ाक़ है क उ ह दन क लन का चुनाव लड़ाने
के िलए टोपी आ गया ।
"तो तुम भाइय के िख़लाफ़ इले शन लड़ाने आए हो ?" डॉ टर साहब ने पूछा ।
"जी हाँ ।"
"तु ह लाज नह आती ?"
"अगर उ ह लड़ने म लाज नह आई तो मुझे लड़ाने म य आए ?"
" या तुम क युिन ट हो गए हो ?"
"जी हाँ ।"
"सक ना कौन है ?"
टोपी चुप हो गया । उसने अपने बाप क आँख म आँख डाल द ।
"वह मेरी क प नह है ।"
"तो कौन है ?"
"मेरे बचपन के एक दो त क वाइफ़ है ।"
"मगर..."
"िपताजी म..." उसने डॉ टर साहब क बात काटनी चाही ।
"मने बाबू बालकृ ण राय क बेटी से तु हारी बात प कर दी है ।" डॉ टर साहब ने
उसक बात काट दी ।
"म यह शादी नह क ँ गा ।"
डॉ टर साहब अपने घर म इस तरह क बात सुनने के आदी नह थे । िबगड़ गए ।
"नह करोगे तो िनकल जाओ मेरे घर से ।"
"िह दू लड़का पैदा होते ही हक़दार हो जाता है ।" टोपी ने कहा, "पर तु म उस घर म
रहना भी नह चाहता िजसने कभी मेरी बात न पूछी हो और िजसम मुझ पर अपनी बहन
के साथ फँ स जाने का आरोप लगाया गया हो ।"
वह चुपचाप कमरे से िनकल गया । दन-भर तो कसी को ख़याल भी नह आया क वह
कहाँ है । पर तु जब रात आ गई और वह नह आया तो रामदुलारी परे शान होने लगी और
तब डॉ टर साहब ने उसे बताया क उ ह ने उसे घर से िनकाल दया है ।
"का ?" रामदुलारी कराह उठी ।
"हाँ ।"
"कानी कहाँ होई..."
टोपी उस समय वे टंग म म बैठा सलीमा को ख़त िलख रहा था ।
...तुम चाहो तो यह ख़त मुमताज़ आपा को दखा दो । और वह चाह तो मेरा रि टके शन
करवा द । फर भी म आज तुमसे यह कहना चाहता ँ क म तुमसे इतना डरता ँ क तु ह
अपने-आपसे दूर नह रख सकता । या हम शादी नह कर सकते ? तुम कह सकती हो क
तुम मुसलमान हो और म िह दू । ब े ब त िचतकबरे ह गे । पर तु या यह नह हो सकता
क ब क बात हम ब ही पर छोड़ द ? आज िपता जी ने मुझे घर से िनकाल दया है ।
वह भी यही सोचते ह क म सक ना से फँ सा आ ँ ।...
टोपी ने इस ख़त को कई बार पढ़ा । फर उसने वह ख़त फाड़ दया । वह यह ख़त भेज
नह सकता था । उसे मालूम था क ऐसे ख़त के वल स ती कहािनय म िलखे जाते ह ।
जीवन म इस कार के ख़त क कोई गुंजायश नह है । पर तु यह ख़त िलखकर सीने का
बोझ हलका हो गया । यह बात बरस से उसके हलक़ म फँ सी ई थी । वह लेट गया और
सलीमा के बारे म सोचने लगा ।
सवेरे उठकर उसने चाय पी । और जब चाय ने रात क थकन धो दी तब उसने यह
सोचना शु कया क अब या करना चािहए । सारी िज़ दगी टेशन पर तो गुज़ारी नह
जा सकती ।
वह सीधा क लन के घर गया । क लन ने उसे देखकर दाँत िनकाल दए ।
"म चुनाव तक यह र ग ँ ा ।"
"यहाँ ?" क लन च क पड़ा ।
"हाँ । िपता जी ने मुझे घर से िनकाल दया है ।"
यह बात न डॉ टर साहब ने सोची थी, न मु ी बाबू या भैरव ने क टोपी डंके क चोट
पर यह कह देगा क उसे घर से िनकाल दया गया है ।...
कथाकार आपको टोपी क तक़रीर सुनाकर बोर करना नह चाहता, य क हीरो क
पर परा के अनुसार टोपी को अ छा पीकर होना तो चािहए था पर तु वह ब त ही बुरा
पीकर था । इसिलए म चुनाव क गहमागहमी को छोड़ रहा ँ । मुझे या आपको क लन
या मु ी बाबू क हार-जीत म या दलच पी हो सकती है । चुनाव टोपी के जीवन का
िह सा नह था । पर तु घर से िनकाला जाना अव य एक मह वपूण घटना है । उसने
इ फ़न को एक ख़त िलख डाला–
...आज मुझे पता चला क तु हारे बाबा आदम ज त से िनकाल दए जाने पर कतने
खुश ए ह गे । ज त भी मेरे िपता के घर क तरह बड़ी ही बो रं ग जगह रही होगी । अम
भाई यह भी कोई बात ई क म तु हारी प ी से फँ सना चा ँ तो िपताजी से इज़ाज़त माँगूँ
। अब तो मेरा कोई घर भी नह रह गया है । एक नौकरी, एक घर और एक घरवाली का
ब दोब त तुर त करो...
इ फ़न ने यह ख़त सक ना को दखा दया ।
"इजाज़त को उसने इज़ाज़त िलखा है, ले कन उसका ख़त गौरतलब है ।"
"अगर उस कलूटे से फँ स जाने पर मुझे एतराज़ नह तो उसके झंडूस बाप डॉ टर, न
मालूम कौन नराएन शु ला को या एतराज़ हो सकता है ?" सक ना ने कया ।
इ फ़न ने कोई जवाब नह दया ।
"टोपी अंकल का घर कहाँ है बाबा ?" शबनम ने पूछा ।
"अब उसका घर यह है बेटा !"
"म उस िह दू को अपने बरतन म नह िखला सकती ।" सक ना चमक । "हम यूँ भी
चाय के एक सेट क ज़ रत है ।"
बात ख़ म हो गई । शबनम क़ालीन पर धी लेटकर अंकल टोपी क तसवीर बनाने
लगी । इ फ़न अख़बार पढ़ने लगा और सक ना बावरचीख़ाने क तरफ़ चली गई ।
चौदह

अलीगढ़ आने के बाद टोपी को पहली ख़बर यह िमली क सलीमा क शादी हो गई । यह


ख़बर उसे शबनम ने दी । वह जब टेशन से सीधा इ फ़न के घर प च ँ ा तो घर पर शबनम
के िसवा कोई नह था । इ फ़न यूिनव सटी जा चुका था और सक ना पड़ोस म थी ।
"टोपी अंकल, बड़ा मज़ा आया ।" शबनम ने कहा ।
" या आ ?"
"सलीमा ख़ाला क शादी हो गई ।"
"तो मज़ा या आया ?"
"हम लोग जानेवाले थे । गाड़ी छू ट गई ।" शबनम हँस पड़ी ।
टोपी को उदास होने का तो कोई हक़ था नह । इसिलए वह बावरचीख़ाने म जाकर
चाय बनाने क तैयारी करने लगा । शबनम भी उसके पीछे-पीछे बावरचीख़ाने म आ गई ।
बोली–
"अंकल, म ब त बोर हो रही ँ ।"
" या हो रही है तू?" टोपी च का ।
"बोर ।"
"तुम भी बोर होने लग ।"
" या क ँ ? सभी बोर हो रहे ह । बोर या होता है अंकल ?"
"बोर बोर होता है ।"
"अ मी ने आपके िलए एक वेटर बुना है ।"
"कै सा है ?"
"बड़ा अ छा है । अंकल, आप िह दू ह ना ?"
" य ?"
"कल म आंटी शाहेदा के यहाँ गई थी । तो वह आंटी महमूदा से िह दु क बुराई कर
रही थ । मने कहा, वाह ! िह दू तो अंकल टोपी भी ह । वह तो बड़े अ छे ह । दोन हँसने
लग । आंटी शाहेदा ने कहा, माँ को अ छा लगता है तो बेटी को य न अ छा लगेगा ?
या आप अ मी को ब त अ छे लगते ह ?"
"तेरी सलीमा आंटी क शादी कब ई ?"
"परस ।"
"तुम कब आ गए ?" सक ना ने घर म घुसते ही हाँक लगाई ।
"थोड़ी देर ई । शबनम से ख़बर सुन रहा था ।"
"तो तु ह उस डॉ टर न मालूम कौन शु ला ने िबलकु ल िनकाल दया ?"
"डॉ टर न मालूम कौन नह । डॉ टर भृगु नारायण शु ला नीले तेल वाले ।"
"ह गे ।"
"ह गे नह , ह ।" टोपी बोला, "तुमसे फँ सने का मतलब यह तो नह क मेरे बाप का
नाम डॉ टर न मालूम कौन हो जाए ?"
"सूरत देखी है अपनी ।" सक ना चमक ।
"रोज़ देखता ँ ।"
"म इनसे फँ सुँगी !"
"सारी दुिनया कह रही है ।" टोपी बोला, "शबनम कह रही थी क सलीमा क शादी हो
गई ।"
"हाँ ।"
"एक मुसलमान लड़क पर कसी तरह आिशक़ आ तो उसक शादी हो गई ।"
"इ फ़न ने तु हारी तरफ़ से ए लीके शन भेज दी है ।"
" कसी लड़क के बाप के पास ?"
"अब यह तो मुझे नह मालूम ।" सक ना ने कहा, "वैसे वह इस यूिनव सटी का
रिज ार है ।"
"जब तक तुम मुझसे फँ सी ई हो म यहाँ ले चरर नह हो सकता और भाई रीडर नह
हो सकते ! सोच रहा ँ क तु ह छोड़ दूँ ।"
सक ना स ाटे म आ गई । यह कसी और क आवाज़ थी ।
"बको मत ।"
"म बक नह रहा ,ँ मुझे तु हारी या अपनी या भाई क परवा नह है । पर तु यह
शबनम..."
"मेरी बेटी अरनतू-परनतू नह हो सकती ।"
"इस बात को हँसकर कब तक टालती रहोगी ! तुम मुझे राखी य नह बाँध देत ?"
"यहाँ के मु ल से डरकर ? यहाँ क जमीला, अनीसा, क़ु दिसया आपा से डरकर ?
यहाँ के डरपोक क युिन ट से डरकर ? म कसी िह दू को राखी नह बाँध सकती । तु हारे
बाप डॉ टर न मालूम कौन नीले तेल वाले ने तु ह घर से िनकाल दया है । तु हारे भाई ने
इस घर म तु हारे िलए एक कमरा ख़ाली कर दया है । िह मत हो तो हमारे साथ रहो ।"
टोपी का जवाब सुने बगैर सक ना अपने कमरे म चली गई । वह रोना चाहती थी, पर तु
वह टोपी और शबनम के सामने रोना नह चाहती थी । उसे रमेश याद आ रहा था िजसका
एक ख़त उसके त कए के नीचे रखा आ था । उसने वह ख़त फर पढ़ना शु कया । ख़त
उदू म था ।
सु न मेरी बहन ! म लड़ाई के मैदान म ,ँ पता नह या होनेवाला है । हर तरफ़ न
ख़ म होनेवाली बफ़ का अटू ट िसलिसला है । म ब त अके ला ँ य क मेरे पास तेरी राखी
नह है । तू इतना य बदल गई है सु न ?...
दो महीने पहले का िलखा आ ख़त उसे दो दन पहले िमला था और उसी दन के
अख़बार म यह ख़बर भी थी क कनल रमेश ल ाख के मोच पर लड़ते ए मारे गए । यह
ख़बर पढ़कर सक ना अपने ब स म रखी ई रािखय को िगनने लगी थी । इसी म तो देर
हो गई थी, गाड़ी छू ट गई थी और वह सलीमा क शादी म न जा सक थी । उसने इ फ़न
को भी यह बात नह बताई थी क उसके ब स म रािखय क लाश है और घर म लाश
छोड़कर शादी म कै से जा सकती है । और यह टोपी पूछ रहा है क म उसे राखी य नह
बाँध देती ?
उसने अपने ब स से चौदह रािखयाँ िनकाल । हर राखी को यार करने के बाद उसने
उ ह फर ब स म रख दया ।
"ए भाबी !" टोपी ने दरवाज़े से आवाज़ दी ।
" या है ?"
" या कर रही हो ?"
"सोच रही ँ ।"
" या सोच रही हो ?"
"यह सोच रही ँ क मने आिख़र तुमम या देखा क अपने चाँद जैसे िमयाँ को भूलकर
तुमसे फँ स गई ।"
"चाँद दाढ़ी नह रखता ।" इ फ़न ने कमरे म आते ए कहा । "यार टोपी, इस खुदा क
ब दी को परस से जाने या हो गया है ! बैठे-बैठे ग़ायब हो जाती है ।"
पर तु सक ना यह फ़ै सला कर चुक थी क वह कसी को अपने इस ग़म म शरीक नह
करे गी । उसका ग़म था भी तो ऐसा क कसी को उसका समझाना ब त मुि कल था । सब
जानते थे क वह िह दु से नफ़रत करती है । पर तु यह कोई नह जानता था क उसके
ब स म तले-ऊपर चौदह रािखयाँ रखी ई ह । इन दोन म से स ा कौन था ? उसक वह
नफ़रत िजसे सब जानते थे, या वे रािखयाँ िज ह कोई नह जानता था ? सच और झूठ म
फ़क़ करना कोई आसान नह है । यह बात शायद सक ना को भी नह मालूम थी क उसक
नफ़रत झूठी है या उसक रािखयाँ ।
" ा ल ज़ ऑफ़ नेशनल इं टगरे शन पर आज इरफ़ान हबीब एक पेपर पढ़ रहे ह । सुना
है क इक़ितदार आलम ख़ाँ भी कोई च का देनेवाली बात कहनेवाले ह ।" इ फ़न ने टोपी
से कहा ।
"भाई ख़ाँ च का देनेवाली बात कहने म हाितम ह ।" टोपी बोला ।
" कसी के पेपर पढ़ने से इं टगरे शन नह हो सकता ।" सक ना बोली । "और जो आ भी
तो लोग यादा-से- यादा आले अहमद सु र और रवी मर हो जाएँगे । नह भाई, मुझे
सीधे-सादे क युनल िह दू-मुसलमान यादा पस द ह ।"
"जब कहोगी उ टी ही बात कहोगी ।" टोपी ने कहा ।
"उ टी या है ?" सक ना िबफर गई । " या सु र साहब ने डॉ टर सतीश के िख़लाफ़
िनज़ामी को ोफ़े सर बनाने के िलए एक पूरा इसलामी मोचा नह बना िलया था ? और
फर या उ ह ख़लीक़ िनज़ामी को यहाँ के न वाब क युिन ट ने इरफ़ान हबीब के
मुक़ाबले म ोफ़े सर नह बना दया ? इस यूिनव सटी म िसफ़ मौक़ापर त बसते ह । कु छ
दन म डान िवमज़ कॉिलज क ंिसपल हो जाएँगी और तुम...उसने इ फ़न क तरफ़
इशारा कया, "तुम ले चरर-के -ले चरर रह जाओगे । यहाँ मजनूँ गोरखपोरी को जगह
नह िमलेगी और ख़ाजा मसऊद अली ज़ौक़ को तर क़ िमलेगी । यह मु क अबरार
मु तफ़ा , जज़िबय , मर और नू लहसन के िलए है । इस मु क म टोिपय और
इ फ़न के िलए कोई जगह नह है । यहाँ शहर के रईस क लड़ कयाँ स लाई करनेवाली
आपाएँ मेरे बारे म यह कहगी क म टोपी से फँ सी ई ँ । और डॉ टर को यह बात बताने
के फ़ौरन बाद ही वह कसी लड़क का पेट िगरवाने क बात करने लगगी । यहाँ मेरा दम
घुट रहा है । मुझे ले चलो यहाँ से ।..."
टोपी और इ फ़न दोन ही सक ना का मुँह देखते रह गए और सक ना फू ट-फू टकर रोने
लगी ।
"इसीिलए तो कहता ँ क राखी बाँध दो ।" टोपी ने कहा ।
" य बाँध दूँ राखी ?" सक ना चीख पड़ी । उसक बड़ी-बड़ी याह आँख से लाली
झाँकने लगी । "म यहाँ क कोई आपा नह ँ । म िजसे राखी बाँधती ँ वह मर जाता है ।"
"कौन मर गया ?" इ फ़न ने घबराकर सवाल कया ।
"पर तु..." टोपी ने मुँह खोला ।
"एक िह दू मर गया ।"
सक ना पागल क तरह रोने लगी । इ फ़न उसके िसरहाने बैठकर उसके बाल सुलझाने
लगा । टोपी ने कमरे म अपने-आपको िबलकु ल फ़ािज़ल पाया । वह सक ना को छू नह
सकता था । वह जहाँ था वह खड़ा भी नह रह सकता था । उसने े संग टेबल क चीज़
को एक क़तार म रखना शु कया । यह काम िमनट-भर म हो गया । सक ना अभी तक रो
रही थी । इ फ़न उसके बाल सुलझा रहा था । टोपी उ ह कमरे म छोड़कर िनकल आया ।
शबनम एक पलंग पर लेटी गुनगुना रही थी–
जैक ड िजल
वट अप द िहल...
टोपी जैक के क़ से म फँ सना नह चाहता था, नह तो वह हमेशा क तरह यह कहता
क आिख़र उस जैक को पहाड़ पर जाने क ज़ रत ही या थी ? और यह सुनकर शबनम
लड़ पड़ती और समय कट जाता ।
"कौन मर गया ?" जैसे जैक ड िजल ने कया । पर तु टोपी ने जवाब नह दया ।
वह ब त उदास था । वह जानता था क सक ना क नफ़रत झूठी है । इसीिलए उसे इस
बात का दुःख नह था क सक ना उसे राखी बाँधने से इनकार कर रही है । उसे दुःख इस
बात का था क सक ना रो रही थी ।
बहादुर पानवाले क दूकान पर हमेशा क तरह भीड़ भी । पान-िसगरे ट के िसवा अब
बाज़ार म कोई ऐसी चीज़ रह भी तो नह गई है िजसे सब खरीद सक । बाक़ बाज़ार ऊँघ
रहा था । 'टी कारनर' और 'कोज़ी कारनर' म कु छ लड़के रे िडयो सीलोन का ो ाम सुन रहे
थे । लाला क दूकान पर 'तसवीर महल' के पो टर कु छ उदास-उदास दखाई दे रहे थे ।
अमीन हमेशा क तरह कसी लड़के क हजामत बना रहा था और शायद उसे यह बता रहा
था क सदर अ यूब को हजामत बनवाने का कतना शौक था । और न वाबज़ादा िलआकत
अलीख़ाँ ने चार रोज़ शेव नह करवाया य क वह एक शादी म चला गया था । कया
ज़माना या !...
सब-कु छ वैसा ही था । डॉ टर नू लहसन के फाटक के सामने लगा आ राइ डंग लब
का बोड बेपरवा-सा खड़ा ताँग -इ के घोड़ क लीद क महक सूँघ रहा था और एक
मोची िसर झुकाए कसी बोसीदा च पल के पुराने पेब द पर नया पेब द चढ़ा रहा था ।...
सब-कु छ वैसा ही था ।
टोपी के पास से कु छ लड़के कसी लड़क क बात करते ए गुज़रे । फर एक लड़के पर
लड़क के एक गोल ने जुमल क बाढ़ मारी । वह लड़का िसर झुकाए चला गया ।
'रहमत कै फ़े ' के सामने लड़क म चल गई । चाकू िनकल आए । एक थाई लड़के ने एक
लड़के क नाक तोड़ दी । ा टो रयल बुल ने थाई लड़के से कु छ नह कहा और ज़ मी
लड़के का नाम-पता नोट कया जाने लगा ।
एक क रा ते क पगली लड़क को कु चलता आ आगे चला गया । ऑल इं िडया रे िडयो
से ख़बर आने लग ।
"अम या बाबा ने िनकाल दया ?" कसी ने टोपी के क धे पर हाथ रख दया ।
"हाँ ।" टोपी ने जवाब दया ।
सवाल करनेवाला एक सीिनयर दादा था ।
"कभी हम भी िमलवाओ अपनी सक ना से ।"
यह पहला मौक़ा था जब कसी ने उसके सामने सक ना का नाम इस बेदद से िलया था
। वह ितलिमला गया ।
बग़ल से गुज़रनेवाले लड़के िखलिखलाकर हँसे । उ ह ने दादा क बात नह सुनी थी । वे
तो आपस म हँसे थे । पर तु टोपी को ऐसा लगा जैसे वे उसी पर हँस रहे ह । फर सारा
बाज़ार हँसने लगा । िसनेमा के पो टर और राइ डंग लब के बोड हँसने लगे ।
"शट अप !" टोपी ने कहा ।
सारे क़हक़हे ब द हो गए ।
शमशाद माकट क साँस क गई । चेहरा उतर गया । बहादुर ज दी-ज दी पान लगाने
लगे । स यद हबीब एक गाहक से बात करने लगे । इधर-उधर वाले लड़के चायख़ान म
चले गए । टोपी का हलक़ सूख गया । उसका दल ज़ोर-ज़ोर से धड़कने लगा ।
"शट अप !" दादा ने कहा । उसे हैरानी थी क उसक आँख -म-आँख डालकर कोई 'शट
अप' कै से कह सकता है ! वह भरे बाज़ार म जैसे नंगा हो गया था । 'शट अप !' वह फर
बड़बड़ाया ।
टोपी अपनी जगह खड़ा रहा ।
"यह भागता य नह ?" दादा ने अपने-आपसे कया ।
उसके बाद जो कु छ आ उसे बढ़ा-चढ़ाकर बयान करने क ज़ रत नह । इतना जान
लेना काफ है क टोपी को होश आया तो वह अ पताल म था । उसके बदन पर चाकू के
कई घाव थे और ा टर साहब को शमशाद माकट म कोई गवाह नह िमल रहा था । वार
करनेवाले को कोई पहचानता नह था ।
कठपुले के पास जलसे होने लगे । कॉिलज म हड़ताल हो गई । बाज़ार ब द हो गए ।
कानाफू सी होने लगी । लोग ज दी-ज दी घर जाने लगे...
बलवा हो गया । फर बलवा सारे पि छमी यू.पी. म फै ल गया । मेरठ, शाहजहाँपुर,
बरे ली, हाथरस, खुजा...लाश, लाश, लाश ।
लाश !
यह श द कतना िघनौना है ! आदमी अपनी मौत से, अपने घर म, अपने बाल-ब के
सामने मरता है तब भी िबना आ मा के उस बदन को लाश ही कहते ह और आदमी सड़क
पर कसी बलवाई के हाथ मारा जाता है, तब भी िबना आ मा के उस बदन को लाश ही
कहते ह । भाषा कतनी ग़रीब होती है ! श द का कै सा ज़बरद त काल है ! कतनी शम
क बात है क हम घर पर मरनेवाले और बलवे म मारे जानेवाले म फ़क नह कर सकते,
जब क घर पर के वल एक ि मरता है और बलवाइय के हाथ पर परा मरती है,
स यता मरती है, इितहास मरता है । कबीर क राम क ब रया मरती है । जायसी क
प ावती मरती है । कु तुबन क मृगावती मरती है, सूर क राधा मरती है । वा रस क हीर
मरती है । तुलसी के राम मरते ह । अनीस के सैन मरते ह । कोई लाश के इस अ बार को
नह देखता । हम लाश िगनते ह । सात आदमी मरे । चौदह दूकान लुट । दस घर म आग
लगा दी गई । जैसे क घर, दूकान और आदमी के वल श द ह िज ह श दकोश से
िनकालकर वातावरण म मँडराने के िलए छोड़ दया गया हो !...
आप यह न सोचना शु कर द क कथाकार भाषण य देने लगा ? मा चाहता ँ ।
पर तु म कोई लीडर नह ँ । मेरे पास कहने के िलए इतनी बात ह क मुझे भाषण देने क
ज रत नह है । ये बात टोपी ने कही थ । और यूँ ही कही थ । ये बात कहने म उससे
ोनंिसयेशन क कोई ग़लती भी नह ई ।
समाचारप , रे िडयो, नेता और सारे िह दू तथा सारे मुसलमान बलवे के बारे म सोचने
लगे । सब यह भूल गए क एक टोपी भी है जो अ पताल म पड़ा शायद मर रहा है । बस
सक ना ने उसे याद रखा । वह रोज़ अ पताल ज़ाती । सारे मरीज़, तमाम डॉ टर,
क पाउ डज़, भंगी, र शेवाले, ोफ़े सर, रीडर, उनक बेगम, और धमपि याँ उसे हैरत से
देखत । पर तु वह िसर उठाए ए जाती । िसर उठाए बैठी रहती और िसर उठाए लौट
आती ।
टोपी इसी पर भाषण देता रहता । शबनम उकताकर बाहर लॉन म चली जाती ।
पर तु लौटकर आती तो देखती क भाषण चल रहा है ।
"तुम यह य नह समझत क बलवा एक लोकलाइ ड फनोिमना है । जब जमशेदपुर
म बलवा हो रहा था तो या अलीगढ़ म तु ह न द नह आ रही थी ?"
"मेरी बात छोड़ो ।" सक ना ने कहा, "मुझे तो यूँ भी न द नह आती ।"
" य ?"
"रािखयाँ साँप बनकर मेरे बदन पर रगने लगती ह ।"
"रािखयाँ ?"
"हाँ ।"
"तुम पागल हो ।" टोपी हँस पड़ा ।
"हँसो मत । डॉ टर ने हँसने को मना कया है ।"
"हद हो गई । डॉ टर लोग अब हँसने पर भी रोक लगाने लगे । अपने देश म हँसने के
मौके ही कहाँ आते ह !"
"यह तुम लोग हर बात को पोिल टकल य बना देते हो ?"
" य क हम नारा लगाने और भाषण देने म मज़ा आता है ।"
"इ फ़न ने दाढ़ी मुँड़वा दी ।"
" या ! कब और य ? और फर कब रखनेवाले ह । ?"
"पता नह ।"
यह बात इ फ़न को भी नह मालूम थी क उसने दाढ़ी रखी य थी और रखी ही थी
तो मुँडवायी य ? जब बलवे शु हो गए तो वह ब त उदास आ । फर एक दन
सक ना ने देखा क वह बाज़ार से शे वंग सेट ख़रीद लाया । सक ना ने कोई सवाल नह
कया ।
"अरे मुझे दखलाओ उस दाढ़ी-मुँडे को ।"
"वह द ली चले गए ह ।"
" य ?"
"उ ह ने रज़ाइन कर दया है ।"
"भाई को म इतना डरपोक नह समझता था ।" टोपी रो पड़ा । "भाई मुझे छोड़के और
मुझे बताए िबना ही द ली चले गए ।"
"अब यहाँ रहना इ पािसबल हो गया है टोपी !"
" य ?"
"सब-कु छ जानकर अनजान न बनो ।"
"तो फर तुम यहाँ य आती हो ?"
"तुम कहो तो न आया क ँ ।"
यह कहकर वह कमरे से इतनी तेज़ी से िनकल गई क टोपी कु छ कह भी न पाया । वह
ब क तरह त कए म मुँह िछपाकर रोने लगा ।
वह सक ना और इ फ़न से ठ गया था, इसीिलए जब सक ना शाम को फर आई तो
वह सक ना से नह बोला । सक ना भी नह बोली ।
"अब य आई हो ?" उसने जलकर सवाल कया, "गई तो ब त अकड़के थ ।"
" या म तु हारी ल डी ँ क तुमसे पूछ-गछके आया-जाया क ँ ?" सक ना िबगड़ गई,
"तुम अपने को समझते या हो ? तु ह यह हक़ कसने दया क तुम मुझसे इस क़ म के
सवाल करो ? आपे म रहा करो ज़रा । दमाग़ यादा ख़राब न हो ।"
टोपी ह ा-ब ा रह गया ।
प ह

इ फ़न का इ तीफ़ा मान िलया गया । उसका इ तीफ़ा नह माना तो टोपी ने ।


"बात यह है टोपी, क जब तुम अ पताल म थे तो म िबलकु ल अके ला पड़ गया । हम
लोग एक-दूसरे के बग़ैर अधूरे ह । म सक ना क बे रमती झेल सकता था । मगर न म इसे
भूल सकता ँ और न सक ना क यह बलवा सक ना ही क वजह से आ..."
"फु जूल बात न करो ।" टोपी ने यह कहकर इ फ़न और सक ना क तरफ़ देखा । उसे
यक़ न था क उनम से कोई-न-कोई उसे ज़ र टोके गा क फु जूल नह फ़ु जूल और फर सब-
कु छ ठीक हो जाएगा । पर तु उसे कसी ने नह टोका । उसे बड़ा दुःख आ 'िज दगी जैसे
िबलकु ल खोखली हो गई ।'
"भाई साले, तुम यह य भूल जाते हो क तुम मुसलमान हो । मुझे नौकरी नह िमलती
तो तु ह कहाँ िमलेगी !" टोपी झ ला गया ।
"अंकल, गाली बकते हो ।" शबनम ने टोक दया ।
"तुझे कसने बताया क साला गाली है ?" टोपी ने सवाल कया ।
"देखो टोपी !" इ फ़न ने कहा, "यूँ झ लाने से कोई फ़ायदा नह ।"
"तो या पा क तान जाओगे ?"
"नह । म पा क तान कै से जा सकता !ँ मोहरम म इमाम सैन िह दु तान आते ह ।
इस साल उनसे मुलाक़ात करके पूछूँगा क सच बोलने क सज़ा आदमी को कब तक िमलती
रहेगी ।"
"जब तक आदमी झूठ बोलता रहेगा ।" टोपी ने जवाब दया, "कल म एक इं टर ू देने
जा रहा ँ ।"
"कहाँ ?"
"सनातन धम िडगरी कॉलेज, बहराइच ।"
" य जा रहे हो ? तु ह नौकरी नह िमलेगी ।" सक ना ने कहा ।
"म बलव का हीरो ँ । तुमने िह दी के पेपर तो देखे नह । मेरी बड़ी-बड़ी तसवीर छपी
ह । िपता जी महोदय का ख़त आया था क उ ह ने मुझे मा कर दया है और एक ब त
बड़े घर म मेरे शुभ िववाह क बात चला रहे ह । मेरे होनेवाले फ़ादर-इन-लॉ ने द ली म
मुझे एक बड़ी नौकरी, एक ब त बड़ी कार, एक छोटी-सी कोठी और एक बड़ा सा बक
बैलस देने का वादा कया है ।"
"झट-से शादी कर लो ।" सक ना ने कहा ।
"अंकल टोपी, म घुमूँगी तु हारी कार म ।" शबनम ने कहा ।
"हाँ-हाँ । तेरे घूमने के िलए मुझे शादी करनी ही पड़ेगी ।"
"तो म जाकर शोभा और फु ली को बता आऊँ ?"
" या बताओगी ?"
मगर शबनम अपनी सहेिलय को यह ख़बर सुनाने चली गई क अंकल टोपी को एक
बड़ी-सी कार िमलनेवाली है ।
"ब े कतनी छोटी-छोटी बात पर खुस हो जाते ह ।"
"खुस नह खुश ।" सक ना ने कहा ।
टोपी िज़ दा हो गया ।
उसने उसी दन डॉ टर साहब को िलख दया क उसे बड़ी-सी कार-वार नह चािहए ।
यह ख़त उसने सक ना या इ फ़न को नह सुनाया ।
ख़त को चुपके -से लेटरब स म डालकर वह गाड़ी म बैठ गया । रा ते-भर वह इं टर ू के
बारे म सोचता रहा । सािह य के इितहास को उसने दल-ही- दल म दुहरा डाला ।
सािह य क सम या पर उसने फर से िवचार कर डाला । और जब वह इं टर ू के कमरे
म गया तो वह पूरी तरह तैयार भी था और यह भी जानता था क उसे नौकरी नह िमल
सकती ।
"यह आपक यूिनव सटी म आए दन दंगे य होते रहते ह ?" पहला सवाल आ ।
सािह य !
सािह य का इितहास
सािह य क सम या !
"इस यूिनव सटी को ब द कर देना चािहए ।" एक और ए सपट बोले ।
सािह य क पर परा !
स यता का िसलिसला !
"आप रसखान को िह दू मानते ह या मुसलमान ?" सवाल आ ।
"म तो जायसी को भी िह दू मानता ँ ।" टोपी ने कहा, "और ग़ािलब और मीर को भी
!"
"अपने िवचार पर काश डािलए ।"
"ग़ािलब बुत क पूजा करते थे । पूरा उदू-का ही बुत क पूजा करता है । मीर ने तो
ितलक तक लगा िलया था । क़शक़ा ख चा दैर म बैठा, कब का तक इसलाम कया ।"
"इस दृि से अब तक सोचा ही नह गया था ।"
"अब भी ब त देर नह ई है ।"
इं टर ू ख़ म हो गया ।
वह अलीगढ़ लौट आया ।
"कै सा रहा ?" सक ना ने पूछा ।
"िजस देश क यूिनव सटी म यह सोचा जा रहा हो क ग़ािलब सु ी थे या शीया और
रसखान िह दू थे या मुसलमान, उस देश म पढ़ाने का काम नह क ँ गा ।"
" फर या करोगे ?" इ फ़न ने पूछा ।
" फ़ मी गाने िलखूँगा । जूत पर पािलश क ँ गा । भीख माँगूँगा । कसी बड़े आदमी क
इकलौती लड़क से शादी करके चैन क ँ गा । कु छ भी कर सकता ँ ।"
"उ मीद या है ?"
"दो किडडे स मुझसे यादा ालीफाइड थे ।" टोपी ने कहा ।
"और कु ल कतने आदमी बुलाए गए थे ?" इ फ़न ने सवाल कया ।
"तीन ।"
"तब तुम ले िलए जाओगे ।" सक ना बोली ।
"य द ले िलया गया तो आ मह या कर लूँगा ।"
"मुझसे य द-प द तो कया न करो ।" सक ना बोली ।
"मुझे ज मू म नौकरी िमल गई है ।" इ फ़न ने कहा ।
"काहे क नौकरी ?"
"िह ी पढ़ाने क ।"
"के .एम. मुंशी क िह ी या ख़लीक़ िनज़ामी क ?"
" ोफ़े सर हबीब और डॉ टर ताराच द के नाम य नह लेते ?"
"उनके आगे अब कौन घास डालता है !" टोपी हँस पड़ा, "कब जाना है ?"
"फ़ौरन ।"
"भाई हम भी वह एक नौकरी या एक बीवी दलवा दो ।"
यह बात मज़ाक म टल गई । पर तु टोपी सचमुच सोच म पड़ गया क इ फ़न, सक ना
और शबनम के िबना िज़ दगी म रह या जाएगा ! वह फर िबलकु ल अके ला रह गया ।
सामान बँधने लगा । उसने हो डआल बाँधे । वही र शे लाया । रे लगाड़ी म उसी ने
सामान रखवाया ।
"ख़त िलखोगे न ?" सक ना ने पूछा ।
"अंकल, वह मोटर लेकर ज मू आ जाना ।" शबनम बोल पड़ी और वह सक ना के सवाल
का जवाब देने से बच गया ।
गाड़ी चली गई । वह लेटफ़ाम पर खड़ा रह गया ।
"वो जो बेचते थे दवाए- दल वो दुकान अपनी बढ़ा गए ।" एक लड़का गुनगुनाता आ
पास से गुज़रा । टोपी ने मुड़कर उसक तरफ़ देखा । वह लड़का दूसरी तरफ़ देखने लगा ।
फर लड़क का वह िगरोह क़हक़हे लगाने लगा और क़हक़ह क आवाज़ टोपी पर कोड़े
बरसाने लगी ।
सोलह

इ फ़न चला गया । सक ना चली गई । शबनम चली गई ।


(सलीमा क तो ख़ैर शादी हो चुक थी ।)
हालत ने उसे तनहाई क सलीब पर लटका दया । और अलीगढ़ ने उसे जुमल ,
क़हक़ह , आवाज़ और इशार क धार पर रख िलया । टोपी ल लुहान हो गया । इतने
गहरे ज़ म तो उस दादा के चाक़ू से भी नह खाए थे ।
मौलाना बलभ नारायण टोपी शु ला क शि सयत िबखर गई । तीन टु कड़े ज मू चले
गए और चौथा टु कड़ा अलीगढ़ म रह गया और उस चौथे टु कड़े को खुद उसक आधी, पूरी
परछाइय ने घेर िलया ।
टोपी क कोई वािहश पूरी ही नह ई । उसने यह चाहा क उसक माँ के यहाँ एक
साइ कल हो जाए तो उसके यहाँ भैरव हो गया । उसने चाहा क सक ना उसे राखी बाँध दे
तो वह ज मू चली गई । उसने चाहा क सलीमा से उसक शादी हो जाए तो अपना
थीिसस िलखवाकर सलीमा ने कसी सािजद ख़ाँ से याह कर िलया । उसने एक नौकरी
चाही तो कह िह दू होने के कारण नह िमली, कह मुसलमान होने के कारण । एक
आदमी के कतने टु कड़े हो सकते ह । टोपी ने कभी इस पर सोचने का क नह उठाया
था । स ी बात यह है क इस कार क बात पर के वल कहािनय के हीरो सोचते ह ।
िज़ दगी सोचने का मौक़ा ही कहाँ देती है ! पर तु टोपी को अपने बारे म एक बात अव य
मालूम थी क वह क ोमाइज़ नह कर सकता । और सच पूिछए तो के वल इसी कारण
इ फ़न, सक ना और शबनम के चले जाने के बाद भी वह अलीगढ़ से नह गया । उसका
यह फ़ै सला उसके जीवन का सबसे मह वपूण फ़ै सला सािबत आ । टोपी को यह बात भी
नह मालूम थी क उसने कोई ब त बड़ा फ़ै सला कया है । टोपी को तो यह बात कभी न
मालूम ई क उसका फ़ै सला कतना मह वपूण था । पर तु कथाकार को कु छ दन बाद
यह पता चला क उसका यह फ़ै सला उसक जीवन-कथा का लाइमे स था । और
इसीिलए कथाकार यहाँ ण-भर कने क आ ा चाहता है, य क वह जगह आ गई है
जहाँ लोग के मन म रगनेवाले सवाल के जवाब दे दए जाएँ । म उप यासकार नह ँ क
कहानी मेरी हो और म जो चा ँ बताऊँ और जो चा ँ न बताऊँ । म यह हरिग़ज कहना नह
चाहता क उप यास का लेखक मनमानी कर सकता है । उससे भी कए जा सकते ह
और उसे जवाब भी देना पड़ता है, पर तु वे सवाल भी और कार के होते ह और वे जवाब
भी । जीवनी और उप यास म एक फ़क़ है । जीवनी का लेखक अपनी कथा म अपनी ओर से
कु छ नह जोड़ सकता । वह घटना क तरतीब भी नह बदल सकता । पर तु
उप यासकार अपने िहसाब से घटना को तरतीब देता है । और वह तमाम बात भी
अपनी ही तरफ़ से कहता है । म य द उप यास िलख रहा होता और य द टोपी उस
उप यास का हीरो होता तो म उसे ' फर' को ' फ़र' और 'फ़ौरन' को 'फौरन' न कहने देता ।
पर तु टोपी मेरी एशन नह है । वह डॉ टर भृगु नारायण शु ला नीले तेल वाले और
रामदुलारी क एशन था । और चूँ क वह ' फर' को ' फ़र' और 'फ़ौरन' को 'फौरन' कहा
करता था, इसिलए य द म उसक बोलचाल को सुधार देता तो यह जीवनी के साथ
बेईमानी होती । इसीिलए जीवनी िलखना उप यास िलखने से यादा टेढ़ा काम है ।
टोपी कसी रोम टक कहानी का हीरो नह था । वह कसी रोम टक कहानी का हीरो हो
भी नह सकता था । वह तो अपनी आ मकथा का हीरो भी बड़ी मुि कल से बन सका । वह
तो उन लोग म था िजनक अपनी कहानी का हीरो भी कोई और होता है । टोपी इस युग
के तमाम लोग क तरह अधूरा आदमी था । कसी से िमले िबना वह पूरा नह हो सकता
था । इसीिलए मने िबखरे ए उसके तमाम टु कड़ को इक ा करने का य कया है । जब
वह बनारस म था तो मु ी बाबू और भैरव के िबना अधूरा था–इ फ़न का नाम भी ले
लीिजए । और जब वह अलीगढ़ आया तो अपने पूरे वुजूद के साथ नह आया । मु ी बाबू
और भैरव बनारस ही म रह गए और इ फ़न पहले ही िबछु ड़ चुका था ।
अलीगढ़ म वह उस व त तक कटी ई पतंग क तरह डगमगाता रहा जब तक क
इ फ़न से उसक मुलाक़ात न ई । फर इ फ़न, सक ना और शबनम ने िमलकर उसे पूरा
कया । पर तु ये लोग खुद अधूरे थे । इ फ़न अपनी दादी, अपने अ बू और अपनी बाजी के
िबना अधूरा था । इसिलए उनका िज करना पड़ा । सक ना अपने बाप स यद आिबद
रज़ा, महेश और रमेश के िबना अधूरी थी । इसिलए उनक बात करनी पड़ी । शबनम
िस टर आलेमा के िबना समझ म न आती । मु ी बाबू को समझने के िलए मु ीबाई और
िबसिम लाजान से प रिचत होना ज़ री था और भैरव को पहचानने के िलए उस क लन
का आईना देखना ही पड़ा िजसका चुनाव लड़ाने टोपी बनारस गया था । ये बात म
इसिलए कह रहा ँ क आप इस बात पर आ य न कर क टोपी क कहानी म 'फ़ािज़ल
लोग ' या 'सपो टग कै रे टज़' को इतनी जगह य दी गई है ।
पर तु अधूरापन और तनहाई शायद इस युग के टोिपय क तक़दीर है । य द वह हज़ार-
प ह सौ बरस पहले पैदा आ होता तो उसक कहानी कु छ और होती । वह अब तक कब
का कसी और क लड़ाई लड़ता आ मारा जा चुका होता । और तब शायद म इतने ब त-
से लोग क बात न करता । मेरी परे शानी यह है क यह कसी बड़े आदमी क जीवनी नह
है । यह एक छोटे आदमी क जीवन-कथा है । मेरा हीरो कोई राजकपूर या दलीपकु मार
तक नह है । इसीिलए उसे अपना अधूरापन सताता रहता है । और इसीिलए इ फ़न,
सक ना और शबनम के जाने के बाद वह के वल एक बदन रह गया । एक ख़ाली मकान ।
एक ऐसा मकान जो ख़ाली तो था पर तु जो कराए के िलए ख़ाली नह था ।
टेशन से िनकलकर उसे ख़याल आया क जाने के िलए उसके पास कोई जगह नह है ।
वैसे वह घर मौजूद था िजसम थोड़ी देर पहले तक इ फ़न रहा करता था । उस घर म वह
अभी बीस दन तक रह सकता था । कराए पर मकान था । इ फ़न पूरे महीने का कराया
दे चुका था । पर तु उसे उस घर के ख़याल ही से वहशत हो रही थी ।
एक र शेवाले ने उसक मुि कल आसान कर दी । शमशाद माकट के चौराहे का र शा
था । टोपी को पहचानता था । उसे देखते ही वह र शा दौड़ा लाया ।
"बै ठए िमयाँ !" उसने ग ी को हाथ से ठ कते ए कहा ।
टोपी क सारी िज़ दगी म मानने म गुज़री थी, इसिलए वह चुपचाप बैठ गया ।
र शा चल पड़ा । र शेवाले ने उससे यह भी न पूछा क कहाँ जाना है । उसे या, यह
बात तो सारी यूिनव सटी को मालूम थी क उसे कहाँ जाना है ।
र शा उस घर के सामने का िजसम इ फ़न रहा करता था; िजसम वह सक ना से
लड़ा करता था; िजसम शबनम उसे अं ेज़ी पढ़ाया करती थी ।
जेब से कुं जी िनकालकर उस घर का ताला खोलना उसे ब त अजीब लगा, य क इस
घर का दरवाज़ा उसे अपने िलए सदा खुला िमला था ।
वह अ दर गया ।
घर वही था । कमरे वही थे । दीवार का रं ग वही था । आँगन के थाल म लगे ए फू ल
के पौधे वही थे । शबनम क जूही किलय से लदी ई थी । हवा उसी अ दाज़ से कमर म
झाँक रही थी, दालान म नाच रही थी, आँगन म िखलिखला रही थी और फू ल के पौध को
गुदगुदा रही थी । बेचारे पौधे दोहरे ए जा रहे थे ।
इसने इ फ़न के कमरे म झाँका । िब ट-इन अलमा रय म कोई कताब नह थी । िजस
जगह पर इ फ़न क कु रसी आ करती थी वह जगह खाली थी । जहाँ पेडे टल लै प आ
करता था वह जगह भरी ई थी । इ फ़न वह लै प टोपी के िलए छोड़ गया या ।
वह घबराकर उस कमरे से िनकल आया ।
सक ना के कमरे म स ाटा था । वह िखड़क पर बैठ गया और उस कमरे के नंगे फ़श को
देखने लगा िजस पर तीन पलंग िबछे आ करते थे । कमरे के एक कोने म चारमीनार का
एक बुझा आ टु कड़ा पड़ा आ था–यानी बस यह रह गया है । उसने झुककर वह टु कड़ा
उठा िलया । फर उसे बे दली से फकता आ उस कमरे से भी िनकल गया ।
घर म उसका जी नह लग रहा था । उसे डर था क अगर वह कु छ देर और टका तो रो
पड़ेगा । इसिलए घर म ताला ब द करके वह यूँ ही िबना मक़सद शमशाद माकट क तरफ़
चल पड़ा ।
दस बर क ठं डी रात थी । जासूसी फ़ म और कहािनय के लोग क तरह लोग
ओवरकोट के कॉलर उठाए तेज़ी से एक-दूसरे के पीछे चले जा रहे थे । बहादुर क दुकान
पर हमेशा क तरह भीड़ थी । सामने अपनी दुकान म सैयद हबीब अपनी मेलो- म ै े टक
दाढ़ी समेत अपनी मामूली (यानी ऊँची) आवाज़ म बात कर रहे थे ।
"अके ले हो गए पाटनर !" कोज़ी कानर से आवाज़ आई । फर कई लड़के हँस पड़े । टोपी
जानता था क यह बात उसी से कही जा रही है । पर तु सक ना, शबनम और इ फ़न को
लेकर ज मू जा चुक थी । तो वह मुड़कर या देखता ! वह आगे बढ़ गया । बा तरफ
'आफ़ताब मंिज़ल' और दािहनी तरफ़ वी मंग पूल म अँधेरा था । साहब बाग़ के कमर से
रोशनी झाँक रही थी...वह उस रोशनी से बेखबर आगे ही बढ़ता चला गया ।
"इसी बाअस तो क़ ले-आिशकाँ से म ा करते थे । अके ले फर रहे हो यूसुफ़े-बेकारवाँ
होकर ।" लड़क के गुज़रते ए एक िगरोह म से कसी ने ऊँची आवाज़ म शेर पढ़ा । यह
आवाज़ कोड़े क तरह टोपी क आ मा पर िनशान डाल गई । मगर ज़ािहर है क वह कु छ
कह नह सकता था । वह इ फ़न के इसरार के बाद भी अलीगढ़ म का था । और अब
कने का कराया दे रहा था ।
वह 'आज़ाद के फ़े टे रया' क तरफ़ चला गया । वह जानता था क वहाँ कु छ जानी-
पहचानी सूरत देखने को िमल जाएँगी ।
सामने क कटीन के मािलक वािजद ख़ाँ अपने भारी-भरकम वुजूद को सँभाले जज़बी को
शायद सािह य क कोई सम या समझा रहे थे । टोपी को देखकर वािजद ख़ाँ मुसकरा दए
।...
स ह

कथा के आिख़री िह से म एक नए आदमी से िमलाने क आ ा चाहता ँ । म जानता ँ क


यह कथन के िनयम के िख़लाफ़ है । पर तु ये िनयम ब त दन पहले बनाए गए थे ।
वािजद ख़ाँ से िमलने क यही जगह है । बात यह है क वािजद खुद अपनी कहानी का
आर भ नह बि क अ त है । तो टोपी क कहानी के आर भ म म आपको इनसे कै से
िमलाता ?
वािजद को देखकर कोई यह नह कह सकता क वह किव होगा । पर तु वह बड़ा बाँका
किव है । सािह य-जगत् उसे जावेद कमाल के नाम से जानता है । वािजद ख़ाँ के नाम से तो
यूिनव सटी कटीन म चाय बेचता है ! कथाकार अकसर सोचता है क वा तव म वह
वािजद ख़ाँ है या जावेद कमाल । वह पान, बातचीत और का पुजारी है । उसे अपनी
आवाज़ सुननी पड़ती है य क हमारी दुिनया म िजसके दलाल न ह उसक आवाज़ कोई
नह सुनता । वह इस डर से बोलता रहता है क चुप आ तो फर शायद उसे भी यह याद
न आए क कभी उसके पास भी एक आवाज़ आ करती थी । उसके घरवाल को यह िज़द
है क वह वािजद ख़ाँ है और वह इस पर ठना आ है क वह जावेद कमाल है । पर तु
वािजद ख़ाँ भूत बनकर उससे िचमट गया है । इस भूत से जान छु ड़ाने के िलए वह जज़बी
जैसे मामूली आदमी, ना-समझ और घ टया शायर तक से घंट सािह य क सम या पर
गप लड़ाता रहता है । और अपने दो त-अहबाब को मु त चाय िपलाया करता है । वह एक
नॉमल आदमी है ले कन गंजे फ़ र त म िघरा आ है और इसीिलए अब नॉमल दखाई
देता है ।
आप सोच रहे ह गे क टोपी क कथा को रोककर म वािजद क बात य करने लगा ।
इसिलए म यह पहले ही बता देना चाहता ँ क वािजद भी टोपी क कहानी का एक अटू ट
अंग है । इस ामे का एक ऐ ट वािजद के टेज पर खेला गया था । और चूँ क अब वह
जगह क़रीब आ चुक है जहाँ हवा टोपी क कहानी का एक प ा उलटकर हमारे सामने
लानेवाली है । इसिलए म ज़ री समझता ँ क आपको वह टेज दखला दूँ िजस पर वह
ऐ ट खेला गया था । टोपी और सलीमा क दो ती कराने म वािजद का ब त हाथ था ।
टोपी जब अलीगढ़ म अके ला आ तो सीधा वािजद ही क तरफ़ भागा । इसी से आपको
वािजद के मह व का अ दाज़ा लगा लेना चािहए था । यही कारण है क म आपको वािजद
से िमला रहा ँ ।...
वािजद बड़ा अ छा पहलवान भी हो सकता था । पर तु किव होकर उसने म ी पलीद
क , नह तो वह भी आज दारा संह क तरह फ़ म टार तो हो ही गया होता । लड़ कयाँ
उसक बादामी आँख क रोशनी से डर जाया करती थ और वह अँधेरे म कोई काम करने
का आदी नह था, इसीिलए अगर यह सच है क उसक िज़ दगी भी गुज़री– क िज़ दगी
गुज़रती ही रहती है– तो दो त क मदद करने म गुज़री । कोई बस आिशक़ हो जाए कसी
पर । बाक़ काम वािजद ख़ाँ का है । वह इतने मशवरे देगा क इ क़ करनेवाला या तो
घबराकर इ क़ ही से तौबा कर लेगा या िडसपरे शन म कसी और लड़क पर आिशक़ हो
जाएगा ।
वािजद के बारे म सबसे ज़ री बात बताना तो म भूल ही गया । वह इ फ़न का दो त
था । बी.ए. तक दोन साथ रहे । फर इ फ़न िह ी म चला गया और यह उदू म । और
फ़ ट लास म एम.ए. पास करके इ फ़न ले चरर हो गया और यह चाय बेचने लगा–नह ,
कु छ दन वािजद ने जूते भी बेचे । पर तु दो त , शायर और कथाकार ने इतने जूते
उधार बनवाए क दूकान ब द हो गई । खुदा ने चाहा तो कटीन का भी यही ह होगा ।
इ फ़न ही ने एक दन टोपी से उसको िमलाया था । और जब वािजद को यह मालूम
आ क टोपी इ फ़न के बचपन का दो त है तो उसने टोपी को अपने बचपन का दो त भी
मान िलया है । जी हाँ ! वािजद ऐसा ही आदमी है ।
टोपी और उसम कोई चीज़ कॉमन नह थी । वह का पुजारी था और टोपी बदसूरती
का लािसकल नमूना । वह संगीत का रिसया था और टोपी ख़ानदानी बेसुरा । उसे िह दी
से नफ़रत थी और टोपी िह दी का चुनाव-िच न । उसे पान खाने का शौक़ था और टोपी
िबनाका टू थपे ट का इि तहार ।...के वल एक जगह दोन का संगम होता था । उसे बोलने
का शौक़ था और टोपी को सुन लेने क आदत । वह घंट तक़रीर करता रहता था और
टोपी घंट तक़रीर सुना करता था ।
एक दन वािजद जज़बी को भुगत रहा था । वह गंजा फ़ र ता उसे अपने कसी दो त
क अधेड़ नौकरानी क कहानी सुना रहा था जो उस पर आिशक़ हो गई थी और अपने
इ क़ क घबराहट म ेल म क शीशी उठा लाई थी । यह कहानी सुनाते-सुनाते जज़बी
क आँख म एक ग दी चमक आई, उसके मैले दाँत िनकल आए और वह 'खी-खी' करके यूँ
हँसने लगा जैसे पुरानी खुजली का मरीज़ अपने ज म खुजलाए और उसके छरछराहट से
लु फ़ ले–दरअसल जज़बी क आ मा खुजली क पुरानी मरीज़ थी ! वािजद सुन रहा था
और उबकाई को मुसकराहट म िछपाने क कोिशश कर रहा था ।
"आपक साइरी इन बात से अ छी होती है ।" टोपी ने कहा, "आपने साइरी य छोड़
दी साहब ?"
जज़बी क मुसकराहट िसकु ड़ गई ।
" टु डे ट होकर ऐसी बात करते हो ?" जज़बी ने खौलकर कहा ।
"अरे साहब, जब आप टीचर होकर नह शमाते तो म टोककर या शमाऊँ ?" टोपी ने
कहा ।
"चुप रह बे गँवार ।" वािजद ने आँख नचा ।
"भाई, बोर तो तुम भी होते हो पर तु कह नह पाते । जी म तो खुश हो रहे होगे क मने
तु हारे दल क बात कह दी । उस साली अधेड़ नौकरानी क बात सुनकर म या क ँ गा
?"
जज़बी साहब ख़फ़ा हो गए और उठकर चले गए । उनके जाने के बाद वािजद ने
मुसकराकर टोपी क तरफ़ देखा ।
"साले हो बड़े हरामी ।"
"म तो डरता ँ क कसी दन ग़ािलब-वािलब पढ़ाते-पढ़ाते कसी नौकरानी क कहानी
न शु कर दे ।"
"शाबाश !" वािजद ने उसक पीठ ठ क , "शु िबलकु ल ठीक कहा ।"
एक क़हक़हा पड़ा और ठीक उसी व त सलीमा एक ले चरर के साथ कटीन म दािख़ल
ई । सबसे पहले उसे टोपी ने देखा ।
"भाई, इस लड़क का कोई इलाज करो । "टोपी ने कहा, "साली ने िज़ दगी हराम कर
दी है ।"
"चुप बे िह दू !" के .पी. बोला, "तुझे हराम-हलाल से या काम ?"
टोपी हैरान रह गया य क के .पी. खुद िह दू था । "एक ल िडया ने िज़ दगी हराम कर
दी और िबलिबलाए-िबलिबलाए घूम रहे हो । लानत है तुम पर ।"
"फूँ क-फूँ क के क़दम रखना बेटा !" वािजद ने कहा, "शाहजहाँपुर क पठानी है । धान क
तरह कू टकर सूखने को फै ला देगी आँगन म ।"
"टोपी, इसी बात पर तुम आिशक़ हो जाओ इस पर ।" के .पी. ने कहा ।
"साले कसी मुसलमान लड़क पर ितरछी िनगाह डाली तो टाँग चीरकर फक दूग ँ ा ।"
वािजद बोला ।
"नह भाई !" टोपी ने बड़ी ईमानदारी से कहा, "ितरछी नजर नह डालूँगा, पर तु
सीधी नजर तो डाल सकता !ँ "
"तुम लाख सीधी नजर डालो ।" वािजद ने जलकर कहा, "कु े क दुम है, टेढ़ी ज र हो
जाएगी ।"
"भाई तुम बड़े क युनल हो ।" टोपी हँसा ।
वािजद ने क युनिल म क माँ-बहन से अपना र ता जोड़ना शु कया । और जब
गािलय का टाक ख़ म हो गया तब मतलब क बात पर आया, "म तुझ जैसे कालीचरन
को इतनी ख़ूबसूरत लड़क पर आिशक़ होने क इज़ाज़त नह दे सकता । श ल देखी है
कभी अपनी । क वी का इि तहार और..." वह उपमा म उलझ गया ।
"भाई यह मुँह और मसूर क दाल से काम चल जाएगा ?" टोपी ने बड़ी मासूिमयत से
कहा ।
वािजद ख़ाँ ने अपना रामपुरी क़हक़हा लगाया । कटीन म स ाटा हो गया । सलीमा ने
मुड़कर देखा ।
"अब यह शरीफ़ के आने क जगह नह रह गयी है ।" सलीमा का कोट बोला ।
कोने क मेज़ पर बैठे ए लड़क ने िबल मँगवाने के िलए याली पर च मच बजाना
शु कया । और तब सलीना के कोट को याल आया क उसक जेब म पैसा नह है ।
इि फाक से सलीमा के बैग म भी पैसे नह थे । कोट को पसीना आ गया । सलीमा एक
फ़ै सला करके उठी और वािजद क तरफ़ बढ़ी । "वािजद भाई !" उसने पास आकर कहा,
"कल फ़ख़ भाई का ख़त आया । उ ह ने आपको सलाम िलखा है ।"
अपने चचाज़ाद भाई फ़ख़ का स देशा उसने कोई साढ़े चार बरस बाद प च ँ ाया । जब
वह बी.ए. म दािख़ला लेने के िलए अलीगढ़ आनेवाली थी तो फ़ख़ ने कराची से उसके
पास वािजद के िलए एक ख़त भेजा था । सलीमा ने वािजद तक वह ख़त प च ँ ाने का क
नह उठाया था । फ़ख़ हर ख़त म वािजद के बारे म पूछता और सलीमा हर जवाब म
िलख देती क वािजद भाई यह कहते ह और वािजद भाई वह कहते ह । पर तु जब िबल का
मामला आ फँ सा तो उसे वािजद के पास आना ही पड़ा ।
"बै ठए, बै ठए ।" वािजद ने कहा । टोपी एक तरफ़ सरक गया । सलीमा उसी के पास
बैठ गई । सामने वह ले चरर बैठे । "चाय-वाय ?"
"जी नह , अभी पी है ।"
"पैसे दे दए ?"
"अभी नह दए ह । वह..."
"फ़ख़ कर या रहे ह आजकल..." एक वेटर ने सलीमा का िबल उसके कोट के सामने
रख दया । वािजद ने लपककर वह िबल उठा िलया । फर वेटर को उसने एक ग दी-सी
गाली । गाली देते व त उसे यह ख़याल ही नह आया क सामने कोई लड़क बैठी है ।
"मगर वािजद साहब..."
"बात यह है जनाब, क फ़ख़ क ख़बर लेकर वह चार-साढ़े चार साल बाद आई ह ।"
वािजद ने कहा । "भाग यहाँ से ।" उसने वेटर को घुड़का । वह मुसकराता आ चला गया ।
"यह फ़ख़ भी अजीब था टोपी । यहाँ था तो एथी ट था । वहाँ जाकर अ लाह िमयाँ को
सािबत करने म लग गया है । कोई कह रहा था क तीन-चार हज़ार तनख़ाह पा रहा है ।"
"अ ला िमयाँ को मानने म फायदा-ही-फायदा है भाई !" टोपी ने कहा ।
"इनसे तो तुम िमल चुक होगी ?" वािजद ने टोपी क तरफ़ इशारा कया, "यह यहाँ का
मुसिलम लीगी िह दू है ।"
सलीमा मुसकरा दी ।
"अ छा भाई, म चल दया ।" के .पी. ने उठते ए कहा ।
कसी ने जवाब नह दया । वह चला गया । वािजद फ़ख़ क बात करने लगा ।
सलीमा मजबूरन सुनने लगी । कोट ने कई बार घड़ी देखी । वह इस फ़ म था क
वािजद ख़ाँ जो वाक़या सुना रहे ह, वह ख़ म हो तो वह इजाज़त ल । पर तु वह वािजद ख़ाँ
को अ छी तरह जानते नह थे । कथाकार वािजद ख़ाँ को स ह-अठारह बरस से जानता है
। अब तक वािजद ख़ाँ कोई वाक़या पूरा नह सुना सके ह । म स ह-अठारह बरस से बार-
बार वही वाक़यात सुना रहा ँ । मुझे वे तमाम वाक़यात ज़बानी याद हो चुके ह । पर तु
जो वाक़या स ह-अठारह बरस पहले अधूरा रह गया था वह अब तक अधूरा है । वािजद
का टाइल यह है क कसी बात के लाइमे स से वह दूसरी बात िनकाल लेते ह ।
इसीिलए वािजद से बात करते व त हम लोग घड़ी उतारकर जेब म रख लेते ह । पर तु
यह बात उस ग़रीब ले चरर को या मालूम थी । उसका घंटा था । सलीमा पर 'वक' करने
के िलए वह अपनी नौकरी तो गँवा नह सकता था । इसिलए बात के बीच ही म वह खड़ा
हो गया–
"माफ़ क िजएगा ।" उसने कहा, "मेरी लास है ।"
तो फ़ख़ ज़ोर से हँसा । "और अब सुनो एक लतीफ़ा..." वािजद ने अनसुनी करके
सलीमा से कहा । अब सलीमा या करती ! उसे मजबूरन मुसकराना पड़ा । कोट दल म
वािजद ख़ाँ को बुरा-भला कहता चला गया । उसके जाने के बाद वािजद ख़ाँ ने अपना
भारी-भरकम पहलू बदला । शेरवानी क जेब से एक पुड़ा िनकाला । पान खाया । "देखो
बीबी, तुम फ़ख़ क बहन हो । इसिलए बुरा मानो या भला । िजस आदमी के साथ तुम
थ वह बड़ा लपािड़या है । तु हारे बारे म अंट-शंट बात करता है । बड़ा काइयाँ है । चांस
नह लेता । एक साथ दो-तीन इ क़ करता है ।..."
"वािजद भाई, आप कै सी बात कर रहे ह ?" सलीमा बोली ।
फर काफ़ देर तक इधर-उधर क बात होती रह । और सलीमा को पता भी न चला
क वह टोपी से गप लड़ा रही है । जब सलीमा चली गई तो वािजद ने तीसरा पान खाया ।
"भाई, जब वह बेचारा जा रहा था तो तुमने उसका नो टस ही नह िलया ।"
"पागल आ है । गँवार कह का ।" वािजद ने ब त उ ताद के लहजे म कहा,"उसका
नो टस लेता तो सलीमा उसके साथ चली गई होती ।"
"तो या म उससे इ क़ कर सकता ँ ?" टोपी ने लहकके पूछा ।
"टोपी, सुनो एक बात ।" वािजद सी रयस हो गया, "फ़ख़ ने इसके बारे म मुझे एक
ख़त िलखा था । जब यह नई-नई आई थी । फ़ख़ से मेरी दो ती नह थी । मगर साहब
सलामत ज़ र थी । यह शायद उसक मँगेतर भी है । इसिलए इ क़ करना हो तो ज़ र
करो मगर मुझसे अपने इ क़ क बात न करना ।"
यह उन दन क बात है जब सलीमा हो टल से िनकल चुक थी और अपने र ते के
एक चचा के साथ अमीर िनशाँ म रह रही थी । उसका चचा,चचा होने के साथ-साथ एक
रटायड थानेदार भी था ।
उ ह दन हैदराबाद या िसक दराबाद से एक साहब ताज़ा-ताज़ा आए और
साइकॉलोजी म ले चरर ए थे । नाम था डॉ टर वािहद अंजुम । 'डॉ टर' को वह खुद भी
अपने नाम का एक िह सा समझा करते थे, इसिलए मने भी उनका पूरा नाम बता दया ।
'डॉ टर' के िबना वह अधूरे मालूम ए थे । उदू के िस किव थे । अलीगढ़ तो किवय का
जंगल है । हाथ -हाथ िलए गए । यह नशे म आ गए । नतीज़ा यह आ क 'मजनूँ'
गोरखपुरी जैसे बुजुग से मज़ाक करने लगे । उनके ख़याल म ग़ािलब के बाद फर वही
शायर ए । और ग़ािलब भी या !
नतीजे म आज़मगढ़ के ख़लीलुरहमान और सीतापुरी क़ाज़ी अ दु स ार और इसी तरह
के दूसरे लोग से उनक दो ती और लड़ाई होती रही ।
सलीमा क वजह से यह डॉ टर वािहद अंजुम भी इस कहानी का एक अंग ह । एक दन
इ ह ने आव देखा न ताव, तड़ से सलीमा पर आिशक़ हो गए । पर तु वह िह दी म थी और
यह साइकॉलोजी म । िमलन हो तो कै से ? नतीजा यह आ क बेचारा अपनी आग म
जलता रहा । और उधर सलीमा धीरे -धीर टोपी के क़रीब होती रही ।
सलीमा और टोपी क दो ती म टोपी ने कोई तीर नह मारा । यह तो म बता ही चुका
ँ क सलीमा टोपी से नफ़रत कया करती थी । तो एक दन उसने वािजद से कहा–
"वािजद भाई, एक बात पूछूँ ?"
"पूछो ।" वािजद ने मुँह म पीक को मुि कल से सँभालकर कहा ।
"टोपी जैसे लीचड़ को आप कै से झेलते ह ?"
वािजद ने उठकर िखड़क क सलाख से ह ठ लगाकर पीक थूक । आिख़री क़तरा
उसक शेरवानी पर आ गया । माल से उसको प छता आ वह फर सलीमा के पास
आकर बैठ गया ।
"म समझा नह ।"
"लोग कहते ह क वह जरग़ाम साहब क बीवी से फँ सा आ है ।"
"यह जानती हो क लोग ने तुमको कस- कससे फँ सा रखा है ?" सलीमा क आँख हैरत
से फै ल ग । उसे मालूम था क उसके आिशक़ क फ़े ह र त ब त ल बी थी । पर तु उसे
यह नह मालूम था क लोग ने उसे लोग से फँ सा रखा है । "िमसाल के तौर पर तुम
िडपाटमट ऑफ़ िह दी के काले भँवरे से फँ सी ई हो ।"
"उसक तो मने शमाजी से रपोट कर दी थी ।" सलीमा क आँख से चंगा रयाँ
िनकलने लग , "मुझे घर बुलाता था । शमाजी के सामने उसने मुझसे माफ़ माँगी और अब
वह मुझे सलीमा बहन कहता है ।"
"कहता होगा ।" वािजद ने बेपरवाही से कहा, "तुमसे पहले भी एक लड़क उसक
रपोट कर चुक है । हाँ तो म यह बता रहा था क तुम कस- कससे फँ सी ई हो । तुमको
मालूम नह क तुम उस चपड़कनाती से भी फँ सी ई हो िजसके साथ तुम यहाँ आई थ ,
अपने िडपाटमट के ज़ैदी से भी तुम फँ सी ई हो । और तुम मुझसे भी फँ सी ई हो ।"
वािजद ने झ लाहट म पान क दो िगलौ रयाँ मुँह म रख ल । सलीमा आँसी हो गई ।
"बीबी यह ब त छोटी जगह है । और यहाँ ब त-से घ टया लोग भी रहते ह..."
बात यह तक प च ँ ी थी क टोपी आ गया ।
"हलो भाई !" वह मुसकराकर वह बैठ गया ।
"यह पूछ रही थ क म तु ह कै से झेलता ँ जब क तुम सक ना से फँ से ए हो ।"
टोपी का काला रं ग लाल हो गया । सलीमा िबलकु ल घबरा गई । वािजद झ लाहट म
पान चबाने लगा ।
"भाई !" टोपी ने वािजद से कहा, "देिखए म सही बोलने क कोिशश कर रहा ँ ।" फर
वह खड़ा हो गया और सलीमा से बोला, "खुदा का शु है क म आपसे फँ सा आ नह ँ ।"
अपनी बात ख़ म करके वह तेज़ी से मुड़ा और कटीन से बाहर िनकल गया ।
"आपने यह या कया वािजद भाई ?"
वािजद का मूड ख़राब हो चुका था । वह सलीमा क बात का जवाब दए िबना काउं टर
पर चला गया और िबल काटने लगा । इ फ़न को आते देखकर सलीमा क जान सूख गई ।
उसने इ फ़न को सलाम कया । कटीन म कोई जगह ख़ाली नह थी । वह वह क गया ।
"चाय पीिजए, सर !" सलीमा ने कहा ।
"भई तुम मुझे सर-वर न कहा करो ।" इ फ़न ने बैठते ए कहा, "तुम भाई फ़ख़ क
बहन हो और वह मेरे दो त आ करते थे । वािजद को तो मालूम है क जब एस. एफ. के
लड़क क ठु काई का ो ाम आ करता था और भाई फ़ख़ आकर मुझसे कहा करते थे,
भाई आज क मी टंग म न जाना । मगर म जाता । और मुझे मारते व त उनका हाथ
हलका हो जाया करता था । एक मतबा म गुलरे ज़ ख़ाँ के ह थे चढ़ गया । तो वह कवर
अमानत को मारते-मारते वह से िच लाए, ख़ाँ साहब अपना यार है । ज़रा ख़याल रहे ।"
इ फ़न िखलिखलाकर हँस पड़ा और वािजद क तरफ़ मुड़ा, "यार वािजद, गुलरे ज़ ख़ाँ का
कु छ हाल-चाल मालूम है ?"
वािजद काउं टर से उठकर फर वह आ गया । उसका मूड अभी तक ठीक नह आ था ।
आते ही सलीमा से बोला, "इनसे पूछो क टोपी को यह कै से झेलते ह ।"
इ फ़न िखलिखलाकर हँस पड़ा, "अ छा तो तु ह भी यही परे शानी है !" वह संजीदा हो
गया । "बीबी, अपनी यह यूिनव सटी अजीब जगह है ।" वेटर आ गया तो इ फ़न ने
सलीमा से कहा, "खैर, छोड़ो इन बात को । या िपयोगी ?"
"अभी वािजद भाई ने चाय िपलाई थी ।"
"तो अब इ फ़न भाई से चाय पी लो ।" वह वेटर क तरफ़ मुड़ा, "वािजद ख़ाँ के िलए
कॉफ़ और हम दोन के िलए चाय, फटाफट । मुझे प दरह िमनट म जाना है ।" वेटर चला
गया । वह फर सलीमा से बात करने लगा, "सक ना तु ह बराबर पूछती ह । तुम कोई
साल-डेढ़-साल से नह आई हो । कोई काम न हो तो चलो मेरे साथ । म घर ही जा रहा ँ ।
और हाँ यार वािजद, म तु ह यह याद दलाने आया था क शबनम क सालिगरह आज ही
है । और जो इस साल भी तुम गोल कर गए तो तु हारी जान क ख़ै रयत नह है ।"
वेटर ने चाय लगा दी । सलीमा चाय बनाने लगी । मगर उसे इ फ़न के साथ चाय पीना
ब त अजीब लग रहा था और हालाँ क टोपी मौजूद नह था पर तु वह दल-ही- दल म
टोपी से शमायी जा रही थी ।
फर वह इ फ़न ही के साथ उठ गई ।
सक ना उसे देखकर िखल गई और उसका िखला आ चेहरा देखकर सलीमा इतनी
शमाई क ब क तरह रोने लगी । सक ना घबरा गई ।
"तु ह मेरी क़सम, बताओ या बात है ?"
"कु छ नह भाबी !"
"इतनी बड़ी होकर रोती ह ?" शबनम ने नसीहत क । सलीमा उसे िलपटाकर हँस पड़ी
। और उसी व त दरवाज़े से टोपी क आवाज़ आई ।
"है कोई देनेवाला जो टोपी को एक कप चाय दे दे ?" फर उसक िनगाह सलीमा पर
पड़ गई । वह चुप हो गया ।
इ फ़न ने एक टे शन महसूस कया, इसिलए झट से बोला–
" या आ उस उदू-िवरोधी मी टंग म ?"
"एक रे जूलेसन पास आ ।" टोपी ने कहा ।
"अम तुम उदू के मुख़ािलफ़ हो तो उदू ग़लत बोलो मगर अं ेज़ी बेचारी ने या िबगाड़ा
है !"
"इनसे िमलो सलीमा !" सक ना बोली, "यह न मालूम कौन नरायन शु ला उफ टोपी ।
डॉकटर न मालूम कौन नरायन नीले तेल वाले के बेटे । और सबसे बड़ी बात यह है क यह
मुझ पर आिशक़ ह और म इनसे फँ सी ई ँ ।"
"इ ह मालूम है ।" टोपी ने कहा ।
सलीमा शम से ज़मीन म गड़ गई ।
"यार भाबी, तुम अपने इ क़ का इतना ोपेग डा य करती हो ?"
"लफ़ं ग क तरह यार-वार या कया करते ह ? आिशक़ हो तो कोई गाना सुनाओ ।
कै सा दल तड़पता है जब टेढ़ी-मेढ़ी हीरोइन के िलए हीरो लोग गाना गाते ह । ए टोपी !
एक गाना सुना दो ।"
उस दन जब सलीमा वहाँ से िनकली तो उसम एक तबदीली हो चुक थी । वह रा ते-
भर टोपी के बारे म सोचती रही । और उस रात जब वह सोने के िलए लेटी तब भी वह
टोपी ही के बारे म सोच रही थी ।
उसक चची बेटे से ख़फ़ा हो रही थ क वह कहे-सुने िबना ही िप चर चला जाता है ।
अब एक-डेढ़ बजे लौटेगा और घर-भर क न द खराब करे गा ।
"आप सो रिहए चची ।" सलीमा ने कहा, "म जाग रही ँ ।"
"ऐ बेटा, तुम भी कब तक जागोगी ?"
पर तु यह कहकर वे लेट ग और थोड़ी ही देर बाद सो ग । पर तु वह जागती रही ।
गई रात को दरवाज़े क ज़ंजीर बजी । सलीमा ने उठकर कवाड़ खोले । पर तु दरवाज़े
पर भाई क जगह डॉ टर वािहद अंजुम नज़र आए ।
आ यह क िडपाटमट ऑफ उदू के दो उ ताद के साथ डॉकटर वािहद अंजुम ने
'नेशनल' म रम पी । वे दोन उ ताद किव थे । तीन -के -तीन चु लू म उ लू बन गए और
अपने-आपको दुिनया का सबसे बड़ा शायर समझने लगे । गाली-गलौज तक नौबत प च ँ
गई । उदू वाले दोन किव साइकॉलोजी के किव को छोड़कर चले । डॉ टर अंजुम ने मौक़े
को ग़नीमत जाना । नेशनल के वेटर को अपनी किवताएँ सुनाने लगा । वह बेचारा बोर हो
गया, य क डॉ टर साहब से उसे कसी टप क आशा नह थी । फर यह भी था क
डॉ टर साहब ब त क ठन उदू का योग करते थे ।
"पुिलस !" उसने 'वाह-वाह' कहने क जगह कहा । डॉ टर साहब को इतना होश तो था
ही, पुिलस का आना घपले से ख़ाली नह है ।
टेशन रोड पर रात का स ाटा ठं डी हवा बनकर बह रहा था । डॉ टर साहब तरं ग म
आ गए । और जब वह तरं ग म आते थे तो उ ह हमेशा सलीमा याद आया करती थी ।
नशे ने उ ह बहादुर बना दया । इसिलए वह अपना घर भूल गए जहाँ उनक सीधी
सादी प ी उनक राह देख रही थी । उ ह ने सलीमा के दरवाज़े क ज़ंजीर बजा दी ।
सलीमा ने दरवाज़ा खोला तो वह हाथ फै लाकर शु हो गए–
"म तु ह अपनी शायरी म अमर बना दूग ँ ा । तुम मेरे ख़याल क मिलका हो..."
सलीमा उनके बढ़ते ए हाथ देख चीख न पड़ती तो शायद उ ह ने ब त ल बी तक़रीर
क होती । मगर वह चीख़ पड़ी । रटायड थानेदार क आँख खुल गई और उसने वही कया
जो कसी भी रटायड थानेदार और ग़ैरतम द आदमी को करना चािहए था । यानी पहले
तो उसने डॉ टर साहब को दस-पाँच हाथ मारे । डॉ टर साहब कमज़ोर आदमी थे, लुढ़क
गए । च मा िछटककर दूर जा िगरा ।
" या बात थी बेटा ?" थानेदार साहब ने सलीमा से पूछा ।
"यह मुझे..." सलीमा क गई ।
चचा के िलए सलीमा का चुप हो जाना ही काफ़ था । वह फर शु हो गए । बेचारे
डॉ टर वािहद अंजुम का नशा िहरन हो गया ।
चचा ने उसे गरे बान पकड़कर उठाया । फर छेड़ा–
"चल पुिलस टेशन ।"
पुिलस टेशन का नाम सुनकर डॉ टर साहब काँप गए ।
"म यूिनव सटी म ले चरर ँ ।" उ ह ने िघिघयाकर कहा, "मेरी नौकरी चली जाएगी
।"
नौकरी !
यह श द कतना भयानक और कतना िघनौना है । वािहद अंजुम को आब का यान
नह आया, य क आब अब शायद होती ही नह । अब आब क जगह नौकरी ने ले
ली है ।
चचा कै से मान लेते क िज़ दा और मुदा पर परा म जकड़ी ई यूिनव सटी का कोई
टीचर यह भी कर सकता है । तो डॉ टर साहब को याद आ गया क पड़ोस म उसका एक
टू डट रहता है । वह जगाया गया । उसने गवाही दी । अब चचा या करते ! उ ह ने
डॉ टर साहब के चूतड़ पर लात माकर उ ह क पाउं ड से िनकाल दया ।
पर तु वह पुिलस के आदमी रह चुके थे । उ ह ख़याल आया क कह डॉ टर साहब
रपोट न कर द, इसिलए एहितयातन उ ह ने िसिवल लाइं ज़ के थाने म रपोट िलखवा दी
।1
आप सोच रहे ह गे क यह बात इतनी तफ़सील से य सुनाई जा रही है । म कोई
जासूसी उप यास तो िलख नह रहा ँ । इसिलए इस बात का मह व अभी बता देता ँ ।
इस क़ से को बयान करना इसिलए ज़ री था क फ़ख़ क मँगेतर ने दो साल तक टोपी
से इ क़ लड़ाने (करने नह ) के बाद इ ह डॉ टर वािहद अंजुम से शादी कर ली । कथाकार
यह मानता है क यह बात समझ म आनेवाली नह है, पर तु वह यह नह कर सकता क
चूँ क यह बात समझ म नह आ रही है इसिलए सलीमा को फ़ख़ या टोपी से याह दे ।
जीवन और फ़ शन म यही फ़क़ होता है । म य द धूल से र सी बट रहा होता तो सलीमा
को फ़ख़ से याहता या नेशनल इं टगरे शन करने के िलए उसे टोपी से याह देता! पर तु
म न तो धूल म र सी बट रहा ँ और न ही नेशनल इं टगरे शन क योजना ही चला रहा ँ
। म तो बस टोपी और उसक आक़ा और उसके वातावरण से आपका प रचय करा रहा ँ ।
म बात िछपाकर स पस क़ायम रखने का क़ायल नह ँ । इसिलए मने आपको यह बात
पहले ही बता दी थी क सलीमा ने टोपी से शादी नह क । और अब आपको यह बता रहा
ँ क उसने डॉ टर वािहद अंजुम से शादी कर ली । पर तु यह शादी इस आसानी से नह
हो गई । सलीमा से शादी करने के िलए डॉ टर साहब को पा क तान जाना पड़ा । वहाँ
जाकर उ ह यह कहना पड़ा क क मीर पा क तान का है और भारत क आबादी के आँकड़े
झूठ बोलते ह क भारत म पौने पाँच करोड़ मुसलमान ह । भारत के तमाम मुसलमान दंग
म मारे जा चुके ह । जो बच रहे ह उनक शुि कराई जा चुक है । वही एक मुसलमान
बचा था जो जान बचाकर पा क तान आ गया । इस के जवाब म क फर भारत से
दंग के समाचार य आते रहते ह, उ ह ने कहा क दंग क ये ख़बर भारत कभी-कभार
के वल इसिलए छापता रहता है क दुिनया को यह पता न चल सके क भारत म अब
मुसलमान रह ही नह गए ह । नतीजा यह आ क डॉ टर साहब पा क तानी डेलीगेशन
के साथ क मीर क बहस म िह सा लेने यू.एन.ओ. के असे बली हॉल तक हो आए । वापस
आए तो उ ह एक नई यूिनव सटी का वाइस चांसलर बना दया गया । ज़ािहर है क अब
भला फ़ख़ के िलए या चांस हो सकता था ! और यहाँ अलीगढ़ म सलीमा टोपी से
अपना थीिसस भी िलखवा चुक थी, इसिलए डॉ टर साहब और सलीमा क शादी म कोई
कावट नह रह गई । चट मँगनी और पट याह हो गया ।
पर तु मारपीट का जो क़ सा मने अभी आपको सुनाया है उसका मह व यह है क उसने
सलीमा और टोपी म गहरी दो ती करवा दी ।
आ यह क दूसरे दन यह बात सारी यूिनव सटी म फै ल गई क रात डॉ टर साहब
िपट गए । इस बात को फै लाने म सबसे यादा हाथ उ ह का था जो उस रात डॉ टर
साहब के साथ शराब पी रहे थे ।
घपला यह हो गया क डॉ टर साहब िपटे तो सचमुच सलीमा पर आिशक़ हो गए ।
िह दी िवभाग के च र लगाने लगे । मगर सलीमा को पी-एच.डी. करनी थी । और फर
उन दन वािहद अंजुम क तनख़ाह ब त कम थी ।
टोपी क तरफ़ से सलीमा का दल भी साफ़ हो चुका था । इसिलए वह टोपी के साथ
देखी जाने लगी । मु ल म खलबली पड़ गई । लोकल कै डल-शीट म टोपी और सलीमा
के नाम साथ-साथ छपने लगे । एक चीथड़े म तो यहाँ तक छप गया क टोपी और सलीमा
ने चुपके से शादी कर ली है ।(यह बात िबलकु ल ग़लत है, य क य द ऐसा रहा होता तो
टोपी ने बनारस टेशन क वे टंग म म बैठकर सलीमा को वह ख़त न िलखा होता िजसे
िलखने के बाद उसने फाड़ डाला था ।)
यहाँ से दो कै प बन जाते ह । एक का कहना था क सलीमा ब त बहादुर लड़क है जो
इन बात के बाद टोपी के साथ यादा देखी जाने लगी है । (कथाकार इसी कै प म था ।)
और दूसरे कै प का कहना था क वह के वल अपने थीिसस म इं टरे टेड है । इ फ़न या
सक ना ने सलीमा क शादी के बारे म उससे कु छ नह कहा ।
बात जो रही हो, टोपी बेचारा नाहक़ मारा गया ।
"भाई, वह ब त िसि सयर है ।"
"हाँ ।" इ फ़न ने चारमीनार सुलगाते ए गरदन िहलाई, "वह अपने-आपसे ब त
िसि सयर है ।"
"तुम जलते हो ।" टोपी िबगड़ गया ।
"ए ख़बरदार जो मेरे िमयाँ के बारे म यह बात फर कही !" सक ना ने चमककर कहा ।
शबनम िखलिखलाकर हँस पड़ी ।
"तु हारे बनने-िबगड़ने से म अपनी राय तो बदलने से रहा ।" इ फ़न बोला ।
"मुसलमान लड़क से इ क़ कर रहा ँ न, इसीिलए जल रहे हो । तुम सब मुसलमान
खाल के नीचे पा क तानी हो ।"
"हाँ ।" इ फ़न ने गरदन िहलाई, "एक हद तक तुम ठीक कह रहे हो । पा क तान एक
बेनाम डर का नाम है । और हर मुसलमान डरा आ है । यह डर या है बलभ ? और यह
डर य है ? तुम मुझ पर शक य करते हो ? और म तुमसे ख़ौफ़ य खाता ँ ?..."
"लो सँभालो अपने िमयाँ को ।" टोपी ने सक ना से कहा, "दौरा पड़ गया ।"
"नह वाक़ई बलभ !" इ फ़न ने कहा, "इतने बड़े मु क को इन दो ल ज़ ने डाकु क
तरह पकड़ रखा है । और ये दोन डाकू रै सम माँग रहे ह ।"
डर !
शक !
मुसलमान !
िह दू !
काले-गोरे !
घर म स ाटा हो गया । इ फ़न सक ना, शबनम और टोपी सिहत अपने ही के िवष-
सागर म डू ब गया । और ऐसा लगने लगा जैसे रगते ए अ धकार ने आँगन और आँगन के
ऊपर फै ले ए िवशाल आकाश को ढक िलया और फ के -फ के -से चाँद ने नीम क फु नगी
पर ठोड़ी टका दी ।
"पर तु हम लोग तो सलीमा क बात कर रहे थे ।" अँधेरे म टोपी क आवाज़ गूँजी ।
"सलीमा भी डर और शक के उसी पेड़ का एक क ा फल है । मेरी बात िगरह म बाँध लो
बलभ , क यही डर उसे एक दन िनगल जाएगा । चुपचाप उसका थीिसस िलख डालो ।
डॉ टर सलीमा होने के बाद वह तु ह भूल जाएगी ।"
"मगर..."
"मगर या ?" इ फ़न ने उसक बात काटी, "मगर यह क वह डॉ टर वािहद अंजुम
तक से शादी कर सकती है, मगर वह तुमसे शादी नह करे गी ।"
" य ?" टोपी ने सवाल कया, " या इसिलए क म िह दू ँ ?"
"नह । िह दू तो कशन संह भी ह ।" इ फ़न ने कहा ।
" फर या कारण हो सकता है ?"
"इतना बड़ा और गाढ़ा ण िनकालने क या ज़ रत है ?" इ फ़न ने पूछा, " या तुम
कारन नह कह सकते थे ?"
"यार भाई, म अपने इ क़ क बात कर रहा ँ और तुम भाषा सुधार म लगे ए हो । तुम
उदू वाले जलते हो िह दी से ।"
"जलते नह ह, डरते ह ।" इ फ़न ने कहा ।
फर वही श द !
डर !
या इस डर से छु टकारा पाने क कोई सूरत नह ? म ही िह दी ँ । म ही उदू ँ । तो
या म अपने-आपसे भी डरने लगा ?ँ मेरा एक प एक िलिप नह जानता । इसिलए वह
दूसरी िलिप से डरता है । भाषा क लड़ाई दरअसल नफ़े -नुक़सान क लड़ाई है । सवाल
भाषा का नह है । सवाल है नौकरी का !
नौकरी ।
यह श द भी कहाँ-कहाँ िमल जाता है । जो एक िलिप जानता है वह महफ़ू ज़ है । जो एक
िलिप नह जानता वह डरा आ है । मेरे दोन प भाषा जानते ह, पर तु रोशनाई क
लक र ने हम बाँट रखा है ।
नौकरी !
यह श द हमारी आ मा के माथे पर ख़ून से िलखा आ है । यह श द ख़ून बनकर हमारी
रग म दौड़ रहा है । यह श द वाब बनकर हमारी न द क हतक कर रहा है । हमारी
आ मा नौकरी के खूँटे से बँधी ई िलिप क नाँद म चारा खा रही है ।
"सवाल िह दी-उदू या िह दू-मुसलमान का नह है बलभ !" इ फ़न ने कहा, "सवाल है
नौकरी का । अब लड़ कयाँ लड़क से शादी नह करत । लड़के तो िसफ़ इ क़ करने के िलए
होते ह । शादी तो नौकरी से क जाती है । यार अब तनख़ाह के गज़ से नापा जाता है और
सोशल पोज़ीशन क तराज़ू म तोला जाता है । तुम सलीमा क बात कर रहे हो । अरे ,
तुमसे कोई लड़क शादी नह करे गी ।..."
टोपी उस रात ब त उदास हो उठा । सलीमा का थीिसस वह िलख चुका था । और अब
वह सलीमा से अपने दल क बात कहना चाहता था । पर तु य द इ फ़न सच कह रहा हो
तो ? जो वह दल क बात सुनकर हँस पड़ी तो ?
फर एक दन जब सलीमा ने अपना थीिसस सबिमट कया तो टोपी ने कहा–
"चलो आज िपलवाओ ।"
"अभी तो ज़रा म मुमताज़ आपा से िमलने जा रही ँ ।" सलीमा बोली, "एक जगह
ख़ाली ई है । िम दास छु ी पर गई ह न ! छह महीने क ।"
सलीमा चली गई ।
फर कई बार यही बात ई । पर तु टोपी ने दल बुरा नह कया । उसने उस डर से यह
बात इ फ़न क भी नह बताई क वह हँसेगा ।
फर एक दन पता चला क वािहद अंजुम पा क तान चले गए । रे िडयो पा क तान से
उनके बयान आने लगे और एक दन ख़बर िमली क वह वाइस चांसलर हो गए ।
और एक दन कटीन ही म सलीमा ने कहा–
"ज़रा उसका दमाग़ देखो । मुझसे शादी करना चाहता है ।"
"शादी करना चाहने म या हज़ है ?" टोपी ने पूछा, "अब तो वह वाइस चांसलर हो
गया है । दो-तीन हज़ार तो तनख़ाह भी पा रहा होगा ।"
"अरे , तो या म उसक नौकरी से शादी कर लूँ ! उससे अ छी नौकरी तो ज़ा कर साहब
क है ।"
यह सुनकर टोपी का अंग-अंग गुनगुनाने लगा । फर भी दल क बात कहने क िह मत
न ई।
"तुम कह नौकर-वौकर य नह हो जाते ?" सलीमा ने पूछा ।
"कोिसस तो कर रहा ँ ।" टोपी हकलाया, "कह िह दू होने क वजह से नह िमलती
और कह मुसलमान होने क वजह से ।"
"मगर ऐसे कब तक काम चलेगा ?"
"हाँ ।" टोपी बोला, "ऐसे तो काम नह चल सकता ।"
यह उसी दन क बात है िजस रात वह क लन का चुनाव लड़ाने बनारस गया था ।
वह बनारस से लौटा तो पता चला क सलीमा क शादी वािहद अंजुम क नौकरी से हो
गई ! वह बनारस से सौ-दो-सौ बरस के बाद नह लौटा था । के वल पाँच दन म एक
कहानी एक शाटकट से होती ई अपनी मंिज़ल पर प च ँ गई ।
और यहाँ कथाकार आपको एक ऐसी बात बताना चाहता है जो टोपी को भी नह
मालूम थी । वह बात यह है क इ फ़न क गाड़ी-बाड़ी नह छू टी थी । वह सलीमा क
शादी म शरीक होना ही नह चाहता था ।
"साले, चले थे इ क़ करने ।" वािजद ने कहा, "खड़ा या है बे ! चाय ला ।" वािजद ख़ाँ
एक वेटर पर बरस पड़े । सलीमा और टोपी के इ क़ एवं सलीमा और डॉ टर वािहद अंजुम
क शादी क बात एक 'साले' के अथाह कु एँ म डू ब गई ।
टोपी को वािजद क यही अदा पस द थी । वह बड़ी-से-बड़ी बात पर एक गाली क
िम ी डालकर जी ह का कर लेने क कला जानता था ।
इसीिलए इ फ़न को सी ऑफ़ करने के बाद टोपी कटीन गया क शायद उसक उदासी
वािजद क एक गाली म डू ब जाए ।

1. बात सुबह होते-होते दबा दी गई । पर तु थाना िसिवल लाइं ज के रोज़नामचे म यह रपोट अब भी होगी ।
अठारह

वािजद ख़ाँ टोपी को देखकर मुसकरा दए ।...


जवाब म टोपी आँसा हो गया । उसने खाँसकर थूकने के बहाने मुँह फे र िलया । सामने
लॉन था जो मैली चाँदनी म लथपथ था ।
माल से मुँह और आँख को प छता वह कटीन म दािख़ल आ । जज़बी क गंजी चाँद
म एक ब ब अपना मुँह देख रहा था ।
"हलो भाई !" टोपी ने कहा ।
"आओ ।" वािजद यह कहकर फर जज़बी से मुख़ाितब हो गए, "तो म यह कह रहा था
जज़बी साहब, क ग़ािलब क शायरी म जो मीठा-मीठा दद है उसी दद म उनक शायरी
क बड़ाई है ।"
"आदाब ।" टोपी ने जज़बी साहब से कहा ।
"किहए जनाब, या हाल ह ?" जज़बी ने अपने िघसे-िघसे-से ग दे दाँत िनकालकर
कहा, "आपके इ फन भाई गए ।"
"इ फन नह जज़बी साहब इ फ़न ।" टोपी बोला, "वह मेरा दो त था । म उसका नाम
बना या िबगाड़ सकता ,ँ आप नह ।" वह वािजद खाँ क तरफ़ मुड़ गया, "यार वािजद
भाई, तुम ग़ािलब पर भाषण दो ।"
...धीरे -धीरे शाम के तमाम बैठनेवाले आ गए । इधर-उधर क बात शु हो ग पर तु
टोपी क तनहाई न िमटी । वह बातचीत, लतीफ़ और क़हक़ह के सागर म स ाटे क
च ान क तरह चुपचाप खड़ा लहर के थपेड़े खाता रहा ।
फर वे सब दारा संह क कोई फ़ म देखने चले गए । व त कसी-न- कसी तरह कट ही
गया । पर तु टोपी को तो उसी घर म वापस जाना था । वह या करता ? उसी घर म चला
गया और अपने िलहाफ़ म दुबककर जागता रहा । न जाने य ब त दन बाद उसे इ फ़न
क दादी क याद आने लगी–
"आँख क देखी कहती नह , कान क सुनी कहती ँ । झूठे पर खुदा क लानत । कहते
ह क एक ज़माने म एक ठो बादशाह रहा । ओके सात बे टयाँ रह । एक दन जो ऊ चला
सफ़र पर त अपनी बे टयन को पास बुला के पूिछस..."
वह सो तो न सका । पर तु थकन से उसक आँख ब द हो ग । और आँख ब द करने से
पहले उसने यह फ़ै सला कया क अब वह अलीगढ़ म नह रहेगा ।
फर एक दन सुबह को ए स ेस ख़त बाँटनेवाला डा कया आया । उसने घंटी बजाई ।
काफ़ देर बाद टोपी ने दरवाज़ा खोला । िलफ़ाफ़े को उसने देखा और दरवाज़ा फर ब द
कर िलया ।
थोड़ी देर बाद डा कया आया । उसने एक िलफ़ाफ़ा दरवाज़े क िझरी से अ दर डाल
दया ।
थोड़ी देर बाद भंगन आई । वह घंटी बजाती रही पर तु दरवाज़ा नह खुला । फर धोबी
आया । घंटी बजाकर वह भी चला गया ।
शाम होते-होते पुिलस आ गई । दरवाज़ा तोड़ा गया । और तब पता चला क अपने
कमरे म टोपी आदमी से लाश बन चुका है ।
आँगन म एक ब द िलफ़ाफ़ा िमला । उस पर बहराइच क मुहर थी । वह िलफ़ाफ़ा खुला
आ था । नौकरी का परवाना था । पुिलस इस खुले ए िलफ़ाफ़े का मह व भी नह समझ
सक ।
पुिलस अपनी कारवाई म लग गई । लाश पो टमाटम के िलए भेज दी गई । युिनव सटी
ब द हो गई । डॉ टर भृगु नारायण नीले तेल वाले को तार दे दया गया । उसके साथ
रामदुलारी भी आई ।
टोपी के सामान के साथ सक ना का िलफ़ाफ़ा भी डॉ टर साहब को िमला । उ ह ने उस
राखी को िहक़ारत से देखा । रामदुलारी फर बैन कर-करके रोने लगी ।
"फ़ािहशा !" डॉ टर साहब ने राखी को यूँ फका जैसे वह कोई िघनौनी चीज़ हो । पर तु
उनक आवाज़ म कोई ऐसी बात अव य थी क रामदुलारी चुप हो गई और उनका मुँह
देखने लगी ।
"फ़ािहशा ।" डॉ टर ने फर कहा । रामदुलारी जवाब म कु छ कहना चाहती थी । पर
वह कु छ कह न सक । य क उसे श द का अथ मालूम नह था ।
टोपी भी एक ऐसा ही श द था िजसका अथ रामदुलारी को मालूम नह था ।

You might also like