21वीं शताब्दी के अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों में मीडिया की भूमिका को लेकर एक
विचारोत्तेजक बहस काफी असरे से चल रही है। इसकी शुरूआत 20वीं शताब्दी में (1970 वाले दशक में) ही आरंभ हो चुकी थी जब नई अन्तर्राष्ट्रीय सूचना व्यवस्था (न्यू इंटरनेशल इन्फॉरमेशन ऑर्डर) की मांग जोर पकड़ने लगी थी। यह वह समय था जब नई अन्तर्राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था के गठन के लिए तीसरी दुनिया में दबाव बढ़ रहा था। दोनों ही मांगों के पीछे समान तर्क थे । औपनिवेशिक साम्राज्यवाद के विलय के बाद और अफ्रीका एशिया के "बहुत सारे देशों के स्वाधीन हो जाने के बाद भी अन्तर्राष्ट्रीय समाज में विषमता घटी नहीं थी। हकीकत तो यह थी कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद समय बीतने के साथ-साथ अमीर और गरीब तथा ताकतवर और कमज़ोर के बीच की खाई और भी गहरी हो गई थी। शीतयुद्ध के दौर में जिन सैनिक संधि-संगठनों का निर्माण किया गया था उनके कारण कई छोटे- छोटे राज्य पराश्रित और परजीवी वन गए. थे। आन्द्रे गुन्दर फ्रांक और समीर अमीन जैसे विद्वानों ने इस स्थिति को पर-निर्भरता का नाम दिया, जिसके कारण पश्चिमी देशों का उन पर प्रभुत्व निरंतर बढ़ता जा रहा था। वैसे 1960 के दशक के मध्य में ही इण्डोनेशिया के तत्कालीन राष्ट्र पति सुकर्णो ने अपने अफ्रो-एशियाई साथियों को नव-उपनिवेशवाद और आर्थिक साम्राज्यवाद के खतरे के प्रति सतर्क करना आरंभ कर दिया था। बहरहाल जिस बात की ओर विद्वान ध्यान दिला रहे थे वह यह थी कि जिस तरह आर्थिक संसाधनों पर अपना नियंत्रण बनाकर पूर्व औपनिवेशिक ताकतें नवोदित राज्यों की स्वाधीनता को बधिया कर रही थीं वैसे ही नव- उपनिवेशवादी ताकतों की मीडिया सांस्कृ तिक साम्राज्यवाद को जड़े मजबूत कर रही थी।
शीतयुद्ध के दौर में मीडिया का प्रयोग विरोधी को और उसकी विचारधारा को
बदनाम करने के लिए निरंतर किया जाता रहा। शुरू-शुरू में वॉयस ऑफ अमेरिका और रेडियो फ्री यूरोप जैसी संस्थाओं ने इस काम में हिस्सा बंटया पर आगे चलकर मीडिया राजनय ने एक परिष्कृ त रूप लिया। यह कहा जाने लगा कि जनतंत्र का घनिष्ठ नाता अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और स्वाधीन वर्जना रहित संचार साधनों से है। जिस समाज में मीडिया बेड़ियों में जकड़ा हो उससे सिर्फ दमन और उत्पीड़न की ही उम्मीद की जा सकती है। सोवियत संघ में स्टालिन के काल में और उसके बाद भी असहमति का स्वर मुखर करने वाले असंतुष्ट तत्वों को अराजक असामाजिक शुत्र करार दे उनका बर्बरता से दमन किया जाना आम बात थी । इसका शिकार न के वल पास्तरनाक जैसे कवि हुए, शोलजेनित्सिन जैसे उपन्यासकार और साखारोव जैसे वैज्ञानिक भी बरसों नजरबंद रखे गए। पश्चिमी मीडिया में इन सभी प्रसंगों को जोर-शोर से उछाला और जब इन्हें नोबेल पुरस्कार के सम्मानित किया तो फिर एक बार इनके तिरस्कार और प्रताड़ना को सुर्खियों में स्थान दिया।
इसी दौर में कु छ मीडिया विश्लेषकों ने पश्चिमी मीडिया की स्वाधीनता स्वतंत्रता,
और असलियत की पड़ताल शुरू कर दी। इनमें सबसे पहला नाम जो याद आता है वह वांस पेकार्ड का है, जिन्होंने अपनी पुस्तक दि हिडन परसुएडर्स में इस बात का खुलासा किया कि स्वतंत्र और निष्पक्ष समझे जाने वाले मीडिया भी विज्ञापनों के माध्यम से पाठकों दर्शकों और स्त्रोताओं को किस तरह प्रभावित अनुकू लित करते हैं। एक और पुस्तक सेडक्शन ऑफ दि इनोसेंट में भी इस बात को रेखांकित किया गया कि हमारे दिल और दिमाग को अपनी इच्छानुसार रंगने का काम सिर्फ अखबार और टेलिवीजन या रेडियो ही नहीं करते बल्कि कॉमिक्स, फिल्में और उपन्यास भी इसमें काफी निर्णायक भूमिका निभाते हैं। शीतयुद्ध के युग में प्रकाशित जॉन लेकार के जासूसी उपन्यास द स्पाए हू के म इन फ्रॉम द कोल्ड तथा इयान फ्लेमिंग के जेम्स बॉण्ड शृखंला के उपन्यासों का उदाहरण विद्वान इसी तर्क को पुष्ट करने के लिए देते रहे हैं। जब 1960 में अमेरिका के राष्ट्र पति पद के चुनाव के लिए निक्सन के मुकाबले कै नेडी मैदान में उतरे तो यह बात किसी से छिपी न रही कि अपने करिश्माई आकर्षक व्यक्तित्व और युवा दिलेर छवि के कारण कै नेडी टेलिविज़न का उपयोग अपने पक्ष में बखूबी करने में अपने प्रतिपक्षी की तुलना में कही अधिक कामयाब रहे। आगे चलकर विलियम मैन्वेस्टर ने सेलिंग ऑफ द प्रेसिडेंट में इस प्रसंग का विस्तार से विश्लेषण प्रस्तुत किया।
दूसरी ओर मार्शल मैनकलुहान ने मीडिया के क्षेत्र में तकनीकी क्रांति के सामाजिक
सांस्कृ तिक प्रभावों का गहन विचारोत्तेजक विश्लेषण कर समाजशास्त्रियों को अभिभूत कर दिया। उनकी अनेक स्थापनाएं क्रांतिकारी और बेहद विचारोत्तेजक थीं, जिनमें कु छ ने गागर में सागर भरने वाले सूत्र वाक्यों का रूप ले लिया, 'माध्यम ही संदेश है' तथा 'माध्यम गर्म और ठण्डे होते हैं ', ' कै मरा आंख का विस्तार है