Summary Hin CH 07 Pt1 SW 13mar22 Mar22 - 100158

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|| ीह र: ||

वसुदेवसुतं दे वं कंसचाणूरमदनम् |
ृ णं व दे जग ु म् ||
दे वक परमान दं क

|| ीम गव ीता ववेचन सार च त नका ||

अ याय 07, ान व ान योग


पूवाध ( ोक 1-11), र ववार, 13 माच 2022
ववेचक: गीता वशारद ी नवास जी वणकर
YouTube Link: https://youtu.be/QoGFf71OAyM

“ सया राम मय सब जग जानी”

व म संवत 2078 के अंितम मास फा ुन क शु ला दशमी, र ववार क इस सां य बेला म “रं ग


रं गे ह र रं ग म, रं ग भरे ह र भि म” क भावना एवं फुि लत मन से, ीक
ृ ण वंदना, परमा ा
का सुंदर िचतन एवं गु चरण वंदना से स का आरं भ आ।

िपछले ज के पु य कम और परमा ा क असीम क


ृ पा से गीत अ ययन अनवरत है। छटव
अ याय म भगवान अजुन को यान योग क म हमा और कैसे परम यान को साधक ा त कर
सक, योग के इस रह य को उ ा टत कर रहे थे। अजुन को योगी बनने हेतु े रत करते ए, उसी
तारत य म भगवान ने छठव अ याय के अंितम ोक म यह भी बतलाया क सम त योिगय म वह
योगी े है, जो ापूवक कामना का नवाण करते ए, आसि र हत भाव से योग साधना म
लीन रहता है।

अजुन के मन म कसी कार का संशय शेष ना रह, इसी निम भगवान अपने ीमुख से आगे
कहते ह क:-

7.1
ीभगवानुवाच
म यास मनाः(फ्) पाथ, योगं (म्) यु दा यः।
असं शयं (म्) सम ं(म्) मां(म्), यथा ा य स त छणु॥1॥

ीभगवान् बोले -- हे पृथान दन ! मुझम आस मनवाला, मेरे आ त होकर योगका अ ास


करता आ तू मेरे सम पको नःस दे ह जैसा जानेगा, उसको सुन।

गीता का मूल ान है क फल क इ छा कए बना अथात अनास भाव से साधक को कमशील


रहना चा हए। परं तु मानव वभाव तो कुछ ऐसा होता है, क जो “न” करने हेतु न य कया जाए
वह करने क इ छा बलवती होती है। इस पर भगवान कहते है, क मन मे आसि भाव को न
करने क चे ा नह करना चा हए अिपतु उस आसि को मुझसे अथात परमा ा से जोड़ देने का
उप म करना चा हए। “आ प म आस होना ह भ है”

योग म कमशील होते ए, परमा ा म अपनी आसि को जोड़ देने पर आ प म जो योग व का


अनुभव होगा, वह े योगी क अव ा होगी। जब ऐसा करने म कोई संशय शेष न रहेगा, तभी
साधक परमा ा को सम अथात प रपूण प म जान सकेगा।

7.2

ानं (न्) तेऽहं (म्) स व ानम्, इदं (म्) व ा यशेषतः।


य ा वा नेह भूयोऽ ज्, ात यमव श यते॥2॥

तेरे लये म व ानस हत ान स पूणतासे क ँगा, जसको जाननेके बाद िफर इस वषयम
जानने यो य अ कुछ भी शेष नह रहे गा।

ववेचन: ान अथात जानकार और व ान अथात वशेष जानकार ।

2
उदाहरण व प कोई कतना भी रसगु ले के बार मे, उसके आकार, क
ृ ित, साम ी, बनाने क
व ध के बारे म बताएं , तो यह आ ान। परं तु ा रसगु ले को बना चखे, वा त वकता म जाना
जा सकता है, तो रसगु ले का वाद लेना, यह आ व ान।

भगवान भी यहाँ अब अजुन को व ान स हत उस परम ान का वणन कर रह है, जसको जानने के


प ात इस लोक म फर, कुछ और जानना शेष नह रहता।

7.3

मनु याणां(म्) सह ेषु, क तित स ये।


यततामिप स ानां( ), क ां(म्) वे त वतः॥3॥

हजार मनु य म कोई एक वा त वक स (क याण)के लये य करता है और उन य


करनेवाले स म कोई एक ह मुझे त व से जानता है।

ववेचन: त – वो (परमा ा)

व – भाव

त व अथात जो एक प हो जाए वह परमा ा का भाव जान सकते ह, और ऐसा साधक कोई


वरला ह हो सकता है।

ी राम वनवास संग म जब भगवान राम को गंगा पार करनी थी, तब केवट ने उ गंगा पार
करवाई। केवट परम ानी था, परमा ा के भाव से प रिचत था, इस लए जब भु ी राम ने गंगा
पार करने के पा रतोिषक के प मे अपनी वण मु का देनी चाह तो केवट ने यह कहकर
अ वीकार कर द क जब आप वनवास से लौटगे, तब लूँगा। इस ‘ना’ को न केवल उसने भु राम
से पुन: िमलने का अवसर बना लया बि क, परमा ा के सि कट जाने का उसे सौभा य भी
िमला। चौदह वष उपरांत, भु ीराम के रा ा भषेक होने के बाद, केवट को दय से लगाते ए

3
ीराम ने कहा क तुम मुझे भरत समान ि य हो, इस लए सदैव अयो या आते रहना। भु के साथ
ऐसा संबंध ह परम स है।

7.4-7.5

भू मरापोऽनलो वायुः(ख्), खं (म्) मनो बु रे व च।


अह कार इतीयं (म्) मे, भ ा क
ृ ितर टधा॥4॥

अपरे य मत व ां(म्), क
ृ ित(म्) व मे पराम्।
जीवभूतां(म्) महाबाहो, ययेदं(न्) धायते जगत्॥5॥

पृ वी, जल, तेज, वायु, आकाश -- ये प महाभूत और मन, बु तथा अहं कार -- यह आठ
ृ ित है। हे महाबाहो ! इस अपरा क
कार के भेद वाली मेर 'अपरा' क ृ ितसे भ जीव प बनी
ृ ित को जान जसके ारा यह जगत् धारण कया जाता है।
ई मेर 'परा' क

ववेचन: सां यत व दशन योग म दो त व का उ लेख है। स पूण संसार क रचना इ दो त व


पर आधा रत है।

1. क
ृ ित : अपरा (जड़)

2. पु ष : परा (चैत )


ृ ित आठ कार क होती है। भूिम, जल, अि , वायु, आकाश,मन, बु और अहं कार। जब क
चैत प म ह परमा ा को अनुभूत कया जा सकता है। जो सम त भूत मा म अंत न हत होती
है। यह परमा ा का ित बब है।

संसार को जानना ह व ान है। परं तु केवल पंच ( व ान) को ह अंितम स मान लेना भी
अ ान है, क जो यम है, वह सब तो मा ित बब है और वा त वक व पदशन तो
आ ान से ह संभव है। जो परमा ा का प है।

4
“ सया राम मय सब जग जानी”

यह परम ान है और अपरा परा से िमलकर ह ये संसार बना है।

7.6

एत ोनी न भूता न, सवाणी ुपधारय।



अहं ( ) क य जगतः(फ्), भवः(फ्) लय तथा॥6॥

स पूण ा णय के (उ प होने म)अपरा और परा -- इन दोन ृ ितय का संयोग ह कारण



है- ऐसा तुम समझो। म स पूण जगत् का भव तथा लय ँ।

भगवान कहते ह क स पूण संसार का रचियता म ँ और जसम यह सारा संसार वलीन हो जाता
है, वह भी म ह ँ । तभी तो परमा ा सव या त है, जो अ य है।

7.7

म ः(फ्) परतरं (न्) ना त्, क दि त धन य।


मिय सव मदं (म्) ोतं(म्), सू े म णगणा इव॥7॥

इस लये हे धन य ! मेरे अित र (इस जगत् का) दस


ू रा कोई क ा भी कारण तथा काय
नह है। जैसे सूतक म णयाँ सूत के धागे म िपरोयी ई होती ह, ऐसे ह यह स पूण जगत् मेरे
म ह ओत- ोत है।

ववेचन: परमा ा से े और कुछ नह , किचत भी नह । जस कार वण म णय को वण


त तु म िपरोकर एकि त कया जाता है, उसम मूल त व वण ह तो होता है, ऐसे ह स पूण संसार
के मूल म उसी परमा ा को अनुभूत करना ह यथाथ है।

5
अथात आकाश म वच रत सम त सौरमंडल, आकाश गंगाय और उनम त सम त ह को
संभालने वाला त तु या सू वह पर परमा ा ह तो है।

7.8

रसोऽहम सु कौ तेय, भा श शसूययोः।


णवः(स्) सववेदेषु, श दः(ख्) खे पौ षं (न्) नृषु॥8॥

हे कु तीन दन ! जल म रस म ँ, च मा और सूयम भा ( काश) म ँ, स पूण वेद म णव


( कार) म ँ, आकाश म श द और मनु य म पु षाथ म ँ।

ववेचन: अ सु अथात जलत व म वयं परमा ा है, चं मा – सूय के आभामंडल म य भास


भी वह है, वेद म “ कार” और नर म पु षाथ भी परमा ा का ह व ह है।

7.9

पु यो ग ः(फ्) पृ थ यां(ञ्) च, तेज ा वभावसौ।


जीवनं (म्) सवभूतेषु, तप ा तपि वषु॥9॥

पृ वी म प व ग म ँ और अि से तेज म ँ तथा स पूण ा णय म जीवनी श म ँ और


तपि वय म तप या म ँ।
ववेचन: ूल से लेकर सू तक म अथात पृ वी पर उपल सम त जड़ व तु म परमा ा
का ह वास है। पु प म न हत सुगंध,अि म ताप, सम त भूत म चैत जीवा ा और तपि वय
का तप भी ई र य प है।

7.10

6
बीजं (म्) मां(म्) सवभूतानां(म्), व पाथ सनातनम्।
बु बु मताम , तेज तेजि वनामहम्॥10॥

हे पृथान दन ! स पूण ा णय का अना द बीज मुझे जान। बु मान क बु और तेजि वय


म तेज म ँ।

ववेचन: जैसे कोई बीज एक वशाल वृ बन जाता है, तब बीज का व प न हो जाने पर भी


बीज क उप ित को नकारा नह जा सकता उसी तरह इस संसार का सनातन बीज वयं
परमा ा है। ऐसे ह बु मान क बु और तपि वय का तप म वयं ँ ।

7.11

बलं(म्) बलवतां(ञ्) चाहं ( ), कामराग वव जतम्।


धमा व ो भूतेषु, कामोऽ भरतषभ॥11॥

हे भरतवं शय म े ठ अजुन ! बलवाल म काम और राग से र हत बल म ँ। ा णय म धमसे


अव (धमयु ) काम म ँ।

ववेचन: बलवान का बल जो काम, राग और आसि र हत हो, वो भी म वयं ँ और नीित


सम त सम त काय भी म ह ँ । ऐसा या यान वयं ीक
ृ ण अजुन के सम उ ा टत कर रह है।

ह र ॐ त त्
ह र शरणम् व न के साथ आज के स का समापन आ।

ृ पया नीचे दए लक का उपयोग


हम व ास है क आपको ववेचन क रचना पढ़कर अ छा लगा होगा। क
करके हम अपनी ित या द जए।

7
https://forms.gle/1sAzZXZsSoTbZGos9

ववेचन-सार आपने पढ़ा, ध वाद!


हम सब गीता सेवी, अन भाव से यास करते ह क ववेचन क
े अंश आप तक शु वतनी म प च
ं े । इसक
े बाद भी
वतनी या भाषा संबध
ं ी क ु टय क
े लए हम मा ाथ ह।
ृ ण!
जय ी क

संकलन: गीता प रवार – रचना क लेखन वभाग

हर घर गीता, हर कर गीता !
आइये हम सब गीता प रवार के इस येय से जुड़ जाय, और अपने इ -िम -प रिचत को गीता क ा का उपहार
द।
http://gift.learngeeta.com

गीता प रवार ने एक नवीन पहल क है। अब आप पूव म स ा लत ए सभी ववेचन क यू ब


ू व डओ
ृ पया नीचे द गई लक का उपयोग कर। 
एवं पीडीऍफ़ को दे ख एवं पढ़ सकते ह। क

http://vivechan.learngeeta.com/
|| गीता पढ़, पढ़ाय, जीवन म लाय ||
ृ णापणम तु ||
||ॐ ीक

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