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अध्याय २५

कृष्ण भक्त

अथ कृष्ण-भक्तााः —
तद्-भाव-भाववत-स्वानतााः कृष्ण-भक्ता इतीरितााः ॥२.१.२७३॥

कृष्ण के साथ जिसका ह्रदय पूिी तिह से लग गया हो भाव के साथ वे कृष्ण के भक्त कहलाते हैं |

भक्त -:

साधक –तत्र साधकााः —


उत्पनन-ितयाः सम्यङ् नैवविघ्ननयम ् अनप
ु ागतााः ।
कृष्ण-साक्षात ्-कृतौ योगयााः साधकााः परिकीर्तितााः ॥२.१.२७६॥

िो अभी साधन किते हुए भगवान के प्रर्त भाव भजक्त िागत


ृ कि ली हो पिनतु अनथि र्नवर्ृ त प्रककया िािी
िहती है औि कृष्ण को दे खने का अधधकाि प्राप्त कि लेता है |

ईश्विे तदधीनेषु बाललशेषु द्ववषत्सु च ।


प्रेममैत्रीकृपोपेक्षा य: किोर्त स मध्यम: ॥ ११.२.४६ ॥

यथा वा —
लसक्ताप्य ् अश्रु-िलोत्किे ण भगवद्-वाताि-नदी-िनमना
र्तष्ठत्य ् एव भवाजगन-हे र्ति् इर्त ते धीमनन ् अलं धचनतया ।
हृद्-व्योमनय ् अमत
ृ -स्पह
ृ ा-हि-कृपा-वष्ृ ्े ाः स्फु्ं लक्षते
नेददष््ाः पथ
ृ ु-िोम-ताण्डव-भिात ् कृष्णाम्बुधस्योद्गमाः ॥२.१.२७८॥

बबल्वमङ्गल-तुल्या ये साधकास ् ते प्रकीर्तितााः ॥२.१.२७९॥

लसद्ध –अथ लसद्धााः—


अववज्ञाताखखल-क्लेशााः सदा कृष्णाधश्रत-कियााः ।

लसद्धााः स्युाः सनतत-प्रेम-सौख्यास्वाद-पिायणााः ॥२.१.२८०॥

लसद्ध

र्नत्य लसद्ध - साधक लसद्ध -

साधना से (माकंडेय ) कृपा से (व्रि वर्नता )

यच्च व्रिनत्यर्नलमषामष
ृ भानव
ु त्त्ृ या संगमें गुणगान श्रीशुक कृपा
दिू े यमा ह्युपरि न: स्पह
ृ णीयशीला: । बलल
भतुिलमिथ: सुयशस: कथनानिु ाग-
वैक्लव्यबाष्पकलया पल
ु कीकृताङ्गा: ॥३.१५. २५ ॥

जिन व्यजक्तयों की शािीरिक ववशेषताएं पिमानंद

में बदल िाती हैं औि िो भगवान की मदहमा सुनने के कािण भािी सांस लेते हैं औि पसीना बहाते

हैं, उनहें भगवान के िाज्य में पदोननत ककया िाता है , भले ही वे ध्यान औि अनय तपस्याओं की

पिवाह नहीं किते हैं। भगवान का िाज्य भौर्तक ब्रह्मांडों से ऊपि है , औि यह ब्रह्मा औि अनय

दे वताओं द्वािा वांर्ित है ।

अहो पश्यत नािीणामवप कृष्णे िगद्गिु ौ ।


दिु नतभावं योऽववध्यनमत्ृ युपाशान ् गह
ृ ालभधान ् ॥ १०.२३.४२ ॥

नासां द्वविार्तसंस्कािो न र्नवासो गुिाववप ।


न तपो नात्ममीमांसा न शौचं न किया: शुभा: ॥१०.२३. ४३ ॥

र्नत्य लसद्ध - अथ र्नत्य-लसद्धााः —


आत्म-कोद्-गुणं कृष्णे प्रेमाणं पिमं गतााः ।
र्नत्याननद-गुणााः सवे र्नत्य-लसद्धा मुकुनदवत ् ॥२.१.२९०॥

जिनके शिीि औि गण
ु मुकंु द के समान आनंदमय हैं, औि जिनके पास कृष्ण के ललए सवोच्च प्रेम है ,

िो स्वयं के प्रर्त आसजक्त से दस लाख गुना अधधक है , वे र्नत्य लसद्ध (र्नत्य-लसद्ध) कहलाते हैं। "
यथा पाद्मे श्री-भगवत ्-सत्यभामा-दे वी-संवादे —

अथ ब्रह्मादद-दे वानां तथा प्राथिनया भुवाः ।

आगतो’हं गणााः सवे िातास ् ते’वप मया सह ॥२.१.२९१॥

एते दह यादवााः सवे मद्-गणा एव भालमर्न ।

सविदा मत ्-वप्रया दे वव मत ्-तुल्य-गण


ु -शाललनाः ॥२.१.२९२॥

पद्म पुिाण से सत्यभामा औि भगवान के बीच चचाि का एक उदाहिण:

"हे सुंदि सत्यभामा! मैं ब्रह्मा औि दे वताओं की प्राथिना के कािण आया हूूँ, औि मेिे सभी साधथयों ने

मेिे साथ िनम ललया है । आप जिन यादवों को दे ख िहे हैं वे सभी मेिे सहयोगी हैं औि मेिे िैसे सभी

गण
ु ों से भिे हुए हैं। वे हमेशा मुझे अकेले को ही "(अपने आप को नहीं)
वप्रय मानते हैं।

तथा च श्री-दशमे (१०.१४.३२) —

अहो भागयम ् अहो भागयं ननद-गोप-व्रिौकसाम ् ।

यन ्-लमत्रं पिमाननदं पण
ू ं ब्रह्म सनातनम ् ॥२.१.२९३॥
ककतने भागयशाली हैं नंद महािाि, गवाले औि व्रिभूलम के अनय सभी र्नवासी! उनके सौभागय की कोई

सीमा नहीं है , क्योंकक पिम सत्य, ददव्य आनंद का स्रोत, शाश्वत सवोच्च ब्रह्म, उनका लमत्र बन गया है ।

तत्रैव (१०.२६.१३) —

दस्
ु त्यिश ् चानिु ागो’जस्मन ् सवेषां नो व्रिौकसाम ् ।

ननद ते तनये’स्मासु तस्याप्य ् औत्पविकाः कथम ् ॥२.१.२९४॥

सनातनं लमत्रम ् इर्त तस्याप्य ् औत्पविकाः कथम ् ।

स्नेहो’स्मास्व ् इर्त चैतेषां र्नत्य-प्रेष्ठत्वम ् आगतम ् ॥२.१.२९५॥

कोई समझ सकता है कक व्रि के र्नवासी में संसाि के 'सनातन लमत्र' द्वािा भगवान के शाश्वत

सहयोगी हैं औि 'यह कैसे है कक वे इतने सहि रूप से हमािी ओि आकवषित होते हैं ?'

इत्य ् अताः कधथता र्नत्य-वप्रया यादव-वल्लवााः ।

एषां लौकककवच ्-चेष््ा लीला मुि-रिपोि् इव ॥२.१.२९६॥

जिस प्रकाि लक्ष्मण, भित औि संकषिण भगवान के साथ िनम लेते हैं, यादव गोप लोग, भगवान की इच्िा से

अपने आध्याजत्मक धाम से उतिते हैं, भगवान कृष्ण के रूप में िनम लेते हैं, औि कफि उनके साथ अपने

शाश्वत धाम में लौ् आते हैं। इन भक्तों का िनम कमि के बंधन से नहीं होता है।"

ये प्रोक्तााः पञ्च-पञ्चाशत ् िमात ् कंसरिपोि् गण


ु ााः ।

ते चानये चावप लसद्धेषु लसद्धधदत्वादयो मतााः ॥२.१.२९९॥

कृष्ण प्रथम पचपन गुणों के साथ-साथ योग लसद्धधयों को दे ने की क्षमता िैसे गुण भी लसद्ध भक्तों

में मौिूद हैं।"

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