अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022 की थीम

अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022 की थीम 'जेंडर इक्वालिटी टुडे फॉर ए सस्टे नेबल
टुमारो' यानी एक स्थायी कल के लिए लैंगिक समानता रखी गई है . साथ ही इस बार
महिला दिवस का रं ग पर्पल-ग्रीन और सफेद भी तय किया गया है , जिसमें पर्पल
न्याय और गरिमा का प्रतीक है , जबकि हरा रं ग उम्मीद और सफेद रं ग शद्ध
ु ता से जड़
ु ा
है .

महिलाएं समाज का एक अहम हिस्सा हैं लेकिन वक्त के साथ महिलाएं समाज
और राष्ट्र के निर्माण का एक अहम हिस्सा बन चुकी हैं। घर-परिवार से सीमित
रहने वाली महिलाएं जब चारदीवारी से बाहर निकल अन्य क्षेत्रों की ओर बढ़ी तो
उन्हें अभत
ू पर्व
ू सफलता मिलने लगी। खेल जगत से लेकर मनोरं जन तक, और
राजनीति से लेकर सैन्य व रक्षा मंत्रालय तक में महिलाएं न केवल शामिल हैं
बल्कि बड़ी भमि
ू काओं में हैं। महिलाओं की इसी भागीदारी को बढ़ाने और अपने
अधिकारों से अनजान महिलाओं को जागरूक करने व उनके जीवन में सध
ु ार
करने के उद्देश्य से अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है । हर साल 8 मार्च
को दनि
ु या के तमाम दे शों में महिला दिवस के मौके पर कार्यक्रमों का आयोजन
होता है ।

महिला दिवस 2022 की थीम

साल 2021 महिला दिवस की थीम 'महिला नेतत्ृ व: कोविड-19 की दनि


ु या में एक
समान भविष्य को प्राप्त करना' थी। वहीं अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 2022 की
थीम 'जेंडर इक्वालिटी टुडे फॉर ए सस्टे नेबल टुमारो' यानी 'एक स्थायी कल के
लिए आज लैंगिक समानता' है । वहीं महिला दिवस का रं ग पर्पल, ग्रीन और
सफेद है । पर्पल रं ग न्याय और गरिमा का प्रतीक है । हरा रं ग उम्मीद और
सफेद रं ग शद्ध
ु ता का प्रतीक है । 

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अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को मनाने के उद्देश्य समय के साथ और महिलाओं की
समाज में स्थिति बदलने के साथ परिवर्तित होते आ रहे है . शुरुआत में जब 19 वीं
शताब्दी में इसकी शुरुआत की गई थी, तब महिलाओं ने मतदान का अधिकार
प्राप्त किया था, परं तु अब समय परिवर्तन के साथ इसके उद्देश्य कुछ इस प्रकार
है .

1. महिला दिवस मनाने का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य महिला और पुरुषो में


समानता बनाए रखना है . आज भी दनि
ु या में कई हिस्से ऐसे है , जहां
महिलाओं को समानता का अधिकार उपलब्ध नहीं है . नौकरी में जहां
महिलाओं को पदोन्नति में बाधाओं का सामना करना पड़ता है , वहीं
स्वरोजगार के क्षेत्र में महिलाए आज भी पिछड़ी हुई है .

2. कई दे शों में अब भी महिलाएं शिक्षा और स्वास्थ्य की दृष्टि से पिछड़ी


हुई है . इसके अलावा महिलाओं के प्रति हिंसा के मामले भी अब भी दे खे
जा सकते है . महिला दिवस मनाने के एक उद्देश्य लोगों को इस संबध
ं में
जागरूक करना भी है .

3. राजनीतिक परिप्रेक्ष्य में अब भी महिलाओं की संख्या पुरुषो से कई पीछे


है और महिलाओं का आर्थिक स्तर भी पिछड़ा हुआ है . महिला दिवस
मनाने का एक उद्देश्य महिलाओं को इस दिशा में जागरूक कर उन्हे
भविष्य में प्रगति के लिए तैयार करना भी है .

4. आठ मार्च को अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस है । इस दिन महिलाओं के प्रेम, त्याग,


आत्मविश्वास और समाज के प्रति उनके बलिदान के लिए उनका प्रति सम्मान प्रदर्शित
किया जाता है । महिलाओं के सम्मान में दनि
ु याभर में विभिन्न कार्यक्रम आयोजित होते
हैं। इन दौरान महिलाएं प्रमुख्ता के साथ अपनी बातें रखती हैं और भाषण भी दे ती हैं। तो
चलिए आपको बताते हैं इस दिन का महत्व और इससे जड़
ु े महत्वपर्ण
ू तथ्य जो आपके
काफी काम आएंगे। 1908 में न्यू यॉर्क में कपड़ा मजदरू ों ने हड़ताल की और वर्किं ग
कंडीशन्स बेहतर बनाने की मांग करते हुए महिलाओं ने इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया
था। उन्हीं के सम्मान में 28 फरवरी 1909 को पहली बार अमेरिका में सोशलिस्ट पार्टी के

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आह्वान पर महिला दिवस मनाया गया। सन 1910 में वूमेन्स ऑफिस की लीडर कालरा
जेटकीन नाम की महिला ने जर्मनी में इंटरनेशनल वम
ू ेन डे का मद्द
ु ा उठाया। उन्होंने
सझ
ु ाव दिया कि हर दे श को एक दिन महिला को बढ़ावा दे ने के रूप में मनाना चाहिए।

5. 1910 में ही द सोशलिस्ट इंटरनेशनलस ने कोपेनहे गन में हुई एक मीटिंग में महिला
दिवस की स्थापना की। इस दिवस की स्थापना खास तौर पर महिला अधिकारों और
उन्हें दनि
ु याभर में मताधिकार दिलाने वाले आंदोलनों का सम्मान करने के लिए की गई।
कोपेनहे गन मीटिंग के बाद पहला अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस को अधिकारिक तौर पर
1911 में पहचान मिली। ऑस्ट्रिया, डेनमार्क , जर्मनी और स्विट्जरलैंड में 10 लाख से
ज्यादा महिला और पुरुषों ने रै लियों में हिस्सा लिया। मताधिकार की मांग के साथ ही
सरकारी नौकरी, काम करने का अधिकार और वोकेशनल ट्रे निग
ं जैसी मांग भी उठाई गईं
ताकि काम की जगह पर महिलाओं के साथ होने वाले भेदभाव को खत्म किया जा सके।

1917 में प्रथम विश्व युद्ध के दौरान, रूस में महिलाओं ने ‘रोटी और शांति’ (Bread and
Peace) की मांग में धरना-प्रदर्शन किए। प्रदर्शन फरवरी महीने के आखिरी रविवार को
किया गया जो जॉर्जियन कैलेंडर के हिसाब से 8 मार्च की तारीक बना। प्रदर्शन के 4 दिन
बाद महिलाओं को वोट करने का अधिकार मिला। 1975 में अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के
दौरान यूनाइटे ड नेशन्स ने अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस 8 मार्च को सिलेब्रेट करना शुरू
किया। इस दिन का असली सार यही है कि महिलाओं को उनकी शक्ति और उनको
अपने अधिकारों की सही पहचान हो।महिलाओं में कानन
ू के प्रति सजगता की कमी उनके
सशक्तीकरण के मार्ग में रोड़े अटकाने का काम करती है । अशिक्षित महिलाओं को तो
भूल जाइए, शिक्षित महिलाएं भी कानूनी दांवपेच से अनजान होने की वजह से जाने-
अनजाने में हिंसा सहती रहती हैं। ऐसे में महिलाओं को कानूनी रूप से शिक्षित करने के
लिए मुहिम शरू
ु करना वक्त की जरूरत बन गया है ।

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Sustainable development will be an impossibility without the potential
contributions from women
The very notion of gender equality entails the belief that injustice is associated
with the very definition of the concept. It is imperative that we reflect on this
association. Injustice arises out of society’s inability to accept the fact that men
and women should be equal.
The realisation that sustainable development is not possible without equality
between men and women is a relatively recent finding and directly linked to
sustainability issues. A holistic, comprehensive approach to sustainability is one of
the most important ways to support and maintain gender justice and equality.
The world needs to urgently define the issues of social responsibility, so that the
major themes related to the human being can be shared among all genders. It is
important to take care of our increasingly volatile planet, but more importantly it
is to take care of the people who live on it.
Defending equality between men and women, or boys and girls, is as important as
combating domestic violence, or empowering low-income groups. Teaching that
rights should be equal, as well as opportunities and performance, are mandatory
themes, reminding us that the road to true equality is still long.
The importance of rectifying gender injustice and restoring women’s dignity in
parts of the world is unquestionable. Gender equality is the fifth Sustainable
Development Goal of the UN. The UN acts to empower women and girls in all its
programmes. With stepped-up action on gender equality, every part of the world
can move towards sustainable development by 2030, leaving none behind.
Multiple targets
The targets include ending all forms of discrimination against women and girls,
eliminating all forms of violence against women and girls in the public and private
spheres, including trafficking and sexual and other types of exploitation,
eliminating harmful practices such as child, early and forced marriage and female
genital mutilation.
Other goals relate to recognising and valuing unpaid care and domestic work
through the provision of public services, infrastructure and social protection
policies and the promotion of shared responsibility within the household and the
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family as nationally appropriate. Women’s full and effective participation and
equal opportunities for leadership at all levels of decision-making in political,
economic and public life need to be ensured, as also universal access to sexual
and reproductive health and reproductive rights as agreed in accordance with the
Programme of Action of the International Conference on Population and
Development and the Beijing Platform for Action and the review conferences.
Other goals include reforms to give women equal rights to economic resources, as
well as access to ownership and control over land and other forms of property,
financial services, inheritance and natural resources, in accordance with national
laws, enhancing the use of enabling technology to promote empowerment of
women, and adopting and strengthening sound policies and enforceable
legislation for the promotion of gender equality and empowerment.
Indeed, the importance of women in the sustainable development of society is
more than just a theoretical or intellectual discussion. It is a campaign or cause
that unites women in the awareness of their fundamental role for this sustainable
development to be achieved. Women actively contribute in all sectors of
productive activity, side by side with men, seeking equality based on respect and
recognition of their role in society.
However, their rights continue to be denied and their contribution to the
sustainability of society are stunted or overlooked.
Women’s roles should be increasingly valued as an active presence within the
family with responsibilities, whether in the world of work, communities, or just as
mothers. Their contribution is indispensable to a sustainable society, since their
participation has become an example of social inclusion and empowerment.
Daily reality
For many women this recognition and appreciation of their abilities is part of their
day-to-day life. Tragically, most women aren’t recognised in any sense that would
empower them. It is a serious, crippling and psychologically debilitating problem.
Most women earn less than men in the same professions, are victims of
discrimination, struggle with work and home and are often still the targets of
aggression and sexual harassment.

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How, then, can one imagine sustainable development without the potential of
women, which has not been supported enough the world over so far? We need to
create the necessary mechanisms for new ideas to be considered in a serious and
responsible way. There are many obstacles along the road to true equality. We
should encourage women to seek independence and not be afraid to consider
alternatives that can generate multiple income streams.
Parents need to educate sons and daughters so that they respect each other and
are willing to share domestic work. Boys need to be taught not to reproduce
expressions such as “This is a woman’s thing,” or denigrate certain professions or
activities. Such discourse violates the dignity of women who give decades of their
lives doing thankless and often unpaid or low-paid work taken for granted, often
by men.
Finally, we all have a moral responsibility to report cases of violence, abuse and
sexual exploitation against children and adolescents.
There is always more we can do. When women uplift themselves (and we uplifted
by other women and men), men and children benefit. A world where women and
men can realise their full potential is an imperative.

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On Women’s Day eve, remembering all those unknown women who were killed
in mysterious kitchen fires
Wait, Girl! It has been 26 years, and the world has forgotten her. But here I am,
typing profusely because she refuses to let go of me. As I write this, she peeps
over my shoulders, playing with her sari’s end. “Gosh! You're finally writing!” she
exclaims.
I tried reasoning with her several times, but today, I am digging her grave, once
and for all. Let her scare and trouble others too!
I am being humble if I say that I have accepted her. I have somewhat spoilt her!
She gushes in and out of my life without a preamble. Like me, she too has come a
long way, except that she is now sans body.
So, years ago, there was this talk about a young mother admitted with severe
burns to the hospital. I gathered amid murmurs that events were shady, and
doctors were convinced that it was not a freak accident. The woman refused to
give a statement and finally died. While filing a complaint against the husband’s
family, her parents confessed that their only daughter had constantly complained
about being tormented. But was told to “adjust”. They now regretted deeply,
having lost everything to the flames.
Back to ‘normal’
The parents kept seeking justice until their resources dried up. The husband soon
remarried. The burnt woman’s picture was etched in my vulnerable mind through
narratives, though I had seen neither her nor the sinister kitchen.
I recognised them a hundred times, though in newspapers, over the years.
The rebel in me kept questioning why society did not ostracise the victimisers
until they pleaded guilty. I was told this is not the way life works. I felt indignant
and insulted. Life? What about the woman without a “reasonable dowry” who
surrendered to flames while her baby played outside?
Society dumped her, and she followed me home. I experienced guilt and
bitterness. The burnt girl kept appearing in our long-forged relationship, looking
for peer support. Now that she was a ghost with special powers, she knew I would
narrate her tale. The copyright, though, is still hers!

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I am writing this now, a quarter-century after the incident, because I am yet to
belong to a society free of gory crimes against women. From bride-burning, we
have progressed to molestation, rape, acid attacks, honour killings, domestic
violence, workplace harassment, and so on. The more a woman asserts her
brilliance and competitiveness, the more vicious become the attacks. The prime
flaw — hope that things will get better with time and tolerance.
Surfing through various reports on crime against women, I realise that we have
come very far. India has the highest number of dowry-related deaths in the world.
According to Indian National Crime Record Bureau, in 2012, the dowry death
cases reported pan India were 8,233. Not to mention a massive body of
unreported ones. Our rape victims’ numbers increase, with age ranging from
under six to over 60!
Not just in India, the virus rages in all the countries. According to the world
population review, 2022, approximately 35% of women worldwide experienced
sexual harassment, and less than 10% sought legal aid.
Gender is the worst invention of mankind, with my pretty bandwagon fanning the
gender divide. Our most significant institution, the home, has thrived on soul-
wrecking compromises by women.
This is not an appeal for feminist morchas, lest you blame it on my “West-
influenced” upbringing! It’s time we stopped passing on this legacy of violent
tales.
With a short and forgotten life, the fire-torn girl smuggled a part of her pain to
whosoever was willing to listen. Be merry wherever you are. But wait, girl! Before
we welcome you back, this world needs to be repainted and refurbished.
A woman can do what a man can; a woman can be as good or bad as a man, too
When I was younger, I thought I knew everything there was to know about
gender equality. It seemed so straightforward: “If a man can do it, a woman can
do it as well.”
Much later, I realised there were entirely different angles to the issue than I had
imagined.

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A story I recently heard (source forgotten) went like this: In an argument between
a man and a woman about this world-famous question of equality, the man said,
“If you want to do what a man does, go climb a coconut tree.” Without missing a
beat, the woman retorted, “Why don't you go climb one and show me first?” The
debate went no further, naturally.
Another incident, this time from my own life. A few years ago a colleague called
me up on a Sunday morning and began discussing work. There was something
urgent going on. There always is. I listened for a while and said, “Look, it’s a
Sunday. I have so many chores to catch up. We’ll talk tomorrow.” Every
household task I had left unattended during the previous week was glaring at me.
The work week had already been quite hectic, and all I wanted to do was get
some sleep.
My colleague replied, only half in jest, “Well, if you want gender equality, you got
to work as hard as I do.”
Wait a minute. You mean all the household chores and mommy duties aren’t hard
enough? Don't get me started, Mr. Colleague. You aren’t even married yet. He
wasn’t worth the argument, anyway, so I left it at that, because if I get launched
on the topic, not even I can stop myself. No doubt he gossiped with abandon
about my reluctance (as well as his delightful willingness) to work on a Sunday.
When the mother of a five-month-old was eyed with sarcasm because she had to
leave “early” (around 9 p.m.) while the entire team worked round-the-clock to
manage a crisis, I was unclear how equality was supposed to work in the
circumstances. The crisis was a crisis and it had to be resolved at all costs before
the dirt hit the fan, but the technical lead could not stay to see it through because
there was a different crisis brewing at her home.
“If there is equality,” asks one person, “why do women scientists or
entrepreneurs get so much attention? They should be given just as much
coverage as any man. Don’t run newspaper special reports on ‘the women behind
the success.’”
“The answer is in your question,” I reply. “We aren’t there yet. We’re still on the
way. Right now, we focus on the women who stand out, so that more and more

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are inspired. Then one day we will stop and complain that there are too many
women on the scene.”
In my childhood, there were not many lady doctors or women drivers, so every
time I met one, I was full of admiration for them. As time passed, we started
referring to ‘lady doctors’ as ‘doctors’ — an important transition, because it was
no longer necessary to specify whether it was a man or a woman. Drivers are still
referred to as a ‘women drivers’ especially if she has parked the wrong way, or if
she does not drive fast enough, or if she takes a wrong turn, or if she shows any
other kind of incompetence on the road. If it’s a guy, he gets an obscene gesture,
that’s all.
I had been too young or too naïve to understand that the roles of men and
women are not always interchangeable. Women can do most of the things men
do, but not all. And vice versa. I doubt if you would find a man getting pregnant or
giving birth to a child any time soon, equality or no equality. Nonetheless, there’s
a middle ground where equal opportunities make sense.
Which is why, later in life, when I saw men being appreciated for “staying through
the night at office” (with no mention of productivity) over women who had to
leave every evening because they had a family, I knew it was unfair, but I did not
know what the solution was.
We have come a long way, though. History tells us that barely half a century ago
women were mere shadows, their duties confined to keeping the species from
going extinct and keeping their men and children happy. Though there are still
places in the world where things haven’t changed much, elsewhere, today,
women can vote, and dare to have an opinion, and fly airplanes, and have the
freedom to shout or dance in public, and dress as they please (on second
thoughts, strike that; let's leave the dress topic for another time).
So far so good.
All this while, in my mind the abstract idea of “a woman can do what a man can”
was translated to, “a woman can be as good as a man.”
Wise people have long, long ago figured out what occurred to me merely a few
years back. As always, the unexpected wisdom came from a popular television

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medical drama. A family of five was brought to the hospital in very critical
condition. The family members were either dead or unconscious or unable to
recall what happened — in other words, apart from the fact that their car shot off
a bridge and plunged to the river, no one knew anything. After an emergency
surgery performed on one of the patients, one doctor says to another, “The dad
was drunk. He must have driven them off the bridge.” The other doctor snaps
indignantly. “Why? You don’t think a woman is capable of drunk-driving and
killing her family?”
The laddoo finally burst in my mind. Of course! Women can be as bad — or evil,
or crooked — as men too. That’s what equality was all about. Not just being “as
good”.
One evening a few months ago, when my son and I were returning home in a cab
through a bylane with no streetlights, we passed a woman driving a scooter, with
one hand off the vehicle, talking on her mobile phone. Yes indeed, if they can
break the law, we can too. Whoever said equality was confined to the good
things?
 women comprise only 15% of the workforce in research and development
whereas the global average is 30%. She exhorted the employees to inspire more
women to enter the field of science and technology. An equal world is an enabled
world’. 

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नारी का नारी के लिये सकारात्मक दृष्टिकोण न होने का ही परिणाम है कि परु
ु ष उसका
पीढ़ी-दर-पीढ़ी शोषण करता आ रहा हैं। इसी कारण नारी में हीनता एवं पराधीनता के
संस्कार संक्रान्त होते रहे हैं। जिन नारियों में नारी समाज की दयनीय दशा के प्रति थोड़ी
भी सहानुभूति नहीं है , उन नारियों का मन स्त्री का नहीं, पुरुष का मन है , ऐसा प्रतीत
होता है । अन्यथा अपने पांवों पर अपने हाथों से कुल्हाड़ी कैसे चलाई जा सकती है ?
अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाते हुए नारी के मन में एक नयी, उन्नायक एवं परिष्कृत
सोच पनपे, वे नारियों के बारे में सोचें , अपने परिवार, समाज एवं राष्ट्र की नारी की पीड़ा
को अपनी पीड़ा समझें और उसके समाधान एवं प्रतिकार के लिये कोई ठोस कदम उठायें
तो नारी शोषण, उपेक्षा, उत्पीड़न एवं अन्याय का युग समाप्त हो सकता है । इसी उद्देश्य
से नारी के प्रति सम्मान एवं प्रशंसा प्रकट करते हुए 8 मार्च का दिन महिला दिवस के
रूप में उनके लिये निश्चित किया गया है , यह दिवस उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में , उत्सव के रूप में मनाया जाता है ।

अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार विमर्श और


गोष्ठियां होंगी जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भू ्रण
हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, तलाक के बढ़ते
मामले, गांवों में महिला की अशिक्षा, कुपोषण एवं शोषण, महिलाओं की सरु क्षा, महिलाओं
के साथ होने वाली बलात्कार की घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके
खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार फिर चर्चा में लाकर सार्थक वातावरण का निर्माण
किया जायेगा। लेकिन इन सबके बावजूद एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी
कब तक भोग की वस्तु बनी रहे गी? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहे गा?
बलात्कार, छे ड़खानी, भ्रूण हत्या और दहे ज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती
रहे गी? कब तक उसके अस्तित्व एवं अस्मिता को नौचा जाता रहे गा? विडम्बनापर्ण
ू तो यह
है कि महिला दिवस जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की
बजाय उनका दरु
ु पयोग करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।

महिलाओं के प्रति एक अलग तरह का नजरिया इन सालों में बनने लगा है , प्रधानमंत्री
नरे न्द्र मोदी ने नारी के संपूर्ण विकास की संकल्पना को प्रस्तुत करते हुए अनेक योजनाएं
लागू की है , जिनमें अब नारी सशक्तीकरण और सुरक्षा के अलावा और भी कई आयाम

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जोडे गए हैं। सबसे अच्छी बात इस बार यह है कि समाज की तरक्की में महिलाओं की
भूमिका को आत्मसात किया जाने लगा है । आज भी आधी से अधिक महिला समाज को
परु
ु षवादी सोच के तहत बहुत से हकों से वंचित किया जा रहा है । वक्त बीतने के साथ
सरकार को भी यह बात महसूस होने लगी है । शायद इसीलिए सरकारी योजनाओं में
महिलाओं की भमि
ू का को अलग से चिह्नित किया जाने लगा है ।

एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टट


् र मान्यता वाले
औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानून का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के
अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है । इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, परू ा पष्ृ ठ
चाहिए। पूरे पष्ृ ठ, जितने परु
ु षों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पष्ृ ठों
को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायते’ घेरे बैठे
हैं। परु
ु ष-समाज को उन आदतों, वत्ति
ृ यों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को
अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढ़लान में उतर गये जहां रफ्तार
तेज है और विवेक अनियंत्रण हैं जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध
और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदषि
ू त एवं विकृत हो चक
ु े तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं
बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को
जहर के घूंट पीने एवं बेचारगी को जीने को विवश होना पड़ता है । पुरुषवर्ग नारी को दे ह
रूप में स्वीकार करता है , लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं
का परिचय दे ना होगा, उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।

इसे भी पढ़ें : women's day special: घर में बिस्किट बनाने से लेकर IPO तक का रजनी
बेक्टर्स का सफर!

‘यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते दे वता’- जहां नारी की पूजा होती है , वहां दे वता निवास
करते हैं। किंतु आज हम दे खते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है ।
उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है , यह बेहद
चिंताजनक बात है । आज अनेक शक्लों में नारी के वजद
ू को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल
बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही है । दे श में गैंग रे प की वारदातों में कमी भले ही
आयी हो, लेकिन उन घटनाओं का रह-रह कर सामने आना त्रासद एवं दःु खद है ।
आवश्यकता लोगों को इस सोच तक ले जाने की है कि जो होता आया है वह भी गलत
है । महिलाओं के खिलाफ ऐसे अपराधों को रोकने के लिए कानूनों की कठोरता से

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अनुपालना एवं सरकारों में इच्छाशक्ति जरूरी है । कार्यस्थल पर महिलाओं के यौन
उत्पीड़न के विरोध में लाए गए कानूनों से नारी उत्पीड़न में कितनी कमी आयी है , इसके
कोई प्रभावी परिणाम दे खने में नहीं आये हैं, लेकिन सामाजिक सोच में एक स्वतः
परिवर्तन का वातावरण बन रहा है , यहां शुभ संकेत है । महिलाओं के पक्ष में जाने वाले
इन शभ
ु संकेतों के बावजद
ू कई भयावह सामाजिक सच्चाइयां बदलने का नाम नहीं ले
रही हैं।

दे श के कई राज्यों में लिंगानुपात खतरे के निशान के करीब है । दे श की राजधानी में


महिलाओं के हक के लिए चाहे जितने भी नारे लगाए जाएं, लेकिन खद
ु दिल्ली शहर से
भी बुरी खबरें आनी कम नहीं हुई हैं। तमाम राज्य सरकारों को अपनी कागजी योजनाओं
से खुश होने के बजाय अपनी कमियों पर ध्यान दे ना होगा। योजना अपने आप में कोई
गलत नहीं होती, कमी उसके क्रियान्वयन में होती है । कुछ राज्यों में बेटी की शादी पर
सरकार की तरफ से एक निश्चित रकम दे ने की स्कीम है । इससे बेटियों की शादी का
बोझ भले ही कम हो, लेकिन इससे बेटियों में हीनता की भावना भी पनपती है । ऐसी
योजनाओं से शिक्षा पर अभिभावकों का ध्यान कम जाएगा। जरूरत नारी का आत्म-
सम्मान एवं आत्मविश्वास कायम करने की है , उन्हें आत्मनिर्भर बनाने की है । नारी सोच
बदलने की है । उन पर जो सामाजिक दबाव बनाया जाता है उससे निकलने के लिए
उनको प्रोत्साहन दे ना होगा। ससरु ाल से निकाल दिए जाने की धमकी, पति द्वारा छोड़
दिए जाने का डर, कामकाजी महिलाओं के साथ कार्यस्थलों पर भेदभाव, दोहरा नजरियां,
छोटी-छोटी गलतियों पर सेवामक्
ु त करने की धमकी, बड़े अधिकारियों द्वारा सैक्सअल
दबाब बनाने, यहां तक कि जान से मार दे ने की धमकी के जरिये उन पर ऐसा दबाव
बनाया जाता है । इन स्थितियों में सर्वाधिक महत्वपर्ण
ू है नारी को खद
ु हिम्मत जट
ु ानी
होगी, साहस का परिचय दे ना होगा लेकिन साथ ही समाज को भी अपने पूर्वाग्रह छोड़ने
के लिए तैयार करना होगा। इन मद्द
ु ों पर सरकारी और गैरसरकारी, विभिन्न स्तरों पर
सकारात्मक नजरिया अपनाया जाये तो इससे न केवल महिलाओं का, बल्कि पूरे दे श का
संतुलित विकास सुनिश्चित किया जा सकेगा।

रामायण रचयिता आदि कवि महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति-‘जननी जन्मभूमिश्च


स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख से उच्चारित है । प्रारं भ से ही यहाँ ‘नारीशक्ति’ की
पूजा होती आई है फिर क्यों नारी अत्याचार बढ़ रहे हैं? क्यों महिला दिवस मनाते हुए

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नारी अस्तित्व एवं अस्मिता को सुरक्षा दे ने की बात की जाती है ?  क्यों उसे दिन-प्रतिदिन
उपेक्षा एवं तिरस्कार का सामना करना पड़ता है । इसके साथ-साथ भारतीय समाज में
आई सामाजिक कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहू पति विवाह और
हमारी परं परागत रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम
भमि
ू का अदा की। बदलते परिवेश में आधनि
ु क महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि
मैथिलीशरण गुप्त के इस वाक्य-“आँचल में है दध
ू ” को सदा याद रखें । उसकी लाज को
बचाएँ रखें । बल्कि एक ऐसा सेतु बने जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके
और गिरते हुए को उठा सके। 

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आज की नारी अबला नहीं सबला है जी हां आज हर एक क्षेत्र मे जहां महिलाओं ने
अपना लोहा मनवाया है । आज वो कोई दस
ू रा ग्रह हो या पथ्
ृ वी ही हर ओर महिलाओं ने
अपना झंडा गाढ़ा है । पलि
ु स क्षेत्र हो या नेवी, जल या थल सेना महिलाऐं भी अपने बल
ु ंद
हौसलों के साथ दे श की सेवा मे लगी है ।ये हमारे दे श की पावन धरती है जिस पर
अहिल्या बाई, महारानी लक्ष्मीबाई, मदर टे रेसा, किरन बेदी और भी ना जाने कितनी
अनगिनत विलक्षण प्रतिभाओं ने अपना लोहा मनवाया है । कल्पना चावला जो कि बस
अभी उड़ान भरना सिखने का ख्वाब दे ख रही थी पर वो अपने इस ख्वाब को पूरा करने
की ठानते हुए आगे अग्रसर होती गयी और अपने ख्वाब को अंजाम तक पहुंचा के अपना
नाम युगों-युगों तक स्वर्ण अक्षरों मे लिखवा गई। हमारे ही दे श की आदरणीय प्रतिभा
पाटिल जी भी जो कि एक महिला ही हैं उन्होंने खुद को राष्ट्रपति की गद्दी पे दे खने का
ख्वाब संजोया था और अपने ख्वाब को ईमानदारी की राह पर निक्षपक्ष न्याय करते हुए
पूरा किया। आज कितनी महिलाएं दे खिये व्यवसाय के क्षेत्र मे ऊंचे मुकामों को पा रही हैं
अपने बलबूते और काबलियत के दम पर महिलाएं बड़ी-बड़ी कम्पनियों को बहुत ऊंचाइयों
तक पहुंचा रही है । कितनी स्त्रियां अपने पति के ही व्यवसाय मे दक
ु ान पर बैठ के साथ
निभा रही हैं। घर को सुचारु रुप से चलाते हुए, अपने बच्चों की बेहतरीन परवरिश करते
हुए सभी के सख ु -दख
ु का ख्याल रखते हुए भी अपने कार्यक्षेत्र पर अपना वर्चस्व लहराना
कोई मामूली बात नहीं है । हर किसी को खुश रखते हुए अपने उत्तरदायित्व की पूर्ति
करते रहने का गण
ु मात्र महिलाओं मे ही समाया होता है । महिलाएं जो कि एक कुशल
ग्रहणी के साथ-साथ बाहर के भी क्रिया कलापों का सही तरह समय-समय और हालात के
अनुसार निर्वाह करती है । सच एक महिला की भमि
ू का निभाना कोई सरल कार्य नहीं है ।
ये मर्दों को जितना सरल सुगम लगता है उतना हे नहीं।नारी दिवस के दिन ही नारी का
सम्मान करते हुए आज बहुत सी संस्थाए जहां एक ओर अपने संस्थानों की खासियत से
दनि
ु या को अवगत करा रही है ।साथ ही नारी को सक्षम बनाने और अबला नहीं सबला,
आत्मनिर्भर बनने का पाठ पढ़ाने का काम कर रही है । प्रतिभाऐं नारियों की जो समाज
के सम्मुख लाने की कोशिश कर रही हैं। वहीं दस
ू री ओर ऐसे भी बहुत से परिवार या
परिवार के मर्द, पति औरत की खासियत को दबाने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं। ऐसा ना
हो कि पति को उसकी पत्नी की काबिलियत से जाना जाने लगे यही सोच आज भी बहुत
से आदमी अपनी पत्नी या घर की किसी भी महिला को आगे बढ़ने नहीं दे रहे । ये कोई
काल्पनिकता नहीं जिंदगी की हकिकत है । जिसके अंतर्गत बहतु सी विलक्षण प्रतिभाऐं

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एक कोने मे सहमी सी दब कर रह जाती है । ऐसे मे यदि कोई सामाजिक संस्थाऐं ऐसी
विलक्षण प्रतिभाओं को खोज के सामने लाती हैं तो उन संस्थाओं पर भी शिकंजा सा कस
कर उन्हें दबा दिया जाता है । जिससे चाहकर भी कोई ऐसी विलक्षण प्रतिभाओं की धनी
महिलाओं का सहयोग नहीं कर पाता है । आखिर क्यों आज भी हमारे सभ्य समाज मे
नारी को दबाये रखने की कोशिश होती ही रहती है ।

आजकल अखबारों की सर्खि


ु यों मे जहाँ एक ओर नारी दिवस के निकट आने पर जितना
जोश,उत्साह से भरा हुआ दिखाया जा रहा है । कितनी सुर्खियों मे बस नारी की महानता
का पाठ कवियों, साहित्यकारों द्वारा गा-गा कर सन
ु ाया जा रहा है । वहीं दस
ू री ओर
अखबार कि सुर्खियों मे ही आऐ दिन कितनी ही महिलाओं के साथ हो रहे नित
अत्याचारों का उल्लेख भी पढ़ने को मिल रहा है । नित महिलाओं के साथ हो रहे
अत्याचार मे कहीं बहू बेटियों को अपनी हवस का शिकार बनाया जा रहा हे तो कहीं
दहे ज़ कि बली चढ़ रही है बेटियां तो कहीं इतनी घिनौनी हरकत हो रही है सरकारी लोगों
ही द्वारा जिसमें नारियों की ही अस्मत को तार-तार करते हुए उनको नंगा नाच नचाया
जा रहा है । यदि इंसानों, औरतों की सुरक्षा करने वाला मुहकमा ही इंसानों की असमत को
यूं तार-तार कर दे गा तो कैसे कोई भी बेटी, औरत, इंसान किसी पर यकीन कर पाऐगी।
आज भी लोग कोख मे ही बेटी को जन्म दे ने से पहले ही मरवा दे ते हैं क्यों कि इसका
कारण या तो दहे ज है , या औरतों के साथ बढ़ रहे अनैतिक अपराध लोग बेटियों को जन्म
दे ने से पहले ही खौंफ ज़दा होते हैं कि कहीं उनके कलेजे का टुकड़ा, उनकी ही बेटी कभी
कहीं किसी हादसे का शिकार ना हो जाऐ। आज हर क्षेत्र मे जहाँ नारी विकास की ओर
अग्रसर हो रही आधनि
ु कता के साथ वहीं दस
ू री ओर नित प्रतिदिन हादसों का शिकार भी
हो रही।

हमारे दे श की महिलाओं की सरु क्षा का जिम्मा कब और कब तलक कोई लेगा हम


महिलाओं को ही खुद को इतना अधिक मजबूत बनाना है कि हर एक हादसा ही हमारे
करीब आने से पहले सौ बार सोचे,आज हम औरतों को यदि हर क्षेत्र मे मर्दों संग कांधे से
कांधा मिलाते हुए चलना है तो खौंफ को त्यागते हुए बुलंद हौसलों संग निर्भय हो आगे
बढ़ना ही होगा कब तलक आखिर नारी इन भेड़ियों, दरिंदों का शिकार होगी यदि हमारे
समाज की पचास प्रतिशत महिलाएं भी हिम्मत दिखाऐं तो शेष पचास प्रतिशत महिलाओं
मे खुद ब खुद इतनी अधिक हिम्मत बढ़ जाऐगी। खुद के लिये नारी और समाज को भी

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जागरूक करते हुए सभी के लिये एक आदर्श बने। यदि आप ऐसी किसी भी प्रतिभावान
औरतों को जानती हैं तो उन औरतों की प्रतिभाओं को भी संग-संग आगे लाऐं। अपना
लोहा मनवाना हमारा हक है क्यों कि हम औरतों के भी कुछ ख्वाब हैं कुछ जज़्बात। इन
ख्वाबों को पंख लगा उड़ने मे परिवार के लोग भी अपनी अहम़ भूमिका निभाते हुए
अपना सहयोग दें । अपने घर की बेटियों को सक्षम बनाऐं शिक्षा दिलवाकर। सबला
बनाइये बेटियों को अबला नहीं।

ये नया भारत है , अब महिलाओं ने अपनी ताकत


को पहचान लिया है
हर वर्ष 8 मार्च को विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान प्रकट करने के
लिये अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया जाता है । हमारे दे श की महिलायें आज हर क्षेत्र में
पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम कर अपनी ताकत का अहसास करवा रही हैं।
भारत में रहने वाली महिलाओं के लिये इस वर्ष का महिला दिवस कई नई सौगातें लेकर
आया है । महिलाओं के लिये अच्छी खबर यह है कि इस बार संसद में महिला सांसदों की
संख्या बढ़कर 78 हो गयी है जो अब तक की सबसे ज्यादा है । कुछ दिनों पूर्व सुप्रीम
कोर्ट ने भी महिलाओं को सेना में स्थाई कमीशन दे ने का आदे श दिया है । अब सेना में
भी महिलायें परू
ु षों के समान पदों पर काम कर पायेंगी। इससे महिलाओं का मनोबल
बढ़े गा।

संयुक्त राष्ट्र संघ ने भी महिलाओं के अधिकार को बढ़ावा और सुरक्षा दे ने के लिए


दनि
ु याभर में कुछ मापदं ड निर्धारित किए हैं। महिला दिवस उन महिलाओं को याद करने
का दिन है । जिन्होंने महिलाओं को उनके अधिकार दिलाने के लिए अथक प्रयास किए।
वर्तमान दौर में महिलाओं ने अपनी ताकत को पहचान लिया है और काफी हद तक

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अपने अधिकारों के लिए लड़ना भी सीख लिया है । अब महिलाओं ने इस बात को अच्छी
तरह जान लिया है कि वे एक-दस
ू रे की सहयोगी हैं।

महिलाओं का काम अब केवल घर चलाने तक ही सीमित नहीं है बल्कि वे हर क्षेत्र में


अपनी उपस्थिति दर्ज करा रही हैं। परिवार हो या व्यवसाय, महिलाओं ने साबित कर
दिखाया है कि वे हर वह काम करके दिखा सकती हैं जिसमें अभी तब सिर्फ पुरुषों का ही
वर्चस्व माना जाता था। शिक्षित होने के साथ ही महिलाओं की समझ में वद्धि
ृ हुयी है ।
अब उनमें खुद को आत्मनिर्भर बनाने की सोच पनपने लगी है । शिक्षा मिलने से
महिलाओं ने अपने पर विश्वास करना सीखा है और घर के बाहर की दनि
ु या को जीतने
का सपना सच करने की दिशा में कदम बढ़ाने लगी हैं।

सरकार ने महिलाओं के लिए नियम-कायदे और कानून तो बहुत सारे बना रखे हैं किन्तु
उन पर हिंसा और अत्याचार के आंकड़ों में अभी तक कोई कमी नहीं आई है । संयुक्त
राष्ट्र की रिपोर्ट के अनुसार भारत में 15 से 49 वर्ष की उम्र वाली 70 फीसदी महिलाएं
किसी न किसी रूप में कभी न कभी हिंसा का शिकार होती हैं। इनमें कामकाजी व घरे लू
महिलायें भी शामिल हैं। दे शभर में महिलाओं पर होने वाले अत्याचार के लगभग 1.5
लाख मामले सालाना दर्ज किए जाते हैं। जबकि इसके कई गुणा अधिक मामले दबकर
रह जाते हैं।

घरे लू हिंसा अधिनियम दे श का पहला ऐसा कानन


ू है जो महिलाओं को उनके घर में
सम्मानपूर्वक रहने का अधिकार सनि
ु श्चित करता है । इस कानून में महिलाओं को सिर्फ
शारीरिक हिंसा से ही नहीं बल्कि मानसिक, आर्थिक एवं यौन हिंसा से बचाव करने का
अधिकार भी शामिल है । भारत में लिंगानुपात की स्थिति भी अच्छी नहीं मानी जा सकती
है । लिंगानप
ु ात के वैश्विक औसत 990 के मक
ु ाबले भारत में 941 ही है । हमें भारत में
लिंगानुपात सध
ु ारने की दिशा में विशेष काम करना होगा ताकि लिंगानुपात की खराब
स्थिति को बेहतर बनायी जा सके।

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार पिछले कुछ वर्षों में
महिलाओं के खिलाफ अपराध के मामले दोगुने से भी अधिक हुए हैं। पिछले दशक के
आंकड़ों के मुताबिक भारत में हर घंटे महिलाओं के खिलाफ अपराध के 26 मामले दर्ज

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होते हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के अनुसार महिलाओं के प्रति की जाने वाली क्रूरता
में वद्धि
ृ हुई है । 

इसे भी पढ़ें : दर्गा


ु माता की पज
ू ा करते हैं पर महिलाओं का सम्मान नहीं करते

दे खा जाये तो स्वतंत्रता प्राप्ति के 73 वर्ष बाद भी भारत में 70 प्रतिशत महिलाएं अकुशल
कार्यों में लगी हैं जिस कारण उनको काम के बदले मजदरू ी भी कम मिलती है । परु
ु षों की
तुलना में महिलाएं औसतन हर दिन छह घण्टे ज्यादा काम करती हैं। चूल्हा-चौका, खाना
बनाना, सफाई करना, बच्चों का पालन पोषण करना तो महिलाओं के कुछ ऐसे कार्य हैं
जिनकी कहीं गणना ही नहीं होती है । दनि
ु या में काम के घण्टों में 60 प्रतिशत से भी
अधिक का योगदान महिलाएं करती हैं जबकि उनका संपत्ति पर मात्र पांच प्रतिशत ही
मालिकाना हक है ।

कहने को तो सम्पूर्ण विश्व की महिलाएं एकजुट होकर महिला दिवस को मनाती हैं। मगर
हकीकत में यह सब बातें सरकारी दावों व कागजों तक ही सिमट कर रह जाती हैं। दे श
की अधिकांश महिलाओं को तो आज भी इस बात का पता नहीं है कि महिला दिवस का
मतलब क्या होता है । महिला दिवस कब आता है कब चला जाता है । भारत में अधिकतर
महिलायें अपने घर-परिवार में इतनी उलझी होती हैं कि उन्हें बाहरी दनि
ु या से मतलब ही
नहीं होता है । लेकिन इस स्थिति को बदलने का बीड़ा महिलाओं को स्वयं उठाना होगा।
जब तक महिलायें स्वयं अपने सामाजिक स्तर व आर्थिक स्थिति में सध
ु ार नहीं करें गी
तब तक समाज में उनका स्थान गौण ही रहे गा।

बड़े दख
ु की बात है कि नारी सशक्तिकरण की बातें और योजनाएं केवल शहरों तक ही
सिमट कर रह गई हैं। एक ओर शहरों में रहने वाली महिलाएं शिक्षित, आर्थिक रूप से
स्वतंत्र हैं जो परु
ु षों के अत्याचारों का मुकाबला करने में सक्षम है । वहीं दस
ू री तरफ गांवों
में रहने वाली महिलाओं को तो अपने अधिकारों का भी परू ा ज्ञान नहीं हैं। वे चप
ु चाप
अत्याचार सहती रहती हैं और सामाजिक बंधनों में इस कदर जकड़ी हैं कि वहां से निकल
नहीं सकती हैं।

प्रधानमंत्री नरे न्द्र मोदी के बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ अभियान का जरूर कुछ असर दिखने
लगा है । इस अभियान से अब दे श में महिलाओं के प्रति सम्मान बढ़ने लगा है । जो इस

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बात का अहसास करवाता है कि आने वाले समय में महिलाओं के प्रति समाज का
नजरिया सकारात्मक होने वाला होगा। विकसित दे शों की तुलना में हमारे दे श में
महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी नहीं है । आज भी महाराष्ट्र के बीड़, गज
ु रात के
सूरत, भज
ु में घटने वाली महिला उत्पीड़न की घटनायें सभ्य समाज पर एक बदनुमा दाग
लगा जाती हैं।

इसे भी पढ़ें : सिर्फ बातों से कुछ नहीं होगा, नारी शक्ति है उसका शोषण मत करिये ?

दे श में आज भी सबसे ज्यादा उत्पीड़न महिलाओं का ही होता है । आये दिन महिलाओं के


साथ बलात्कार, हत्या, प्रताड़ना की घटनाओं से समाचार पत्रों के पन्ने भरे रहते हैं।
महिलाओं के साथ आज के यग
ु में भी दोयम दर्जे का व्यवहार किया जाता है । बाल
विवाह की घटनाओं पर पूर्णतया रोक ना लग पाना एक तरह से महिलाओं का उत्पीड़न
ही है । कम उम्र में शादी व कम उम्र में मा बनने से लड़की का पूर्णरूपेण शारीरिक व
मानसिक विकास नहीं हो पाता है । आज हम बेटा बेटी एक समान की बातें तो करते हैं
मगर बेटी होते ही उसके पिता को बेटी की शादी की चिंता सताने लग जाती है । समाज
में जब तक दहे ज लेने व दे ने की प्रवत्ति
ृ नहीं बदलेगी तब तक कोई भी बाप बेटी पैदा
होने पर सच्चे मन से खुशी नहीं मना सकता है ।

महिला दिवस पर दे श भर में अनेकों स्थान पर कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है ।


मगर अगले ही दिन उन सभी बातों को भल
ु ा दिया जाता है । समाज में अभी परू
ु षवादी
मानसिकता मिट नहीं पायी है । समाज में अपने अधिकारों एवं सम्मान पाने के लिए अब
महिलाओं को स्वयं आगे बढ़ना होगा। दे श में जब तक महिलाओं का सामाजिक, वैचारिक
एवं पारिवारिक तौर पर उत्थान नहीं होगा तब तक महिला सशक्तिकरण की बातें करना
बेमानी होगा।

यत्र पज्
ू यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते दे वता’- जहां नारी की पज
ू ा होती है , वहां दे वता निवास
करते हैं। किंतु आज हम दे खते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है ।
उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है , यह बेहद
चिंताजनक बात है ।

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बात भारतीय या अभारतीय नारी की नहीं, बल्कि उसके प्रति दृष्टिकोण की है ।
आवश्यकता इस दृष्टिकोण को बदलने की है , जरूरत सम्पर्ण
ू विश्व में नारी के प्रति
उपेक्षा एवं प्रताड़ना को समाप्त करने की है , इसी उद्देश्य से नारी के प्रति सम्मान एवं
प्रशंसा प्रकट करते हुए 8 मार्च का दिन उनके लिये निश्चित किया गया है , यह दिवस
उनकी सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में , उत्सव के रूप में
मनाया जाता है । इस दिन से पहले और बाद में हफ्ते भर तक विचार विमर्श और
गोष्ठियां होंगी जिनमें महिलाओं से जुड़े मामलों जैसे महिलाओं की स्थिति, कन्या भ्रूण
हत्या की बढ़ती घटनाएं, लड़कियों की तुलना में लड़कों की बढ़ती संख्या, गांवों में महिला
की अशिक्षा एवं शोषण, महिलाओं की सुरक्षा, महिलाओं के साथ होने वाली बलात्कार की
घटनाएं, अश्लील हरकतें और विशेष रूप से उनके खिलाफ होने वाले अपराध को एक बार
फिर चर्चा में लाकर सार्थक वातावरण का निर्माण किया जायेगा। लेकिन इन सबके
बावजद
ू एक टीस से मन में उठती है कि आखिर नारी कब तक भोग की वस्तु बनी
रहे गी ? उसका जीवन कब तक खतरों से घिरा रहे गा ? बलात्कार, छे ड़खानी, भ्रूण हत्या
और दहे ज की धधकती आग में वह कब तक भस्म होती रहे गी ? कब तक उसके
अस्तित्व एवं अस्मिता को नोचा जाता रहे गा ? विडम्बनापूर्ण तो यह है कि महिला दिवस
जैसे आयोजन भी नारी को उचित सम्मान एवं गौरव दिलाने की बजाय उनका दरु
ु पयोग
करने के माध्यम बनते जा रहे हैं।

यत्र पूज्यंते नार्यस्तु तत्र रमन्ते दे वता’- जहां नारी की पूजा होती है , वहां दे वता निवास
करते हैं। किंतु आज हम दे खते हैं कि नारी का हर जगह अपमान होता चला जा रहा है ।
उसे ‘भोग की वस्तु’ समझकर आदमी ‘अपने तरीके’ से ‘इस्तेमाल’ कर रहा है , यह बेहद
चिंताजनक बात है । आज अनेक शक्लों में नारी के वजद
ू को धुंधलाने की घटनाएं शक्ल
बदल-बदल कर काले अध्याय रच रही हैं- जिनमें नारी का दरु
ु पयोग, उसके साथ अश्लील
हरकतें , उसका शोषण, उसकी इज्जत लट
ू ना और हत्या कर दे ना- मानो आम बात हो गई
हो। महिलाओं पर हो रहे अन्याय, अत्याचारों की एक लंबी सच
ू ी रोज बन सकती है । न
मालूम कितनी महिलाएं, कब तक ऐसे जुल्मों का शिकार होती रहें गी। कब तक अपनी
मजबरू ी का फायदा उठाने दे ती रहें गी। दिन-प्रतिदिन दे श के चेहरे पर लगती यह कालिख
को कौन पोछे गा ? कौन रोकेगा ऐसे लोगों को जो इस तरह के जघन्य अपराध करते हैं,

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नारी को अपमानित करते हैं। शिक्षा, रोजगार, अधिकार, राजनीति, परिवार एवं समाज आदि
के कतिपय पहलुओं के संदर्भ में आज भी नारी दोयम दर्जे पर खड़ी है । इधर के दशकों
में उसने शिक्षा के क्षेत्र में परचम फहराए हैं, रूढ़ परम्पराओं की बेड़ियों को तोड़ने में
सफलता हासिल की है , संविधान के आधार पर मानवीय अधिकारों के परिवेश को समझने
की चेतना विकसित की है तथा नये-नये कार्यक्षेत्रों में अपनी स्वतंत्र पहचान बनाई है , पर
सवाल फिर भी खड़ा है कि क्या वह इस समय भी दोयम दर्जे पर नहीं है ? 

एक कहावत है कि औरत जन्मती नहीं, बना दी जाती है और कई कट्टट


् र मान्यता वाले
औरत को मर्द की खेती समझते हैं। कानन
ू का संरक्षण नहीं मिलने से औरत संघर्ष के
अंतिम छोर पर लड़ाई हारती रही है । इसीलिये आज की औरत को हाशिया नहीं, पूरा पष्ृ ठ
चाहिए। पूरे पष्ृ ठ, जितने परु
ु षों को प्राप्त हैं। पर विडम्बना है कि उसके हिस्से के पष्ृ ठों
को धार्मिकता के नाम पर ‘धर्मग्रंथ’ एवं सामाजिकता के नाम पर ‘खाप पंचायतें ’ घेरे बैठे
हैं। परु
ु ष-समाज को उन आदतों, वत्ति
ृ यों, महत्वाकांक्षाओं, वासनाओं एवं कट्टरताओं को
अलविदा कहना ही होगा जिनका हाथ पकड़कर वे उस ढलान में उतर गये जहां रफ्तार
तेज है और विवेक अनियंत्रण है जिसका परिणाम है नारी पर हो रहे नित-नये अपराध
और अत्याचार। पुरुष-समाज के प्रदषि
ू त एवं विकृत हो चक
ु े तौर-तरीके ही नहीं बदलने हैं
बल्कि उन कारणों की जड़ों को भी उखाड़ फेंकना है जिनके कारण से बार-बार नारी को
जहर के घंट
ू पीने को विवश होना पड़ता है । परु
ु षवर्ग नारी को दे ह रूप में स्वीकार करता
है , लेकिन नारी को उनके सामने मस्तिष्क बनकर अपनी क्षमताओं का परिचय दे ना होगा,
उसे अबला नहीं, सबला बनना होगा, बोझ नहीं शक्ति बनना होगा।

एक अन्य कहावत के अनस


ु ार नारी जब घर की दहलीज के भीतर रहती है तो परू े
परिवार और परम्परा को अपने आंचल में समेट कर रखती है । जब वह घर से बाहर पैर
धरती है तो परू े धरती और आकाश को अपनी बाहों में समेट लेती है । इस कहावत का
फलितार्थ है कि नारी अपने परिवार के लिये जितनी महत्वपूर्ण है , समाज, दे श और
सम्पूर्ण विश्व के निर्माण में भी उसकी भमि
ू का कमतर नहीं है । वह सज
ृ न की दे वी है तो
शक्ति की अधिष्ठात्री भी है । सरस्वती, लक्ष्मी एवं दर्गा
ु के रूप में उसे बहुआयामी प्रतिष्ठा
एवं क्षमता प्राप्त है । तभी ‘मातद
ृ े वो भवः’ यह सूक्त भारतीय संस्कृति का परिचय-पत्र है ।
ऋषि-महर्षियों की तपः पूत साधना से अभिसिंचित इस धरती के जर्रे-जर्रे में गरु
ु , अतिथि
आदि की तरह नारी भी दे वरूप में प्रतिष्ठित रही है । रामायण उद्गार के आदि कवि

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महर्षि वाल्मीकि की यह पंक्ति- ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी’ जन-जन के मुख
से उच्चारित है । प्रारं भ से ही यहाँ ‘नारी शक्ति’ की पज
ू ा होती आई है फिर क्यों नारी
अत्याचार बढ़ रहे हैं ?

प्राचीन काल में भारतीय नारी को विशिष्ट सम्मान दिया जाता था। सीता, सती-सावित्री
आदि अगणित भारतीय नारियों ने अपना विशिष्ट स्थान सिद्ध किया है । इसके अलावा
अंग्रेजी शासनकाल में भी रानी लक्ष्मीबाई, चाँद बीबी आदि नारियाँ जिन्होंने अपनी सभी
परं पराओं आदि से ऊपर उठ कर इतिहास के पन्नों पर अपनी अमिट छाप छोड़ी। लेकिन
समय परिवर्तन के साथ-साथ दे खा गया कि दे श पर अनेक आक्रमणों के पश्चात ् भारतीय
नारी की दशा में भी परिवर्तन आने लगे। अंग्रेजी और मुस्लिम शासनकाल के आते-आते
भारतीय नारी की दशा अत्यंत चिंतनीय हो गई। दिन-प्रतिदिन उसे उपेक्षा एवं तिरस्कार
का सामना करना पड़ता था। इसके साथ-साथ भारतीय समाज में आई सामाजिक
कुरीतियाँ जैसे सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, बहू पति विवाह और हमारी परं परागत
रूढ़िवादिता ने भी भारतीय नारी को दीन-हीन कमजोर बनाने में अहम भूमिका अदा की।

वैदिक परं परा दर्गा


ु , सरस्वती, लक्ष्मी के रूप में , बौद्ध अनुयायी चिरं तन शक्ति प्रज्ञा के रूप
में और जैन धर्म में श्रुतदे वी और शासनदे वी के रूप में नारी की आराधना होती है । लोक
मान्यता के अनस
ु ार मात ृ वंदना से व्यक्ति को आयु, यश, स्वर्ग, कीर्ति, पण्
ु य, बल, लक्ष्मी
पशुधन, सुख, धनधान्य आदि प्राप्त होता है , फिर क्यों नारी की अवमानना होती है ? नारी
का दनि
ु या में सर्वाधिक गौरवपर्ण
ू सम्मानजनक स्थान है । नारी धरती की धरु ा है । स्नेह
का स्रोत है । मांगल्य का महामंदिर है । परिवार की पीढ़िका है । पवित्रता का पैगाम है ।
उसके स्नेहिल साए में जिस सरु क्षा, शाीतलता और शांति की अनभ
ु ति
ू होती है वह
हिमालय की हिमशिलाओं पर भी नहीं होती। सुप्रसिद्ध कवयित्रि महादे वी वर्मा ने ठीक कहा
था- ‘नारी सत्यं, शिवं और संद
ु र का प्रतीक है । उसमें नारी का रूप ही सत्य, वात्सल्य ही
शिव और ममता ही सुंदर है । इन विलक्षणताओं और आदर्श गुणों को धारण करने वाली
नारी फिर क्यों बार-बार छली जाती है , लट
ू ी जाती है ? स्वतंत्र भारत में यह कैसा समाज
बन रहा है , जिसमें महिलाओं की आजादी छीनने की कोशिशें और उससे जुड़ी हिंसक एवं
त्रासदीपूर्ण घटनाओं ने बार-बार हम सबको शर्मसार किया है । विश्व नारी दिवस का
अवसर नारी के साथ नाइंसाफी की स्थितियों पर आत्म-मंथन करने का है , उस अहं के

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शोधन करने का है जिसमें पुरुष-समाज श्रेष्ठताओं को गुमनामी में धकेलकर अपना
अस्तित्व स्थापित करना चाहता है ।

बदलते परिवेश में आधुनिक महिलाओं के लिए यह आवश्यक है कि मैथिलीशरण गप्ु त के


इस वाक्य- “आँचल में है दध
ू ” को सदा याद रखें । उसकी लाज को बचाएँ रखें और
भ्रूणहत्या जैसा घिनौना कृत्य कर मातत्ृ व पर कलंक न लगाएँ। बल्कि एक ऐसा सेतु बने
जो टूटते हुए को जोड़ सके, रुकते हुए को मोड़ सके और गिरते हुए को उठा सके। नन्हे
उगते अंकुरों और पौधों में आदर्श जीवनशैली का अभिसिंचन दें ताकि वे शतशाखी वक्ष

बनकर अपनी उपयोगिता साबित कर सकें।

नारी तेरे रूप अनेक 

सभी युगों और कालों में  

है तेरी शक्ति का उल्लेख 

ना पुरुषों के जैसी तू है  

ना पुरुषों से तू कम है   

स्नेह,प्रेम करुणा का सागर 

शक्ति और ममता का गागर 

तुझमें सिमटे कितने गम है   

गर कथा तेरी रोचक है तो 

तेरी व्यथा से आंखे नम है  

मिट-मिट हर बार संवरती है  

खुद की ही साख बचाने को 

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हर बार तू खुद से लड़ती है  

आंखों में जितनी शर्म लिए 

हर कार्य में उतनी ही दृढ़ता  

नारी का सम्मान करो 

ना आंकों उनकी क्षमता 

खासतौर पर परु
ु षों को 

क्यों बार बार कहना पड़ता 

हे नारी तझ
ु े ना बतलाया 

कोई तझ
ु को ना सिखलाया 

पुरुषों को तूने जो मान दिया 

हालात कभी भी कैसे हों 

तुम परु
ु षों का सम्मान करो 

नारी का धर्म बताकर ये 

नारी का कर्म भी मान लिया 

औरत सष्टि
ृ की जननी है  

श्रष्टि
ृ की तू ही निर्माता 

हर रूप में दे खा है तुझको 

हर युग की कथनी करनी है  

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युगों युगों से नारी को 

बलिदान बताकर रखा है  

तू कोमल है कमजोर नहीं 

पर तेरा ही तझ
ु पर जोर नहीं 

तू अबला और नादान नहीं 

कोई दबी हुई पहचान नहीं 

है तेरी अपनी अमिटछाप 

अब कभी ना करना तू विलाप 

 चन
ु ा है वर्ष का एक दिन 

नारी को सम्मान दिलाने का 

अभियान चलाकर रखा है  

बैनर और भाषण एक दिन का 

जलसा और तोहफा एक दिन का 

हम शोर मचाकर बता रहे  

हम भीड़ जमाकर जता रहे  

ये नारी तेरा एक दिन का

सम्मान बचाकर रखा है  

मैं नारी हूं है गर्व मुझ े

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ना चाहिए कोई पर्व मुझ े

संकल्प करो कुछ ऐसा कि 

अब सम्मान मिले हर नारी को 

बंदिश और जल्
ु म से मक्
ु त हो वो 

अपनी वो खद
ु अधिकारी हो। 

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