कबीर

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कबीर

कबीर दास के जीवन का अ ययन कया जाए, तो वे एक ऐसे मलन बंद ु


पर खड़े दखते ह, जहाँ से एक ओर हंद ु व नकल जाता है, और दस
ू र ओर मुसलमान व |
जहाँ से एक ओर ान नकलता है, और दस
ू र ओर योग माग | जहाँ से एक ओर नगुण
भावना नकलती है, और दस
ू र ओर सगण
ु साधना – इसी श त चौराहे पर वो खड़े दखते ह |
वे दोन ओर दे ख सकते ह और पर पर व दशा म गए हुए माग के दोष व गुण उ ह
प ट दखाई दे ते ह |

वे सर से पैर तक म तमौला, वभाव से फ कड़, आदत से अ खड़, भ त के सामान


नर ह, भेषधार के आगे चंड, दल के साफ़, दमाग के द ु त, भीतर से कोमल, बाहर से
कठोर, ज म से अ प ृ य, व कम से व दनीय थे | युगावतार क शि त और व वास लेकर पैदा
हुए थे और यग
ु वतक क ढ़ता उनम व यमान थी | इस लए वे यग
ु प रवतन कर सके |

कबीर ने नगण
ु नराकार ई वर क उपासना पर बल दया | उनका मत था क ान के
वारा ह नराकार म को ा त कया जा सकता है | उ होन कहा क म वयं भ त के
दय म वास करता है | अतः उसे घर-घर म ढूँढने क आव यकता नह ं है – “ हरदै सरोवर है
अ वनासी”

भि त भावना म ेम के मह व के कारण ह कबीर क भि त मधुर एवं सहज बन गई


है | भि त और ेम के सम वय के वारा ह म से तादा य था पत करने के कारण ह
कबीर के का य म भावना मक रह यवाद क सिृ ट हुई | उ ह ने परमा मा क प त तथा आ मा
क प नी के प म क पना क है |
कबीर दास जी के का य म रह यवाद के भावना मक और साधना मक दोन ह प के
दशन होते ह |

रह यवाद के थम चरण म कबीर दास जी क आ मा परमा मा क आलौ कक यो त


के दशन कर च कत हो जाती है और कबीर दास जी कह उठते ह क :-

“कहत कबीर पुकार कै, अ त


ु क हए ता ह”

परमा मा क आलौ कक यो त से भा वत होकर वतीय चरण म आ मा परमा मा से


मलने को याकुल हो उठती है | इस अव था म वरह- मलन, आशा- नराशा, अ भलाषा-वेदना
क अ यंत सजीव अ भ यि त हुई है | वरह याकुल आ मा कह उठती है :-

“आँख ड़याँ झाई, पड़ी पंथ नहार - नहार |

जीभ ड़याँ छाला पड़या राम पुकार -पुकार ||

सु खया सब संसार है, खावे और सोवे |

द ु खया दास कबीर है, जागे और रोवे ||”

चर ती त मलन क घ ड़याँ जब आती ह तो आ मा परमा मा म वल न हो


जाती है | दोन म अभेद था पत हो जाता है, परमा मा क अलौ कक रौशनी म आ मा सारोबार
हो उठती है और अब उसे सम त संसार आलौ कक ममय तीत होने लगता है |

“लाल मेरे लाल क , िजत दे खूं तत लाल |

लाल दे खन म गयी, म भी हो गई लाल ||”

इस कार रह यवाद का तीसरा चरण शु होता है | कबीर का रह यवाद उस समय


अपने चरमो कष पर दखाई दे ता है | जब वे अपने यतम के अखंड सुहागन होने का वांग
रचते ह |
“दिु हन गावहु मंगलाचर

तन र प क र म मन र त क र हौ प च त व बाराती

राम दे व मोरे पाहुने आए ह |

जौबन मदमाती ||”

कबीर दस जी क यह वरह यथा दन रात चलती रहती है | उनके वरह का न आ द है


न अंत |

“चकवी बछुर रै न क आई मल परभाती |

जो जन बछुरे राम से तै दन मलै न राती ||”

“वासर सख
ु न रै न सख
ु | ना सख
ु सप
ु ने मा ह |

कबीर बछुड़ा राम सूं, न सुख धूप न छां ह ||”

कबीर दास जी ने साधना मक रह यवाद को इन श द के मा यम से आ मा परमा मा


के ए य क ओर संकेत करने क चे टा क है |

“गगन गरजे अभी बादल ग हर गंभीर |

चाहु दसी दमके दा मनी भीजे दास कबीर ||”

कबीर दास जी म अ वैतवाद क प ट छाप दखाई दे ती है, जैसे :-

“जल म कु भ, कु भ म जल है भीतर बहार पानी |

फूटा कु भ जल जल हं समाना यह तत कहौ ानी ||”


कबीर दास जी ने माया को आ मा-परमा मा के मलन म बाधक बताया और कनक
कामीनो को माया का तीक बताया, जैसे :-

संतो भाई आई ान क आंधी

म क टाट सबै उड़ानी माया रहे न बाँधी |

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