Navjivan E Paper 14th August 2022

You might also like

Download as pdf or txt
Download as pdf or txt
You are on page 1of 11

नई िदल््लली

रविवार, 14 अगस््त 2022


मूल््य-15.00
राष्ट्रीय
वर््ष-4 अंक-43, पृष््ठ- 12
RNI: DELHIN / 2018 / 76679
Postal Reg. No. DL(C)-05/1425/2022-24
License To Post Without Pre Payment No. U(C)-164/2022-24

www.navjivanindia.com @navjivanindia www.naitonalheraldindia.com www.qaumiawaz.com

स््वतंत्रता दिवस विशेष


आज हम कितने आजाद हैैं?
अंदर के पन्ननों मेें
गणेश देवी
सिर उठाता राष्टट्रवाद और कमजोर होता लोकतंत्र.......... 2

सोनिया गांधी
गायब होती जा रही है आजादी.................................. 3

पुरुषोत्तम अग्रवाल
जिंदा लाशोों को आजादी की क््यया जरूरत ..................... 4

सुधीन्दद्र कुलकर्णी
हम शुरू करेें बहुआयामी स््वतंत्रता की मांग................ 5

सलमान खुर्शीद
मुश््ककिल मेें आजादी............................................ 6-7

संजय हेगड़े
हम अपने भाग््य के विधाता..................................... 8

नदीम हसनैन
लोकतंत्र और बहुसंख््यकवाद का भेद ....................... 9

लीला सैमसन
हमेें जागना होगा, नहीीं तो नृत््य थम जाएगा...............10

कन््हहैया कुमार
जो आजादी हासिल है, उसे कैसे रखेें महफूज..............11

आकार पटेल
हम अब भी आजाद क््योों हैैं......................................12

एक राष्टट्र के तौर पर हम अपने 75 साल पूरे कर चुके हैैं। यह वक््त है ठहरकर यह सोचने का कि इस यात्रा के दौरान हमने क््यया पाया, क््यया खोया। गांधी जिन््हेें हम देश
को आजादी दिलाने का श्रेय देते हैैं, अगर वे होते तो आज की हालत देखकर उनके मन मेें क््यया खयाल आते। समित दास की यह कलाकृति हमारी अंतरात््ममा से शायद
यही सवाल कर रही है। यह भी सोचने का वक््त है कि जवाहरलाल नेहरू जिन््हेें गांधीजी ने आजाद भारत की अनजान और मुश््ककिल भरी यात्रा मेें देश को रास््तता दिखाने
की जिम््ममेदारी सौौंपी; जिस नेहरू ने ‘नेशनल हेरल््ड’ और ‘नवजीवन’ अखबारोों को शुरू किया और इसे भविष््यदर्शी टैगलाइन दिया- आजादी खतरे मेें है, इसे अपनी
पूरी ताकत लगाकर बचाएं, अगर वे आज होते तो उनके दिलोदिमाग मेें क््यया सवाल पैदा होते। आजादी की सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयोों से इस सवाल का
जवाब जानना चाहा कि ‘आज हम कितने आजाद हैैं?’ उनके विचार देश मेें एक नई शुरुआत की पृष््ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैैं।
2 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022

कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी

कौन भारतीय (नहीीं) है?


करोड़ोों गरीब लोग हैैं जो रोजी-रोटी के लिए एक से दूसरी जगह पर जाते रहते हैैं। इनमेें से अधिकतर ऐसे हैैं जो शायद ही कभी स््ककूल गए
होों या उनका जन््म प्रमाण पत्र बना हो। ऐसे लोगोों को असम मेें एक नए सवाल से जूझना पड़ा। उन््हेें भारत मेें जन््म लेने के प्रमाण पत्र देने
थे। इस प्रक्रिया को नेशनल रजिस््टर ऑफ सिटिजन््स (एनआरसी) नाम दिया गया। इस प्रक्रिया मेें करीब 20 लाख लोग छंट गए क््योोंकि
वे इस बारे मेें दस््ततावेज दे ही नहीीं सके। इनमेें हिन््ददुओं की संख््यया बड़ी है। ऐसे काफी सारे लोगोों को डीटेन््शन सेेंटरोों मेें भेज दिया गया। यह
प्रक्रिया अब तक अंतिम नतीजे तक नहीीं पहुंची है। फिर भी, केन्द्रीय गृह मंत्री इन््हेें ‘दीमक’ मानते हैैं। इसी बीच संशोधित नागरिकता
कानून (सीएए), 2019 लागू कर दिया गया और कहा जाने लगा कि अब देश भर मेें एनआरसी लागू किया जाएगा। सीएए मेें वैसे सभी लोगोों
को भारतीय नागरिकता देने का वादा है जिन््होोंने 31 दिसंबर, 2014 या उससे पहले भारत मेें प्रवेश किया है। लेकिन इसमेें यह शर््त जोड़ दी
गई है कि उन््हेें मुसलमान नहीीं होना चाहिए। इस कानून के नियमोों को करीब 3 साल बाद भी अंतिम रूप नहीीं दिया जा सका है।

सिर उठाता राष्टट्रवाद और को ज््ययादा तूल दिया गया तो एक सीमा के बाद यह स््वतंत्रता के विचार
के लिए नुकसानदायक हो सकता है। उन््होोंने देखा था कि यूरोप मेें कैसे
अति-राष्टट्रवाद के रास््तते पर चलने वाले इटली और जर््मनी मेें आखिरकार
क्रूर फासीवाद ने जगह बना ली थी।
तैरता-विचरता न हो।
इक््ककीसवीीं सदी मेें अपनी ‘आंतरिक शक््तति’ को मजबूत करने और
अप्रासंगिक हो चुकी ऐतिहासिक पहेलियोों की बात करके लोकतंत्र को
ताकतवर नहीीं बनाया जा सकता। जो राजनीति अपनी वैधता के लिए

कमजोर होता लोकतंत्र


दूसरे विश््व युद्ध के खत््म होने के बाद लोगोों को उम््ममीद थी कि काल््पनिक गौरवशाली अतीत को आधार बनाती है, वह ऐतिहासिक
राष्टट्रवाद और राष्टट्र निर््ममाण मेें अहम भूमिका निभाने वाली स््वतंत्रता की बदलाव के साथ तालमेल नहीीं बैठा पाती। इसी तरह, राजनीति जो पूरी
भावना के बीच का टकराव खत््म हो जाएगा। लेकिन हाल के समय तरह से तकनीक से संचालित होती है, उसमेें भविष््य के बारे मेें एक खास
मेें दुनिया ने राष्टट्रवाद का उदय और लोकतंत्र के पतन को देखा है। नजरिया होता है और इससे लोकतंत्र का पतन ही तेज होता है। 21वीीं
कई स््थथापित लोकतांत्रिक देशोों मेें ऐसी बहुसख्ं ्यवादी सरकारोों का उदय सदी मेें लोकतंत्र समर््थक राजनीति को देवताओं और रोबोटोों को आमने-
हुआ है जो लोकतंत्र के इस बुनियादी सिद््धाांत का पालन करने के प्रति सामने लाना होगा। भविष््य को एक मिथक के रूप मेें फिर से स््थथापित
उदासीन रही हैैं कि जातीय, धार््ममिक और भाषाई विभिन्नताओं के बावजूद करने के लिए इनका एक-दूसरे से सामना कराना होगा।
सभी नागरिक समान हैैं। बीसवीीं सदी मेें दुनिया के बारे मेें जो कल््पना 2047 मेें भारत कहां होगा और कैसा होगा, यह इस बात पर निर््भर
की गई थी, उसे देखते हुए राजनीतिक विज्ञानी लोकतंत्र के भविष््य को करता है कि हम मानव-मशीन की परस््पर उलझनोों को कितनी कुशलता
लेकर खासे चिंतित हैैं। पारंपरिक रूप से निरक्षरता, भ्रष््टटाचार, भाई- से सुलझाते हैैं। नई जटिलताओं को देखते हुए हम अधिकारोों, गरिमा
भतीजावाद और कट्टरता को लोकतंत्र के लिए खतरा माना जाता रहा है और निजता को किस तरह रेखांकित करते हैैं ताकि हमेें एक ऐसा नया
ऐतिहासिक पहेलियोों की बात करके लोकतंत्र को ताकतवर नहीीं बनाया जा सकता। जो लेकिन अब तो आर््टफिशि टि यल इंटलिजे े ेंस, जनता को मशीन से नियंत्रित
करने, जासूसी के लिए स््पपाईवेयर का इस््ततेमाल और लोगोों की निजता
संविधान न बनाना पड़़े जो इस वाक््य के साथ शुरू हो कि: ‘हम,
डिजिटल रूप से गिने जाने वाले और भारत के रोबोट, एतद्द्वारा इसे
राजनीति अपनी वैधता के लिए काल््पनिक गौरवशाली अतीत को आधार बनाती है, वह पर हमला ऐसे विषय हैैं जो लोकतंत्र के लिए कहीीं बड़़े खतरे के तौर
पर हमारे सामने हैैं।
(संविधान को) अपनाते हैैं, अधिनियमित करते हैैं और खुद को देते
हैैं, ...।’ आइए, प्रार््थना करेें कि ग्रीक पौराणिक कथाओं का पंखोों वाला
ऐतिहासिक बदलाव के साथ तालमेल नहीीं बैठा पाती यह नई सामाजिक और राजनीतिक व््यवस््थथा है जिसका एक
रहस््यमय अतीत के साथ असहज संबधं होना तय है। सत्ता व््यवस््थथा के
गुस््ससैल समुद्री घोड़़ा- पेगासस, वास््तविक दुनिया मेें वास््तविक परिश्रम
और बलिदानोों से अर््जजित हमारे लोकतंत्र को झुलसा न पाए। तकनीक-
रूप मेें लोकतंत्र के आगमन के साथ ही विज्ञान और आधुनिकता की संचालित ताकत का यह दौर जिस भविष््य की मुनादी कर रहा है, उसमेें

वै से तो 19वीीं सदी से पहले ही कुछ देशोों मेें ‘राष्टट्रवाद’


और ‘लोकतंत्र’ को स््थथानीय तौर पर परिभाषित किया जाने
लगा था लेकिन यूरोप मेें इन शब््दोों ने फ््राांस की क््राांति के
बाद ही एक स््पष््ट सैद््धाांतिक आकार लेना शुरू किया।
शुरू मेें ‘राष्टट्र’ से तात््पर््य लोगोों से था। इटली और जर््मनी
मेें राष्टट्रवाद के लिए हुए आंदोलनोों के बाद ‘राष्टट्र’ का दायरा बढ़़ा और
इसमेें मुख््यतः लोगोों के अतीत और उनके भविष््य से संबधं ित आख््ययानोों
को शामिल किया गया। एक लंबे काल खंड मेें अतीत को स््ममृति मेें बने
रहने के लिए संघर््ष करना पड़ता है। वह धीरे-धीरे मिथक का स््वरूप
लेने लगता है और एक समय के बाद वह तर््कहीन रूप से संकुचित और
लोगोों की सोच के हिसाब से बदल जाता है। अतीत के विपरीत भविष््य का
फैलाव अनंत काल तक होता है। स््ववाभाविक रूप से इसके स््वरूप का
गणेश देवी खाका खीींचना कल््पना के लिए चुनौतीपूर््ण होता है और इस तरह लोगोों
के दिलो दिमाग मेें यह उनकी सामूहिक किस््मत के लिए ऐसा आदर््श बन
जाता है जो सिर््फ खयालोों मेें रह सकता है, व््यवहार मेें नहीीं।
20वीीं शताब््ददी के दौरान लोगोों ने ‘राष्टट्रत््व’ को दृढ़ता के साथ
अपनाने की जरूरत महसूस की। ज््ययादातर नवजात राष्टट्ररों ने अपने
सपनोों को पूरा करने के रास््तते के रूप मेें लोकतंत्र को स््ववीकार कर लिया।
जिन््होोंने राष्टट्र के साथ-साथ लोकतंत्र होना चुना, उन््हेें ये दोनोों शब््द
लगभग पर््ययायवाची लगने लगे। इन दो शब््दोों का एक हो जाना न सिर््फ
शाब््ददिक अर््थ के लिहाज से गलत था बल््ककि यह राजनीतिक नजरिये से
भी सही नहीीं था। जब भारत मेें आजादी का आंदोलन चल रहा था, तब
एक ‘राष्टट्र’ बनने का विचार महत््वपूर््ण हो गया क््योोंकि अंग्जरे ी शासन
के खत््म होने के बाद छोटी-बड़़ी तमाम रियासतोों को एकीकृत करने का
सवाल उठने वाला था। हालांकि जब औपनिवेशिक शासन के अंत का
समय आया, तब कई दूरदर्शी नेताओं को राष्टट्रवाद के संभावित खतरोों
का अंदाजा हो गया था।
पूर््व मेें भारतीय राष्टट्र को ‘भारत माता का मंदिर’
भारत को आजादी के रास््तते पर आगे बढ़़ाने वाले महान कहने वाले श्री अरबिंदो ने अपने निधन से कुछ
महीने पहले (1950 मेें) लिखा कि मानवता का
विचारक जानते थे कि अगर राष्टट्रवाद को ज््ययादा तूल दिया भविष््य तभी सुरक्षित होगा जब नवगठित संयक्ु ्त बुनियाद बन जाती है तर््कसगं तता। यह संयोग स््ममृति और लोकतंत्र के आगे बढ़ने का एकमात्र तरीका नागरिकोों के मामले मेें राष्टट्र के विचार का
राष्टट्र को एक अंतरराष्ट्रीय सरकार बनाने की दिशा असहज संबधों ों को और बढ़़ाता है। समर््पण करना है। विडंबना है कि उस ऐतिहासिक समय बिंदु पर राष्टट्र
गया तो एक सीमा के बाद यह स््वतंत्रता के विचार के लिए मेें बढ़़ाया जाए। रवीींद्र नाथ टैगोर जिनकी अमर अतीत मेें कई शताब््ददियोों तक ‘यूटोपिया’ को मिथकीय भविष््य के का यह विचार राजनीतिक रूप से खत््म हो गया होगा। ऐसी ताकतोों के
नुकसानदायक हो सकता है। उन््होोंने देखा था कि कैसे यूरोप कविता हमारा राष्टट्रगान बनी, ने मानवता पर जो
अपने विचार व््यक््त किए, उसमेें किसी तरह की
रूप मेें देखा जाता था। लोकतंत्र के युग मेें भविष््य केवल एक मिथक
नहीीं रह जाता। यह शक््तति का स्रोत बनना शुरू हो जाता है, ठीक उसी
सामने दूसरा विकल््प यह है कि प्रति-कथा को स््थथापित करते हुए राष्टट्र
के विचार को ही खंडित करने की दिशा मेें आगे बढ़ें। दुनिया भर के
मेें अति-राष्टट्रवाद के रास््तते पर चलने वाले इटली और जर््मनी भौगोलिक राष्ट्रीय सीमा नहीीं थी। तरह जैसे पूर््व-लोकतांत्रिक युगोों मेें होता था। लोकतंत्र, आधुनिकता लोगोों का भविष््य जिस पर निर््भर हो सकता है, वह है ‘राष्टट्र के रूप मेें
1920 के दशक से ही महात््ममा गांधी इस बात की मानसिक पारिस््थथितिकी और अतीत के विचार के साथ असहज लोगोों’ और ‘लोगोों के रूप मेें राष्टट्र’ के विचार को बहाल करना। जो लोग
मेें आखिरकार क्रूर फासीवाद ने जगह बना ली थी। वैसे भी, को लेकर एकदम स््पष््ट थे कि गुजरात विद्यापीठ संबधों ों के कारण यह आसानी से समझ मेें नहीीं आता कि कृत्रिम स््ममृति अक््सर इस््ततेमाल की जाने वाली अप्रासंगिक राजनीतिक जुमलेबाजी से
राजनीति जो पूरी तरह से तकनीक से संचालित होती है, उसमेें आजादी के लिए लड़ने वाले युवाओं को तैयार
करेगा और साबरमती आश्रम सत््य और अहिंसा के
से कैसे निपटा जाए। मौजूदा समय मेें भारत समेत दुनिया के विभिन्न
देशोों की सरकारेें अपने लोगोों को अनुशासित, व््यवस््थथित और नियंत्रित
बंधे नहीीं रहना चाहते, उन््हेें इन््हीीं विरोधाभासी संभावनाओं के भीतर संघर््ष
की नई रेखाएं खीींचनी होोंगी। n
भविष््य के बारे मेें एक खास नजरिया होता है और इससे प्रति समर््पपित लोगोों को विकसित करने की जगह करने के लिए मशीनी स््ममृति का उपयोग कर रही हैैं। उस नजरिये से
रहेगा। भारत को आजादी के रास््तते पर आगे बढ़़ाने एक नियंत्रित लोकतंत्र मेें एक नागरिक तब तक नागरिक नहीीं है जब (लेखक साहित््ययिक आलोचक हैैं। वह मराठी,
लोकतंत्र का पतन ही तेज होता है वाले ये महान विचारक जानते थे कि अगर राष्टट्रवाद तक वह डिजिटल इकाइयोों के वर््चचुअल टाइम और स््पपेस मेें मुक््त होकर अंग्ज
रे ी और गुजराती मेें लिखते हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

चंपारण, दांडी मार््च, बारदोलीः स््वतंत्रता आंदोलन की ये तीन महत््वपूर््ण युगांतकारी घटनाएं हैैंंः चंपारण सत््ययाग्रह जब नील की खेती करने से किसानोों ने मना कर दिया, बारदोली सत््ययाग्रह (1928) जब गुजरात मेें किसानोों ने ज््ययादा टैक््स देने से इनकार कर दिया और नमक सत््ययाग्रह (1930) जब लोगोों ने नमक कर देने से मना कर दिया और नमक कानून को तोड़ते हुए नमक बनाया। इन तीनोों ही घटनाओं ने दिखा दिया कि कैसे
सत््य पर अहिंसक तौर पर अटल रहते हुए भी ब्रिटिश सरकार को अपना रवैया बदलने को बाध््य किया जा सकता है।
www.navjivanindia.com

रविवार, 14 अगस््त 2022 स््वतंत्रता दिवस विशेष 3


कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी

प्रतिरोध के लिए जगह नहीीं


कोरोना महामारी के बीच भी 2020 मेें किसानोों को दिल््लली मार््च का आह्वान करना पड़ा क््योोंकि तीन ऐसे विवादास््पद खेती-व््ययापार कानून संसद
के जरिये जबरिया पास कर दिए गए जिनसे किसानोों को अपनी जमीन और फसलोों के दामोों पर पूंजीपतियोों का हक हो जाने का अंदेशा था।
सरकार ने किसानोों को रोकने के लिए राजधानी की सीमा पर ‘चीन सीमा-जैसी’ व््यवस््थथाएं कीीं- सड़कोों पर नुकीली कीलेें लगा दी गईं, कंटीले
तार बिछाए गए और बीच मेें बालू-रेत से भरे ट्रक खड़े कर दिए गए। पुलिस और अर््धसैनिक बलोों के जवान तो हाईवे का रास््तता रोके खड़े रहे
ही। दरअसल, यह कानून आने की आशंका देखते हुए पंजाब के किसान छह माह से विरोध प्रदर््शन कर रहे थे, पर सरकार सुनने को तैयार
नहीीं थी। सरकार ने किसानोों के मार््च रोकने के लिए वाटर कैनन और आंसू गैस के गोले का भी उपयोग इस तरह किया, मानो वे आतंकी
होों। पंजाब के किसानोों की वजह से उन््हेें खालिस््ततानी तक कहा गया। लेकिन किसानोों ने धैर््य नहीीं खोया। चार राज््योों के विधानसभा चुनाव
नजदीक थे। इसमेें नुकसान की संभावना के डर से प्रधानमंत्री को इन कानूनोों को वापस लेने की घोषणा अचानक करनी पड़ी। लेकिन यह
खतरा अब भी मंडरा रहा है।

गायब होती जा रही है आजादी


आजादी का 75वां वर््ष एक अवसर होना चाहिए कि हम अपने लोगोों को एकजुट करने का संकल््प दोहराएं। लेकिन इसके बजाय
सदियोों से हमेें परिभाषित करती रही विविधताओं को ही हमेें विभाजित करने के लिए इस््ततेमाल किया जा रहा है

दे श की आजादी का 75वां वर््ष एक ऐसा मौका है


जो 1947 के बाद से हमारे राजनीतिक, सामाजिक,
आर््थथिक और सांस््ककृतिक स््तर पर हमारी अहम
उपलब््धधियोों का बिंब हमारे सामने रखता है। इन वर्षषों
मेें लोकतंत्र मजबूत हुआ है। अर््थव््यवस््थथा प्रभावी तौर
पर विकसित हुई है और समय-समय पर इसने अपनी मजबूती
और लचीलेपन का एहसास भी कराया है। भारत एक विशाल
कृषि प्रधान देश और औद्योगिक शक््तति है। वैज्ञानिक स््तर पर
चिंता भी होती है कि देश को जिन भावनाओं और दिशा की
तरफ जबरदस््तती धकेला जा रहा है, उसे किसी भी किस््म के
विशाल आयोजन या ‘अमृत महोत््सव’ छिपा नहीीं सकते।
संवैधानिक मूल््योों, सिद््धाांतोों और प्रावधानोों पर संगठित तरीके
से प्रहार किए जा रहे हैैं। हमारे समाज के बड़े तबके मेें इस
समय भय और असुरक्षा का माहौल पैदा कर दिया गया है।
हमारे राजनीतिक और प्रशासनिक पद्धति के स््ततंभ रहे संस््थथानोों
की स््वतंत्रता को स््पष््ट रूप से नष््ट कर संस््थथाओं को घुटने
और स््वतंत्रता के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है जिन््हेें 75 वर्षषों
मेें कड़े संघर््ष से हासिल किया गया है।
हमारा संविधान हमेें अभिव््यक््तति की आजादी देता है, फिर
भी जुबैर का केस और उस जैसे अनगिनत मामलोों मेें स््पष््ट हो
गया है कि अगर हम अभिव््यक््तति की स््वतंत्रता के अधिकार का
इस््ततेमाल करते हैैं, तो हमेें प्रताड़ित किया जाता है और सताया
जाता है। हमारा विश््ववास है कि हम एक स््वतंत्र प्रेस हैैं, फिर भी
स््थथापित अंतरराष्ट्रीय मानकोों मेें हमारी स््थथिति साल-दर-साल
भारत की क्षमताएं कई क्षेत्ररों मेें अद्भुत हैैं। सदियोों से वंचित और टेकने के लिए मजबूर किया जा रहा है। देश की सामाजिक फिसलती जा रही है और बीते 8 वर्षषों मेें तो इसमेें जबरदस््त
हाशिये पर रहे समुदायोों का सशक््ततिकरण हुआ है और उन््हेें समरसता के बंधनोों को चुनावी लाभ के लिए ध्रुवीकरण के जरिये गिरावट दर््ज हुई है।
स््ववामिभान और गरिमा हासिल हुई है। तमाम प्रगतिशील कानून जानबूझकर तोड़ा जा रहा है। राजनीतिक विरोधियोों को खामोश हमने ऐसे संस््थथान निर््ममित किए या हमेें विरासत मेें वे संस््थथान
बनाए गए हैैं। अंतरराष्ट्रीय समुदाय मेें भारत एक प्रभावी देश बना कराने के लिए जांच एजेेंसियोों का दुरुपयोग व््यक््ततिगत प्रतिशोध मिले जो सरकारी नियंत्रण से मुक््त होकर स््वतंत्र रूप से लोगोों की
है। और ये सबकुछ 2014 के बाद हासिल नहीीं हुआ है बल््ककि के साधन के रूप मेें किया जा रहा है। नफरत और कट्टरता को स््वतंत्रता और अधिकारोों को सुनिश््चचित करेें। लेकिन वास््तविकता सोनिया गांधी
स््वतंत्रता के तुरंत बाद के वर्षषों मेें हमारे संस््थथापकोों ने राष्टट्र निर््ममाण बढ़ावा देने के लिए इतिहास से छेड़छाड़ कर उसे फिर से लिखा एकदम उलट गई है क््योोंकि इन संस््थथानोों को कमजोर करने की
की जो बुनियाद रखी थी और हमारे नेताओं की समझ और जा रहा है। 2014 से पहले के दशकोों मेें करोड़ोों भारतीयोों के कोशिशेें हो रही है, कुछ को तो सत्ता का ही हाथ बना दिया गया है
दूरदर््शशिता से जो बुनियादी ढांचा स््थथापित हुआ, उसका मिलाजुला परिश्रम से हासिल उपलब््धधियोों को एक व््यक््तति और एक अत््ययंत जो पक्षपातपूर््ण और अहंकारी तरीकोों से काम कर रहे हैैं।
और संचयी नतीजा है। सत्तावादी शासन का महिमामंडन करने के लिए कमतर साबित हमेें अपनी इच््छछा के धर््म को चुनने और उसका पालन करने
की संवध ै ानिक गारंटी हासिल है। फिर भी ऐसे कानून और
सामाजिक दबाव बना दिए गए जिन््होोंने सर््वधर््म सम््भभाव को
सीमित कर दिया है।
हम सभी लोकतांत्रिक भारत के नागरिक हैैं, सभी को समान
अधिकार हैैं, फिर भी जाति और संप्रदाय का इस््ततेमाल कर
लगातार हमेें बांटा जा रहा है और हमारी स््वतंत्रता को प्रतिबंधित
किया जा रहा है। हमेें अपना जीवन साथी चुनने की आजादी
दी गई है, फिर भी जाति, धर््म की, और अब
तो अलिखित सरकारी पाबंदियां लगाकर हमेें
पारंपरिक दबावोों के जरिये इस अधिकार का
संवैधानिक मूल््योों, सिद््धाांतोों और प्रावधानोों पर संगठित
पालन करने से रोका जा रहा है। तरीके से प्रहार किए जा रहे हैैं। हमारे राजनीतिक और
हमेें अपनी पसंद की सरकारेें चुनने
का अधिकार है लेकिन समय-समय पर प्रशासनिक पद्धति के स््ततंभ रहे संस््थथानोों की स््वतंत्रता को
राजनीतिक साजिशेें रचकर इस अधिकार
को छीना जा रहा है। क््यया इस बात पर कोई
स््पष््ट रूप से नष््ट कर संस््थथाओं को घुटने टेकने के लिए
आश््चर््य है कि बीते 8 वर्षषों मेें कई विधानसभा मजबूर किया जा रहा है। देश की सामाजिक समरसता
चुनावोों से उभरे लोकप्रिय जनादेश को उलट
दिया गया है और नई बिना चुनी हुई सरकारोों के बंधनोों को चुनावी लाभ के लिए ध्रुवीकरण के जरिये
को उनकी जगह बलपूर््वक स््थथापित किया
गया है?
जानबूझकर तोड़ा जा रहा है। राजनीतिक विरोधियोों को
भारत की आजादी का 75वां वर््ष एक खामोश कराने के लिए जांच एजेेंसियोों का दुरुपयोग
अवसर होना चाहिए कि हम अपने लोगोों को
एकजुट करने का संकल््प दोहराएं। लेकिन व््यक््ततिगत प्रतिशोध के साधन के रूप मेें किया जा रहा है।
इसके बजाय सदियोों से हमेें परिभाषित करती
रही विविधताओं को ही हमेें विभाजित करने
नफरत और कट्टरता को बढ़ावा देने के लिए इतिहास से
के लिए इस््ततेमाल किया जा रहा है। असली छेड़छाड़ कर उसे फिर से लिखा जा रहा है
शासन की जगह नारोों और जुमलोों ने ले ली
है। प्रचार को प्रदर््शन का विकल््प बना दिया
ये सारी उपलब््धधियां और एक उपनिवेशवादी राज््य से विश््व किया जा रहा है। गया है। विचार-विमर््श की जगह भ्रम पैदा करने का चलन शुरू
समुदाय मेें नेतृत््व करने की क्षमता तक पहुंचने का परिवर््तन जो सबसे अधिक गंभीर और चिंताजनक है, वह है आमजन हो चुका है। गौरव बढ़ाने के बजाय पूर््ववाग्रह के प्रसार के लिए
वास््तविकता है। इसका श्रेय देश की अब तक की सभी सरकारोों के मन मेें व््यक््ततिगत अधिकारोों और स््वतंत्रता छीने जाने की राष्टट्रवाद का इस््ततेमाल किया जा रहा है। अर््थपूर््ण वाद-विवाद की
को जाता है। और यह, आधुनिक भारत के निर््ममाता पंडित जवाहर भावना जिससे हम सभी को, हमारे समाज, हमारे समुदायोों, गुंजाइश बहुत कम होती जा रही है, और असहमति के लिए जगह
लाल नेहरू से लेकर उदारवादी, लोकतांत्रिक और धर््मनिरपेक्ष हमारी विविधताओं को काफी नुकसान पहुंचा है। सिर््फ आज्ञा के तो व््ययावहारिक रूप से खत््म ही हो गई है। कानून बनाने और
मूल््योों के दायरे मेें रहते हुए देश के लोगोों के कड़े परिश्रम का पालन की अपेक्षा की जा रही है। असहमति एकदम असहनीय उनकी जांच मेें संसद की भूमिका को लगातार दरकिनार किया जा
नतीजा है। ये वे प्रयास और उपलब््धधियां हैैं जिनके बारे मेें कुछ है। मतभेद को राष्टट्रविरोध की संज्ञा दे दी गई है। लोगोों से सबकुछ रहा है। इन सब के केन्दद्र मेें एक आम भारतीय नागरिक बढ़ती
लोग यह कहकर उपहास करते हैैं कि भारत की आजादी के पहले सिर झुकाकर मानने की उम््ममीद की जा रही है। सबके लिए, असहिष््णणुता, बढ़ती कट्टरता और घृणा तथा खत््म होती स््वतंत्रता
70 वर्षषों मेें कुछ भी नहीीं हुआ! और खासकर अल््पसंख््यकोों, कमजोर वर्गगों, नागरिक समाज और की कीमत चुका रहा है। n
जिस समय हम अपने 75 वर्षषों की यात्रा का जश्न मना बुद्धिजीवियोों के लिए आचार-व््यवहार के मानदंड तय कर दिए
रहे हैैं, तो साथ ही यह देखकर अफसोस और पीड़ा के साथ गए हैैं। और कड़वी हकीकत यह है कि उन व््यक््ततिगत अधिकारोों (लेखिका भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध््यक्ष हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

जलियांवाला बागः 1919 के रॉलेट एक््ट ने महज संदेह के आधार पर किसी को हिरासत मेें लेने और गिरफ््ततार करने का सरकार को अधिकार दे दिया। जब लोग 19 अप्रैल को बैशाखी का उत््सव मनाने पंजाब के जलियांवाला बाग मेें इकट्ठा हुए और गिरफ््ततार किए गए नेताओं की रिहाई की उनलोगोों ने मांग रखी, तो उन पर गोलियां बरसाई गईंं। सरकारी आंकड़ा तो 291 लोगोों की ही मृत््ययु का था लेकिन गैरसरकारी आंकड़े 500 से अधिक
लोगोों की शहादत के थे। इस नरसंहार ने देश भर मेें गुस््ससा भर दिया क््योोंकि जलियांवाला बाग मेें मारे गए लोग निःशस्तत्र थे और गोली चलाए जाने से पहले उन््हेें कोई चेतावनी भी नहीीं दी गई थी।
4 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022

कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी

चुप रहो, अन््यथा तो...


इस साल अप्रैल की बात है। असम पुलिस की टीम रातोरात गुजरात पहुंच गई। उसका मकसद गुजरात के निर््दलीय विधायक जिग्नेश
मेवानी को गिरफ््ततार करना था। कोकराझाड़ के किसी भाजपा नेता ने उनके एक ट््ववीट को ‘आपत्तिजनक’ बताते हुए पुलिस मेें शिकायत
दर््ज करा दी थी। असम पुलिस की बहुतेरी कोशिश के बावजूद अंततः कोर््ट ने उन््हेें रिहा करने का आदेश दिया। जून मेें गुजरात पुलिस के
आतंकवाद निरोधी दस््तते ने मुंबई जाकर ऐक््टटिविस््ट तीस््तता सीतलवाड़ को गिरफ््ततार कर लिया। सीतलवाड़ ने गुजरात दंगे मेें शामिल रहे 50
उपद्रवियोों के खिलाफ साक्षष्य इकट्ठा किए थे। लेकिन उन््हेें इस वजह से गिरफ््ततार किया गया कि केन्द्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने आरोप
लगाया कि सीतलवाड़ ने 2002 दंगोों मेें नरेन्दद्र मोदी सरकार को बदनाम किया। उन पर गुजरात सरकार के खिलाफ साक्षष्य की जालसाजी
करने का आरोप भी लगाया गया है। वह अब भी जेल मेें ही हैैं। 2018 मेें हिन््ददी फिल््म के एक चित्र को ट््ववीट करने के आरोप मेें फैक््ट चेकर
और ऑल््ट न््ययूज के सह संस््थथापक मोहम््मद जुबेर को भी करीब 4 साल बाद पिछले जून मेें गिरफ््ततार कर लिया गया। जुबेर के मामले मेें
कोर््ट की फटकार का भी सरकार पर शायद ही असर हुआ हो। उसका वही रवैया जारी है।

जिंदा लाशोों को आजादी इस््ततेमाल किया जाता है, कुछ ऐसा जो शासक और राज््य का कर््तव््य
था और उसे यह सुनिश््चचित करना था- धार््ममिकता और भय से मुक््तति।
कानून सिर््फ कानून नहीीं, उससे बढ़कर कुछ था और व््यवस््थथा का
मतलब लोगोों का भय मुक््त होना था। भयमुक््त समाज बनाने के बजाय
लेता, कोई जमीनी चर््चचा भी नहीीं! गोमूत्र पार््टटियां कोविड की मारक
डोज के रूप मेें सामने आ जाती हैैं, कोई गुस््ससा या नाराजगी नहीीं,
कोई सवाल नहीीं!
पादरी, धर््मशास्तत्र के विद्वान, नाजी विरोधी और गांधी के प्रशंसक

की क््यया जरूरत
पहले से भयभीत जनता पर ‘व््यवस््थथा’ थोपने का विचार कहां तक डिट्रिक बोनहोफर को अप्रैल, 1945 मेें फलोसेनबर््ग के यातना शिविर
और कितना जायज है।’ मेें मार डाला गया। उनके विचार हमेें सामूहिक मूर््खताओं की निर््ममितियोों
ऐसे मेें हमारी आजादी की 75वीीं सालगिरह के मौके पर हमेें यह और उनके प्रसार के पीछे की शैतानी मनोदशाओं के बारे मेें सतर््क
सवाल पूछना ही होगा कि भारतवासी और इसके नागरिक के तौर करते हैैं। उन््होोंने लिखाः “मूर््ख व््यक््तति प्रायः जिद्दी होता है और हमेें
पर हम आज कितना स््वतंत्र महसूस करते हैैं? सात साल पहले, इस तथ््य से आंख नहीीं मूदं लेनी चाहिए कि वह स््वतंत्र नहीीं है। वह
आपातकाल की 40वीीं वर््षगांठ पर एक टेलीविजन चर््चचा के बीच एंकर एक जादू के वशीभूत है, अंधा हो चुका है, उसका दुरुपयोग हो रहा है
ने मुझे मौजूदा सरकार के दौरान ‘अघोषित आपातकाल’ की आशंका और वह किसी के दुर््व््यवहार का शिकार है। इस प्रकार एक ‘नासमझ
जताने वाला एक अलार््ममिस््ट कह कर निशाने पर लिया था। लेकिन उपकरण’ मेें तब््ददील हो चुका मूर््ख व््यक््तति हर बुराई से लैस, कैसी भी
अब तक तो ऐसे लोगोों को भी यह बात समझ मेें आने लगी है कि बुरी हरकत करने को हमेशा तत््पर होगा और उसे इस बात का इल््म
कानून का घोर दुरुपयोग, विपक्ष की आवाज को मनमाने तरीके से भी नहीीं होगा कि इसमेें कुछ गलत भी है। यहीीं पर शैतानी दुरुप्रयोग
हर अधिनायकवादी बहस भावनाओं पर सबसे पहले कब््जजा करती है, दबाने की कोशिश, बुद्धिजीवियोों का तिरस््ककार, ‘चौकसी’ की आड़ मेें
खौफनाक हत््ययाएं, मुसलमानोों को खासकर टार्गेट किया जाना और
का बड़ा खतरा मंडराता है क््योोंकि यही है जो इंसानियत को हमेशा के
लिए नष््ट कर सकता है।”
तार््ककिकता पर चोट करती है और यही कारण है कि वह व््यक््ततिपरक लोगोों के घरोों-प्रतिष््ठठानोों पर बुलडोजर चलाकर परपीड़ा मेें अट्टहास-
आखिर क््यया है!
अधिनायकवादी राजनीति हमेशा तर््ककिकता और बौद्धिकता
की बदनामी पर फलती-फूलती है (मुहावरा ‘बौद्धिक आतंकवाद’
‘अनुभवोों’ को वस््ततुनिष््ठ साक्षष्य पर हावी कर देती है परिदृश््य का सबसे चिंताजनक पहलू लोकतांत्रिक संस््थथाओं का
ध््ववंस और दैनिक लोकाचार के न््ययूनतम प्रतिमानोों का सिकुड़ते जाना ही
याद करेें)। यही उसका खाद-पानी है। इसी तरह आप लोगोों को
कट्टरपंथियोों मेें तब््ददील करके उन््हेें आत््मघाती मिशन पर भेजते हैैं।
नहीीं, जनमानस का इसे मिल रहा खुला समर््थन है। बहुत ही सुचिति ं त यही कारण है कि हर अधिनायकवादी बहस भावनाओं पर सबसे
और संगठित तरीके से तथ््योों के साथ छेड़छाड़, एक काल््पनिक दुनिया पहले कब््जजा करती है, तर््ककिकता पर चोट करती है और यही वह
रचते हुए जड़बुद्धि-मूर््खतापूर््ण हरकतोों को बढ़ावा देते जाने का नतीजा कारण है जब व््यक््ततिपरक ‘अनुभवोों’ को वह वस््ततुनिष््ठ साक्षष्य पर

18 वीीं सदी के दार््शनिक इमानुएल कांट ने ‘ज्ञान के उदय’


या जागरूकता को ‘नाबालिगी’ से बाहर आने के रूप मेें
परिभाषित किया जिसे वह आजाद खयाली की राह की
बाधा के रूप मेें देखते हैैं। 1784 मेें लिखे अपने एक
चर््चचित लेख मेें कांट ने लातीनी मुहावरे ‘सपेरे ओत’
(जानने का दुस््ससाहस) को ज्ञान के दौर मेें मार््गदर््शक सिद््धाांत के
रूप मेें प्रतिपादित किया। ‘आजादी’ के विचार के असली मायने एक
तर््कसगं त व््यक््ततित््व का होना और अपने किए की नैतिक जिम््ममेदारी
स््ववीकार करना है। कोई राजनीतिक व््यवस््थथा तभी तक वैध मानी जा
सकती है जब वह ‘नाबालिगी’ से बचने की आजादी देती है, हालांकि
इसमेें कुछ ‘तार््ककिक’ निषेध और समझदारी भी शामिल हैैं जो किसी
भी नागरिक को दूसरे नागरिक की आजादी मेें जानबूझकर खलल
पुरुषोत्तम अग्रवाल डालने से रोकते हैैं। राज््य के हित मेें नागरिकोों की आजादी पर उचित
या तार््ककिक प्रतिबंध कोई अहंकारी शासक और पागलपन की हद तक
सरकार द्वारा भय की मनोवृत्ति का माहौल जबरन बनाने का पतित
काम नहीीं करेगा।
अब यह कौन तय करेगा कि आजादी महज जुमलेबाजी या कुछ
चुनीींदा लोगोों के विशेषाधिकार तक सिमट कर न रह जाए? यहां
तक कि राजनीतिक ढांचे से परे, पूरे सामाजिक ताने-बाने को ही
नागरिकोों की आजादी सुनिश््चचित करने को कम-से-कम तत््पर दिखना
चाहिए और इसके लिए समग्रता मेें प्रयास किए जाने की जरूरत है।
हमारे संविधान निर््ममाताओं ने इसी समझ के साथ न््ययाय, समानता और
बंधत्ु ्व के संदर््भ मेें ‘आजादी’ का तानाबाना बुना था। इन तीन स््ततंभोों
मेें से कोई एक भी हिला, तो आजादी कमजोर और लड़खड़ाती हुई
नजर आएगी।
न््ययाय, समानता, बंधत्ु ्व और स््वतंत्रता के इस चौखंभे को किसी
भी समझदार लोकतांत्रिक सरकार के लिए एक नैतिक दिशासूचक
के तौर पर काम करना चाहिए। कोई भी चेतनासंपन्न राज््य समाज
मेें सहानुभति ू और आलोचनात््मक सोच को बढ़ावा देगा। यह न जन
भावनाओं को भड़काएगा, न आहत करेगा और न ही भावनाओं को एक
लोकतांत्रिक सामाजिक चेतना को उलझाने का अवसर देगा। यह लोगोों
को अपने धार््ममिक विश््ववास का पालन करने और प्रचारित करने की
अनुमति देगा लेकिन धर्ममों के बीच भेदभाव नहीीं करेगा, आस््थथा के नाम
पर हत््यया कर दिए जाने की अनुमति नहीीं देगा। एक चेतनासंपन्न राज््य ही है कि लोगोों का दिमाग कुंद होता जा रहा है और समाज तेजी से हावी कर देती है।
नागरिक अधिकारोों की रक्षा के लिए सामाजिक आंदोलनोों को सतत अधःपतन की ओर जा रहा है। सामूहिक मूर््खता कभी भी प्राकृतिक आपदा नहीीं होती! यह
बढ़ावा देगा और नागरिकोों को किसी भी प्रकार से क््यया हमेें ऐसी मनगढ़ंत और प्रचारपरक चीजोों पर वास््तव मेें अधिनायकवादी राजनीति की एक ऐसी खासियत है जो सोचने वाली
अधिनायकवादी राजनीति हमेशा तर््ककिकता और ‘आहत भावनाओं के खतरे’ से बचाएगा। ध््ययान देने की जरूरत है? कोविड महामारी जैसे अभूतपूर््व संकट जमात को लाशोों मेें तब््ददील करने, उनकी तर््कशक््तति को कुंद करने,
किसी भी चेतना संपन्न राज््य के नागरिक कभी के दौर मेें भी हमारे सर्वोच्च नेता अपनी अभिनयप्रियता पर काबू नहीीं व््ययावहारिक समझ की उनकी क्षमता, सवाल करने और प्रभावित करने
बौद्धिकता की बदनामी पर फलती-फूलती है (मुहावरा भी भय मेें नहीीं जीते। वास््तव मेें, भय से मुक््तति ही कर पाते, नतीजतन लाखोों भूख-े प््ययासे लोग, मजदूर, मजबूर महज के विवेक और उनकी आजादी को निशाना बनाती है। आखिर, अच््छछाई
‘बौद्धिक आतंकवाद’ याद करेें)। यही उसका खाद- हर तरह की आजादी का मूल है। पंडित नेहरू
अपनी आत््मकथा मेें 12वीीं शताब््ददी के महाकाव््य
चार घंटोों की नोटिस पर भूख-े प््ययासे पैदल ही अपने गांव-घरोों को
जाने के लिए सड़कोों पर धकेल दिए जाते हैैं। इसकी कोई जवाबदेही
और बुराई की लोगोों की सहज समझ को कुठि ं त और कमजोर करके
नहीीं, तो फिर आप नफरत और हिंसा की राजनीति की फसल को कैसे
पानी है। इसी तरह आप लोगोों को कट्टरपंथियोों मेें तब््ददील ‘राजतरंगिणी’ मेें कल््हण का वाक््ययाांश ‘धर््म और नहीीं लेता! नोटबंदी के नाम पर भी चार ही घंटे की नोटिस मेें लहलहा सकते हैैं? n
अभय’ बड़े उत््ससाह से याद करते हैैं। नेहरू लिखते अर््थव््यवस््थथा पूरी तरह पटरी से उतार दी जाती है और पूरा देश बैैंकोों
करके उन््हेें आत््मघाती मिशन पर भेजते हैैं हैैंंः ‘(यह) कानून और व््यवस््थथा के अर््थ मेें के सामने लाइन मेें खड़ा हो जाता है! इस पर भी कोई जवाबदेही नहीीं (लेखक जाने-माने आलोचक और चिंतक हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

पूर््ण स््वराजः 1929 मेें जवाहरलाल नेहरू की अध््यक्षता मेें हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन मेें पार्टी का लक्षष्य ‘पूर््ण स््वराज’ घोषित किया गया। ऐसा भी पहली बार हुआ कि रावी नदी के तट पर तिरंगा फहराया गया। इस मौके पर 26 जनवरी को स््वतंत्रता दिवस मनाने का प्रस््तताव भी पारित किया गया। आजादी के आंदोलन के दौरान यही हमारा स््वतंत्रता दिवस था। उस वक््त झंडे मेें अशोक चक्र की जगह चरखे का उपयोग किया जाता था।
बाद मेें, 15 अगस््त, 1947 को आजादी की घोषणा हुई और तब उस दिन स््वतंत्रता दिवस मनाया जाने लगा। तिरंगे मेें चरखे की जगह चक्र का उपयोग किया जाने लगा। 26 जनवरी, 1950 को हमने अपना संविधान अंगीकार किया इसलिए उसे गणतंत्र दिवस के तौर पर मनाते हैैं। (झंडे का यह चित्र अभिलेखी वीडियो से लिया गया है)
www.navjivanindia.com

रविवार, 14 अगस््त 2022 स््वतंत्रता दिवस विशेष 5


कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी

व््यक््ततिगत गोपनीयता खत््म ही


नरेन्दद्र मोदी पहले प्रधानमंत्री हैैं जिन््होोंने पद पर रहते हुए इसरायल का दौरा किया। वह 2017 मेें वहां गए थे। यूनिवर््ससिटी ऑफ टोरंटो
के साइबर लैब- सिटीजन लैब ने पाया है कि भारत ने तब से ही सैन््य स््तर के स््पपाईवेयर पेगासस का इस््ततेमाल आरंभ कर दिया था। वैसे,
इसरायली कंपनी एनएसओ का दावा है कि उसने यह स््पपाईवेयर सिर््फ उन सरकारोों और सरकारी एजेेंसियोों को बेचा है जिनकी इसरायली
सरकार ठीक तरह से जांच-पड़ताल कर चुकी हो। द वाशिंगटन पोस््ट और द गार््जजियन ने कुछ भारतीयोों के फोन नंबरोों की लीक गई लिस््ट
छापी। इसमेें मंत्रियोों, विपक्षी नेताओं, पत्रकारोों और विभिन्न अधिकारोों के लिए संघर््ष करने वाले ऐक््टटिविस््टोों के नाम हैैं। रिपोर्टटों मेें दावा किया
गया कि इनमेें से कुछ को हैक कर लिया गया है। अमेरिका की फोरेेंसिक लैब््स ने भी इस बात की पुष््टटि की है कि भीमा कोरेगांव मामले
के कुछ आरोपियोों के कम््प्ययूटरोों मेें अपराध-संकेती ईमेल््स प््ललाांट कर देने के लिए मालवेयर का उपयोग किया गया। केन्दद्र सरकार ने
इस स््पपाईवेयर को खरीदने या उसका उपयोग करने को लेकर स््पष््ट तौर पर तो कभी मना नहीीं किया लेकिन इस किस््म की रिपोर्टटों को
सनसनीखेज और भारत के खिलाफ षड्यंत्र जरूर बता दिया।

हम शुरू करेें बहुआयामी स््वतंत्रता की मांग


आज के भारत मेें सिकुड़ती जा रही आजादी को लेकर चिंतित हो रहे लोगोों को ‘स््वतंत्रता’
के थोड़े अधिक विस््ततार के बारे मेें सोचना शुरू करना चाहिए

म हात््ममा गांधी की अगुवाई के तहत भारतीय राष्ट्रीय


कांग्रेस के नेतृत््व मेें हुए भारत के आजादी के आंदोलन
की मुख््यधारा के तीन अंतर्संबंधित लक्षष्य थे। एक
था ब्रिटिश साम्राज््यवादी शासन का अंत करते हुए
राष्ट्रीय स््वतंत्रता हासिल करना। यह 15 अगस््त,
1947 को हासिल कर लिया गया। दूसरा था लोकतांत्रिक समाज
और सरकार के लोकतांत्रिक स््वरूप की स््थथापना। यहां लोकतंत्र
का मतलब ज््ययादा-से-ज््ययादा अर््थ मेें समझा गया- राजनीतिक,
अब हम कहीीं अधिक समृद्ध देश हैैं और अत््यधिक गरीबी कम
हुई है। अस््पपृश््यता-जैसी अधिकांश सामाजिक बीमारियां लगभग
गायब हो गई हैैं। असामान््य स््थथितियोों को छोड़कर लोकतांत्रिक
शासन ने गहरी जड़ेें पकड़ ली हैैं। हमारे नागरिकोों को कई किस््म
की आजादी है जिसके लिए भारत की दुनिया भर मेें प्रशंसा की
जाती है। लेकिन यह भी सच है कि नरेन्दद्र मोदी शासन के पिछले
आठ साल मेें इसके लोकतंत्र और नागरिक अधिकारोों- दोनोों ने
व््यवस््थथागत आघात सहे हैैं। पहले इन दोनोों ही बातोों ने भारत को
अधिक अनिवार््य रही हैैं।
आजादी और इस पर खतरे को लेकर आज के दिन के विचार-
विमर््श मेें दो प्रकार की भूलेें होती हैैं। सत्तारूढ़ व््यवस््थथा देश की
वर््तमान स््थथितियोों के लिए किसी जवाबदेही के बिना किसी पिछली
घटना के कर््मकांडी महोत््सव की ओर देशभक््ततिपूर््ण भावनाओं
को मोड़ देती है। इसे बुद्धिजीवियोों समेत तमाम सामाजिक-
आर््थथिक प्रबुद्ध वर््ग विचार और अभिव््यक््तति की स््वतंत्रता
के हश्र पर केन्द्रित करने का प्रयास करता है। निस््ससंदेह, ये
आर््थथिक और सामाजिक। 26 जनवरी, 1950 को अंगीकार किया दुनिया की आंखोों की किरकिरी बना रखा था। अब की स््थथिति के खतरे बड़े हैैं- वर््तमान निरंकुश शासन मेें जिस तरह विपक्षी दलोों
गया प्रबुद्ध संविधान इस दिशा मेें विधिपूर््ण शुरुआत थी। परिणामस््वरूप वैश््वविक प्रशंसा का स््थथान चिंता ने ले लिया है। के लिए लोकतांत्रिक स््थथान कम हो गए हैैं, उसमेें ऐसा ही है और
संविधान ने हमेें शासन की संसदीय व््यवस््थथा दी, सभी स््वतंत्रता आंदोलन का तीसरा लक्षष्य राष्ट्रीय एकता को उनका कड़ाई से प्रतिरोध किया ही जाना चाहिए। लेकिन हम
नागरिकोों की समानता के सिद््धाांत को भरोसा दिया। इसने न महज सुरक्षा प्रदान करना था। यह विफल हो गयाः खुद विभाजन ही आजादी के उन वृहत्तर आयामोों की अनदेखी कर रहे हैैं जिन््हेें
कानून के नजरिये से ‘समानता’ बल््ककि सामाजिक समानता, दुर््भभाग््यपूर््ण घटना थी लेकिन इसके कारण होने वाली सांप्रदायिक राष्ट्रीय मुक््तति आंदोलन और संविधाननिर््ममाताओं ने अनुप्राणित सुधीन्दद्र कुलकर्णी
सामाजिक न््ययाय और प्रगति तथा आर््थथिक बेहतरी के लिए अवसर हिंसा तथा इस वजह से सीमा-पार होने वाले पलायन ने इसे किया था।
कहीीं अधिक गंभीर बना दिया। निश््चचित आजादी गंभीर, सर््वसमावेशी और अविभाज््य विचार है।
तौर पर ब्रिटिश राज की बांटो और राज अपनी बिल््ककुल मूलभूत भावना मेें इसमेें गरीबी, भूख और उन
करो की नीति ने इसमेें भूमिका निभाई अन््य दुर््बल अभावोों के कष््ट से आजादी शामिल है जिनसे
लेकिन हिन््ददुओं और मुसलमानोों के करोड़ोों भारतीय अब भी जूझ रहे हैैं। इसका मतलब शैक्षिक
बीच ऐतिहासिक तौर पर परंपरागत तथा आर््थथिक प्रगति के अवसरोों मेें गहन और बढ़ती असमानता
फूट तथा बैर ने भी निर््णयात््मक से मुक््तति भी है जो हमारे बच्चचों और युवाओं के भविष््य की
भूमिका अदा की। स््वतंत्रता आंदोलन आशाओं को बंद और अंधकार की ओर ले जाता है। इसका
इस वैर-भाव को मिटा नहीीं पाया और मतलब विकास के अदूरदर्शी और दोषपूर््ण मॉडल की वजह से
यह अविभाजित भारत के शासन की वैसे पर््ययावरण विनाश से मुक््तति है जिसके सबसे खराब पीड़ित
आपस मेें स््ववीकार््य संवैधानिक संरचना फिर वही गरीब और बेआवाज हैैं। विचार, अभिव््यक््तति और संबंध
तक पहुंचा। उन भारतीयोों के लिए गोपनीय हैैं जिनका पूरा जीवन अस््ततित््व
इस विफलता के प्रभावोों को आज का न््ययूनतम स््तर हासिल करने के संघर््ष मेें ही डूब जाता है।
भी महसूस किया जा रहा है। एक उनके लिए लोकतंत्र का मतलब पांच साल मेें
समय मिश्रित और अविभाजित भारत
के अंग रहे राजकाज और समाज के
एकबार वोट देने से अधिक कुछ भी नहीीं है
जो साधारणतया राजनीतिक व््यवस््थथा के भ्रष््ट
आजादी गंभीर, सर््वसमावेशी और अविभाज््य विचार
इस््ललामीकरण ने हिन््ददू बहुसंख््यवादी और विभाजनात््मक तरीकोों द्वारा धूर््तताभरा और है। अपनी बिल््ककुल मूलभूत भावना मेें इसमेें गरीबी,
धर्मोन््ममादियोों को खंडित लेकिन
1947 के बाद अब भी मिश्रित भारत
बिल््ककुल खोखला कर दिया गया है।
दुर््भभाग््यवश, अब समाजवाद पर शायद भूख और उन अन््य दुर््बल अभावोों के कष््ट से आजादी
को ‘हिन््ददू राष्टट्र’ मेें परिवर््ततित करने
के अभियान के लिए प्रेरित कर दिया।
ही कोई बातचीत होती है। लगभग सभी
राजनीतिक पार््टटियां और लगभग पूरी
शामिल है जिनसे करोड़ोों भारतीय अब भी जूझ रहे हैैं।
वे आग से खेल रहे हैैं। जो गंभीर मीडिया और एकेडमिक व््यवस््थथा भूल गई इसका मतलब शैक्षिक तथा आर््थथिक प्रगति के अवसरोों
गलती पाकिस््ततान ने की, उसे दोहराना
अपने देश मेें शांति, प्रगति, सामाजिक
है कि समाजवाद भी भारतीय संविधान का
प्रस््ततावनामूलक सिद््धाांत है। परिणामस््वरूप, मेें गहन और बढ़ती असमानता से मुक््तति भी है जो हमारे
एकजुटता और जनता की भलाई तथा
स््वतंत्रताओं के लिए अनिष््टसूचक
समाजवाद संविधान का अनाथ बच्चा बन गया
है। अपनी आजादी के 75वेें वर््ष मेें हमेें गहराई
बच्चचों और युवाओं के भविष््य की आशाओं को बंद और
प्रतिघात होोंगे। से सोचना चाहिए कि लोकतंत्र, धर््मनिरपेक्षता अंधकार की ओर ले जाता है
*** और समाजवाद को हर भारतीय के लिए
की समानता की सोच रखी। पूर््णतः शांतिपूर््ण तरीकोों और सहभागी ‘हम कितने आजाद हैैं’ के सवाल का तब तक जवाब नहीीं बहुआयामी स््वतंत्रता के इकलौते, अविभाज््य,
शासन जिसमेें सरकार नेतृत््वकारी भूमिका मेें हो, को विकास के दिया जा सकता जब तक हम आजादी के आंदोलन के इन अपरिवर््तनीय और अहस््तताांतरणीय राष्ट्रीय मिशन के तौर देखना
समाजवादी तरीके के तौर पर समझा गया- हालांकि ‘समाजवाद’ तीन लक्षष्ययों के संदर््भ मेें विश््ललेषण नहीीं करेेंगे। विदेशी शासन से और आगे बढ़ाना चाहिए।
का संविधान मेें 1976 मेें ही औपचारिक तौर पर प्रवेश हुआ। इसी आजादी अब अपरिवर््तनीय वास््तविकता है। फिर भी, हमेें इन आज से 25 साल बाद हम आजादी का शताब््ददी वर््ष मना
तरह, हालांकि ‘धर््मनिरपेक्षता’ को भी 1976 मेें ही संविधान की बातोों को लेकर जरूर चिंता करनी चाहिएः गरीब और हाशिये रहे होोंगे, क््यया हम सभी आत््ममंथन करेेंगे, एक देश के तौर पर
प्रस््ततावना मेें शामिल किया गया, सभी धर्ममों के प्रति आदर और के लोगोों के लिए आर््थथिक एवं सामाजिक न््ययाय को सुनिश््चचित अपनी उपलब््धधियोों के गौरव को मजबूत करेेंगे, अपनी पिछली
सरकार को गैरधर््मशासित रखना भारतीय गणतंत्र की वैचारिक करने, ‘निचली’ जातियोों, आदिवासियोों, अल््पसंख््यकोों तथा गलतियोों से सबक लेेंगे और बेहतर भारत के निर््ममाण के लिए
आधारशिला थी। इससे भी आगे, संविधान ने सभी नागरिकोों महिलाओं के खिलाफ भेदभाव समाप््त करने, संविधान मेें निहित एकताबद्ध होकर कदम बढ़ाएंगे? हमेें ऐसा करना ही होगा। हम
को अधिकारोों और आजादी का समुच्चय दिया- हालांकि विचार, नागरिकोों के मूलभूत अधिकारोों और आजादी को सुनिश््चचित भारत के इतिहास की उन पवित्र स््ममृतियोों के ऋणी हैैं जिन््होोंने देश
अभिव््यक््तति, संबंध और धार््ममिक आस््थथा से संबंधित बातोों को करने, धनी तथा शक््ततिशाली लोगोों द्वारा शासन के उपकरणोों एवं की आजादी के लिए लड़ाई लड़ी और अपना सर््वस््व न््ययोछावर
यथोचित प्रतिबंधोों से सीमित कर दिया गया और इन सभी आजादी संस््थथाओं के दुरुपयोग रोकने और समाजवाद के (पश््चचिमी या कर दिया। n
का सम््ममान करने का दायित््व सरकार को दिया गया। कम््ययुनिस््ट नहीीं) भारतीय विचार के प्रति भरोसेमंद बने रहने मेें
आजादी हासिल करने के बाद से 75 साल मेें भारत ने आर््थथिक भारत का विषम रिकॉर््ड रहा है जबकि ये बातेें राष्ट्रीय एकता, (लेखक सामाजिक-राजनीतिक
क्षेत्र मेें चार दशक पहले की तुलना मेें भी यथेष््ट प्रगति की है। सामाजिक एकीकरण और अंतर-धार््ममिक सद्भाव के लिए बहुत ऐक््टटिविस््ट और लेखक हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

भारत छोड़ो आंदोलनः अगस््त, 1942 आते-आते यह साफ हो गया कि अंग्रेज भारत को आजाद नहीीं करना चाहते बल््ककि उसे औपनिवेशिक देश या अधिराज््य (डॉमिनियन रूल) का दर््जजा देना चाहते हैैं। इस पर महात््ममा गांधी ने ‘अंग्रेजोों, भारत छोड़ो’ का नारा दिया। इस पर देश भर मेें सभी कांग्रेस नेताओं को गिरफ््ततार कर लिया गया। लेकिन इससे आमलोगोों मेें इतना आक्रोश भर गया कि वे आजादी के लिए ‘करो या मरो’ के आह्वान मेें
भागीदार हो गए। बड़े पैमाने पर की गई गिरफ््ततारियोों और सरकारी दमन का भी उन पर असर नहीीं हुआ।
6 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022 7

'आजादी खतरे मेें है, इसे अपनी पूरी ताकत लगाकर बचाएं'
भारतीय साहित््य, कला, मूर््ततिकला, सिनेमा इत््ययादि मेें आजादी की सोच से जुड़़ी विविध सांस््ककृतिक अभिव््यक््ततियोों की एक झलक। न सिर््फ आजादी का मूल
मुश््ककिल मेें आजादी
भाव बल््ककि आजादी का एहसास भी। कौन-सी स््वतंत्रता मिली और कौन-कौन सी अपेक्षित स््वतंत्रताएं अधूरी या अतृप््त रह गईं भारत की आजादी की 75वीीं सालगिरह को बड़़े जोश-ओ-खरोश के साथ अमृत महोत््सव के तौर पर मनाया जा रहा
है और इस मौके पर हमारी इच््छछा मोर की तरह नाचने की हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरोों को
वी, द चिल्ड्रेन ऑफ इंडिया (2010) काला पहाड़ (2004)
1
1. गर््म हवा
6 नजरअंदाज नहीीं कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैैं
लीला सेठ भगवान दास मोरवाल
हिमाचल प्रदेश की स््वर्गीय मुख््य न््ययायाधीश लीला सेठ की यह किताब संविधान को निर्देशकः एमएस सथ््ययू, 1974

भा
मेवात ऐसा इलाका है
किताबेें लेकर युवा पाठकोों को रोचक और जानकारीपरक छोटी-छोटी बातेें विस््ततार से बताती हैैं। जिसका सामाजिक तानाबाना
भारत क््योों लोकतांत्रिक गणराज््य है, हम धर््मनिरपेक्ष क््योों हैैं और समाजवाद से मतलब 2. गांधी रत की आजादी की 75वीीं सालगिरह को बड़़े जोश- चलने, तय शब््दोों को बोलने और खुद को विविधता मेें एकता की जगह
विभाजन की त्रासदी मेें भी ओ-खरोश के साथ अमृत महोत््सव के तौर पर मनाया इकरंगे स््वरूप मेें देखने को आजाद है। यह आजादी नहीीं। हम मेें से
किस तरह की संरचना है- इन सब विषम मुद्ददों की यह खुलकर पड़ताल करती है। अप्रभावित रहा। लेकिन बाबरी निर्देशकः रिचर््ड एटनबरो, 1982 जा रहा है। व््ययापक भारतीय अस््ततित््व मेें रची-बसी कुछ का मानना है कि आजादी से मतलब तब तक गलती करने से है
ध््ववंस के बाद की सांप्रदायिकता विभिन्न उप-संस््ककृतियोों पर गर््व करने वालोों की नजर जब तक यह किसी और की आजादी नहीीं छीनती हो। यह समझना
मेें यह एक बेहतरीन मौका हो सकता था जब अलग- होगा कि आजादी अराजक होने का न््ययोता नहीीं है। मानव प्रकृति मेें
ने यहां किस तरह पैठ बनाई, 3. घरे बाइरे अलग मत-पंथ का पालन करने वालोों, अलग-अलग भाषाएं बोलने विविधता और असंतोष को समायोजित करने की महान क्षमता है:
मिडनाइट््स चिल्ड्रेन (1981) राग दरबारी (1968) यह उसी का जमीनी वृत््ताांत है। निर्देशकः सत््यजीत रे, 1984 वालोों के साथ मतभेदोों को भुलाकर बेहतर तालमेल बैठाया जाता। लोकतंत्र का सार भी यही है। जिन््हेें विविधता और असंतोष की समझ
सलमान रुश््ददी श्रीलाल शुक््ल इससे कोई फर््क नहीीं पड़ता कि कुछ लोग इसे एक सियासी या चुनावी नहीीं, उन््हेें निश््चचित ही लोकतंत्र की भी समझ नहीीं होगी। चुनावी जीत
जब भारत आजाद हुआ, उस मध््य रात्रि मेें जन््ममा सलीम सिनाई आजाद भारत मेें आजाद भारत की सामाजिक फायदा उठाने के मौके के तौर पर देखते हैैं। इसकी वजह यह है कि चाहे कितने भी विशाल बहुमत से हासिल हुई हो, इस तरह की सोच
जीता है और दो देशोों की यात्रा का वृत््ताांत उपस््थथित करता है। वह विशेष शक््ततियोों से संरचना, सरकारी संस््थथाओं 4. भारत एक खोज (टीवी उन नागरिकोों के लिए यह क्षण वाकई उत््सव का है जो राष्टट्र और हमारे कि यह जीतने वाले को जैसे चाहे, वैसे शासन करने की खुली छूट देता
संपन्न है और उसकी कथा भारत, पाकिस््ततान और बांग््ललादेश से होकर गुजरती है। और समाज का क्रिटीक रचता सीरियल, 53 एपिसोड) राष्ट्रीय जीवन की चिंता करते हैैं। है, वैसा ही हुआ मानो 'भीड़ का कानून' या निर््ववाचित तानाशाही। किसी
75 वर्षषों की यह यात्रा उन प्रतिज्ञाओं का प्रतिफल पाने की रही है शासक के पक्ष मेें आया चुनावी जनमत उसे अच््छछी-खासी ताकत और
इसमेें सांप्रदायिक हिंसा, उत््पपीड़न और बांग््ललादेश की आजादी का विवरण भी है। उपन््ययास। जैसे-जैसे समाज की निर्देशकः श््ययाम बेनेगल 1988-89
सलमान खुर्शीद जो जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस््त, 1947 की आधी रात को की थी। मौका देता है कि वह अपनी विचारधारा के मुताबिक शासन को आकार
ऊपरी परत मेें भ्रष््टटाचार और इस यात्रा के दौरान हम चुनौतीपूर््ण, उठापटक वाले और विजयी क्षणोों दे, लेकिन यह काम संविधान द्वारा निर््धधारित घेरे के भीतर ही हो सकता
द आइडिया ऑफ इंडिया धोखाधड़ी जड़ेें मजबूत करती जा 2
5. तमस (टीवी मिनीसीरीज) 5
से होकर गुजरे हैैं। दुनिया के देशोों के बीच अपनी खास पहचान के साथ है, उसकी अवहेलना करके नहीीं।
मथिल््ककुल (दीवारेें) (1965) रही हैैं, यह और प्रासंगिक होता निर्देशकः गोविंद निहलानी, 1988 स््थपित होने की उम््ममीदोों के बीच हमारी इच््छछा मोर की तरह नाचने की मशहूर फिल््म गीतकार जावेद अख््तर अपनी हालिया नज््म 'नया
(1997) वाइकॉम मोहम््मद बशीर फिल््मेें हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरोों को नजरअंदाज नहीीं हुकमनामा' मेें कहते हैैं:
सुनील खिलनानी जा रहा है। कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैैं।
1940 के दशक मेें जेल मेें दीवारोों के आरपार रहने वाले प्रेमी जोड़े की यह मजबूत 6. लगान इस थीम के इर््द-गिर््द 1980 हमारे विचार मेें दो शब््द सबसे अहम होने चाहिए- आजादी और किसी का हुक््म है
खिलनानी का विश््ललेषण इस मलयाली प्रेम कथा है। ये एक-दूसरे को देख नहीीं सकते लेकिन अपनी भावनाएं के दशक मेें काफी सारी समानता। लोकतंत्र के इन दोनोों गुणोों के बीच रिश््तोों और स््पर््धधा के इस गुलिस््तताां मेें बस इक रंग के ही फूल होोंगे
बात का उत्तर देने का प्रयास पहुंचा सकते हैैं। एक दिन अचानक एक को जेल से रिहा करने का आदेश आता है निर्देशकः आशुतोष गोवरीकर, फिल््मोों-टीवी सीरियलोों का कई आयाम हो सकते हैैं। लेकिन हमारी व््ययावहारिक समझ यही है कुछ अफसर होोंगे जो तय करेेंगे
है कि क््यया मौलिक नेहरूवादी लेकिन वह दुखी हो जाता है क््योोंकि उसने आजाद होने की ख््ववाहिश ही नहीीं की थी। 2001 निर््ममाण हुआ। कि हमने स््वतंत्रता की कामना केवल इसके अंतर््ननिहित मूल््योों के लिए गुलिस््तताां किस तरह बनना है कल का
विचार अब भी प्रासंगिक हैैं। नहीीं की बल््ककि इसलिए भी की कि यह न््ययाय, सामाजिक, आर््थथिक और यकीनन फूल तो यक-रंगीीं होोंगे
राष्टट्रवादी और समाजवादी राजनीतिक समानता के लक्षष्ययों को पाने मेें मददगार होगी। लेकिन यह मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल््कका
सैद््धाांतिक आधार से लेकर नव 3 4 तकलीफ देने वाली बात है कि हमारा अनुभव पूरी स््पष््टता के साथ ये अफसर तय करेेंगे
टोबा टेक सिंह (1954) बता रहा है कि समानता क्षत-विक्षत हो चुकी है क््योोंकि आजादी गंभीर किसी को कोई ये कैसे बताए
उदारवादी पूंजीवाद झुकाव तक संकट मेें है। गुलिस््तताां मेें कहीीं भी फूल यक-रंगी नहीीं होते
भारत की यात्रा को लेकर इसमेें सआदत हसन मंटो यह अफसोस की बात है कि ऐसे मौके पर जब हम अपने गौरवपूर््ण कभी हो ही नहीीं सकते
विचार किया गया है और इस इसमेें लाहौर मानसिक अस््पताल मेें रह रहे लोगोों के बहाने कथा बुनी गई राष्ट्रीय चरित्र और उपलब््धधियोों की बखान कर रहे होते, एक गंभीर कि हर इक रंग मेें छुपकर बहुत से रंग रहते हैैं
दौरान जिन विरोधाभासोों और आप किसी चित्र है। विभाजन के बाद उन््हेें अपने-अपने देश मेें जाने की इजाजत दे दी गई है। और चिंताजनक वास््तविकता की ओर ध््ययान खीींचने के लिए मजबूर जिन््होोंने बाग-ए-यक-रंगीीं बनाना चाहे थे
विडंबनाओं से देश को जूझना का मुंह दीवार सिख होने की वजह से बिशन सिंह को भारत भेज दिया जाता है। लेकिन उसे जब हम आजादी हैैं। 'ट्राईस््ट विद डेस््टटिनी' की दृष््टटि पर सवालिया निशान लगाने वाली उनको जरा देखो
घटनाओं को लिखने बैठेें, तो यह ऐसी दुखदायी प्रक्रिया होगी कि हर कि जब इक रंग मेें सौ रंग जाहिर हो गए हैैं तो
पड़ा, वह भी इसमेें है। की तरफ करके पता चलता है कि उसका घर तो टोबा टेक सिंह मेें है जो पाकिस््ततान मेें है। की घंटी बजाते एक के जिक्र के साथ जख््म हरे हो जाएं। इस बात का कोई अंदाजा वे कितने परेशां हैैं, कितने तंग रहते हैैं।
इतिहास की धारा हैैं और जब हम
को नहीीं बदल सकते। विशाखा (1942) इसे हर गांव, हर
पूरबो-पोश््चचिम
कुसमु ाग्रज (असली नामः वीवी शिरवाडकर)
(1989)
जवाहर लाल नेहरू, यह आजादी और देश निर््ममाण को लेकर प्रेरित करने वाली 57 मराठी कविताओं
कस््बबे, हर शहर
सुनील गंगोपाध््ययाय निकिता ख्रुश््चचेव को संबोधित का संग्रह है। इसमेें काफी भावुक कर देने वाली रचनाएं हैैं जिनमेें से कई की कार््टटून और हर राज््य से
विभाजन और विस््थथापन, कथन, 1959 बाद मेें संगीत-प्रस््ततुति भी हुई। इसमेें जलियांवाला बाग, लोकमान््य तिलक, बजने देते हैैं, तब
नक््सली हिंसा और भाषायी भूमिपुत्र आदि पर भी रचनाएं हैैं। यह पुस््तक अब भी लोकप्रिय है ।
आंदोलन- ये सब यहां हैैं। उस दिन हम इसे
बांग््ललादेश मुक््तति युद्ध और गति दे पाएंगे जब
पाथेर दाबी (1926) इसके ऐतिहासिक संदर््भ का लाजवंती ईश््वर की सभी
शरत चंद्र चट्टोपाध््ययाय आधिकारिक विवरण भी
इस बांग््लला उपन््ययास को
राजिन््दर सिंह बेदी संतानेें... हाथ मेें
इस बांग््लला उपन््ययास मेें आप मूल रूप से उर््ददू की यह रचना हिन््ददी, पंजाबी, कश््ममीरी आदि मेें आज भी लोकप्रिय है। हाथ मिलाकर
प्रकाशन के बाद बैन कर दिया पाएंगे। इसमेें देश के लिए प्रेम इसमेें विभाजन के दौरान अपहृत कर ली गई महिलाओं की व््यथा-कथा है। लाजवंती दीवार कला
गया था। इसमेें ऐसे गोपनीय के बारे मेें भी भावुक-जीवंत का जब अपहरण किया जाता है, उससे पहले उसका पति उसके साथ अत््ययाचार करता
एक साथ पुराने
समाज के इर््दगिर््द कहानी बुनी प्रस््ततुति है। है लेकिन अपहरण के बाद वह उसे खोज निकालने मेें जी-जान लगा देता है। नीग्रो आध््ययात््ममिक
गई है जिसका लक्षष्य भारत को गाने को गाएं:
आजाद कराना है। इसके प्रमुख
दो मेें एक चरित्र क््राांतिकारी है- फ्री एट लास््ट, फ्री
शिक्षित और संवेदनशील लेकिन एट लास््ट! हे,
शारीरिक रूप से मजबूत और सर््वशक््ततिमान
साहसी। दूसरा चरित्र डरपोक, डाक टिकट ईश््वर आपका
भावुक और जाति-पूर््ववाग्रहोों से
भरा हुआ है जो बाद मेें पुलिस का बहुत-बहुत आभार
भेदिया बन जाता है। कि अंततः हम
आजाद हैैं।
- मार््टटिन लूथर किंग
जूनियर, 1963 के
अपने भाषण 'आई नहीीं कि जिनलोगोों ने जिंदगी और आजादी की भारी कीमत चुकाई, उन
असहाय लोगोों के साथ कभी इंसाफ होगा भी या नहीीं। यहां तक कि बड़़े
चुनावी जीत चाहे कितने भी विशाल बहुमत
चंद्रशेखर आजाद की
प्रतिमा, प्रयागराज
हैव ए ड्रीम' मेें नरसंहारोों के मामले मेें भी जवाबदेही तय नहीीं की जा सकी और इन््हेें
'आपके नरसंहार' बनाम 'हमारे नरसंहार' का रूप दे दिया गया। इंसानी
से हासिल हुई हो, इस तरह की सोच कि यह
आजाद की प्रतिमा यहां उस उसूलोों की जगह घटिया सियासत ने ले ली है।
विभाजन के दर््द से परस््पर सामंजस््य और मेलजोल का रास््तता पाने
जीतने वाले को जैसे चाहे, वैसे शासन करने की
पार््क मेें ही लगाई गई है
जहां अंग्रेजोों के साथ उनकी
वाले देश मेें हम एक-दूसरे के दर््द और नुकसान के प्रति अंधे हो गए
हैैं। हमवतन के हाथोों व््यक््ततिगत और सामुदायिक तबाही आज भी हमारे
खुली छूट देता है, वैसा ही हुआ मानो 'भीड़ का
वास््तविक स््वराज कुछ लोगोों के अपने हाथ मेें ताकत ले लेने से नहीीं बल््ककि
मुठभेड़ हुई थी और वह सामूहिक अस््ततित््व पर अपनी काली छाया डाल रही है। यह मानवीय
मूल््योों की घृणित सार््वजनिक अवहेलना है जिसे सत्ता मेें बैठे लोगोों और
कानून' या निर््ववाचित तानाशाही
मूर््ततियां वीरगति को प्राप््त हुए थे। अपने विचारोों के बंधक उनके सहयोगी बढ़़ावा दे रहे हैैं। इससे तो यही
सभी लोगोों द्वारा वह क्षमता हासिल करने से आएगा जिससे जब भी ताकत संकेत मिल रहा है कि स््वतंत्रता के 75 साल के बाद का रास््तता ऊबड़-
का दुरुपयोग हो, वे उसे रोक सकेें। खाबड़ तो है ही, यह कहीीं नहीीं जा रहा है।
ऐसी स््वतंत्रता का जिसमेें सुरक्षा और गरिमा न हो, कोई मतलब लेकिन, यह निश््चचित रूप से बहुत बुरा है। जब काफी उम््ममीदोों के
– महात््ममा गांधी, जनवरी, 1925 मेें यंग इंडिया मेें नहीीं रह जाता। हमेें बताया जा रहा है कि हम पहले से तय रास््तते पर साथ अपनाए गए संविधान का इस््ततेमाल पार्टी-सियासी हितोों को साधने
के मुखौटे के रूप मेें किया जाए तो इसके भाव और चरित्र मेें बदलाव
आ जाता है। ऐसे मेें हैरानी की कोई बात नहीीं जब सरकार के कानून
शहीद स््ममारक ग््ययारह मूर््तति इस बात का कोई अंदाजा नहीीं कि जिन लोगोों ने मंत्री भाजपा की विचारधारा को देश की विचारधारा बनने की बात करते
हैैं। हां, कांग्रेस ने भी तो ऐसा ही किया था। हो सकता है कि यह उनका
पटना मेें सचिवालय भवन के सामने उनलोगोों की मूर््ततियां हैैं जो भारत
छोड़ो आंदोलन के दौरान तिरंगा फहराने के क्रम मेें शहीद हो गए थे।
देवी प्रसाद राय चौधरी की बनाई यह कलाकृति दिल््लली मेें जिंदगी और आजादी की भारी कीमत चुकाई, उन प्रतिवाद हो। हम इसका जवाब तत््ककाल दे सकते हैैं।
अहिंसा और सत््ययाग्रह समेत गांधीवादी विचार को संविधान मेें
है। इसमेें लोग गांधी जी का अनुसरण करते दिख रहे हैैं।
असहाय लोगोों के साथ कभी इंसाफ होगा भी या शामिल किया गया। इन््हेें संविधान की प्रस््ततावना मेें जगह दी गई।
कोई कितने भी बड़़े बहुमत से आए, इसमेें बदलाव नहीीं कर सकता।
नहीीं। यहां तक कि बड़़े नरसंहारोों के मामले मेें भी इसे केवल एक क््राांति ही बदल सकती है। सुप्रीम कोर््ट ने ‘केशवानंद
भारती’ मामले मेें यह साफ-साफ शब््दोों मेें कहा है।
जवाबदेही तय नहीीं की जा सकी और इन््हेें 'आपके कांग्रेस ने जो किया, उसके लिए एक ऐतिहासिक राष्ट्रीय सहमति
थी। और यह सहमति महात््ममा गांधी और दूसरे अन््य नेताओं के नेतृत््व
नरसंहार' बनाम 'हमारे नरसंहार' का रूप दे मेें चले आजादी के आंदोलन से उभरी थी।
वापस आएं जावेद अख््तर की नज््म पर। आजादी आपके खास
आजाद होने का मतलब महज लोहे की बेड़़ियोों से मुक््तति नहीीं बल््ककि जीने का वह दिया गया। इंसानी उसूलोों की जगह घटिया रंग के बारे मेें है। प्रकाश का रंग एक है लेकिन प्रिज््म उन रंगोों को
दिखाता है जिससे यह बना है। अंधेरे के स््ययाह को प्रिज््म से भी
तरीका है जो दूसरोों की आजादी का आदर करने वाला, उसे बढ़़ाने वाला हो।
नेल््सन मंडेला सियासत ने ले ली है विभाजित नहीीं किया जा सकता। इसलिए आजादी की 75वीीं सालगिरह
पर संकल््प करेें, हम अपने राष्ट्रीय जीवन मेें प्रकाश और प्रिज््म को
(केपटाउन के अपार्थीड म््ययूजियम के बाहर लगा उद्धरण, जून, 1999) वापस लाएंगे। n

(लेखक वरिष््ठ कांग्रेस नेता और पूर््व विदेश मंत्री हैैं।)


8 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022

कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी


रक्षकोों को पालतू बनाने की कोशिश
प्रेस स््वतंत्रता किस तरह खतरे मेें है, यह बात किसी से छिपी नहीीं है। सेना से रिटायर कर केन्द्रीय मंत्री बने एक सज्जन ने पत्रकारोों को
‘प्रेस््टटिच््ययूट््स’ कह दिया। उधर, बिना नोटिस कई टीवी चैनलोों के लाइसेेंस रद्द कर दिए गए। कई संपादकोों को हटा दिया गया और कई स््ततंभ
लेखकोों को अखबारोों ने अपनी सूचियोों से हटा दिया क््योोंकि वे उस लाइन पर लिखने-काम करने को तैयार नहीीं थे जो सरकार के दबाव
मेें कंपनियां चाहती थीीं। पुलित््जर पुरस््ककार जीतने के बावजूद फोटोजर््नलिस््ट सना इरशाद मट्टू और आकाश हसन समेत कई पत्रकारोों को
किसी एसाइनमेेंट या बुक लॉन््च और अन््य कार््यक्रमोों मेें भाग लेने के लिए विदेश जाने से रोक दिया गया। द कश््ममीर वाला के संपादक
फहद शाह समेत कई अन््य पत्रकारोों को झूठी सूचनाएं फैलाने के नाम पर बिना मुकदमा चलाए जेल मेें बंद रखा गया है। गीता शेसु के
नेतृत््व मेें हुए सर्वेक्षण पर यकीन करेें, तो 2014 से 2019 के बीच भारत मेें 40 पत्रकारोों की हत््यया कर दी गई और इनमेें से कम-से-कम
21 अपने पत्रकारीय दायित््वोों को पूरा करने की वजह से मारे गए। दूसरी तरफ, पुलिस ने उस यूट्यूबर के खिलाफ किसी तरह की कोई
कार््रवाई नहीीं की जिसने पांच प्रमुख पत्रकारोों को फांसी पर चढ़ाने की खुली मांग की।

हम अपने भाग््य
के विधाता
अगर हम अपने लोकतंत्र और अपनी आजादी की कद्र करते हैैं, तो वोट देने
के अधिकार के उपयोग से आगे जाकर हमेें इनके लिए जूझना होगा

व र््ष 1944 मेें अमेरिकी न््ययायाधीश लर्नेड हैैंड ने लिखा


था, ‘आजादी लोगोों के दिलोों मेें होती है; अगर वह वहां
(दिलोों मेें) मर जाए, तो कोई संविधान, कोई कानून,
कोई अदालत ज््ययादा कुछ नहीीं कर सकती। अगर
वह वहां है, तो उसे बचाने के लिए किसी संविधान,
किसी कानून, किसी अदालत की जरूरत नहीीं।’ मैैंने अक््सर इन
शब््दोों के अर््थ पर विचार किया है। क््यया किसी व््यक््तति की निजी
आजादी की हर समय रक्षा न््ययायाधीश करते हैैं या फिर क््यया
यह सार््वजनिक और सामाजिक समझ पर निर््भर है कि उनके
लिए आजादी का मतलब क््यया है? इस नजरिये से हमेें भारत की
स््थथितियोों का भी विश््ललेषण करना चाहिए क््योोंकि संविधान मेें चाहे
बातेें कितनी भी सिद््धाांत-सम््मत और उचित क््योों न होों, व््यवहार
संजय हेगड़़े मेें आते-आते उनमेें साफ कमी रह जाती है।
ब्रिटिश शासन ने स््वतंत्र न््ययायाधीशोों द्वारा प्रशासित कानून के
शासन के वादे को पूरा किया। आजादी-पूर््व भारत के न््ययायाधीश की आजादी की रक्षा करना जिसका संविधान की प्रस््ततावना मेें औपनिवेशिक साम्राज््य के संरक्षण के लिए तैयार किया गया
औपनिवेशिक सरकार की सेवा मेें थे, फिर भी सर््ववाधिक तनावपूर््ण वादा किया गया है। कन््हहैया कुमार ने सही ही कहा कि ‘भारत पुलिस ढांचा आज भी एक चुनावी लोकतंत्र का आधार बना हुआ
क्षणोों मेें भी निष््पक्ष कार््रवाई की थोड़़ी-बहुत उम््ममीद रहती थी। मेें आजादी’ और ‘भारत से आजादी’ दो अलग-अलग चीजेें है। संविधान सभा मेें अपने अंतिम भाषण मेें डॉ. आम््बबेडकर ने
इसकी तस््ददीक उस समय का एक मामला करता है। यह था हैैं। पहले की रक्षा करना देशभक््तति वाली जिम््ममेदारी है जिसे भारत के नागरिकोों को कुछ चेतावनियां दी थीीं- आंदोलन से बचेें,
आईएनए मामला। आईएनए मामले मेें जब कैप््टन प्रेम सहगल जानबूझकर दूसरे के साथ जोड़़ा जा रहा है। पूरी तरह संवैधानिक साधनोों पर भरोसा करेें, नागरिक स््वतंत्रता
और उनके कामरेड साथियोों के खिलाफ लाल किले मेें मुकदमा हाल के वर्षषों मेें भारतीयोों के मन मेें भरा जा रहा है कि को महापुरुषोों के चरणोों मेें न रख देें और सामाजिक लोकतंत्र को
चलाया जा रहा था, तो उन््हेें सजा-ए-मौत दे दिए जाने की कर््तव््योों के बिना कोई अधिकार नहीीं हैैं। लेकिन इस तरह की देश के राजनीतिक लोकतंत्र का आधार बनाएं।
संभावना थी। उनके पिता सर अचरू राम तब लाहौर हाईकोर््ट मेें अवधारणा शासकोों को नागरिक अधिकार सुनिश््चचित करने के बाबा साहेब की इन तीनोों चेतावनियोों को नजरअंदाज कर
मुख््य न््ययायाधीश आर््थर ट्रेवर हैरीज के मातहत जज थे। बचाव उनके कर््तव््य से मुक््त करती है। नेताओं को देवता की तरह पूजने दिया गया है। आजादी के 75 साल बाद भारत एक असमान
पक्ष के वकीलोों की टीम की अगुवाई भूलाभाई देसाई करने वाले वाली राजनीति मेें असहमति राष्टट्रविरोधी हो गई है और व््यक््ततिगत समाज के कोलाहल वाला देश है जिसने अपने शासकोों
थे। अचरू राम ने बचाव पक्ष के वकीलोों के साथ समन््वय बैठाने मौलिक अधिकारोों के आग्रह की सामूहिक इच््छछा को गलत दिशा को चुनावी बहुमत से निरंकुश ताकत हासिल करने की
के लिए न््ययायाधीश के पद से इस््ततीफा देने का फैसला किया। मेें मोड़ने के तौर पर देखा जाता है। अनुमति दी है। किसी अलोकप्रिय राजनीतिक फैसले
वह अपना इस््ततीफा लेकर मुख््य न््ययायाधीश के पास गए लेकिन मनी लॉन््ड््रिगिं के मामलोों मेें सुप्रीम कोर््ट के हालिया फैसले को पलटने के लिए कभी-कभार सड़क पर निकलकर
उन््होोंने सलाह दी कि अचरू इस््ततीफा देने के बजाय केस के चलने के बाद आजाद भारत के भीतर नागरिक अधिकार निश््चचित आंदोलन का सहारा लिया जाता है लेकिन लोकतांत्रिक आचरण
तक के लिए छुट्टी ले लेें। रूप से इंग््लैैंड के राजा और भारत के सम्राट जॉर््ज पंचम के मेें लोगोों की भूमिका चुनाव प्रक्रिया मेें भाग ले लेना भर रह
इस प्रकार सर अचरू राम उस समय के सबसे महत््वपूर््ण समय की तुलना मेें कम हो गए हैैं। पीएमएलए मामले मेें भारत गई है। इससे ज््ययादा जवाबदेही लेने की भूख खत््म हो गई है।
मामलोों मेें से एक का समन््वय करने मेें सक्षम हो सके और के सर्वोच्च न््ययायालय ने उस कानून को बरकरार रखा है जो भारत की संस््थथाओं को मुख््यतः नौकरशाह चला रहे हैैं
जो बाद मेें भारत को आजादी देने के अंग्रेजोों के फैसले का एक प्रवर््तन निदेशालय के एक अधिकारी को अहिंसक आर््थथिक और ये सरकार पर अंकुश रखने की अपनी जिम््ममेदारी नहीीं निभा
महत््वपूर््ण कारण बना। भारत की आजादी के अमृत महोत््सव अपराधोों के लिए किसी को गिरफ््ततार करने, उसके खिलाफ लगाए रही हैैं। अगर भारतीय सभी स््तरोों पर लोकतांत्रिक संकल््पोों को
के मौके पर हमेें यह सवाल जरूर पूछना चाहिए कि क््यया आज गए आरोपोों के विवरण वाले दस््ततावेज की कॉपी उसे न देने, पुनर्जीवित नहीीं करते, हमारी नियति एक आजाद देश मेें बिना
हमारे पास नागरिकोों की स््वतंत्रता के वैसे ही निष््पक्ष संरक्षक हैैं? उसकी संपत्ति को कुर््क करने, मामला चलने तक जमानत न आजादी वाले नागरिकोों की हो जाएगी। डॉ. आम््बबेडकर ने हमेें
आज ब्रिटिश शासन से भारत की आजादी की 75वीीं वर््षगांठ देने जैसे अधिकार देता है। यहां तक कि अधिकारी को हिरासत यह भी बताया था– ‘... आजादी ने हम पर बड़़ी जिम््ममेदारियां
मनाते देश को यह भी पूछने की जरूरत है कि मेें किसी व््यक््तति का बयान दर््ज करने और ऐसे बयानोों को सबूत डाली हैैं। आजादी मिलने से हम कुछ भी गलत होने के लिए
आज एक आजाद देश के नागरिक के रूप मेें के तौर पर इस््ततेमाल करने की भी अनुमति है। ऐसी स््थथिति मेें अंग्रेजोों को दोष देने का बहाना खो चुके हैैं। अगर इसके बाद
मनी लॉन््ड््रििंग के मामलोों मेें सुप्रीम कोर््ट के हालिया फैसले हम कितने आजाद हैैं। हमारे पूर््वजोों ने विदेशी किसी पुलिसकर्मी को दिए गए बयान की सामान््य कानून मेें चीजेें गलत होती हैैं, तो हमारे पास दोष देने वाला कोई नहीीं
के बाद आजाद भारत के भीतर नागरिक अधिकार शासन से आजादी दिलाकर महान काम किया
लेकिन उससे भी बड़़ा काम आज हमारे कंधोों
स््ववीकार््यता नहीीं हैैं। फिर भी सर्वोच्च न््ययायालय ने नागरिकोों की
आजादी की कीमत पर कार््यपालिका की इस कठोर ताकत को
होगा। खुद के सिवा...’। भारत के हर नागरिक के लिए ‘ट्राईस््ट
विद डेस््टटिनी’ के प्रयास की रक्षा करने के लिए आगे आने का
निश््चचित रूप से इंग््लैैंड के राजा और भारत के सम्राट जॉर््ज पर है जिसे पूरा करने मेें हम अब भी लगे हुए बरकरार रखा है। समय आ गया है। n
हैैं। वह है भारत के भीतर अपने सभी नागरिकोों भारत ने विदेशी ताकतोों से तो आजादी बनाए रखी है
पंचम के समय की तुलना मेें कम हो गए हैैं को विचार, अभिव््यक््तति, मत, आस््थथा और पूजा लेकिन अपने नागरिकोों को वास््तविक आजादी नहीीं दी है। एक (लेखक सुप्रीम कोर््ट के वरिष््ठ अधिवक््तता हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

नेताजी और आजाद हिन््द फौजः घर मेें नजरबंद नेताजी सुभाष चंद्र बोस कलकत्ता से फरार हो गए और उन््होोंने भारत को आजाद कराने के लिए जर््मनी और जापान से मदद मांगी। उन््होोंने 1943 मेें आजाद हिन््द फौज की कमान संभाली और निर््ववासन मेें सरकार बनाई। रंगून से आजाद हिन््द रेडियो से प्रसारित अपने संदेश मेें उन््होोंने महात््ममा गांधी को ‘राष्टट्रपिता’ कहकर संबोधित किया और उनका आशीर््ववाद और उनकी शुभकामनाएं
मांगी। उनका नारा थाः ‘तुम मुझे खून दो, मैैं तुम््हेें आजादी दूंगा’।
www.navjivanindia.com

रविवार, 14 अगस््त 2022 स््वतंत्रता दिवस विशेष 9


कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी


इंटरनेट शटडाउन के रिकॉर््ड
दुनिया भर मेें कौन-सा ऐसा देश है जो इंटरनेट शटडाउन करने का लगातार रिकॉर््ड बनाने पर उतारू लगता है। 2014 मेें भारत मेें छह
बार शटडाउन किए गए। 2018 के बाद से हर साल 100 से अधिक बार शटडाउन किए जा रहे। 2021 का हाल जानिए। 34 देशोों मेें 182 बार
शटडाउन किए गए लेकिन इस दौरान अकेले भारत मेें यह संख््यया 106 थी। अगस््त, 2019 मेें अनुच््छछेद 370 हटाए जाने के बाद कश््ममीर का
विशेष दर््जजा खत््म कर दिया गया। यहां करीब छह महीने तक इंटरनेट शटडाउन रहा। जनवरी, 2020 मेें इसे चालू तो किया गया लेकिन
कनेक््टटिविटी मुश््ककिल ही रही। इन सबसे सिर््फ समाचारोों और सूचनाओं पर रोक नहीीं लग रही, ईकॉमर््स से लेकर टेली-हेल््थकेयर तक का
बुरा हाल है। सोचिए, हमलोग इंटरनेट कनेक््टटिविटी जरा-सा गड़बड़ाते ही कितने परेशान हो जाते हैैं जबकि जिन इलाकोों मेें कई दिनोों तक
शटडाउन होता है, वहां के लोग कितने परेशान हो जाते होोंगे। विभिन्न अधिकारोों के लिए सक्रिय एक््टटिविस््टोों की इस बात मेें दम है कि कानून-
व््यवस््थथा के नियंत्रण के नाम पर इस तरह का सामूहिक दंड अनुचित ही है। भारत ने यूट्यूब, फेसबुक, ट््वविटर और शेयरचैट को कन््टेेंट हटाने
को लेकर रिकॉर््ड संख््यया तक नोटिस दिए हैैं।

लोकतंत्र और बहुसंख््यकवाद का भेद


बहुसंख््यकवाद आधारित ही इस मान््यता पर है कि बहुसंख््यक समुदाय के पास अधिकार है कि वह अपनी मनमानी कर सके और
उस पर कोई रोक नहीीं। इसके विपरीत उदार लोकतंत्र सिर््फ निष््पक्ष और स््वतंत्र चुनाव से परिभाषित नहीीं होता

भा रतीय समाज मेें कभी ऐसा भी होगा, सोचा नहीीं


गया था। असहमतियां रहीीं। मतभेद रहे। दिलोों
मेें दूरियां कभी नहीीं रहीीं। कहने की जरूरत नहीीं
कि मुसलमान न सिर््फ भारत देश बल््ककि भारतीय
इतिहास का अभिन्न हिस््ससा रहा है। उनका खून भी
साझा हितोों मेें भारत के खून मेें मिला हुआ है। वह ‘मुसलमान’ हैैं
और ‘भारतीय’ हैैं। उनकी पहचान को लेकर कभी अंतर््वरवि ोध नहीीं
रहा। हाल के वर्षषों मेें उनकी पहचान बिगाड़ने या उन््हेें ‘पराया’ बताने
मसलकोों/पंथोों मेें बंटे हुए हैैं। वे अशरफ (उच्चजातीय समूह) और
अजलफ (निम्न जातीय समूह) जैसी कई परतोों वाली सामाजिक
व््यवस््थथा मेें जीते हैैं। यानी वे कोई एक समरूप आबादी नहीीं, फिर भी
उन््हेें पेश इस तरह किया जा रहा है जैसे वे न सिर््फ बहुसख्ं ्यक समाज
बल््ककि राष्टट्र की एकता और अखंडता के लिए भी गंभीर खतरा बन
गए होों। इस दुष्पप्रचार ने हाल के वर्षषों मेें बड़े पैमाने पर अल््पसंख््यक
मुसलमानोों और कुछ कम हद तक ईसाइयोों के खिलाफ समाज मेें
घोर नफरत का माहौल पैदा किया है। इस नफरत ने सामाजिक-
धार््ममिक, भाषाई, जनजातीय, यौनिक मसलन एलजीबीटीक््ययू के लिए
किसी तरह का भेदभाव न हो। कहना न होगा कि बहुसख्ं ्यकवाद
जब अति-धार््ममिकता पर केन्द्रित होता है, तो यह ‘धार््ममिक राष्टट्रवाद’
मेें तब््ददील हो जाता है और जहां धार््ममिक अल््पसंख््यकोों के लिए कोई
स््थथान नहीीं होता।
अल््पसंख््यकोों के प्रति घृणा बहुसख्ं ्यकवाद का खाद-पानी है
और संदहे नहीीं कि भारत अब तेजी के साथ बहुसख्ं ्यकवाद के फंदे
मेें फंसता जा रहा है। पहले गाहे-बगाहे होता था, अब यह आम
की जैसी कोशिशेें हुई हैैं, गहरी चिंता का विषय है। ऐसा नैरटे िव बनाने राजनीतिक पटल पर धार््ममिक ध्रुवीकरण को बहुत बढ़ावा दिया है। है और अल््पसंख््यक इसमेें पिस रहा है। ध््ययान देने योग््य लेकिन
के लिए बहुत सोचे-समझे तरीके से एक ऐसा रूढ़़िबद्ध तानाबाना बुना चुनाव के समय तो झूठ और नफरत का यह प्रचार अपने चरम पर खतरनाक बात यह भी है कि भारतीय समाज जिस तरह द्विखंडित
गया कि हैरत होती है। उन््हेें एक खास ढांचे मेें डालने की कोशिशेें हुई पहुचं जाता है। नजर आ रहा है उसमेें अगर आप बहुसख्ं ्यकवादी आख््ययान के साथ
हैैं। यह प्रक्रिया सतत जारी है। यहां दो तथ््य समझना बहुत जरूरी है। दुर््भभाग््यपूर््ण है कि समाज का शिक्षित वर््ग भी इस लोकतंत्र और सहमत नहीीं हैैं, तो आप जिहादी, अर््बन नक््सल या आईएसआई के
पहली बात यह कि समाज और संस््ककृति के सभी पहलुओं मेें बहुसख्ं ्यकवाद के बीच भेद नहीीं कर पा रहा। उन््हेें लगता है कि सिर््फ एजेेंट ही हो सकते हैैं! यह कोई भी, कहीीं भी तय कर दे रहा है! नदीम हसनैन
भारतीय मुसलमान पश््चचिम एशिया/मध््य पूर््व या अफ्रीकी मुसलमानोों निष््पक्ष और स््वतंत्र चुनाव से ही लोकतंत्र परिभाषित होता है (निष््पक्ष ऐसा लगता है कि हाशिये पर धकेलने की प्रक्रिया मेें मुसलमान
से बिल््ककुल भिन्न है क््योोंकि वह विशुद्ध रूप से ‘हिन््ददुस््ततानी’ है। और स््वतंत्र चुनाव पहले से सवालोों मेें है)। वास््तविकता यह है कि इस तरह मजबूर किया जा रहा है कि वह दूसरे दर्जे का नागरिक होना
स््ववीकार कर ले और अंततः ‘कहीीं का भी नहीीं’ बनकर रह जाए।
यह आत््मसम््ममान से जीने की उसकी हिम््मत को तोड़ने की योजना
का हिस््ससा जैसा नजर आता है।
बहुसख्ं ्यकवादी राष्टट्र की पहली प्राथमिकता होती है कि किसी
भी तरह बहुसख्ं ्यक समुदाय को एक वोट बैैंक के रूप मेें संगठित
कर दिया जाए। तमाम सामाजिक विविधताओं वाले समाज के गर््व
को झुठलाते हुए यह तभी संभव है जब उसके सामने एक समान,
साझा दुश््मन रखा जाए और एक ‘खतरनाक अल््पसंख््यक’ इस
खांचे मेें आसानी से फिट हो सकता है। यानी अल््पसंख््यकोों को
हाशिये पर धकेलने की ऐसी जुगत जहां वे देश के राजनीतिक जीवन
मेें भी अप्रासंगिक हो जाते हैैं। गौर करना होगा
कि हमारी मौजूदा भारतीय संसद मेें मुसलमानोों
का प्रतिनिधित््व अपने न््ययूनतम स््तर पर है। कई अल््पसंख््यकोों के प्रति घृणा बहुसंख््यकवाद का खाद-
राज््योों की विधानसभाओं मेें तो यह शून््य है।
भारतीय मुसलमानोों को अदृश््य कर देने
पानी है और संदेह नहीीं कि भारत अब तेजी के साथ
की मुहिम की शुरुआत मुगल शासकोों के नाम बहुसंख््यकवाद के फंदे मेें फंसता जा रहा है। पहले गाहे-
वाले शहरोों और स््थथानोों को बदलने से हुई।
अगले चरण मेें शायद वे नाम या शब््द ही बगाहे होता था, अब यह आम है और अल््पसंख््यक इसमेें
बदल दिए जाएं जहां से ‘उर््ददू’ या ‘मुस््ललिम’
जैसा कुछ ध््वनित भी होता हो। वे इतिहास से
पिस रहा है। ध््ययान देने योग््य लेकिन खतरनाक बात यह
बाहर किए जा रहे हैैं। इतिहास की पाठ्यपुस््तकोों भी है कि भारतीय समाज जिस तरह द्विखंडित नजर आ
मेें या तो उनका जिक्र शून््य किया जा रहा है या
वे खलनायक दिखाए जाने लगे हैैं। ऐसे नाम रहा है उसमेें अगर आप बहुसंख््यकवादी आख््ययान के
के रूप मेें जिनका राष्टट्र निर््ममाण मेें कभी कोई
योगदान नहीीं रहा।
साथ सहमत नहीीं हैैं, तो आप जिहादी, अर््बन नक््सल या
देश की मौजूदा राजनीतिक सत्ता तो उन््हेें आईएसआई के एजेेंट ही हो सकते हैैं! यह कोई भी, कहीीं
हाशिये पर ढकेल ही रही है, दुःख की बात है
कि वृहत्तर समाज का सर््मथन भी चाहे-अनचाहे भी तय कर दे रहा है!
इस मुहिम को मिल रहा है। विडंबना है कि
दूसरी बात यह कि न तो वे एक ‘सांस््ककृतिक समुदाय’ हैैं (क््योोंकि जब एक बहुसख्ं ्यक समुदाय यह मान बैठे कि उसके पास एक प्रभुता बहुत से लोग जो इससे सहमत नहीीं हैैं, उन््हेें भी यह अभी तक
भारतीय मुसलमानोों की कोई एक साझी संस््ककृति नहीीं है और वे संपन्न अधिकार है कि वह जब चाहे अपनी मर्जी और पसंद को ‘उतना गंभीर’ नहीीं दिख रहा। नहीीं भूलना चाहिए कि रक््त कैैंसर
अलग-अलग क्षेत्रीय संस््ककृतियोों मेें जीते हैैं) और न ही वे एक संपर्
ू ्ण समाज पर थोप सकता है, तो यह लोकतंत्र की हत््यया की ओर जैसी जानलेवा बीमारी भी हल््कके-फुल््कके बुखार से ही शुरू होती है।
एथनिक (विशेष जाति से, धर््म से संबधित ं ) आबादी के रूप मेें देखे एक निर््णणायक कदम है। कहने की जरूरत नहीीं कि बहुसख्ं ्यकवाद कोई राष्टट्र इतनी बड़ी उपेक्षित, असंतष््ट ु , निराश और
जा सकते हैैं। वे विभिन्न भाषाओं और बोलियोों के साथ विविधतापूर््ण आधारित ही इस मान््यता पर है कि बहुसख्ं ्यक समुदाय के पास अलग-थलग कर दी गई अल््पसंख््यक आबादी के साथ शांति और
पहचान की परतेें लिए एक वृहत्तर जटिल भारतीय समाज का हिस््ससा अधिकार है कि वह अपनी मनमानी कर सके और उस पर कोई प्रगति के रास््तते पर कैसे जा सकता है, राष्टट्र को गंभीरता से इस पर
हैैं। उनको लद्दाख जैसे क्षेत्ररों मेें एक भाषायी/प््राांतीय/प्रजातीय श्रेणी मेें रोक नहीीं। इसके विपरीत उदार लोकतंत्र सिर््फ निष््पक्ष और स््वतंत्र विचार करना चाहिए, वृहत्तर समाज को भी। इससे पहले कि बहुत
देखा जा सकता है, तो जम््ममू-कश््ममीर के विभिन्न भागोों मेें वे गद्दी और चुनाव से परिभाषित नहीीं होता। उससे आगे भी बहुत कुछ है। उसे देर हो जाए। n
बकरीवाल जैसी अनुसचित ू जनजातियोों के रूप मेें मिलते हैैं। संपर् ू ्ण समावेशी होना होता है जहां व््यवस््थथाएं आम सहमति से चलती हैैं।
भारत मेें वे सुन्नी, शिया, खोजा, बोहरा, अहमदिया या कादियानी के जो समाज के कमजोर और वंचित तबके के सशक््ततिकरण के लिए (लेखक लखनऊ विश््वविद्यालय मेें एंथ्रोपोलॉजी विभाग
रूप मेें हैैं। इन परतोों के अंदर वे देवबंदी, बरेलवी, अहले हदीस जैसे काम करे और जिसके मूल मेें किसी भी प्रकार के अल््पसंख््यक- के पूर््व प्रोफेसर और हेड हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

संविधान सभाः डॉ. राजेन्दद्र प्रसाद की अध््यक्षता मेें इसकी सभा 9 दिसंबर, 1946 को हुई। न््ययायविद बी.एन. राव इसके सलाहकार बनाए गए जबकि बाबा साहब डॉ. भीमराव आम््बबेडकर ड्राफ््टटििंग कमेटी के अध््यक्ष बनाए गए। काफी विचार-विमर््श के बाद सभा ने 26 नवंबर, 1949 को यह मसौदा स््ववीकार किया। अपना यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को अंगीकार किया गया।
10 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022

कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी


एक किस््म की संस््ककृति का संरक्षण
अगर आप खास किस््म के कपड़े पहनते हैैं, टोपी-नकाब पहनते हैैं, अगर आप ऐसा खाना पसंद करते हैैं जिन पर हाल के दिनोों मेें एक
खास धर््म का ठप््पपा लग गया है, तो समझिए, आप खतरे मेें हैैं। विभिन्न भाजपा-शासित राज््य सरकारेें जरूरी संख््यया मेें सरकारी बूचड़खाने
तो बनवा नहीीं पा रही हैैं लेकिन उसने मांसाहार बेचने वाली छोटी दुकानोों को जगह-जगह बंद जरूर करवा दिए हैैं। योगी आदित््यनाथ और
उनसे प्रेरित होकर विभिन्न सरकारेें किसी-न-किसी बहाने अल््पसंख््यकोों के घर-दुकान बुलडोजर से गिरवा रही हैैं। अहमदाबाद, बड़ोदरा,
भावनगर और जूनागढ़-जैसे इलाकोों मेें स््थथानीय निकायोों के आदेश से सड़क किनारे पर मीट और अंडे बेचने वालोों की दुकानेें तहस-
नहस कर दी गईं। स््ववाभाविक है कि इनमेें से अधिकांश मुसलमानोों की थीीं। कर््ननाटक मेें पूजा के सामान, यहां तक कि फूल भी मुस््ललिम
दुकानदारोों से न खरीदने की अपील की गई। विभिन्न हिस््सोों मेें यह अभियान चलाया जा रहा कि लोग सब््जजी से लेकर राशन और अन््य
सामान मुस््ललिम दुकानदारोों से न खरीदेें। आकार पटेल ने इस अंक मेें पेज 12 बताया है कि इस किस््म की कई चीजेें तो बिना सरकारी आदेश
ही हो रही हैैं। यही हाल ईसाइयोों के साथ है। 2014 मेें उनके खिलाफ सिर््फ 12 हमले हुए थे, अभी पिछले साल यह संख््यया 486 हो गई।

हमेें जागना होगा, नहीीं महान कलाकारोों को सुनने; उनके संगीत, उनके नृत््य, उनकी ईश््वर-
परायणता को प््ययार करने का मौका मिला। हम खुशकिस््मत हैैं कि उन
लोगोों ने सहेजकर रखी अपनी परंपराओं को अपने बच्चचों और अपने
शिष््योों को देकर उन््हेें जिंदा रखा। भारत के हर बच्चे की परंपरा, उसका
और सज्जन लोगोों ने अपनी बातेें कहीीं और इस दुनिया को छोड़कर
चले गए। लोग अपने आपको समझाना चाहते हैैं कि आज जो हो रहा
है, उससे कोई फर््क नहीीं पड़ता। लेकिन ऐसा नहीीं है, इससे फर््क पड़ता
है। यह हमारी नीींव को हिला देता है। यह हमारी प्राथमिकताओं को

तो नृत््य थम जाएगा
अतीत और इतिहास यही है। आखिर हम कब गौरव के साथ यह बात प्रभावित करता है। आखिरकार केवल एक चीज जो वास््तव मेें मायने
कहकर इन््हेें अपना बनाएंग?े रखती है वह है हर बच्चे की आंखोों मेें विश््ववास की चमक। सुदं रता
आखिर वह क््यया है जो हमेें इतना अलग बनाता है। कोई मस््जजिद की सराहना और परंपराओं का सम््ममान हो, यह जरूर मायने रखता है।
मेें इबादत करता है, कोई गुरुद्वारे मेें अरदास करता है, कोई चर््च मेें हर धार््ममिक नेता मंच से यह कहता है कि सभी धर््म अच््छछे हैैं और हर
प्रार््थना करता है तो कोई मंदिर मेें पूजा करता है। लेकिन हम उन््हीीं धुनोों आदमी इसे सच मानता है। जब तक सहनशीलता है, जब तक दूसरे
को प््ययार करते हैैं, एक ही तरह के रागोों को अलापते हैैं, ढोल पर एक इंसान की तकलीफ को समझने की गुज ं ाइश है, तब तक आशा है।
जैसे ताल को बजाते हैैं, हम एक ही तरीके का खाना (दाल-रोटी) हमारी कलाओं के अखिल भारतीय स््वरूप के प्रति सरकार की
पसंद करते हैैं, एक ही तरह से लजीज पान का आनंद उठाते हैैं, उन््हीीं संवदे नशीलता बहुत कम है। उसे यह समझ मेें नहीीं आता है कि यह
क्रिकेटरोों से प््ययार करते हैैं। गीत के जिन बोलोों को सुनकर मेरी आत््ममा हमारी विविधता ही है जो हमेें ताकत देती है। सरकार हमेें यह सोचने
तक खुश हो जाती है, उन््हेें सुनकर उसके चेहरे पर भी मुस््ककान आ के लिए मजबूर करती है कि ‘जो बहुमत के लिए अच््छछा है, वही
जाती है। और जब कोई महामारी आती है, तो हिन््ददू, मुस््ललिम, सिख, सबके लिए अच््छछा है’। लेकिन यह नजरिया सही नहीीं। हमेें सभी की
इस देश की मिट्टी मेें रचे-बसे विभिन्न धार््ममिक मतोों समेत भारत की परंपराओं की बहुलता और ईसाई- सभी एक-दूसरे के काम आते हैैं। अगर इतना कुछ एक-सा है
और उसके बाद भी हमेें एक-दूसरे मेें अंतर दिखता है, तो वाकई हमारी
जरूरतोों के प्रति संवदे नशील रहना चाहिए। लोगोों की अभिव््यक््तति,
उनकी आस््थथा और निजता के अधिकार का लोकतांत्रिक तरीके से
विविधता को स््ववीकार करना चाहिए। हमारी परंपराएं अनमोल हैैं। इन््हेें शैक्षिक पाठ्यक्रम से सोच बहुत बीमार हो चुकी है।
हम जिस भुरभुरी ‘धर््मनिरपेक्षता’ पर गर््व करते हैैं, उसके लिए हम
पालन करने के लिए जगह बनाई जानी चाहिए।
अगर भारतीयोों के पास ऐसी शिक्षा नहीीं है जो उनकी सोचने-
सिर््फ इस वजह से नहीीं हटा दिया जाना चाहिए कि वे किसी खास धार््ममिक रंग के हैैं क््यया कीमत चुका रहे हैैं? अगर हम इस स््थथिति के खतरोों को नहीीं देखते
हैैं, तो हमारा घर शर््ततिया तबाह हो जाएगा। अगर हम अपने स््ककूलोों मेें
समझने की क्षमताओं, उनकी जातीय संवदे नशीलता और उनके
इतिहास बोध को विकसित कर सके, तो ऐसे मेें राजनीतिक आजादी
सार््वभौमिक धर््म की शिक्षा देना शुरू नहीीं करते; अगर हम किसी भी का बहुत कम असर होगा। हाल की घटनाओं से पता चलता है कि

ये कलाएं ही हैैं जिन््होोंने अतीत से लेकर वर््तमान तक कठिन


परिस््थथितियोों मेें तरह-तरह के बलिदान देकर भारत की मूर््त
और अमूर््त कलाओं की विभिन्न अभिव््यक््ततियोों को जिंदा
रखा है। बात चाहे लोक कला की हो, मार््शल आर््ट््स की
हो, आदिवासी कला की हो या फिर शास्त्रीय और कर््मकांड
संबधं ी कलाओं की- भारत मेें आधुनिक या समकालीन अभिव््यक््तति की
महत््वपूर््ण कड़़ियोों को उसकी कलाओं ने ही बचाए रखा है। आज अगर
हम एक राष्टट्र के रूप मेें अपनी महान सांस््ककृतिक परंपराओं पर गर््व
कर पाते हैैं तो यह इन््हीीं के बलिदानोों के कारण है।
धर््मनिरपेक्षतावादियोों को इस देश की मिट्टी मेें रचे-बसे विभिन्न
धार््ममिक मतोों समेत भारत की परंपराओं की बहुलता और विविधता
को स््ववीकार करना चाहिए। हमारी परंपराएं अनमोल हैैं। इन््हेें हमारे
लीला सैमसन शैक्षिक पाठ्यक्रम से सिर््फ इस वजह से नहीीं हटा दिया जाना चाहिए
कि वे किसी खास धार््ममिक रंग के हैैं। हो सकता है कि मैैं जन््म से हिन््ददू
नहीीं होऊं लेकिन मेरी कला की अभिव््यक््तति, मेरे उत््सव मनाने के
तरीके से मैैं जरूर हिन््ददू हू।ं हो सकता है कि मैैं जन््म से मुस््ललिम नहीीं
होऊं लेकिन मुस््ललिम कलाएं हमारी जमीन पर बेधड़क फली-फूलीीं
और इन््होोंने इस देश और यहां के लोगोों को अकल््पनीय तरीके से
समृद्ध किया है।
सार््वभौमिक मायनोों मेें मैैं कहीीं ज््ययादा धर््मनिरपेक्ष हूं क््योोंकि क््योोंकि
मैैं ऐसे माहौल मेें पली-बढ़ी जिसमेें मेरे चारोों ओर कई तरह के प्रभाव
थे। यह संभव हो सका क््योोंकि मैैं भारतीय हू।ं हमारे पास विभिन्न
जन-समूहोों की भाषाओं और संस््कति कृ योों को साझा करने का क््यया
शानदार अवसर है!
मैैं मानती हूं कि यूरोप के वैज्ञानिक, आर््थथिक और राजनीतिक
विचारोों के समावेश ने भारत मेें राष्ट्रीय स््वतंत्रता आंदोलन के निर््ममाण
मेें योगदान दिया और इसलिए यह भारतीय राष्ट्रीय चेतना के महत््वपूर््ण
तत््वोों मेें से एक है। लेकिन क््यया यह उन वैज्ञानिक,
आर््थथिक, राजनीतिक और सांस््कति कृ क विचारोों को
हमारी कलाओं के अखिल भारतीय स््वरूप के प्रति नकार देता है जो आजादी के आंदोलन से पहले
सरकार की संवेदनशीलता बहुत कम है। उसे यह समझ यहां मौजूद थे और जो आज भी हमारे जीवन के
लिए प्रासंगिक हैैं?
मेें नहीीं आता है कि यह हमारी विविधता ही है जो हमेें ताकत यह कोई बहुत पुरानी बात नहीीं है जब पश््चचिमी आवेदन को लिखते समय उपनामोों पर जोर देना बंद नहीीं करते हैैं; हम उच्च शिक्षा के लाभ कमाने वाले क्षेत्र पर तो जोर दे रहे हैैं लेकिन
दुनिया हमेें आदिम के रूप मेें देखा करती थी। अगर हम तथाकथित वंचित लोगोों की अधिक से अधिक श्रेणियोों के निचले स््तर पर बच्चे ज्ञानवान बनेें, इसकी कोई चिंता नहीीं है। केन्द्रीय
देती है। सरकार हमेें यह सोचने के लिए मजबूर करती है उन््होोंने बहुत जल््ददी हमारी व््यवस््थथाओं को लिए सीटोों का आरक्षण बंद नहीीं करते हैैं; अगर हम चिल््लला कर प्रार््थना संस््थथानोों का इस््ततेमाल संकीर््ण राजनीतिक एजेेंडे को आगे बढ़़ाने के
कि ‘जो बहुमत के लिए अच््छछा है, वही सबके लिए अच््छछा ‘पिछड़़ा’ करार दे दिया। हो सकता है कि वे सही
होों। हालांकि वे अक््सर गलत थे और हमेें उनसे
करने के लिए माइक्रोफोन का इस््ततेमाल बंद नहीीं करते हैैं; अगर हम
सभी अपने विविध धर्ममों और पहचानोों के इस बेमिसाल चरित्र का
लिए किया जा रहा है।
हम इन असाधारणताओं के साथ कैसे जीएंग?े आखिर कब हम
है’। लेकिन यह नजरिया सही नहीीं। हमेें सभी की जरूरतोों सहमत होने की कोई जरूरत भी नहीीं है। पश््चचिम उत््सव नहीीं मनाते हैैं; अगर हम अपने राष्टट्रगान को और अधिक जोश अपनी कलाओं का मोल समझेेंग?े क््यया कोई नेता भारत की सॉफ््ट
मेें सब अच््छछा है, ऐसा भी नहीीं है। तर््कसंगत सोच के साथ गाना शुरू नहीीं करते हैैं, तो एक देश और इसके नागरिक के पावर की ताकत और क्षमता को नहीीं समझता? क््यया भारत की जीडीपी
के प्रति संवेदनशील रहना चाहिए। लोगोों की अभिव््यक््तति, की लड़़ाई मेें हमारी विरासत को नकारा नहीीं जाना तौर पर हमारा सत््ययानाश तय है। हमेें उठना होगा, नहीीं तो नृत््य ‘ठहर’ ही उसके विकास का अकेला पैमाना है? n
उनकी आस््थथा और निजता के अधिकार का लोकतांत्रिक चाहिए। हमेें कई देशोों से बहुत कुछ सीखना है और
दूसरे देशोों को हम से।
जाएगा और संगीत हमारे होठोों और दिलोों से गायब हो जाएगा।
हमारी जिंदगी से पवित्रता की दृढ़ लेकिन प््ययार भरी आवाज गायब (लेखिका भरतनाट्यम नृत््ययाांगना,
तरीके से पालन करने के लिए जगह बनाई जानी चाहिए हम खुशकिस््मत हैैं कि हमेें अपने समय के हो चुकी है। यह आवाज हमारी अपनी होनी चाहिए। एक से एक महान कोरियोग्राफर और लेखिका हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

भारत विभाजनः लंदन के बैरिस््टर सिरिल रेडक््ललिफ को भारत और पाकिस््ततान के बीच सीमाएं निर््धधारित करने के लिए पांच हफ््तते का वक््त दिया गया। उनके पास इस किस््म का अनुभव नहीीं था, फिर भी उन््होोंने दो सीमा आयोगोों का नेतृत््व किया। 14-15 अगस््त को भारत छोड़ने से पहले उन््होोंने अपने सभी दस््ततावेज जला दिए। सीमाओं की घोषणा 17 अगस््त को की गई।
www.navjivanindia.com

रविवार, 14 अगस््त 2022 स््वतंत्रता दिवस विशेष 11


कितने आजाद हैैं हम?

हमारी खत््म होती आजादी


अब विपक्ष ‘मुक््त’ भारत की बातेें
देश की राजधानी मेें राष्टट्रपति भवन और संसद भवन के आसपास प्रदर््शनोों से निबटने के सरकारी तौर-तरीके को सबने देखा। वैसे, लोग भूले
नहीीं हैैं कि बाद मेें प्रधानमंत्री बनने वाले भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी कीमतोों मेें बढ़ोतरी की ओर सरकार का ध््ययान खीींचने के लिए
संसद तक बैलगाड़ी से गए थे। विपक्ष मेें रहते हुए भाजपा नेता गैस सिलेेंडर, प््ययाज, सब््जजी और न जाने क््यया-क््यया लेकर प्रदर््शन करते रहते थे।
ये ऐसे थे ताकि कैमरे से उनकी फोटो ठीक से खीींची जा सके। लेकिन सरकार मेें आने के बाद से वे नहीीं चाहते कि इस किस््म के प्रदर््शन होों
और इसलिए धारा 144 के अंतर््गत प्रतिबंधात््मक आदेश तुरत-फुरत और व््ययापक पैमाने पर लगा दिए जाते हैैं। अभी प्रवर््तन निदेशालय (ईडी)
कम-से-कम 126 विपक्षी नेताओं के खिलाफ जांच कर रहा है। ईडी, सीबीआई, इनकम टैक््स आदि का उपयोग विपक्षी सरकारोों को गिराने
और भाजपा की सरकार बनाने के लिए जिस किस््म से किया जा रहा, उसका ताजा उदाहरण महाराष्टट्र है। तब ही तो, भाजपा अध््यक्ष जेपी
नड्डा यह कहने का साहस कर पा रहे कि देश मेें क्षेत्रीय पार््टटियां खत््म हो रही हैैं और जो खत््म नहीीं हुईं, वे हो जाएंगी, सिर््फ भाजपा ही बचेगी।
लेकिन बिहार उनकी बातोों का जवाब है।

जो आजादी हासिल है, उसे कैसे रखेें महफूज


जब कल के लोदी से कबीर सच बोलने मेें नहीीं डरे, तब हम आज के मोदी से सच बोलने मेें क््योों डरेें? लोकतंत्र
मेें निडर और बुलंद आवाज से ही आजादी बचेगी और इसका दायरा भी बढ़ेगा

भा रत को आजाद हुए 75 साल पूरे हो गए हैैं। आज


जब पूरा देश आजादी का ‘अमृत-महोत््सव’ मना
रहा है, तब कुछ ऐसे जरूरी सवाल हैैं जो हर
नागरिक को खुद से पूछना चाहिए। मसलन, क््यया
आजादी कोई वरदान है कि एक बार मिल गई सो
मिल गई- अब न इसे संजोने की जरूरत है न ही इसके दायरे
को बढ़ाने की जरूरत है! आजादी न भीख है, न वरदान। कहते
हैैं कि कल का गुलाम ही आज का बागी होता है और बागी के
भारत को एक संपूर््ण प्रभुत््व-संपन्न, समाजवादी, धर््मनिरपेक्ष
लोकतांत्रिक गणराज््य बनाने के लिए संकल््पबद्ध हैैं। यह जश्न है
राज््य सत्ता और व््यक््तति के बीच हुए उस समझौते का जहां सत्ता
‘जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा’ तय होगी। यह जश्न
है देश का देश के लोगोों से बनने का। यह जश्न है हमारे पुरखोों
के संघर््ष और बलिदान का।
यह जश्न हम इसलिए मनाते हैैं ताकि हमेें यह याद रहे कि
आजाद देश मेें आजादी से जिंदगी जीने के हमारे हक-हुकूक के
शोर न बने। आजादी का अधिकार और अहसास लोगोों के परस््पर
सहयोग और सहअस््ततित््व पर टिका होता है।
इतिहास गवाह है कि किसी लोकतांत्रिक व््यवस््थथा मेें ही सबकी
आजादी और आजादी के उच्चतम मूल््योों को प्राप््त किया जा सकता
है। भारत और भारतीय समाज मेें लोकतंत्र की जड़ेें काफी गहरी
हैैं। भारत का इतिहास हर दौर मेें किसी भी प्रकार की गुलामी
थोपे जाने और उससे मुक््तति प्राप््त करने की प्रक्रिया को अपने
अस््ततित््व मेें समाहित किए हुए है। तर््क, विचार, दर््शन, साहित््य
संघर््ष से ही आजादी की दास््ततान लिखी जाती है। जिस आजाद लिए लोगोों ने अपनी जिंदगी कुर््बबान की है। जब हम जश्न मना रहे और विज्ञान की बात करेें या किसी ठहरे हुए पानी की तरह सड़ रही
देश मेें आजादी की गूंज बंद हो जाए, वहां आजादी का बागवान हैैं, तब यह प्रश्न लाजमी है कि जो आजादी हमेें हासिल है, उस व््यवस््थथा के खिलाफ शौर््य और संघर््ष की, स््थथापित सत्ता को सत््य
भी सुरक्षित नहीीं बचता है। जिस प्रकार गुलामी थोपी जाती है, ठीक आजादी को हम आने वाली पीढ़ी के लिए कैसे महफूज रखेें और से चुनौती देने की कहानियोों से हमारा इतिहास भरा पड़़ा है। जहां
उसके उलट आजादी हासिल की जाती है। इसके दायरे को कैसे बढ़ाएं ताकि समाज के अंतिम व््यक््तति तक तक मौजूदा समय मेें आजादी, लोकतंत्र और नागरिक अधिकारोों
आज हम जिस आजादी का जश्न मना रहे हैैं, वह एक प्रकार इसकी पहुंच सुनिश््चचित की जा सके। इस बात का ध््ययान रखना का सवाल है जिसमेें निजता का अधिकार भी शामिल है। 15 कन््हहैया कुमार
अगस््त, 1947 से लेकर अब तक हमारे देश ने कई उतार-चढ़ाव
देखे हैैं। इसमेें कोई दो राय नहीीं है कि उत्तर-औद्योगिक समाज
मेें औद्योगिक क््राांति के दौर मेें निर््ममित आजादी की समझ और
लोकतंत्र के दायरे को विस््ततार देने की जरूरत है ताकि मौजूदा
समय के अंतर््वविरोधोों का ठीक से सामंजस््य किया जा सके। आज
जिस तरीके से संदर््भ के बिना आधा सच या पूरा झूठ को डिजिटल
माध््यमोों का सहारा लेकर फैलाया जा रहा है, यह आधुनिक भारत
की एकता, अखंडता, आजादी और लोकतंत्र के लिए गंभीर चुनौती
बन चुका है।
जिस तरह से वैज्ञानिक टूल का इस््ततेमाल अंधविश््ववास,
नफरत और झूठ को फैलाने मेें किया जा रहा है, जिस तरह से
धर््म, आस््थथा और भावना के नाम पर लोगोों के बुनियादी अधिकारोों
पर हमले हो रहे हैैं, यह बेहद खतरनाक है। जिस लोकतंत्र और
आजादी के अधिकार से जो लोग गद्दी पर बैठे हैैं, वही अपने से
अलग विचार रखने वालोों का दमन कर रहे
हैैं, अपने विरोधियोों को जेलोों मेें ठूस रहे हैैं,
देश की सुरक्षा के लिए बनी संस््थथाओं और
जिस लोकतंत्र और आजादी के अधिकार से जो लोग
एजेेंसियोों का बेजा इस््ततेमाल अपनी कुर्सी की गद्दी पर बैठे हैैं, वही अपने से अलग विचार रखने वालोों
रक्षा के लिए और आम लोगोों की बुनियादी
जरूरतोों को पूरा न कर पाने की नाकामी को का दमन कर रहे हैैं, अपने विरोधियोों को जेलोों मेें ठूसं रहे
छुपाने के लिए कर रहे हैैं। जनता के टैक््स
से पुलिस की लाठी खरीदकर जनतंत्र को
हैैं, देश की सुरक्षा के लिए बनी संस््थथाओं और एजेेंसियोों
लाठीतंत्र बनाने के इस षड्यंत्र को रोकना का बेजा इस््ततेमाल अपनी कुर्सी की रक्षा के लिए और
बहुत जरूरी है, वरना जितनी आजादी और
लोकतंत्र इस देश के आम लोगोों के हिस््ससे आम लोगोों की बुनियादी जरूरतोों को पूरा न कर पाने की
आई है, उनको भी बचाना मुश््ककिलोों से भरा
होगा। यह नहीीं भूलना चाहिए कि आजादी
नाकामी को छुपाने के लिए कर रहे हैैं। जनता के टैक््स से
महज दिखावे और फैशन की वस््ततु नहीीं है। पुलिस की लाठी खरीदकर जनतंत्र को लाठीतंत्र बनाने के
कहीीं ऐसा न हो कि फैशन के दौर मेें आजादी
की गारंटी ही न चली जाए। जैसे पुरखे के इस षड्यंत्र को रोकना बहुत जरूरी है
बनाए घर को भी साफ-सफाई और समय-
समय पर मरम््मत की जरूरत होती है, वैसे
की मानसिक, शारीरिक और वैचारिक गुलामी से आजादी का बहुत आवश््यक है कि कहीीं ऐसा न हो कि एक व््यक््तति या समूह ही लोकतंत्र और आजादी को भी लगातार बचाना और बढ़ाना होता
जश्न है। यह जश्न है ऊंच-नीच और भेदभाव वाली व््यवस््थथा के की आजादी किसी दूसरे व््यक््तति और समूह के लिए गुलामी का है। उम््ममीद है कि खतरा चढ़ा है, तो उतरेगा भी क््योोंकि इतिहास का
बरक््स समतामूलक और न््ययायपूर््ण व््यवस््थथा को निर््ममित करने के सबब बन जाए। यदि इन सवालोों पर बार-बार विचार न किया जाए सबक यही है कि जब कल के लोदी से कबीर सच बोलने मेें नहीीं
सुंदर सपने का। यह जश्न है भारत मेें विविधता की एकता और तो इस बात का खतरा जरूर है कि मुठ्ठी भर ताकतवर लोग अपने डरे, तब हम आज के मोदी से सच बोलने मेें क््योों डरेें? लोकतंत्र
एकता मेें विविधता का। यह जश्न है साझी शहादत और साझी स््ववार््थ मेें बड़ी चालाकी से आजादी का असल मायने ही बदल देें। मेें निडर और बुलंद आवाज से ही आजादी बचेगी भी और इसका
विरासत का। यह जश्न है समानता के उस अहसास का जो कहीीं ऐसा न हो कि आजादी का तर््क देते हुए ही यह न साबित किया दायरा भी बढ़ेगा।
जन््म, जाति, धर््म, भाषा, संस््ककृति, मान््यता और पहचान से परे जाने लगे कि जैसे किसी को जीने की आजादी है, वैसे ही किसी को आजाद देश मेें आजादी की सभी देशवासियोों को बधाई! n
हर नागरिक को बराबरी का अधिकार देता है। यह जश्न है उस मारने की भी स््वतंत्रता है; कहीीं ऐसा न हो कि लोकतंत्र का मजा लेते
अधिकार का जहां राष्टट्रपति और चपरासी के वोट का मूल््य बराबर हुए लोकतंत्र का ही गला घोोंटा जाने लगे। आजादी की समझदारी (लेखक कांग्रेस नेता और जेएनयू छत्रसंघ
होता है। यह जश्न है उस सपने का जिसमेें ‘हम, भारत के लोग’ इस बात पर निर््भर करती है कि हमारा संगीत किसी और के लिए के पूर््व अध््यक्ष हैैं।)

इस तरह लड़ा गया आजादी का आंदोलन

आजादीः 15 अगस््त, 1947 को देश आजाद हुआ। इस मौके पर देश भर मेें चारोों ओर उत््सव का माहौल था। लेकिन महात््ममा गांधी बंगाल मेें हुई सांप्रदायिक हिंसा को शांत करने मेें लगे हुए थे। उन््होोंने एक दिन पहले प्रार््थना सभा मेें कहा थाः ‘कल से हम अंग्रेजी राज से मुक््त हो जाएंगे लेकिन आधी रात को भारत के दो टुकड़े भी हो जाएंगे। कल का दिन आनंद का होगा लेकिन उतने ही दुख का भी होगा। आजादी का ऐसा आगमन मुझे
आनंदित नहीीं कर रहा। यह आजादी हमेें एक बहुत बड़ी जिम््ममेदारी सौौंप रही है। हमेें अपना विवेक और भाईचारा नहीीं छोड़ना है।’
12 स््वतंत्रता दिवस विशेष
www.navjivanindia.com
रविवार, 14 अगस््त 2022
Published Date 14 August 2022 (Sunday), Posting Days Friday and Saturday

जिस भारत को हम
कर रहे अपवित्र
दिल््लली के प्रगति मैदान मेें स््थथित हॉल ऑफ नेशंस
भारतीय स््थथापत््य क्षमता का एक हैरान कर देने
वाला स््ममारक था। संयोग ही है कि इसका उद््घघाटन
1972 मेें भारत की आजादी के 25 साल पूरे होने
के मौके पर किया गया था। जब अप्रैल, 2017 मेें
इसे रातोों-रात ध््वस््त कर दिया गया, तो जाने-माने
वास््ततुकारोों, वास््ततुकला इतिहासकारोों, संरक्षणवादियोों
और संग्रहालयोों की अपीलोों, विरोधोों और याचिकाओं
पर उस समुदाय मेें सन्नाटा छा गया जो वास््तव मेें
जानता था कि इस प्रतिष््ठठित संरचना का यह निष््ठठुर
विध््ववंस क््यया दर््शशाता है। यह स््वतंत्र भारत की पहचान
बने साइनपोस््टोों से छुटकारा पाने की हड़बड़़ाहट
दिखाता है।

नित््यन उन्नीकृष््णन की कलाकृति

हम अब भी आजाद क््योों हैैं


नागरिक स््वतंत्रता पर हाल के हमलोों के बाद भी अपने भविष््य को फिर आकार देने की जगह बची हुई
है। ‘हमारा भविष््य पूर््वनिर््धधारित नहीीं है और हमारा भाग््य अब तक नहीीं लिखा गया है’

इ स सवाल ‘हम कितने आजाद हैैं?’ के दो जवाब हैैं।


एक नकारात््मक है और दूसरा सकारात््मक। पिछले
कुछ वर्षषों का सर्वेक्षण करते हुए इस भाव से बच
निकलना आसान नहीीं है कि हमलोग खास तरीके से
आजाद नहीीं हैैं। 2014 बल््ककि खास तौर से 2019 से
भारत उस मार््ग पर तेजी से चलने लगना है जिसे भारतीय जनता
पार्टी ने चुना है। सरकार और उसकी तरफ से शक््ततिशाली बनाए
की मिलीभगत थी या वह दूसरी तरफ देख रही थी।
अभी हाल मेें कर््ननाटक ने वयस््कोों समेत छात्राओं के हिजाब
पहनकर कॉलेज आने पर रोक के लिए कानून पारित किया।
उपद्रवी भीड़ ने तुरंत मोर््चचा संभाल लिया, वे युवतियोों को सवालोों
से तंग करने लगे और जल््द ही उन परिसरोों मेें शिक्षिकाओं
और प्रोफेसरोों तक को हिजाब उतारने को बाध््य किया गया,
कई को जिन जगहोों पर वे काम करती थीीं, वहां प्रवेश से पहले
गए उपद्रवियोों ने हमारे अल््पसंख््यकोों को प्रताड़ित करने के नए हिजाब उतार देने को कहा गया। कोर््ट ने व््यक््ततिगत आजादी
और मौलिक तरीके खोज निकाले हैैं। और अल््पसंख््यक अधिकारोों के खिलाफ आदेश दिया। मार््च,
भारत के अपने नागरिकोों को आंतरिक तौर पर लक्षष्य कर 2022 मेें कर््ननाटक मेें मंदिरोों के पास और मंदिर मेलोों मेें सामान
बनाया गया प्रखर हिन््ददू राष्टट्रवाद अधिक पागल और अधिक बेचने वाले मुस््ललिम व््ययापारियोों पर रोक का आह्वान किया गया।
प्रतिशोधी बन गया है। सोशल मीडिया पर अल््पसंख््यक अप्रैल, 2022 मेें शहरोों ने नवरात्रि के हिन््ददू त््ययोहार के लिए
आकार पटेल भारतीयोों ने जो कटु अनुभव और घोर पीड़ा की अभिव््यक््तति मीट की बिक्री पर रोक लगाना आरंभ कर दिया। अप्रैल मेें
की है, वह उनलोगोों के लिए धक््कका है जो उस गंभीरता के ही उत्तर प्रदेश, मध््य प्रदेश, गुजरात और फिर, दिल््लली मेें
बारे मेें नहीीं जानते जो कुछ हो रहा है। यह बात भय पैदा मुसलमानोों के घरोों और व््ययावसायिक जगहोों पर बुलडोजर
करने वाली है कि उनके दर््द को लेकर बहुसंख््यक बेपरवाह हैैं दौड़ा दिए गए। सुप्रीम कोर््ट ने ‘यथास््थथिति बनाए रखने’ का
और इस उत््पपीड़न पर कई हिन््ददुओं को खुशी तो नहीीं लेकिन आदेश दिया, पर डेढ़ घंटे तक उसकी अनदेखी कर सरकार ने
वस््ततुतः उनकी संतष््टटि
ु की अभिव््यक््तति देखी जा रही है। सोशल वहशत जारी रखी।
मीडिया ने इस तरीके से भारतीयोों को पूरी तरह बेपर््ददा कर मुसलमानोों के सामने मस््जजिदोों के बाहर उपद्रवियोों ने उपद्रव
दिया है जो पिछले दशकोों मेें ध््ययान देने वाली नहीीं रही थीीं। किया और अपमानजनक भाषा का उपयोग किया। कई कथित
ध््ययान देने वाला दूसरा घटनाक्रम हिन््ददू उपद्रवियोों को यथेष््ट ‘धर््म संसदोों’- जबकि वे उस किस््म के नहीीं थे- ने मुसलमानोों
अधिकार देने का सरकारी हस््तताांतरण है। राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र के खिलाफ नरसंहार का खुला आह्वान किया। सरकार ने
मेें सरकार ने खुले मेें जुम््ममे की नमाज के लिए जगहेें निर््धधारित उनलोगोों के खिलाफ कड़ी कार््रवाई नहीीं की और न््ययायपालिका
कर रखी थीीं। ऐसा इसलिए कि लाखोों प्रवासी दिल््लली क्षेत्र मेें ने उसे देखा नहीीं। नफरत फैलाने और अपमानजनक भाषा का
काम कर रहे हैैं और नमाज के लिए स््थथानीय मस््जजिद पास मेें उपयोग करने वालोों को उजागर करने वालोों को ही जेल भेज
नहीीं मिलती। कई हफ््तोों तक जब उपद्रवियोों ने उनकी नमाज दिया गया, जैसा कि फैक््ट चेकर मोहम््मद जुबेर के साथ हुआ। 2021 और 2022 मेें भारत ‘चिंताजनक स््थथिति वाला देश’ ने बिना सलाह-मशविरा किए पारित कानूनोों को न सिर््फ वापस
मेें बाधा पहुंचाई, तो हरियाणा सरकार ने इसके लिए दी गई 2018 से शुरू होकर सात भाजपा-शासित राज््योों- उत्तराखंड, रहा। इस द्विदलीय और अमेरिकी संघीय सरकार के स््वतंत्र लेने को सरकार को बाध््य किया बल््ककि उन््होोंने प्रधानमंत्री से
अनुमति दिसंबर, 2021 मेें वापस ले ली। पिछले महीने गुजरात हिमाचल प्रदेश, मध््य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, कर््ननाटक, हरियाणा हिस््ससे ने 2022 मेें भारतीय अधिकारियोों और सरकारी एजेेंसियोों माफी मांगने को कहा और उन््होोंने ऐसा किया भी।
के चार शहरोों- अहमदाबाद, बड़ोदरा, भावनगर और जूनागढ़ और गुजरात ने अंतरधार््ममिक विवाह को अपराध बना दिया। पर प्रतिबंधोों की सिफारिश की है, हालांकि अब तक ऐसा नहीीं हमारा भविष््य पूर््वनिर््धधारित नहीीं है और हमारा भाग््य अब
मेें भाजपा नियंत्रित स््थथानीय निकायोों ने मीट और अंडे बेचने संसद मेें बताया गया है कि ‘लव जिहाद’ का अस््ततित््व नहीीं है हुआ है। भारत कब तक दुनिया की अनदेखी कर सकता है तक नहीीं लिखा गया है। हममेें कई तरीकोों से इसे प्रभावित
वालोों को सड़कोों से भगा दिया और इनमेें निश््चचित ही अधिकतर लेकिन इस मृगमरीचिका के मुद्दे पर सतर््कता काफी फैली हुई और दुनिया उनकी कब तक अनदेखी कर सकती है जो भारत करने की क्षमता बचा रखी है। हिन््ददुत््व का राजनीतिक विरोध
मुसलमान थे। ऐसा बिना किसी लिखित आदेश के किया गया और सामान््य बात है। ईसाइयोों के खिलाफ हमले के आंकड़े मेें हो रहा है- यह सवाल ऐसा है जिसका जवाब जल््द ही देना कमजोर है, पर यह अब भी है। कई राज््योों मेें कट्टरता पर चुनाव
और जब वेन््डर के साथ नृशंस व््यवहार किया गया, तो सरकार दर््ज हैैं- 2014 मेें इनकी संख््यया 127 थी, अगले साल 142, होगा। भारत वैश््वविक रंगमंच पर बेहतर भूमिका की महत््ववाकांक्षा हावी रहा है। न््ययायपालिका मेें बहुसंख््यक मामलोों पर सरकार
फिर 226, फिर 248, 2018 मेें 292, 2019 मेें 328, 2020 रखे हुए है लेकिन उसका वर््तमान व््यवहार उस महत््ववाकांक्षा को रोकने को लेकर हिचकिचाहट है (और निस््ससंदेह कई बार
कोर््ट ने व््यक््ततिगत आजादी और अल््पसंख््यक अधिकारोों के खिलाफ आदेश के महामारी वाले वर््ष मेें 279 और 2021 मेें 486 हो गई।
कर््ननाटक मेें ईसाइयोों के खिलाफ हमलोों पर पीपुल््स यूनियन फॉर
के खयाल से बेमेल है। आधुनिकता उन देशोों के लिए
झटका होगा जो समय के अनुरूप सभ््यता को लेकर
मिलीभगत तक भी देखी जा सकती है) लेकिन यह तकनीकी
और संविधानिक तौर पर स््वतंत्र है। मीडिया ने सरकार का काम
दिया। मार््च, 2022 मेें कर््ननाटक मेें मंदिरोों के पास और मंदिर मेलोों मेें सामान बेचने सिविल लिबर्टीज (पीयूसीएल) की रिपोर््ट मेें बताया गया कि
चर्चचों और घरोों पर उपद्रवियोों की हिंसा मेें पुलिस की मिलीभगत
अपनी मध््यकालीन मानसिकता छोड़ने मेें हिचकिचाते हैैं।
अनिच््छछुक देशोों को आधुनिकता मेें घसीटकर लाया जाएगा- इसे
स््ववेच््छछा से सरकारी प्रोपेगैैंडा से ज््ययादा ही उत््ससाह के साथ और
अधिक प्रभावी ढंग से किया है और फिर भी वह आजाद है।
वाले मुस््ललिम व््ययापारियोों पर रोक का आह्वान किया गया। अप्रैल, 2022 मेें शहरोों थी और इस वजह से कई जगह संडे मास रोक देने पड़े। धर््म लेकर कोई संदेह नहीीं है। सिविल सोसाइटी पर लगातार हमले हो रहे हैैं, पर यह अब भी
ने नवरात्रि के हिन््ददू त््ययोहार के लिए मीट की बिक्री पर रोक लगाना आरंभ कर प्रचार पर सतर््क हमले (यह विडंबनापूर््ण ही है कि ये दंडनीय
और भारत मेें मूलभूत अधिकार के खिलाफ अपराध हैैं) जारी हैैं
इस अंधकारमय वक््त मेें भारत के अंदर भी आशा बनी
हुई है। बहुलतावादी मूल््योों के संदर््भ मेें 2021-22 की अवधि
उत््ससाहित प्रतिरोध कर रहा है। संविधान अक्षुण््ण है।
इसलिए जगह है। इसका उपयोग किया ही जाना चाहिए। n
दिया। अप्रैल मेें ही उत्तर प्रदेश, मध््य प्रदेश, गुजरात और फिर, दिल््लली मेें और ये उत््ससाही सरकार द्वारा सक्षम बनाए जा रहे हैैं।
इन सबकी ओर दुनिया ने ध््ययान दिया। अंतरराष्ट्रीय धार््ममिक
हमारे सबसे बुरे मेें से एक है। फिर भी, यह एक ऐसा साल है
जिसमेें बेहतर नागरिक अधिकार संघर््ष लड़ा गया और सरकार (लेखक पत्रकार, मानवाधिकार
मुसलमानोों के घरोों और व््ययावसायिक जगहोों पर बुलडोजर दौड़ा दिए गए स््वतंत्रता पर अमेरिकी आयोग मेेंं तीन साल तक- 2020, के खिलाफ प्रतिरोधियोों ने जीत हासिल की। भारत के किसानोों कार््यकर््तता और लेखक हैैं।)

प्रकाशकः पवन कुमार बंसल; संपादकः राजेश झा; पवन कुमार बंसल द्वारा दि एसोसिएटेड जर््नल््स लिमिटेड, हेराल््ड हाउस, 5-ए, बहादुर शाह जफर मार््ग, नई दिल््लली- 11002 की ओर से प्रकाशित एवं मुद्रित। दि एसोसिएटेड जर््नल््स लिमिटेड,
हेराल््ड हाउस, 5-ए, बहादुर शाह जफर मार््ग, नई दिल््लली-110002 और दि इंडियन एक््सप्रेस (प्रा.) लिमिटेड प्रेस, ए-8, सेक््टर-7, नोएडा- 201301, उत्तर प्रदेश से मुद्रित।

You might also like