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Navjivan E Paper 14th August 2022
Navjivan E Paper 14th August 2022
Navjivan E Paper 14th August 2022
सोनिया गांधी
गायब होती जा रही है आजादी.................................. 3
पुरुषोत्तम अग्रवाल
जिंदा लाशोों को आजादी की क््यया जरूरत ..................... 4
सुधीन्दद्र कुलकर्णी
हम शुरू करेें बहुआयामी स््वतंत्रता की मांग................ 5
सलमान खुर्शीद
मुश््ककिल मेें आजादी............................................ 6-7
संजय हेगड़े
हम अपने भाग््य के विधाता..................................... 8
नदीम हसनैन
लोकतंत्र और बहुसंख््यकवाद का भेद ....................... 9
लीला सैमसन
हमेें जागना होगा, नहीीं तो नृत््य थम जाएगा...............10
कन््हहैया कुमार
जो आजादी हासिल है, उसे कैसे रखेें महफूज..............11
आकार पटेल
हम अब भी आजाद क््योों हैैं......................................12
एक राष्टट्र के तौर पर हम अपने 75 साल पूरे कर चुके हैैं। यह वक््त है ठहरकर यह सोचने का कि इस यात्रा के दौरान हमने क््यया पाया, क््यया खोया। गांधी जिन््हेें हम देश
को आजादी दिलाने का श्रेय देते हैैं, अगर वे होते तो आज की हालत देखकर उनके मन मेें क््यया खयाल आते। समित दास की यह कलाकृति हमारी अंतरात््ममा से शायद
यही सवाल कर रही है। यह भी सोचने का वक््त है कि जवाहरलाल नेहरू जिन््हेें गांधीजी ने आजाद भारत की अनजान और मुश््ककिल भरी यात्रा मेें देश को रास््तता दिखाने
की जिम््ममेदारी सौौंपी; जिस नेहरू ने ‘नेशनल हेरल््ड’ और ‘नवजीवन’ अखबारोों को शुरू किया और इसे भविष््यदर्शी टैगलाइन दिया- आजादी खतरे मेें है, इसे अपनी
पूरी ताकत लगाकर बचाएं, अगर वे आज होते तो उनके दिलोदिमाग मेें क््यया सवाल पैदा होते। आजादी की सालगिरह पर हमने कुछ जाने-माने भारतीयोों से इस सवाल का
जवाब जानना चाहा कि ‘आज हम कितने आजाद हैैं?’ उनके विचार देश मेें एक नई शुरुआत की पृष््ठभूमि तैयार करते दिख रहे हैैं।
2 स््वतंत्रता दिवस विशेष
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रविवार, 14 अगस््त 2022
सिर उठाता राष्टट्रवाद और को ज््ययादा तूल दिया गया तो एक सीमा के बाद यह स््वतंत्रता के विचार
के लिए नुकसानदायक हो सकता है। उन््होोंने देखा था कि यूरोप मेें कैसे
अति-राष्टट्रवाद के रास््तते पर चलने वाले इटली और जर््मनी मेें आखिरकार
क्रूर फासीवाद ने जगह बना ली थी।
तैरता-विचरता न हो।
इक््ककीसवीीं सदी मेें अपनी ‘आंतरिक शक््तति’ को मजबूत करने और
अप्रासंगिक हो चुकी ऐतिहासिक पहेलियोों की बात करके लोकतंत्र को
ताकतवर नहीीं बनाया जा सकता। जो राजनीति अपनी वैधता के लिए
चंपारण, दांडी मार््च, बारदोलीः स््वतंत्रता आंदोलन की ये तीन महत््वपूर््ण युगांतकारी घटनाएं हैैंंः चंपारण सत््ययाग्रह जब नील की खेती करने से किसानोों ने मना कर दिया, बारदोली सत््ययाग्रह (1928) जब गुजरात मेें किसानोों ने ज््ययादा टैक््स देने से इनकार कर दिया और नमक सत््ययाग्रह (1930) जब लोगोों ने नमक कर देने से मना कर दिया और नमक कानून को तोड़ते हुए नमक बनाया। इन तीनोों ही घटनाओं ने दिखा दिया कि कैसे
सत््य पर अहिंसक तौर पर अटल रहते हुए भी ब्रिटिश सरकार को अपना रवैया बदलने को बाध््य किया जा सकता है।
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जलियांवाला बागः 1919 के रॉलेट एक््ट ने महज संदेह के आधार पर किसी को हिरासत मेें लेने और गिरफ््ततार करने का सरकार को अधिकार दे दिया। जब लोग 19 अप्रैल को बैशाखी का उत््सव मनाने पंजाब के जलियांवाला बाग मेें इकट्ठा हुए और गिरफ््ततार किए गए नेताओं की रिहाई की उनलोगोों ने मांग रखी, तो उन पर गोलियां बरसाई गईंं। सरकारी आंकड़ा तो 291 लोगोों की ही मृत््ययु का था लेकिन गैरसरकारी आंकड़े 500 से अधिक
लोगोों की शहादत के थे। इस नरसंहार ने देश भर मेें गुस््ससा भर दिया क््योोंकि जलियांवाला बाग मेें मारे गए लोग निःशस्तत्र थे और गोली चलाए जाने से पहले उन््हेें कोई चेतावनी भी नहीीं दी गई थी।
4 स््वतंत्रता दिवस विशेष
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रविवार, 14 अगस््त 2022
जिंदा लाशोों को आजादी इस््ततेमाल किया जाता है, कुछ ऐसा जो शासक और राज््य का कर््तव््य
था और उसे यह सुनिश््चचित करना था- धार््ममिकता और भय से मुक््तति।
कानून सिर््फ कानून नहीीं, उससे बढ़कर कुछ था और व््यवस््थथा का
मतलब लोगोों का भय मुक््त होना था। भयमुक््त समाज बनाने के बजाय
लेता, कोई जमीनी चर््चचा भी नहीीं! गोमूत्र पार््टटियां कोविड की मारक
डोज के रूप मेें सामने आ जाती हैैं, कोई गुस््ससा या नाराजगी नहीीं,
कोई सवाल नहीीं!
पादरी, धर््मशास्तत्र के विद्वान, नाजी विरोधी और गांधी के प्रशंसक
की क््यया जरूरत
पहले से भयभीत जनता पर ‘व््यवस््थथा’ थोपने का विचार कहां तक डिट्रिक बोनहोफर को अप्रैल, 1945 मेें फलोसेनबर््ग के यातना शिविर
और कितना जायज है।’ मेें मार डाला गया। उनके विचार हमेें सामूहिक मूर््खताओं की निर््ममितियोों
ऐसे मेें हमारी आजादी की 75वीीं सालगिरह के मौके पर हमेें यह और उनके प्रसार के पीछे की शैतानी मनोदशाओं के बारे मेें सतर््क
सवाल पूछना ही होगा कि भारतवासी और इसके नागरिक के तौर करते हैैं। उन््होोंने लिखाः “मूर््ख व््यक््तति प्रायः जिद्दी होता है और हमेें
पर हम आज कितना स््वतंत्र महसूस करते हैैं? सात साल पहले, इस तथ््य से आंख नहीीं मूदं लेनी चाहिए कि वह स््वतंत्र नहीीं है। वह
आपातकाल की 40वीीं वर््षगांठ पर एक टेलीविजन चर््चचा के बीच एंकर एक जादू के वशीभूत है, अंधा हो चुका है, उसका दुरुपयोग हो रहा है
ने मुझे मौजूदा सरकार के दौरान ‘अघोषित आपातकाल’ की आशंका और वह किसी के दुर््व््यवहार का शिकार है। इस प्रकार एक ‘नासमझ
जताने वाला एक अलार््ममिस््ट कह कर निशाने पर लिया था। लेकिन उपकरण’ मेें तब््ददील हो चुका मूर््ख व््यक््तति हर बुराई से लैस, कैसी भी
अब तक तो ऐसे लोगोों को भी यह बात समझ मेें आने लगी है कि बुरी हरकत करने को हमेशा तत््पर होगा और उसे इस बात का इल््म
कानून का घोर दुरुपयोग, विपक्ष की आवाज को मनमाने तरीके से भी नहीीं होगा कि इसमेें कुछ गलत भी है। यहीीं पर शैतानी दुरुप्रयोग
हर अधिनायकवादी बहस भावनाओं पर सबसे पहले कब््जजा करती है, दबाने की कोशिश, बुद्धिजीवियोों का तिरस््ककार, ‘चौकसी’ की आड़ मेें
खौफनाक हत््ययाएं, मुसलमानोों को खासकर टार्गेट किया जाना और
का बड़ा खतरा मंडराता है क््योोंकि यही है जो इंसानियत को हमेशा के
लिए नष््ट कर सकता है।”
तार््ककिकता पर चोट करती है और यही कारण है कि वह व््यक््ततिपरक लोगोों के घरोों-प्रतिष््ठठानोों पर बुलडोजर चलाकर परपीड़ा मेें अट्टहास-
आखिर क््यया है!
अधिनायकवादी राजनीति हमेशा तर््ककिकता और बौद्धिकता
की बदनामी पर फलती-फूलती है (मुहावरा ‘बौद्धिक आतंकवाद’
‘अनुभवोों’ को वस््ततुनिष््ठ साक्षष्य पर हावी कर देती है परिदृश््य का सबसे चिंताजनक पहलू लोकतांत्रिक संस््थथाओं का
ध््ववंस और दैनिक लोकाचार के न््ययूनतम प्रतिमानोों का सिकुड़ते जाना ही
याद करेें)। यही उसका खाद-पानी है। इसी तरह आप लोगोों को
कट्टरपंथियोों मेें तब््ददील करके उन््हेें आत््मघाती मिशन पर भेजते हैैं।
नहीीं, जनमानस का इसे मिल रहा खुला समर््थन है। बहुत ही सुचिति ं त यही कारण है कि हर अधिनायकवादी बहस भावनाओं पर सबसे
और संगठित तरीके से तथ््योों के साथ छेड़छाड़, एक काल््पनिक दुनिया पहले कब््जजा करती है, तर््ककिकता पर चोट करती है और यही वह
रचते हुए जड़बुद्धि-मूर््खतापूर््ण हरकतोों को बढ़ावा देते जाने का नतीजा कारण है जब व््यक््ततिपरक ‘अनुभवोों’ को वह वस््ततुनिष््ठ साक्षष्य पर
पूर््ण स््वराजः 1929 मेें जवाहरलाल नेहरू की अध््यक्षता मेें हुए कांग्रेस के लाहौर अधिवेशन मेें पार्टी का लक्षष्य ‘पूर््ण स््वराज’ घोषित किया गया। ऐसा भी पहली बार हुआ कि रावी नदी के तट पर तिरंगा फहराया गया। इस मौके पर 26 जनवरी को स््वतंत्रता दिवस मनाने का प्रस््तताव भी पारित किया गया। आजादी के आंदोलन के दौरान यही हमारा स््वतंत्रता दिवस था। उस वक््त झंडे मेें अशोक चक्र की जगह चरखे का उपयोग किया जाता था।
बाद मेें, 15 अगस््त, 1947 को आजादी की घोषणा हुई और तब उस दिन स््वतंत्रता दिवस मनाया जाने लगा। तिरंगे मेें चरखे की जगह चक्र का उपयोग किया जाने लगा। 26 जनवरी, 1950 को हमने अपना संविधान अंगीकार किया इसलिए उसे गणतंत्र दिवस के तौर पर मनाते हैैं। (झंडे का यह चित्र अभिलेखी वीडियो से लिया गया है)
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भारत छोड़ो आंदोलनः अगस््त, 1942 आते-आते यह साफ हो गया कि अंग्रेज भारत को आजाद नहीीं करना चाहते बल््ककि उसे औपनिवेशिक देश या अधिराज््य (डॉमिनियन रूल) का दर््जजा देना चाहते हैैं। इस पर महात््ममा गांधी ने ‘अंग्रेजोों, भारत छोड़ो’ का नारा दिया। इस पर देश भर मेें सभी कांग्रेस नेताओं को गिरफ््ततार कर लिया गया। लेकिन इससे आमलोगोों मेें इतना आक्रोश भर गया कि वे आजादी के लिए ‘करो या मरो’ के आह्वान मेें
भागीदार हो गए। बड़े पैमाने पर की गई गिरफ््ततारियोों और सरकारी दमन का भी उन पर असर नहीीं हुआ।
6 स््वतंत्रता दिवस विशेष
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रविवार, 14 अगस््त 2022 7
'आजादी खतरे मेें है, इसे अपनी पूरी ताकत लगाकर बचाएं'
भारतीय साहित््य, कला, मूर््ततिकला, सिनेमा इत््ययादि मेें आजादी की सोच से जुड़़ी विविध सांस््ककृतिक अभिव््यक््ततियोों की एक झलक। न सिर््फ आजादी का मूल
मुश््ककिल मेें आजादी
भाव बल््ककि आजादी का एहसास भी। कौन-सी स््वतंत्रता मिली और कौन-कौन सी अपेक्षित स््वतंत्रताएं अधूरी या अतृप््त रह गईं भारत की आजादी की 75वीीं सालगिरह को बड़़े जोश-ओ-खरोश के साथ अमृत महोत््सव के तौर पर मनाया जा रहा
है और इस मौके पर हमारी इच््छछा मोर की तरह नाचने की हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरोों को
वी, द चिल्ड्रेन ऑफ इंडिया (2010) काला पहाड़ (2004)
1
1. गर््म हवा
6 नजरअंदाज नहीीं कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैैं
लीला सेठ भगवान दास मोरवाल
हिमाचल प्रदेश की स््वर्गीय मुख््य न््ययायाधीश लीला सेठ की यह किताब संविधान को निर्देशकः एमएस सथ््ययू, 1974
भा
मेवात ऐसा इलाका है
किताबेें लेकर युवा पाठकोों को रोचक और जानकारीपरक छोटी-छोटी बातेें विस््ततार से बताती हैैं। जिसका सामाजिक तानाबाना
भारत क््योों लोकतांत्रिक गणराज््य है, हम धर््मनिरपेक्ष क््योों हैैं और समाजवाद से मतलब 2. गांधी रत की आजादी की 75वीीं सालगिरह को बड़़े जोश- चलने, तय शब््दोों को बोलने और खुद को विविधता मेें एकता की जगह
विभाजन की त्रासदी मेें भी ओ-खरोश के साथ अमृत महोत््सव के तौर पर मनाया इकरंगे स््वरूप मेें देखने को आजाद है। यह आजादी नहीीं। हम मेें से
किस तरह की संरचना है- इन सब विषम मुद्ददों की यह खुलकर पड़ताल करती है। अप्रभावित रहा। लेकिन बाबरी निर्देशकः रिचर््ड एटनबरो, 1982 जा रहा है। व््ययापक भारतीय अस््ततित््व मेें रची-बसी कुछ का मानना है कि आजादी से मतलब तब तक गलती करने से है
ध््ववंस के बाद की सांप्रदायिकता विभिन्न उप-संस््ककृतियोों पर गर््व करने वालोों की नजर जब तक यह किसी और की आजादी नहीीं छीनती हो। यह समझना
मेें यह एक बेहतरीन मौका हो सकता था जब अलग- होगा कि आजादी अराजक होने का न््ययोता नहीीं है। मानव प्रकृति मेें
ने यहां किस तरह पैठ बनाई, 3. घरे बाइरे अलग मत-पंथ का पालन करने वालोों, अलग-अलग भाषाएं बोलने विविधता और असंतोष को समायोजित करने की महान क्षमता है:
मिडनाइट््स चिल्ड्रेन (1981) राग दरबारी (1968) यह उसी का जमीनी वृत््ताांत है। निर्देशकः सत््यजीत रे, 1984 वालोों के साथ मतभेदोों को भुलाकर बेहतर तालमेल बैठाया जाता। लोकतंत्र का सार भी यही है। जिन््हेें विविधता और असंतोष की समझ
सलमान रुश््ददी श्रीलाल शुक््ल इससे कोई फर््क नहीीं पड़ता कि कुछ लोग इसे एक सियासी या चुनावी नहीीं, उन््हेें निश््चचित ही लोकतंत्र की भी समझ नहीीं होगी। चुनावी जीत
जब भारत आजाद हुआ, उस मध््य रात्रि मेें जन््ममा सलीम सिनाई आजाद भारत मेें आजाद भारत की सामाजिक फायदा उठाने के मौके के तौर पर देखते हैैं। इसकी वजह यह है कि चाहे कितने भी विशाल बहुमत से हासिल हुई हो, इस तरह की सोच
जीता है और दो देशोों की यात्रा का वृत््ताांत उपस््थथित करता है। वह विशेष शक््ततियोों से संरचना, सरकारी संस््थथाओं 4. भारत एक खोज (टीवी उन नागरिकोों के लिए यह क्षण वाकई उत््सव का है जो राष्टट्र और हमारे कि यह जीतने वाले को जैसे चाहे, वैसे शासन करने की खुली छूट देता
संपन्न है और उसकी कथा भारत, पाकिस््ततान और बांग््ललादेश से होकर गुजरती है। और समाज का क्रिटीक रचता सीरियल, 53 एपिसोड) राष्ट्रीय जीवन की चिंता करते हैैं। है, वैसा ही हुआ मानो 'भीड़ का कानून' या निर््ववाचित तानाशाही। किसी
75 वर्षषों की यह यात्रा उन प्रतिज्ञाओं का प्रतिफल पाने की रही है शासक के पक्ष मेें आया चुनावी जनमत उसे अच््छछी-खासी ताकत और
इसमेें सांप्रदायिक हिंसा, उत््पपीड़न और बांग््ललादेश की आजादी का विवरण भी है। उपन््ययास। जैसे-जैसे समाज की निर्देशकः श््ययाम बेनेगल 1988-89
सलमान खुर्शीद जो जवाहरलाल नेहरू ने 15 अगस््त, 1947 की आधी रात को की थी। मौका देता है कि वह अपनी विचारधारा के मुताबिक शासन को आकार
ऊपरी परत मेें भ्रष््टटाचार और इस यात्रा के दौरान हम चुनौतीपूर््ण, उठापटक वाले और विजयी क्षणोों दे, लेकिन यह काम संविधान द्वारा निर््धधारित घेरे के भीतर ही हो सकता
द आइडिया ऑफ इंडिया धोखाधड़ी जड़ेें मजबूत करती जा 2
5. तमस (टीवी मिनीसीरीज) 5
से होकर गुजरे हैैं। दुनिया के देशोों के बीच अपनी खास पहचान के साथ है, उसकी अवहेलना करके नहीीं।
मथिल््ककुल (दीवारेें) (1965) रही हैैं, यह और प्रासंगिक होता निर्देशकः गोविंद निहलानी, 1988 स््थपित होने की उम््ममीदोों के बीच हमारी इच््छछा मोर की तरह नाचने की मशहूर फिल््म गीतकार जावेद अख््तर अपनी हालिया नज््म 'नया
(1997) वाइकॉम मोहम््मद बशीर फिल््मेें हो सकती है लेकिन हम अपने उन बदसूरत पैरोों को नजरअंदाज नहीीं हुकमनामा' मेें कहते हैैं:
सुनील खिलनानी जा रहा है। कर सकते जो कड़वी और अप्रिय हकीकत की याद दिलाते हैैं।
1940 के दशक मेें जेल मेें दीवारोों के आरपार रहने वाले प्रेमी जोड़े की यह मजबूत 6. लगान इस थीम के इर््द-गिर््द 1980 हमारे विचार मेें दो शब््द सबसे अहम होने चाहिए- आजादी और किसी का हुक््म है
खिलनानी का विश््ललेषण इस मलयाली प्रेम कथा है। ये एक-दूसरे को देख नहीीं सकते लेकिन अपनी भावनाएं के दशक मेें काफी सारी समानता। लोकतंत्र के इन दोनोों गुणोों के बीच रिश््तोों और स््पर््धधा के इस गुलिस््तताां मेें बस इक रंग के ही फूल होोंगे
बात का उत्तर देने का प्रयास पहुंचा सकते हैैं। एक दिन अचानक एक को जेल से रिहा करने का आदेश आता है निर्देशकः आशुतोष गोवरीकर, फिल््मोों-टीवी सीरियलोों का कई आयाम हो सकते हैैं। लेकिन हमारी व््ययावहारिक समझ यही है कुछ अफसर होोंगे जो तय करेेंगे
है कि क््यया मौलिक नेहरूवादी लेकिन वह दुखी हो जाता है क््योोंकि उसने आजाद होने की ख््ववाहिश ही नहीीं की थी। 2001 निर््ममाण हुआ। कि हमने स््वतंत्रता की कामना केवल इसके अंतर््ननिहित मूल््योों के लिए गुलिस््तताां किस तरह बनना है कल का
विचार अब भी प्रासंगिक हैैं। नहीीं की बल््ककि इसलिए भी की कि यह न््ययाय, सामाजिक, आर््थथिक और यकीनन फूल तो यक-रंगीीं होोंगे
राष्टट्रवादी और समाजवादी राजनीतिक समानता के लक्षष्ययों को पाने मेें मददगार होगी। लेकिन यह मगर ये रंग होगा कितना गहरा कितना हल््कका
सैद््धाांतिक आधार से लेकर नव 3 4 तकलीफ देने वाली बात है कि हमारा अनुभव पूरी स््पष््टता के साथ ये अफसर तय करेेंगे
टोबा टेक सिंह (1954) बता रहा है कि समानता क्षत-विक्षत हो चुकी है क््योोंकि आजादी गंभीर किसी को कोई ये कैसे बताए
उदारवादी पूंजीवाद झुकाव तक संकट मेें है। गुलिस््तताां मेें कहीीं भी फूल यक-रंगी नहीीं होते
भारत की यात्रा को लेकर इसमेें सआदत हसन मंटो यह अफसोस की बात है कि ऐसे मौके पर जब हम अपने गौरवपूर््ण कभी हो ही नहीीं सकते
विचार किया गया है और इस इसमेें लाहौर मानसिक अस््पताल मेें रह रहे लोगोों के बहाने कथा बुनी गई राष्ट्रीय चरित्र और उपलब््धधियोों की बखान कर रहे होते, एक गंभीर कि हर इक रंग मेें छुपकर बहुत से रंग रहते हैैं
दौरान जिन विरोधाभासोों और आप किसी चित्र है। विभाजन के बाद उन््हेें अपने-अपने देश मेें जाने की इजाजत दे दी गई है। और चिंताजनक वास््तविकता की ओर ध््ययान खीींचने के लिए मजबूर जिन््होोंने बाग-ए-यक-रंगीीं बनाना चाहे थे
विडंबनाओं से देश को जूझना का मुंह दीवार सिख होने की वजह से बिशन सिंह को भारत भेज दिया जाता है। लेकिन उसे जब हम आजादी हैैं। 'ट्राईस््ट विद डेस््टटिनी' की दृष््टटि पर सवालिया निशान लगाने वाली उनको जरा देखो
घटनाओं को लिखने बैठेें, तो यह ऐसी दुखदायी प्रक्रिया होगी कि हर कि जब इक रंग मेें सौ रंग जाहिर हो गए हैैं तो
पड़ा, वह भी इसमेें है। की तरफ करके पता चलता है कि उसका घर तो टोबा टेक सिंह मेें है जो पाकिस््ततान मेें है। की घंटी बजाते एक के जिक्र के साथ जख््म हरे हो जाएं। इस बात का कोई अंदाजा वे कितने परेशां हैैं, कितने तंग रहते हैैं।
इतिहास की धारा हैैं और जब हम
को नहीीं बदल सकते। विशाखा (1942) इसे हर गांव, हर
पूरबो-पोश््चचिम
कुसमु ाग्रज (असली नामः वीवी शिरवाडकर)
(1989)
जवाहर लाल नेहरू, यह आजादी और देश निर््ममाण को लेकर प्रेरित करने वाली 57 मराठी कविताओं
कस््बबे, हर शहर
सुनील गंगोपाध््ययाय निकिता ख्रुश््चचेव को संबोधित का संग्रह है। इसमेें काफी भावुक कर देने वाली रचनाएं हैैं जिनमेें से कई की कार््टटून और हर राज््य से
विभाजन और विस््थथापन, कथन, 1959 बाद मेें संगीत-प्रस््ततुति भी हुई। इसमेें जलियांवाला बाग, लोकमान््य तिलक, बजने देते हैैं, तब
नक््सली हिंसा और भाषायी भूमिपुत्र आदि पर भी रचनाएं हैैं। यह पुस््तक अब भी लोकप्रिय है ।
आंदोलन- ये सब यहां हैैं। उस दिन हम इसे
बांग््ललादेश मुक््तति युद्ध और गति दे पाएंगे जब
पाथेर दाबी (1926) इसके ऐतिहासिक संदर््भ का लाजवंती ईश््वर की सभी
शरत चंद्र चट्टोपाध््ययाय आधिकारिक विवरण भी
इस बांग््लला उपन््ययास को
राजिन््दर सिंह बेदी संतानेें... हाथ मेें
इस बांग््लला उपन््ययास मेें आप मूल रूप से उर््ददू की यह रचना हिन््ददी, पंजाबी, कश््ममीरी आदि मेें आज भी लोकप्रिय है। हाथ मिलाकर
प्रकाशन के बाद बैन कर दिया पाएंगे। इसमेें देश के लिए प्रेम इसमेें विभाजन के दौरान अपहृत कर ली गई महिलाओं की व््यथा-कथा है। लाजवंती दीवार कला
गया था। इसमेें ऐसे गोपनीय के बारे मेें भी भावुक-जीवंत का जब अपहरण किया जाता है, उससे पहले उसका पति उसके साथ अत््ययाचार करता
एक साथ पुराने
समाज के इर््दगिर््द कहानी बुनी प्रस््ततुति है। है लेकिन अपहरण के बाद वह उसे खोज निकालने मेें जी-जान लगा देता है। नीग्रो आध््ययात््ममिक
गई है जिसका लक्षष्य भारत को गाने को गाएं:
आजाद कराना है। इसके प्रमुख
दो मेें एक चरित्र क््राांतिकारी है- फ्री एट लास््ट, फ्री
शिक्षित और संवेदनशील लेकिन एट लास््ट! हे,
शारीरिक रूप से मजबूत और सर््वशक््ततिमान
साहसी। दूसरा चरित्र डरपोक, डाक टिकट ईश््वर आपका
भावुक और जाति-पूर््ववाग्रहोों से
भरा हुआ है जो बाद मेें पुलिस का बहुत-बहुत आभार
भेदिया बन जाता है। कि अंततः हम
आजाद हैैं।
- मार््टटिन लूथर किंग
जूनियर, 1963 के
अपने भाषण 'आई नहीीं कि जिनलोगोों ने जिंदगी और आजादी की भारी कीमत चुकाई, उन
असहाय लोगोों के साथ कभी इंसाफ होगा भी या नहीीं। यहां तक कि बड़़े
चुनावी जीत चाहे कितने भी विशाल बहुमत
चंद्रशेखर आजाद की
प्रतिमा, प्रयागराज
हैव ए ड्रीम' मेें नरसंहारोों के मामले मेें भी जवाबदेही तय नहीीं की जा सकी और इन््हेें
'आपके नरसंहार' बनाम 'हमारे नरसंहार' का रूप दे दिया गया। इंसानी
से हासिल हुई हो, इस तरह की सोच कि यह
आजाद की प्रतिमा यहां उस उसूलोों की जगह घटिया सियासत ने ले ली है।
विभाजन के दर््द से परस््पर सामंजस््य और मेलजोल का रास््तता पाने
जीतने वाले को जैसे चाहे, वैसे शासन करने की
पार््क मेें ही लगाई गई है
जहां अंग्रेजोों के साथ उनकी
वाले देश मेें हम एक-दूसरे के दर््द और नुकसान के प्रति अंधे हो गए
हैैं। हमवतन के हाथोों व््यक््ततिगत और सामुदायिक तबाही आज भी हमारे
खुली छूट देता है, वैसा ही हुआ मानो 'भीड़ का
वास््तविक स््वराज कुछ लोगोों के अपने हाथ मेें ताकत ले लेने से नहीीं बल््ककि
मुठभेड़ हुई थी और वह सामूहिक अस््ततित््व पर अपनी काली छाया डाल रही है। यह मानवीय
मूल््योों की घृणित सार््वजनिक अवहेलना है जिसे सत्ता मेें बैठे लोगोों और
कानून' या निर््ववाचित तानाशाही
मूर््ततियां वीरगति को प्राप््त हुए थे। अपने विचारोों के बंधक उनके सहयोगी बढ़़ावा दे रहे हैैं। इससे तो यही
सभी लोगोों द्वारा वह क्षमता हासिल करने से आएगा जिससे जब भी ताकत संकेत मिल रहा है कि स््वतंत्रता के 75 साल के बाद का रास््तता ऊबड़-
का दुरुपयोग हो, वे उसे रोक सकेें। खाबड़ तो है ही, यह कहीीं नहीीं जा रहा है।
ऐसी स््वतंत्रता का जिसमेें सुरक्षा और गरिमा न हो, कोई मतलब लेकिन, यह निश््चचित रूप से बहुत बुरा है। जब काफी उम््ममीदोों के
– महात््ममा गांधी, जनवरी, 1925 मेें यंग इंडिया मेें नहीीं रह जाता। हमेें बताया जा रहा है कि हम पहले से तय रास््तते पर साथ अपनाए गए संविधान का इस््ततेमाल पार्टी-सियासी हितोों को साधने
के मुखौटे के रूप मेें किया जाए तो इसके भाव और चरित्र मेें बदलाव
आ जाता है। ऐसे मेें हैरानी की कोई बात नहीीं जब सरकार के कानून
शहीद स््ममारक ग््ययारह मूर््तति इस बात का कोई अंदाजा नहीीं कि जिन लोगोों ने मंत्री भाजपा की विचारधारा को देश की विचारधारा बनने की बात करते
हैैं। हां, कांग्रेस ने भी तो ऐसा ही किया था। हो सकता है कि यह उनका
पटना मेें सचिवालय भवन के सामने उनलोगोों की मूर््ततियां हैैं जो भारत
छोड़ो आंदोलन के दौरान तिरंगा फहराने के क्रम मेें शहीद हो गए थे।
देवी प्रसाद राय चौधरी की बनाई यह कलाकृति दिल््लली मेें जिंदगी और आजादी की भारी कीमत चुकाई, उन प्रतिवाद हो। हम इसका जवाब तत््ककाल दे सकते हैैं।
अहिंसा और सत््ययाग्रह समेत गांधीवादी विचार को संविधान मेें
है। इसमेें लोग गांधी जी का अनुसरण करते दिख रहे हैैं।
असहाय लोगोों के साथ कभी इंसाफ होगा भी या शामिल किया गया। इन््हेें संविधान की प्रस््ततावना मेें जगह दी गई।
कोई कितने भी बड़़े बहुमत से आए, इसमेें बदलाव नहीीं कर सकता।
नहीीं। यहां तक कि बड़़े नरसंहारोों के मामले मेें भी इसे केवल एक क््राांति ही बदल सकती है। सुप्रीम कोर््ट ने ‘केशवानंद
भारती’ मामले मेें यह साफ-साफ शब््दोों मेें कहा है।
जवाबदेही तय नहीीं की जा सकी और इन््हेें 'आपके कांग्रेस ने जो किया, उसके लिए एक ऐतिहासिक राष्ट्रीय सहमति
थी। और यह सहमति महात््ममा गांधी और दूसरे अन््य नेताओं के नेतृत््व
नरसंहार' बनाम 'हमारे नरसंहार' का रूप दे मेें चले आजादी के आंदोलन से उभरी थी।
वापस आएं जावेद अख््तर की नज््म पर। आजादी आपके खास
आजाद होने का मतलब महज लोहे की बेड़़ियोों से मुक््तति नहीीं बल््ककि जीने का वह दिया गया। इंसानी उसूलोों की जगह घटिया रंग के बारे मेें है। प्रकाश का रंग एक है लेकिन प्रिज््म उन रंगोों को
दिखाता है जिससे यह बना है। अंधेरे के स््ययाह को प्रिज््म से भी
तरीका है जो दूसरोों की आजादी का आदर करने वाला, उसे बढ़़ाने वाला हो।
नेल््सन मंडेला सियासत ने ले ली है विभाजित नहीीं किया जा सकता। इसलिए आजादी की 75वीीं सालगिरह
पर संकल््प करेें, हम अपने राष्ट्रीय जीवन मेें प्रकाश और प्रिज््म को
(केपटाउन के अपार्थीड म््ययूजियम के बाहर लगा उद्धरण, जून, 1999) वापस लाएंगे। n
हम अपने भाग््य
के विधाता
अगर हम अपने लोकतंत्र और अपनी आजादी की कद्र करते हैैं, तो वोट देने
के अधिकार के उपयोग से आगे जाकर हमेें इनके लिए जूझना होगा
नेताजी और आजाद हिन््द फौजः घर मेें नजरबंद नेताजी सुभाष चंद्र बोस कलकत्ता से फरार हो गए और उन््होोंने भारत को आजाद कराने के लिए जर््मनी और जापान से मदद मांगी। उन््होोंने 1943 मेें आजाद हिन््द फौज की कमान संभाली और निर््ववासन मेें सरकार बनाई। रंगून से आजाद हिन््द रेडियो से प्रसारित अपने संदेश मेें उन््होोंने महात््ममा गांधी को ‘राष्टट्रपिता’ कहकर संबोधित किया और उनका आशीर््ववाद और उनकी शुभकामनाएं
मांगी। उनका नारा थाः ‘तुम मुझे खून दो, मैैं तुम््हेें आजादी दूंगा’।
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संविधान सभाः डॉ. राजेन्दद्र प्रसाद की अध््यक्षता मेें इसकी सभा 9 दिसंबर, 1946 को हुई। न््ययायविद बी.एन. राव इसके सलाहकार बनाए गए जबकि बाबा साहब डॉ. भीमराव आम््बबेडकर ड्राफ््टटििंग कमेटी के अध््यक्ष बनाए गए। काफी विचार-विमर््श के बाद सभा ने 26 नवंबर, 1949 को यह मसौदा स््ववीकार किया। अपना यह संविधान 26 जनवरी, 1950 को अंगीकार किया गया।
10 स््वतंत्रता दिवस विशेष
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रविवार, 14 अगस््त 2022
हमेें जागना होगा, नहीीं महान कलाकारोों को सुनने; उनके संगीत, उनके नृत््य, उनकी ईश््वर-
परायणता को प््ययार करने का मौका मिला। हम खुशकिस््मत हैैं कि उन
लोगोों ने सहेजकर रखी अपनी परंपराओं को अपने बच्चचों और अपने
शिष््योों को देकर उन््हेें जिंदा रखा। भारत के हर बच्चे की परंपरा, उसका
और सज्जन लोगोों ने अपनी बातेें कहीीं और इस दुनिया को छोड़कर
चले गए। लोग अपने आपको समझाना चाहते हैैं कि आज जो हो रहा
है, उससे कोई फर््क नहीीं पड़ता। लेकिन ऐसा नहीीं है, इससे फर््क पड़ता
है। यह हमारी नीींव को हिला देता है। यह हमारी प्राथमिकताओं को
तो नृत््य थम जाएगा
अतीत और इतिहास यही है। आखिर हम कब गौरव के साथ यह बात प्रभावित करता है। आखिरकार केवल एक चीज जो वास््तव मेें मायने
कहकर इन््हेें अपना बनाएंग?े रखती है वह है हर बच्चे की आंखोों मेें विश््ववास की चमक। सुदं रता
आखिर वह क््यया है जो हमेें इतना अलग बनाता है। कोई मस््जजिद की सराहना और परंपराओं का सम््ममान हो, यह जरूर मायने रखता है।
मेें इबादत करता है, कोई गुरुद्वारे मेें अरदास करता है, कोई चर््च मेें हर धार््ममिक नेता मंच से यह कहता है कि सभी धर््म अच््छछे हैैं और हर
प्रार््थना करता है तो कोई मंदिर मेें पूजा करता है। लेकिन हम उन््हीीं धुनोों आदमी इसे सच मानता है। जब तक सहनशीलता है, जब तक दूसरे
को प््ययार करते हैैं, एक ही तरह के रागोों को अलापते हैैं, ढोल पर एक इंसान की तकलीफ को समझने की गुज ं ाइश है, तब तक आशा है।
जैसे ताल को बजाते हैैं, हम एक ही तरीके का खाना (दाल-रोटी) हमारी कलाओं के अखिल भारतीय स््वरूप के प्रति सरकार की
पसंद करते हैैं, एक ही तरह से लजीज पान का आनंद उठाते हैैं, उन््हीीं संवदे नशीलता बहुत कम है। उसे यह समझ मेें नहीीं आता है कि यह
क्रिकेटरोों से प््ययार करते हैैं। गीत के जिन बोलोों को सुनकर मेरी आत््ममा हमारी विविधता ही है जो हमेें ताकत देती है। सरकार हमेें यह सोचने
तक खुश हो जाती है, उन््हेें सुनकर उसके चेहरे पर भी मुस््ककान आ के लिए मजबूर करती है कि ‘जो बहुमत के लिए अच््छछा है, वही
जाती है। और जब कोई महामारी आती है, तो हिन््ददू, मुस््ललिम, सिख, सबके लिए अच््छछा है’। लेकिन यह नजरिया सही नहीीं। हमेें सभी की
इस देश की मिट्टी मेें रचे-बसे विभिन्न धार््ममिक मतोों समेत भारत की परंपराओं की बहुलता और ईसाई- सभी एक-दूसरे के काम आते हैैं। अगर इतना कुछ एक-सा है
और उसके बाद भी हमेें एक-दूसरे मेें अंतर दिखता है, तो वाकई हमारी
जरूरतोों के प्रति संवदे नशील रहना चाहिए। लोगोों की अभिव््यक््तति,
उनकी आस््थथा और निजता के अधिकार का लोकतांत्रिक तरीके से
विविधता को स््ववीकार करना चाहिए। हमारी परंपराएं अनमोल हैैं। इन््हेें शैक्षिक पाठ्यक्रम से सोच बहुत बीमार हो चुकी है।
हम जिस भुरभुरी ‘धर््मनिरपेक्षता’ पर गर््व करते हैैं, उसके लिए हम
पालन करने के लिए जगह बनाई जानी चाहिए।
अगर भारतीयोों के पास ऐसी शिक्षा नहीीं है जो उनकी सोचने-
सिर््फ इस वजह से नहीीं हटा दिया जाना चाहिए कि वे किसी खास धार््ममिक रंग के हैैं क््यया कीमत चुका रहे हैैं? अगर हम इस स््थथिति के खतरोों को नहीीं देखते
हैैं, तो हमारा घर शर््ततिया तबाह हो जाएगा। अगर हम अपने स््ककूलोों मेें
समझने की क्षमताओं, उनकी जातीय संवदे नशीलता और उनके
इतिहास बोध को विकसित कर सके, तो ऐसे मेें राजनीतिक आजादी
सार््वभौमिक धर््म की शिक्षा देना शुरू नहीीं करते; अगर हम किसी भी का बहुत कम असर होगा। हाल की घटनाओं से पता चलता है कि
भारत विभाजनः लंदन के बैरिस््टर सिरिल रेडक््ललिफ को भारत और पाकिस््ततान के बीच सीमाएं निर््धधारित करने के लिए पांच हफ््तते का वक््त दिया गया। उनके पास इस किस््म का अनुभव नहीीं था, फिर भी उन््होोंने दो सीमा आयोगोों का नेतृत््व किया। 14-15 अगस््त को भारत छोड़ने से पहले उन््होोंने अपने सभी दस््ततावेज जला दिए। सीमाओं की घोषणा 17 अगस््त को की गई।
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आजादीः 15 अगस््त, 1947 को देश आजाद हुआ। इस मौके पर देश भर मेें चारोों ओर उत््सव का माहौल था। लेकिन महात््ममा गांधी बंगाल मेें हुई सांप्रदायिक हिंसा को शांत करने मेें लगे हुए थे। उन््होोंने एक दिन पहले प्रार््थना सभा मेें कहा थाः ‘कल से हम अंग्रेजी राज से मुक््त हो जाएंगे लेकिन आधी रात को भारत के दो टुकड़े भी हो जाएंगे। कल का दिन आनंद का होगा लेकिन उतने ही दुख का भी होगा। आजादी का ऐसा आगमन मुझे
आनंदित नहीीं कर रहा। यह आजादी हमेें एक बहुत बड़ी जिम््ममेदारी सौौंप रही है। हमेें अपना विवेक और भाईचारा नहीीं छोड़ना है।’
12 स््वतंत्रता दिवस विशेष
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रविवार, 14 अगस््त 2022
Published Date 14 August 2022 (Sunday), Posting Days Friday and Saturday
जिस भारत को हम
कर रहे अपवित्र
दिल््लली के प्रगति मैदान मेें स््थथित हॉल ऑफ नेशंस
भारतीय स््थथापत््य क्षमता का एक हैरान कर देने
वाला स््ममारक था। संयोग ही है कि इसका उद््घघाटन
1972 मेें भारत की आजादी के 25 साल पूरे होने
के मौके पर किया गया था। जब अप्रैल, 2017 मेें
इसे रातोों-रात ध््वस््त कर दिया गया, तो जाने-माने
वास््ततुकारोों, वास््ततुकला इतिहासकारोों, संरक्षणवादियोों
और संग्रहालयोों की अपीलोों, विरोधोों और याचिकाओं
पर उस समुदाय मेें सन्नाटा छा गया जो वास््तव मेें
जानता था कि इस प्रतिष््ठठित संरचना का यह निष््ठठुर
विध््ववंस क््यया दर््शशाता है। यह स््वतंत्र भारत की पहचान
बने साइनपोस््टोों से छुटकारा पाने की हड़बड़़ाहट
दिखाता है।
प्रकाशकः पवन कुमार बंसल; संपादकः राजेश झा; पवन कुमार बंसल द्वारा दि एसोसिएटेड जर््नल््स लिमिटेड, हेराल््ड हाउस, 5-ए, बहादुर शाह जफर मार््ग, नई दिल््लली- 11002 की ओर से प्रकाशित एवं मुद्रित। दि एसोसिएटेड जर््नल््स लिमिटेड,
हेराल््ड हाउस, 5-ए, बहादुर शाह जफर मार््ग, नई दिल््लली-110002 और दि इंडियन एक््सप्रेस (प्रा.) लिमिटेड प्रेस, ए-8, सेक््टर-7, नोएडा- 201301, उत्तर प्रदेश से मुद्रित।