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प्रेमच

�वदष
ु ी वज
ृ रानी 1
माधवी 8
काशी म� आगमन 14
प्रेम का स् 24
�वदाई 34
मतवाल� यो�गनी 43

2
1
�वदष
ु ी वज
ृ रानी
जब से मंश
ु ी संजीवनलाल तीथर् यात्रा को �नकले और प्रतापचन्द
चला गया उस समय से सव
ु ामा के जीवन म� बड़ा अन्तर हो गया था। वह
ठे के के कायर् को उन्नत करने लगी। मुंशी संजीवनलाल के समय म� भ
व्यापार म� इतनी उन्न�त नह�ं हुई थी। सुवामा र-रात भर बैठ� �ट-पत्थर�
से माथा लड़ाया करती और गारे -चन
ू े क� �चंता म� व्याकुल रहती। पा-पाई
का �हसाब समझती और कभी-कभी स्वयं क ु�लय� के कायर् क�देखभा
करती। इन काय� म� उसक� ऐसी प्वृ�त
र हुई �क दान और व्रत से भी
पहले का-सा प्रेम न रहा। प्र�त�दन आय वृद्�व होने पर भी सुवामा ने
�कसी प्रकार का न बढ़ाया। कौ-कौड़ी दाँतो से पकड़ती और यह सब
इस�लए �क प्रतापचन्द्र धनवान हो जाए और अपने-पयर्न्त सान्
रहे ।
सव
ु ामा को अपने होनहार पत्र पर अ�भमान था। उसके जीवन क

ग�त दे खकर उसे �वश्वास हो गया था �क मन म� जो अ�भलाषा रखकर म�ने
पत्र माँगा
ु , वह अवश्य पूणर् होगी। वह कालेज के �प्रं�सपल और प्रो
से प्रताप का समाचार गुप्त र��त से �लया करती थी ओर उनक� सूचना
का अध्ययन उसके �लए एक रसेचक कहानी के तुल्य था। ऐसी दशा म
प्रयाग से प्रतापचन्द्र को लोप हो जाने का तार पहुँचा मान� उसके ह
वज्र का �गरना था। सुवामा एक ठण्डी साँसे , मस्तक पर हाथ रख बैठ
गयी। तीसरे �दन प्रतापचन्द्र क� , कपड़े और साम�ग्रयाँ भी आ पहुँ ,
यह घाव पर नमक का �छड़काव था।
प्रेमवती के मरे का समाचार पाते ह� प्राणनाथ पटना से और राधा
नैनीताल से चले। उसके जीते-जी आते तो भ� ट हो जाती , मरने पर आये तो
उसके शव को भी दे खने को सौभाग्य न हुआ। मृत-संस्कार बड़ी धूम से
�कया गया। दो सप्ताह गाँव म� बड़ी धू-धाम रह�। तत्पश्च ात् मुरादाबा
चले गये और प्राणनाथ ने पटना जाने क� तैयार� प्रारम्भ कर द�।
इच्छा थी �क स्त्रीको प्रयाग पहुँचाते हुए पटना जायँ। पर सेवती ने हठ
�क जब यहाँ तक आये ह�, तो �वरजन के पास भी अवश्य चलना चा�हए नह�ं

3
तो उसे बड़ा द:ु ख होगा। समझेगी �क मझ
ु े असहाय जानकर इन लोग� ने भी
त्याग �दया
सेवती का इस उचाट भवन मे आना मानो पषु ्प� म� सुगन्ध म� आन
था। सप्ताह भर के �लए सु�दन का शुभागमन हो गया। �वरजन बहुत
प्रसन्न हुई और खूब रोयी। माधवी ने मुन्नू को अंक म� लेकर बहुत प
�कया।
प्रेमवती के चले जाने पर �वरजन उस गृह म� अकेल� रह गई थी
केवल माधवी उसके पास थी। हृद-ताप और मान�सक द:ु ख ने उसका वह
गुण प्रकट कर �द, जा अब तक गुप्त था। वह काव्य और प-रचना का
अभ्यास करने लगी। क�वता सच्ची भावनाओं का �चत्र है और स
भावनाएँ चाहे वे द:ु ख ह� या सख
ु क� , उसी समय सम्पन्न होती ह� जब ह
द:ु ख या सख
ु का अनभ
ु व करते ह�। �वरजन इन �दन� रात-रात बैठ� भाष म�
अपने मनोभाव� के मो�तय� क� माला गँथ
ू ा करती। उसका एक-एक शब्द
करुणा और वैराग्य से प�रवूणर् होता थां अन्य क�वय� के मन� म� �मत्
वहा-वाह और काव्-प्रे�तय� के साधुवाद से उत्साह पैदा होता , पर �वरजन
अपनी द:ु ख कथा अपने ह� मन को सन
ु ाती थी।
सेवती को आये दो- तीन �दन बीते थे। एक �दन �वरजन से कहा- म�
तुम्ह� बहुधा �कसी ध्यान म� मग्न देखती हूँ और कुछ �लखते भी पाती हू
मझ
ु े न बताओगी ? �वरजन लिज्जत हो गयी। बहाना करने लगी �क कुछ
� मानँग
नह�ं, य� ह� जी कुछ उदास रहता है । सेवती ने कहा-मन ू ी। �फर वह
�वरजनका बाक्स उठा लाय , िजसम� क�वता के �दव्य मोती रखे हुए थे।
�ववश होकर �वरजन ने अपने नय पद्य सुनाने शुरु �कये। मुख से प्
पद्य का �नकलना था �क सेवती के रोएँ खड़े हो गये और जब तक सारा
पद्य समाप्त न ह , वह तन्मय होकर सुनती रह�। प्राणनाथ क� संग�त
उसे काव्य का र�सक बना �दया था। बा-बार उसके नेत्र भर आते। ज
�वरजन चप
ु हो गयी तो एक समाँ बँधा हुआ था मान� को कोई मनोहर राग
अभी थम गया है । सेवती ने �वरजन को कण्ठ से �लपटा �लय , �फर उसे
छोड़कर दौड़ी हुई प्राणनाथ के पास ग , जैसे कोई नया बच्चा नया
�खलोना पाकर हषर् से दौड़ता हुआ अपने सा�थय� को �दखाने जाता है।
प्राणनाथ अपने अफसर को प्रा-पत्र �लख रहे थे �क मेर� माता अ�
पी�ड़ता हो गयी है , अतएव सेवा म� प्रस्तुत होने म� �वलम्ब हुआ।
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करता हूँ �क एक सप्ताह का आकिस्मक अवकाश प्रदान �कया जाय
सेवती को दे खकर चट आपना प्राथर-पत्र �छपा �लया और मुस्कराये। मनु
कैसा धत
ू ्र ह ! वह अपने आपको भी धोख दे ने से नह�ं चक
ू ता।
सेवती- त�नक भीतर चलो , तम्ह�
ु �वरजन क� क�वता सुनवाऊ , फड़क
उठोगे।
प्र0- अच्छ , अब उन्ह� क�वता क� चाट हुई ह ? उनक� भाभी तो गाया
करती थी – तुम तो श्याम बड़े बेखबर हो
सेवती- त�नक चलकर सन
ु ो , तो पीछे ह� सना। मझ
ु े तो उसक� क�वता
पर आश्चयर् हो रहा है
प्र0- चलो , एक पत्र �लखकर अभी आता हूं
सेवती- अब यह� मझ
ु े अच्छा नह�ं लगता। म� आपके पत्र नोच डालूंग
सेवती प्राणनाथ को घसीट ले आयी। वे अभी तक यह� जानते थे �
�वरजन ने कोई सामान्य भजन बनाया होगा। उसी को सुनाने के �लए
व्याकुल हो रह� होगी। पर जब भीतर आकर बैठे और �वरजन ने लजाते हुए
अपनी भावपण ू ् क�वता
र ‘प्रेम क� मतवा’ पढ़नी आरम्भ क� तो महाशय के
नेत्र खुल गये। पद्य क्य , हृदय के दुख क� एक धारा और प्र –रहस्य
क� एक कथा थी। वह सन
ु ते थे और मगु ्ध होकर झुमते थे। शब्द� क� -
एक योजना पर, भाव� के एक-एक उदगार पर लहालोट हुए जाते थे। उन्ह�ने
बहुतेरे क�वयां के काव्य देखे थ , पर यह उच्च �वचा , यह नत
ू नता , यह
भावोत्कषर् कह�ं द�ख न पड़ा था। वह समय �च�त्रत हो रहा था जब अरु
के पव
ू ् मलया�नल लहराता
र हुआ चलता ह , क�लयां �वक�सत होती ह� , फूल
महकते ह� और आकाश पर हल्क� ला�लमा छा जाती है। एक –एक शब्द म�
नव�वक�सत पषु ्प� क� शोभा और �हम�करण� क� शीतलता �वद्यमान थी
उस पर �वरजन का सर�
ु लापन और ध्व�न क� मधुरता सोने म� सुगन्ध थी

ये छन्द थ , िजन पर �वरजन ने हृदय को द�पक क� भँ�त जलाया था।
प्राणनाथ प्रहसन के उद्देश्य से आये थे। पर जब वे उठे त: ऐसा
प्रतीत होता , मानो छाती से हृदय �नकल गया है। एक �दन उन्ह�न
�वरजन से कहा- य�द तम्हार� क�वत
ु ा ऍं छप, तो उनका बहुत आदर हो।
�वरजन ने �सर नीचा करके कहा- मझु े �वश्वास नह�ं �क को इनको
पसन्द करेगा

5
प्राणन- ऐसा संभव ह� नह�ं। य�द हृदय� म� कुछ भी र�सकता है तो
तम्हारे काव्य क� अवश्य प्र�तष
ु ्ठा होगी। य�द ऐसे लोग �वद् , जो
पषु ्प� क� सुगन्ध से आनिन्दत हो जाते, जो प��य� के कलरव और चाँदनी
क� मनोहा�रणी छटा का आनन्द उठा सकते ह , तो वे तम्हार� क�वता को

अवश्य हृदय म� स्थान द�गे। �वरजन के ह्दय मे वह गुदगुद� उत्पन्न ह
प्रत्येक क�व को अपने काव्य�चन्तन क� प्रशंसा � , क�वता के म�ु द्र
होने के �वचार से होती है । यद्य�प वह नह�–नह�ं करती रह�, पर वह, ‘नह�ं’,
‘हाँ’ के समान थी। प्रयाग से उन �दन ‘कमला’ नाम क� अच्छ� प�त्र
�नकलती थी। प्राणनाथ न ‘प्रेम क� मतवा’ को वहां भेज �दया। सम्पादक
एक काव्–र�सक महानभ
ु ाव थे क�वता पर हा�दर ्क धन्यवाद �दया ओर ज
यह क�वता प्रका�शत ह , तो सा�हत्–संसार म� धम
ू मच गयी। कदा�चत ह�
�कसी क�व को प्रथम ह� बार ऐसी ख्या�त �मल� हो। लोग पढते
�वस्मय से ए-दस
ू रे का मंह
ु ताकते थे। काव् –प्रे�मय� मे कई सप्ताह
मतवाल� बाला के चच� रहे । �कसी को �वश्वास ह� न आता था �क यह एक
नवजात क�व क� रचना है । अब प्र�त मा ‘कमला’ के पषृ ्ठ �वरजन क�
क�वता से सश
ु ो�भत होने लगे और ‘भारत म�हला’ को लोकमत ने क�वय�
के सम्मा�नत पद पर पहुंचा �दया। ‘भारत म�हला’ का नाम बच्-च बच्चे क�
िजहवा पर चढ गया। को इस समाचार-पत्र या प�त् ‘भारत म�हला ’ को
ढूढने लगते। हां , उसक� �दव्य शिक्तया अब �कसी को �वस्मय म� न डाल
उसने स्वयं क�वता का आदशर् उच्च कर �दया थ
तीन वषर् तक �कसी को कुछ भी पता न लगा �क ‘भारत म�हला ’
कौन है । �नदान प्राण नाथ से न रहा गया। उन्ह� �वरजन पर भिक्त
गयी थी। वे कई मांस से उसका जीवन –च�रत्र �लखने क� धुन म� थे। सेवत
के द्वारा धीर-धीरे उन्होन� उसका सब जीवन च�रत्र �ात कर �दया
‘भारत म�हला ’ के शीषर्क से एक प्र –प�र
ू त लेख �लया। प्राणनाथ न
प�हले लेख न �लखा था, परन्तु श्रद्वा ने अभ्यास क� कमी पूर� कर द�
लेख अतयन्त रोच, समालोचनातमक और भावपण
ू ् थ
र ा
इस लेख का म�ु दत होना था �क �वरजन को चार� तरफ से प्र�तष्
के उपहार �मलने लगे। राधाचरण मरु ादाबाद से उसक� भ� ट को आये। कमला,
उमादे वी, चन्द्रकुवंर और स�खया िजन्होन� उसे �वस्मरण कर �दय
प्र�त�दन �वरजन के दशन� को आने लगी। बडे बडे गणमान्य सज्ज्
6
ममता के अभीमान से ह�कम� के सम्मुख �सर न झुकात , �वरजन के
द्वार पर दशनर् को आते थे। चन्द्रा स्वयं तो न , परन्तु पत्र
�लखा – जो चाहता है �क तम्हारे चरण� पर �सर रखकर घंट� रोऊँ।

7
2
माधवी

कभी –कभी वन के फूल� म� वह सग


ु िन्धत और रं-रुप �मल जाता है
जो सजी हुई वा�टकाओं को कभी प्राप्त नह�ं हो सकता। माधवी थी तो
मख
ू ् और द�रद्र मनुष्य क�
र , परन्तु �वधाता ने उसे ना�रय� के सभी
उत्तम गुण� से सुशो�भत कर �दया था। उसम� �श�ा सुधार को ग्रहण कर
क� �वशेष योग्यता थी। माधवी और �वरजन का �मलाप उस समय हुआ
जब �वरजन ससरु ाल आयी। इस भोल� –भाल� कन्या ने उसी समय से
�वरजन के संग असधारण प्री�त प्रकट करनी आरम्भ क�। �ात, वह उसे
दे वी समझती थी या क्य ? परन्तु कभी उसने �वरजन के �वरुद्व एक श
भी मख
ु से न �नकाला। �वरजन भी उसे अपने संग सल
ु ाती और अच्छ –
अच्छ� रेशमी वस्त्र प�हनाती इससे अ�धक प्री�त वह अपनी छोट� भ�ग
भी नह�ं कर सकती थी। �चत्त का �चत्त से सम्बन्ध होता है। य�द प
को वज
ृ रानी से हा�दर ्क समबन्ध था तो वृजरानी भी प्रताप के प्रेम म
हुई थी। जब कमलाचरण से उसके �ववाह क� बात पक्क� हुई जो वह
प्रतापचन्द्र से कम दुखी न हुई। हां लज्जावश उसके हृदय के भ
प्रकट न होते थे। �ववाह हो जाने के पश्चात उसे �नत्य �चन्ता रहती थ
प्रतापचन्द्र के पी�डत हृदय को कैसे तसल ? मेरा जीवन तो इस भां�त
आनन्द से बीतता है। बेचारे प्रताप के ऊपर न जाने कैसी बीतती होग
माधवी उन �दन� ग्यारहव� वषर् म� थी। उसके र –रुप क� सुन्दर , स्वभाव
और गण
ु दे ख –दे खकर आश्चयर् होता था। �वरजन को अचानक यह ध्य
आया �क क्या मेर� माधवी इस योगय नह�ं �क प्रताप उसे अपने कण्ठ
हार बनाये? उस �दन से वह माधवी के सध
ु ार और प्यार म� और भी अ�धक
प्वृत हो
र गयी थी वह स-सोचकर मन –ह� मन-फूल� न समाती �क जब
माधवी सोलह–सत्रह वषर् क� हो जाय, तब म� प्रताप के पास जाऊंगी औ
उससे हाथ जोडकर कहूंगी �क माधवी मेर� ब�हन है । उसे आज से तुम
अपनी चेर� समझो क्या प्रताप मेर� बात टाल द ? नह�ं – वे ऐसा नह�ं कर
सकते। आनन्द तो तब है जब �क चाची स्वयं माधवी को अपनी बहू बनान
क� मझ
ु से इच्छा कर�। इसी �वचार से �वरजन ने प्रतापचन्द्र के प

8
गुण� का �चत्र माधवी के हृदय म� खींचना आरम्भ कर �दय , िजससे �क
उसका रोम-रोम प्रताप के प्रेम म� पग जाय। वह जब प्रतापचन्द्र
करने लगती तो स्व: उसके शब्द असामान्य र��त से मधुर और सरस ह
जाते। शनै:-शनै: माधवी का कामल हृदय प्–रस का आस्वादन करने लगा।
दपर्ण म� बाल पड़ गया।
भोल� माधवी सोचने लगी , म� कैसी भाग्यवती हूं। मुझे ऐसे स्वाम
�मल�ग� िजनके चरण धोने के योग्य भी म� नह�ं हू , परन्तु क्या व� मुझे अपनी
चेर� बनायेग� ? कुछ तो, म� अवश्य उनक� दासी बनूंगी और य�द प्रेम म� क
आकषणर् ह , तो म� उन्ह� अवश्य अपना बना लूंगी। परन्तु उस बेचार� को क
मालम
ू था �क ये आशाएं शोक बनकर नेत्र� के मागर् से बह जाये ?
उसको पन्द्रहवां पूरा भी न हुआ था �क �वरजन प र -�वनाश क�
आपित्तयां आ पडी। उस आंधी के झ�क� ने माधवी क� इस किल्पत पुष
वा�ठका का सत्यानाश कर �दया। इसी बीच म� प्रताप चन्द्र के लोप हो
समाचार �मला। आंधी ने जो कुछ अव�शष्ठ रखा था वह भी इस अिग्न न
जलाकर भस्म कर �दया।
परन्तु मानस कोई वस्तु , तो माधवी प्रतापचन्द्र क� स्त्री
थी। उसने अपना तन और मन उन्ह� समपर्ण कर �दया। प्रताप को
नह�ं। परन्तु उन्ह� ऐसी अमूल्य वस्तु , िजसके बराबर संसार म� कोई
वस्तु नह�ं तुल सकती। माधवी ने केवल एक बार प्रताप को देखा था
केवल एक ह� बार उनके अमत
ृ –वचन सन
ु े थे। पर इसने उस �चत्र को औ
भी उज्जवल कर �दया थ , जो उसके हृदय पर पहले ह� �वरजन ने खींच
रखा था। प्रताप को पता नह�ं , पर माधवी उसक� प्रेमािग्न म� -
प्र�त�दन घुलती जाती है। उस �दन से कोई ऐसा व्रत नह�, जो माधवी न
रखती हो , कोई ऐसा दे वता नह�ं था , िजसक� वह पज
ू ा न करती हो और
वह सब इस�लए �क ईश्वर प्रताप को जहां कह�ं वे ह� कुशल से रख�।
प्र–कल्पनाओं ने उस बा�लका को और अ�धक दृढ सुशील और कोमल बन
�दया। शायद उसके �चत ने यह �नणयर् कर �लया था �क मेरा �ववाह
प्रतापचन्द्र से हो चुका। �वरजन उसक� यह दशा देखती और रोती �
आग मेर� ह� लगाई हुई है । यह नवकुसम
ु �कसके कण्ठ का हार बनेग ?
यह �कसक� होकर रहे गी ? हाय रे िजस चीज को मन� े इतने प�रश्रम स
अंकु�रत �कया और मध�
ु ीर से सींचा, उसका फूल इस प्रकार शाखा पर ह
9
कुम्हलाया जाता है। �वरजन तो भला क�वता करने म� उलझी रहत , �कन्तु
माधवी को यह सन्तोष भी न था उसके प्रेमी और साथी उसके �प्रयत
ध्यान मात्र –उस �प्रयतम का जो उसके �लए सवर्था अप�र�चत था
प्रताप के चले जाने के कई मास पीछे एक �दन माधवी ने स्वप्न देखा
वे सतयासी हो गये है । आज माधवी का अपार प्रेम प्रकट हंआ
आकाशवाणी सी हो गयी �क प्रताप ने अवश्य संन्यास ते �लया। आज
वह भी तपस्वनी बन गयी उसने सुख और �वलास क� लालसा हृदय स
�नकाल द�।
जब कभी बैठे –बैठे माधवी का जी बहुत आकुल होता तो वह
प्रतापचनद्र के घर चल� जाती। वहां उसके �चत क� थोडी देर के �लए शा
�मल जाती थी। परन्तु जब अन्त म� �वरजन के प�वत्र और आदश� जी
ने यह गाठ खोल द� वे गंगा यमन
ु ा क� भां�त परस्पर गले �मल गयीं ,
तो माधवी का आवागमन भी बढ गया। सव
ु ामा के पास �दन –�दन भर
बैठ� रह जाती, इस भवन क� , एक-एक अंगुल पथ
ृ ्वी प्रताप का स्मारक
इसी आँगन म� प्रताप ने काठ के घोडे दौड़ाये और इसी कुण्ड म� कागज
नाव� चलायी थीं। नौकर� तो स्यात काल के भंवर म� पडकर डूब गयी, परन्तु
घोडा अब भी �वद्वमान थी। माधवी ने उसक� जज�रत अ�सथ्य� म� प्
डाल �दया और उसे वा�टका म� कुण्ड के �कनारे एक पाटलवृ� क� छाय�
म� बांध �दया। यह�ं भवन प्रतापचन्द्र का शयनागार था।माधवी अब
अपने दे वता का मिन्दर समझती है। इस पलंग ने पंताप को बहुत �दन�
तक अपने अंक म� थपक –थपककर सल
ु ाया था। माधवी अब उसे पषु ्प� से
सस
ु िज्ज्त करती है। माधवी ने इस कमरे को ऐसा सुसिज्जत कर � ,
जैसे वह कभी न था। �चत्र� के मुख पर से धूल का यव�नका उठ गयी
लैम्प का भाग्य प: चमक उठा। माधवी क� इस अननत प्र-भािक्त से
सव
ु ामा का द:ु ख भी दरू हो गया। �चरकाल से उसके मख
ु पर प्रतापचन्द्
नाम अभी न आया था। �वरजन से मेल-�मलाप हो गया , परन्तु दोन� िस्त्
म� कभी प्रतापचन्द्र क� चचार् भी न होती थी। �वरजन लज्जा क� स
थी और सव
ु ामा क्रोध से। �कन्तु माधवी के प्रेमानल से पत्थर भी
गया। अब वह प्रेम�वह्रवल होकर प्रताप के बालपन क� बात� पूछने लग
सव
ु ामा से न रहा जाता। उसक� आँख� से जल भर आता। तब दोन� रोती
और �दन-�दन भर प्रताप क� बात� समाप्त न होती। क्या अब माधवी
10
�चत्त क� दशा सुवामा से �छप सकती थ ? वह बहुधा सोचती �क क्या
तपिस्वनी इसी प्रकार प्रेमिग्न मे जलती रहेगी और वह भी �बना
आशा के ? एक �दन वज
ृ रानी ने ‘कमला’ का पैकेट खोला , तो पहले ह� पषृ ्ठ
पर एक परम प्र�त-पण
ू ्र �चत्र �व�वध रंग� म� �दखायी पड़ा। यह �क
महात्म का �चत्र था। उसे ध्यान आया �क म�ने इन महात्मा को कह�ं
दे खा है । सोचते-सोचते अकस्मात उसका घ्यान प्रतापचन्द्र तक जा प
आनन्द के उमंग म� उछल पड़ी और बोल�– माधवी, त�नक यहां आना।
माधवी फूल� क� क्या�रयां सींच रह�ं थी। उसके �चत –�वनोद का
आजकल वह�ं कायर् था। वह साड़ी पानी म� लथप , �सर के बाल �बखरे
माथे पर पसीने के �बन्दु और नत्र� म� प्रेम का रस भरे हुए आकर खड
गयी। �वरजन ने कहा – आ तझ ू े एक �चत्र �दखाऊ
माधवी ने कहा – �कसका �चत्र ह, दे खं।ू
माधवी ने �चत्र को घ्यानपूवर्क देखा। उसक� आंख� म� आंसू आ
�वरजन – पहचान गयी ?
माधवी - क्य ? यह स्वरुप तो कई बार स्वप्न म� देख चुक�? बदन
से कां�त बरस रह� है ।
�वरजन – दे खो वत
ृ ान्त भी �लखा है
माधवी ने दस
ू रा पन्ना उल्टा त ‘स्वामी बालाज’ शीषर्क लेख �मला
थोडी दे र तक द�न� तन्मय होकर यह लेख पढती रह� , तब बातचीत होने
लगी।
�वरजन – म� तो प्रथम ह� जान गयी थी �क उन्होन� अवश्य सन्
ले �लया होगा।
माधवी पथ
ृ ्वी क� ओर देख रह� थ , मख
ु से कुछ न बोल�।
�वरजन –तब म� और अब म� �कतना अन्तर है। मुखमण्डल से कां�
झलक रह� है । तब ऐसे सन्दर न थे

माधवी –हूं।
�वरजन – इश्वर्र उनक� सहायता करे। बड़ी तपस्या क� (नेत्रो म
जल भरकर) कैसा संयोग है । हम और वे संग –संग खेले, संग–संग रहे , आज
वे सन्यासी ह� और म� �वयो�गनी। न जाने उन्ह� हम ल�ग� क� कुछ सुध भ
ह� या नह�ं। िजसने सन्यास ले �लय , उसे �कसी से क्या मतल ? जब चाची

11
के पास पत्र न �लखा तो भला हमार� सु�ध क्या ह ? माधवी बालकपन म�
वे कभी योगी–योगी खेलते तो म� �मठाइय� �क �भ�ा �दया करती थी।
माधवी ने रोते हुए ‘न जाने कब दशर्न ह�ग ’ कहकर लज्जा से �सर
झक
ु ा �लया।
�वरजन – शीघ्र ह� आयंग�। प्राणनाथ ने यह लेख बहत सुन्
ु दर �लखा
माधवी – एक-एक शब्द से भािक्त टपकती है
�वरजन -वक्तृतता क� कैसी प्रशंसा क�! उनक� वाणी म� तो पहले ह�
जाद ू था, अब क्या पूछन! प्राण्नाथ के�चत पर िजसक� वाणी का ऐसा प्
हुआ, वह समस्त पृथ्वी पर अपना जादू फैला सकता है
माधवी – चलो चाची के यहाँ चल�।
�वरजन- हाँ उनको तो ध्यान ह� नह�ं रहां देख , क्या कहती है। प्रस
तो क्या होगी
मधवी- उनको तो अ�भलाषा ह� यह थी , प्रसन्न क्य� न ह?
उनक� तो अ�भलाषा ह� यह थी, प्रसन्न क्य� न ?
�वरजन- चल ? माता ऐसा समाचार सन
ु कर कभी प्रसन्न नह�ं
सकती। द�नो स्त्रीयाँ घर से बाहर �नकल�ं। �वरजन का मुखकमल मुरझा
हुआ था, पर माधवी का अंग –अंग हषर् �सला जाता था। कोई उससे पूछे –
तेरे चरण अब पथृ ्वी पर क्य� नह�ं पह ? तेरे पीले बदन पर क्य� प्रसन्
क� लाल� झलक रह� है ? तझ
ु े कौन-सी सम्पित्त �मल ग ? तू अब
शोकािन्वत और उदास क्य� न �दखायी पड? तझ
ु े अपने �प्रयतम से �मलन
क� अब कोई आशा नह�ं , तुझ पर प्रेम क� दृिष्ट कभी नह�ं पहुची �फर
क्य� फूल� नह�ं समात ? इसका उत्तर माधवी देग ? कुछ नह�ं। वह �सर
झक
ु ा लेगी, उसक� आंख� नीचे झक
ु जाय�गी, जैसे ड�लयां फूल� के भार से झक

जाती है । कदा�चत ् उनसे कुछ अश्रु�बन्दु भी टपक ; �कन्तु उसक� िजह्र
से एक शबद भी न �नकलेगा।
माधवी प्रेम के मद से मतवाल� है। उसका हृदय प्रेम से उन्म
उसका प्र, हाट का सौदा नह�ं। उसका प्रेम�कसी वस्तु का भूखा सनह�ं ह
वह प्रेम के बदले प्रेम नह�ं चाहती। उसे अभीमान है �क ऐसे पवीत्रता
क� म�ू तर् मेरे हृदय म� प्रकाशमान है। यह अभीमान उसक� उन्मता का क
है , उसके प्रेम का पुरस्कार ह

12
दस
ू रे मास म� वज
ृ रानी ने , बालाजी के स्वागत म� एक प्रभावशा
क�वता �लखी यह एक �वल�ण रचना थी। जब वह म�ु द्रत हुई तो �वद्
जगत ् �वरजन क� काव्–प्र�तभा से प�र�चत होते हुए भी चमत्कृत हो गय
वह कल्पन-रुपी प� , जो काव् –गगन मे वायम
ु ण्डल से भी आगे �नकल
जाता था, अबक� तारा बनकर चमका। एक–एक शब्द आकाशवाणी क� ज्यो�
से प्रका�शत था िजन लोग� ने यह क�वता पढ� वे बालाजी के भ्क्त हो ग
क�व वह संपेरा है िजसक� �पटार� म� सॉप� के स्थान म� हृदय बन्द होते ह

13
3
काशी म� आगमन

जब से वज
ृ रानी का काव् –चन्द्र उदय , तभी से उसके यहां सदै व
म�हलाओं का जमघट लगा रहता था। नगर मे स्त्रीय� क� कई सभाएं थ
उनके प्रबंध का सारा भार उसी को उठाना पडता था। उसके अ�त�रक्त अ
नगर� से भी बहुधा स्त्रीय� उससे भ�ट करने को आती रहती थी जो तीथर्य
करने के �लए काशी आता , वह �वरजन से अवरश्य �मलता। राज धमर्�संह
ने उसक� क�वताओं का सवा�ग–सन्दर संग्रह प्रका�शत
ु �कया था। उस सं
ने उसके काव् –चमत्कार का डंक , बजा �दया था। भारतवषर् क� कौन कह ,
यरो
ू प और अमे�रका के प्र�तिष्ठत क�वय� ने उसे उनक� काव्य मनोहरता
धन्यवाद �दया था। भारतवषर् म� एकाध ह� कोई र�सक मनुष्य रहा हो
िजसका पस
ु ्तकालय उसक� पुस्तक से सुशो�भत न होगा। �वरजन क
क�वताओं को प्र�तष्ठा करने वाल� मे बालाजी का पद सबसे ऊंचा था।
अपनी प्रभावशा�लनी वक्तृताओं और लेख� म� बहुधा उसी के वाक्य�
प्रमाण �दया करते थे। उन्ह� ‘सरस्वत’ म� एक बार उसके संग्रह क
स�वस्तार समालोचना भी �लखी थी।
एक �दन प्र: काल ह� सीता , चन्द्रकुंव,रुकमणी और रानी �वरजन
के घर आयीं। चन्द्रा ने इन �स�य� को फंशर् पर �बठाया और आदर सत
�कया। �वरजन वहां नह�ं थी क्य��क उसने प्रभात का समय काव्य �च
के �लए �नयत कर �लया था। उस समय यह �कसी आवश्यक कायर् क
अ�त�रक्त् स�खय� से �मलत –जल
ु ती नह�ं थी। वा�टका म� एक रमणीक
कंु ज था। गुलाब क� सगिन्धत से सुर�भत वायु चलती थी। वह�ं �वरजन
एक �शलायन पर बैठ� हुई काव् –रचना �कया करती थी। वह काव्य रुप
समद्र से िजन मो�तय� को �नकाल
ु , उन्ह� माधवी लेखनी क� माला म� �पर�
�लया करती थी। आज बहुत �दन� के बाद नगरवा�सय� के अनरोध
ु करने पर
�वरजन ने बालाजी क� काशी आने का �नमंत्रण देने के �लए लेखनी क
उठाया था। बनारस ह� वह नगर था, िजसका स्मरण कभ–कभी बालाजी को
व्यग्र कर �दया करता था। �कन्तु काशी वाल� के �नरंतर आग्रह कर
भी उनह� काशी आने का अवकाश न �मलता था। वे �संहल और रं गन
ू तक

14
गये, परन्तु उन्होन� काशी क� ओर मुख न फेरा इस नगर को वे अपन
पर��ा भवन समझते थे। इस�लए आज �वरजन उन्ह� काशी आने का
�नमंत्रण दे रह� ह�। लोग� का �वचार आ जाता , तो �वरजन का चन्द्रा
चमक उठता है , परन्तु इस समय जो �वकास और छटा इन दोन� पुष्प� प
है , उसे दे ख-दे खकर दरू से फूल लिज्जत हुए जाते ह�।
नौ बजते –बजते �वरजन घर म� आयी। सेवती ने कहा– आज बड़ी दे र
लगायी।
�वरजन – कुन्ती ने सूयर् को बुलाने के �लए �कतनी तपस्या क�
सीता – बाला जी बड़े �नष्ठूर ह�। म� तो ऐसे मनुष्य से कभी न बोलूं।
रुक�मण- िजसने संन्यास ले �लय , उसे घर–बार से क्या नात?
चन्द्रकुँ – यहां आयेग� तो म� मख
ु पर कह दं ग
ू ी �क महाशय , यह
नखरे कहां सीख� ?
रुकमणी – महारानी। ऋ�ष-महात्माओं का तो �शष्टाचार �कया कर
िजह्रवा क्या है कतरनी ह
चन्द्रकुँ – और क्य , कब तक सन्तोष कर� जी। सब जगह जाते ह ,
यह�ं आते पैर थकते ह�।
�वरजन – (मसु ्कराक) अब बहुत शीघ्र दशर्न पाओग�। मुझे �वश्वास
�क इस मास म� वे अवश्य आयेग�।
सीता – धन्य भाग्य �क दशर्न �मलेग�। म� तो जब उनका वृतांत पढ
हूं यह� जी चाहता ह� �क पाऊं तो चरण पकडकर घण्ट� रोऊँ
रुकमणी– ईश्वर ने उनके हाथ� म� बड़ा यश �दया। दारानगर क� रानी
सा�हबा मर चकु � थी सांस टूट रह� थी �क बालाजी को सच ू ना हुई। झट आ
पहुंचे और �ण –मात्र म� उठाकर बैठा �दया। हमारे मुंशीज(प�त) उन �दन�
वह�ं थ�। कहते थे �क रानीजी ने कोश क� कंु जी बालाजी के चरण� पर रख
द� ओर कहा –‘आप इसके स्वामी ह ’। बालाजी ने कहा –‘मझ
ु े धन क�
आवश्यक्ता नह�ं अपने राज्य म� तीन सौ गौशलाएं खुलवा द�ि ’। मख
ु से
�नकलने क� दे र थी। आज दारानगर म� दध
ू क� नद� बहती ह�। ऐसा महात्मा
कौन होगा।
चन्द्रकुवं – राजा नवलखा का तपे�दक उन्ह� क� बू�टय� से छूटा।
सारे वैद्य डाक्टर जवाब दे चुके थे। जब बालाजी चलने ल, तो महारानी जी

15
ने नौ लाख का मो�तय� का हार उनके चरण� पर रख �दया। बालाजी ने
उसक� ओर दे खा तक नह�ं।
रानी – कैसे रुखे मनुष्य ह�
रुकमणी- हॉ , और क्य, उन्ह� उ�चत था �क हार ले लेत – नह�ं –नह�ं
कण्ठ म� डाल लेते।
�वरजन – नह�ं, लेकर रानी को प�हना दे ते। क्य� सख?
रानी – हां म� उस हार के �लए गुलामी �लख दे ती।
चन्द्रकुंव – हमारे यहॉ (प�त) तो भारत –सभा के सभ्य बैठे ह� ढाई
सौ रुपये लाख यत्न करके रख छोडे , उन्ह� यह कहकर उठा ले गये �क
घोड़ा ल�ग�। क्या भार–सभावाले �बना घोड़े के नह�ं चलते?
रानी–कल ये लोग श्रेणी बांधकर मे रे घर के सामने से जा रहे ,बडे
भले मालम
ू होते थे।
इतने ह� म� सेवती नवीन समाचार –पत्र ले आयी
�वरजन ने पछ
ू ा – कोई ताजा समाचार है?
सेवती –हां, बालाजी मा�नकपरु आये ह�। एक अह�र ने अपनी पत्र् क

�ववाह का �नमंत्रण भेजा था। उस पर प्रयाग से भारतसभा के सभ्य�
रात को चलकर मा�नकपरु पहुंच।े अह�र� ने बडे उत्साह और समारोह के
साथ उनका स्वागत �कया है और सबने �मलकर पांच सौ गाएं भ�ट द� ह�
बालाजी ने वधू को आशीवार्रद �दया ओर दुल्हे को हृदय से लगाया। पा
अह�र भारत सभा के सदस्य �नयत हुए।
�वरजन-बड़े अच्छे समाचार ह�। माधव , इसे काट के रख लेना। और
कुछ?
सेवती- पटना के पा�सय� ने एक ठाकुदद्वारा बनवाया ह� वहाँ क�
भारतसभा ने बड़ी धम
ू धाम से उत्स्व �कय
�वरजन – पटना के लोग बडे उत्साह से कायर् कर रह� ह�
चन्द्रकुँ – गडू�रयां भी अब �सन्दूर लगाय�गी। पासी लोग ठाकुर द्वार
बनवायंग� ?
रुकमण-क्य , वे मनषु ्य नह�ं ह�? ईश्वर ने उन्ह� नह�ं बनाया। आप ह�
अपने स्वामी क� पूजा करना जानती ह�?
चन्द्रकुँ- चलो , हटो, मझ
ु � पा�सय� से �मलाती हो। यह मझ
ु े अच्छा
नह�ं लगता।
16
रुक�मणी – हाँ , तुम्हारा रंग गोरा है ? और वस्-आभषण�
ू से सजी
बहुत हो। बस इतना ह� अन्तर है �क और कु?
चन्द्रकुँ- इतना ह� अन्तर क्य� ? पतृ ्वी आकाश से �मलाती ह ?
यह मझु े अच्छा नह�ं लगता। मुझे कछवाह� वंश म� ,हू कुछ खबर है?
रुिक्म- हाँ , जानती हूँ और नह�ं जानती थी तो अब जान गयी।
तुम्हारे ठाकुर साहब(प�त) �कसी पासी से बढकर मल्ल –यद्व कर�ग
ु ? यह
�सफर् टेढ� पाग रखना जानते ?ह म� जानती हूं �क कोई छोटा –सा पासी भी
उन्ह� काँख–तले दबा लेगा।
�वरजन - अच्छा अब इस �ववाद को जाने तो। तुम दोन� जब आती
हो, लडती हो आती हो।
सेवती- �पता और पत्
ु र का कैसा संयोग हुआ ? ऐसा मालम
ु होता ह�
�क मंश
ु ी श�लग्राम ने प्रतापचन्द्र ह� के �लए संन्यास �लया था
उन्ह�ं कर �श�ा का फल ह�।
रिक्मणी – हां और क्य ? मन्शी श�लग्राम
ु तो अब स्वामी ब्रह
कहलाते ह�। प्रताप को देखकर पहचान गये होग�
सेवती – आनन्द से फूले न समाये होग�।
रुिक्म-यह भी ईश्वर क� प्रेरणा , नह�ं तो प्रतापचन्द्र मानसरोवर
करने जाते?
सेवती –ईश्वर क� इच्छा के �बना कोई बात होती ?
�वरजन –तम
ु लोग मेरे लालाजी को तो भल
ू ह� गयी। ऋषीकेश म�
पहले लालाजी ह� से प्रतापचनद्र क� भ�ट हुई थी। प्रताप उनके स-भर
तक रहे । तब दोन� आदमी मानसरोवर क� ओर चले।
रुिक्म –हां, प्राणनाथ के लेख म� तो यह वृतान्त था। बालाजी तो य
कहते ह� �क मंश
ु ी संजीवनलाल से �मलने का सौभाग्य मुझे प्राप्त न होता
म� भी मांगने–खानेवाले साधओ
ु ं म� ह� होता।
चन्द्रकुं-इतनी आत्मोन्न�त के �लए �वधाता ने पहले ह� से स
सामान कर �दये थे।
सेवती –तभी इतनी –सी अवस्था म� भारत के सुयर् बने हुए ह�। अभ
पचीसव� वषर् म� होग?
�वरजन – नह�ं, तीसवां वषर् है। मुझसे साल भर के जेठे ह�।
रुिक्मण-म�ने तो उन्ह� जब देख , उदास ह� दे खा।
17
चन्द्रकुंव – उनके सारे जीवन क� अ�भलाषाओं पर ओंस पड़ गयी।
उदास क्य� न ह�ग?
रुिक्मण – उन्होने तो देवीजी से यह� वरदान मांगा था
चन्द्रकुंव – तो क्या जा�त क� सेवा गृहस्थ बनकर नह�ं हो सक?
रुिक्मण – जा�त ह� क्य , कोई भी सेवा गृहस्थ बनकर नह�ं हो
सकती। गृहस्थ केवल अपने बा-बच्च� क� सेवा कर सकता है
चन्द्रकुंव – करनेवाले सब कुछ कर सकते ह� , न करनेवाल� के �लए
सौ बहाने ह�।
एक मास और बीता। �वरजन क� नई क�वता स्वागत का सन्देश
लेकर बालाजी के पास पहुची परन्तु यह न प्रकट हुआ �क उन्ह�ने �नमं
स्वीकार �कया या नह�ं। काशीवासी प्रती�ा क –करते थक गये। बालाजी
प्र�त�दन द��ण क� ओर बढते चले जाते थे। �नदान लोग �नराश हो गय
और सबसे अधीक �नराशा �वरजन को हुई।
एक �दन जब �कसी को ध्यान भी न था �क बालाजी आय�ग , प्राणना
ने आकर कहा–ब�हन। लो प्रसन्न हो , आज बालाजी आ रहे ह�।
�वरजन कुछ �लख रह� थी , हाथ� से लेखनी छूट पडी। माधवी उठकर
द्वार क� ओर लपक�। प्राणनाथ ने हंसकर क – क्या अभी आ थोड़े ह�
गये ह� �क इतनी उद्�वग्न हुई जाती हो
माधवी – कब आयंग� इधर से ह�होकर जायंग� नए?
प्राणना – यह तो नह�ं �ात है �क �कधर से आय�ग� – उन्ह� आडम्ब
और धम
ू धाम से बडी घ ृणा है । इस�लए पहले से आने क� �त�थ नह�ं �नयत
क�। राजा साहब के पास आज प्र:काल एक मनषु ्य ने आकर सूचना द� �क
बालाजी आ रहे ह� और कहा है �क मेर� आगवानी के �लए धम
ू धाम न हो ,
�कन्तु यहां के लोग कब मानते ह ? अगवानी होगी , समारोह के साथ सवार�
�नकलेगी, और ऐसी �क इस नगर के इ�तहास म� स्मरणीय हो। चार� ओर
आदमी छूटे हुए ह�। ज्य�ह� उन्ह� आते देख�, लोग प्रत्येक मुहल्ले म� टेल�
द्वारा सूचना दे द�गे। कालेज और सकूल� के �वद्याथ� व�दर्यां पहने
झिण्डयां �लये इन्तजार म� खडे ह� –घर पषु ्–वषार् क� तैया�रयां हो रह� ह�
बाजार म� दक
ु ान� सजायी जा रह�ं ह�। नगर म� एक धम
ू सी मची हुई है ।
माधवी - इधर से जायेग� तो हम रोक ल�गी।

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प्राणना – हमने कोई तैयार� तो क� नह�ं , रोक क्या ल�ग ? और यह
भी तो नह�ं �ात ह� �क �कधर से जाय�ग�।
�वरजन – (सोचकर) आरती उतारने का प्रबन्ध तो करना ह� होग
प्राणना – हॉ अब इतना भी न होगा ? म� बाहर �बछावन आ�द
�बछावाता हूं।
प्राणनाथ बाहर क� तैया�रय� म� ल , माधवी फूल चन
ु ने लगी , �वरजन
ने चांद� का थाल भी धोकर स्वच्छ �कया। सेवती और चन्द्रा भीतर
वस्तुएं क्रमानुसार सजाने लगी
माधवी हषर् के मारे फूल� न समाती थी। बारम्बार च –च�ककर द्वार
क� ओर दे खती �क कह�ं आ तो नह�ं गये। बारम्बार कान लगाकर सुनती �क
कह�ं बाजे क� ध्व�न तो नह�ं आ रह� है। हृदय हषर् के मारे धड़क रहा थ
फूल चन
ु ती थी, �कन्तु ध्यान दूसर� ओर था। हाथ� म� �कतने ह� कांटे चुभ
�लए। फूल� के साथ कई शाखाऍ ं मरोड़ डाल�ं। कई बार शाखाओं म� उलझकर
�गर�। कई बार साड़ी कांट� म� फंसा द�ं उसस समय उसक� दशा �बलकुल
बच्च� क-सी थी।
�कन्तु �वरजन का बदन बहुत सी म�लन था। जैसे जलपूणर् पा
त�नक �हलने से भी छलक जाता है , उसी प्रकार ज-ज्य� प्राचीन घटना
स्मरण आती थ, त्य-त्य� उसके नेत्र� से अश्रु छलक पड़ते थ! कभी वे
�दन थे �क हम और वह भाई-ब�हन थे। साथ खेलते , साथ रहते थे। आज
चौदह वषर् व्यतीत ह , उनकास मख ु दे खने का सौभग्य भी न हुआ। तब �म
त�नक भी रोती वह मेरे ऑ ंसू पोछत� और मेरा जी बहलाते। अब उन्ह� क्य
स�ु ध �क ये ऑ ंखे �कतनी रोयी ह� और इस हृदय ने कैस-कैसे कष्ट उठाये
ह�। क्या खबर थी क� हमारे भाग्य ऐसे दृश्य �दखा ? एक �वयो�गन हो
जायेगी और दस
ू रा सन्यासी
अकस्मात् माधवी को ध्यान आया �क सुवमस को कदा�चत बाजाज
के आने क� सचु ना न हुई हो। वह �वरजन के पास आक बोल�- म� त�नक
चची के यहॉँ जाती हूँ। न जाने �कसी ने उनसे कहा या नह�ं?
प्राणनाथ बाहर से आ रहे , यह सन
ु कर बोले- वहॉँ सबसे पहले
सच
ू ना द� गयीं भल�-भॉँ�त तैया�रयॉँ हो रह� है । बालाजी भी सीधे घर ह� क�
ओर पधार� गे। इधर से अब न आय�गे।

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�वरजन- तो हम लोग� का चलना चा�हए। कह�ं दे र न हो जाए।
माधवी- आरती का थाल लाऊँ ?
�वरजन- कौन ले चलेगा ? महर� को बल
ु ा लो (च�ककर) अरे ! तेरे हाथ�

म� रु�धर कहँ से आय?
माधवी- ऊँह ! फूल चन
ु ती थी, कॉँटे लग गये ह�गे।
चन्द- अभी नयी साड़ी आयी है । आज ह� फाड़ के रख द�।
माधवी- तुम्हार� बला स !
माधवी ने कह तो �दया , �कन्तु ऑख� अश्रुपूणर् हो गयीं। च
साधारणत: बहुत भल� स्त्री थी। �कन्तु जब से बाबू राधाचरण ने -सेवा
के �लए नौकर� से इस्तीफा दे �दया था वह बालाजी के नाम से �चढ़ती थी।
�वरजन से तो कुछ न कह सकती थी , परन्तु माधवी को छेड़ती रहती थी।
�वरजन ने चन्द्रा क� ओर घूरकर माधवी से - जाओ , सन्दूक से दूसर�
साड़ी �नकाल लो। इसे रख आओ। राम-राम, मार हाथ छलनी कर डाले!
माधवी- दे र हो जायेगी , म� इसी भॉँ�त चलँ ग
ू ी।
�वरजन- नह� , अभी घण्टा भर से अ�धक अवकाश है
यह कहकर �वरजन ने प्यार से माधवी के हाथ धोये। उसके बाल गूंथ ,
एक सन्दर साड़ी प�हनाय
ु , चादर ओढ़ायी और उसे हृदय से लगाकर सजल
नेत्र� से देखते हुए क- ब�हन! दे खो, धीरज हाथ से न जाय।
माध्वी मुस्कराकर बो- तम
ु मेरे ह� संग रहना , मझ
ु े सभलती रहना।
मझ
ु े अपने हृदय पर भरोसा नह�ं है
�वरजन ताड़ गई �क आज प्रेम ने उन्मत्ततास का पद ग्रहण �क
और कदा�चत ् यह� उसक� पराकाष्ठा है। ह ॉ ! यह बावल� बालू क� भीत उठा
रह� है ।
माधवी थोड़ी दे र के बाद �वरजन , सेवती, चन्द्रा आ�द स्त्रीय�
संग सव
ु ाम के घर चल�। वे वहॉँ क� तैया�रयॉँ दे खकर च�कत हो गयीं। द्वार
पर एक बहुत बड़ा चँ दोवा �बछावन , शीशे और भॉँ�त-भाँ�त क� साम�ग्रय� स
सस
ु िज्जत खड़ा था। बधाई बज रह� थ ! बड़े-बड़े टोकर� म� �मठाइयॉँ और
मेवे रखे हुए थे। नगर के प्र�तिष्ठत सभ्य उत्तमोत्तम वस्त्र प
स्वागत करने को खड़े थे। एक भी �फटन या गाड़ी नह�ं �दखायी देती थ ,
क्य��क बालाजी सवर्दा पैदल चला करते थे। बहुत से लोग गले म� झो�लयॉ
डाल� हुए �दखाई दे ते थे , िजनम� बालाजी पर समपर्ण करने के �लये रुप-पैसे
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भरे हुए थे। राजा धमर्�संह के पँच� लड़के रंगीन वस्त्र प , केस�रया पगड़ी
बांधे, रे शमी झिण्डयां कमरे से खोस� �बगुल बजा रहे थे। ज्य��ह लोग� क
दृिष्ट �वरजन पर प , सहस्र� मस्तक �शष्टाचार के �लए झुक गये। जब
दे �वयां भीतर गयीं तो वहां भी आंगन और दालान नवागत वधू क� भां�त
सस
ु िज्जत �दख ! सैकड़ो स्त्रीयां मंगल गाने के �लए बैठ� थीं। पुष्प�
रा�शयाँ ठौर-ठौर पड़ी थी। सव
ु ामा एक श्वेत साड़ी प�हने सन्तोष और शािन
क� म�ू तर् बनी हुई द्वार पर खड़ी थी। �वरजन और माधवी को देखते ह
सजल नयन हो गयी। �वरजन बोल�- चची ! आज इस घर के भाग्य जग
गये।
सव
ु ामा ने रोकर कहा- तुम्हारे कारण मुझे आज यह �दन देखने का
सौभाग्य हुआ। ईश्वर तुम्ह� इसका फल
द�ु खया माता के अन्:करण से यह आशीवार्द �नकला। एक माता के
शाप ने राजा दशरथ को पत्रशोक म� मृत्यु
ु का स्वाद चखाया था।
सव
ु ामा का यह आशीवार्द प्रभावह�न ह?
दोन� अभी इसी प्रकार बात� कर रह� थीं �क घण्टे और शंख क� ध्
आने लगी। धमू मची क� बालाजी आ पहुंच।े स्त्रीय� ने मंगलगान आर
�कया। माधवी ने आरती का थाल ले �लया मागर् क� ओर टकटक� बांधकर
दे खने लगी। कुछ ह� काल मे अद्वैताम्बरधार� नवयुवक� का समुदाय दखय
पड़ा। भारत सभा के सौ सभ्य घोड़� पर सवार चले आते थे। उनके पीछे
अग�णत मनषु ्य� का झुण्ड था। सारा नगर टूट पड़ा। कन्धे से कन्धा �
जाता था मानो समद्
ु र क� तरंग� बढ़ती चल� आती ह�। इस भीड़ म� बालाज
का मखचन्द्र ऐसा �दखायी पड़ताथ मानो मेघाच्छ�द
ु त चन्द्र उदय ह
ललाट पर अरुण चन्दन का �तलक था और कण्ठ म� एक गेरुए रंग
चादर पड़ी हुई थी।
सवु ामा द्वार पर खड़ी थ , ज्य�ह� बालाजी का स्वरुप उसे �दखा
�दया धीरज हाथ से जाता रहा। द्वार से बाहर �नकल आयी और �सर
झक
ु ाये, नेत्र� से मुक्तहार गूंथती बालाजी के ओर चल�। आज उसने अप
खोया हुआ लाल पाया है । वह उसे हृदय से लगाने के �लए उद्�वग्न
सव
ु ामा को इस प्रकार आते देखकर सब लोग रुक गये। �व�दत हो
था �क आकाश से कोई दे वी उतर आयी है । चतु�दर ्क सन्नाटा छा गया
बालाजी ने कई डग आगे बढ़कर मातीजी को प्रमाण �कया और उनके चरण
21
पर �गर पड़े। सव
ु ामा ने उनका मस्तक अपने अंक म� �लया। आज उसने
अपना खोया हुआ लाल पाया है । उस पर आंख� से मो�तय� क� विृ ष्ट कर
रह�ं है ।
इस उत्साहवद्र्वक दृश्य को देखकर लोग� के हृदय जातीयता के
मतवाले हो गये ! पचास सहस्र स्वर से ध्व�न- ‘बालाजी क� जय।’ मेघ
गजार् और चतु�द र्क से पुष्पवृिष्ट होने लगी। �फर उसी प्रकार दूसर� बा
क� गजर्ना हुई। ‘मंश
ु ी शा�लग्राम क� ’ और सहस्र� मनुष्ये स्-प्रेम क
मद से मतवाले होकर दौड़े और सव ु ामा के चरण� क� रज माथे पर मलने
लगे। इन ध्व�नय� से सुवामा ऐसी प्रमु�दत हो रह�ं थी जैसे महुअर के सुन
से ना�गन मतवाल� हो जाती है । आज उसने अपना खोया
हुआ लाल पाया है । अमल्य रत्न पाने से
ू वह रानी हो गयी है। इस रत्न
कारण आज उसके चरण� क� रज लोगो के नेत्र� का अंजन और माथे क
चन्दन बन रह� है
अपव
ू ्र दृश्य था। बारम्बा-जयकार क� ध्व�न उठती थी और स्वग
के �नवा�सय� को भातर क� जागृ�त का शभ
ु -संवाद सन
ु ाती थी। माता अपने
पत्
ु र को कलेजे से लगाये हुए है। बहुत �दन के अनन्तर उसने अपना खो
हुआ लाल है , वह लाल जो उसक� जन्-भर क� कमाई था। फूल चार� और
से �नछावर हो रहे है । स्वणर् और रत्न� क� वषार् हो रह� है। माता और
कमर तक पषु ्प� के समुद्र म� डूबे हुए है। ऐसा प्रभावशाल� दृश्य �कसक
ने दे खा होगा।
सवु ामा बालाजी का हाथ पकड़े हुए घरक� ओर चल�। द्वार पर पहुँचते
ह� स्त्रीयॉँ म-गीत गाने लगीं और माधवी स्वणर् र�चत थाल द�प औ
पषु ्प� से आरती करने लगी। �वरजन ने फूल� क� माल-िजसे माधवी ने
अपने रक्त से रंिजत �कया थ- उनके गले म� डाल द�। बालाजी ने सजल
नेत्र� से �वरजन क� ओर देखकर प्रणाम �
माधवी को बालाजी के दशनर् क� �कतनी अ�भलाषा थी। �कन्तु इ
समय उसके नेत्र पृथ्वी क� ओर झुके हुए है। वह बालाजी क� ओर नह�ं द
सकती। उसे भय है �क मेरे नेत्र पृथ्वी हृदय के भेद को खोल द�गे। उ
प्रेम रस भरा हुआ है। अब तक उसक� सबसे बड़ी अ�भलाषा यह थी �
बालाजी का दशनर् पाऊँ। आज प्रथम बार माधवी के हृदय म�
अ�भलाषाएं उत्पन्न ह, आज अ�भलाषाओं ने �सर उठाया है , मगर पण
ू ्र होने
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के �लए नह�ं , आज अ�भलाषा-वा�टका म� एक नवीन कल� लगी है , मगर
�खलने के �लए नह�ं , वरन मरु झाने �मट्टी म� �मल जाने के �लए। माधवी क
कौन समझाये �क तू इन अ�भलाषाओं को हृदय म� उत्पन्न होने दे।
अ�भलाषाएं तझ ु े बहुत रुलाय�गी। तेरा प्रेम काल्प�नक है। तू उसके स्वा
प�र�चत है । क्या अब वास्त�वक प्रेम का स्वाद �लया चाह?

23
4
प्रेम का स्

मनषु ्य का हृदय अ�भलाषाओं का क्र�ड़ास्थल और कामनाओ


आवास है । कोई समय वह थां जब �क माधवी माता के अंक म� खेलती थी।
उस समय हृदय अ�भलाषा और चेष्टाह�न था। �कन्तु जब �मट्टी के घ
बनाने लगी उस समय मन म� यह इच्छा उत्पन्न हुई �क म� भी अप
गु�ड़या का �ववाह करुँगी। सब लड़�कयां अपनी गु�ड़यां ब्याह रह� , क्या मेर�
गु�ड़याँ कँु वार� रह� गी ? म� अपनी गु�ड़याँ के �लए गहने बनवाऊँगी , उसे वस्त
पहनाऊँगी, उसका �ववाह रचाऊँगी। इस इच्छा ने उसे कई मास तक रुलाया
पर गु�ड़य� के भाग्य म� �ववाह न बदा था। एक �दन मेघ �घर आये और
मस
ू लाधार पानी बरसा। घर�दा विृ ष्ट म� बह गया और गु�ड़य� के �ववाह क�
अ�भलाषा अपण
ू ्र हो रह गयी
कुछ काल और बीता। वह माता के संग �वरजन के यहॉँ आने-जाने
लगी। उसक� मीठ�-मीठ� बात� सन
ु ती और प्रसन्न ह , उसके थाल म� खाती
और उसक� गोद म� सोती। उस समय भी उसके हृदय म� यह इच्छा थी �
मेरा भवन परम सन्दर
ु होत , उसम� चांद� के �कवाड़ लगे होते , भ�ू म ऐसी
स्वच्छ होती �क मक्खी बैठे और �फसल ! म� �वरजन को अपने घर ले
जाती, वहां अच्छ -अच्छे पकवान बनाती और �खलात , उत्तम पलंग पर
सल
ु ाती और भल�-भॉँ�त उसक� सेवा करती। यह इच्छा वष� तक हृदय म
चट
ु �कयाँ लेती रह�। �कन्तु उसी घर�दे क� भाँ�त यह घर भी ढह गया और
आशाएँ �नराशा म� प�रव�तर्त हो गयी
कुछ काल और बीता , जीवन-काल का उदय हुआ। �वरजन ने उसके
�चत्त पर प्रतापचन्द्र का �चत्त खींचना आरम्भ �कया। उन �दन�
के अ�त�रक्त उसे कोई बात अच्छ� न लगती थी। �नदान उसके हृदय
प्रतापचन्द्र क� चेर� बनने क� इच्छा उत्पन्न -पड़े हृदय से बात� �कया
करती। रात्र म� जागरण करके मन का मोदक खाती। इन �वचार� से �चत
पर एक उन्मा-सा छा जाता , �कन्तु प्रतापचन्द्र इसी बीच म� गुप्त
और उसी �मट्टी के घर�दे क� भाँ�त ये हवाई �कले ढह गये। आशा के स्थ
पर हृदय म� शोक रह गया

24
अब �नराशा ने उसक हृदय म� आशा ह� शेष न रखा। वह देवताओं क�
उपासना करने लगी, व्रत रखने लगी �क प्रतापचन्द्र पर समय क� कु
पड़ने पाये। इस प्रकार अपने जीवन के कई वषर् उसने तपिस्वनी ब
व्यतीत �कये। किल्पत प्रेम के उल्लास मे चूर होती। �कन्तु आज तप
का व्रत टूट गया। मन म� नूतन अ�भलाषाओं ने �सर उठाया। दस वषर्
तपस्या एक �ण म� भंग हो गयी। क्या यह इच्छा भी उसी �मट्टी के घ
क� भाँ�त पदद�लत हो जाएगी?
आज जब से माधवी ने बालाजी क� आरती उतार� है ,उसके आँसू नह�ं
रुके। सारा �दन बीत गया। ए-एक करके तार �नकलने लगे। सय
ू ् थककर

�छप गय और प�ीगण घोसल� म� �वश्राम करने ल , �कन्तु माधवी के नेत्
नह�ं थके। वह सोचती है �क हाय ! क्या म� इसी प्रकार रोने के �लए बना
गई हूँ ? म� कभी हँ सी भी थी िजसके कारण इतना रोती हूँ ? हाय! रोते-रोते
आधी आयु बीत गयी , क्या शेष भी इसी प्रकार बीत ? क्या मेरे जीवन म�
एक �दन भी ऐसा न आयेगा , िजसे स्मरण करके सन्तोष हो �क म�ने भ
कभी स�ु दन दे खे थे ? आज के पहले माधवी कभी ऐसे नैराश्-पी�ड़त और
�छन्नहृदया नह�ं हुई थी। वह अपने किल्पत पेम मे �नमग्न थी। आज उ
हृदय म� नवीन अ�भलाषाएँ उत्पन्न हुई है। अश्रु उन्ह�ं के प्रे�रत है।
सोलह वषर् तक आशाओं का आवास रहा ह , वह� इस समय माधवी क�
भावनाओं का अनम
ु ान कर सकता है ।
सव
ु ामा के हृदय मे नवीन इच्छाओं ने �सर उठाया है। जब त
बालजी को न दे खा था, तब तक उसक� सबसे बड़ी अ�भलाषा यह थी �क वह
उन्ह� आँख� भर कर देखती और हृ-शीतल कर लेती। आज जब आँख� भर
दे ख �लया तो कुछ और दे खने क� अच्छा उत्पन्न हुई। ! वह इच्छा
उत्पन्न हुई माधवी के घर�दे क� भाँ�त �मट्टी म� �मल जाने क
आज सव
ु ामा , �वरजन और बालाजी म� सांयकाल तक बात� होती रह�।
बालाजी ने अपने अनभ
ु व� का वणर्न �कया। सुवामा ने अपनी राम कहानी
सन
ु ायी और �वरजन ने कहा थोड़ा , �कन्तु सुना बहुत। मुंशी संजीवनलाल के
सन्यास का समाचार पाकर दोन� रोयीं। जब द�पक जलने का समयआ
पहुँचा, तो बालाजी गंगा क� ओर संध्या करने चले और सुवामा भोजन बनाने
बैठ�। आज बहुत �दन� के पश्चात सुवामा मन लगाकर भोजन बना रह� थी।
दोन� बात करने लगीं।
25
सव
ु ामा-बेट� ! मेर� यह हा�दर ्क अ�भलाषा थी �क मेरा लड़का संसार म�
प्र�तिष्ठत हो और ईश्वर ने मेर� लालसा पूर� कर द�। प्रताप ने �प
कुल का नाम उज्ज्वल कर �दया। आज जब प:काल मेरे स्वामीजी क� जय
सन
ु ायी जा रह� थी तो मेरा हृदय उम-उमड़ आया था। म� केवल इतना
चाहती हूँ �क वे यह वैराग्य त्याग द�। देश का उपकार करने से म� उन्ह� नह
राकती। म�ने तो दे वीजी से यह� वरदान माँगा था , परन्तु उन्ह� संन्यासी
वेश म� दे खकर मेरा हृदय �वद�णर् हुआ जाता ह
�वरजन सव
ु ामा का अ�भप्राय समझ गयी। बो-चाची ! यह बात तो
मेरे �चत्त म� प�हले ह� से जमी हुई है। अवसर पाते ह� अवश्य छेडूँगी
सव ु ामा-अवसर तो कदा�चत ह� �मले। इसका कौन �ठकान ? अभी जी
म� आये , कह�ं चल द� । सन
ु ती हूँ सोटा हाथ म� �लये अकेले वन� म� घम
ू ते है ।
मझु से अब बेचार� माधवी क� दशा नह�ं दे खी जाती। उसे दे खती हूँ तो जैसे
कोई मेरे हृदय को मसोसने लगता है। म�ने बहुतेर� स्त्रीयाँ देखीं और अ
का वतृ ्तान्त पुस्तक� म� ; �कन्तु ऐसा प्रेम कह�ं नह�ं देखा। बेचार�
आधी आयु रो-रोकर काट द� और कभी मख
ु न मैला �कया। मन
� े कभी उसे
रोते नह�ं दे खा ; परन्तु रोने वाले नेत्र और हँसने वाले मुख �छपे नह�ं रहत
मझ
ु े ऐसी ह� पत्रवधू क�
ु लालसा , सो भी ईश्वर ने पूणर् कर द�। तुमस
सत्य कहती हू, म� उसे पत्रवधू समझती हूँ। आज से
ु न,ह वष� से।
वज
ृ रानी- आज उसे सारे �दन रोते ह� बीता। बहुत उदास �दखायी दे ती
है ।
सव
ु ामा- तो आज ह� इसक� चचार् छेड़ो। ऐसा न हो �क कल �कसी ओर
प्रस्थान कर, तो �फर एक यग
ु प्रती�ा करनी पड़
वज
ृ रानी- (सोचकर) चचार् करने को तो � कर
म , �कन्तु माधवी स्वय
िजस उत्तमता के साथ यह कायर् कर सकती , कोई दस
ू रा नह�ं कर सकता।
सव
ु ामा- वह बेचार� मख
ु से क्या कहेग ?
वज
ृ रानी- उसके नेत्र सार� कथा कह द� ?
सव
ु ामा- लल्लू अपने मन म� क्या कहं ?
वज
ृ रानी- कह� गे क्या ? यह तम्हारा
ु भ्रम है जो तुम उसे कुँवार� स
रह� हो। वह प्रतापचन्द्र क� पत्नी बन चुक�। ईश्वर के यहाँ उसका
उनसे हो चक
ु ा य�द ऐसा न होता तो क्या जगत् म� पुरुष न ? माधवी
जैसी स्त्री को कौन नेत्र� म� न स्था ? उसने अपना आधा यौवन व्यथर
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रो-रोकर �बताया है । उसने आज तक ध्यान म� भी �कसी अन्य पुरुष
स्थान नह�ं �दया। बारह वषर् से तपिस्वनी का जीवन व्यतीत कर रह� है।
पलंग पर नह�ं सोयी। कोई रं गीन वस्त्र नह�ं पहना। केश तक नह�ं गुँथाय
क्या इन व्यवहार� से नह�ं �सद्व होता �क माधवी का �ववाह हो च? हृदय
का �मलाप सच्चा �ववाह है। �सन्दूर का ट� , ग्रि-बन्धन और भाँव- ये
सब संसार के ढकोसले है ।
सव
ु ामा- अच्छ , जैसा उ�चत समझो करो। म� केवल जग-हँ साई से डरती
हूँ।
रात को नौ बजे थे। आकाश पर तारे �छटके हुए थे। माधवी वा�टका
म� अकेल� �कन्तु अ�त दूर ह�। क्या कोई वहाँ तक पहुँच सकता ? क्या
मेर� आशाएँ भी उन्ह� न�त्र� क� भाँ�त ? इतने म� �वरजन ने उसका हाथ
पकड़कर �हलाया। माधवी च�क पड़ी।
�वरजन-अँधेरे म� बैठ� क्या कर रह� ह ?
माधवी- कुछ नह�ं , तो तार� को दे ख रह� हूँ। वे कैसे सह
ु ावने लगते ह� ,
�कन्तु �मल नह�ं सकते
�वरजन के कलेजे मे बछ�-सी लग गयी। धीरज धरकर बोल�- यह तारे
�गनने का समय नह�ं है । िजस अ�त�थ के �लए आज भोर से ह� फूल� नह�ं
समाती थी, क्या इसी प्रकार उसक� अ�-सेवा करे गी?
माधवी- म� ऐसे अ�त�थ क� सेवा के योग्य कब हू ?
�वरजन- अच्छ , यहाँ से उठो तो म� अ�त�थ-सेवा क� र��त बताऊँ।
दोन� भीतर आयीं। सव
ु ामा भोजन बना चक
ु � थी। बालाजी को माता के
हाथ क� रसोई बहुत �दन� म� प्राप्त हुई। उन्ह�ने बड़े प्रेम से भोजन
सवु ामा �खलाती जाती थी और रोती जाती थी। बालाजी खा पीकर लेटे , तो
�वरजन ने माधवी से कहा- अब यहाँ कोने म� मख
ु बाँधकर क्य� बैठ� ह?
माधवी- कुछ दो तो खाके सो रहूँ , अब यह� जी चाहता है ।
�वरजन- माधवी ! ऐसी �नराश न हो। क्या इतने �दन� का व्रत
�दन म� भंग कर दे गी?
माधवी उठ� , परन्तु उसका मन बैठा जाता था। जैसे मेघ� क� काल-
काल� घटाएँ उठती है और ऐसा प्रतीत होता है �क अब -थल एक हो
जाएगा, परन्तु अचानक पछवा वायु चलने के कारण सार� घटा काई क�
भाँ�त फट जाती है, उसी प्रकार इस समय माधवी क� ग�त हो रह� ह
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वह शभु �दन दे खने क� लालसा उसके मन म� बहुत �दन� से थी। कभी
वह �दन भी आयेगा जब �क म� उसके दशर्न पाऊँग? और उनक� अमत ृ -वाणी
से श्रवण तृप्त करुँगी। इस �दन के �लए उसने मान्याएँ कैसी मा? इस
�दन के ध्यान से ह� उसका हृदय कैसा �खला उठता !
आज भोर ह� से माधवी बहुत प्रसन्न थी। उसने बड़े उत्साह से फ
का हार गँूथा था। सैकड़� काँटे हाथ म� चभ
ु ा �लये। उन्मत्त क� भाँ�त �-
�गर पड़ती थी। यह सब हषर् और उमंग इसी�लए तो था �क आज वह शुभ
�दन आ गया। आज वह �दन आ गया िजसक� ओर �चरकाल से आँखे लगी
हुई थीं। वह समय भी अब स्मरण नह� , जब यह अ�भलाषा मन म� नह�ं , जब
यह अ�भलाषा मन म� न रह� हो। परन्तु इस समय माधवी के हृदय क� व
गाते नह�ं है । आनन्द क� भी सीमा होती है। कदा�चत् वह माधवी के आनन्
क� सीमा थी, जब वह वा�टका म� झम
ू -झम
ू कर फूल� से आँचल भर रह� थी।
िजसने कभी सख
ु का स्वाद ह� न चखा ह , उसके �लए इतना ह� आनन्द
बहुत है । वह बेचार� इससे अ�धक आनन्द का भार नह�ं सँभाल सकती। िजन
अधर� पर कभी हँ सी आती ह� नह�ं , उनक� मस
ु ्कान ह� हँसी है। तुम ऐस� से
अ�धक हँ सी क� आशा क्य� करते ह ? माधवी बालाजी क� ओर परन्तु इस
प्रकार इस प्रकार नह�ं जैसे एक नवेल� बहू आशाओं से भर� हुई श्रृंगार
अपने प�त के पास जाती है । वह� घर था िजसे वह अपने दे वता का मिन्दर
समझती थी। जब वह मिन्दर शून्य , तब वह आ-आकर आँसओ
ु ं के पषु ्प
चढ़ाती थी। आज जब दे वता ने वास �कया है , तो वह क्य� इस प्रकार -
मचल कर आ रह� है?
रा�त्र भ-भाँ�त आद्रर् हो चुक� थी। सड़क पर घंट� के शब्द सुनायी
रहे थे। माधवी दबे पाँव बालाजी के कमरे के द्वार तक गयी। उसका हृद
धड़क रहा था। भीतर जाने का साहस न हुआ , मानो �कसी ने पैर पकड़
�लए। उल्टे पाँव �फर आयी और पृथ्वी पर बैठकर रोने लगी। उसके �चत्त
कहा- माधवी! यह बड़ी लज्जा क� बात है। बालाजी क� चेर� सह , माना �क
तझ
ु े उनसे प्रेम ; �कन्तु तू उसक� स्त्री नह�ं है। तुझे इस समय उनक
म� रहना उ�चत नह�ं है । तेरा प्रेम तुझे उनक� पत्नी नह�ं बना सकता। प
और वस्तु है और सोहाग और वस्तु है। प्रेम �चत क� प्रवृित्त है औ
एक प�वत्र धमर् है। तब माधवी को एक �ववाह का स्मरण हो आया। वर
भर� सभा मे पत्नी क� बाँह पकड़ी थी और कहा था �क इस स्त्री को
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अपने गृह क� स्वा�मनी और अपने मन क� देवी समझता रहूँगा। इस सभा
के लोग, आकाश, अिग्न और देवता इसके सा�ी रहे। ह ! ये कैसे शभ
ु शब्द
है । मझ
ु े कभी ऐसे शब्द सुनने का मौका प्राप्त न ! म� न अिग्न को
अपना सा�ी बना सकती हूँ , न दे वताओं को और न आकाश ह� को ; परन्तु
है अिग्! है आकाश के तारो ! और हे दे वलोक-वा�सय� ! तुम सा�ी रहना �क
माधवी ने बालाजी क� प�वत्र मू�तर् को हृदय म� स्थान , �कन्तु �कसी
�नकृ ष्ट �वचार को हृदय म� न आने �दया। य�द म�ने घर के भीतर पैर रख
हो तो है अिग् ! तुम मझ
ु े अभी जलाकर भस्म कर दो। हे आका ! य�द
तुमने अपने अनेक नेत्र� से मुझे गृह म� जाते दे , तो इसी �ण मेरे ऊपर
इन्द्र का वज्र �गर
माधवी कुछ काल तक इसी �वचार मे मग्न बैठ� रह�। अचानक उसके
कान म� भक-भक क� ध्व�न आयीय। उसने च�ककर देखा तो बालाजी का
कमरा अ�धक प्रका�शत हो गया था और प्रकाश �खड़�कय� से ब
�नकलकर आँगन म� फैल रहा था। माधवी के पाँव तले से �मट्टी �नक
गयी। ध्यान आया �क मेज पर लैम्प भभक उठा। वायु क� भाँ�त व
बालाजी के कमरे म� घस
ु ी। दे खा तो लैम्प फटक पृथ्वी पर �गर पड़ा है औ
भत
ू ल के �बछावन म� तेल फैल जाने के कारण आग लग गयी है । दस
ू रे
�कनारे पर बालाजी सख
ु से सो रहे थे। अभी तक उनक� �नद्रा न खुल� थी
उन्ह�ने काल�न समेटकर एक कोने म� रख �दया था। �वद्युत क� भाँ�
लपककर माधवी ने वह काल�न उठा �लया और भभकती हुई ज्वाला के ऊपर
�गरा �दया। धमाके का शब्द हुआ तो बालाजी ने च�ककर आँख� खोल�। घर
मे धआ
ु ँ भरा था और चतु�दर ्क तेल क� दुगर्न्ध फैल� हुई थी। इसका का
वह समझ गये। बोले- कुशल हुआ, नह�ं तो कमरे म� आग लग गयी थी।
माधवी- जी हाँ ! यह लैम्प �गर पड़ा था।
बालाजी- तुम बड़े अवसर से आ पहुँची।
माध्व- म� यह�ं बाहर बैठ� हुई थी।
बालाजी –तमु को बड़ा कष्ट हुआ। अब जाकर शयन करो। रात बहुत हा
गयी है ।
माधवी – चल� जाऊँगी। शयन तो �नत्य ह� करना है। यअ अवसर न
जाने �फर कब आये?

29
माधवी क� बात� से अपव
ू ् करुणा भर� थी। ब
र ालाजी ने उसक� ओ
ध्या-पव
ू ्क देख
र ा। जब उन्ह�ने प�हले माधवी को देखा ,उसक समय वह
एक �खलती हुई कल� थी और आज वह एक मरु झाया हुआ पषु ्प है। न मुख
पर सौन्दयर् , न नेत्र� म� आनन्द क� , न माँग म� सोहाग का संचार
था, न माथे पर �संदरू का ट�का। शर�र म� आभष
ू ाण� का �चन्ह भी न था।
बालाजी ने अनम
ु ान से जाना �क �वधाता से जान �क �वधाता ने ठ�क
तरुणावस्था म� इस दु�खया का सोहाग हरण �कया है। परम उदास होक
बोले-क्य� माधव! तुम्हारा तो �ववाह हो गया है ?
माधवी के कलेज मे कटार� चभ
ु गयी। सजल नेत्र होकर बो- हाँ , हो
गया है ।
बालाजी- और तम्हार प�
ु ?
माधवी- उन्ह� मेर� कुछ सुध ह� नह�ं। उनका �ववाह मुझसे नह�ं हुआ।
बालाजी �विस्मत होकर बोल- तुम्हारा प�त करता क्या ?
माधवी- दे श क� सेवा।
बालाजी क� आँख� के सामने से एक पदार् सा हट गया। वे माधवी का
मनोरथ जान गये और बोले- माधवी इस �ववाह को �कतने �दन हुए?
बालाजी के नेत्र सजल हो गये और मुख पर जातीयता के मद क
उन्मा– सा छा गया। भारत माता ! आज इस प�ततावस्था म� भी तुम्हार
अंक म� ऐसी-ऐसी दे �वयाँ खेल रह� ह� , जो एक भावना पर अपने यौवन और
जीवन क� आशाऍ ं समपर्ण कर सकती है। बोल- ऐसे प�त को तम
ु त्याग
क्य� नह�ं देत?
माधवी ने बालाजी क� ओर अ�भमान से दे खा और कहा- स्वामी ज !
आप अपने मख ु से ऐसे कह� ! म� आयर-बाला हूँ। मन
� े गान्धार� और सा�वत्री
कुल म� जन्म �लया है। िजसे एक बार मन म� अपना प�त मान ◌ाचुक� उसे
नह�ं त्याग सकती। य�द मेर� आयु इसी प्रकार र-रोते कट जाय , तो भी
अपने प�त क� ओर से मझ
ु े कुछ भी खेद न होगा। जब तक मेरे शर�र मे
प्राण रहेगा म� ईश्वर से उनक �हत चाहती रहूँगी। मेरे �लए यह� क्या
है , जो ऐसे महात्मा के प्रेम ने मेरे हृदय म� �नवास �कय ? म� इसी का
अपना सौभाग्य समझती हूँ। �ने एक बार अपने स्वामी को दूर से
म देखा था
वह �चत्र एक �ण के �लए भी आँख� से नह� उतरा। जब कभी म� बीमार हु
हूँ, तो उसी �चत्र ने मेर� शश्रुषा
ु क� है। जब कभी म�ने �वयो◌ेग के आ
30
बहाये ह�, तो उसी �चत्र ने मुझे सान्त्वना द� है। उस �चत्र वाले प�त क
कैसे त्याग दू ? म� उसक� हूँ और सदै व उसी का रहूँगी। मेरा हृदय और मेरे
प्राण सब उनक� भ�ट हो चुके ह�। य�द वे कह� तो आज म� अिग्न के अंक मं
ऐसे हषर्पूवर्क जा बैठूँ जैसे फूल� क� शैय्या पर। य�द मेरे प्राण उनके
काम आय� तो म� उसे ऐसी प्रसन्नता से दे दूँ जैसे कोई उपसाक अप
इष्टदेव को फूल चढ़ाता हो
माधवी का मख
ु मण्डल प्-ज्यो�त से अरुणा हो रहा था। बालाजी न
सब कुछ सन
ु ा और चप
ु हो गये। सोचने लगे- यह स्त्री ; िजसने केवल मेरे
ध्यान पर अपना जीवन समपर्ण कर �दया है। इस �वचार से बालाजी के ने
अश्रुपूणर् हो गये। िजस प्रेम ने एक स्त्री का जीवन जलाकर भस्म
हो उसके �लए एक मनषु ्य के घैयर् को जला डालना कोई बात नह ! प्रेम क
सामने धैय् कोई वस्तु
र नह�ं है। वह बो- माधवी तम
ु जैसी दे �वयाँ भारत क�
गौरव है । म� बड़ा भाग्यवान हूँ �क तुम्हारे प-जैसी अनमोल वस्तु इस प्रक
मेरे हाथ आ रह� है । य�द तुमने मेरे �लए यो�गनी बनना स्वीकार �कया है
तो म� भी तुम्हारे �लए इस सन्यास और वैराग्य का त्याग कर सकता ह
िजसके �लए तुमने अपने को �मटा �दया है । , वह तुम्हारे �लए बड़-से-बड़ा
ब�लदान करने से भी नह�ं �हच�कचायेगा।
माधवी इसके �लए पहले ह� से प्रस्तुत , तुरन्त बोल- स्वामीज! म�
परम अबला और बद्�वह�न सत्री हूँ। परन्तु म� आपको �वश्वास �दलाती

�क �नज �वलास का ध्यान आज तक एक पल के �लए भी मेरे मन मे नह�
आया। य�द आपने यह �वचार �कया �क मेर प्रेम का उद्देश्य केवल
आपके चरण� म� सांसा�रक बन्धन� क� बे�ड़याँ डाल दू , तो (हाथ जोड़कर)
आपने इसका तत्व नह�ं समझा। मेरे प्रेम का उद्देश्य , जो आज मझ
ु े
प्राप्त हो गया। आज का �दन मेरे जीवन का सबसे शुभ �दन है। आज
अपने प्राणनाथ के सम्मुख खड़ी हूँ और अपने कान� से उनक� अमृतम
वाणी सन
ु रह� हूँ। स्वामीज ! मझ
ु े आशा न थी �क इस जीवन म� मझ
ु े यह
�दन दे खने का सौभाग्य होगा। य�द मेरे पास संसार का राज्य होता तो म
इसी आनन्द से उसे आपके चरण� म� समपर्ण कर देती। म� हाथ जोड़क
आपसे प्राथर्ना करती हूँ �क मुझे अब इन चरण� से अलग न क�िजयेगा। म
सन्यस ले लूँगी और आपके संग रहूँगी। वैरा�गनी बनूँग , भभ�ू त रमाऊँगी ;

31
परन्त् आपका संग न छोडूँगी। प्राण ! मन
� े बहुत द:ु ख सहे ह� , अब यह
जलन नह�ं सक� जाती।
यह कहते-कहते माधवी का कंठ रुँध गया और आँख� से प्रेम क� धा
बहने लगी। उससे वहाँ न बैठा गया। उठकर प्रणाम �कया और �वरजन क
पास आकर बैठ गयी। वज
ृ रानी ने उसे गले लगा �लया और पछ
ू ा – क्या
बातचीत हुई?
माधवी- जो तुम चहाती थीं।
वज
ृ रानी- सच , क्या बोल?
माधवी- यह न बताऊँगी।
वज
ृ रानी को मानो पड़ा हुआ धन �मल गया। बोल�- ईश्वर ने बहुत
�दन� म� मेरा मनारे थ परू ा �कया। मे अपने यहाँ से �ववाह करुँगी
माधवी नैराश्य भाव से मुस्करायी। �वरजन ने किम्पत स्वर से-
हमको भल
ू तो न जायेगी ? उसक� आँख� से आँसू बहने लगे। �फर वह स्वर
सँभालकर बोल�- हमसे तू �बछुड़ जायेगी।
माधवी- म� तुम्ह� छोड़कर कह�ं न जाऊँगी।
�वरजन- चल ; बात� ने बना।
माधवी- दे ख लेना।
�वरजन- दे खा है । जोड़ा कैसा पहनेगी ?
माधवी- उज्ज् , जैसे बगल
ु े का पर।
�वरजन- सोहाग का जोड़ा केस�रया रं ग का होता है ।
माधवी- मेरा श्वेत रहेगा
�वरजन- तुझे चन्द्रहार बहुत भाता था। म� अपना दे दूँ
माधवी-हार के स्थान पर कंठ� दे देना
�वरजन- कैसी बात� कर रह� ह� ?
माधवी- अपने श्रृंगार !
�वरजन- तेर� बात� समझ म� नह�ं आती। तू इस समय इतनी उदास
क्य� ह ? तन
ू े इस रत्न के �लए कैस-कैसी तपस्याएँ क , कैसा-कैसा योग
साधा, कैसे-कैसे व्रत �कये और तुझे जब वह रत्न �मल गया तो ह�षर्त न
दे ख पड़ती!
माधवी- तुम �ववाह क� बातीचीत करती हो इससे मझ
ु े द:ु ख होता है ।
�वरजन- यह तो प्रसन्न होने क� बात
32
माधवी- ब�हन ! मेरे भाग्य म� प्रसन्नता �लखी ह� ! जो प�ी बादल�
म� घ�सला बनाना चाहता है वह सवर्दा डा�लय� पर रहता है। म�ने �नणर्य क
�लया है �क जीवन क� यह शेष समय इसी प्रकार प्रेम का सपना देखने
काट दँ ग
ू ी।

33
5
�वदाई

दस
ू रे �दन बालाजी स्था-स्थान से �नवृत होकर राजा धमर्�संह क
प्रती�ा करने लगे। आज राजघाट पर एक �वशाल गोशाला का �शलारोप
होने वाला था , नगर क� हाट-बाट और वी�थयाँ मस
ु ्काराती हुई जान पड़ती
थी। सडृक के दोन� पाश्वर् म� झण्डे और झ�णयाँ लहरा रह� थीं। गृहद्
फूल� क� माला प�हने स्वागत के �लए तैयार थ, क्य��कआज उस स्वद-प्रेम
का शभग
ु मन है, िजसने अपना सवर्स्व देश के �हत ब�लदान कर �दया ह
हषर् क� देवी अपनी सख-सहे �लय� के संग टहल रह� थी। वायु झम
ू ती
थी। द:ु ख और �वषाद का कह�ं नाम न था। ठौर-ठौर पर बधाइयाँ बज रह�
थीं। पर
ु ुष सुहावने वस्त्र पहने इठालते थे। स्त्रीयाँ सोलह श्रृंगार -
गीत गाती थी। बालक-मण्डल� केस�रया साफा धारण �कये कलोल� करती थीं
हर पर
ु ु-स्त्री के मुख से प्रसन्नता झलक , क्य��क आज एक सच्च
जा�त-�हतैषी का शभग
ु मन है िजसेने अपना सवर्स्व जा�त के �हत म� भ�ट क
�दया है ।
बालाजी अब अपने सहद�
ु के संग राजघाट क� ओर चले तो सय
ू ्र
भगवान ने पव
ू ्
र �दशा से �नकलकर उनका स्वागत �कया। उनका तेजस्
मख
ु मण्डल ज्य� ह� लोग� ने देखा सहस्रो मुख� ‘भारत माता क� जय’ का
घोर शब्द सुनायी �दया और वायुमंडल को चीरता हुआ आका-�शखर तक
जा पहुंवा। घण्ट� और शंख� क� ध्व�न �नना�दत हुई और उत्सव का स
राग वायु म� गँज
ू ने लगा। िजस प्रकार द�पक को देखते ह� पतंग उसे घेर लेत
ह� उसी प्रकार बालाजी को देखकर लोग बड़ी शीघ्रता से उनके चतु�दर्क
हो गये। भारत-सभा के सवा सौ सभ्य� ने आ�भवादन �कया। उनक� सुन्द
वा�दर ्याँ और मनचले घोड़� नेत्र� म� खूब जाते थे। इस सभा का-एक
सभ्य जा�त का सच्चा �हतैषी था और उसके उम-भरे शब्द लोग� के
�चत्त को उत्साह से पूणर् कर देते थ� सड़क के दोन� ओर दशर्क� क� श
थी। बधाइयाँ बज रह� थीं। पषु ्प और मेव� क� वृिष्ट हो रह� थी। ठ-ठौर
नगर क� ललनाएँ श्रृंगार �क, स्वणर् के थाल म� कप, फूल और चन्दन �लये
आरती करती जाती थीं। और दक
ू ाने नवागता वधू क� भाँ�त सस
ु िज्जत थीं।

34
सारा नगेर अपनी सजावट से वा�टका को लिज्जत करता था और िजस
प्रकार श्रावण मास म� काल� घटाएं उठती ह� औ-रहकर वन क� गरज
हृदय को कँपा देती है और उसी प्रकार जनता क� उमंगवद्र्वक (भारत
माता क� जय) हृदय म� उत्साह और उत्तेजना उत्पन्न करती थी
बालाजी चौक म� पहुँचे तो उन्ह�ने एक अद्भुत दृश्य देखा।-व ृन्द ऊदे
रं ग के लेसदार कोट प�हने , केस�रया पगड़ी बाँधे हाथ� म� सन्दर छ�ड़याँ �लये

मागर् पर खडे थे। बालाजी को देखते ह� वे द-दस क� श्रे�णय� म� हो गय
एवं अपने डण्डे बजाकर यह ओजस्वी गीत गाने ल:-
बालाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
ध�न-ध�न भाग्य ह� इस नगर� क ; ध�न-ध�न भाग्य हमारे।
ध�न-ध�न इस नगर� के बासी जहाँ तब चरण पधारे ।
बालाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।।
कैसा �चत्ताकषर्क दृश्य था। गीत यद्य�प साधा , परन्तु अनके
और सधे हुए स्वर� ने �मलकर उसे ऐसा मनोहर और प्रभावशाल� बना �द
�क पांव रुक गये। चतु�द र्क सन्नाटा छा गया। सन्नाटे म� यह राग
सह
ु ावना प्रतीत होता था जैसे रा�त्र के सन्नाटे म� बुलबुल का चहकना।
दशर्क �चत्त क� भाँ�त खड़े थे। द�न भारतवा�स, तुमने ऐसे दृश्य कहाँ दे?
इस समय जी भरकर दे ख लो। तुम वेश्याओं के नृत-वाद्य से सन्तुष्ट
गये। वारांगनाओं क� काम-ल�लाएँ बहुत दे ख चक
ु े , खब
ू सैर सपाटे �कये ;
परन्तु यह सच्चा आनन्द और यह सुखद उत, जो इस समय तम ु अनभ ु व
कर रहे हो तुम्ह� कभी और भी प्राप्त हु ? मनमोहनी वेश्याओं के संगीत
और सन्द�रय� का का
ु -कौतुक तुम्हार� वैष�यक इच्छाओं को उत्तेिजत कर
है । �कन्तु तुम्हारे उत्साह� को और �नबर्ल बना देते ह� और ऐसे दृश्य तु
हृदयो म� जातीयता और जा�-अ�भमान का संचार करते ह�। य�द तुमने
अपने जीवन मे एक बार भी यह दृश्य देखा , तो उसका प�वत्र �चह
तुम्हारे हृदय से कभी नह�ं �मटेग
बालाजी का �दव्य मुखमंडल आित्मक आनन्द क� ज्यो�त से प्र
था और नेत्र� से जात्या�भमान क� �करण� �नकल रह� थीं। िजस प्रकार
अपने लहलहाते हुए खेत को दे खकर आनन्दोन्मत्त हो जाता , वह� दशा
इस समय बालाजी क� थी। जब रागे बन्द हो गेय, तो उन्ह�ने कई डग आगे

35
बढ़कर दो छोटे -छोटे बच्च� को उठा कर अपने कंध� पर बैठा �लया और
बोले, ‘भारत-माता क� जय!’
इस प्रकार श: शनै लोग राजघाट पर एकत्र हुए। यहाँ गोशाला क
एक गगनस्पश� �वशाल भवन स्वागत के �लये खड़ा था। आँगन म� मखमल
का �बछावन �बछा हुआ था। गृहद्वार और स्तंभ फ-पित्तय� से सुसिज्ज
खड़े थे। भवन के भीतर एक सहस गाय� बंधी हुई थीं। बालाजी ने अपने
हाथ� से उनक� नॉँद� म� खल�-भस
ू ा डाला। उन्ह� प्यार से थप�कयॉँ द�। एक
�वस्तृत गृह मे संगमर का अष्टभुज कुण्ड बना हुआ था। वह दूध से प�रवू
था। बालाजी ने एक चल्लू दूध लेकर नेत्र�
ु से लगाया और पान �कय
अभी आँगन म� लोग शािन्त से बैठने भी न पाये थे कई मनुष्य दौड़
हुए आये और बोल-पिण्डत बदलू शास् , सेठ उत्तमचन्द्र और ल
माखनलाल बाहर खड़े कोलाहल मचा रहे ह� और कहते है । �क हमा को
बालाजी से दो-दो बाते कर लेने दो। बदलू शास्त्री काशी के �वख्यात पंि
थे। सन्दर चन
ु -�तलक लगाते , हर� बनात का अंगरखा प�रधान करते औश्
बसन्ती पगड़ी बाँधत थे। उत्तमचन्द्र और माखनलाल दोन� नगर के
और ल�ाधीश मनषु ्ये थे। उपा�ध के �लए सहस्र� व्यय करते और म
पदा�धका�रय� का सम्मान और सत्कार करना अपना प्रधान कत्तर्व्य
थे। इन महापर
ु ुष� का नगर के मनुष्य� पर बड़ा दबवा था। बदलू शास्त्र
कभी शास्त्रीथर् , तो �न:संदेह प्र�तवाद� क� पराजय होती। �वशेषकर काश
के पण्डे और प्राग्वाल तथा इसी पन्थ के अन्य धा�मक्ग्झर् तो उन
क� जगह रु�धर बहाने का उद्यत रहते थे। शास्त्री जी काशी मे �हन्द
के र�क और महान ् स्तम्भ प्र�सद्व थे। उत्मचन्द्र और मा
धा�मर्क उत्साह क� मू�तर् थे। ये लोग बहुत �दन� से बालाजी से शास्त
करने का अवसर ढूंढ रहे थे। आज उनका मनोरथ परू ा हुआ। पंड� और
प्राग्वाल� का एक दल �लये आ पहुँ
बालाजी ने इन महात्मा के आने का समाचार सुना तो बाहर �नकल
आये। परन्तु यहाँ क� दशा �व�चत्र पायी। उभय प� के लोग ला�ठयाँ सँभा
अँगरखे क� बाँह� चढाये गथ
ु ने का उद्यत थे। शास्त्रीजी प्राग्वाल� को
के �लये ललकार रहे थे और सेठजी उच्च स्वर से कह रहे थे �क इन शूद

क� धिज्जयँ उड़ा दो अ�भयोग चलेगा तो देखा जाएगा। तुम्हार ब-बॉँका न
होने पायेगा। माखनलाल साहब गला फाड़-फाड़कर �चल्लाते थे �क �नकल
36
आये िजसे कुछ अ�भमान हो। प्रत्येक को सब्जबाग �दखा दूँगा। बालाजी
जब यह रं ग दे खा तो राजा धमर्�संह से बोल-आप बदलू शास्त्री को जा
समझा द�िजये �क वह इस दषु ्टता को त्याग , अन्यथा दोन� प�वाल� क�
हा�न होगी और जगत म� उपहास होगा सो अलग।
राजा साहब के नेत्र� से अिग्न बरस रह� थी। ब- इस पर
ु ुष से बात�
करने म� अपनी अप्र�तष्ठा समझता हूँ। उसे प्राग्वाल� के समूह� का अ
है परन्तु मै। आज उसका सारा मद चूणर् कर देता हूँ। उनका अ�भप्राय इ
अ�त�रक्त और कुछ नह�ं है �क वे आपके ऊपर वार कर�। पर जब तक मै।
और मरे पॉँच पत्र जी�वत ह� तब तक कोई आपक� ओ
ु र कुदृिष्ट से नह�ं
सकता। आपके एक संकेत-मात्र क� देर है। म� पलक मारते उन्ह� इस दुष्
का सवाद चखा दं ग
ू ा।
बालाजी जान गये �क यह वीर उमंग म� आ गया है । राजपत
ू जब
उमंग म� आता है तो उसे मरने-मारने क अ�त�रक्त और कुछ नह�ं सूझता।
बोले-राजा साहब, आप दरद
ू श� होकर ऐसे वचन कहते है ? यह अवसर ऐसे
वचन� का नह�ं है । आगे बढ़कर अपने आद�मय� को रो�कये, नह�ं तो प�रणाम
बरु ा होगा।
बालालजी यह कहते-कहते अचानक रुक गये। समुद्र क� तरंग�
भाँ�त लोग इधर-उधर से उमड़ते चले आते थे। हाथ� म� ला�ठयाँ थी और नेत्र
म� रु�धर क� लाल , मख
ु मंडल क्रु , भृकुट� कु�टल। दे खते-दे खते यह जन-
समद
ु ाय प्राग्वाल� के �सर पर पहुँच गया। समय सिन्नकट था �क ला�ठ
�सर को चम
ु े �क बालाजी �वद्युत क� भाँ�त लपककर एक घोड़े पर सवार हो
गये और अ�त उच्च स्वर म� बो:
‘भाइयो ! क्या अंधेर ह ? य�द मझ
ु े आपना �मत्र समझते हो तो झटप
हाथ नीचे कर लो और पैर� को एक इंच भी आगे न बढ़ने दो। मझ
ु े
अ�भमान है �क तुम्हारे हृदय� म� वीरो�चत क्रोध और उमंग तरं�गत हो
है । क्रोध एक प�वत्र उद्वोग और प�वत्र उत्साह है। प-संवरण
उससे भी अ�धक प�वत्र धमर् है। इस समय अपने क्रोध को दृढ़ता से
क्या तुम अपनी जा�त के साथ कुल का कत्तर्व्य पालन कर चुके �क
प्रकार प्राण �वसजर्न करने पर क�टबद्व हो क्या तुम द�पक लेकर
म� �गरना चाहते हो ? ये उलोग तम्हारे स्वदेश बान्धव और तुम्हारे ह� र
ह�। उन्ह� अपना शत्रु मत समझो। य�द वे मूखर् ह� तो उनक� मूखर्त
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�नवारण करना तुम्हारा कतर्व्य ह�। य�द वे तुम्ह� अपशब्द कह� तो तुम
मत मान�। य�द ये तम
ु से यद्व करने को प्रस्तुत हो
ु तुम नम्रता से स
कर तो और एक चतरु वैद्य क� भां�त अपने �वचारह�न रो�गय� क� औष�ध
करने म� तल्ल�न हो जाओ। मेर� इस आशा के प्र�तकूल य�द तुमम� से �क
ने हाथ उठाया तो वह जा�त का शत्रु होगा
इन सम�ु चत शब्द� से चतु�दर्क शां�त छा गयी। जो जहां था वह वह�
�चत्र �ल�खत सा हो गया। इस मनुष्य के शब्द� म� कहां का प्रभा
था,िजसने पचास सहस्र मनुष्य� के उमडते हुए उद्वेग को इस प्रकार
कर �दया ,िजस प्रकार कोई चतुर सारथी दुष्ट घोड� को रोक लेता , और
यह शिक्त उसे �कसने क� द� थी ? न उसके �सर पर राजमक
ु ु ट था , न वह
�कसी सेना का नायक था। यह केवल उस प�वत्र् और :स्वाथर् जा�त सेव
का प्रताप , जो उसने क� थी। स्वज�त सेवक के मान और प्र�तष्ठा
कारण वे ब�लदान होते ह� जो वह अपनी ज�त के �लए करता है । पण्ड�
और प्राग्वाल� नेबालाजी का प्रतापवान रुप देखा और स् , तो उनका
क्रोध शान्त हो गया। िजस प्रकार सूयर् के �नकलने से कुहरा आ जा
उसी प्रकार बालाजी के आने से �वरो�धय� क� सेना �ततर �बतर हो गयी
बहुत से मनषु ्य– जो उपद्रव के उदेश्य से आये – श्रद्वापूवर्क बालाजी
चरण� म� मस्तक झुका उनके अनुया�यय� के वगर् म� सिम्लत हो गये। बद
शास्त्री ने बहुत चाहा �क वह पण्ड� के प�पात और मूखर्रता को उत
कर� ,�कन्तु सफलता न हुई
उस समय बालाजी ने एक परम प्रभावशाल� वक्तृता द� िजसका
–एक शब्द आज तक सुननेवाल� के हृदय पर अं�कत ह� और जो भार –
वा�सय� के �लए सदा द�प का काम करे गी। बालाजी क� वक्तृताएं प्:
सारग�भर्त ह�। परन्तु वह प्र, वह ओज िजससे यह वक्तृता अलंकृत ह ,
उनके �कसी व्याख्यान म� द�ख नह�ं पडते। उन्होन� अपने वाकय� के जादू
थोड़ी ह� दे र म� पण्डो को अह�र� और पा�सय� से गले �मला �दया। उस
वकतत
ृ ा के अं�तम शब्द थ:
य�द आप दृढता से कायर् करते जाएंगे तो अवश्य एक �दन आपको
अभीष्ट �सद्�व का स्वणर् स्तम्भ �दखायी देगा। परन्तु धैयर् को
से न जाने दे ना। दृढता बडी प्रबल शिक्त ह�। दृढता पुरुष के सब गु
राजा ह�। दृढता वीरता का एक प्रधान अंग ह�। इसे कदा�प हाथ से न जा
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दे ना। तुम्हार� पर��ाएं ह�गी। ऐसी दशा म� दृढता के अ�त�रक्त क
�वश्वासपात्र-प्रदशर्क नह�ं �मलेगा। दृढता य�द सफल न भी हो , तो
संसार म� अपना नाम छोड़ जाती है’।
बालाजी ने घर पहुचंकर समाचार-पत्र खो , मख
ु पीला हो गया , और
सकरुण हृदय से एक ठण्डी सांस �नकल आयी। धमर्�संह ने घबराकर –
कुशल तो है ?
बालाजी –स�दया म� नद� का बांध फट गया बस साहस मनषु ्य गृहह�न
हो गये।
धमर्�सं- ओ हो।
बालाजी – सहस्र� मनुष्य प्रवाह क� भ�ट हो गये। सारा नगर नष
गया। घर� क� छत� पर नाव� चल रह� ह�। भारत सभा के लोग पहुच गय� ह�
और यथा शिक्त लोग� क� र�ा कर रह� ह , �कन्तु उनक� संख्या बहुत क
ह�।
धमर्�सं(सजलनयन होकर) हे इश्वर। तू ह� इन अनाथ� को नाथ ह�।
गयीं। तीन घण्टे तक �नरन्तर मूसलाधार पानी बरसता रहा। सोलह इं
पानी �गरा। नगर के उतर�य �वभाग म� सारा नगर एकत्र ह�। न रहने क� गृ
है , न खाने को अन्न। शव क� रा�शयां लगी हुई ह� बहुत से लोग भूखे मर
जाते है । लोग� के �वलाप और करुणाक्रन्दन से कलेजा मुंह को आता ह�।
उत्पा–पी�डत मनषु ्य बालाजी को बुलाने क� रट लगा रह ह�। उनका �वचार
यह है �क मेरे पहुंचने से उनके द:ु ख दरू हो जायंगे।
कुछ काल तक बालाजी ध्यान म� मग्न र , तत्पश्चात बो–मेरा जाना
आवश्यक है। म� तुरंत जाऊंगा। आप स�दय� क� , ‘भारत सभा’ क� तार दे
द�िजये �क वह इस कायर् म� मेर� सहायता करने को उद्यत् रह�
राजा साहब ने स�वनय �नवेदन �कया – आ�ा हो तो म� चलंू ?
बालाजी ू ना दँ ग
– म� पहुंचकर आपको सच ू ा। मेरे �वचार म� आपके जाने
क� कोई आवश्यकता न होगी।
धमर्�संह-उतम होता �क आप प्र:काल ह� जाते।
बालाजी – नह�ं। मझ
ु े यहॉँ एक �ण भी ठहरना क�ठन जान पड़ता है ।
अभी मझ
ु े वहां तक पहुचंने म� कई �दन लग� ग�।
पल – भर म� नगर म� ये समाचार फैल गये �क स�दय� म� बाढ आ
गयी और बालाजी इस समय वहां आ रह� ह�। यह सन
ु ते ह� सहस्र� मनुष
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बालाजी को पहुंचाने के �लए �नकल पड़े। नौ बजते –बजते द्वार पर पचीस
सहस्र मनुष्य� क समुदाय एकत्र् हो गया। स�दया क� दुघर्टना प्रत्य
के मख
ु पर थी लोग उन आप�त –पी�डत मनषु ्य� क� दशा पर सहानुभू�त
और �चन्ता प्रका�शत कर रहे थे। सैकड� मनुष्य बालाजी के संग जाने
क�टबद्व हुए। स�दयावाल� क� सहायता के �लए एक फण्ड खोलने क
परामशर् होने लगा।
उधर धमर्�संह के अन: परु म� नगर क� मख्य प्र�तिष्ठत
ु िस्त्
आज सव
ु ामा को धन्यावाद देने के �लए एक सभा एकत्र क� थी। उस उ
प्रसाद का -एक कौना िस्त्रय� से भरा हुआ था। प्थम वृजरानी ने

िस्त्रय� के साथ एक मंगलमय सुहावना गीत गाया। उसके पीछे सब िस्त्
मण्डल बांध कर गाते – बजाते आरती का थाल �लये सद
ु ामा के गृह पर
आयीं। सेवती और चन्दा अ�त�-सत्कार करने के �लए पहले ह� से प्रस्
थी सव
ु ामा प्रत्येक म�हला से गले �मल� और उन्ह� आशीवादर् �दय
तुम्हारे अंक म� भी ऐसे ह� सुपूत बच्चे खेल�। �फर रानीजी ने उसक� आरत
क� और गाना होने लगा। आज माधवी का मख
ु मंडल पषु ्प क� भां�त �खला
हुआ था। मात्र वह उदास और �चं�तत न थी। आशाएं �वष क� गांठ ह�। उन्ह
आशाओं ने उसे कल रुलाया था। �कन्तु आज उसका �चत्र उन आशाओं
�रक्त हो गया ह�। इस�लए मुखमण्डल �दव्य और नेत्र �वक�सत है। �न
रहकर उस दे वी ने सार� आयु काट द� , परन्तु आशापूणर् रह कर उससे ए
�दन का द:ु ख भी न सहा गया।
सह
ु ावने राग� के आलाप से भवन गंज
ू रहा था �क अचानक स�दया
का समाचार वहां भी पहुंचा और राजा धमर्�सहं यह कहते यह सुनायी �दये–
आप लोग बालाजी को �वदा करने के �लए तैयार हो जाय� वे अभी स�दया
जाते ह�।
यह सन
ु ते ह� अधर्रा�त्र का सन्नाटा छा गया। सुवामा घबडाकर
और द्वार क� ओर लपक , मान� वह बालाजी को रोक लेगी। उसके संग सब
–क�–सब िस्त्रयां उठ खडी हुई और उसके पी –पीछे चल�। वज
ृ रानी ने कहा
–चची। क्या उन्ह� बरबस �वदा करोग? अभी तो वे अपने कमरे म� ह�।
‘म� उन्ह� न जाने दूंगी। �वदा करना कैसा?
वज
ृ रानी- म� क्या स�दया को लेकर चाटूंगी ? भाड म� जाय। म� भी तो कोई
हूं? मेरा भी तो उन पर कोई अ�धकार है ?
40
वज
ृ रानी –तुम्ह� मेर� शप , इस समय ऐसी बात� न करना। सहस्र
मनषु ्य केवल उनके भरासे पर जी रह� ह�। यह न जाय�गे तो प्रलय
जायेगा।
माता क� ममता ने मनषु ्यत्व और जा�तत्व को दबा �लया , परन्तु
वज
ृ रानी ने समझा –बझ
ु ाकर उसे रोक �लया। सव
ु ामा इस घटना को स्मरण
करके सवर्दा पछताया करती थी। उसे आश्चयर् होता था �क म� आपसे बा
क्य� हो गयी। रानी जी ने पूछ-�वरजन बालाजी को कौन जयमाल
प�हनायेगा।
�वरजन –आप।
रानीजी – और तुम क्या करोगी?
�वरजन –म� उनके माथे पर �तलक लगाऊंगी।
रानीजी – माधवी कहां ह� ?
�वरजन (धीरे –से) उसे न छड�। बेचार , अपने घ्यान म� मग्न ह�
सव
ु ामा को दे खा तो �नकट आकर उसके चरण स्पशर् �कय�। सुवामा ने उन्
उठाकर हृदय म� लगाया। कुछ कहना चाहती थ , परन्तु ममता से मुख न
खोल सक�। रानी जी फूल� क� जयमाल लेकर चल� �क उसके कण्ठ म� डाल
दं ,ू �कन्तु चरण थरार्ये और आगे न बढ सक�ं। वृजरानी चन्दन का थ
लेकर चल�ं , परन्तु ने-श्राव –धन क� भ�त बरसने लग� । तब माधव चल�।
उसके नेत्र� म� प्रेम क� झलक थी और मुंह पर प्रेम क� लाल�। अध
म�हनी मस
ु ्कान झलक रह� थी और मन प्रेमोन्माद म� मग्न था।
बालाजी क� ओर ऐसी �चतवन से दे खा जो अपार प्रेम से भर� हुई। तब �स
नीचा करके फूल� क� जयमाला उसके गले म� डाल�। ललाट पर चन्दन का
�तलक लगाया। लोक –संस्कारक� न्यून , वह भी पर�
ू हो गयी। उस समय
बालाजी ने गम्भीर सॉस ल�। उन्ह� प्रतीत हुआ �क म� अपार प्रेम के सम
वहां जा रहा हूं। धैय् का लंगर उठ गया और उसे मनुष्य क
र � भां�त ज
अकस्मात् जल म� �फसल पडा ह, उन्ह�ने माधवी क� बांह पकड़ ल�। परन्त
हां :िजस �तनके का उन्ह�ने सहारा �लया वह स्वयं प्रेम क� धार म�
ग�त से बहा जा रहा था। उनका हाथ पकडते ह� माधवी के रोम-रोम म�
�बजल� दौड गयी। शर�र म� स्वे-�बन्दु झलकने लगे और िजस प्रकार वा
के झ�के से पषु ्पदल पर पड़े हुए ओस के जलकण पृथ्वी पर �गर जाते ,
उसी प्रकार माधवी के नेत्र� से अश्रु के �बन्दु बालाजी के हाथ पर टप
41
प्रेम के मोती , जो उन मतवाल� आंख� ने बालाजी को भ� ट �कये। आज से
ये ओंख� �फर न रोय�गी।
आकाश पर तारे �छटके हुए थे और उनक� आड़ म� बैठ� हुई िस्त्रया
यह दृश्य देख रह� थी आज प:काल बालाजी के स्वागत म� यह गीत गाया
था :
बालाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
और इस समय िस्त्रयां अपने –भावे स्वर� से गा रह�ं ह�:
बालाजी तेरा आना मब
ु ारक होवे।
आना भी मब
ु ारक था और जाना भी मब
ु ारक ह�। आने के समय भी
लोग� क� आंख� से आंसंू �नकले थ� और जाने के समय भी �नकल रह� ह�।
कल वे नवागत के अ�त�थ स्वागत के �लए आये थ�। आज उसक� �वदाई
कर रह� ह� उनके रं ग – रुप सब पूवर्वत ह:परन्तु उनम� �कतना अन्तर ह

42
6
मतवाल� यो�गनी

माधवी प्रथम ह� से मुरझायी हुई कल� थी। �नराशा ने उसे खाक म


�मला �दया। बीस वषर् क� तपिस्वनी यो�गनी हो गयी। उस बेचार� का भ
कैसा जीवन था �क या तो मन म� कोई अ�भलाषा ह� उत्पन्न न ह , या हुई
दद
ु ै व ने उसे कुस�ु मत न होने �दया। उसका प्रेम एक अपार समुद्र था। उ
ऐसी बाढ आयी �क जीवन क� आशाएं और अ�भलाषाएं सब नष्ट हो
गयीं। उसने यो�गनी के से वस्त्र् प�हन �लय�। वह सांस�रक बन्धन� से मु
हो गयी। संसार इन्ह� इच्छाओं और आशाओं का दूसरा नाम ह�। िजसने उन्
नैराश्–नद म� प्रवा�हत कर �द, उसे संसार म� समझना भ्रम ह�
इस प्रकार के मद से मतवाल� यो�गनी को एक स्थन पर शां�त
�मलती थी। पषु ्प क� सुग�धं क� भां�त दे-दे श भ्रमण करती और प्रेम
शब्द सुनाती �फरती थी। उसके प्रीत वणर् पर गेरुए रंग का वस्त्र प
दे ता था। इस प्रेम क� मू�तर् को देखकर लोग� के नेत्र� से अश्रु टपक
थे। जब अपनी वीणा बजाकर कोई गीत गाने लगती तो वन
ु ने वाल� के
�चत अनरु ाग म� पग जाते थ� उसका एक–एक शब्द प्–रस डूबा होता था।
मतवाल� यो�गनी को बालाजी के नाम से प्रेम था। वह अपने पद� म
प्र: उन्ह�ं क� क��तर् सुनाती थी। िजस �दन से उसने यो�गनी का वेष घार
�कया और लोक –लाज को प्रेम के �लए प�रत्याग कर �दया उसी �दन
उसक� िजह्वा पर माता सरस्वती बैठ गयी। उसके सरस पद� को सुनने क
�लए लोग सैकड� कोस चले जाते थे। िजस प्रकार मुरल� क� ध्व�न सुन
गो�पंयां घर� से वयाकुल होकर �नकल पड़ती थीं उसी प्रकार इस यो�गनी क
तान सन
ु ते ह� श्रोताजन� का नद उमड़ पड़ता था। उसके पद सुनना आनन
के प्याले पीना था।
इस यो�गनी को �कसी ने हं सते या रोते नह�ं दे खा। उसे न �कसी बात
पर हषर् थ , न �कसी बात का �वषाद्। िजस मन म� कामनाएं न ह , वह क्य�
हं से और क्य� रोये ? उसका मख
ु –मण्डल आनन्द क� मू�तर् था। उस
दृिष्ट पड़ते ह� दशर्क के नेत्र प�वत्र् आनन्द से प�रपूणर् हो

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