Shani Chalisa PDF

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श्री शनि चालीसा

॥ दोहा ॥

जय गणेश गगरिजा सव
ु ि, मंगल किण कृपाल ।

दीिि के दख
ु दिू करि, कीजै िाथ निहाल ॥

जय जय श्री शनिदे व प्रभु, सुिहु वविय महािाज ।

किहु कृपा हे िवव तिय, िाखहु जि की लाज ॥

॥ चौपाई ॥

जयनत जयनत शनिदे व दयाला ।

कित सदा भक्ति प्रनतपाला ॥

चारि भुजा, तिु श्याम वविाजै ।

माथे िति मुकुट छबि छाजै ॥


पिम ववशाल मिोहि भाला ।

टे ढ़ी दृष्टट भक
ृ ु टट ववकिाला ॥

कुण्डल श्रवण चमाचम चमके ।

टहय माल मक्


ु ति मणण दमके ॥ ४॥

कि में गदा बिशूल कुठािा ।

पल बिच किैं अरिटहं संहािा ॥

वपंगल, कृटणों, छाया िन्दि ।

यम, कोणस्थ, िौद्र, दख


ु भंजि ॥

सौिी, मन्द, शिी, दश िामा ।

भािु पुि पूजटहं सि कामा ॥

जा पि प्रभु प्रसन्ि ह्वैं जाहीं ।

िं कहुुँ िाव किैं क्षण माहीं ॥ ८॥

पववतहू तण
ृ होई निहाित ।

तण
ृ हू को पववत करि डाित ॥
िाज ममलत िि िामटहं दीन्हयो ।

कैकेइहुुँ की मनत हरि लीन्हयो ॥

ििहूुँ में मग
ृ कपट टदखाई ।

मातु जािकी गई चिु ाई ॥

लखिटहं शष्क्त ववकल करिडािा ।

मगचगा दल में हाहाकािा ॥ १२॥

िावण की गनतमनत िौिाई ।

िामचन्द्र सों िैि िढ़ाई ॥

टदयो कीट करि कंचि लंका ।

िष्ज िजिं ग िीि की डंका ॥

िप
ृ ववक्रम पि तटु ह पगु धािा ।

गचि मयिू निगमल गै हािा ॥

हाि िौलखा लाग्यो चोिी ।

हाथ पैि डिवाय तोिी ॥ १६॥


भािी दशा निकृटट टदखायो ।

तेमलटहं घि कोल्हू चलवायो ॥

वविय िाग दीपक महं कीन्हयों ।

ति प्रसन्ि प्रभु ह्वै सख


ु दीन्हयों ॥

हरिश्चन्द्र िप
ृ िारि बिकािी ।

आपहुं भिे डोम घि पािी ॥

तैसे िल पि दशा मसिािी ।

भूंजीमीि कूद गई पािी ॥ २०॥

श्री शंकिटहं गह्यो जि जाई ।

पािवती को सती किाई ॥

तनिक ववलोकत ही करि िीसा ।

िभ उड़ि गयो गौरिसुत सीसा ॥

पाण्डव पि भै दशा तुम्हािी ।

िची द्रौपदी होनत उघािी ॥


कौिव के भी गनत मनत माियो ।

युद्ध महाभाित करि डाियो ॥ २४॥

िवव कहुँ मुख महुँ धरि तत्काला ।

लेकि कूटद पियो पाताला ॥

शेष दे वलणख वविती लाई ।

िवव को मुख ते टदयो छुिाई ॥

वाहि प्रभु के सात सजािा ।

जग टदग्गज गदव भ मग
ृ स्वािा ॥

जम्िक
ु मसंह आटद िख धािी ।

सो फल ज्योनतष कहत पुकािी ॥ २८॥

गज वाहि लक्ष्मी गह
ृ आवैं ।

हय ते सख
ु सम्पनत उपजावैं ॥

गदव भ हानि किै िहु काजा ।

मसंह मसद्धकि िाज समाजा ॥


जम्िक
ु िद्
ु गध िटट कि डािै ।

मग
ृ दे कटट प्राण संहािै ॥

जि आवटहं प्रभु स्वाि सवािी ।

चोिी आटद होय डि भािी ॥ ३२॥

तैसटह चारि चिण यह िामा ।

स्वणव लौह चाुँदी अरु तामा ॥

लौह चिण पि जि प्रभु आवैं ।

धि जि सम्पवि िटट किावैं ॥

समता ताम्र िजत शभ


ु कािी ।

स्वणव सवव सवव सुख मंगल भािी ॥

जो यह शनि चरिि नित गावै ।

किहुं ि दशा निकृटट सतावै ॥ ३६॥

अद्भुत िाथ टदखावैं लीला ।

किैं शिु के िमश िमल ढीला ॥


जो पष्ण्डत सय
ु ोग्य िल
ु वाई ।

ववगधवत शनि ग्रह शांनत किाई ॥

पीपल जल शनि टदवस चढ़ावत ।

दीप दाि दै िहु सुख पावत ॥

कहत िाम सुन्दि प्रभु दासा ।

शनि सुममित सुख होत प्रकाशा ॥ ४०॥

॥ दोहा ॥

पाठ शनिश्चि दे व को, की हों भक्त तैयाि ।

कित पाठ चालीस टदि, हो भवसागि पाि ॥

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