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Mahakammavibhanga Sutta Hindi Translation by Rahul Sankrityayan
Mahakammavibhanga Sutta Hindi Translation by Rahul Sankrityayan
Mahakammavibhanga Sutta Hindi Translation by Rahul Sankrityayan
136. महा-कम्म-विभंग-सुत्तन्त
ऐसा मैंने सन
ु ा —
“आवस
ु समिद्धि! मैंने इसे श्रमण गौतम के मख
ु से सन
ु ा है , मख
ु से ग्रहण किया है
—‘मोघ (=निष्फल) है कायिक कर्म, मोघ है वाचिक-कर्म, मानस कर्म ही सच है ।
क्या ऐसी (कोई) समापत्ति (=समाधि) हैं, जिस समापत्ति को प्राप्त कर कुछ नहीं
वेदन (=अनुभव) करता।’”
“आवस
ु समिद्धि! कितने चिर से प्रब्रजित हुये?”
तब पोतलिपत्त
ु परिब्राजक ने आयुष्मान ् समिद्धि के भाषण को न अभिनंदित
किया, न प्रतिक्रोशित (=निदित) किया। बिना अभिनंदित-प्रतिक्रोशित किये आसन
से उठकर चला गया।
“आवुस समिद्धि! भगवान ् के दर्शन के लिये यह कथा (रूपी) भें ट है , चलो आवुस
समिद्धि! जहाँ भगवान ् हैं, वहाँ चलें। चल कर इस अर्थ (=बात) को भगवान ् से
कहें गे; जैसे हमें भगवान ् बतलायेंगे, वैसा उसे धारण करें गे।”
“अच्छा, आवस
ु !” (कह) आयष्ु मान ् समिद्धि ने आयष्ु मान ् आनंद को उत्तर दिया।
तब आयुष्मान ् आनंद और आयुष्मान ् समिद्धि जहाँ भगवान ् थे, वहाँ गये। जाकर
भगवान ् को अभिवादन कर एक ओर बैठ गये। एक ओर बैठे आयुष्मान ् आनंद
जो कुछ आयुष्मान ् समिद्धि का पोतलि-पत्त
ु परिब्राजक के साथ कथा-संलाप हुआ
था, वह सब भगवान ् को कह सुनाया, ऐसा कहने पर भगवान ् ने आयुष्मान ्
आनंद से यह कहा—
“आनन्द! पोतलिपत्त
ु परिब्राजक को दे खने की भी बात मझ
ु े मालम
ू नहीं है , कहाँ से
इस तरक का कथा संलाप होगा? आनन्द! इस मोधपरू
ु ष समिद्धि ने पोतलिपत्त
ु
परिब्राजक को विभाग करके उत्तर दे ने लायक प्रश्न का एकांश से उत्तर दिया।”
भगवान ् ने यह कहा—“आनन्द! लोक में चार (प्रकार के) पुद्गल (=पुरूष) विद्यमान
है । कौन से चार?—यहाँ, आनन्द! कोई पद्ग
ु ल हिंसक होता है , चोर, व्यभिचारी, झठ
ू ा,
चग
ु ल
ु खोर, कटुभाषी, प्रलापी, अभिध्यालु (=लोभी), व्यापाद (=द्रोह)-यक्त
ु -चित्तवाला,
मिथ्या-दृष्टि होता है ; वह काया छोड मरने के बाद आपाय=दर्ग
ु ति, विनिपात, नरक
में उत्पन्न होता है । और यहाँ आनन्द! कोई पुद्गल हिंसक ॰ मिथ्यादृष्टि होता है ,
(किन्तु) यह काया छोड मरने के बाद सग
ु ति, स्वर्गलोक मेें उत्पन्न होता है । और
यहाँ आनन्द! कोई पुद्गल अहिंसक, अ-चोर, अ-व्यभिचारी, झूठा नहीं, चुगलखोर-नहीं,
कटुभाषी-नहीं, प्रलापी-नहीं, अन ्-अभिध्यालु, अ-व्यापन्न-चित्त, सम्यग ्-दृष्टि होता है ;
वह काया छोड मरने के बाद सुगति स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है । और यहाँ
आनन्द! कोई पुद्गल अ-हिंसक ॰ सम्यग ्-दृष्टि होता है ; (किन्तु) वह काया छोड
मरने के बाद ॰ नरक में उत्पन्न होता है ।
(2) “और यहाँ, आनन्द! कोई श्रमण या ब्राह्मण ॰ उद्योग ॰ से युक्त हो ॰ चित्त की
समाधि के कारण ॰ दिव्य-चक्षु से ॰ दे खता है —यह पुद्गल हिंसक ॰ मिथ्या दृष्टि
था, वह अब ॰ मरने के बाद ॰ स्वर्गलोक में उत्पन्न हुआ है । वह ऐसा कहता है
—‘नहीं है पापकर्म, नहीं है दश्च
ु रित का विपाक; हमने ऐसे पद्ग
ु ल को दे खा है —
स्वर्गलोक में उत्पन्न हुआ है । वह ऐसा कहता है —जो (कोई) हिंसक ॰ मिथ्या-
दृष्टि होता है , वह सभी ॰ मरने के बाद ॰ स्वर्गलोक में उत्पन्न होता है । जो ऐसा
जानते हैं, वही ठीक जानते हैं ॰ और सब मिथ्या है ।
(1) “वहाँ, आनन्द! जो श्रमण या ब्राह्मण यह कहता है —‘पाप कर्म हैं, दश्च
ु रित का
विपाक है ’—उसकी इस बात से मैं सहमत हूँ। और जो कि वह यह कहता है
—‘मैंने ऐसा पुद्गल दे खा है ; ॰ हिंसक ॰ मिथ्या दृष्टि था, वह (अब) स्वर्गलोक में
उत्पन्न हुआ। ॰—जो ॰ मिथ्यादृष्टि होता है , वह सभी ॰ मरने के बाद ॰ नरक में
उत्पन्न होता है ’—उसकी इस बा से मैं सहमत नहीं हूँ। और जो वह यह कहता
है —‘जो ऐसा जानते हैं, वही ठीक जानते हैं, जो अन्यथा जानते हैं, उनका ज्ञान
मिथ्या हैं’—उसकी इस बात से भी मैं सहमत नहीं। और जो कि—‘जो उसे
स्वयं ज्ञात ॰ वह ॰ आग्रह के साथ उसका व्यवहार करता है —यही सच है , और
सब मिथ्या’—उसकी इस बात से भी मैं सहमत नहीं। सो किस हे तु?—आनन्द!
महाकर्म-विभंग (=कर्म फलों के विभाजन करने) के विषय में तथागत का ज्ञान
दस
ू री तरह है ।
(4) “वहाँ, आनन्द! जो वह श्रमण या ब्राह्मण यह कहता है —‘नहीं हैं पुण्य कर्म,
नहीं है सच
ु रित का विपाक’—॰ मैं सहमत नहीं हूँ। ॰—‘हमने ऐसे पद्गु ल को दे खा
है ॰ नरक में उत्पन्न हुआ है ’—॰ मैं सहमत नहीं हूँ। ॰—जो ॰ सम्यग ्-दृष्टि होता
है , वह सभी ॰ मरने के बाद ॰ नरक में उत्पन्न होता है ’—॰ मैं सहमत नहीं। ॰
—‘जो ऐसा जानते हैं, वही ठीक जानते है , जो अन्यथा जानते हैं, उनका ज्ञान
मिथ्या है ’—॰ मैं सहमत नहीं। और जो कि—जो उसे स्वयं ज्ञात ॰ वह आग्रह के
साथ उसका व्यवहार करता हैं—‘यही सच है , और सब मिथ्या’—॰ मैं सहमत
नहीं। सो किस हे तु?—आनन्द! महाकर्म-विभंग के विषय में तथागत का ज्ञान
दस
ू री तरह है ।
(4) “आनंद! जो वह पुद्गल अहिंसक ॰ सम्यग ्-दृष्टि होता है , ॰ मरने के बाद ॰ नरक
में उत्पन्न होता है ; तो ॰ पापकर्म को उसने पहिले ही कर लिया होता है , या ॰
पीछे कर लिया होता है ; या मरणकाल में उसने मिथ्यादृष्टि ग्रहण ॰ की होती है ;
इसलिये ॰ मरने के बाद ॰ नरक में उत्पन्न होता है । और जो कि वह यहाँ अ-
हिंसक ॰ सम्यग ्-दृष्टि होता है , उसका विपाक वह (या तो) इसी जन्म में भोग
लेता है , या उत्पन्न होकर दस
ू री बार।
“इस प्रकार, आनंद! (1) अ-भव्य कर्म हैं; (बरु े की तरह दिखाई पडने वाले) अ-भव्य
(=बरु े , पाप) कर्म हैं; (2) भव्याभास भी अ-भव्य कर्म हैं; (3) भव्याभास भी भव्य
कर्म हैं; (4) अ-भव्याभास भी भव्यकर्म हैं।”