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CHARITEHEEN
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परमात्मा श्री कृष्ण इस चराचर जगत के स्वामी हैं | यह सम्पूर्ण प्रकृतत उन्ी ीं के
अधीन है | सृ ति की सीं रचना का ज्ञान दे ते हुए गीता में श्री कृष्ण ने अजजण न से कहा है
तक -
अर्ाण त: पृ थ्वी, जल, अति, वायज , आकाश -- ये पञ्चमहाभू त और मन, बजद्धि तर्ा
अहीं कार -- यह आठ प्रकार के भेद ीं वाली मेरी 'अपरा' प्रकृतत है । हे महाबाह !
इस अपरा प्रकृतत से तभन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतत क जान, तजसके
द्वारा यह जगत् धारर् तकया जाता है ।
अर्ण: मेरे जन्म और कमण तदव्य अर्ाण त अलौतकक हैं | अर्ाण त भगवान का जन्म
साधारर् मनज ष् ीं की भााँ ती नही ीं ह ता | वे जन्म नही ीं लेते अतपतज प्रकट ह ते हैं |
इसी क श्री कृष्ण ने आगे समझाया है तक -
अर्ण: इद्धिय ीं क स्र्ू ल शरीर से पर अर्ाण त श्रे ष्ठ तर्ा सूक्ष्म कहते हैं । इद्धिय ीं से पर
मन है , मन से भी पर बजद्धि है और ज बजद्धि से भी अत्यीं त पर है वह आत्मा है |
अर्ाण त आत्मा परा प्रकृतत ह ने के कारर् सबसे ज़्यादा सूक्ष्म है , इसतलए अपरा
प्रकृतत के गजर्-चररत्र आत्मा पर लागू ही नही ीं ह ते | इसतलए आत्मा क ना ही क ई
शास्त्र काट सकता है , ना अति जला सकती है , ना वायज सजखा सकती है क् तीं क
आत्मा इन सबसे पर है | परम आत्मा भगवान श्री कृष्ण परा हैं इसतलए चररत्र से
पर अर्ाण त चररत्रहीन हैं |
भगवान क तकसी भी प्रकार के कमण नही ीं बाीं धते | गीता में वतर्णत है :
अर्ण: कमों में क ई आसद्धि ना ह ने के कारर् मेरे क कमण नही ीं बााँ धते।
साधारर् मनज ष् ीं के तलए श्री कृष्ण ने कहा है तक: “प्रकृतेगम णसम्मूढाुः सज्जिे
गणकमम स” (३.२९), अर्ाण त प्रकृततजन्य गजर् ीं से अत्यन्त म तहत हुए अज्ञानी मनजष्
गजर् ीं और कमों में आसि रहते हैं । इसतलए मनज ष् ीं क कमण बााँ ध लेते हैं और वे
जन्म-मरर् के चक्र में बींधे रहते हैं | स्वयीं जन्मने-मरने के कारर् वे मूढ़ जन
भगवान क अभी अपनी भााँ ती जन्मने-मरने वाला समझते हैं | गीता में वतर्णत है :
अर्ण: मूखण ल ग मेरे सम्पू र्ण प्रातर्य ीं के महान् ईश्वररूप परम भाव क न जानते हुए
मजझे मनज ष् शरीर के आतश्रत अर्ाण त साधारर् मनज ष् की भााँ ती जन्मने-मरने वाला
मानते हैं और मेरी अवज्ञा करते हैं ।
भगवान की अवज्ञा करने और साधारर् मनज ष् ीं की भााँ ती उनमें गजर्-द ष दे खने
के कारर् ही मनजष् दज ख ,ीं र ग ीं व कि ीं क प्राप्त ह ता है | गीता में भगवान ने
स्पि रूप से कहा है तक:
अर्ण: ज मनज ष् मजझ में द ष-दृति रखते हैं , उन मूढ़ मनज ष् ीं का तनतित रूप से
सवणनाश ह जाता है ।
उज्जवल नीलमतर् में कहा गया है : "अनभावाश्च लीला चेत्यच्यते चररतं मिधा"
(१०.४३)
भगवान का चररत्र - ताीं डव, वे र्जवादन, ग द हन, ग पालन, पवणत िार, हवन तर्ा
तवहरर् आतद से है । तकन्तज यही परमतपता परमात्मा सवणव्यापक, कालातीत,
गजर्ातीत, तक्रयातीत, चररत्रातीत, तनगजणर्, तनराकार, अच्छे द्य, अभे द्य, अदाह्य, सत-
रज-तम गजर् ीं से परे , तर्ा रूप, रस, गींध, स्पशण , सींख्या, पररमार् पृ र्क्त्त्त्त्,सींय ग
तवभाग,परत्व,अपरत्व, बजद्धि,सज ख, दज ः ख, इच्छा, द्वे ष, यत्न, गजरुत्व, द्रवत्व, स्ने ह,
सीं स्कार, धमण अधमण शब्दातद 24 गजर् ीं से परे नारायर् "एकोsहं बहु स्याम" की
इच्छा मात्र से गजर् ीं का आश्रयर् कर जगत की सृति करता है , अने क प्रकार के
चररत्र करता है , तकींतज वही ब्रह्म जब तनगजणर् तनराकार के रूप में तजसकी शाश्वत
सिा है ज तकसी भी प्रकार के चररत्र से रतहत अर्ाण त हीन है | अने क मतावलींबी
इसी ईश्वर ज तक चररत्र-रतहत, लीला-रतहत, लीला-हीन, तक्रया-हीन या कहें उस
चररत्रहीन ईश्वर की उपासना करते हैं ।
- By Dr Dinesh Garg