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चररत्रहीन है परमात्मा

परमात्मा श्री कृष्ण इस चराचर जगत के स्वामी हैं | यह सम्पूर्ण प्रकृतत उन्ी ीं के
अधीन है | सृ ति की सीं रचना का ज्ञान दे ते हुए गीता में श्री कृष्ण ने अजजण न से कहा है
तक -

भू ममरापोऽनलो वायुः खं मनो बद्धिरे व च।

अहङ्कार इतीयं मे मभन्ना प्रकृमतरष्टधा।।7.4।।

अर्ाण त: पृ थ्वी, जल, अति, वायज , आकाश -- ये पञ्चमहाभू त और मन, बजद्धि तर्ा
अहीं कार -- यह आठ प्रकार के भेद ीं वाली मेरी 'अपरा' प्रकृतत है । हे महाबाह !
इस अपरा प्रकृतत से तभन्न जीवरूप बनी हुई मेरी 'परा' प्रकृतत क जान, तजसके
द्वारा यह जगत् धारर् तकया जाता है ।

अतः भगवान ने अपरा प्रकृतत क तनकृि कहते हुए समझाया है तक अपरा से भी


पार ज मेरी परा प्रकृतत है , वही सवणश्रेष्ठ है | परा ही अपरा क अपने अधीन रखके
उसका उपय ग करती है | श्री कृष्ण परम आत्मा हैं अर्ाण त परा हैं , अपरा नही ीं |
इसतलए अपरा प्रकृतत का लेशमात्र अींश भी उनके परा स्वरूप क प्रभातवत नही ीं
कर सकता | अच्छा-बजरा, गजर्-द ष, स्वभाव-चररत्र - यह सब अपरा प्रकृतत का
रूप हैं ज साधारर् मनजष् ीं में पाए जाते हैं , लेतकन भगवान इस सब से सवणर्ा परे
हैं | वे गजर् ीं से परे गजर्ातीत हैं , चररत्र से रतहत अर्ाण त चररत्र-हीन हैं | भगवान का
साधारर् मनजष् ीं की भााँ ती क ई चररत्र नही ीं ह ता क् तीं क चररत्र भी अपरा प्रकृतत
के गजर् ीं से तमलकर बनता है | अन्य मनज ष् ीं क तजस प्रकार से सत-रज-तम - इन
तीन ीं गजर् ीं ने बााँ ध रखा है , भगवान इन तीन ीं गजर् ीं में नही ीं बींधते | गीता (७.१२) में
श्री कृष्ण ने कहा है तक यह तीन ीं गजर् मजझ से ही उत्पन्न ह ते हैं , लेतकन मैं उनमें
और वे मेरे में नही ीं हैं । इसी बात क और स्पि करते हुए भगवान ने आगे कहा है
तक - "नामभजानामत मामेभ्युः परमव्ययम् " (७.१३): अर्ाण त मेरा स्वरूप इन गजर् ीं
से परे है एवीं अतवनाशी है तजसे साधारर् मनज ष् नही ीं जानते | यही कारर् है तक
अज्ञानी मनज ष् समजदाय श्री कृष्ण क भी अपनी तरह एक साधारर् मनज ष् समझता
है और उनके चररत्र क चररतार्ण करने की मूखणता करता है | भगवान कृष्ण का
शरीर तदव्य है और इस तदव्य शरीर में उनके द्वारा तकये गए कमण भी तदव्य हैं |
गीता में भगवान ने स्वयीं कहा है तक -

जन्म कमम च मे मदव्यमे वं यो वे मि तत्त्वतुः ।।4.9।।

अर्ण: मेरे जन्म और कमण तदव्य अर्ाण त अलौतकक हैं | अर्ाण त भगवान का जन्म
साधारर् मनज ष् ीं की भााँ ती नही ीं ह ता | वे जन्म नही ीं लेते अतपतज प्रकट ह ते हैं |
इसी क श्री कृष्ण ने आगे समझाया है तक -

न मे मवदुः सरगणाुः प्रभवं न महर्मयुः ।।10.2।।

अर्ण: मेरी उत्पति क अर्ाण त लीला से प्रकट ह ने के रहस्य क दे वता और महतषण


भी नहीीं जानते | अर्ाण त जब दे वता भी श्री कृष्ण के प्राकट्य के रहस्य क नही ीं जान
सकते , त मनजष् ीं की त बात ही क्ा है | यही कारर् है तक श्री कृष्ण का तदव्य
अलौतकक स्वरूप गजर्-चररत्र की पररतध में नही ीं आ सकता | श्री कृष्ण ने फ़रमाया
है तक: “प्रकृमतं स्वाममधष्ठाय सं भवाम्यात्ममायया"(४.६): अर्ाण त जब मैं प्रकट
ह ता हाँ त अपनी अपरा प्रकृतत क अपने अधीन करके प्रकट ह ता हाँ | जब
अपरा प्रकृतत सदा भगवान के अधीन ही रहती है , त अपरा प्रकृतत के गजर्-द ष व
चररत्र भगवान क भला कैसे छू सकते हैं | तजस प्रकार आकाश क अति नही ीं
जला सकती, जल गीला नही ीं कर सकता और वायज सजखा नही ीं सकती क् तीं क
आकाश पञ्च तत्त् ीं में सबसे ज़्यादा सूक्ष्म है इसतलए अति, जल या वायज का
आकाश पर क ई प्रभाव नही ीं पड़ता | उसी प्रकार आकाश से भी सूक्ष्म मन है ,
मन से सूक्ष्म बजद्धि और बजद्धि से सूक्ष्म अहीं कार है | आत्मा अर्ाण त परा प्रकृतत
अहीं कार से भी ज़्यादा सू क्ष्म है | गीता में वतर्णत है -

इद्धियामण पराण्याहुररद्धियेभ्युः परं मनुः ।


मनसस्त परा बद्धियो बिे ुः परतस्त सुः ।।3.42।

अर्ण: इद्धिय ीं क स्र्ू ल शरीर से पर अर्ाण त श्रे ष्ठ तर्ा सूक्ष्म कहते हैं । इद्धिय ीं से पर
मन है , मन से भी पर बजद्धि है और ज बजद्धि से भी अत्यीं त पर है वह आत्मा है |

अर्ाण त आत्मा परा प्रकृतत ह ने के कारर् सबसे ज़्यादा सूक्ष्म है , इसतलए अपरा
प्रकृतत के गजर्-चररत्र आत्मा पर लागू ही नही ीं ह ते | इसतलए आत्मा क ना ही क ई
शास्त्र काट सकता है , ना अति जला सकती है , ना वायज सजखा सकती है क् तीं क
आत्मा इन सबसे पर है | परम आत्मा भगवान श्री कृष्ण परा हैं इसतलए चररत्र से
पर अर्ाण त चररत्रहीन हैं |

भगवान क तकसी भी प्रकार के कमण नही ीं बाीं धते | गीता में वतर्णत है :

न च मां तामन कमाममण मनबध्नद्धि धनञ्जय।

उदासीनवदासीनमसक्तं तेर् कममस।।9.9।।

अर्ण: कमों में क ई आसद्धि ना ह ने के कारर् मेरे क कमण नही ीं बााँ धते।

साधारर् मनज ष् ीं के तलए श्री कृष्ण ने कहा है तक: “प्रकृतेगम णसम्मूढाुः सज्जिे
गणकमम स” (३.२९), अर्ाण त प्रकृततजन्य गजर् ीं से अत्यन्त म तहत हुए अज्ञानी मनजष्
गजर् ीं और कमों में आसि रहते हैं । इसतलए मनज ष् ीं क कमण बााँ ध लेते हैं और वे
जन्म-मरर् के चक्र में बींधे रहते हैं | स्वयीं जन्मने-मरने के कारर् वे मूढ़ जन
भगवान क अभी अपनी भााँ ती जन्मने-मरने वाला समझते हैं | गीता में वतर्णत है :

अवजानद्धि मां मूढा मानर्ी ं तनमामितम्।

परं भावमजानिो मम भू तमहेश्वरम् ।।9.11।।

अर्ण: मूखण ल ग मेरे सम्पू र्ण प्रातर्य ीं के महान् ईश्वररूप परम भाव क न जानते हुए
मजझे मनज ष् शरीर के आतश्रत अर्ाण त साधारर् मनज ष् की भााँ ती जन्मने-मरने वाला
मानते हैं और मेरी अवज्ञा करते हैं ।
भगवान की अवज्ञा करने और साधारर् मनज ष् ीं की भााँ ती उनमें गजर्-द ष दे खने
के कारर् ही मनजष् दज ख ,ीं र ग ीं व कि ीं क प्राप्त ह ता है | गीता में भगवान ने
स्पि रूप से कहा है तक:

ये त्वेतदभ्यसूयिो नानमतष्ठद्धि मे मतम्।

सवमज्ञानमवमूढां स्ताद्धिद्धि नष्टानचे तसुः ।।3.32।।

अर्ण: ज मनज ष् मजझ में द ष-दृति रखते हैं , उन मूढ़ मनज ष् ीं का तनतित रूप से
सवणनाश ह जाता है ।

अतः मनज ष् ीं क सदा ही तनराकार एवीं चररत्रहीन परमात्मा की भद्धिपू वणक


उपासना करनी चातहए |
चररत्र का अर्ण लीला-तक्रया से है | श्रीमद्भागवत में कहा गया है :

कमथतो वं शमवस्तारो भवता सोमसू यमयोुः ।

राज्ञां च उभयवं श्यानां चररतं परमाद् भतम् || (१०.१.१)

उज्जवल नीलमतर् में कहा गया है : "अनभावाश्च लीला चेत्यच्यते चररतं मिधा"
(१०.४३)

अनजभाव का अर्ण ह ता है प्रभाव और लीला । चररत्र का एक अर्ण स्वभाव भी है ।

“अनभावाश्च लीला चेत्यच्यते चररतं मिधा । अनभावा अलङ्काराख्ाुः


उद्भास्वराख्ाुः वामचकाख्ाश्च । लीला स्याच्चारुमवहृीडा रास-
कन्दकखे लाद्या चारुहृीडा प्रकीमिम ता । ताण्डवं वे णवादन गोदोहुः
पर्व्मतोिारो गोहूमतगममना- मदका ॥”

भगवान का चररत्र - ताीं डव, वे र्जवादन, ग द हन, ग पालन, पवणत िार, हवन तर्ा
तवहरर् आतद से है । तकन्तज यही परमतपता परमात्मा सवणव्यापक, कालातीत,
गजर्ातीत, तक्रयातीत, चररत्रातीत, तनगजणर्, तनराकार, अच्छे द्य, अभे द्य, अदाह्य, सत-
रज-तम गजर् ीं से परे , तर्ा रूप, रस, गींध, स्पशण , सींख्या, पररमार् पृ र्क्त्त्त्त्,सींय ग
तवभाग,परत्व,अपरत्व, बजद्धि,सज ख, दज ः ख, इच्छा, द्वे ष, यत्न, गजरुत्व, द्रवत्व, स्ने ह,
सीं स्कार, धमण अधमण शब्दातद 24 गजर् ीं से परे नारायर् "एकोsहं बहु स्याम" की
इच्छा मात्र से गजर् ीं का आश्रयर् कर जगत की सृति करता है , अने क प्रकार के
चररत्र करता है , तकींतज वही ब्रह्म जब तनगजणर् तनराकार के रूप में तजसकी शाश्वत
सिा है ज तकसी भी प्रकार के चररत्र से रतहत अर्ाण त हीन है | अने क मतावलींबी
इसी ईश्वर ज तक चररत्र-रतहत, लीला-रतहत, लीला-हीन, तक्रया-हीन या कहें उस
चररत्रहीन ईश्वर की उपासना करते हैं ।

- By Dr Dinesh Garg

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