Youth Parliament

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निर्वाचन क्षे तर् : चाँदनी चौक 

नाम: डॉ. हर्षवर्धन


मु द्दा: Uniform Civil Code

माननिये अध्यक्ष महोदय और मे रे सं सदीय परिवार के लोगो, मैं हर्ष वर्धन निर्वाचन क्षे तर्
चांदनी चौक, इस सं सद में शामिल होकर खु द को सम्मानित अनु भव करता हँ ।ू दरअसल,
दुनिया के किसी भी दे श में जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग कानून नहीं है ।
ले किन भारत में अलग-अलग पं थों के मै रिज एक्ट हैं । इस वजह से विवाह, जनसं ख्या
समे त कई तरह का सामाजिक ताना-बाना भी बिगडा हुआ है । इसीलिए दे श के कानून में
एक ऐसे यूनिफॉर्म तरीके की जरूरत है जो सभी धर्म, जाति, वर्ग और सं पर् दाय को एक
ही सिस्टम में ले कर आए। इसके साथ ही जब तक दे श के सं विधान में यह सु विधा या
सु धार नहीं होगा, भारत के पं थ निरपे क्ष होने का अर्थ भी स्पष्ट तौर पर नजर नहीं
आएगा।
इसके साथ ही अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है ।
इस परे शानी से निजात मिले गी और अदालतों में लं बित पड़े फैसले जल्द होंगे शादी,
तलाक, गोद ले ना और जायदाद के बं टवारे में सबके लिए एक जै सा कानून होगा फिर
चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का
निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं ।
धन्यवाद executive board मु झे यह अवसर प्रदान करने के लिए।
जय हिन्द! जय भारत!

निर्वाचन क्षे तर् : चाँदनी चौक 


नाम: डॉ. हर्षवर्धन
मु द्दा: Uniform Civil Code

माननिये अध्यक्ष महोदय और मे रे सं सदीय परिवार के लोगो, मैं हर्ष वर्धन निर्वाचन क्षे तर्
चांदनी चौक, इस सं सद में शामिल होकर खु द को सम्मानित अनु भव करता हँ ।ू दरअसल,
दुनिया के किसी भी दे श में जाति और धर्म के आधार पर अलग-अलग कानून नहीं है ।
ले किन भारत में अलग-अलग पं थों के मै रिज एक्ट हैं । इस वजह से विवाह, जनसं ख्या
समे त कई तरह का सामाजिक ताना-बाना भी बिगडा हुआ है । इसीलिए दे श के कानून में
एक ऐसे यूनिफॉर्म तरीके की जरूरत है जो सभी धर्म, जाति, वर्ग और सं पर् दाय को एक
ही सिस्टम में ले कर आए। इसके साथ ही जब तक दे श के सं विधान में यह सु विधा या
सु धार नहीं होगा, भारत के पं थ निरपे क्ष होने का अर्थ भी स्पष्ट तौर पर नजर नहीं
आएगा।
इसके साथ ही अलग-अलग धर्मों के अलग कानून से न्यायपालिका पर बोझ पड़ता है ।
इस परे शानी से निजात मिले गी और अदालतों में लं बित पड़े फैसले जल्द होंगे शादी,
तलाक, गोद ले ना और जायदाद के बं टवारे में सबके लिए एक जै सा कानून होगा फिर
चाहे वो किसी भी धर्म का क्यों न हो। वर्तमान में हर धर्म के लोग इन मामलों का
निपटारा अपने पर्सनल लॉ यानी निजी कानूनों के तहत करते हैं ।
धन्यवाद executive board मु झे यह अवसर प्रदान करने के लिए।
जय हिन्द! जय भारत!

हाल ही में विधि आयोग ने एक परामर्श पत्र जारी करते हुए केंद्र सरकार से कहा है कि मौजूदा वक्त में समान
नागरिक सं हिता यानी Uniform Civil Code न तो आवश्यक है और न ही वांछनीय। आयोग का मानना है कि
समान नागरिक सं हिता समस्या का हल नहीं है बल्कि, सभी निजी कानूनी प्रक्रियाओं को सं हिताबद्ध करने की
ज़रूरत है ताकि उनके पूर्वाग्रह और रूढ़िवादी तथ्य सामने आ सकें।
प्रमु ख मु द्दा
 गौरतलब है कि हाल के वर्षों में समान नागरिक सं हिता पर सियासी और समाजी दोनों ही माहौल
गर्म रहा है ।

 एक ओर जहाँ दे श की बहुसं ख्यक आबादी समान नागरिक सं हिता को लागू करने की पूरजोर मां ग
उठाती रही है , वहीं अल्पसं ख्यक वर्ग इसका विरोध करता रहा है ।

 इसी के मद्दे नजर जहाँ इस मु द्दे पर हर चु नावी साल में राजनीति होती रही है , वहीं चु नाव बाद इस
मु द्दे को ठं डे बस्ते में डाल दे ने की रिवायत चल पड़ी है ।

 इसमें कोई शक नहीं कि महिलाओं को समान अधिकार मिलना रे गिस्तान में नखलिस्तान से कम
नहीं होगा ले किन, इस सं हिता को लागू करने में कदम-कदम पर आने वाली चु नौतियाँ भी कम नहीं
हैं ।
 एक तरफ जहाँ अल्पसं ख्यक समु दाय नागरिक सं हिता को अनु च्छे द 25 का हनन मानते हैं , वहीं
इसके झं डाबरदार समान नागरिक सं हिता की कमी को अनु च्छे द 14 का अपमान बता रहे हैं ।

 लिहाजा, सवाल उठता है कि क्या सां स्कृतिक विविधता से इस हद तक समझौता किया जा सकता
है कि समानता के प्रति हमारा आग्रह क्षे तर् ीय अखं डता के लिए ही खतरा बन जाए? क्या एक
एकीकृत राष्ट् र को ‘समानता’ की इतनी जरूरत है कि हम विविधता की खूबसूरती की परवाह ही न
करें ?

 ू री तरफ सवाल यह भी है कि अगर हम सदियों से अने कता में एकता का नारा लगाते आ रहे हैं
दस
तो, कानून में भी एकरुपता से आपत्ति क्यों? क्या एक सं विधान वाले इस दे श में लोगों के निजी
मामलों में भी एक कानून नहीं होना चाहिए ?

 सवाल है कि अगर अब तक समान नागरिक सं हिता को लागू करने की कोशिश सं जीदगी से नहीं
हुई है तो, इसके पीछे अल्पसं ख्यकों की चिं ता तो नहीं है ? या फिर यह यकीन कर लिया जाए कि
हमारे सियासतदां भी समझते हैं कि धर्म और कानून के घालमे ल से इस बहुल सं स्कृति वाले दे श में
बे हतर सं देश नहीं जाएगा? ऐसे में वक्त का तकाजा है कि दे श  की  जनता को इन सवालों के जवाब
मिले ।
समान नागरिक सं हिता क्या है ?
 सबसे पहले आपको बता दें कि सं विधान के अनु च्छे द 44 में समान नागरिक सं हिता की चर्चा की गई
है । राज्य के नीति-निर्दे शक तत्त्व से सं बंधित इस अनु च्छे द में कहा गया है कि ‘राज्य, भारत के
समस्त राज्यक्षे तर् में नागरिकों के लिए एक समान नागरिक सं हिता प्राप्त कराने का प्रयास
करे गा’।

 समान नागरिक सं हिता में दे श के प्रत्ये क नागरिक के लिए एक समान कानून होता है , चाहे वह
किसी भी धर्म या जाति का क्यों न हो।

 समान नागरिक सं हिता में शादी, तलाक तथा जमीन-जायदाद के बँ टवारे आदि में सभी धर्मों के लिए
एक ही कानून लागू होता है । अभी दे श में जो स्थिति है उसमें सभी धर्मों के लिए अलग-अलग
नियम हैं । सं पत्ति, विवाह और तलाक के नियम हिं दुओं, मु स्लिमों और ईसाइयों के लिए अलग-
अलग हैं ।

 इस समय दे श में कई धर्म के लोग विवाह, सं पत्ति और गोद ले ने आदि में अपने पर्सनल लॉ का
पालन करते हैं । मु स्लिम, ईसाई और पारसी समु दाय का अपना-अपना पर्सनल लॉ है जबकि हिं द ू
सिविल लॉ के तहत हिं द,ू सिख, जै न और बौद्ध आते हैं ।
विधि आयोग द्वारा कही बातें -
 विधि आयोग ने जहाँ 2016 में समान नागरिक सं हिता से जु ड़े कुछ सवाल लोगों से पूछे थे , वहीं
पिछले वर्ष दे श के कुछ प्रतिष्ठित नागरिकों द्वारा विधि आयोग को एक मसौदा भी सौंपा गया था।
 इसमें इस बात की चर्चा थी कि निजी मामलों से जु ड़े मु द्दों पर बनाए जाने वाले नियम ऐसे हों जो
वै श्विक रूप से स्वीकृत हों और मानवाधिकारों का उल्लं घन न करते हों।

 लिहाजा, विधि आयोग ने अपना पक्ष रखते हुए कहा है कि जरूरी नहीं कि एक एकीकृत राष्ट् र को
समानता की आवश्यकता हो बल्कि, हमें मानवाधिकारों पर निर्विवाद तर्कों के साथ अपने मतभे दों
को सु लझाने का प्रयास करना चाहिये ।

 आयोग का मानना है कि निजी कानूनों में फर्क किसी भे दभाव की नहीं बल्कि, एक मजबूत लोकतं तर्
की पहचान है ।

 धर्मनिरपे क्षता शब्द का अर्थ केवल तभी चरितार्थ होता है जब यह किसी भी प्रकार के अं तर की
अभिव्यक्ति को आश्वस्त करता है । आयोग ने साफ कहा है कि धार्मिक और क्षे तर् ीय दोनों ही
विविधता को बहुमत के शोरगु ल में कम नहीं किया जा सकता है ।

 आयोग ने सु झाव दिया है कि समान नागरिक सं हिता को लागू करने के बजाय सभी निजी कानूनी
प्रक्रियाओं को सं हिताबद्ध करने की जरूरत है ।

 कानूनों को सं हिताबद्ध करने पर व्यक्ति कुछ हद तक दुनिया के उन सिद्धांतों तक पहुँच सकता है जो


समान सं हिता की बजाय समानता को लागू करने को प्राथमिकता दे ता है ।

 लैं गिक समानता के मद्दे नजर आयोग ने सु झाव दिया है कि लड़कों एवं लड़कियों की शादी के लिए
18 वर्ष की आयु को न्यूनतम मानक के रूप तय किया जाए ताकि वे बराबरी की उम्र में शादी कर
सकें।
समान नागरिक सं हिता के पक्ष और विपक्ष में तर्क
 सं विधान निर्माण के बाद से ही समान नागरिक सं हिता को लागू करने की मां ग उठती रही है ।
ले किन, जितनी बार मां ग उठी है उतनी ही बार इसका विरोध भी हुआ है । समान नागरिक सं हिता के
हिमायती यह मानते हैं कि भारतीय सं विधान में नागरिकों को कुछ मूलभूत अधिकार दिए गए हैं ।

 अनु च्छे द 14 के तहत कानून के समक्ष समानता का अधिकार, अनु च्छे द 15 में धर्म, जाति, लिं ग
आदि के आधार पर किसी भी नागरिक से भे दभाव करने की मनाही और अनु च्छे द 21 के तहत
जीवन और निजता के सं रक्षण का अधिकार लोगों को दिया गया है ।

 ले किन, महिलाओं के मामले में इन अधिकारों का लगातार हनन होता रहा है । बात चाहे तीन
तलाक की हो, मं दिर में प्रवे श को ले कर हो, शादी-विवाह की हो या महिलाओं की आजादी को
ले कर हो, कई मामलों में महिलाओं के साथ भे दभाव किया जाता है ।

 इससे न केवल लैं गिक समानता को खतरा है बल्कि, सामाजिक समानता भी सवालों के घे रे में है ।
जाहिर है , ये सारी प्रणालियाँ सं वैधानिक मूल्यों के अनु रूप नहीं है । लिहाजा, समान नागरिक
सं हिता के झं डाबरदार इसे सं विधान का उल्लं घन बता रहे हैं ।

 दसू री तरफ, अल्पसं ख्यक समु दाय विशे षकर मु स्लिम समाज समान नागरिक सं हिता का जबरदस्त
विरोध कर रहे हैं । सं विधान के अनु च्छे द 25 का हवाला दे ते हुए कहा जाता है कि सं विधान ने दे श
के सभी नागरिकों को धार्मिक स्वतं तर् ता का अधिकार दिया है । इसलिये , सभी पर समान कानून
थोपना सं विधान के साथ खिलवाड़ करने जै सा होगा।

 मु स्लिमों के मु ताबिक उनके निजी कानून उनकी धार्मिक आस्था पर आधारित हैं इसलिये समान
नागरिक सं हिता लागू कर उनके धार्मिक मामलों में हस्तक्षे प न किया जाए।

 मु स्लिम विद्वानों के मु ताबिक शरिया कानून 1400 साल पु राना है , क्योंकि यह कानून कुरान और
पै गम्बर मोहम्मद साहब की शिक्षाओं पर आधारित है ।
 लिहाजा, यह उनकी आस्था का विषय है । मु स्लिमों की चिं ता है कि 6 दशक पहले उन्हें मिली
धार्मिक आजादी धीरे -धीरे उनसे छीनने की कोशिश की जा रही है । यही कारण है कि यह रस्साकशी
कई दशकों से चल रही
है ।                                                                                                         
समान नागरिक सं हिता लागू करने में आने वाली चु नौतियाँ
 दरअसल, समान नागरिक सं हिता को लागू करने की पूरजोर मां ग उठने के बाद भी इसे अब तक
लागू नहीं किया जा सका है । कई मौके ऐसे आए जब माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी समान
नागरिक सं हिता लागू न करने पर नाखु शी जताई है ।

 1985 में शाह बानो केस और 1995 में सरला मु दगल मामले में सु पर् ीम कोर्ट द्वारा समान नागरिक
सं हिता पर टिप्पणी से भी इस मु द्दे ने जोर पकड़ा था, जबकि पिछले वर्ष ही तीन तलाक पर सु पर् ीम
कोर्ट के ऐतिहासिक फैसले के बाद भी इस मु द्दे को हवा मिली।

 ले किन, सवाल है कि इस मसले पर अब तक कोई ठोस पहल क्यों नहीं हो सकी है ? दरअसल, भारत
का एक बहुल सं स्कृति वाला दे श होना इस रास्ते में बड़ी चु नौती है ।

 हिं द ू धर्म में विवाह को जहाँ एक सं स्कार माना जाता है , वहीं इस्लाम में इसे एक Contract माना
जाता है । ईसाइयों और पारसियों के रीति- रिवाज भी अलग-अलग हैं ।

 लिहाजा, व्यापक सां स्कृतिक विविधता के कारण निजी मामलों में एक समान राय बनाना
व्यावहारिक रूप से बे हद मु श्किल है ।

 ू री समस्या है कि अल्पसं ख्यक विशे षकर मु सलमानों की एक बड़ी आबादी समान नागरिक
दस
सं हिता को उनकी धार्मिक आजादी का उल्लं घन मानती है ।

 जाहिर है , एक बड़ी आबादी की मां ग को नकार कर कोई कानून अमल में नहीं लाया जा सकता है ।
तीसरी समस्या यह है कि अगर समान नागरिक सं हिता को लागू करने का फैसला ले भी लिया
जाता है तो इसे समग्र रूप दे ना कतई आसान नहीं होगा।

 इसके लिये  कोर्ट को निजी मामलों से जु ड़े सभी पहलु ओं पर विचार करना होगा। विवाह, तलाक,
पु नर्विवाह आदि जै से मसलों पर किसी मजहब की भावनाओं को ठे स पहुँचाए बिना कानून बनाना
आसान नहीं होगा।

 सिर्फ शरिया कानून, 1937 ही नहीं बल्कि, Hindu Marriage Act, 1955, Christian
Marriage Act, 1872, Parsi Marriage and Divorce Act, 1936 में भी सु धार की
आवश्यकता है ।

 मु श्किल सिर्फ इतनी भर नहीं है । मु श्किल यह भी है कि दे श के अलग-अलग हिस्से में एक ही


मजहब के लोगों के रीति रिवाज अलग-अलग हैं ।

 मौजूदा वक्त में गोवा अकेला राज्य है जहाँ समान नागरिक सं हिता लागू है । जाहिर है , इसके लिए
काफी प्रयास किए गए होंगे । इसलिए यह कहना गलक नहीं होगा कि दस ू रे राज्यों में भी अगर
कोशिश की जाती है तो, इसे लागू करना मु मकिन हो सकता है ।
 ू री ओर वोटबैं क की राजनीति भी इस मु द्दे पर सं जीदगी से पहल न होने की एक बड़ी वजह है ।
दस
 ू री पार्टियाँ इसे
एक दल जहाँ समान नागरिक सं हिता को अपना एजें डा बताता रहा है , वहीं दस
अल्पसं ख्यकों के खिलाफ सरकार की राजनीति बताती रही हैं ।

 ू रे को वोटबैं क में सें ध लगाने


जाहिर है , एक दल को अगर वोटबैं क के खिसक जाने का डर है तो, दस
की फिक् र है । दरअसल, सियासी दलों का यह डर पु राना है ।
 जब 1948 में हिन्द ू कोड बिल सं विधान सभा में लाया गया, तब दे श भर में इस बिल का जबरदस्त
विरोध हुआ था। बिल को हिन्द ू सं स्कृति तथा धर्म पर हमला करार दिया गया था।

 सरकार इस कदर दबाव में आ गई कि तत्कालीन कानून मं तर् ी भीमराव अं बेडकर को पद से इस्तीफा
दे ना पड़ा। यही कारण है कि कोई भी राजनीतिक दल समान नागरिक सं हिता के मु द्दे पर जोखिम
नहीं ले ना चाहता।
आगे की राह
 दरअसल, भारतीय सं विधान भारत में विधि के शासन की स्थापना की वकालत करता है । ऐसे में
आपराधिक मामलों में जब सभी समु दाय के लिए एक कानून का पालन होता है , तब सिविल
मामलों में अलग कानून पर सवाल उठना लाजिमी है ।

 समझना होगा कि निजी कानूनों में सु धार के अभाव में न तो महिलाओं की हालत बे हतर हो पा रही
है और न ही उन्हें सम्मानपूर्वक जीने का अवसर मिल पा रहा है ।

 दरअसल, सबसे बड़ी आजादी तो उन मु स्लिम महिलाओं को मिल सकेगी जो बहुविवाह और


हलाला जै सी प्रथाओं का विरोध करती रहीं हैं ।

 इससे न केवल समानता जै से सं वैधानिक अधिकार को अमलीजामा पहनाया जा सकेगा बल्कि,


समाज-सु धार जै सी पहलें भी कामयाब हो सकेंगी।

 समझना होगा कि जब हर भारतीय पर एक समान कानून लागू होगा तो, दे श के सियासी दल वोट
बैं क वाली सियासत भी नहीं कर सकेंगे और भावनाओं को भड़का कर वोट मां गने की रिवायत पर भी
लगाम लग सकेगा।

 ू री तरफ विधि आयोग की सलाह और अल्पसं ख्यकों की चिं ता पर भी हमें गौर करना
ले किन, दस
होगा। जब सं विधान में जिक् र होने के बावजूद विधि आयोग जै सी सं स्था समान नागरिक सं हिता
को जरूरी नहीं मानती है तो, यकीनन इसमें दे श की विविधता को महफू ज करने की नीयत होगी।
आयोग ने अगर समान नागरिक सं हिता लाने से पहले निजी कानूनों में सु धार की बात कही है तो,
यकीनन आयोग चाहता है कि कड़ी दर कड़ी कानून बना कर सु धार की ओर बढ़ा जाए।

 समझना होगा कि मु स्लिमों के पर्सनल लॉ का 1400 साल पु राना होने का अर्थ है - आस्था का लं बा
इतिहास होना। जाहिर है , इसे एक झटके में समान नागरिक सं हिता लागू कर खत्म नहीं किया जा
सकता। अमूमन भारत के सभी निजी कानून आस्था पर आधारित हैं और उनमें सु धार तब तक नहीं
हो सकता जब तक तब्दीली की आवाज धर्म विशे ष के अं दर से नहीं आ जाती है ।

 हमें समझना होगा कि अगर राजा राममोहन राय सती प्रथा के खिलाफ आवाज उठा सके और
उसका उन्मूलन करने में कामयाब हो सके तो, सिर्फ इसलिये कि उन्हें अपने धर्म के भीतर की
कुरीतियों की फिक् र थी।

 लिहाजा, धर्म के रहनु माओं को ईमानदारी से पहल करने की जरूरत है । हमें यह भी समझना होगा
कि भारत जै से दे श में सं स्कृति की बहुलता होने से न केवल निजी कानूनों में बल्कि रहन-सहन से
ले कर खान-पान तक में विविधता दे खी जाती है और यही इस दे श की खूबसूरती भी है । ऐसे में
जरूरी है कि दे श को समान कानून में पिरोने की पहल अधिकतम सर्वसम्मति की राह अपना कर की
जाए। ऐसी कोशिशों से बचने की जरूरत है जो समाज को ध्रुवीकरण की राह पर ले जाएँ और
सामाजिक सौहार्द्र के लिए चु नौती पै दा कर दें ।

 हाल ही में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के फैसले  के मु ताबिक, दे श में समान नागरिक सं हिता

(यूसीसी) ज़रूरी और अनिवार्य रूप से आवश्यक है , इस टिप्पणी के बाद भारत में समान नागरिक

सं हिता की घटना को समझने की ज़रूरत बढ़ गई है . सवाल यह उठता है कि यूसीसी की अवधारणा


कैसे अस्तित्व में आई? स्वतं त्रता के बाद के दौर में यूनिफॉर्म सिविल कोड को लाने के लिए क्या

कदम उठाए गए थे ? इस मु द्दे पर कानूनों का न्यायशास्त्र क्या है ? वर्तमान सरकार इसे लागू करने में

क्यों विफल रही है , और इसे ले कर आगे बढ़ने का सं भावित तरीका क्या है ? यह सं विधान के अनु च्छे द

44 के तहत शामिल है जो यह घोषणा करता है कि राज्य नागरिकों को एक समान नागरिक सं हिता

सु निश्चित करने की कोशिश करे गा. यह ले ख सं विधान के भाग IV में है   जो राज्य के नीति निदे शक

सिद्धां तों से सं बंधित है , जो किसी भी अदालत में लागू नहीं होते हैं , ले किन इसमें निर्धारित सिद्धां त

दे श के शासन में मौलिक अधिकार का दर्ज़ा पाते हैं , और यह राज्य का कर्तव्य होगा कि इन सिद्धान्तों

को कानून में शामिल किया जा सके. निदे शक सिद्धां तों से जु ड़े महत्व को मिनर्वा मिल्स बनाम यूनियन

ऑफ़ इं डिया मामले में मान्यता दी गई थी, जहां सर्वोच्च न्यायालय ने टिप्पणी की थी कि मौलिक

अधिकारों को निदे शक सिद्धां तों के साथ सामं जस्य स्थापित करना चाहिे ए और इस तरह का

सामं जस्य सं विधान की बु नियादी विशे षताओं में से एक है .

 1857 में भारत के प्रथम स्वतंतर् ता संगर् ाम ने ब्रिटे न को एक सख़्त संदेश दिया कि वो भारतीय

समाज के ताने बाने को नहीं छे ड़े और शादियां, तलाक, मे नटे नेंस, गोद ले ने और और उत्तराधिकार

जैसे मामलों से संबंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे .

 ऐतिहासिक रूप से यूनिफॉर्म सिविल कोड का विचार 19वीं और 20वीं शताब्दी की शु रुआत में

यूरोपीय दे शों में तै यार किए गए इसी तरह के कानून से प्रभावित था और विशे ष रूप से 1804 के

फ् रांसीसी सं हिता ने उस समय प्रचलित सभी प्रकार के परं परागत या वै धानिक कानूनों को ख़त्म

कर दिया था और इसे समान सं हिता से बदल दिया था. बड़े स्तर पर, यह पश्चिम के बाद एक बड़ी

औपनिवे शिक परियोजना के हिस्से के रूप में राष्ट् र को ‘सभ्य बनाने ’ की कोशिश थी. हालां कि, 1857

में भारत के प्रथम स्वतं त्रता सं ग्राम ने ब्रिटे न को एक सख़्त सं देश दिया कि वो भारतीय समाज के

ताने बाने को नहीं छे ड़े और शादियां , तलाक, मे नटे नें स, गोद ले ने और और उत्तराधिकार जै से मामलों

से सं बंधित कोड में कोई बदलाव लाने की कोशिश नहीं करे .

 स्वतं त्रता के बाद, विभाजन की पृ ष्ठभूमि के विरूद्ध, नतीजे के तौर पर सांप्रदायिक वै मनस्यता और

व्यक्तिगत कानूनों को हटाने के प्रतिरोध में यूसीसी को एक डायरे क्टिव प्रिसिं पल के रूप में

समायोजित किया गया जै सा कि ऊपर चर्चा की गई है . हालां कि, सं विधान के ले खकों ने सं सद में एक

हिं द ू कोड बिल लाने का प्रयास किया जिसमें महिलाओं के उत्तराधिकार के समान अधिकार जै से

प्रगतिशील उपाय भी शामिल थे , ले किन दुर्भा ग्य से , इसे हक़ीक़त में नहीं बदला जा सका. 5 सितं बर

2005 को जब हिं द ू उत्तराधिकार (सं शोधन) अधिनियम, 2005, भारत के राष्ट् रपति की सहमति से

पारित हुआ तब कहीं जाकर हिं द ू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 में सं पत्ति के अधिकारों के बारे में

भे दभावपूर्ण प्रावधान हटाया जा सका. इस सं दर्भ में , न्यायिक दृष्टिकोण से , सर्वोच्च न्यायालय ने

कई मामलों में दे श में एक यूसीसी होने के महत्व पर ज़ोर दिया है , जिसका विश्ले षण करने की आज
ज़रूरत है . शाह बानो बे गम मामले से ले कर हाल ही में  शायरा बानो बनाम भारत सं घ के मामले में ,

जिसने तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वै धता पर सवाल उठाए और इसे असं वैधानिक

घोषित कर दिया .

 शाह बानो बे गम मामले से ले कर हाल ही में शायरा बानो बनाम भारत संघ के मामले में , जिसने

तलाक-ए-बिद्दत (तीन तलाक़) की प्रथा की वै धता पर सवाल उठाए और इसे असंवैधानिक घोषित

कर दिया .

 कई दशकों से विवादित मु द्दा

 शु रुआत मो. अहमद खान बनाम शाह बानो बे गम और अन्य मामले में , सु प्रीम कोर्ट ने शाह बानो के

पति द्वारा उनके ख़िलाफ़ तलाक़ की घोषणा करने के बाद, दं ड प्रक्रिया सं हिता की धारा 125 के तहत

रखरखाव के मु द्दे पर अपना फैसला सु नाया. इस मामले पर फैसला सु नाते हुए, मु ख्य न्यायाधीश वाई

वी चं दर् चूड़ ने कहा कि सं सद को एक सामान्य नागरिक सं हिता की रूपरे खा तै यार करनी चाहिए

क्योंकि यह एक ऐसा साधन है जो कानून के समक्ष राष्ट् रीय सद्भाव और समानता की सु विधा

प्रदान करता है . इसके बावजूद, सरकार ने इस मु द्दे के समाधान में अपनी सक्रियता नहीं दिखाई

और 1986 में तलाक़ पर मु स्लिम महिला अधिकारों का सं रक्षण अधिनियम ले आई.

 पूर्व के मामले में , सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के संदर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और

बाद के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एंड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिंगल

मदर, बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए

आवे दन कर सकती है .

 ् ल, अध्यक्ष, कल्याणी और
अगले दशक तक, इस मु द्दे पर चु प्पी छाई रही ले किन फिर सरला मु दग

अन्य बनाम भारत सं घ और अन्य का मामला आया, जहां सु प्रीम कोर्ट ने सरकार से समान नागरिक

सं हिता को एक हिं द ू मॉडल के रूप में दे श की रक्षा और राष्ट् रीय एकता को सु निश्चित करने के लिए

इसे अमल में लाने का आग्रह किया. इसी तरह, लिली थॉमस बनाम यूनियन ऑफ इं डिया

और एबीसी बनाम द स्टे ट (एनसीटी ऑफ दिल्ली) के मामलों का भी निपटारा किया गया. पूर्व के

मामले में , सर्वोच्च न्यायालय ने उत्तराधिकार के सं दर्भ में यूसीसी के महत्व पर ज़ोर दिया, और बाद

के मामले में यह माना गया कि गार्ज़ियन एं ड वॉर्ड्स एक्ट 1890 के तहत ईसाई धर्म की सिं गल मदर,

बच्चे के कुदरती बाप की सहमति के बिना भी अपने बच्चे की एकमात्र गार्ज़ियनशिप के लिए

आवे दन कर सकती है . इस सं दर्भ में , अदालत ने समान नागरिक सं हिता की कमी के चलते होने वाली

समस्याओं की ओर इशारा किया था.

 वर्तमान में , भारतीय जनता पार्टी (बीजे पी), जो 2014 से सत्ता में है , ने अपने आम चु नावी

घोषणापत्र में कहा था कि, “बीजे पी का मानना है कि जब तक भारत एक समान नागरिक सं हिता को

नहीं अपनाता है , तब तक दे श में लैं गिक समानता नहीं आ सकती है , यह दे श की सभी महिलाओं के
अधिकारों की रक्षा करता है और भाजपा एक समान नागरिक सं हिता का मसौदा तै यार करने के लिए

प्रतिबद्ध है , जो सर्वोत्तम परं पराओं पर आधारित है और उन्हें आधु निक समय के साथ सामं जस्य

स्थापित करने का मौका दे ती है .”

 हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जैसे उपाय

किये हैं , जो लैं गिक समानता सु निश्चित करने के लिए एक सराहनीय कदम कहा जा सकता है . 

 वास्तविकता में , ऐसा नहीं हुआ है और हाल ही में वर्तमान सरकार ने विवाह के लिए बालिकाओं

की आयु बढ़ाकर 21 वर्ष करने जै से उपाय किये हैं , जो लैं गिक समानता सु निश्चित करने के लिए एक

सराहनीय कदम कहा जा सकता है . यह सोचने की ज़रूरत है कि यूसीसी लाकर महिलाओं सहित

समाज के समग्र विकास को कैसे सु निश्चित किया जा सकता है और सं विधान के अनु च्छे द 51 ए

(एफ) और अनु च्छे द 51 ए (ई) के उद्दे श्यों को कैसे सं तुलित किया जा सकता है , जो मूल्य निर्धारण के

पहलु ओं से सं बंधित है , और जो मिली-जु ली सं स्कृति और त्याग की समृ द्ध विरासत को सं रक्षित करता

है और जो उन परं पराओं को ख़त्म करता है जो महिलाओं की गरिमा के लिए अपमानजनक हैं .

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