Professional Documents
Culture Documents
2015.321027.99999990243289 Text
2015.321027.99999990243289 Text
केको
के
००६ नमकनक
क७०
या क>
णी संख्
श्रे
ऋरसांक्
आवाधि
खूस कुमारी -पुर
कसान
ा---१ "५
आवज्छार छरछार
इसच्लच्ञ घ्ल्तत ः
प्ड्ट्त ध्यम हज 75८ दत्त 7७
र्
श
त्ासरा स्राय
मनुमादक
रासचेंद्र बसपा
कह2-
० 5775 6 दर ४
42
पे हुआ
आफ ८०८
(कम सायस-प्रचानिर/ दो
१३६खडे
अकाशक
[कु
अपना न्याय कराने में इससे सी सहायता ली; और जव उसने
डुःख और लज्जा अकट की, तद उसका अपराध क्षमा छुआ ।
यह तो स्पष्ट ही है. कि आअच्चुलफजल अकवर का अझुखसाहव,
परासशेदाता, विश्वसनीय, अधान लेखक, इतिहासकार, नियसों
आदि का ज्ञाता और उसकी जवान वल्िकि यों कहना चाहिए कि
उसकी चुछि की छंजी था अथदा यों कहो कि वह सिकनन््दर के
सामने अरस्तु था । यों ऊुँह से लोग चाहें जो छुछ कहें, पर यदि
अभ किया जाय कि वह इन पदों की योग्यचा रखता था या
नहीं, तो आकाश से उत्तर सिलेगा कि उसका पद इलन सच से
बहुत उच्च था । उसका आज्ञाओं को अचलित करने का ढंग,
आअसमीरों के कार्यों आदि का संशोधन ओऔर उनके परिश्रस सें
सदा जझुटियाँ दिखलाना भी पराकाछा का था । कहनेवाले अवश्य
कहते होंगे और अनजान लोग अब भी ससमकते होंगे कि आव्घुल-
फजल सदा आअकवर के सासने बैठ कर बातों के तोते-मैना वनाते
होंगे । विकट सससस््याओं और कठिन अवसरों के उपस्थित होने
पर कास कर दिखलाना कुछ औऔर ही वात है । यदि शेख साहब
स्वय॑ युद्ध-च्षेत्र सें होते तो उन्हें पत्ता चलता कि वहाँ पग-परण पर
क्या-क्या कठिनाइयाँ उपस्थित होती हैँ । यह सब ठीक है ।
लेकिल इससे सी कोई सनन््देह नहीं हे कि जब यह पहाड़ स्वर्य
इलके स्विर॒ पर आकर पड़ा, तब सी इन्होंने उसे परले लिरे की
वीरता और सुन्दरता-के साथ सेँमाला । देखनेबाले चकित होते
थे कि ससजिद सें चैठनेवाले एक झुलला का लड़का साम्राज्य का
सार उठाए चला जाता है और कैसी ख़बसूरती से जाता है |
यहाँ संक्षेप सें इनके कार्यों केछुछ उदाहरण दिंण जाते हैं ।
[ ३ ]
“सन् १००६ हि० में इनकी उन्नति ने अपनी चाल बदली |
दक्षिण के सासले बहुत पेचीले हो गए । अकबर ने इस चढ़ाई की
व्यवस्था शाहजादा मुराद को सौंपी थी। बहुत से अनुभवी
सेनापति और गअसिद्ध सरदार सेनाएँ दे कर उसके साथ
किए थे । शाहजादा आखिर नौजबान लड़का था। ऐसे पुराने
सेनापतियों को दवाना उसका कास नहीं था। जब वह एक के
परासशे के अजनुसार कास करता था, तब दो उसके विरुद्ध होकर
सहायता करने के बदले उसका परिश्रम निरथंक कर देते थे।
सव से बड़ी खराबी यह थी कि शाहजादे को शराब की लत पर
गई थी । उसने उसकी बहुत थुरी दशा कर रखी थी । इसलिये
आरयः बहुत से काम नष्ट हो गए । जब इस सम्बन्ध के ससाचार
निरन्तर द्रवार में पहुँचे, तब अकवर बहुत वचिन्तित हुआ । अच
उसके पास इसके अतिरिक्त और कोई उपाय न था कि जिस
अच्युलफजल का अलग होना बह किसी तरह सहन न कर सकता
था, उसे दर॒वार से जुदा कर के वहाँ भेजे ।
अकबर अपनी सेनाएँ लिए पाँच वर्ष से पंजाब सें घूम रहा
था और लाहौर सें छावनी छाडे थी । इसके भी अच्छे ही फल
आप्त हुए थे । काश्मीर पर विजय आप्त हो गई थी और सीमा-
आन््त के यूसुफजई आदि इलाकों की चढ़ाइयों का यथेष्ट अमीष्ट
परिणास हो चुका था | अब्दुल्लाखॉँ उजबक के उपद्रव बन्द होते
गए ओर देशों पर चिजय पआप्त करनेवाला वह बादशाह अपने
अयोग्य पुत्र के दुष्कर्मों सेसन् १००० हि० में स्व सिघार गया
था | उसके देश की व्यवस्था बिगड़ गदइ्दे थी। अकबर को अपने
पूर्वजों के देश पर अधिकार करने के लिये इस से अच्छा और
[ चञचथड ह|ं
कोई अवसर न सिल सकता था। लेकिन चुरहान उलूसुल्क के राज्य
के सप्ठपय छो जाने के कारण दक्षिण का परोसा छुआ थाल
सी सासने था। चह्ुत दिनों ले असमीरों और सेनाओं का उधर
आना-जाना भी हो रहा था। झुराद की अचस्था के सब ससाचार
खुल कर उसने जान लिया था कि दक्षिण की सेना सेनापति से
खाली होता चाहती हैँ । उसले अपले दोलों पुत्रों को झुलाया।
सका विचार यह था कि सलीस को सेना देकर. तुर्किस्तान की
चढ़ाई पर भेजे । लेकिन वह शराबी कचावी लड़का चदससस््त
हो रहा था । दानियाल के सम्बन्ध सें ससाचार सिला कि वह
इलाहायाद से सी आगे निकल गया है । यह भी झुना कवि उसका
उद्देश्य अच्छा नहीं जान पड़ता । इसलिये वह विवश होकर
स्वयं ही इस विचार से लाहौर से निकला कि उसे साथ लेता
छुआ अहमसदनगर को जाय और दक्षिण की ओर से पहले निः्धिन्त
होकर तब तूरान की चढ़ाई की व्यवस्था करे !
अकवर को अव्युलफजल की नेक-नीयती, बुद्धिसत्ता और उपायों
पर इतना भरोसा था कि वह उसके कथन को स्वयं अपने कथन
के तुल्य समझता था | जिस विपय में अव्युलफजल किसी को
कोई वचन देता था, उस विषय में उस वचन को वह स्वर्य
आअपना वचन समम्कतता था । इस वात की पुछष्ठि उस पत्र की
लिखावट से होती है जो अचव्घचुलफजल ने शाहजादा दानियाल
को लिखा था । यद्द मूल पत्र फारसी सें हैऔर इसका आंशय
इस अकार है---
“अमसान् सम्राटने कल रात को स्नासागार सें स्वयं अपने
श्री से कहा था कि अव्घचुलफजल;, मैंने अच्छी तरह सोच
[ ३७ न]
समभकत केर यही निश्चय किया है कि दक्षिण की चढ़ाई पर या तो
लुम जाओ ओर या मैं जाऊँ । इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार
कास में न सफलता हो सकती है और न छोगी | यदि लुस
जाओगे तो विश्वास है कि शाहजादा तुम्हारे कहने के बाहर या
विरुद्ध न जायगा । जब तक तुस बहा रहोगे, वह किसी दूसरे से
परासर्श या मन्त्रणा न करेगा और कस साहसवाले, अदूरदर्शी
आर अयोग्य व्यक्तियों की वातें न छुनेगा । इसलिये डचित यही
'है कि तुम पहली तारीख को अपने रहने आदि का सामान
पहले से भेज दो और आठवीं तारीख को तुम चले जाओं ।
सेबक ने यह निवेदन कर दिया है कि वकरियाँ ओर भेड़ें या
लो बलिदान के काम आती हैं और या सांस पकाने के लिये ।
दूसरा क्या डपयोग हो सकता है ? जब श्रीसान् की ऐसी आज्ञा
है, तब मुझे; उसमें कोई आपत्ति नहीं है |“
सन् १००७ हछि० में शेंख को यह आज्ञा हुईं कि सुलतान
मुराद को अपने साथ ले आओ | साथ ही यह सी आज्ञा हुई
कि यदि दक्षिण्य पर चढ़ाई करनेवाले अमीर उस देश की
रक्षा का भार छें तो शाहजादे के साथ चले आअओं । ओर नहीं
तो शाहजादे को भेज दो ओर स्वय॑ वहीं रहो । आपस में एका
रखो ओर सब लोगों से ताकीद कर दो कि मिरजा शाहरुख की
आअधीनता सें रहें ।
सिरजा को सी झंडा और नक्कारा देकर सालयें की
ओर भेज दिया जहाँ उसकी जागीर थी। उसके सेजने का
उद्देश्य यह था कि बह वहाँ जाकर सेना का अबन्ध करे और
जब दक्षिण में बुलाहट हो, तब तुरन्त वहाँ पहुँच जाय ।
[ ६ ॥)
न 29 की «52; 395०9
[ ६७ ]
सास और अन्य धर्मवाले यही कहते हैं कि तू एक है. ओर तेरे
ससान कोई दूसरा नहीं है। ससजिद सें तुझे ढी लोग स्मरण्य करते
हैँ और मन्दिर में तेरे हीलिए शंख बजाते हैं । सब तुमको
स्सरण करते हैं और तेरा उनसें पता ही नहीं है । मैं कभी सन्दिर
में जाता हैँ और कभी ससजिद् में । तुकको ही मैं घर-घर दूँढ़ता
हैँ । जो तेरे सच्चे सेवक हैं, उनके लिए इस्लास और गैर-इस्लास
च्थ्ट
प्धर ऐड]
»+ 43053 (3५5० (/0०)]3 -»«># 3४83 <
-४७५४-०३ किक । छठ है] ०9२७० ३-९२ हि
शेख के पत्र
अव्लुलफजल के संग्रहीत जो पत्र आदि हैं, वे साधारणत:
विद्यालयों आदि सें पढ़ाए जाते हैं । इसके तीन खंड छे. जिनका
क्रम उसके भान्जे ने लागाया है जो उनके पुत्र के तुल्य था।
पहले खंड में वे खरीते हैं जो ईरान और तूरान के बादशाहों
के लिये लिखे थे । झ्वाथ ही वे आज्ञापच सी दिए गए हैं जो
ब्यसीरों आदि के नास मेजे गए थे। शब्दों की शोभा, अ्थ का
समूह, वाकक््यों की चुस्ती, विषय की श्रेष्ठता, आाषा की स्वच्छता,
जबान का जोर मान्नों नद्दी का अवाह है जो तूफान की तरह चला
[ <ज ]
ध्छ
[ ऋ&< न]
दिया । दंड देने के सम्बन्ध सें जहॉाँगीर बहुत घीसा था | उसने
उनके सिर मुँडयाए, उन्हें स्थ्रियों केकपड़े पहलाए और उलटे गधों
पर बैठा कर सारे नगर में घुसाया | थोड़े ही दिनों वाद रहसान
चीसार छुआ । जब द्रवार सें गया; तव वहाँ उसका बहुत अधिक
सत्कार हुआ । ठुःख है कि जहॉगीर के झ्यासन के आठवें बे
पिता की झत्यु के ग्यारह बे वाद इसकी भी खत्यु हो गई:। पश-
तन नासक एक पुत्र छोड़ गया था। छसने जहॉँगीर के शासन-काल
सें सात सौ प्यादों और त्तीन सौ सबारों की नायकता तक उन्नति
की । शाहजहाँ के समय सें उसे पॉँच-सदी सन््सच मिला ! चह*
२५ यें शासन यर्ष तक सेंबाएँ करता रहा |
मैंने ऊपर कहा था कि शानखानाँ आदि के सम्बन्ध सें
अच्बुलफजल ने जो फूल कवरे हैं, अन्त सें उनके अज्ुवाद से मैं
पाठकों का सनोरंजन करूँगा । अतः यहाँ उनमें से कुछ पत्रों के
आशय दिए जाते हैं । दक्खिन की लड़ाइ से जो एक निवेद्नपत्र
बादशाह के नास भेजा है, उससें बहुत सी लम्बी-चौड़ी उपाधियों
आदि के उपरान्त खानखानोँ की व्यवस्था ध्आदि के सम्बन्ध में
यहुत सी बातें लिखी हैं । फिर लिखते हें कि ईश्वर की शापथ है
ओर उसी की साक्षी यथेष्ट है कि जो कुछ लिखा ओऔर कहा हे,
बह सब ठीक है | उससें जरा भी और कुछ भी सन््देह नहीं है ।
इंश्वर की शपथ है कि मेरे आदसी कई बार उसके आदमियों को
सेरे पास पकड़ लाए और वादशाही अताप के विरुद्ध उसके लिखे
हुए पत्र आदि पकड़े गए जो ज्यों के तयों शाहजादे को दिखिलाए
गए | साम्राज्य के समस्त स्तस्थ दांतों सें उँगली दवाकर रह गए |
छाथ मल कर रह गए । जे विवश दोकर मौन हैं। थे नम्रता
[.*%%5 |]
हर विनय के अतिरिक्त और कोई मार्ग नहीं देखते, इसलिये चुप
चैठे हैं । लेकिन बड़े-छोटे, अमीर-गरीब सब समसभतते हें कि
दक्खिन की लड़ाई को उसी ने उलकलन में डाल रखा है आऔर वह
ग्री केकारण रुकी छुईड
अमन ,इस खेवक ने अपले निेदनपत्र में कई वार निवेदन
हे, परन्तु खन्तोपजनक उत्तर नहीं। सिलता । बिलक्षण बात
(3 कि
ही इस सेवक की अरज सी गरज सममी जाती है। अव्युलफजल
इस द्रगाहू का पला छुआ है और घूल में से उठाया हुआ है ।
,0॥खर नल
0० करे कि बह अपनी गरज की कोई जात कहे और
उसके लिये अयत्न करे, जिसमें इस वंश की वबदनामी हो। मेरे
स्वामी, हम भारतवासी अन्दर-चाहर एक से होते हैं । देर ने
हसारी प्रकृति सें तो रूखापन पैदा ही नहीं किया। इश्वर को
धन्यवाद हैकि हम नसक को हलाल करके श्वाते हैं । हम और
ल्वोगों की औति गोरे मुँह और काले दिलवाले नहीं हैं । यद्यपि
देखने सें में रंगल का काला हूँ, लेकिन मेरा हृदय सफेद है । जैसे
ऊूपर से दर्पण की कालिसा के कारण भ्रम ढोता है, बैसे ढी मेरे
सम्बन्ध सें सी अ्रम हो सकता है | परन्तु आप खूब ध्यान से देस्तें,
अन्दर से साफ दिलवाला हूँ । खोट-ऋपट ऊुछ सी नहीं ।
- 39 5*5७०)० ४३ है 3 «० [से
सबसे -
अधिक -पुण्य का कास है और उनका मुख देखना ही मेरे
जीवन का सेवा है। इसी लिये लाचारी की हालत में इस
वर्ष भी यह यात्रा स्थगित दो गई और दूसरे साल पर जा पड़ी ।
यदि सम्राट की इच्छा इ्धरीय इच्छा के अनुकूल होंगी तो मैं
काबे की परिक्रमा की ओर अछतच होगा । इस विचार और
संकल्प में इंश्वर साथी ओर सहायक रहे ।
इस पत्र को देखकर शेख खद॒र के सन पर क्या वीती होगी !
यह उसी शेख मुबारक का पुत्र है जिसके पांडित्य और एझ॒णों को
शेख सदर और सख्दूस अपनी ख़ुदाई के जोर से वर्षों तक
दवाते रहे और तीन बादशाहों के शासन-काल तक जिसे उन
लोगों ने काफिर और, घर्म में नई बाव निकालनेबाला बनाकर एक
अ्रकार से देश-निकाले का दंड दे रखा था । यह बही व्यक्ति है
जिसके भाई फैजी को पिता मुबारक सहित उन्होंने दरबार से
निकला दिया था ।
,._ इश्वर की सहिसा देखो कि आज उसके पुत्र सम्राद् के सनत्रो
हैं और ऐसे कुशल हैं कि इन्हें दूध सें से मक्खी की तरह
निकाल कर फेंक दिया । जिस महत्व के बल से ये लोग दीन
आर दुनिया के सालिक और पैगम्बर के सायब जने हुए बैठे
थे, वह् सहत््व तथा धघर्मोधिकार विह्ानों और शेखतों की मोहर
ज्यौर दस्तखत से उस नवयुवक जादशाह के नास लिखयवा दिया
जो लिखना-पढ़ना भी नहीं जानवा था । और इन नवयुवकों के
ऐसे -विचार हैं कि यदि उत्त दोनों महाशयों का राज्य हो तो
इनके लिये आखणन-दंड से कम ओर कोरदे दंड -नहीं है । आज,
अन्हीं शेख सदर को कैसे खुले दिल से और फैल-फेल कर लिखते -
११७ हल
हैं कि अपने सच्चे शुरू और पीर बादशाह की आज्वया के
विना हज . करने कैसे जाऊझँ। ओर मेरे लिये तो उनके दर्शन
करना ही हज के समान है ।
सच तो यह है कि मखदूस और सदर का बल सीमा से
चहुत बढ़ गया था | संसार का यह नियम है. कि जब कोई
चल बहुत वढ़ जाता है, तो संसार उस बल को तोड़ डालता
है। और ऐसे सीषण आधात से तोंडता है कि वह आधात
कोई पर्वत भी नहीं सह सकता। फिर इन महालुभावों के तो
ऐसे काम थे कि यदि संसार उनका बल न तोड़ता तो वह बतल
आप ही आप टहृट जाता । जिस ससय हम अधिकार-सम्पन्न
हों, उस समय इईश्वर हमें सध्यस सागे का अनुसरण करने
की बुद्धि दे ।*
एक ओऔर पत्र से ऐसा जान पड़ता है कि साता ने शेख्व को
कोई पत्र लिखा है और उसमें दूसरी बहुत सी बातों के अति-
रिक्त यह भी लिखा है कि दीन-हुःखियों की सद्यायता अवश्य
किया करो । इसके उत्तर सें देखना चाहिए कि शेश्त अपने
पारिडत्यपू्ण तथा दाशनिक विचारों को कैसे लाड़ की बातों में
अकट करते हैं । पहले तो कहीं बादशाह के अलुभद्दों केलिये
धन्यवाद दिया है, कहीं अपने छुभ और सज्जनतापूर्ण विचारों
का उल्लेख किया है । उसी में यह भी लिखा है कि मैं बादशाह
की कृपाओं को भी लोक की आवश्यकता तथा कल्याण के कास
में लाता हूँ । उसी में लिखते-लिखते कहते हैं कि शरअ के
ज्ञाता लोग कहते हैं कि जो व्यक्ति नमाज न पढ़नेवाले लोगों
की सहायता करता है, उसके लिये फरिश्ते सरक में कोठरी
[ ११८ |]
राजा टोडरसल
ये अकवर बादशाह के सन््त्री थे, ससस्त सारतव्ष के
साम्राज्य के दीवान थे। लेकिन फिर भी आख्यये है कि किसी
लेखक ने इनके बंश या मूल निवास-स्थान का उल्लेश्य न किया ।
खुलासतुल्रू तवारीख सें देश्व लिया | यद्यपि उसका लेखक हिन्दू
है और वह टोडरमल का सी बहुत वड़ा अशंसक है, लेकिन उसने
भी छुछ न खोला । हाँ, पंजाब के पुराने पुराने पंडितों और भाटों
से पूछा तो पता चला कि वें टन््डन खजन्नी थे । पंजाब के लोग इस
वात का अभिमान करते हैं कि इसका जनम हमारे पअदेश में हुआ
था | कुछ लोग कहते हैं कि ये खास लाहौर के रहनेवाले थे और
छुछ लोगों का सत्त है कि लाहोर जिले का चूनियों" नामक स्थान
इनका घर था और वहाँ उनके बड़े-बड़े विशाल भवन उपस्थित
हैं । एशियाटिक सोसाइटी ने सी इनके जन्म-स्थान के सम्बन्ध
में जॉच की और निः्चय किया कि ये अवध ग्रान्त के लाहरपुर
लासक स्थान के रहनेवाले थे ।
विघया साता ने अपने इस होनहार पुत्र को बहुत ही दरिद्र-
ता की अबस्था में पाला था । रात के ससय उसके सच्चे हृदय
से ठंडे साँस से जो आर्थनाएँ निकल कर ईश्वर के दरबार में
पहुँचती थीं, वह ऐसा कास कर गई कि टोडरमल भारतवणे के
सम्राट के दरबार में बाइस सूबों के अधान दीवान और सन््त्री
[ १६० ]
हो गए । पहले वे साधारंण सुन्शियों की मँँति कम पढ़े-लिखे _
नौकरी करनेवाले आदसी थे और सुजफ्फरखोँ के पास कास
करते थे । फिर बादशाही सुत्सद्दिियों में होगए । उनमें विचार-
शीलता, नियमों का पालन और कास की सफाई बहुत थी और
आरम्भ से दी थी । उन्हें पुस्तकों का अध्ययन करने तथा सब
चातों का ज्ञान श्राप्त करने का भी शौक था। इसलिये वे किद्या
आर योग्यता भी आप्त करने लगे और अपने कास सें भी उन्नति
करने लगें | कास का नियम है कि जो उसे सभालता है, वह सी
चारों ओर से सिसट कर उसी की ओर छुलकता है । डोडरमल
अस्थेक कार्य बहुत अच्छे ढंग और शौक से करते थे; इसलिये
बहुत सी सेवाएँ तथा प्रायः कायोलय आदि उन्हीं की ' कलम से
सम्बद्ध हो गए । दफ्तरों के काम-धन्धों के सम्बन्ध सें उनका
ज्ञान इतना बढ़' गया था कि अमीर और दरबारी लोग हर बात
का पता उन्हीं से पूछने लगे । उन्होंने दफ्तर के कागजों, सुकदसों -
की मिसलों और बिखरे हुए कासों को भी नियमों और सिद्धान्तों
के क्रम सें बद्ध किया । धीरे घीरे वे बादशाह के समच्त उपस्थित
होकर कागज आदि पेश करने लगे । हर कास सें उन्हीं का नास
जवान पर आने लगा । इन कारणों से यात्रा में भी बादशाह के
लिये उन्हें अपने साथ रखना आवश्यक हो गया ।
टोडरसल सब घार्सिक कत्य और पूजा-पाठ आदि बहुत करते
थे और इस दिषय सें-पक््के हिन्दू थे। लेकिन वे समय को भी भली
अति देखते थे और अपनी सूक्मदर्शी दृष्टि सेससमक्त छेते थे कि
कौन सी बातें आवश्यक तथा कौन सी-निरर्थक हैं | ऐसे अवसर
पर उन्होंने घोती फेंक कर बरजों ( घाघरेदार पाजामा ? > पहन
डड़ने की आवश्यकता होती तो दिन भर वल्कि कई दिन लग
जाते । उन्होंने प्यादा, सवार, तोपखाना, वढीर,. सदर बाजार और
लश्कर के उत्तारने के लिये भी पुराने सिद्धान्तों में अनेक खुधार
किए और सबको उपयुक्त स्थान पर स्थापित किया । अकवर भी
सनुष्यत्व का जौहरी और सेवाओं का सराफ था। जब उसने
देखा कि ये हर काम के लिये सदा तैयार रहते हैं और खूब फुरती
से सब काम करते हैं, तव उसने समम्ध लिया कि ये मुत्सद्दीगिरी
के अतिरिक्त सैनलिकता तथा सरदारी के शुण भी रखते हैं ।
नियमों और आज्ञाओं आदि के पालन ओर हिसाव-किताब
आदि ससमभकने में टोंडर्सल किसी के साथ बाल भर भी रिआयत
हीं करते थे । इस कारण सब लोग यह कहकर उनकी शिकायत
करते थे कि इनका स्वभाव बहुत कड़ा है । सन् ९७- हि० सें
उन्होंने अपने इस झुण का इस पअकार प्रयोग किया क्रि उसका
परिणाम चहुत छढी हानिकारक रूप सें सक्रट छुआ । जब वादश्याह
ने खानजमों के साथ युद्ध करने के लिये सुनइसखॉ आदि अमीरों
को कड़ा मानिकपुर की ओर भेजा, तव सीर सअज उलू मुल्क को
वहादुरखोँ आदि पर आक्रमण करने के लिये कन्नौज की ओर
मेजा । फिर टोडरसल से कद्दा कि तुम भी जाओ आर मीर के
साथ सम्मिलित होकर इन उद्दंड सेबकों को ससमाओ । यदि वें
ठीक सा्ग पर आ जायें तो अच्छा ही है। नहीं तो उपयुक्त दूं
पायें । जब ये वहाँ पहुँचे, चल सन्धि की बात-चीत आरस्म हुई ।
[ १२२ ]
चहाहुरखों भी युद्ध करना नहीं चाहता था,-परन्तु सोर का स्वसाव
आग था । ऊपर से राजा साहब बारूद होकर पहुँचे । तात्पर्य यहे
कि लड़ सरे | ( विशेष देखों मीर सअज उल् मुल्क के प्रकरण
में । ) व्यथ कष्ट उठाए और नीचा देखा । केक्िन इस बात के
लिये राजा साहब की पूरो प्रशंसा होनी चाहिए कि वे मैदान से
नहीं टले । श्रिय राजा साहब, घर के सेवकों से हिसाव-क्रिताब में
अपने नियमों आदि का जिस प्रकार चाहो, पालन कर लो। लेकिने
' साम्राज्य की समस्याओं सें दिगड़ी बात बनाने के लिये कुछ और
ही नियमों की आवश्यकता होती है ! वहाँ. के नियम आर
सिद्धान्त यही हैं कि जान-बूककर भी किसी विशेष बात की
आर ध्यान न दिया जाय और उसे यों दी छोड़ दिया जाय ।
यहाँ इस अकार के सिद्धान्तों का उल्लेख करने की आवश्यकता
नहीं है ।
चित्तौड़, रणथम्भौर और सूरत आदि की विजयों में भी
राजा साहब के कठोर परिश्रसों ने बड़े बड़े इतिहास-लेखकों से
इस बात के अमाण-पत्र लेलिए कि किलों आदि पर अधिकार
करने और उनके सम्बन्ध के और दूसरे कास करने में राजा
टोडरमल की कुशल बुद्धि जो कास करती है, वह उसी का काम
है । वह दूसरे को ञ्राप्त ही नहीं दो सकती ।
सन् ९८० हि० में राजा दोडरमल को आज्ञा छुई कि
झुजरात जाओ आर वहाँ के साल विभाग तथा आय-व्यय के
कार्यालय की व्यवस्था करो । ये वहाँ गए ओर. थोड़े छी दिलों में
सब का्गज-पत्र ठीक करके ले आए । इनकी यह सेवा बादशाह
के दरबार सें स्वीकृत और सान्य छुई । न्
[ १९२३ है
सन् ९८१ हिं० में जब मुनइसखो विहार की चढ़ाई सें
सेना-लायकत्व कर रहे थे, तब लड़ाई बहुत बढ़ गई । यह भी
पता लगा कि लश्कर के अमीर लोग या तो आरम-तलबी के
कारण या आपस की लाग-डॉट के कारण या शाज्जु के साथ
रिआयत करले के विचार से जान तोड़कर सेवा और अपने
कत्तव्य का पालन नहीं करते । अब राजा टोंडरमल चिश्वस-
नीय, मिजाज पहचाननेवाले ओर भीतरी रहस्य की वातों के
ज्ञाता हो गए थे । इन्हें कुछ असिद्ध असमीरों के साथ सेन्ाएँ
देकर सहायता करने के लिये भेजा, जिसमें ये जाकर लश्कर की
व्यवस्था करें और जो लोग झुरत या उपद्रवी हैं, वे राजा साहव
को बादशाह का जासूस ससमक कर इस प्रकार कास करें, सानों
स्वयं बादशाह दी वहाँ उपस्थित हैं । शाहवाज श्थॉ कस्नों आदि
असीरों को बादशाह ने इनके साथ कर दिया ओर लश्कर की
व्यवस्था तथा निगरानी के सम्बन्ध सें भी कुछ बातें बतला दीं ।
ये बड़ी फुरती से गए ओर ख्वानखानाँ के लश्कर में सम्मिलित हो
गए । शत्रु सासने था। युद्ध-क्षेत्र कीवयवस्था हुईं । राजा ने सारे
लश्कर की हाजिरी ली | जरा देखना चाहिए कि योग्यता और
कार्ये-कुशलता कैसी चीज है । बुड्ले-बुड्े वीर चगताई तुके, हसायूँ
बाल्कि बावर के युद्ध देखनेयाले, वड़े-बढ़े वीर सेनापति जो तलवबारें
सारकर अपने-अपने पद पर पहुँचे थे, अपने-अपने आओहदलदे लेकर
खड़े हुए और कलस का मारनेवाला अुत्सद्दी अप्नसिद्ध खत्ी
उनकी हाजिरी लेने लगा । हा क्यों नहीं, जब वह इस पद के
योग्य था,तबवह अपना पद क्यों न ग्ाप्त करे-और अकवर जैसा
न्यायी बादशाह उसे वह पद क्यों न दे !
[| 9४
राज्य साहब
ई|।१।
कर का देहान्त सन् ९०७ हि० में ही हो गया था ।
सस्थव ८॥#
है कि राजा साहव ने स्मरखु-पत्रिका के रूप से जो पुस्तक
लिखी हो, उसी सें किसी ने भरूसिका लगा दी छहो। देखने से
जान पड़ता है कि वह दो भागों में विभक्त है । एक भाग में
लो धर्म, ज्ञान और पूजा-पाठ आदि के प्रकरण हैं और, दूसरे से
त्तोलिक कार्यों के सम्बन्ध के अकरण हैं। दोनों में ही बहुत से
छोटे छोटे प्रकरण हैं| पअस्येक वस्तु का थोंडा थोडा वर्णन है,
परन्तु छससे है सभी कुछ । दूसरे भारा सें नीलि और ग्रह-प्रबन्ध
>०
हि
सें नीचे रहे ?
घार्सिकता और उसके आचरण के सम्बन्ध के नियस और
बन्धन आदि कुछ अजबसरों पर इन्हें तंग भी करते थे। पक
वार वादशाह अजसेर से पंजाब जा रहे थे । खब लोग यात्रा
की गड़वड़ी में तो रहते ही थे। एक दिन क़ूच की घबराहट
सें इनके ठाकछुरों का आसन ( म्लोला ? ) कहीं रह गया। या
सम्भव हैँ कि किसी ने साम्राज्य के मन्त्री का श्रेला सम कर
चुरा लिया होगा । राजा साहब का यह नियम था कि जब तक
पूजा-पाठ नहीं कर लेते थे, तब तक कोई काम नहों करते थे ।
यहाँ तक कि भोजन आदि भी नहीं करते थे । कई समय का
उपबास हो गया। अकबरी लश्कर के छेरे में यह चर्चा
फेल गई कि राजा साहव के ठाकुर चोरी हो गए । वहाँ बीरबल
सरीखे वड़े-बड़े विद्धान् दिल्लगीवाज ओर पंडित शोहूदे उप-
स्थित थे | इंश्वर जाने उन लोगों ने क्या क्या दिल्लगियाँ
जड़ाई होंगी !
वादशाह ने बुलाकर कहा कि तुम्हारे ठाकुर ही चोरी गए
हैं न, तुम्हारा अन्नदाता जों इंश्वर है, बह तो चोरी नहीं गया
न ? स्नान करके उसी को स्मरण करों और तब भोजन करो |
आत्महत्या किसी घर्म के असुसार पुण्य का काम नहीं हे।
राजा साहब ने सी: अपना वह विचार छोड़ दिया । अब कहने-
वाले चाहे कुछ ही कहें, परन्तु मैं तो उनकी दृढता पर हजारों
ग्रशंसाओं के फूल चढ़ाऊँगा । उन्होंने बीरबल की भांति दरबार
के वात्तावरण में आकर अपना घर्म नहीं गैँवाया-। अलबत्ता दीन
[ कड७ |
इलाही अाकवर शाही के खलीफा नहीं हुए । खैर वह खिलाफतत
उन्हींको सुवारक हो ।
शेख अच्चुलफजल ने इनके स्वभाव तथा व्यवहार आदि के
सन््बन्ध सें जो थोड़ी सी वातें लिखी हैं, उनके सम्बन्ध सें सुम्फे
भी छुछ लिखना जआ्यावश्यक जान पड़ता है। वह लिखते हैं. कि
इनमें कट्टरपन के श्रति अजुराग, अलुकरण के अति प्रेस और
छेप साव स होता और ओे अपनी वात पर अहँमन्यता-पूर्वेक न
अडतले तो इनकी गणना पूज्य महाच्माओं सें होती ।
साधारण लोंग यह अवश्य कहेंगे कि शेख घम्म-अष्ट आदमी
थ्रे। वे किस व्यक्ति को घर्स-निष्ठ और अपने पूर्वजों की लक्कीर पर
चलता छुआ देखते थे, उसी की धूल उड़ाते थे | मैं कहता हूँ कि
चह् सत्र ठीक हैं । लेकिन अव्युलफजल भी आखिर एक आदसी
थे। ड्छहोंने इसी जगह नहीं और भी कई जगह राजा साहब के
सम्बन्ध में इसी अकार की बातें कही हैं । राजा साहव के इन
मभागड़ों के कारण अवश्य ही लोगों को कुछ न कुछ हानियाँ पहुँची
होंगी । जब राजा साहव वँगाल पर विजय आप्त करके लौटे,
तब उन्होंने ५४ हाथी और बहुत से उत्तमोचम बहुसूल्य पदा्थे
बादशाह को सेंट किए थे । वहाँ सी अव्बुलफजल लिखते हैं कि
बादशाह ने इनकी बुद्धिमत्ता देखकर देश के अवन्ध और माल
विसाग के सब कास इन्हें सपुद करके समस्त भारतवर्ष का
दीवान बना दिया । वे सत्य सागे पर चलनेबाले, निर्लोस और
अच्छे सलेबक थे । सब कास बिना किसी श्रकार के लोभ ने करते
थे । क्या अच्छा होंता कि ये हृदय में छेष ल रखते और लोगों
से बदला चुकाने के भाव से रहित होते तो इनकी तबीयत के.
[ १७६ ॥ै॥
खेत सें जरा सुलायमत फूट निकलती । खैर; यह् भी सही ।. शेण्ल
लिखते हैं कि यदि घार्मिक पत्तपात और कट्टरपन इनके चेहरे
पर रंग न फेरता तो ये इतने निन्दनीय न होते । यह सब ऋुछ
ठीक है, परन्तु उस समय जिस अकार के बहुत से लोग उपस्थित
ओे, उन्हें देखते हुए कहना चाहिए कि ये सन्तुष्ट-हदय ओर
निर्लोस थे, सब कास बड़े परिश्रस से करते थे और काम करने-
चालों का अच्छा आदर करते थे । उनके जोड़ के बहुत कम
लोग मिलते हैं; बढिक यों कहना चाहिएण कि इन सब बातों में
वे निरुपम थे | देखिए शेख साहब ने क्या प्रसाणपत्र दिया है ।
आज पाठक इनके पॉच बजाक्यों की यहद्द लिखावट फिर से पढ़ें
ओर ध्यानपू्क देखें ।
इनमें का पहला और दूसरा वाक्य राजा साहब की जाति
के लिये ऐसा सर्टिफिकेट है जिस पर वह अमिसान कर सकती
छहै। तीसरे वाक्य पर भी कुछ नहीं होना चाहिए; क्योंकि वह
भी आखिर सलुष्य ढी थे; और ऐसे उच्च पद पर अतिश्ित थे
कि हजारों लाखों आदसियों के सासले उनसे टक्कर. श्वाते थे और
चार-बार टक्कर खाते थे । एक बार कोई ले निकलता होगा, तो
दूसरे अवसर पर ये भी कसर निकाल लेते होंगे । इसके
अतिरिष्त ये नियमों का कठोरतापूर्वक पालन करते थे और हर
क्रास में बादशाह की किफायद करना चाहते थे; इसलिये बादशाह
के दरबार में भी इन्हीं की बात ऊँची रहती होगी । मेरे मित्रो,
यह डुनियाँ बहुत डी नाजुक जगह है । यदि राजा साहब अपने
शज्षुओं से अपना जचाव न करते तो जीवित कैसे रहते और
छलका निर्वाह कैसे होता ? चौथे वाक्य पर भी न चिढ़ना चाहिए,
[ कडछझ न]
क्योंकि
न वे दीवान थे । बड़े बड़े असीरों से लेकर दरिद्र सिपा-
हियों तक आर, चड़े-चड़े देशों केअधिकारियों से लेकर छोटे-छोटे
साफीदारों तक्त सभी का हिसाव-किताव उन्हें रखना पड़ता था |
बह् उचित वात में किसी के साथ रिआयत्त करनेवाले नहीं थे ।
|
५
तस्तमें आन्तर न पड़्े45। (३) उनकी सस्सति से सन ९८२ हि०
2 सरूस्त अदेश्श वारह सूबचों सें विभक्त हुए ओर दसख-साला या
ः;
हे
भ्न| शवापिक चवन्छोवस्त हुआ । छुछ याँतबों का परगना, कुछ परगनों
की सरकार ओर कुछ सरकारों का एक सवा निश्चित छुआ ।
पे४ ) रुपए के ४० द्वास उन्हींने निश्चित किए + । परगणने की
शरद दास के अनुसार दफ्तर सें लिखी जाने लगी ! (७ ) एक
करोड़ दास की आय की भूमि पर एक प्रधान कमेचारी नियुक्त
किया जिसका सास करोड़ी रखा । ( ६ ) अमीरों के अधीन जो
सौकर होते थे, उनके घोड़ों के दाग के लिये नियम निधोरित
किए । प्रायः लोग एक जगह का घोड़ा दो दो तीन तीन जगह
दिखला देते थे। जब आवश्यकता होती थी, तब घोड़ों की
कमी के कारण चहुत हज होता था | इससें कसी तो सवारों की
चोखेबाजी होती थी और कभी स्वयं अमीर लोग भी घोखेवाजी
करते थे । जब हाजिरी का समय आता था, तब तुरन्त नौकर
रख लेते थे और लिफाफा चढ़ाकर हाजिरी दिलवा देते थे ।
हे आयाताथया
[| क हे
आसमान दोनों तेदूर की तरह धधक रहे थे । सिर में भेजे पानी
हो गए थे । ञ्ञात:काल से दो-पहर तक लोग लड़ते रहे । पॉँच
सौ आदसी खेत रहे जिनमें से १०० सुसलसान आर बाकी
'हिन्दू थे । घायल गाजियों की संख्या तीन सौ से अधिक थी ।
लोंग यह ससमते थे कि राणा सागनेवाला नहीं है । यहीं किसी
पहाड़ी के पीछे छिप रहा है । वह फिर लौटकर आवेगा । इसलिये
किसी ने उसका पीछा नहीं किया । सब लोग अपने ख्रेसों में लौट
आए ओर घायलों की सरहम-पट्टी सें-लग गए ।
दूसरे दिल बहाँ से कूच किया । मैदान सें होते हुए और
अस्येंक व्यक्ति की कारशुजारी देखते हुए घाटी से निकल कर
कोकंडे सें आए । राणा ने कुछ विश्वसनीय और निष्ठ व्यक्त्तियों
को महलों पर नियुक्त किया । छुछ तो वे लोग और, कुछ सन्दिरों
सें सेनिकल आए | कुल वीस आदमी होंगे। बे अपने प्राण
देकर कीत्तिशाली दो गए । हिन्दुओं में यह प्राचीन अथा थी कि
'जब लगर खाली करते थे, तव अपनी अतिष्ठा और कीर्ति की
'रक्षा के लिये अवश्य आण दे देते थे | पता लगा कि राणा रात के
'ससय छापा सारने का भी विचार कर रहा है; क्योंकि सगर के
चारों ओर पत्थर च्ुन-चुन कर हाथों-हाथ ऐसी दीवार और खाई
'बना ली थी कि जिस परसे सवार घोड़ा न उड़ा सकें । मानसिंह
'ले सरदारों को एकत्र करके उन लोगों की सूचियाँ बनाई जो
आुदू में निहत हुए थे; और जिनके घोड़े सारे गए थे, उनके
भी नास सौंगे गए । सैयद सहसूदखाँ बारहा ने कहा कि हसारा
न तो कोई आदमी सरा और न घोड़ा सरा । केवल नाम लिखने-
/लिंखाने से क्या लाभ । हॉ. :४.सलाज की चिन्ता करो ।
है.
तल
[ १७० ]
इस पहाड़ी प्रान्त में खेती चहुव कस होती है । अनाज घट
गया था और रसद नहीं पहुँचती थी । फिर कमेटी हुईं । ऐसे
अवसरों पर आय: ऐसा ही छुआ करता है । एक-एक असीर
को एक-एक खरदार बनाकर यह निश्चित किया गया कि प्रस्येक
सरदार बारी-वबारी से अनाज की तलाश में निकला करे | थे लोग
पहाड़ा पर चढ़ जाते थे । जहाँ कहाँ अ्यनाज के खन््त या बस्ता का
खबर पणाते थे, वहाँ पहुँच जाते थे । अनाज समेटते थे आऔर
आदमियों को बॉध लाते थे । पशुओं के मांस पर नियाह करते
थे । आम वहाँ इतनी अधिकता से होते थे कि जिसका वर्णन
नहीं हो सकता । लश्कर के कंगलों ने भोजन के स्थान पर भी
वही आम खाए ओऔर बीमार होकर सारे लश्कर में गन्दगी फेला
दी । वहाँ का एक-एक आम भी सवा-सवा खेर का होता था,,
जिससे छोटी सी शुठली होती थी । परन्तु स्वाद चाही तो खटास;
मिठास छुछ भी नहीं ।
. बादशाह को भी इस युद्ध का बहुत अधिक ध्यान था । उसनेः
डाक बैठाकर एक सरदार को भेजा कि जाकर युद्ध का समाचार
ले आओ । यहाँ बिजय हो चुकी थी । चह सरदार आया ओऔर
यहाँ का समाचार जानकर दुखरे ही दिन विदा ही गया । सब की
सेवाएँ स्वीकृत हुईं । इतना होने पर भी कुछ चुगली खानेवालों ने”
कह दिया कि युद्ध में विजय ग्राप्त कर छेने के उपरान्त भी छुछ
ज्ुठटि की गई । नहीं तो राणा जीदित पकड़ लिया जाता । बादशाह
को भी यह बात कुछ ठीक जान पड़ी, परन्तु जाँच करने पर पता
चला कि शैतानों ने व्यर्थ ही यह बात जड़ा दी थी ।
सन् ९८५९ हि० में सानसिंह” से वह जबीरता दिखलाई कि
[ १७१ |]
भारतीय लोहे ने विलायती लोहे के जोहर मिटा दिए । बंगाल
प्रदेश में अकवर के अमीरों ने विद्रोह किया । ये सब नमकहराम
नए पुराने छुके और काडुली अफगान थे । उन्होंने सोचा कि
बादशाह का विरोध करने के लिये जब तक हसारे पास कोई
चादशाही हड्डी न होगी, तव तक हम विद्रोंढी कहलावेंगे । इसलिये
उस लोगों ने मिरजा हकीस के पास निर्वेदलपत्र लिख कर सेजे ।
साथ ही उसके असीरों के सास भी पत्र और जवानी सेंदेखेः
भेजे । उन सबका सारांश यह था कि आप हुसायूँ बादशाह की
सन्तान हैं और ससानता का अधिकार रखते हैं । यदि आप
राजोचित साहस करके उघर से आयें तों आपके ये पुराने सेवक
इथर से ग्रांण निछाचर करने के लिये अस्तुत हैं । उसके पास भी
छुसायूँ के समर्थ के सेवक वल्कि वावर के शासन-काल की खुरचन
चाकी थी | सबसे पहले उसका शछझुभचिन्तक शादसान कोका था;
जिसका पिता सुलेसान बेग अन्दजानी और दादा छुकमान बेग.
था, जो किसी समय बावर बादशाह का बहुत वड़ा प्रेसपात्र था ।
इन लोमियों ने उक्त विचार को और भी चमका कर नवयुवक्त
शाहजादे के सासने उपस्थित किया । उसने यह अवसर बहुत ही
उपयुक्त समझा और पंजाब की ओर अस्थान किया | एक
सरदार को कुछ सेना देकर आगे मेज दिया। वह पेशावर से
बढ़कर अठक नदी के इस पार उतर आया | यूसुफखों ( मिरजा
अजीज का वड़ा साई ) वहाँ का जागीरदार था। उस दरिद्र ने
चहुत ला-परवाह्यी केसाथ एक सरदार को भेज दिया |! वह इस
सरकार आया कि सेना भी अपने साथ नहीं लाया । भला ऐसी
दशा में बह शज्षु को कया रोंक सकता था ! जरा अकबर के:
[| उऊझच ]
अचाप की करासात देखिए कि वह एक दिन उधर से शिकार
करने के लिये निकला | शकह्तकु उघर के जंगल और मैदान देख
रहा था। सार्ग से दोनों सिल गए और वलवार चल गई । शज्तु
चायल हो कर भाग निकला और पेशावर पहुँच कर सर गया।
अकवर ने यूसुफलॉँ को घुला लिया और सानसखिंह को सेनापति
पनियुक्त करके सेज दिया ।
अब देख्विए, यदि वंश के पुराने-पुराने सेवकों से चित्त डुःखी
न हो तो ओर क्या हो; ओर परायें आदमियों से कोई काम नल
ले, तो क्या करें ?जिस ससय वादशाह के भाई-बन्दों सें से
कोई विद्रोह करता था, उस समय अमीर लोग दोनों ओर देखते
रहते थे । एक घर के कुछ आदसी इधर हो जाते थे और कुछ
उधर ही जाते थे। दोनों ओर वात-चीत चलाए चलते थे ।
जवब किसी एक पक्ष की जीत होती थी, तब दूसरे पक्तवाले सी
उसी ओर जा सिलते थे । कुछ लज्जित सा रूप बनाकर सामने
जाकर सलाम करते थे और कहते थे कि हजूर, हस लोग तो
इसी वंश सें पले हुए हैं । हुमायूँ छौर बाबर वल्कि लैसूर के
ससरत वंश में जो घर विगड़ा, वह इसी मकार विगड़ा । अकवर
को शाह वहमास्प का उपदेश स्घरण था। जब उसने साम्राज्य
संभाला, तव राजपूतों को जोर दिया। वह विश्ेेषत: ऐसे ही
आवसरों पर उनसे तथा इरानियों और वारदा के सैयदों से
कास लेता था; क्योंकि थे भी बुखारावालों या अफगानों से मेल
ब्वानेवाले नहीं थे। ईरानी लोग वहुत स्वामिनिष्ठ और आण
'निछावर करनेवाले थे और साथ ही योग्यता के भी पुतले थे ।
आर सैयदों की तो जाति ही तलवार की सालिक है । मसानसिंह
[ १७३ ]
ने अपनी जागीर स्यालकोट सें आकर डेरा डाला । वहीं से वह
सेना की व्यवस्था करने लगा । एक फुरतीले सरदार को सेना
देकर आगे भेजा और कहा कि जाकर अटक के किले की
व्यवस्था करो । राजा भ्रगवानदास ने किले को दृढ़ किया । उधर
जब सिरजा हकीस ने झुना कि मेरा भेजा छुआ सरदार सारा
गया, तब उसने अपने कोंक्रा शादमान को अच्छी सेना के साथ
सेजा। उसकी माँ ने मिरजा को मूला छिला-छिला कर पाला
था | वह मिरजा के साथ खेल कर वड़ा हुआ था ओऔर वास्तव
में बहुत साहसी युवक था । अफगानिस्तान में उसकी तलवार
ने अच्छे जीहर दिखलाए थे और सरदारी का नाम उज्वल किया
था। उसने आते ही मट किले को घेर लिया। सानसिंह भी
रावलपिंडी तक पहुँच चुके थे।जब यह ससाचार मिला, तब
उसके हृदय में राजपूती रक्त उबल पड़ा । जब तक अटक उसकी
हृष्टि के सासने नहीं आया, तव तक वह कहीं न अटका | शादु--
सान निःश्चिन्तता की नींद सें पड़ा हुआ था | नगाड़े का शब्द
खुन कर जागा। वह अपने छेरे से उठ कर बहुत साहसपूर्विक्त
आकर सासने छुआ । छुँवर सानसिंह ओर शादसान दोनों ने
साहस और सरदारी के अरमसान निकाल दिए। मसानसिंह के
भाई सूरजसिंह ने ऐसे बीरतापूर्ण आक्रमण किए कि उसी के
हाथ से शादमानखोँ घायल होकर प्रथ्वी पर गिर पड़ा और
सर गया ।
जब सिरजा ने सुना कि शाद्सान इस संसार से उठ गया,._
त्व उसे बहुत अधिक दुःख छुआ ओर वह लश्कर लेकर चला:
गया । पर अकबर की आज्ञा बराबर पहुँच रही थी कि घबरानाः
[ छ४ न]
नहीं और मिरजा को सत रोकना । उसे ब्याने देना |और जब
तक हम न आये, तव तक्त उस पर आक्रमण न कर बैठना ।
इसमें चुद्धसित्ता की चात यह थी कि अकबर जानता था
कि यह अदूरदर्शी लड़का इन बवीरों के सासने न ठहर सकेगा,
अवश्य हार जायगा । और यदि यह भागा तो कहीं ऐसा न
हो कि उसका जी छोटा हो जाय और वह सीघा तुर्किस्तान चला
जाय । अच्दुल्लाखों इस अवसर को अपने लिये बहुत अच्छा
सममेगा । यदि बह उधर से सेना लेकर आया, तो -वात छुछ
ओर ही हो जायगी। बस ये लोग पीछे हटते गए आओऔर वह
बढ़ता-बढ़ता लाहौर तक चला आया । राबवी के किनारे सहदी
कासिम खॉँ के बाग सें आ उतरा । राजा भ्रगवानदास, छुँवर
सानसिंह, सैयद हामसिद बारहा और दरवार के कुछ दूसरे अमीर
दरवाजे बन्द करके चैठ गए । अकबर, के संदेसे पहुँच रहे थे कि
देखो, कहीं उस पर आक्रमण न कर बैठना | अभिपश्राय यह
था कि में भी लश्कर छेकर आ पहुँचूँ; वब अमीर लोग चारों
आर फैल जायें और उसे घेर कर पकड़ के, जिससे सदा के
लिये यह भूगड़ा ही सिट जाय। शोर नशर में बन्द पड़े छुए
तड़पते थे और रह-रह जाते थे, क्योंकि वे आज्ञा की अंखलाओं
से जकड़े हुए थे। फिर भी उन लोगों ने नगर और उसके
आख-पास के सब स्थानों का ऋहुत ही अच्छा और दृढ़ झबन्ध
कर लिया था। वे अपने-अपने मोरचों को सँमाले हुए बैठे थे;
ओर सिरजा के आक्रसणों का दाँत शखट्ट करनेवाला जबाब देते
थे । समाचार सिला कि लाहौर के झुछा लोग उसे बुलाना चाहते
हैं और फाजी तथा सुफ्ती कागज के चूहे दौड़ा रहे हैं । इस
[ १७७ न]
लिये वड़ी रोक-थास से उनका अबन्घ किया । अकवर ने दिल्ली
में यह समाचार खुना । वह साहस के घोड़े पर सवार हुआ
आर वाग उठाई ।
मिरजा हकीस समझता था कि बादशाह उधर बँगाल के
युद्ध में लगा हुआ है । देश खाली पड़ा है । उसने उक्त बाग में
खीस दिन तक खूब आनन्द-मंगल किया । पर जब उसने झखुना
कि उघर नमकहरासों के कास विशड्धते चले जाते हैं और अकचर
सरहिन्द तक आ पहुँचा है, तव उसने नगर पर से घेरा उठा
लिया । वह महदी कासिस खाँ के बाग से एक कोस ओर ऊपर
चढ़ कर नदी के पार छुआ ओर शुजरात के इलाके में जलाल-
पुर सासक स्थान में उसले चनाव नदी पार की । सेरे के पास
'ऑेलम उतरा और मेरे की ओर लौटा । फिर वहाँ से भी भागा
आर घेपष नासक स्थान सें सिन्ध नदी पार करके काबुल की
आर भागा । घादियों पर घवराहट में उसके वहुत से आदमी
चह गए । साथ ही सरहिन्द से अकवरी आज्ञा पहुँची कि उसका
पीछा सत करना । वह अपने दरबार में सुसाहयों से बार-बार
कहता था कि साई कहाँ पैदा छोता है! घबराकर भागा है |
साय सें उसे अटक पार करना है । ऐसा न हो कि कोई दुर्घटना
ही जाय । >
अकवर की आज्ञा से कुंवर मानसिंह साधारण सारे से
-चल कर पेशावर पहुँचा । अकचर ने वादशाही लश्कर की व्यवस्था
करके शाहजादा. मुराद को काबुल की ओर भेजा, जिसमें वह
चहाँ पहुँच कर काइुल की ठीक-ठीक व्यवस्था करे। चादशाही
अमीर ओर पुराने अनुभवी सेनापति उसके साथ रण । पर उनमें
[ 4७६
वही चलती तलचबार सेना के हरावल का अधघान बनाया गया
यह लश्कर आगे चला और स्वय॑ बादशाह अपने प्रताप का
लश्कर लेकर उनके पीछे-पीछे उनकी रक््ता करता छुआ चला ।
भारतव्षे आजाद की साठ-भूमि है । पर वह सत्य कहने से
कभी न चूकेगा । भारत की मिट्टी सें सन्लष्य को साहइसन-हीन;,.
कास-चोर, सुफ्तलोर और आरास-तलब जलाने में रामबाण का
सा शुण है। यद्यपि दरवार के प्रायः अमीर इरानी, तूरानी और
अफगानों की हड्डी के थे, पर जब अकबर अटक के पास पहुँचा,
तब उन असीरों को बहुच दिनों तक भारत सें रहने के कारण उस
देश में एक बिलकुल ही नया संसार दिख्वाई देने लगा । बहा की
भूमि की बिलकुल नह ही दशा थी। चारों ओर पहाड़, हुए कदम
पर जान जाने का डर, आदसी नए, जंगल के जानवर नए,
पहनावे लए, बात नई, आवाज नहें। आगे एक पड़ाव से दूसरा
पड़ाव कठिन । उन्होंने यह भी सुन रखा था कि वहाँ खूनी बरफ-
पड़ती है. जिससे जेंगलियाँ बल्कि द्ाथ-पेर तक कड़ जाते हैं ।
लश्कर के लोग आय: भारतीय बल्कि हिन्दू थे, जिनके लिये
अठटक पार करना भी ठीक नहीं था । इसके सिवा चाहे बिलायती
हों और चाहे भारतीय, अब तो सबके घर यहीं थे । छुछ तो
भारत के सुख और आनन्द याद आए ओर कुछ बाल-बच्चों का
ध्यान आया । सभी यह चाहते थे कि इस विषय.को जबानी
बातों में लपेट कर सन्धि कर ली जाय और हम लोग लौट चलें ।
उन्होंने आ्राथनाएँ और निवेदल करके अकबर, को रास्ते पर लाना
चाहा । पर उसकी यह सम्समति थी क्लि मिरजा हक्कीस ने हमें कई
बार तंग किया है । यदि इस बार भी. हम .लोग इसी तरह लौट
[ १७७ ]
जादँगे, तों कल फिर यही कगड़ा उठ खड़ा होंगा । उसने
यह भी सोचा होंगा कि सेना के छृदय सें इस अकार का
भसय चैठना ठीक . नहीं है। वह इस जात का भी पता अवश्य
लगाता होगा कि ये लोग इस देश की कठिनाइयों से घवराकर
इस लड़ाई से बचना चाहते है या इनके हादय में मिरजा
दृकीस , के श्रेस से घर किया है। शेख अव्घुलफजल को
आज्ञा दी कि परासश के लिये सभा करों | छससें हर एक
आदसी जो छुछ कहे, चह लिखकर सेरे सासने उपस्थित
करो । शेख नें हर एक का कथन ओर, तकी संक्षेप सें लिखकर
सेचा सें उपस्थित किया । पर वादशाह के विचार पर उन सब बातों
का छुछ भी प्रभाव न पड़ा । सानसखिंह शाहजादे को लिए हुए
आगे बडा था । उसे बादशाह ने और आगे वढ़ा दिया; ओर
आप लबख्कर लेकर चल पड़ा | वरखात ने आअटक का पुल न बॉबने
दिया । स्वयं बादशाह ओऔर लश्कर के सब लोग नाचों पर चढ़कर
नदी के पार हो गए । भारी सामान अटक के किनारे छोड़ दिए
आर, यों ही सेना लेकर आगे चल पड़े । साथ ही भाई के पास
ऐसे संदेसे भी भेजे जातें थेजिनसे उसका चित्त भी कुछ शान्त
'हो और वह छुछ डरे भी । वल्कि कुछ देर भी यही सममम कर की
जा रही थी कि कहीं बादशाही लश्कर के दौड़ा-दौड़ पहुँचने से
सन्धि और मेल का अवसर हाथ से न निकल जाय ओऔर
लचयुवक भाई के आण व्यर्थ न जायें । इसलिये आअटक नदी पार
करके सिरजा हक्कीस के नास एक आज्ञापन्र भेजा । उसका
सारांश यह था कि भारतबणषे के विस्ट्व देश में राजसुकुट घारश
करनेवाले बहुत से राजा-महाराज थे । पर अब वह सारा देश
चर
[ १७८ |
हमारे अधिकार में आ-गया । बड़े-बड़े संरेंदारों ले खिर कऋुका
दिए । तुम्हारे बंश,के अमीर उन राजाओं और बादशाहों के
स्थान पर बैठे हुए शासन कर रहे हैं । जब यहाँकी यह अवस्था
छै, तब इस सुख्य से साई ही क्यों वंखित रहे ? पुराने ससय के
बड़े लोगों ने छोटे भाई को लड़के के स्थान पर बतलाया है, पंर
वास्तव सें बात यह है कि लड़का तों और भी हो सकता है; पर
भाई और नहीं हो सकता ।)अब तुम्हारी बुद्धि और ससमक के
लिये यह्दी उपयुक्त है कि तुस इस आअज्ञान की निद्रा छोड़कर जागो
आर हमें मिल कर प्रसन्ष करो । अब इससे अधिक हमें अपने
' - दर्शनों से चंचित न रखो ।
मिरजा के यहाँ से कुछ लो जवानी सॉदेसा आया ओर साथ
सें एक पत्र भी आया जिसमें अपने किए पर पशग्चात्ाप अकट
किया गया था और क्षमा साँगी गई थी। पर वह पत्र निराधार
आर नियस-विरुछ था! वहाँ से जो आदसी आया था, उसके
- साथ अकबर ने एक अमीर यहाँ से झेजा और कहलाया कि
लुम्दारे अपराध की क्षमा तो इसी बात पर निर्भर है कि जो छुछ
छुआ, उसके लिये पद्याताप करो और लज्जित हो । भविष्य के
लिये तुम जो छुछ भ्रण- करो, उसे शपथ की #ईंखलाओं से चढ़
करो; और जिस बहन का विवाह खझ्वाजा हसन .से करना ठीक
किया है, उसे इघर भेज दो । सिरजा ने कहा कि मुझे सौर सब
चातें तो सच्चे हृदय से स्वीकृत हैं, पर बहन को भेजने के लिये
ख्याजा हसन तैयार नहीं होता । वह उसे बदख्शोँ ले गया. हे ।
हॉ मैंने जो कुछ किया है, उसके लिये झ्ुके बहुत पश्चाचाप है ।
सिरजा के इस अकार निवेदन करने ओर. खेँदेसे भेजने से
[ १७९ |
असीरों को उसका अपराध क्षमा करने की चच्च्च चलाने का और
सी अधिक अवसर सिला । यह भी पता चला कि कलीचणस्लों और
यसुफलों कोका आदि वड़े-चड़े ऋअमीरों के पास उन्हें अपनी ओर
मिलाने के लिये सिरजा ने पत्र भेजे हैं । यत्यप्ति उन लोगों ने पत्र
लानेवालों को चध तक का दंड दिया, पर फिर भी अकबर ने
सन्त्रणा के लिये समा की ओर अव्बुलफजल मनन््त्री हुए । उस
खा के वीस सदस्य थे । सब की सम्सति का सारांश यही था
कि सिरजा अपने किए पर पश्चात्ताप अकट करता है; और अपराध
कुल करना बादशाह के अनुञअह का नियम है, इसलिये उसका
अपराध क्षमा किया जाय और देश भी उसी के पास छोड़ दिया
जाय । सच लोग यहाँ से लौट चलें । शेख यद्यपि नए आए थे
आर अमी नौ दस वरस के ही नौकर थे, ल तो उसर ने उनकी
दाढी ही बढ़ाई थी और न उसे सफेद छी किया था, न वें कई
पीढ़ियों के सेबक दी थे, पर फिर भी ससय देख कर उसी के
अनुसार बातें करना उनका सिद्धान्त था | इसलिये उन्होंने खूब
जी खोल कर भाषण किया । उन्होंने कहा कि वादशाही लश्कर
इतना सासान लेकर इतनी दूर तक आ पहुँचा है । स्वर्य बादशाह
उसके सिर पर उपस्थित हैं । कुछ ही पड़ाव आगे अमीएष्ट स्थान
है | खाली बात्तों पर, निराधार लेख पर, अज्ञात और अग्रसिद्ध
आदसी के वकालत करने पर लौट चलना कहो की समम्दारी
है! और जरा पीछे घूसकर तो देखो। पंजाब का देश है।
वरसाव सिर पर है-। नदियों चढ़ गई हैं । इस दशा में यह
छुनियाँ सर का सामान साथ है। सैनिक सासत्री भी कस नहीं
है। यहाँ से पीछे लौटठना तो आगे बढ़ने से,भी अधिक कठिन
[ १८० ]
है । हानि उठा कर लौटना और लाभ को छोड़ देना किसी प्रकार
उचित नहीं है । फल पास आआ गया है । उसे पम्ाप्त कर लो ।
अच्छी तरह दंड या शिक्षा देने के बाद क्षमा अ्रकट करने में भी
कोई हानि नहीं है । दरबार के असीर इस लच्छेदार भाषण से
अप्रसनल हो गए । बहुत स्री बातें हु । अन्त सें शेख ने कहद्दा कि
अच्छी वात है । हर आदसी अपनी-अपनी सम्सति बादशाह की
' सेया में निवेदन कर दे | इस सेवक से जब तक वे कुछ न पूछेंगे,
तब तक यह छुछ न वोलेगा । इस पर सब लोग उठ खड़े हुए ।
इस सभा का कार्ये-विवरण लिण्यला गया | दूसरे दिल शेख
को ज्वर चढ़ आया । कार्य-विवरण बादशाह की सेंजा में उप-
स्थित किया गया । बादशाह ने पूछा कि शेख कहाँ है और उसकी
क्या सम्मति है ९ एक आदसी ने घ्रष्टता करके कहा कि वह
बीमार है; पर उसकी सम्सति भी यही है । बादशाह बहुत दुःखी
हुए । बोले कि हमारे सासने तो उसकी ऐसी सम्मति थी । वहाँ
* खासा सें जाकर वह इन लोगों के साथ हो गया । शेख जब
दूसरे दिन सेवा सें गए तो देखते हैं कि बादशाह के तेवर बिगड़े
हुए हैं । वह लिखते हैं कि मैं समम्क गया कि दगाबाजों ने कोई
पेच सारा । मैं अपने जीवन से ढुःखी हो गया । अन्त सें थ्राषण
को मेरणा हुई और यबात की जाँच छुईं । तब कहीं चित्त शान्त
छुआ । बादशाह ने बिगड़ कर कहा कि काबुल की सरदी और
'यात्रा: की कठिनाइयॉँ लोगों को डराती हैं । ये लोग आरास को
देखते हैं.॥ यह नहीं देखते कि इस समय क्या करना उचित
है । ज्यच्छा अमीर लोग यहीं रहें । हम यों दी अपने सेवकों
' को साथ लेकंर चढ़ाई -पर जायेंगे ।भला यह किस की मजाल
[ १४०८१ |
थीं कि अकबर बादशाह तो आरे जाय और लोग वहीं रह जायें
कूच पर कूच चलना आरम्भ किया । अब तक जो धीरे-धीरे
आगे बढ़ते थे, उसका कारण यही था कि सेंदेसे आदि सेजने
से ही मिरजा ठीक सागे पर आ जाय । ऐसा न हो कि निराश
होकर घवरा जाय और अचानक तुर्किस्तान को निकल जाय ।
लिजासमउद्दीन वख्शी से कहा कि छुस वहुत जल्दी जलालावाद॑
जाओ ओर शाहजादे के लश्कर सें बैठ कर वहाँ के अमीरों से
परासश्श करके सारा हाल लिखो । बह गए आर बहुत जल्दी
लौंट आए | यह ससाचार लाए कि यद्यपि मसिरजा जवान से
कहते हैं कि हस वहुत हैं, बहुत हैं, पर उनकी दशा यही कहती है.
कि विजय श्रीमान के ही चरण्णों सें है ।
जो जो भारी चीज़ें थीं, वह सब पेशावर में छोड़ दी गई ।
सलीस को राजा स्रगवानदास की रघ््ता सें लश्कर के साथ छोड़ा ।
चादशाही ठाठ-बाट भी छोड़ दिया और हलके होकर जलल््दी-
जल्दी आगे बढ़ने के लिये घोड़ों की वागें लीं । कुछ साहसद्दीन
चबहीं रह गए और कुछ सागे सें से लौट गए ।
अच सिरजा हकीस की कहानी झुनों। छपद्रव करनेवाले
उससे यही कहते जाते थे कि अकबर इधर नहीं आवेगा । ओऔर
यदि आवेगा भी तो इतना पीछा नहीं करेगा । पर जब उसने
देखा कि अकबर और उसके सब साथी बिना पुल के ही अटक
से पार हुए और लश्कर रूपी नदी की लहरें बराबर आगे को
ही बढ़ती चली आती हैं, तव उसने नगर की ऊहुंजियाँ वहाँ के
चड़े-बूढ़ों को दे दीं और बाल-बच्चों कोबद्ख्शाँ-सेज दिया । घन-
सम्पत्ति केसन््दूक और आवश्यक सामझी लेकर आप बाहर
[ १<८९२ ]
व्छो सच्य-पानल चौपट कर रहा है | सन् ९९४ हि० सें इसी सद्य-पान
ने उसके आराण ही ले लिए । अकवर ने कुँचर सानसिंह को इसी लिये
पहले से वहाँ की दीवार के नीचे ही नियुक्त कर रखा था | आज्ञा
पहुँची कि ठुरनत सेना छेकर काछुल में जा बैठो । यह भी पता
चल शया था कि सिरजा हकीस के मासा फरीदूखोाँ और जो
दूसरे दरवारी तथा सेवक उसके पास्त रहते थे, बद्दी उसे अधिक
चहकाया करते थे । अब उनसे से छुछ लोगों को तो यह भय
हुआ कि ईश्वर जानें, अकवर के दरबार से हमारे साथ कैसा
व्यवहार हो; और ऋुछ लोगों में आपस सें ही लड़ाई-म्गड़े होने
लग गए थे । इसलिये वे लोग सिरजा के बच्चों को अपने साथ
लेकर, तुर्किप्तान में अबव्छुछाखों' उजबक के पास जाने को तैयार
हो गए । अकबर ले अपने दो पुराने और ऐसे सेवकों को भेजा
जो पीढ़ियों से इस वंश की सेवा कर रहे थे | आज्ञा-पत्र भेजकर
उस खब लोगों को दिलासे दिए और पीछे-पीछे आप भी पंजाब
की ओर आये बढ़ा । उधर सानखिंह के अटक पार होते ही
बदल के दल अफगान सलास करने के लिये उसकी सेवा में
छलपस्थित होने लगे । जसले कायुल पहुँच कर शासन ओर
व्यवस्था की बह योग्यता दिखलाई, जो उसे अपने पूर्वजों से
खकड़ों व के शासन से उत्तराधिकार में सिली थीं। उसके
मेल-सिलाप, अलुअह और खद्व्यबहार आदि ने काडुलवालों
के छहुदय को अपने हाथ में कर लिया | दो बरस पहले जो
सहाय थे, उन्होंने उसका ससर्थत्त किया। मिरजा ने सरने से
सहले अकचर के पास पक निवेदन-पत्र मेजा था, जिसमें अपने
किए हुए अपराधों के लिये क्षमा सॉँगी. थी । साथ ही अपने
[.. 35२० न
चानी पड़ती थी ।
इसी सन् सें अजमेर के इलाके में उपद्रव छुआ । अजमेर का
“सूचेदार रुस्तमस्थाँ सारा गया । उसमें कछवाहे राजाओं की
छउ्ंडता भी सम्मिलित थी। वे राजा लोग राजा सानसिंह के
भाई-चन्द थे । अकवर को हर एक वात के हर एक अंग का
ध्यान रहता था । इसलिये रणथस्भौर ख्वानखानाँ की जागीर में
ढेकर आज्ञा दी कि जहाँ जाकर उपद्रय शान्त करो आर उप-
छवियों को उपद्रय करने के लिये दंड दो |
सन् ९०० छि० सें जब शाहजादा सलीम अथोत्त जहॉगीर
की अवस्था वारह-तेरह वर्ष की हुई होगी और खानखानाँ अट्ठा-
इस बरस का रहा होगा, खानखानों को शाहजादे का शिक्षक
मियुक्त किया ।
मैं आय: रियासतों के सम्बन्ध सें खुना करता हूँ कि वहाँ
का राजा छोटी अवस्था का है। सरकार ने अम्मुक व्यक्ति को
उसका शिक्षक या ट्यूटर € प्र०८०० ) नियुक्त करके सेजा है ।
इस अवसर पर अवश्य कुछ मिनट ठहरना चाहिए आर उस
समय के शिक्षक की आज-कल के द्यूटर से तुलना करके देखलनी
चाहिए । यह देखना चाहिए कि आचीन काल में बादशाह लोग
[ रइंडध
किसी शिक्षक में क्या-क्या सुण देखते थे । आज-कल सरकार
जो बातें देखती है, वह तो सच लोग देख ही रहे हैं । पुराने समय"
के लोग सबसे पहले तो यह देखते थे कि शिक्षक स्वयं रहइस हो
आर उत्तम तथा रहइेस वंश का छो। रईस का शब्द ही आज
तक सब लोगों की जवान पर है । मगर सें देखता हूँ कि उस
समय के रईस का स्वरूप दिखलाने के लिये बहुत विस्तृत व्याख्या
करने की आवश्यकता है । हमारे समय के शासक लोग तो इससे:
इतना ही अभिम्राय रखते हें कि किसी व्यक्ति ने हव्श या काबुल:
की लड़ाई सें जाकर कभी किसी सड़क या इमारत का ठेका
लेकर या कभी नहर की नौकरी करके बहुत सा घन कमा लिया
है । बह अपने घर में बैठा हुआ है । बग्घी सें चढ़ कर हवा खाने
के लिये निकलता है | जब विलायत से थुबराज आते हैं या कोई
लाट साहय जाते हैं याकसिश्नर साहब एक गंज बनाते हैं, तो
उससे सबसे अधिक चन्दा देता है | यही सरकार में रईस माना
जाता है और इसे दरबार सें कुरसती सिलने की भी आज्ञा है।
डिप्टी कमिश्नर साहज ने एक ऐसी सोरी निकाली जिससे नगर
की सादी गन्दगी निकल जाय । इसने उसमें पहले से भी अधिक
चनदा दिया | इसलिये यद्द बहुत बड़ा और उदार रईस है । इसे:
खान बहादुर या राय बहादुर की उपाधि भी मिलनी चाहिए।
आर यह म्युनिसिपल मेम्बर सी हो, और आनरेरी सजिस्ट्रेट ,
भी हो । यदि तहसीलदार या सरिश्तेदार यह सूचित करता है.
कि हुजूर, इससे कुलीनों और वास्तविक रईसों के हृदय पर चोट:
पहुँचेगी, तो साहज लोग कहते हैँ कि वेल, यह हिम्सतवाला लोग:
है। यह रईस है । अगर वह लोग भी रहईंस छोना चाहते हैं, .
[ २३७ |
लो हिस्सत दिखलावें । हस इसको सितारे हिन्द वलनावेंगे | तब बह
देखेंगे ।नए रहेस की यह शान है कि जब घर से निकलते
चारों ओर देखते रहते हैंकि हमें कौन-कौन सतलास करता
है और सब लोग क्यों लहीं सलास करते | विशेषतः जिसे
ऋलीन देखते हैं, उसे और भी अधिक दवाते हैं और सममभते है
कि हसारी रहेसी तभी प्रसारितत होंगी, जब ये कुककर हसें सलास
करेंगे । आब नगर की सजिस्ट्रेटी उनके हाथ में है । सबको
ऋुकना ही पड़ता हैं । स कुक तो रहें कहोँ। पर उनके असमिमान
आर अआ्ञाडम्चर ओऔर वार-वार दिखाबव दिखाने से केवल छुलीन
लोग ही तंग नहों होते, वल्कि सहल्लेवाले भी तंग रहते हैं। जिन
लोगों के बास्तविक छुलीनों के पूर्वजों को देखा है, वे उन्हें स्मरण
करके सोते हैं । छऔर जो लोग उन्हें भूल गए थे, उनके हृदय में
प्रेम के सिटे छुए अक्षर फिर से स्पष्ट हो जाते हैं। पारखी लोगों
ले ऐसे रहसों का ऑगरेजी रहेस
ड्सआर आऑगरेजी शरीफ नाम रब्खोा है।
आज-कल कभी-कभी रईख शव्द समाज में हमारे कानों तक
पहुँचता है । यह वात भी खुनने के योग्य है। सान लीजिए कि
अच्छे कपड़े पहने हुए दो चद्ध सज्नन किसी ससाज या जलसे में
आए । एक समीर साहव हैं और दूसरे मिरजा साहव हैं । आइए,
तशरीफ रखिए ! सीर साहव वहाँ के उपस्थित लोगों से कहते हैँ
कि जनाव, आपने हसारे मसिरजा साहब से सुलाकात की ? जी नहीं;
सुझे तो मुलाकात का सौका नहीं सिला । जनाब, आप देहली के
रईस हैं । मिरजा साहब एक ओर देखकर कहते हें--जनाव,
हमारे समीर साहव से अब तक आपकी सुलाकात नहीं हुई ९ जी
नहीं, बन्दे को तो ऐसा सौका नहीं मिला । अजी आप लखनऊ के
[| रशुद |]
'रइेस हैं। अब लखनऊ सें जाकर पूछिए 'कि समीर साहब कहाँ
रहते हैं ? कुछ हो तो पता लगे। माँ टेनी, जाप कुरुँग । चच्चे
देखो रंग-बिरंग । लाहौल जिला कूवत इछा विछा ! सिरजा साहब
को देहली में दँढिण तो वाप बबनियाँ, माँ पदनियाँ, मिरजा
मसननियाँ । नई रोशनी, असलियत का यह अन्घेर ! जो चाहे,
चलो बन जाय ।
अज जरा यह भी सुन लो कि पुराने जसाने के चद्ध लोग
“किसको रईस कहते थे और पुराने ससय के बादशाह लोग रईसों
पर क्यों जान देते थे । ( १ ) मेरे मित्रो, तुम्हारे पूर्वज उसको
रईस कहते थे जिसका साठकुल और पिलछ्कुल दोनों ही अच्छे
आर उत्तम होते थे । उत्त पर यह कर्क न हो कि माँ दासी थी
या दादा ने घर में डोसनी रख ली थी। याद रखना कि चाहे
कोई कितना ही बड़ा धनवान ओर सम्पन्न क्यों न हो, पर दोगले
आदमी की लोगों की दृष्टि में श्रतिष्ठा नहीं डोती थी । जरा सी
जात देखते हैं तो साफ कह बैठते हैं कि सियाँ, कया है । आखिर
तो डोमनी-बच्चा है । एक कहता है कि सियाँ, नवाबजादा है तो
'क्या छुआ ! पर लौंडी की यही तो रग है । उसका अखर जरूर
ही आवेगा । बिना आए रह ही नहीं सकता ।
(२ ) रईस के लिये यह भी आवश्यक था कि वह भी और
उसके पूर्वज लोग भी घनवान् और सम्पन्न हों । वे दान देने में
“बहुत उदार हों और “लोगों का छाथ उनके दानशील हाथ के नीचे
रहा हो । यदि कोई दरिद्र कालड़का था ओऔर अब घनवान हो
गया तो कोई उसका आदर न करेगा । उसे छुछ भी न सममेगा !
चह यदि ज्याह-शादी के अवसर पर किसी को खिलाने-पिलाने के
[ ३७ ॥]
समय या लेने-देने
| | में वल्कि एक सकान जनाले में जान-बूक कर
सी अच्छे (2 हेतु से भी छुछ कस खन््र करेगा, तो कहनेवाले
अयचश्य कह दुँग कि साहन यह क्या जाने । की इसके याप--
दादा
णि ने किया होता तो यह भी जानता । कभी कुछ देखा होता
*40220
ता जानता ।
(३ ) उसके लिये यह भी आवश्यक होता था कि स्वयं
उदार हो, खाने-खिलानेवाला हो, दूसरों को लाभ पहुँचानेवाला
आर उनका उपकार करनेवाला हो । यदि बह कंजूस होगा और
अधिकार-सम्पन्न होने पर भी उसके छारा लोगों को कोई लाभ न
पहुँचेगा, तो कोई उसे छुछ भी न ससममेगा । सब लोग साफ कह
देंगे कि यदि उसके पास धन है तो अपने घर में लिए बैठा रहे ।
ह्न क्या हू
( ४७ ) उसके लिये यह सी आवश्यक था कि उसका आचरण
2
आर व्यवहार आदि चुत अच्छा हो | जिस आदमी का आचरण
अच्छा नहीं होता, वह चाहे लाख्य घनवान हो, पर लोगों की
तर
(| ष्टि से घृणित और तुच्छ ही होता है । उसका घन लोगों की-
ख्लों सें नहीं जचता । लोग उसपर भरोसा नहीं करते ।
अच्च्छा, इन वातों से अभिमप्नाय यही था कि आचीन काल के
बादशाह लोग किसी आदसी सें यही सब गुण छूँढते थे । वात
यह है कि जो व्यक्ति इन गुणों से युत्त होकर अमीर होगा,
उसके वाप-दादा भी अमीर होंगे। उसकी वातों ओर उसके
कासों का सब लोगों की दृष्टि सें ओर हदय सें भी वहच आदर
आर साल छोगा । सब लोग उसका लिहाज करेंगे । उसके कहने"
विरुछ्ध आचरण करना उन्हें अन्दर से सह्य न होगा। ऐेसेः
[ चस्टरे८ढ |]
खुक आदमी को अपना कर छेना सानों ऋह्ुत से लोगों के समूह
पर अधिकार कर लेना है | वह जहाँ जा खड़ा होगा, वहाँ बहुत
से लोग भी उसके पास जया खड़े होंगे ।समय पर राज्य -के जो
कास उस से निकलेंगे, वह कमीने ऊझमीर से नहीं निकलेंगे । सला
कमीने का साथ कौन देता है ! और जब यह बात नहीं, तो फिर
'जादशाह उसे छेकर क्या करे !
(५७५ ) उसके लिये यह भरी आवश्यक होता था कि चाहे
“विद्या की दृष्टि से बह बहुत बड़ा विद्वान था पंडित न भी हो, पर
देश व्ही जिदाए स्स््ल॒ल्धी भाषाओं का आव्णुय काए्ए लो ५ आदि
एशियाई देशों सें है तोअरवी और फारसी भाषाओं की साधारण
पुस्तकें अवश्य पढ़ा ही । अखिद्ध विद्याओं और कलाओं की अत्येक
शाखा का उसे ज्ञान हो । उसे उत्तम कोटि के कौशल का अनुराग
हो; और जब उसकी चर्चा होती हो, तो उससे उसे आनन्द आता
हो | जिसे विद्याओं और शुणों आदि का ज्ञान न होगा, जिसे
इन खब बातों में आनन्द न आता होगा और जिसका हृदय तथा
मस्तिष्क इस ग्रकाश से प्रकाशसान न होगा, वह शिष्य के मसरसितिष्क
को कया प्रकाशमान करेगा ! जिसको वहुत बड़े देश का बादशाह
होना है और अनेक देशों तथा देशवासियों का रंजन करना है,
उसका शिक्षक यदि ऐसा दोगा जो विद्या सम्बन्धी चचो से असज्ञ
होता होगा और ज्ञान की बात सुनकर जिसका सन और अधिक
झुनने को चाहता होगा, ठो शिष्य के हृदय पर भी उसका अच्छा
अभाव पड़ सकेगा और उसके यहाँ सदा उसकी सनोरंजक चचों
होती रहेगी । यदि स्वर ही उसे इन सब जातों में वास्तविक
आनन्द न आता होगा तो रूखे-सूखे ओर खाली. विषयों की
7
प्
अरकक 2
है
रह
2 4४+ हर
0|। | साथ ही चहाँ से चल पड़े ।
शहाव
पंहर!
07९ अपने नौकरों का हाल जानता था | रात के समय
0 ॥ 42 कुरान रखे गए । शापथों और चचनों से सब बातें पक्की
| ञ्ी थे ई
[] और
४ सच ने चहाँ से प्रस्थात किया । थोड़ी ही दर आगे
ब्म््
है|[|
हैःन
8१ कि नगर ले भागकर आए हुए लोग मिले । वे लोग जो
ही
(भर “4| है|
| हॉ पर उदड्ाकर आए थे, बह उनके चेहरों पर दिराई
| ॥|
*0| || न
५५ ।
है “7 <7 घुड॒ढों क रंग गए । आगे
५* रा |
| | +बन्य*णे|न पं]हि ८हुए । ख्वाजा निजासउद्दीन न कहा कि
जठाओ आओहर
|
५ च्ब्म्म्दू 0[/ कर
3॥ नगर पर आक्रमण करो । कहीं साँस
| ५ ।|
गा |५ऋलकर सासने आये आर लड्डे तो चहोीं
|
७
| 4 ०॥|
(| 4
गारिं ० -॥ हम लोगों के खोीभासर्य से किला बन्द
(६
कर
एरी
८६ | श्र
4२)हि] ++६ «|
ब्ग्म्ू
|
च्च्च खेला भी आती ही होगी । उस समय जेसा छोगा,
| शत
|| |हिका
[| क्या ठिकाना है । और सव से बढ़कर सजे की वाल
उसके आस-पास बड़े बड़े चार-हजारी और पाँच-
/४|*
हि
)
व्यू सेचापति और अमीर, जैसे कलीचखोँ ओर शरीफखोँ ,
पतन
३ शवअपना भाई सालवे का जागीरदार, पुरन्दर के सुलतान का
9
,॥
४&7
थ0 खास नौरंगखों आदि पास ही जिलों में वैठे छुए थे | वे सब
/ढ
4
4॥
|
नलोग दूर से चैठे छुए तमाशा छी देखते रह गए ।
हस बहने गम सें वह गए और दोस्त आश्ना
सब देखते रहे लबे साहिल शख्ड़े हुए ॥।
( अर्थात् हम तो छुः:ख के समुद्र में बह गए और हसारे मित्र
आदि किनारे पर खड़े हुए देखते रहे। )
मुजफ्फर के साथ हजारों लुक, अफगान ओर शुजराती
सैनिकों का लश्कर ढो गया । और एक थे तो दस, बल्कि हजार
हो गण । पर इलाके इलाके में भूँचाल पड़ गया। ख्याजा निजास-
जद्दीन यह खुनकर पठन की ओर लौटे । दरबार में आगे-पीछे
ससाचार पहुँचे; और जो सम्राचार पहुँचे, थे सब ऐसे ही पहुँचे ।
सब लोग सुनकर चुप थे। वादशाह को बहुत अधिक छुःख
छुआ । जिस देश को उसने स्वयं दो बार चढ़ाई करके जीता था,
वह इस प्रकार की दुदेशा से हाथ से निकल गया ।
पर फिर सी अकवर बादशाह था और ग्रतापी वादशाह था ।
उसने इन सब यातों की कुछ सी परवाह नहीं की । दरवारी
असीरों सें से बहुत से वारहा के सैयदों, ईरानी बीरों, सूरसा
राजपूतों और राजाओं तथा ठाछुरों को चुनकर इस चढ़ाई के
पलिये नियत किया; और उस विशाल लश्कर का सेनापति नवब-
जुबक सिरजाखों को बनाया, जिसका अताप भी उत्त दिलों अपने
[ "६२ |
है|
! दोनों लश्कर परे बाँध कर आसने-सामने छुए ।
40]
) 24४
हि |9#26५ 4 |४॥ हिले, वाएँ, आगे, पीछे सभी ओर सैनिकों को
_>्थ्|:
(६
धर नी किया जाता था ।
त्दा
धट।
हि
है
चह भी आखिर खानखानोँ था। उठकर अपने लश्कर में चला
आया । उस समय सब लोगों की आँखें खुलीं। अमीरों को
होड़ाया
»णं|
न ५ | पत्र लिखे। अन्त सें जिस प्रकार हुआ, सफाइ हो गई ।
पर इस से यह नियस ज्ञात हो गया कि जो व्यक्ति योग्य और
द्धिमान हों, जिसके पास सब अकार के साधन ओर सामगी
रा
आदि हो और जो सब कुछ कर सकता हो, वह भी दूसरे के
घील हो कर छुछ नहीं कर सकता । बल्कि कास भी खराब हो
जाता है और स्चर्यं बह आदसी भी खराब हो जाता है ।
जिस लोगों ने खानण्वानों तक की यह दुर्दशा कराई थी, जे
भला और अमीरों को क्या सममते थे ! वे और लोगों की इसी
आकार अमप्रतिष्ठा कराया करते थे । इसी लिये लश्कर सें साधा-
'रणत: सभी लोग अप्रसन्न हो रहे थे । राजीअलीखाँ को भी
खानखानों का सेहसान और साथी सममक कर दरवार सें एकाथ
चमसका दे दिया । तात्पर्य यह कि इस प्रकार चढ़ाई ओर युद्ध का
कास विगड़ला आरस्म हुआ ।
अब जरा उघर की सुनो । थुरहान-उल्ः मुल्क की सगी बहन,
हुसेननिजास शाह की कन्या और अली आदिल शाह की पत्नी
चाँद वीबी वहुत उच्च वंश की और परम खसदाचारिणी तो थी ही,
घर साथ ही वह अपनी बुद्धि, युक्ति, उदारता, बीरता और शुरण-
आहकता आदि के रत्नों सेजड़ी हुईं जड़ाऊ पुतली थी । इसलिये
'बह “नादिरत उलछ जसानी” (संसार में अपने समय की अनुपस)
[ रथ |]
च्ा वीरता
हक
देखकर मर्दों के होश जाते रहे ।
वडे ससी लोगों में चाँद वीची खुलताना की वहुत अधिक:
गई ।
यहाँ ये स्व प्रबन्ध हो चुके थे । डघर से शाहजादा मुराद
चहुत से बड़े-बड़े अमीरों आदि को साथ लिए हुए पहुँचा और
चहुत भारी सेला लिए हुए अहमदलगर के उत्तर ओर से
जिस प्रकार पर्वत पर से बड़ी सारी सदी का
प्रवाह चलता है । यह सेना नमाजगाह के मैदान सें ठहरटी और
साहसी बीरों की एक छुकड़ी चवूत्तरे के सैदान की और बढ़ी ।
चॉद वीत्री ने क्रिले से दक्म्िखिनी वीरों को निकाला | उन्होंने
तदीरों और बन्दुकों के सुँंह और जवान से अच्छे उत्तर-प्रत्युत्तर
दिए और किले के मोरचों से गोले भी सारे; इसलिये वादशाहीः
सना आगे न बड़ सकी । सन्ध्या भी होने को थी। वहीं पर हश्त
विहिश्त ( ऋठ स्व ) नाम का एक बहुत सुन्दर चाग था,
जिसे बुरहान निजास शाह ने बनवा कर हरा-भरा किया था ।
शाहजादा सुदाद और सब अमीर उसी वाग में उतर पड़े |
दूसरे दिन वे लोग नगर की रक्षा और नागरिकों को असज्न करने
का अश्रयत्न करने लगे। गल्ी-छूचों में असय-दान की सुनादी
करा दी गई; और छुछ ऐसा काम किया कि घर-घर सब लोग
असजन्न तथा खनन्तुष होकर अनुकूल हो गए । व्यापारियों और
महाजनों आदि का भी पूरा-पूरा सनन््तोप हो गया। दूसरे दिन
शाहजादा झुराद, मसिरजा शाहरुख, खानखानाँ, शाहवाजखाँ
कम्चो, मुहम्मद सादिकर्खाँ, सैयद मुत्तेजा सव्जवार, बुरहानपुर
के हाकिस राजी अलीखों, सानसिंह के चाचा राजा जगन्नाथ
[ ३१६ ]
आदि सब अमीर एकत्र हुए । सब लोगों ने मन्त्रणा और परा-
सशे करके घेरा डालने का प्रवन्ध किया और सब लोगों को
अलग-अलग सोरचे वॉट दिए गए |
किले पर अधिकार करने ओऔर नगर को अपने अधिकार में
बनाए रखने का कार्य वहुत ही उत्तमतापू्वक चल रहा था कि
इसी वीच में शाहवाजलाँ को वीरता का आवेश आया । उसने
शाहजादे और सेनापति को खबर सी नहीं की और चहुत से
सैनिकों को साथ छेकर गश्त करने के बहाने से निकल पड़ा ।
उसने अपने लश्कर को संकेत कर दिया था कि घनवान् या
निर्धन जो कोई सामने आवे, उसे रूट लो | बात की बात सें
क्या घर और क्या बाजार, सारा अहमदनगर ओर बुरहाना-
याद छुट कर सत्तानाश हों गया । शहबाजखाँ अपने धर्म
ओर सम्प्रदाय का भी कट्टर अजुयायी था । बहाँ एक स्थान था
जिसका नास बारह इसास का लंगर था। उसके आस-पास सब
शीया लोग बसे हुए थे । उसने उन सबका माल-असबाब ल्छूट
लिया और उनकी हत्या करा दी । इस प्रकार उसने वहाँ कर-
चला के जंगल का चित्र उपस्थित कर दिया | शाहजादा और
खानखानोँ सुन कर चकित हो गए । उसे बुला कर बहुत छुछ
बुरान्मला कहा । उसके जिन साथियों ने रछूट-मार की थी, उन
आबकों अनेक अकार के कठोर दंड दिए गए; यहाँ तक कि
जहुतों को आण-दंड भी दिया गया | परन्तु अब हो ही क्या
सकता था ! जो छुछ होना था, वह तो पहले ही हो चुका था।
छुटे हुए लोगों केपास कपड़ा तक नहीं था। वे रात के परदे में
देश छोड़ कर निकल गए ।
[ ३१७ |)
इस अचसर पर एक ओर तो मियाँ संक्कू अहसद शाह को
| दशाह चनार हुए आदिल शाह के सिर पर बैठे हुए थे | दूसरी
।र इखलास हव्शी अपने साथ सोती शाह शुसनाम (अग्रसिद्धऐ
को लिए हुए दौंलतावाद के किले में पड़े थे ।और तीसरी ओर
आहंगखस्जो हव्शी सत्तर चरस के घुड़डे प्रथम चुरहान शाह अली
के लिए पर छतर छगाए हुए खड़े थे । सब से पहले इखलासखोँ
ने साहस किया । बह दस हजार सैनिक एकत्र करके दौलतावाद
को ओर से अहमदलगर की ओर चला । जब अकवर वादशाह के
लश्कर सें यह ससाचार पहुँचा, सेनापति ने पाँच छः: हजार
साहसी वीर चुने ओर दौलतखों लोधी को, जिनके सेनिकों का
स्थान सरहिल्द था, उन सवका सेनचापति वनाकर आये भेजा ।
गंगा नदी के छिलारे पर दोनों पक्तों का साससा छुआ । बहुत
अधिक सार-काद ओर रक्तन्पात आदि के उपरान्त इखलासखाँ
भागे । वादशाही लश्कर ने ल्टूट-पाट करके अपनी कामना पूरी:
की । वहीं से पटन की ओर घोड़े उठाए | वह नगर बहुत अच्छी-
तरह वसा हुआ और रौनक पर था| पर फिर भी ऐसा छुटा कि.
किसी के पास पाली पीने के लिये कटोरा तक् न वचा | इन सब
बातों ले दक्खिन के लोगों को अकवर के लश्कर की ओर से चहुत
डुःखी और असन््तुष्ट कर दिया । जो हवा अनुकूल हुई थी, वह:
विगड़ गई ।
यद्यपि सियाँ संस्छू के पास धन-चल भी वहुत था और जन--
चल भी, पर उसमें जों चालाकी थी, उसका तो वर्णन ही नहीं हो.
सकता । इसलिए चाँद सुलतान चेगम ने आहंगरों हृव्शी को
लिखा कि तुम जितने दक्खिनी साहसी बीरों की सेना एकन्न कर
[ ३१« |]
खसको,. उतनी सेना एर्कत्र करके किले की रक्षा करने के लिये
आकर हाजिर हो । वह सात हजार सवार छेकर अहमदनगर की
ओर चला | उसने शाह अली और उसके लड॒के मुत्तेजा को भी
अपने साथ ले लिया था । वह छः कोस पर आकर ठहरा और
समाचार लाने तथा घेरे का रंग-ढंग जानने के लिये उसने अपने
शुघ्त दूत भेजे । वह यह जानना चाहता था कि कौन सा अंग या
पाश्व अधिक और कौन सा कम बलवान है। दूतों ने देख-
भालकर समाचार पहुँचाया कि किले के पूरब की ओर बिलकुल
खाली है । अभी तक किसी का ध्यान उस ओर नहीं गया है ।
अब आहंगखरों तैयार हो गया |
इधर की एक देवी बात यह देखी कि उसी दिन शाहजादे
ने गश्त करते समय वह स्थान खाली देखा था और श्वानखानों
को आज्ञा दी थी कि इधर की व्यवस्था सुम स्वयं करों । खान-
खानों भी उसी समय हृश्त बिहिश्त से उठ कर यहाँ आ उतरा
आर जों सकान आदि सिले, उन सब पर उसने अधिकार कर
लिया । आहंगरों ने तीन हजार चुने हुए सवार और एक
हजार पेदल तोपची साथ लिए और अधेरी रात में काली चादर
आओडढ़्कर किले की ओर चल पड़ा । दोनों में सेकिसी को एक
दूखरे के वहाँ होने कीखबर नहीं थी |जब खबर हुईं, तब उसी
समय हुईं, जब छुरी-कटारी के सिवा बाल भर का सी अन्तर न
रह गया । शखानखानों तुरन्त दो सौ वीरों को साथ लेकर इबादत-
खाने ( ग्ार्थना-मन्द्रि ) के कोठे पर चढ़ गया और बहाँ से
उसने तीर और गोलियाँ चलाना आरम्भ कर दिया। इनका
अधान योडछा दौलत खाँ लोधी झुनते ही चार सौ सवारों को
उसी की जाति के ओर सदा उसके साथ
गहसेंबालें अफयान थे। जे लोंग जान तोंड कर अछड्ठ गए ।
नीलत खो का लड़का पीर सवा सी छः: सौ वीरों को लेकर सद्दायता
करने के लिये पहुँचा । अधेरे में ही सार-काट होने लगी। आहंग
खवॉ ने दखा कि ऐसी अवस्था सें यदि हम लड़ेंगे, तोसरने के सिचा
आर कोई लाभ सहीं होगा । उसे पता लग रया था कि खान-
ससय
8 .. सेरा सासना कर
श्च् रही है। खेसे
/0]/ एक
।हि र का सारा स्थान खाली है । उसने चार
20 हा)री ध्यशा2४ न्््ट3८>»0शहै| आर शाह अली के लड़के को साथ लेकर
चोड़े सारे ओर भागा-भाग किले में घुस ही गया | शाह अली
4 2 ।हि धि |र्जः शुह्डा था। उसे साहस न पड़ा । उसने अपने प्राण
बहुत सममका | वह बाकी सेना लेकर
०2 5.2|
ड्
री जिस माण से
आया था, उसी साय से भागा । पर दौलतखाँ ने उसका भी पीछा
से छोड़ा । मसारा-मार, दौड़ा-दौड़ उसके नौ सौ आदमियों को
काटकर तब पीछे लोटा ।
वादशाही लश्कर चारों ओर फैला हुआ था । मोरचे अमीरों
में तैंट गए थे । खब लोग जोर मारते थे, पर कुछ कर नहीं कर
सकते थे । शहाहजादे की सरकार सें अदूरदर्शी और उपद्रब तथा
उत्पात सचानेवाले लोग एकत्र हो गए थे । वे मैंदान में तो धावा
नहीं सारते थे, हाँ द्रवार में खड़े हो कर आपस सें एक दूसरे
पर खूब पेंच सारते थे । शाहजादे की युक्तियों सें इतना बल नहीं
था जो इन लोगों के जपद्रयों कोदबा सकता और स्वर्य ऐेसा कास
करता जो उचित होता । यह बात शज्लु से छेकर उसकी प्रजा तक
खसभी लोग जान गए थे |
[ शरर |]
लोगों ने यह निश्चित किया कि किला खाली करके यहाँ से
निकल चलना चाहिए | पर धन्य था चॉद बीबी का पुरुषोचित
साहस । शेरों का सा हृदय रखलनेवाली उस स्त्री मे इतने ही
अवकाश को बहुत समका । उसने अपने सिर पर बुरका डाला,
कमर से तलवार लगाई और दूसरी तलवार सॉंतकर हाथ में
लिए हुए विजली की तरह बुजे पर आई । तख्ते, कड़ियाँ, बॉस,
टोकरे आदि भरे हुए तैयार थे। बड़े-बड़े थैले और सारी
आवश्यक सासभी लिए हुए वह इसी अवसर, की श्तीक्षा में बैठी
हुई थी । वह गिरी हुईं दीवार पर. स्वर्य आकर शण्वड़ी हो गई ।
सीठी जबान, धन का बल, कुछ लालच देकर आर कुछ डरा
शमका कर, तात्पय यह कि युक्ति से ऐसा कास किया कि स्त्रियाँ
आर पुरुष सभी मिलकर काम सें लिपट गए और बात की बात में
उन लोगों ने किले की वह दीवार फिर से श्वड़ी कर ली और उस
पर छोदी-छोटी तोपें चढ़ा दीं। जब बादशाही लश्कर रेला देकर
बआ्यागे बढ़ता था, तब उधर से आओलों की वरह गोले बरखते थे ।
अकबर की सेना लहर की तरह टकरा कर पीछे की ओर हट
जाती थी | हजारों आदसी कास आए, पर फिर भी कुछ काम
नहीं निकला । सनन्व्या समय सब लोग विफल-मनोंरथ होकर
अपने डेरों परलौट आए ।
जब रात ने अपनी काली चादर तचानी, तब शाहजादा झुराद
अपने लश्कर और झुसाहबों को लिए हुए अकृतकाय होकर अपने
डेरों सें लौट आए । चाँद बीबी चमककर निकली । बहुत से राज,
कारीगर आर हजारों सजदूरे तथा बेलदार आदि तैयार थे ।
वह स्वय॑ घोड़े पर सवार थी । मशाललें जल रही थीं । चूने गच के
[ डइेरई 3)
कही थीं, यदि में उनका विस्तृत विवरण लिखेँ , तो अकचरी दरबार
था ख्विल जाय । कहते है कि अन्त सें जब अज्न समाप्त
ठहर
आगे रखकर सोरचे वना लिए ओर इश्चर पर भरोसा करके
गया | केवल वही स्वासिनिष्ठ सेबक, जो अपनी
बात पर प्राणों को निछावर किया करते थे, उसके चारों ओर
थे । कोइ सवार था, कोई घोड़े की वाग पकड़े जमीन पर बेठा
हुआ था । खानखानों की हाषप्टि आकाश की ओर थी । वह सोचता
था कि देखो, सबेरा होने पर सनोरथ सिद्ध होता है या नहीं, था
सेरे आण ही जाते हैं |और तमाशा यह कि शज्ु सी पास सें हीः
खड़ा है । एक की दूसरे को खबर नहीं ।
अब अकबर के प्रवाप का विलक्षण ओर अदूसुत कार्य
[ उईडर , <]
देखो । सुहेल खाँ के शुभचिन्तक सेवकों सें कोई तो दीपक जलाकर
आर कोई सशाल जलाकर उसके पास लाया । खानखानों और
उसके साथियों को उनका अकाश दिखलाई दिया । उन्होंने बहा
जाकर पता लगाने और हाल लाने के लिये आदमी सेजे । वहाँ
देखते हैं तो सुहेल खॉ चमक रहे हैं । दक्खिनी तोपखाने की कई
तोपें और जम्बूरक मरे हुए खड़े थे। फट इन लोगों ने उन्हें
सीधा करके निशाना बाधा और दाग दिया। गोले भी जाकर
ठीक स्थान पर पड़े ।पता लगा कि शत्रु के दल में हलचल
सच गई; क्योंकि वह घवबराकर -अपने स्थान से हटा था।
खुहेल खाँ बहुत ही चकित डुआ कि ये देवी गोले किघर से
आए ! उसने आदमी भेजकर अपने आस-पास के साथियों
को बुलवाया । उधर खानखानों ने विजय के नगाड़े पर चोट देकर
आज्ञा दी कि करनाई (प्रसन्नता-सूचक विजय के राग) बजाओ ।
रात का समय था। जंगल में आवाज गूँजकर फैली । जो बादशाही
सिपाही इधर उधर छितरे विखरे पड़े थे, उन्होंने अपने लश्कर की
करनाई का शब्द पहचाना ओर उसी विजय के शब्द पर सब लोग
चले आए | जब वे लोग आ पहुँचे, तब फिर बधाइयों की करनाईं
फूँकी गई । जब कोई सरदार सेना लेकर पहुँचता था, तब लोग
अछा अलल्ला का तुसुल घोष करते थे । रात भर सें ग्यारह बार
करना बजी । सुहेलखोँ मी अपने आदमी दौड़ा रहा था और
सैनिकों को एकत्र कर रहा था । छेकिन उसके सैनिकों की यह दशा
थी कि ज्यों ज्यों वेअकवरी करना का शब्द सुनते थे, त्यों त्यों
उनके होश उड़े जाते थे। सुद्देलखाँ के नकीय भी बोलते और
बुलाते फिरते थे । पर सैनिकों के दिल हारे जाते थे । वे गड्ढों
०-.]
[ ३३३ ॥]
आर कोनों में छिपते फिरते थे या चबुक्षों पर चढ़े जाते थे । उन्हें
यही डी !चिन्ता हो रही थी कि कहाँ जायेँ£ और किस प्रकार अपने'
आाणदर
/ण||न बचावें
है| । सबेरा होते ही खानखानोँ के सिपाही नदी पर पानी
लाने |» केलिये गए थे । वे लोग समाचार लाए कि सुहेलखों”
4॥
चारह हजार सैनिकों को साथ लिए हुए जमा शड़ा है ।छस
समय इधर चार हजार से अधिक सैनिक नहीं थे । पर फिर
सी अकवरी अताप के सेनापति ने कहा कि इस अपधेरे को ही
अपने लिये सवसे अच्छा अवसर सममो । इसी के परदे सें वात
बन जायगी । हसारे पास थोंडी ही सेना है। यदि दिन ने यह
भेद स्लोल दिया तो चहुत कठिनता होंगी । घुँघला सा ससय था ।
सवेरा छोना दी चाहता था। इतने में सुहेलखोँ चसका ओर उसने
खुछ की वायु में गति दी । दोपें सीधी को और हाथियों को सामने
लाकर रेला । इधर से अकवरी सेनापति ने धावे की आज्ञा दी ।
सेना दिन भर और रात भर की मूखी-प्यासी थी। सरदारों की
बुद्धि चकित हो रही थी। दौलतखाँ इनका हरावल था। बह
घोड़ा सारकर आया ओर बोला कि ऐसी अवस्था सें इतनी
अधिक संख्यावाले शत्रु पर चढ़ कर जाना आख्य ही गेँंवाला
॥/
है। पर मैं इतने पर भी हाजिर हूँ । इस ससय छः सो सवार
मेरे साथ हैं | में शत्रु कीकमर सें घुस जाऊँगा। श्ानखानों ने
कहा कि तुम व्यर्थ दिल्ली का नास बदनास करते हो । उससे
कहा--छाय दिल्ली ! खानखानोंको भी त्तो दिल्ली चहुत्त प्यारी
थी। बह आयः कहा करता था कि यदि मैं सरूँगा तो दिल्ली
में ही सरूँगा ।पर यदि इस समय शज्लु को परास्त कर लिया तो
सौ दिल्लियाँ हम आप खड़ी कर छेंगे। और यदि मर गए तो:
[ «ऊँ३७४-.]
इेश्वर के हाथ हैं | दौलतखोँ ने घोड़ा बढ़ाना चाहा । सैयद कासिस
चारहा सी अपने सैयद साइयों को लिए हुए च॒हीं खड़े थे ।
उन्होंने कहा कि भाई, हम तुम तो हिन्दुस्तानी हैं | सरने के सिवा
दूसरी बात नहीं जानते | हाँ यह पता लगा लो कि नवाब का
क्या विचार है। दौलतसखाँ फिर लौट पड़े और खानखानोँ से
योले कि सामने शज्जु का यह समूह है और देवी विजय है । पर
फिर भी यह तो बतला दीजिए कि यदि हार गए, तो आपको
कहाँ दूँढकर सिलेंगे । खानखाकोँ ने उत्तर दिया--सव लघशों के
नीचे । यह सुनते ही लोधी पठान ने सब यारहा सैयदों के साथ
वागें लीं | मैदान से कटकर पहले घूँघट श्थाया और एक वार
चक्कर देकर शत्रु कीकमर पर गिरा 4 शत्रुओं में हलचल मनच
गई । यह् ठीक वही ससय था, जब कि शानखानों सामने से
आक्रसण करके पहुँचा थाऔर बहुत शुधकर लड़ाई हो रही थी।
सुह्देलखों का लश्कर भी आठ पहर का थका हुआ और सूख-
'प्यास का सारा छुआ था | ऐसा भागा जिसकी कभी आशा ही
नहीं थी | फिर सी यहुत सार-काट ओर, रक्त-पातव हुआ । झुहेलखों
को कई घाव लगे और वह गिर पड़ा । उसके पुराने ओर निछ
सेबक पतिंगों की तरह उसपर आ गिरे। उन लोगों ने उसे उठा
क्र घोड़े पर बैठाया और दोनों ओर से उसकी दोनों बंहें एकड़
कर उसे युद्ध-क्षेत्र सेबाहर निकाल छे गए। थोड़ी ही देर में
मैदान साफ हो गया ! खानखानों के लश्कर में बे-लाग विजय के
लगाड़े बजने लगे । चीरों ने युद्ध-क्षेत्र कोदेखा तो वह बिलकुल
साफ पड़ा हुआ था । उसमें कहीं शक्ठु केएक आदमी का भी
'पता नहीं था ।
[ बेड० लि है
नित्य सारे जातें थे । दक्खिन में जो लड़ाइयाँ फैली हुई थीं, उन्हें.
शोख आर सैयद की युक्ति और तलवार समेट नहीं सकती थी ।
अकवर ने अपने अमीरों को एकत्र करके परासश किया कि पहले
दक्षिण का निर्णय कर लेना चाहिए; अथवा वहाँ का युद्ध
स्थगित कर देना चाहिए और तब तुर्किस्तान कीओर चलना
चाहिए | आअकवदर को इस जात का भी बहुत दुःख था कि
दक्खिन में सेरे नवयुवक पुत्र के प्राण गए, पर फिर भी उस देश
पर विजय प्राप्त यहीं हुं ।यह निश्चय छुआ कि पहले घर की
आर, से निश्चिन्त हो लेना चाहिए। इसी लिये सन् १००७ छि० सें
शाहजादा दानियाल को बहुत बड़ा लश्कर और प्रचुर युद्ध-
सामगी देकर उधर भेजा और खानखानाँ को उसके साथ कर
दिया । मुराद की दुरवस्था आदि का स्मरण दिलाकर उसे बहुत
उपदेश भी दिया था । इस वार का प्रस्थान बहुत ही व्यवस्था-
पूर्वक छुआ था । श्वानखानाँ की जाना बेगस नासक कन्या के साथ
शाहजादा दानियाल का विवाह कर दिया गया था । नित्य असीर
ब्लोग एकत्र होते थेऔर एकान््त सें बात-चीत हुआ करती थी।
सेनापति को सभी ऊफँच-नीच की बातें समका दी गई थीं । जब
उसने अस्थान किया, तव पहले पड़ाव पर बादशाह स्वयं उसकी
छावनी में गए । उसने भी ऐसे-ऐसे पदार्थ उपहार स्वरूप सेवा में
छपस्थित किए जो अजायब-खानों में ही रखने के योग्य थे | यों
[ ३४० ॥
तो बहुतेरे घोड़े थे, पर उनसें से एक घोड़ा ऐसा था जो शेर के
सब...
कोइ दात असीए नहीं छे ।किन लोगों ने चदह्ठ उपद्रव खड़ा किया
है और लड़ाई लगाई है, उन्हें शीघत्र ढी उचित दंड मिलेगा | मैं
विवश हैँ कि आ नलहीं सकता। परन्तु देश की दशा देखकर
अछुत दुःख होता है | मैं उसका सुधार और पअजा के झछुख और
शान्ति के उपाय करने के लिये जी-जान से तैयार हूँ; और इस
कास को अपना तथा समस्त झुसलमालों का परस कत्तेड्य ससकता
हैं । यदि छुस परस अतापी शाहजादे को ये सब बातें सली भाँति
समभ्दाकर दो-एक ऐसे विश्वसनीय आदमियों को सेज दो जो
इन बिपयों को वहुत अच्छी तरह सम्रकते हों तो यह वात
बहुत ही उपयुक्त होगी कि आपस में वात-चीत करके ऐसी युक्ति
निकाली जाय जिससे यह आग बुक जाय और रुक्तपात वन्द्
हो । पिता और पुत्र फिर एक हो जायें | शाहजादे की जागीर
कुछ बढ़ा दी जाय ओर नूर सहल लज्जित होकर हमारी इस
युक्ति से सहसत हो जाय | आदि आदि । बस यही ओर इसी
आकार की कुछ ओर बातें लिखी थीं; और उनके साथ वचन की
चृढ़ता तथा शपथें आदि भी थीं। इस विषय सें कुरान को बीच
सें रखकर उसकी भी शपथ दी गई थी । इस अकार की बातों से
भरा छुआ वह पत्र एक लिफाफे सें बन्द करके उधर की हवा सें
इस प्रकार उड़ाया कि वह शाहजहान के पल्ले में जा पड़ा । बह
तो स्वयं सुख और शान्ति का परस श्रेमी और इच्छुक था ।
उसने अपने सुसाहवों को छुलाकर उनके साथ परामश किया |
खानखानों से भो वात-चीत हुईं । ये तो पहले से ही इन विषयों
के कवि थे । शाहजादे को इस काम के लिये इनसे बद्कर योग्य
आर समम्दार कोई दूसरा आदमी नहीं दिखाई दिया । उसने
[ शे६८ ]]
कुरान सामने रखकर इनसे शपथें लीं । दाराबव और इसके सब
वाल-बच्चों आदि को अपने पास रखा और इन्हें उघर विदा कर
दिया कि जाकर नदी का वहाव ओर हवा का रुख फेरों । नदी के
उस पार पहुँचो और ऐसे ढंग से मेल कराओ जिसमसें दोनों पक्षों
का संगल और कल्याण हो |
खानखानों संसार रूपी शतर॑ज के पक्के चालबाज थे। पर वे
स्वयं बुद्धे होगए थे और उनकी बुद्धि भी बुड्डी हो गई थी। महा-
बतखोँ जबान थे और उनको बुद्धि भीजवान थी । जब खानख्वानोँ
वादशाही लश्कर सें पहुँचे, तव उनका आवश्यकता से कहीं बढ़
कर आदर-सम्सान छुआ । एकान्त में उनके साथ बहुत ही
सहाल॒भूति-पूर्ण और उन्हें प्रसन्न करनेवाली बातें की गई । इस
पर खानखानों ने वहुत ही असन्न होकर शाहजहान के पास ऐसे
पत्न भेजने आरस्म किए. जिनसे सूचित होता था कि इन्हें अपने
कार्य में अच्छी सफलता हो रही है और ये परिणाम के सम्बन्ध
में बहुत ही सन्त॒ुष्ट तथा निश्चिन्त हैं ।जब शाहजहान के अमीरों
को यह ससाचार मिला; तब वे लोग सी बहुत असचन्चन हुए। और
उन्होंने भूल यह की कि घाटों की व्यवस्था और किनारों का
अवन्ध ढीला कर दिया ।
सहावतलाँ वहुत ही चलता-पुरजा निकला | उसने चुपके-
चुपके रात के समय अपनी सेना नदी के उस पार उतार दी।
अब ईश्वर जाने कि उसने सहालुभूति और अपनी अच्छी नीयत
का हरा वाग दिखलाकर इन्हें अम में डालनेवाली बेहोशी की
शराव पिलाई या लालच का दस्तरख्वान बिछाकर ऐसी चिकनी
लुपड़ी बातें कीं कि येकुरान को. निगलकर उससे सिल गए ।.
३६९ ॥]
जो स््ः
हो, हेर
>
प्रकार से स्लाहजहान का कास चिगड़ गया। वह
त ही हतोत्साह होकर परल विकलता की दशा सें पीछे हटा
आर ऐेसी घबराहट में ताप्ती नदीं के उस पार उतरा कि
उसकी खेला और युद्ध-सामजी की चहुत अधिक हानि छुद् । उस
समय झायः: अमीर भी उसका साथ छोंडकर चले गए ।
खानखानाँ के वाल-वच्चे, जिनमें दाराव भी था, शाहजहान
के साथ थे और श्वानखानों उघर वादशाही लश्कर में पड़े हुए
थे। अब इनके पास सिया इसके ओऔर कोई उपाय नहीं रह गया
था कि सहावतखाँ से सेल-जोल रखें । वे उसके साथ घुरहानपुर
पहुँचे । पर फिर भी सब लोग शख्ाानखानों की ओर से होशियार
ओर सचेत ही रहते थे । परासरों यह छुआ कि इन्हें नजरबन्द्
रखा जाय आर इनका खेमा परवेज के खेमे के साथ चिलकुल
सटा रहे । इससें मुख्य उद्देश्य यह था कि ये जो छुछ काम
करें, उसका पता लगता रहे । शुरहानपुर पहुँच कर भी सहावतखाँ
नहीं ठहरा और उसने साप्ती नद्दी पार करके भी कुछ दूर तक
शाहजहान का पीछा किया । इस पर शाहजहान दक्शखिन से
बंगाल की ओर चल पड़ा |
जाना वेगस भी अपने पिता खानखानोँ के साथ ही थी।
उसने इनसे साहस ओर युक्ति के जो पाठ पढ़े थे, वे सब अच्षरशः
स्मरण कर रखे थे । उसने कहा कि में अपने पिता को नहीं
छोड्टेँंगी ।जो दशा इनकी होगी, वही सेरी भी होगी। वह भी
शाहजादा दानियाल की स्त्री थी। उसके बाल-बच्चे भी उसके
साथ थे । भला उसको कौन रोक सकता था ! तात्पये यह कि
बह भी अपने पिता के साथ उनके ही खेमे में रही । ख्वानखानों
श्ड
[ ३७० ॥
के पास फहीस नास का एक श्वास शुलास था । वह वास्तव से
यथा नाम तथा झुण था ( अथात् बहुत बड़ा समझदार और
अलुपस कायय-कुशल था ) । उसे स्वय॑ वीरता ने दूध पिलाया था
आर वह शूरता के नमक से पला था ! वह इस ऊगड़े में जिस
अकार सारा गया, उसका ठुःख खानखालाँ के ही हृदय से पूछना
चाहिए । जब शाहजहान के पास ये समाचार पहुँचे, तब उसने
इनके बाल-बच्चों को कैद कर लिया; और उनकी रक्षा का भार
शजा भीम पर डाला गया, जो राणा का लड़का था। उधर
ख्वानखानों को यह् समाचार सुन कर बहुत दुःख हुआ । उन्होंने
राजा के पास सेँदेसा भेजा कि मेरे बालन्बच्चों को छोड़ दो ।
मैं कोई न कोई युक्ति करके बादशाही लश्कर को इधर से फेर
देता हूँ । पर यदि यही दशा रहेगी, तो ससमक लो कि कास बहुत
कठिन हो जायगां। मैं स्वयं आकर उन लोगों को छुड़ा ले
जाऊँगा। राजा ने कहा कि अभी तक पाँच छः हजार जान
निछाबर करनेवाले सैनिक शाहजादे की रकाव में ओर उनके
साथ हैं। यदि तुम चढ़ कर हम लोगों पर आए, तो पहले
तुम्हारे बाल-बच्चों की हत्या की जायगी और तब हम लोग तुस
पर आए पड़ेंगे ।या तुम नहीं और या हम नहीं |
बादशाही लश्कर के साथ भी शाहजहान की कई लड़ाइयाँ
हुईं जिनमें बहुत सार-काद ओर रक्तपात हुआ । दठुः्ख है
कि अपनी सेनाएँ आपस में ही कट मरीं और बीरे सरदार
तथा साहसी अमीर व्यर्थ सारे गए । शाहजहान लड़ते-लड़ते कभी
किनारे की ओर हटते थे, कभी पीछे की ओर हटते थे और कमी
ऊपर ही ऊपर बंगाल में जा निकलते थे । वहाँ दाराब से शपथ
आर चचन लेकर कंगाल का शासन-सार उस
के
रू
५
ती साय से दक्खिल की ओर चला । फिर उसके ध्यान गन ४उ
आर आह कि ख्ानखानाँ भी बादशाह की ओर सिल गए हें,
इसलिये उन्तने उनके| सवयुवक पुत्र और भतीजे को सार डाला |
अहाँ द्ाराद के पास कोई शक्ति नहीं रह गई थी। चाब्शाही
लश्छर ने जहाँ पहुँच कर देश पर अधिकार कर लिया । दारावद
च्चू वेज के लश्कर में उपस्थित हुआ । जहॉँगीर
ईडी दि. दाराब का सिर काट कर सेज दो । दुःख
स्थिर एक पात्र में खाद्य पदाथ की तरह कसवा कर
ब्ज्शजा
खानखानों का धर्म
मआसिर उलतू उप्रा के लेखक लिखते हैं कि ये अपने आप
को लोगों पर छुन्नत सम्प्रदाय का अलजुयायी प्रकट करते थे ओर
लोग कहते थे कि शीया है, तक्रेया 683करते है । पर इसमसें
'सन्देह नहीं कि इनसे शीया और उुन्नी दोनों ही सम्प्रदायों के
# अपने श्राणों तथा घन के नादा के भय से अपना वास्तब्रिक धार्मिक
'सिद्धान्त अ्रकट न करना ॥
[ इणछ्डथ ]
ऊणा देंस्वकर प्सन दोता है, या साली अपने लगाए हुए दत्त की
छाया में बैठकर ऊच्तन्न होता है, था कोई स्वासी अपसे शोड़ों,
योओं ओर वबकरियों आदि को अच्छा या अधिक दूध देनेबाली
छेल्लकर अखन्न होता और उनके लिए अशभिसान करता ले । यह
े