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Khattar Kaka
Khattar Kaka
Khattar Kaka
ह रमोहन झा
ज म : सन् 1908। ज म थान : कँु वर बा जतपुर, जला वैशाली (िबहार)।
सन् 1932 म पटना िव िव ालय से दशनशा म एम.ए.। इसके बाद
पटना िव िव ालय म ही दशनशा के ोफेसर और िफर िवभागा य
रहे।
अपने बहुमुखी रचना मक अवदान से मै थली सािह य क ी-वृ
करनेवाले िव श लेखक। भारतीय दशन और सं कृ त-का य सािह य के
मम िव ान के प म िवशेष या त अ जत क । धम, दशन और इ तहास,
पुराण के अ व थ, लोकिवरोधी संग क िदलच प लेिकन कड़ी
आलोचना। इस स दभ म ‘खट् टर काका’ जैसी बहुच चत यं यकृ त िवशेष
उ ेखनीय। मूल मै थली म करीब 20 पु तक का शत। कुछ कहािनय का
हदी, गुजराती और तिमल म अनुवाद।
मुख कृ तयाँ : क यादान, ि रागमन (उप यास); ण य देवता, रंगशाला
(हा य कथाएँ ); खट् टर काका ( यं य-कृ त); चरचरी (िवधा-िविवधा)।
िनधन : 1984
पहला पु तकालय सं करण
राजकमल काशन ाइवेट लिमटेड ारा
1971 म का शत
© पा झा
राजकमल पेपरबै स म
पहला सं करण : 1987
सोलहवाँ सं करण : 2016
© राजमोहन झा
राजकमल काशन ा. ल.
1-बी, नेताजी सुभाष माग, द रयागंज
नई िद ी-110 002
ारा का शत
शाखाएँ : अशोक राजपथ, साइंस कॉलेज के सामने, पटना-800 006
पहली मं जल, दरबारी िब डग, महा मा गांधी माग, इलाहाबाद-211 001
36 ए, शे सिपयर सरणी, कोलकाता-700 017
वेबसाइट : www.rajkamalprakashan.com
ई-मेल : info@rajkamalprakashan.com
KHATTAR KAKA
Satirical Essays by Prof. Harimohan Jha
ISBN : 978-81-267-0427-9
समपण
का य-शा -िवनोद क रस-वषा म ज ह पावस-पयोद के थमोद- वदओ ु ं
का आमोद ा होता है, हास-प रहास के गुलाबी फुहार और यं य क
रंगीन फुलझिड़य म ज ह बसंतो सव का आनंद आता है, देववाणी क
का य-पु क रणी म शतदल कमल का मधु-मकरंद ज ह म मधुकर बना
देता है, जो अलंकृत ग का गजरा, प का पु पहार और चंपू क
चंपकमाला लेकर तुषार-हार-धवला का ृग ं ार करते ह, स ः नाता के
अंचल को चंचल कर देनेवाली मलय-लहरी जनक वंशी म मधु छं दा
रािगणी का वर भर देती है, जनक पारद शनी ि यंजना का रेशमी
आवरण भेदकर अंतरंग तक पहुँच जाती है, वा वलास म ज ह शरबत के
िगलास से कम िमठास नह िमलती, ख ी-मीठी बात म ज ह चटपटी
चटनी-खटिम ी का मजा आ जाता है, जो िवपरीत होकर भी ‘सरस’ ही बने
रहते ह, ऐसे स दय, रस-मम , गुण ाही पाठक के हाथ म ख र काका क
िवनोद-वा ाएँ सादर, स ेम, सकौतुक सम पत ह!
ख र काका क िवनोद-वा ा
का य-शा -िवनोदेन कालो ग छ त धीमताम्
सं कृत सािह य म का य-शा -िवनोद क असं य रस-धाराएँ बहती ह।
उनक अपूव भंिगमाएँ ह। कोई शोख चंचल िनझ रणी क तरह इठलाती
चलती ह। कोई बरसात क उमड़ती हुई गंगा क तरह बाँध तोड़ देती ह।
कोई उछलते समु क तरह अपनी उ ाल तरंग से आ लािवत कर देती
ह। कह रस क उफान है। कह यं य के बुलबुले ह। कह हा य क िहलोर
ह। कह प रहास के वाह ह। कभी शा पर छ टे बरसते ह। कभी का य
से अठखे लयाँ होती ह। कभी वेद-पुराण से नोक-झ क होती है। कभी
देवताओं से छे ड़खािनयाँ होती ह। कभी भगवान् से भी हास-प रहास होते
ह। इसी िवनोद-परंपरा के एक जीवंत तीक ह ख र काका। वह का य-
शा -चचा म म रहते ह और अपने वा वै च य से चम कार क सृि करते
ह।
ख र काका म त जीव ह। ठंढाई छानते ह और आनंद-िवनोद क वषा
करते ह। मौज म आकर अ भुत रस क धारा बहा देते ह। वह अ खड़
ता कक ह। शा ाथ म िकसी क रयायत नह करते। रामचं जी क
ससुराल (िम थला) के िनवासी होने के नाते वह भगवान् से भी मीठी
चुटिकयाँ लेना अपना ज म स अ धकार मानते ह। तब और क या
ह ती! वह जन पर लगते ह, उ ह यं य के रस-रंग से शराबोर कर देते ह।
उनक हा य-लहरी म पड़कर शा -पुराण, वग-नरक, पाप-पु य, सभी
क नाव डगमगाने लगती ह। यं य-िवनोद क बाढ़ म बड़े-बड़े देवता भस
जाते ह!
कबीरदास क तरह ख र काका भी उलटी गंगा बहा देते ह। उनक
बात एक-से-एक अनूठी, िनराली और च कानेवाली होती ह। जैसे, चारी
को वेद नह पढ़ना चािहए। सती-सािव ी के उपा यान क याओं के हाथ म
नह देना चािहए। पुराण बहू-बेिटय के यो य नह ह। दगु ा क कथा ैण क
रची हुई है। गीता म ीकृ ण ने अजुन को फुसला लया है। दशनशा क
रचना र सी देखकर हुई। असली ा ण िवदेश म ह। मूखता के धान
कारण ह पं डतगण। दही- चउड़ा-चीनी सां य के ि गुण ह। वग जाने से
धम हो जाता है!
इस कार ख र काका भंग क तरंग म रंग-िबरंग क फुलझिड़याँ
छोड़ते रहते ह। वह सोमरस को भंग स करते ह, और आयव ु द को
महाका य! भगवान् को कभी मौसा बनाते ह, कभी समधी! कभी उ ह
ना तक मा णत करते ह, कभी खलनायक! वह षोडशोपचार पूजा को
एकांक नाटक मानते ह और कामदेव को असली सृि क ा! उ ह उपिनष
म िवषयानंद, वेद-वेदांत म वाममाग और सां य-दशन म िवपरीत र त क
झाँिकयाँ िमलती ह! वह अपने तक-कौशल से पा त य ही को य भचार
स करते ह और असती को सती!
ख र काका हँसी-हँसी म भी जो उलटा-सीधा बोल जाते ह, उसे
मा णत िकये िबना नह छोड़ते। ोता को अपने तक-जाल म उलझाकर
उसे भूल-भुलय ै ा म डाल देना उनका ि य कौतुक है। वह तसवीर का ख
य पलट देते ह िक सारे प र े य ही बदल जाते ह। रामायण, महाभारत,
गीता, वेदांत, वेद, पुराण, सभी उलट जाते ह। बड़े-बड़े िद गज च र बौने-
िव ूप बन जाते ह। स ांतवादी सनक स होते ह, और जीव मु िम ी
के ल दे! देवतागण गोबर-गणेश तीत होते ह। धमराज अधमराज, और
स यनारायण अस यनारायण भा सत होते ह! आदश के च काटू न जैसे
ि गोचर होते ह। वह ऐसा च मा लगा देते ह िक दिु नया ही उलटी नजर
आती है! वह अपनी बात के जाद ू से बु को स मोिहत कर उसे शीषासन
करा देते ह।
क र पं डत को खं डत करने म ख र काका बेजोड़ ह। पाखंड-खंडन
म वह माण और यं य-वाण क ऐसी झिड़याँ लगा देते ह, जनका जवाब
नह । क: सम: क रवय य मालती-पु प-मदने! उनके लए सभी शा पुराण
ह तामलकवत् ह। वह शा को गद क तरह उछालकर खेलते ह। और,
खेल-ही-खेल म फ लत यो तष को छ लत यो तष, मुहूत-िव ा को धूत-
िव ा, तं -मं को ष ं और धमशा को वाथशा मा णत कर देते
ह। इसी तरह वह आ मा, पुनज म, वग, मो और क ध याँ
उड़ाकर रख देते ह।
ख र-दशन क मा यता है–सव रसमयं जगत्। उनके रसवाद म षट् रस
और नवरस, अमरस और का यरस, पानी के बताश क तरह घुलिमलकर
एकाकार हो जाते ह। सां य क कृ त, वेदांत क माया, पुराण क देवी
और वग क अ सरा के भेद िमट जाते ह। ृगं ार और भि म उ ह चोली-
दामन का र ता नजर आता है और वैरा य म भी रस-कलश क झलक
िमलती है।
ख र काका का स ांत है–रसं पी वा रसं वदेत्। वह जो बोलते ह,
उसम रस घोल देते ह। जस तरह उनक ठंढाई म गुलाब क प य के
साथ-साथ काली िमच भी रहती ह, उसी तरह उनक रस-वा ा म
अलंकार-माधुय के साथ-साथ यं य-िव ूप-िवडंबना के तेज मसाले भी
रहते ह। ख र काका क ख ी-मीठी-तीखी बात म लोग को चटपटी चाट
का मजा आता है। उनके उ कट प रहास म भी वही जायका है जो िमच के
अँचार म। जैसे ससुराल क अ ील गा लयाँ भी मीठी लगती ह, वैसे ही
ख र काका के कटु -मधु मजाक भी बारात के हलके-फुलके वा वनोद क
तरह ि य लगते ह। न नमयु ं वचनं िहन त!
ख र काका के यं य नावक के तीर होते ह। पर वे नुक ले, कटीले और
चुटीले होते हुए भी रसीले होते ह। वे कुमकुम क तरह मीठी चोट करते ह,
रेशमी फुहार क तरह गुदगुदा देते ह। मगर कभी-कभी मोटी िपचका रय
क तेज धार तलिमला भी देती है। ज क होली क तरह। फागुन क
मदम पुरवैया क तरह ख र काका क लहर म भी िनरंकुश व ीड़ा क
म ती रहती है। उसी को लेकर तो ख र व है।
ख र काका को कोई ‘चावाक’ (ना तक) कहते ह, कोई ‘प धर’
(ता कक), कोई ‘गोनू झा’ (िवदषू क)! कोई उनके िवनोद को तकपूण मानते
ह, कोई उनके तक को िवनोदपूण मानते ह। ख र काका व तुत: या ह,
यह एक पहेली है। पर वह जो भी ह , वह शु िवनोद-भाव से मनोरंजन का
साद िवतरण करते ह, इस लए लोग के ि य पा ह। उनक बात म कुछ
ऐसा रस है, जो तप य को भी आकृ कर लेता है।
आज से लगभग पचीस वष पहले ख र काका मै थली भाषा म कट हुए।
ज म लेते ही वह स हो उठे । िम थला के घर-घर म उनका नाम खर
गया। जब उनक कुछ िवनोद-वा ाएँ ‘कहानी’, ‘धमयगु ’ आिद म छप तो
हदी पाठक को भी एक नया वाद िमला। गुजराती पाठक ने भी उनक
चाशनी चखी। उ ह कई भाषाओं ने अपनाया। वह इतने बहुच चत और
लोकि य हुए िक ददू -दरू से चि याँ आने लग –“यह ख र काका कौन ह,
कहाँ रहते ह, उनक और-और वा ाएँ कहाँ िमलगी?”
बहुत िदन से सािह यक बंधुओ ं क फरमाइश थी िक ख र काका क
छटपुट िवनोदवा ाओं को मै थली क तरह हदी म भी पु तकाकार लाया
जाय। अवकाश ा होने पर मने उ ह नये सरे से सजाना-सँवारना शु
िकया और िवगत कई महीन के प र म के फल व प ख र काका
अ भनव प म आपके सामने ह। मै थली के ‘कका’ से हदी के इस
‘काका’ म आकार क वृ तो हुई ही है, कार म भी कुछ िवशेषता आयी
है। मै थली सं करण क क तपय आं च लक वा ाओं को हटाकर हदी े
के अनुकूल उपयु साम ी जोड़ी गयी है। िफर भी कह -कह
आं च लकताओं के झाँक -दशन हो जाएँ गे। अंचल के बेल-बूट क तरह।
मै थली के ‘चूड़ा’ ( चउड़ा), ‘नस’ (नास) जैसे कुछ कोमल श द को
यथावत् रहने िदया गया है। आव यकतानुसार कह -कह फुटनोट भी दे
िदये गये ह। ख र काका के इस हदी प को यथासंभव मूल क तरह ही
रोचक, आकषक बनाने क चे ा क गयी है।
राजकमल काशन क बंध-िनदे शका ीमती शीला संधू ने इस पु तक
के काशन म जो च ली है और मेरी सुिवधा क ि से पटना म मु ण
क यव था क है, तदथ म उनका आभारी हूँ। ि य जगदीशजी ने जस
िदलच पी के साथ छपाई क है, तदथ वह भी ध यवादाह ह। िफर भी ेस
क मशीन यदा-कदा अनजाने मजाक कर बैठती है। कह ‘दयामय’
‘दवामय’ बन गये ह। कह ‘िम लता’ का आकार भंग हो गया है! इस तरह
न जाने िकतनी ुिटयाँ ह गी! अत: उदार पाठक से ाथना है–
यद र-पद ं मा ाहीनं च यद भवेत्
यदसाधु च तत् यं हो लकाप रहासवत्!
यिद इस हा य- यं य-िवनोदमय कृ त से िव ान का कुछ भी प रतोष
हुआ तो वही लेखक का पा रतोिषक होगा। जस कार गीतगो वदकार
जयदेव ने अपने पाठक को रस-िनमं ण िदया था, उसी कार ख र काका
क ओर से भी हा य-िनमं ण िदया जा सकता है–
यिद िवनोदरसे सरसं मन:
यिद च का यकलासु कुतूहलम्
िविवधशा पुराणंकथािदकम्
ृणु तदा प रहास-िवज पतम्!
रानीघाट, पटना
20.8.1971
–लेखक
अनु म
ख र काका क िवनोद-वा ा
रामायण
गीता
महाभारत
आदश च र
स यनारायण
दगु ापाठ
देवता
फ लत यो तष
चं हण
आयव
ु द
भूत का मं
शा के वचन
ा ण-भोजन
भगवान क चचा
धम-िवचार
मो -िववेचन
पं डतजी
ाचीन सं कृ त
ानंद
का य का रस
यगु -लहरी
पुराण क चाशनी
वैिदक तरंग
रामायण
ख र काका रामनवमी के फलाहार के लए िकशिमश चुन रहे थे।
मने कहा–ख र काका, आज रात मैदान म रामलीला है। च लएगा?
ख र काका ने पूछा–कौन-सी लीला होगी?
म–सीता-वनवास।
ख.–तब नह जाऊँगा।
म–सो य , ख र काका? मयादा पु षो म एक से एक आदश िदखा
गये ह।
ख र काका बोले–हाँ, सो तो िदखा ही गये ह। अबला को कैसे दःु ख
देना चािहए! सती-सा वी प नी को कैसे घर से िनकाल देना चािहए! िकसी
ी क नाक कटवा लो। िकसी ी पर तीर छोड़ दो। समझो तो नारी को
लाने से ही उनक वीरता शु होती है, और उसी से समा भी।
म–ख र काका, भगवान् ने मनु य का अवतार लेकर ये सब लीलाएँ क
ह।
ख र काका बोले– या िबना िन ु रता के लीला नह हो सकती थी?
लेिकन असल म उनका उतना दोष नह है। उ ह आिद म ही िव ािम जैसे
गु िमल गये, ज ह ने तारकावध से ही िव ारंभ कराया। नह तो राम का
थम वाण कह ी पर छूटता? लेिकन िव ािम क तो उलटी खोपड़ी
थी। उ ह ने अपने नाम म अिम श द को िम स करने के लए याकरण
का िनयम उलट िदया, राज ष से ष बनने के लए वण यव था का
िनयम पलट िदया, व श के साथ त पधा करने म नी त-मयादा को
कमनाशा म भसा िदया। िफर राम को या श ा देते? वयम स : कथं
परान् साधय त!
मने कहा–ख र काका, रामचं जी याय का आदश िदखा गये ह। याय
क खा तर सीता जैसी प नी को भी वनवास देने म कंु िठत नह हुए।
ख र काका बोले–नह जी। इनके कुल क री त ही ऐसी थी। बाप ने
इनको वनवास िदया। इ ह ने ी को वनवास िदया। तुम याय क दहु ाई
देते हो। याय या यही है िक िकसी के कहने पर िकसी को फाँसी पर चढ़ा
िदया जाय? याय ही करना था तो वादी- तवादी, दोन को राजसभा म
बुलाते। दोन प के व य सुनकर याय-सभा म जो िन प िनणय होता,
सो करते। परंतु सो सब तो िकया नह । चुपचाप सीताजी को वन म भेज
िदया। यह कौन आदश हुआ? एक साधारण जा को जतना अ धकार
िमलना चािहए, उतना भी सीता महारानी को नह िमला।
म–परंतु रामजी को तो जा-रंजन का आदश िदखलाना था…
ख र काका–गलत बात। अयो या क जा यह कभी नह चाहती थी।
इसी लए रातोरात चुपके से रथ हाँका गया। और, ल मण तो सबम हा जर।
शूपणखा क नाक काटो, तो चाकू लेकर तैयार! सीता को जंगल म छोड़
आओ, तो रथ लेकर तैयार! सुबह होते ही जा को खबर हुई तो संपूण
अयो या म हाहाकार मच गया। परंतु राजा राम ने अपने हठ के आगे जा
क ाथना सुनी ही कब? अपने वनवास म जा क कौन-सी बात रखी िक
सीता-वनवास म रखते!
मने कहा–ख र काका, वह तो िपता का वचन पालन करने के लए
वनवास गये थे।
ख र काका बोले–जरा तकशा लगाओ। वनवास का या अथ?
सवषु वनेषु वास: (सभी वन म वास) अथवा क म वने वास: (िकसी
वन म वास)? यिद पहला अथ लो, तो सो उ ह ने िकया नह । संभव भी नह
था। और, यिद दस ू रा अथ लो, तो िफर अयो या के िनकट ही िकसी वन म
रह जाते। च कूट म ही चौदह वष िबता देते। तो भी िपता क आ ा का
पालन हो जाता। िफर, हजार मील दरू भटकने क या ज रत थी! सो भी
पैदल, सुकुमारी सीता को साथ लेकर! यही बात िम थला के नैया यक
(गौतम) ने पूछी, तो राम कुछ उ र नह दे सके। खीझकर कह िदया–
य: पठैत् गौतम िव ां ृगालीयोिनमा नुयात्!
(जो गौतम क िव ा पढ़े, सो गीदड़ होकर ज म ले।)
भला, यह भी कोई जवाब हुआ! या शा ाथ करना भूँकना है? वह
िम थला का याय पढ़े रहते, तो अ याय नह करते।
ख र काका गरी काटते हुए बोले–मान लो, यिद जनता एक वर से
यही कहती िक सीता को रा य से िनवा सत कर दी जए, तथािप राम का
अपना क य या था? जब वह जानते थे िक महारानी िनद ष ह,
अि परी ा म उ ीण हो चुक ह, तब संसार के कहने से ही या? वह अपने
याय पर अटल रहते। यिद जा-िव ोह क आशंका होती, तो पुन: भरत
को ग ी पर बैठाकर दोन जने जंगल क राह पकड़ते; तब आदश-पालन
कहलाता। परंतु राजा राम ने केवल रा य ही समझा, ेम नह । महारानी
सीता तो अपने प नीधम के आगे संसार का सा ा य ठु करा देत , लेिकन
राम राजा अपने प तधम के आगे अयो या क ग ी नह छोड़ सके। सती-
शरोम ण सीता के लए वह उतना भी याग नह कर सके, जतना
िवलायत के एक बादशाह (अ म एडवड) ने अपनी एक चहेती ( स सन) के
लए िकया!
म–ख र काका, जान पड़ता है सीता-वनवास से आपको गहरा ोभ
है।
ख.– य न हो? सीता का जीवन दःु ख म ही गया। बेचारी को कभी
सुख नसीब नह हुआ। जंगल म कहाँ-कहाँ वामी के साथ भटकती िफरी
और जब महल म रहने का समय आया, तो िनकाल दी गयी। वन म तो हाय
सीता! हाय सीता! उनके लए आकाश-पाताल एक कर िदया गया। समु
पर पुल बाँधा गया। और वही सीता जब लौटकर आयी, तो घर म रहने भी
नह पायी। इसी से तो िम थला के लोग कहते ह िक प म क तरफ बेटी
नह याहनी चािहए!
ख र काका क आँ ख म पानी भर आया। वह थोड़ी देर ु ध रहे।
िफर कहने लगे–सीता के समान देवी के त ऐसी िनदयता! वह तन, मन,
वचन से राम क सेवा म लीन रही। उनके चरण के पीछे -पीछे चली। िकन-
िकन दगु म अर य म घूमी! उ ह के तोष के लए आग तक म कूद पड़ी!
अि - वेश के समय सीताजी ने कहा था–
जौ मन वच म मम उर माह
त ज रघुवीर आन ग त नाह
तौ कृसानु सब कै ग त जाना
म कहँ होउ ीखंड समाना
और अि क वाला चंदन के समान शीतल बन गयी!
ीखंड सम पावक वेश िकया सुिम र भु मै थली
वह तपाए हुए सोने क तरह चमकती हुई बाहर िनकल आयी। परंतु
उस सव े सती के साथ कैसा दयहीन यवहार हुआ! आठव महीने म
घर से िनकाल दी गयी। िन ु रता क ब लहारी है! सीता िम थला क क या
थी; ‘सी’ अ र बोलनेवाली नह । तभी तो! और जगह क होती तो िदखा
देती। अजी, म पूछता हूँ, यिद संबध
ं ही तोड़ना था तो सीताजी को िपता के
घर जनकपुर भेज देते। वैसे घोर जंगल म कैसे भेजा गया! बेचारी सीता को
इस पृ वी पर याय क आशा नह रही, तो पाताल म वेश कर गयी। जस
िम ी क कोख से िनकली थी, िफर उसी म िवलीन हो गयी। िव क
सव े सती का ऐसा क ण अंत! तभी तो पृ वी फट गयी!
मने सां वना देने के िनिम कहा–ख र काका, फसाद क जड़ हुई वह
धोिबन।
ख र काका क आँ ख लाल हो गय । बोले–म तुमसे पूछता हूँ िक कोई
धोबी ठकर गधे क पीठ पर से िगर जाय, तो या म तु हारी काक को
घर से िनकाल दँगू ा? परंतु रामचं को तो वैसे ही लोग का यादा साथ
रहा। िनषाद, केवट, भ नी, गीध, भालू, बंदर–इ ह सबके बीच तो रहे।
बाप ने मूखा दासी क बात पर बेटे को वनवास िदया, इ ह ने मूख धोबी क
बात पर ी को वनवास िदया। उनके दरबार म छोट क ही चलती थी। घर
म मंथरा, बाहर म दमु ख।
ु
म–ख र काका, वह नी त के पालनाथ…
ख र काका बोले–नी त नह , अनी त कहो। यिद नी त का ही आदश
िदखलाना था, तो िफर बा ल को उस तरह पेड़ क आड़ से छपकर य
मारा? आमने-सामने लड़कर मारते। उस समय कालहुँ डरै न रन रघुवंशी
वाला वचन कहाँ गया! इसी लए बा ल ने चुटक ली थी–
धरम हेतु अवतरेउ गोसाई ं
मारेहु मोिह याध क नाई ं
यिद मयादा क र ा करनी थी, तो वही अनी त करने के कारण सु ीव
को भी य नह दंड िदया? िवभीषण को य नह मारा? रामायणकार को
भी वीकार करना पड़ा है–
जेिह अघ बधेउ याध जिम बाली
िफ र सुकंठ सोइ क ह कुचाली
सोइ करतूत िवभीषण केरी
सपनेहु सो न राम िहय हेरी
ाणदंड िदया िकसको तो बेचारे शंबूक को, जो चुपचाप सा वक वृ
से तप या कर रहा था।
म–परंतु मयादा पु षो म…
ख.–तुम मयादा पु षो म कहो, परंतु मुझे तो उनम उतावली ही
िदखलायी पड़ती है। ब े क तरह सुनहले मृग के पीछे य दौड़ गये! सीता
के िवयोग म पेड़ को पकड़-पकड़कर य लाप करने लगे? कहाँ तो
सु ीव से इतनी गाढ़ दो ती, और जहाँ बेचारे को सीता क खोज म कुछ देर
हुई िक तुरत
ं धनुषवाण लेकर तैयार! न तो समु क पूजा करते देर और न
उस पर यंचा कसते देर! और, जब ल मण को शि वाण लगा तो
रणभूिम म िवलाप करने लगे। ऐसी अधीरता कह वीर को शोभा देती है!
ख र काका बादाम काटते हुए बोले–असल म समझो तो राम का दोष
नह है। उनके िपता दशरथ ही ज दबाज थे। शकार खेलने गये। घाट पर
श द सुना। चट तीर छोड़ िदया। यह नह सोचा िक कोई आदमी भी तो वहाँ
हो सकता है। बेचारे वणकुमार को बेध िदया। अंधा िपता पु िवयोग म मर
गया। उसका फल िमला िक वह वयं भी पु िवयोग म मरे। अजी, दो
पटरािनयाँ थ ही, तो बुढ़ापे म तीसरी शादी करने का शौक य चराया?
और, वृ य त णी भाया ाणे योिप गरीयसी। कैकेयी म ऐसे ल हो गये
िक यु े म भी िबना उ ह बगल म बैठाये रथ पर नह चलते थे। और, रथ
भी कैसा था िक असली मौके पर ही टू ट गया। नाम तो दशरथ! और, एक
रथ भी काम का नह ! नह तो कैकेयी को पिहए म अपनी कलाई य
लगानी पड़ती? और, ब लहारी है उस कलाई क भी जो धुरी म पड़कर भी
नह लचक । तभी तो रानी का कलेजा भी वैसा ही कठोर था! िकसी तरह
प नी के ताप से वृ राजा के ाण बच गये। ी को आँ ख मूँदकर वचन
िदया–तुम जो माँगोगी, वह दँगू ा। इतनी बु नह िक यिद आकाश का तारा
माँग बैठी, तब या क ँ गा! और, जब राम का वनवास माँगा तो राजा
छटपटाने लगे। कैकेयी ने तो बहुत पत रखी। यिद कह कलेजा माँग बैठती
तो स यपालक दशरथ महाराज या करते? और, जब एक बार वचन दे ही
िदया तो पीछे छाती य पीटने लगे? चौदह वष के बाद तो िफर बेटे का
राज होता ही। तब तक धैय से ती ा करते। यिद बहुत अ धक पु नेह था
तो खुद भी साथ लग जाते। सो सब तो िकया नह । हा राम! हा राम! करते
हुए ाण याग िदया। ि य का दय कह ऐसा कमजोर हो!
मने देखा िक ख र काका जस पर लगते उसका बंटाधार ही कर देते
ह। अभी दशरथजी पर लगे हुए ह। का यत: कहा–ख र काका, और लोग
रामायण के च र से श ा हण करते ह…
ख र काका– श ा तो म भी हण करता हूँ। िबना देखे तीर नह
चलाना चािहए। िबना िवचारे वचन नह देना चािहए। वचन दे देने पर छाती
नह पीटनी चािहए।
म–ख र काका, आप केवल दोष ही देखते ह?
ख.–तो गुण तु ह िदखलाओ।
म–दे खए, महाराज दशरथ कैसे स यिन थे…
ख.–िक नकली वणकुमार बनकर अंधे िपता को फुसलाने गये!
म–रामचं कैसे िपतृभ थे…
ख.–िक िपता क मृ यु का समाचार पाकर भी नह लौटे! ये पु
होकर भी िपता का ा तक नह िकया! सीधे द ण क ओर बढ़ते चले
गये।
म–ल मण कैसे ातृभ थे…
ख.–िक एक भाई (राम) क ओर से, दस
ू रे भाई (भरत) पर धनुष-वाण
लेकर तैयार हो गये।
म–भरत कैसे यागी थे…
ख.–िक चौदह वष तक भाई क खोज-खबर नह ली! राजधानी से
फुसत िमलती, तब तो जंगल म जाकर पता लगाते! अजी, यिद वह
अयो या से सेना सजाकर ले जाते तो राम को बंदर का सहारा य लेना
पड़ता?
म–हनुमानजी कैसे वािमभ थे…
ख.–िक अपने वामी सु ीव को छोड़कर दस
ू रे क सेवा म चले गये।
म–िवभीषण कैसे आदश थे…
ख.–िक घर का भेिदया लंका डाह करा िदया। ऐसे िवभीषण से भगवान्
देश को बचाव।
म–तो आपके जानते रामायण म एक भी पा आदश नह है?
ख.–है य नह ! मुझे समूची रामायण म एक ही पा आदश जान
पड़ता है!
म–वह कौन है?
ख र काका मु कुराते हुए बोले–रावण।
म–आपको तो हमेशा मजाक ही सूझता है।
ख.–हँसी नह करता हूँ। तुम रावण म एक भी दोष िदखलाओ।
म–ध य ह ख र काका! और लोग को रावण म दोष ही दोष दीखते ह,
और आपको एक भी नह ?
ख.–तो तु ह बतलाओ।
म–वह सीता को हरकर ले गया…
ख.–सो तो मयादा पु षो म को श ा देने के लए िक िकसी क बहन
का नाक-कान नह काटना चािहए। परदेश म रहकर िकसी से वैर नह मोल
लेना चािहए। मृगमरी चका के पीछे नह दौड़ना चािहए। िकसी ी का
अपमान नह करना चािहए। देखो, लंका ले जाकर भी रावण ने सीता का
अपमान नह िकया। रिनवास म नह ले गया, अशोकवािटका म रखा। लोग
रा स कह, परंतु उसका यवहार जैसा स यतापूण हुआ है, वैसा िवरले ही
मनु य का होता है।
म–ख र काका, आप तो उलटी गंगा बहा देते ह। रावण जैसे अ यायी
का प हण करके सीताप त सुंदर याम को…
ख.–सीताप त िन ु र याम कहो। िवदेह क क या अयो या गयी,
इसका फल हुआ िक िफर लौटकर मायके का मुँह नह देख सक । इसी से
तो हम लोग प म से भड़कते ह।
म–ख र काका, आपको सीता के ससुरालवाल से शकायत है। यिद
रामचं जी से आपक भट होती तो या कहते? णाम भी करते िक नह ?
ख र-काका चलगोजे छुड़ाते हुए बोले– णाम कैसे करता? म ा ण,
वह ि य। हाँ, आशीवाद अव य देता िक “सुबु हो। अब आगे रामराज
हो, तो ऐसा मत क जएगा, जससे लोग ‘ छ: छ: राम राम’ कर! िकसी मेरे
जैसे ा ण को मं ी बनाइएगा।”
मने कहा–ख र काका, रामराज तो आदश माना जाता है।
ख र काका बोले–हाँ। गुसाई ंजी लखते ह–
न ह द र कोउ दख
ु ी न दीना.
म रहता तो जोड़ देता–
केवल सीता भा य िवहीना!
कह रामराज क तरह ामराज भी चलने लगे, तो न जान िकतनी
सीताएँ िम ी म िमल जाएँ गी।
म–ख र काका, आप राम-नवमी का त रखते ह। मन म तो भि
रखते ही ह गे।
ख.–सो सीतादेवी के कारण। नह तो, वह सीधे रघुप त राघव राजा
राम रहते। प ततपावन सीताराम नह कहलाते। जो-जो काम उ ह ने िकए
ह, वे सब तो ि य राजा करते ही ह। केवल एक ही बात को लेकर उनक
े ता है िक दस ू री प नी उ ह ने नह क । जानक जी क वण- तमा
बनाकर शेष जीवन िबताया। इसी बात पर म उनके सारे अपराध माफ कर
देता हूँ। सीता को लेकर ही राम का मह व है। इसी से पहले सीता, तब राम।
गो वामी तुलसीदास कहते ह–
सयाराम मय सब जग जानी
करउँ नाम जो र जुग पानी
मह ष वा मीिक भी कहते ह–
सीताया: पतये नम:
म–ख र काका, आपको सीताजी म इतनी ा है तो िफर रामजी को
ऐसा य कहते ह? उनके िपता तक को आपने नह छोड़ा।
ख र काका हँस पड़े। बोले–अजी, तुम इतना भी नह समझते हो! म
उनक ससुराल का आदमी हूँ न! ससुराल का नाई भी गा लयाँ देता है, तो
मीठी लगती ह। और, म तो ा ण ठहरा। दस ू रा ऐसा कहेगा सो मजाल है?
परंतु िम थलावासी तो कहगे ही। मै थल का मुँह बंद कर द, सो साम य
भगवान् म भी नह है।
गीता
ख र काका मेरे हाथ म ‘गीता’ देखकर बोले– या आजकल गीतापाठ
करने लगे हो? तब तो तुमसे दरू ही रहना चािहए।
मने चिकत होकर पूछा–सो य , ख र काका?
ख र काका बोले–देखो, पहले अजुन म मनु यता थी। ‘ये भाई ह, ये
चाचा ह, यह बाबा ह, इन पर कैसे हाथ उठाव?’ परंतु गीता का आसव
पीकर वह इस तरह वाणवषा करने लग गये िक वृ िपतामह तक क छाती
छलनी कर दी। इसी से मुझे भी भय होता है िक कभी िकसी बात को लेकर
तकरार हो जाय, और तुम भी अजुन क तरह िन पृह योगी बनकर सोचने
लगो–
नैनं छदं त श ा ण नैनं दह त पावक:
(गीता 2 । 23)
“ख र काका क आ मा को तो श काट ही नह सकता है, तो िफर
य न एक गडाँसा कसकर लगा िदया जाय?”
और काक रोना-धोना शु कर, तो समझाने लगो िक–
वासां स जीणािन यथा िवहाय
नवािन गृ ा त नरोऽपरा ण
तथा शरीरा ण िवहाय जीणा
य यािन संया त नवािन देही
(गीता 2 । 22)
“काकाजी का चोला बदल गया है। नया शरीर िमल गया है। आप खुश
होकर सोहर गाय। िवलाप य कर रही ह?”
यिद गाँव के नवयव
ु क गीता के उपदेश पर चलने लग, तो िकतने चाचा
मारे जायगे, िकतनी चा चयाँ िवधवा ह गी, इसका िठकाना नह । इसी लए म
हाथ जोड़ता हूँ। पढ़ना ही है तो गीतगो वद पढ़ो, मगर गीता का चसका मत
लगाओ।
मने कहा–ख र काका, लोग कहते ह िक गीता अ हसा-वैरा य क
श ा देती है।
ख र काका बोले–अजी, म तो सीधी बात जानता हूँ। यिद अजुन गीता
का उपदेश सुनने के बाद गांडीव फककर गे आ व धारण करते, कवच
उतारकर कमंडल हण करते और कु े छोड़ वाराह े का माग
पकड़ते, तब म मान लेता िक गीता म अ हसा-वैरा य भरा है। परंतु वह तो
म यवेध क तरह भाई-बंधुओ ं का म तक-वेध करने लगे!
अजी, एक तो य ही आजकल बछ -भाले िनकलते रहते ह, अगर उन
पर गीता क सान चढ़ गयी, तो येक गाँव कु े बन जायेगा। अतएव म
हाथ जोड़ता हूँ, अभी गम खून म गीता मत पढ़ो।
मने कहा–ख र काका, हो सकता है िक गीताकार का वा तिवक
अ भ ाय कुछ और हो।
ख र काका िबगड़कर बोले–दस ू रा अ भ ाय म कैसे समझूँ? वयं
गीताकार ही तो सारथी बनकर आगे बैठे थे। तब उ ह ने रथ मोड़ य नह
लया? वह कहते– “ओ अजुन! मने तु ह इतना ान िदया है िक यह शरीर
न र है, संसार णभंगुर है, ह तनापुर क या ह ती? एक िदन िम ी म
िमल जायगा। इस कारण तुम र क धारा य बहाओगे? सांसा रक सुख
तु छ है। तुम रा य क कामना छोड़ दो। या ग ी क खा तर वृ िपतामह
एवं पू य ोणाचाय पर तीर छोड़ना तु ह शोभा देगा? यही न होगा िक लोग
हँसगे िक ि य होकर मैदान छोड़ िदया। परंतु जो यथाथ ानी होते ह, वे
नदा या शंसा से िवच लत नह होते। छोड़ो इस झमेले को, और चलो मेरे
साथ िहमालय।” लेिकन ये सब बात तो उ ह ने कह नह । उलटे, उ ह ने
अजुन को लड़ने के लए भड़का िदया। और तुम समझते हो िक गीता म
अ हसा और वैरा य भरा है। हाय रे बु !
मने कहा–ख र काका, बड़े-बड़े लोग गीता के ारा िव -शां त थािपत
करना चाहते ह और आपको उसम यु का संदेश िमलता है?
ख र काका ने मु कुराकर कहा–तुमने आ हा सुना है? िकस कार
गाकर जोश बढ़ाया जाता है–आ खर राम करै सो हो, एक िदन सबको मरना
होगा। और, उसी बोल पर िकतने कटकर मर जाते ह। मुझे तो वही ललकार
गीता म भी सुनायी पड़ती है–
अंतवंत इमे देहा: िन य यो ाः शरी रणः
अना शनोऽ मेय य त मा यु य व भारत
(गीता 2 । 18)
लेिकन “कभी तो मरना ही है, इस लए अभी मर जाओ”–यह तक तो
मुझे नह जँचता।
मने कहा–ख र काका, भगवान् का कहना है िक जीव का कभी नाश
नह होता है।
ख र काका बोले–यिद जीव का नाश नह होता है, तो खून क सजा
फाँसी य होती है? ीकृ ण अजुन को तो उपदेश देते ह िक–
गतासूनगतासूं नानुशोचं त पं डता:
(गीता 2 । 11)
परंतु जब अ भम यु का वध होता है, तो वह ान कहाँ िवलीन हो जाता
है? यिद वा तव म यही बात स य है िक–
न जायते ि यते वा कदा चत्
नायं भू वा भिवता वा न भूय:
अजो िन य: शा तोऽयं पुराण:
न ह यते ह यमाने शरीरे
(गीता 2 । 20)
तब िफर जय थ से बदला लेने के लए इतना पंच य रचा गया?
उस समय यह वचन य भूल गये िक–
दःु खे वनुि मना: सुखेषु िवगत पृहः
वीतरागभय ोधः थतधीमुिन यते
अजी, तुम अभी ब े हो। इन बात को नह समझोगे।
मने कहा–ख र काका, कहा जाता है–
सव पिनषदो गावो दो धा गोपालनंदन:
पाथ व स: सुधीभ ा द ु धं गीतामृतं महत्
सम त उपिनषद का मंथन कर कृ ण भगवान् ने गीता पी अमृत
िनकालकर अजुन पी बछड़े को पान कराया है।
ख र काका मु कुराते बोले–हाँ! अजुन तो ब छया के ताऊ थे ही।
तभी तो ीकृ ण ने उ ह पुचकारकर लड़ाई म जोत िदया। एक तरह देखा
जाय तो अजुन को फुसलाने के लए ही गीता क रचना हुई है। ीकृ ण को
लड़ाने क इ छा थी। अजुन क पीठ ठ क दी, और वयं महाभारत का
तमाशा देखते रहे। अजुन पर इस तरह याम-रंग चढ़ गया िक उ ह ने संपूण
वंश को मिटयामेट कर िदया।
मने कहा–ख र काका, अजुन ने अनास होकर यु िकया। रा य के
लोभ से नह ।
ख र काका यं य करते हुए बोले–हाँ! ह तनापुर क ग ी तु हारे ही
नाम से वसीयत कर गये ह! अजी, यिद अनास रहते, तो सौ चचेरे भाइय
के शो णत से अपना रा या भषेक करते! हाय रे िद ी! तेरे चलते इतना
र पात हुआ िक आज तक िकले का रंग लाल है।
मने कहा–ध य ह, ख र काका! कहाँ से कहाँ शह चला देते ह!
ख र काका अपनी धुन म कहने लगे–देखो, ीकृ ण को लड़ाना था
और अजुन को अपनी बु थी ही नह । इसी से जो-जो मन म आया, कृ ण
कहते गये–“शरीर नाशवान् है, इस लए यु करो। आ मा अमर है, इस लए
यु करो। ि य हो, इस लए यु करो। नह लड़ने से नदा होगी, इस लए
यु करो।”
ख र काका के ह ठ पर मु कान आ गयी। बोले– ीकृ ण अजुन को
तो यह उपदेश देते ह िक ि य के लए रण छोड़कर भाग जाने से मरण
अ छा है। और, वयं जो रण छोड़कर भागे सो अभी तक रणछोड़ कहला
रहे ह। इसी को कहते ह–परोपदेशे पां ड यम्। लेिकन अजुन को इतनी बु
कहाँ िक जवाब दे सकते! गटगट सुनते गये। और, जब सबकुछ सुनकर भी
अजुन के प े कुछ नह पड़ा, तब कृ ण ने अपना िवकराल प िदखाकर
अजुन को डरा िदया–“यिद उस तरह नह समझोगे, तो इस तरह समझो।”
ख र काका को हँसी लग गयी। बोले–मुझे एक बात याद आती है। एक
बार तु हारी चाची काशी नान करने जा रही थ । उनके साथ एक पाँच
साल का ब ा था। वह भी साथ जाने के लए जद करने लगा। मने उसे
बहुत तरह से समझाया िक “नदी म तेज बहाव है, वहाँ ब े डू ब जाते ह।
पानी म मगर रहते ह, पकड़ लेते ह। मत जाओ।” जब वह िकसी तरह नह
माना, तब रामलीला वाले रा स का चेहरा लगाकर उसे डरा िदया। वह
देखते ही जो सीधा हुआ, सो िफर य मचलेगा? ऐ भाई! मुझे तो उस ब े
म और अजुन म कोई खास अंतर नह जान पड़ता है।
मने कहा–ख र काका, गीता म जो इतना ानयोग, भि योग, कमयोग
भरा है…
ख र काका बोले–सभी योग का ल य यही है िक त मात् यु य व
भारत। यानी “कौरव को मारो।” अजुन िकसी तरह लड़ने को तैयार हो,
इसी लए इतना सारा िन काम कम और अनासि योग का महाजाल रचा
गया। उसम अजुन क बु उलझ गयी और ीकृ ण ने उ ह जैसे नचाना
चाहा, नचाया। परंतु जसे समझने क शि है, वह तो भगवान् क चालाक
समझेगा ही।
मने कहा–ख र काका, भगवान् ने अजुन को कैसे फुसलाया? मेरी
समझ म तो नह आता।
ख र काका बोले–तु हारी या िबसात? बड़े-बड़े पं डत क समझ म
नह आता। परंतु मुझे तो िबलकुल साफ नजर आता है। भगवान् कहते ह
िक–
जहा त यदा कामान् सवान् पाथ मनोगतान्
आ म येवा मना तु : थत तदो यते
(गीता 2 । 55)
अथात्, ‘जो सारी इ छाओं का याग कर देते ह, वे ही यथाथ ानी
ह।’ तब िफर रा य और वग का लोभन य देते ह?
हतो वा ा य स वग ज वा वा भो यसे महीम्
त माद ु क तेय यु ाय कृतिन य:
(गीता 2 । 37)
“हे अजुन! यिद मरोगे, तो वग िमलेगा। जीतोगे, तो रा य िमलेगा।
तु हारे दोन हाथ लड् डू ह। अतएव उठो और यु करो।”
ख र काका मु कुराते हुए बोले–अजुन ने तकशा नह पढ़ा था, इसी
कारण उभयत: पाश म बँध गये। यिद म रहता, तो कहता–‘हे कृपािनधान!
एक तृतीय कोिट भी तो हो सकती है िक वे अजुन को पकड़कर बंदी बना
ल,’ तब तो माया िमली न राम! परंतु अजुन तो सीधे धनुधर थे। िकसी
प धर 1 से भगवान् को भट होती, तब न! म तो पूछता–“ऐ महाराज! जब
सारे मनोरथ यथ ह, तब िफर आप यह रथ य चला रहे ह?”
मने कहा–ख र काका, आप हर जगह अपना तकशा लगा देते ह!
ख र काका बोले–कैसे न लगाऊँ, जी? यही तो अपने देश क मु य
िव ा है। खंडन म ऐसी सू म ि और िकसक हो सकती है?
ख र काका सरौते से सुपारी काटते हुए बोले–देखो, एक थान पर तो
ीकृ ण उपदेश देते ह िक–
समद:ु खसुख: व थ: समलो ा मकंचन:
तु यि याि योधीर: तु य नदा मसं तु त:
(गीता 14 । 24)
अथात् “ नदा- शंसा, दोन को एक समान समझना चािहए।”
और, दस
ू री जगह यह भी कहते ह िक–
अक त चािप भूतािन कथ य यं त तेऽ ययाम्
संभािवत य चाक त: मरणाद त र यते
(गीता 2 । 34)
अथात् “यु नह करोगे तो तु हारी नदा होगी, इससे तो मर जाना ही
अ छा है।” एक बार तो अनास कम क श ा देते ह िक–
सुखद:ु खे समे कृ वा लाभालाभौ जयाजयौ
ततो यु ाय यु य व नैवं पापमवा य स
(गीता 2 । 38)
अथात् “हार-जीत दोन को बराबर समझकर लड़ो।”
और बाद म जीत का लोभ भी देते ह िक–
त मात् उ यशो लभ व
ज वा श ून् भुं व रा यं समृ म्
(गीता 11 । 33)
“हे अजुन! उठो, यश ा करो और श ु को जीतकर रा य भोगो।”
अब तु ह कहो िक जब सुख-दःु ख, जय-पराजय, यश-अपयश, सब
समान ह, तब िफर भगवान् िवजय एवं यश का लोभन य देते ह?
मुझे चुप देखकर ख र काका बोले–अजी, एक बात म पूछता हूँ।
भगवान् कहते ह िक–
ई र: सवभूतानां ेशेऽजुन त त
ामयन् सवभूतािन यं ा ढािन मायया
(गीता 18 । 61)
अथात् ई र ही अपनी माया के भाव से सबको कठपुतली क तरह
नचा रहे ह। यिद यही बात स य है, तब िफर इतनी माथा-प ी क या
ज रत थी? सीधे अपना यं घुमा देते। उनक इ छा के सामने अजुन क
या चलती? तब िफर यह य कहते ह िक–
यथे छ स तथा कु
(गीता 18 । 63)
अथात् “तु हारी जैसी इ छा हो, करो।”
और, यिद यही बात थी, तो इसी पर कायम रहते।
िफर ऐसा य िक–
सवधमान् प र य य मामेकं शरणं ज
अहं वां सवपापे यः मो य यािम मा शुच:
(गीता 18 । 66)
“तुम सभी धम छोड़कर मेरी शरण म आ जाओ, म तु ह सभी पाप से
मु कर दँगू ा।”
अजी, ऐसा तो कोई पंडा, पुरोिहत या पादरी बोले! भगवान् को या
ऐसा कहना शोभा देता है? और यिद अंत म यही बात कहनी थी, तो िफर
सात सौ ोक क या ज रत थी? एक ही ोकाध म कह देते–
अहमा ापयािम वां त मात् यु य व भारत
(‘हे अजुन! म तु ह आ ा देता हूँ, इस लए यु करो।’)
मने कहा–ख र काका, म तो समझता हूँ िक सम त गीता का िन कष
है–िन काम कम।
ख र काका बोले–अजी, यही तो मेरी समझ म नह आता है।
इ छाकृत कम भी कह िन काम होता है? जो भी काय िकया जाता है,
िकसी-न-िकसी कामना से े रत होकर। ‘सारी कामनाओं का याग कर
द’–यह भी तो एक कामना ही हुई। िन काम कम कहने म वदतो याघात
दोष है।
मने कहा–ख र काका, आपके तक म म कह तक िटक सकता हूँ?
परंतु जीवनमु को तो कोई भी कामना नह रहती है।
ख र काका मु कुराते बोले–भई, मुझे तो आज तक कोई जीवनमु
नह िमले। यिद कोई िमल जाते तो एक स टा लगाकर देखता िक उनक
थत ता कहाँ तक कायम रहती है। अजी, ये सब कहने-सुनने क बात
ह।
मने गंभीर होकर कहा–तब या आपका खयाल है िक भगवान् ने
अजुन को लड़ाने के लए गीता रची है?
ख र काका ठठाकर हँस पड़े। एक चुटक सुपारी का कतरा मुँह म
डालकर बोले–अजी, तुम कहाँ हो? ये सब किव क क पनाएँ ह। किव को
तो कोई आधार चािहए। अपने का य का चम कार िदखलाने के लए िकसी
ने रामचं जी का संग लेकर रामगीता बना दी, िकसी ने शव का संग
लेकर शवगीता बना दी, िकसी ने गोपी का संग लेकर गोपीगीता बना दी।
इसी तरह िकसी ने अपना ान बघारने के लए कु े क पृ भूिम म
भगव गीता क रचना कर दी। तु ह बताओ िक घमासान यु के अ ारह
अ याय गीता कहने या सुनने क फुसत िकसको थी? या उस बीच म
अ ारह अ ौिहणी सेना ाटक मु ा लगाए कंु भक ाणायाम साध रही थी?
और, संजय क आँ ख म टे लिवजन लगा हुआ था? किव को िकसी याज
से सां ययोग एवं वेदांत क पं डताई छाँटनी थी, सो उ ह ने छाँटी है।
मने कहा–ख र काका, तो आपक ि म गीता से कोई लाभ नह ?
ख र काका मु कुराते हुए बोले–लाभ य नह ? एक लाभ तो यही िक
इससे प रवार-िनयोजन म सहायता पहुँच सकती है।
मने पूछा–सो कैसे, ख र काका?
ख र काका बोले–देखो, गीता का संदेश है–
कम येवा धकार ते मा फलेषु कदाचन
(गीता 2 । 47)
इस ोक म संत त-िनरोध का मं छपा है।
मने चिकत होकर पूछा–सो कैसे, ख र काका?
ख र काका बोले– “केवल कम करते जाओ, फल क कामना मत
रखो।” यहाँ फल का अथ संतान समझो। अब म यादा खोलकर कैसे
कहूँ? चचा जो हूँ!
मने कहा–ख र काका, आप तो हर बात म िवनोद क पुट दे देते ह।
गीता का उपदेश है िक अनास होकर कम करना चािहए।
ख र काका बोले–हाँ जी। इस उपदेश पर अमल िकया जाए तो देश म
ां त नह होगी। को हू के बैल को गुड़ क चेक से या योजन? यिद
इतना ान मजदरू को जो जाय तो िफर कारखान म हड़ताल य होगी?
लेिकन आजकल तो देश म उलटी गीता चल पड़ी है–
फले वेवा धकार तु मा कम ण कदाचन
इस िन कम भोगवाद क लहर को रोकने के लए एक नयी गीता देश
को चािहए, जो कम और फल दोन को साथ लेकर चले। वह गीता अब
कु े म नह , कृिष े म बनेगी। उस गीता से कु (वंश) का अंत हुआ
था, इस गीता से कु मं का उदय होगा। तभी तो सुजलाम्, सुफलाम्,
श य यामलाम् वाला रा -गीत साथक हो सकेगा।
आगे क पीिढ़याँ पूछगी–
कम े े कृिष े े समवेता क षव:
मामका:पूवजा ैव िकमकुवत भारते?
1. िम थला के एक स नैयािनक (प धर िम )।
महाभारत
म ातः ोक पढ़ रहा था–
पु य ोको नलोराजा पु य ोको यु धि र:
तब तक पहुँच गये ख र काका। बोले– या सबेर-े सबेरे कापु ष के
नाम ले रहे हो!
मने कहा–ख र काका, धमराज जैसे महापु ष को आप ऐसा कहते ह?
ख र काका बोले–धमराज नह , मूखराज। जो जुए के पीछे अपना
राज-पाट गँवाकर ीपयत को हार जाय और जंगल म मारा-मारा िफरे,
उसे और या कहगे? उनका एक ही जोड़ा है–राजा नल। वह भी जुए के
पीछे अपना सव व गँवाकर जंगल क खाक छानने गये और वहाँ अपनी
सोयी हुई प नी को अधन छोड़कर चुपके से भाग गये। नल और यु धि र
दोन एक ही जुए म जोतने यो य ह। जसने यह ोक बनाया है, उसने खूब
जोड़ा िमलाया है।
म–ख र काका, यु धि र महाभारत के आदश पा ह, जनसे श ा
िमलती है।
ख.–हाँ, सबसे बड़ी श ा तो यह िमलती है िक खानदान म एक भी
नालायक पैदा होने से संपूण वंश का नाश हो जाता है। यिद यु धि र
जुआरी नह िनकलते, तो महाभारत का संहारकारी यु य छड़ता?
म–ख र काका, लोग कहते ह िक कौरव के अ याय से महाभारत का
यु हुआ और आप उलटे यु धि र के म थे दोष मढ़ते ह।
ख.–तुम वयं सोचकर देखो। यिद यु धि र महाराज जुआ खेलने नह
जाते तो इतना होता य ? जोश पर पासा फकते गये। प नी तक को दाँव
पर चढ़ा िदया। अजी, बेवकूफ को तो लोग भड़काते ही ह। इनक अपनी
अ कहाँ चरने गयी थी! और जब हार ही गये तो इसम दस ू र का या
दोष? चुप लगा जाते। यह या िक हार भी जाएँ गे और ग ी भी चाहगे!
म–ख र काका, ौपदी पर उतना अ याचार हुआ, सो आप नह
देखते?
ख र काका बोले–तुम ौपदी का दोष य नह देखते? दयु धन महल
देखने आये थे। उ ह नया संगममर देखकर जल का म हो गया। उस पर
ौपदी खल खलाकर बोल उठी–“अंधे का बेटा अंधा ही होता है।” अब
तु ह कहो, यह िकतनी बड़ी बदतमीजी हुई! या कोई भी सल कुलवधू
सुर-भसुर के त ऐसे श द का यवहार कर सकती है? लेिकन पग वता
ौपदी को तो कभी जेठे-छोटे का लेहाज नह रहा। पाँच पांडव को एक ही
लाठी से हाँकती थी। ब क, यु धि र पर और भी यादा ध स जमाती थी।
मगर कौरव तो वैसे गावदी नह थे जो चुपचाप अपमान क घूँट पीकर रह
जाते। वे अपने िपता के असली पु थे। उ ह ने कसकर बदला लया।
म–परंतु धमराज यु धि र तो सा ात् धमपु …
ख र काका बीच म ही काटते बोले–धमपु नह , अधमपु कहो। और,
बराबर ‘धम-राज’ क रट या लगाये जा रहे हो! जो यु धि र अपने छोटे
भाई अजुन क वयंवर-प रणीता प नी, अनुजवधू ौपदी को गभवती करने
म नह िहचके, उ ह तुम धमराज कहते हो? ऐसे को तो अधमराज कहना
चािहए।
म–परंतु यह तो माता कंु ती क आ ा थी िक ‘पाँच भाई बराबर-बराबर
बाँट लो।’
ख र काका उ े जत होकर बोले–अजी, पांचाली या पंचामृत साद
थी, जो इस तरह िवतरण िकया गया? यह तो गनीमत समझो िक पांचाली के
पाँच अंग का बँटवारा नह िकया गया। नह तो बेचारी क और गत बन
जाती। िफर भी या कम ददु शा हुई? पाँच पु ष के बीच एक ी! उस पर
सबका हक! जैसे, वह नारी नह हो, साझे क गुड़गुड़ी हो! बारी-बारी से पी
लो! या भले आदिमय का यही तरीका है? सच पूछो तो पांडव लोग प तत
थे। उ ह ने कुल को डु बो िदया।
इसी से तो एक बार कण ने भरी सभा म कहा था िक पांचाली धमप नी
नह , पाँच क रखेली है।
एको भ ा या: देवै विहत: कु नंदन
इयं वनेकवशगा बंधक त िविन ता
(महाभारत : सभापव)
म–ख र काका, कौरव ने उतना अ याय िकया। दःु शासन भरी सभा म
ौपदी क साड़ी तक खोलने लगा। अब इससे बढ़कर अपमान या होगा?
ख र काका बोले–िवचारकर देखो तो ौपदी का अपमान वयं
यु धि र ने िकया, ज ह ने प नी क देह का खुला िव ापन करते हुए उसे
दाँव पर चढ़ा िदया।
नैव वा न महती न कुशा ना तरोिहणी
नीलकंु चतकेशी सा तया दी या यहं वया
(महाभारत : सभापव)
“मेरी प नी न नाटी है, न बहुत लंबी है, न दबु ली-पतली है, न बहुत
मोटी है (अथात् म यमांगी है), उसके काले-काले घुँघराले बाल ह। म उसी
को पासे पर चढ़ा रहा हूँ।” इस तरह तो वह बोले जो ी का दलाल हो!
और जब वह हार गये, तो दःु शासन को बदला साधने का मौका िमल
गया। उस सुकेशी को केश पकड़कर ख च लाया।
ज ाह केशेषु नरे प नीम्
आनीय कृ णाम त दीघकेशाम्
(महाभारत : सभापव)
जानते हो, ौपदी ने उस समय यु धि र क कैसी भ सना क थी!
मूढो राजा ूतमदन म ः
को िह दी येत् भायया राजपु ः!
(महाभारत : सभापव)
“ऐसा मूख राजा कौन होगा जो जुए के नशे म होश गँवाकर अपनी ी
को दाँव पर चढ़ा दे?”
जब दःु शासन ौपदी को पकड़कर सभा म ले जाने लगा, तब वह धीरे-
धीरे बोली–म अभी रज वला हूँ। एक ही कपड़े म हूँ। उतने लोग के बीच
कैसे ले जाओगे?
सा कृ यमाणा निमतांगयि :
शनै वाचाथ रज वला म
एकं च वासो मम मंदबु े
सभां नेतुं नाह स मामनाय।
(महाभारत : सभापव)
इस पर दःु शासन ने जवाब िदया–
रज वला वा भव या सेिन
एकांवरा वाऽ यथवा िवव ा
ूते जता चा स कृता स दासी
दासीषु वास यथोपजोषम्
(महाभारत : सभापव)
“तुम रज वला रहो, एकव ा रहो या िवव ा रहो, हमने तु ह जुए म
जीत लया है। अब तुम हमारी दासी हो। जो मन म आवेगा, करगे।”
तदनंतर ख चातानी होने लगी–
क णकेशी प तताधव ा
दःु शासनेन यवधूयमाना
(महाभारत : सभापव)
ौपदी के केश छतरा गये, आधी साड़ी नीचे िगर गयी। बेचारी हाथ से
छाती छपाती हुई िगड़िगड़ाने लगी–
मा मा िवव ां कु मां िवकाष :
(मुझे िब कुल न मत करो)
तथा ुवंती क णं सुम यमा
भतृन् कटा :ै कुिपता प यत्
(म. व.)
इस तरह क ण ाथना करती हुई उसने कुिपत ि से अपने प तय
क ओर देखा। लेिकन तथािप
ततो दःु शासनो राजन् ौप ा: वसनं बलात्
सभाम ये समा य यपा ु ं च मे
(म. व.)
दःु शासन जबद ती उसक साड़ी ख चकर उसे नंगी करने लगा।
उधर ौपदी क लाज लूटी जा रही थी, इधर पांडव लोग चुपचाप सभा
म बैठे रहे! प नी पर बला कार होते हुए देखकर भी वे थत क तरह
िन वकार देखते रहे। उनक आँ ख का पानी िगर चुका था।
मने कहा–ख र काका, उस समय मौका नह था।
ख र काका डाँटते हुए बोले–अब उससे बढ़कर कैसा मौका होता, जी?
जरा भी आन रहती तो वह जान दे देते। दःु शासन पुर टू ट पड़ते। मर
िमटते। अजुन-भीम क गांडीव-गदा िकस िदन के लए थी?
ख र काका थोड़ी देर ु ध रहे। िफर कहने लगे–तभी तो ौपदी ने एक
बार खीझ कर कहा था–
नैव मे पतय: सं त
(म. व.)
“मेरे ये प त प त नह ह।”
यह कहकर वह हाथ से मुँह ढककर रोने लगी थी।
इ यु वा ा दत् कृ णा मुखं ा छा पा णना
(म. व.)
उस क ण ं दन म अ ुओ ं क इतनी वषा हुई िक–
तनावप ततौ पीनौ सुजातौ शुभल णौ
अ यवषत पांचाली दःु खजैर ु वद ु भः
(म. व.)
पांचाली क सुपु छा तयाँ भ गकर सराबोर हो गय । लेिकन तो भी
प तय क छाती म जोश का उफान नह आया! वे नामद क तरह उ ह
ताकते रह गये। तभी तो एक बार उवशी ने अजुन को ध ारते हुए कहा था
िक “तुम पु ष नह , नपुस
ं क हो; य के बीच जाकर नाचो।”
त मात् वं नतन: पाथ ीम ये मानव जत:
अपुमािन त िव यात: षंडव िवच र य स
(म. व.)
मने कहा–ख र काका, पांडव तो वीरता के लए यात थे। िवशेषत:
अजुन।
ख र काका सुपारी कतरते हुए कहने लगे–अजी, अपनी आँ ख के
सामने अपनी प नी को िवराट् राजा के महल म दासी का काम करते
देखकर भी जनके गले म कौर नह अटकता था, उन पांडव को म वीर
कैसे मान लूँ? अजुन म पु षाथ रहता तो जनखे क तरह दाढ़ी-मूँछ
मुड़ाकर, लहँगा-चोली पहनकर, बृह ला के वेष म राजक या को नाच
सखलाने पर रहते! और, भीम तो भोजन-भ ही ठहरे। भोनू भाव न जाने,
पेट भरे से काम! जब बड़ का ही यह हाल, तो नकुल-सहदेव क या
िगनती!
मने कहा–ख र काका, उस समय पांडव लोग अ ातवास म थे।
ख र काका बोले–सच पूछो तो वे लोग मुँह िदखाने लायक थे भी नह ।
जस कृ ण ने अजुन क खा तर उतना िकया, कृ णा क लाज बचायी,
उ ह कृ ण क बहन सुभ ा को अजुन भगाकर ले गये। इतना भी िवचार
नह िकया िक मामा क बेटी, ममेरी बहन है! अजुन अपनी ममेरी बहन को
भगा लाये। भीम अपनी मौसेरी ( शशुपाल क बहन) को। इन लोग ने सब
धम-कम कर िदया।
मुझे ु ध देखकर ख र काका कहने लगे–सोचकर देखो तो पांडव का
मूल ही है। पांडवा: जारजाता:।
पांडव के िपता पांडु वयं अपनी प नय (कंु ती, मा ी) से पु उ प
करने म असमथ थे। अतएव पाँच देवताओं को आवाहन कर पंचपांडव क
उ प करायी गयी। अजी, इससे तो पांडु िनःसंतान ही मर जाते, सो
अ छा था। जसे सौ भतीजे ह , उसे वंश बढ़ाने क इतनी लालसा य ?
और, सो भी दस ू र के भरोसे! यिद पांडु भी भी म क तरह संतोष कर लेते,
तो राजग ी के लए झगड़ा ही नह उठता। धृतरा के पु रा को धारण
िकये रह जाते। लेिकन पांडु क आँ ख पर तो पी लया छाया हुआ था।
उनके जारज पु ने कुल को भसा िदया।
मने देखा िक ख र काका अभी पांडव पर लगे हुए ह। म उनके साथ
या बहस करता? पुन: तो पढ़ने लगा–
अह या ौपदी तारा कंु ती मंदोदरी तथा
पंचक या: मरे यं महापातकनाशनम्
ख र काका िफर टोक बैठे–अह या, ौपदी, तारा, कंु ती, मंदोदरी–ये
पाँच तो शादीशुदा थ । तब पंचक या य कहते हो? और उ ह
ातः मरणीया य समझते हो?
मने कहा–वे प त ता थ ।
ख र काका बोले–इनम कौन प त ता थी? अह या ने ऐसा कम िकया
िक पाषाणी हो गयी। तारा और मंदोदरी अपने देवर क अंकशा यनी बन ।
और कंु ती- ौपदी क तो बात ही िनराली है।
पंच भः कािमता कंु ती पंच भः ौपदी तथा
सती त क यते लोके यशो भा येन ल यते
(सुभािषत)
सास ने पाँच का तोष रखा तो िफर बहू य पीछे रहती? वह भी पाँच
क दल
ु ारी बनकर रही।
अजी, ौपदी िनरंतर प तय को ताश क प य क तरह बदलती
रही। वयं लाल पान क बीबी बनकर प तय को गुलाम बनाए रही। वह
प त के कंधे पर चढ़कर चलनेवाली प नी थी। एक बार वन म चलते-चलते
िगर गयी, तो यु धि र रोने लग गये–
िकिमदं ूतकामेन मया कृतमबु ना
आदाय कृ णां चरता वने मृगगणायत
ु े
शेते िनप तता भूमौ पाप य मम कम भ:
(म. व.)
“ छ:! म कैसा मूख िनकला िक जुए के फेर म पड़कर आज ऐसी
सुकुमारी राजक या को लेकर जंगली जानवर के बीच वन म भटक रहा हूँ!
मेरे ही पाप के फल से बेचारी भूिम पर पड़ी हुई है।”
भीम, नकुल आिद उसे गोद म उठाकर ले चलने को तैयार हो गये।
एकप नी होकर रहती तो ऐसी खा तर होती? पंच-प नी ने येक प त से
एक-एक पु ा िकया।
मने पूछा– या महाभारत काल म य को इतनी अ धक व छं दता
थी?
ख र काका बोले–इसम या संदेह? देखो–
सुषवे िपतृगेह था प ात् पांडुप र ह:
जिनत सुत: पूव पांडुना सा िववािहता
(देवी भागवत)
कंु ती जब वाँरी थ , तभी पु - सिवनी हो चुक थ । उनक बहू
पांचाली वयंवर म एक का वरण करने पर भी पंचप नी बनकर रही। कंु ती
क पौ वधू उ रा ने िववाह से सातव महीने म ही पु (परी त) को ज म
िदया। अजी, बड़े घर क बड़ी बात होती ह। उन िदन एक से एक ौढ़ा
राजक याएँ होती थ , जो जानबूझकर अपना अपहरण करवाती थ । अंबा,
अंिबका, अंबा लका, तीन प रप व कुमा रयाँ थ । पूणयौवना सुभ ा रैवतक
पवत पर मेले से भगा ली गयी। शकंु तला और दमयंती का हाल जानते ही
हो। श म ा और देवयानी छे ड़खािनयाँ करने म आधुिनक यगु का भी कान
काट गयी ह। वाणासुर क क या उषा ऐसी बला िनकली िक सोये हुए
अिन को जबद ती अपने शयनागार म मँगवाकर…
संभोगं कारयामास बुबुधे न िदवािनशम्!
( वैवत)
अजी, कहाँ तक िगनाऊँ? इ ह लोग के उपा यान से तो महाभारत
भरा हुआ है। का य-पुराण म सामा य गृिह णय का वणन थोड़े ही रहता है?
मने पूछा–ख र काका, महाभारत से या श ा िमलती है?
ख र काका बोले–एक श ा तो यही िमलती है िक
ीषु द ु ासु वा णय जायते वणसंकर:
कुल ये ण यं त कुलधमा: सनातना:
(गीता 1 । 40-41)
जब कुल क याँ दिू षत हो जाती ह, तो वणसंकर उ प होते ह,
और वे कुल का नाश कर देते ह। जैसे पांडु के पु ने िकया।
ख र काका बोले–उ ह वयं प त ने िकया। आजकल तो
िनयोजन का फैशन है। लेिकन उन िदन िनयोग क था थी। अथात्, पु -
ाि के लए पर-पु ष से समागम करने का िवधान था। य िक उस समय
सती व-र ा से अ धक वंश-र ा का मह व था। अपु य ग तना त।
इसी लए पांडु ने वयं अपनी प नय को आ ा दी, ब क खुशामद क , िक
िकसी से पु उ प करवाओ। देखो, वह कंु ती को कैसे समझाते ह!
प या िनयु ा या चैव प नी पु ाथमेव च
न क र य त त या भिवता पातकं भुिव
(म. आिद पव)
अथात्, “प त के कहने पर जो भी ी पु - ाि के िनिम पर-पु ष से
सचन नह करवाती, वह पाप क भािगनी होती है।”
इतना ही नह , वह कई नज़ीर भी पेश करते ह–
उ ालक य पु ेण ध या वै ेतकेतुना
सौदासेन च रंभो : िनयु ा पु ज मिन
एवं कृतवती साऽिप भ ु: ि य चक षया
अ माकमिप ते ज म िविदतं कमले णे।
(म. आ.)
और तो और, वह अपनी ही माता (अंबा लका) का हवाला देते हुए
कहते ह, िक “मेरा (पा डु का) ज म भी तो िनयोग से ही हुआ है, सो तुम
जानती ही हो!”
अब ऐसी हालत म बेचारी कंु ती या मा ी या करत ? वे अपने प त क
आ ा शरोधाय कर अपनी सास के चरण- च पर चल ।
मने पूछा–ख र काका, पांडु क माता ने ऐसा य िकया था?
ख र काका बोले–उ ह ने अपनी सास स यवती क आ ा से ऐसा
िकया था। देखो, स यवती अपनी पु वधू को कैसी श ा दे रही ह!
न ं च भारतं वष पुनरेव समु र
पु ं जनय सु ो ण, देवराजसम भम्
(म. आ.)
अथात्, “हे सुंदरी! भारतवष न हो रहा है। उसका उ ार तु हारे ही
हाथ म है। िकसी से इं के समान तेज वी पु जनमाओ।”
इतना ही नह , इस पु य काय के लए एक सुयो य यि ( यास) क
सफा रश भी करती ह। सो भी भी म से, जो अंबा लका के भसुर थे!
जब भी म कंु िठत होने लगे, तब स यवती ने कुछ लजाते हुए िवहँसकर
कहा–तु ह एक रह य बता रही हूँ। जब म यौवन-काल म म यगंधा नाम से
िव यात थी, तब एक बार पराशर मुिन मेरी नाव म आये थे। यमुना पार
करने के लए। म भी उसी नाव पर थी। वह मुझे देखकर मोिहत हो गये।
लेिकन िदन के काश म लोग के सामने अपनी इ छा कैसे पूरी करते? तब
उ ह ने योगबल से घना कुहासा उ प कर भोग िकया, जससे मुझे एक पु
उ प हुआ। वह पु यास के नाम से स है। तुम उ ह यास को
बुलाकर ले आओ।
तव नुमते भी म िनयतं स महातपा:
िव च वीय े ेषु पु ानु पाद य य त
(म. आ.)
“वही यास िव च वीय क िवधवा प नय (अंिबका, अंबा लका) के
गभ से पु उ प कर दगे।”
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–तब यास बुलाये गये। उ ह
के वीय से पांडु और धृतरा का ज म हुआ। िनयोग के समय अंिबका ने
आँ ख मूँद ली थ , इस लए उ ह ज मांध पु हुआ। अंबा लका ने चंदन लेप
कर लया था, इस लए पांडु पु हुआ। यास अंबा लका से अ धक संतु
हुए। इसी लए उ ह ने उसके वंशधर (पांडव ) का इतना प लया है।
मने पूछा–ख र काका, उतने बड़े ानी होकर भी यास य भचार कम
म कैसे वृ हुए?
ख र काका बोले–देखो, आ मा वैजायते पु :। यास के िपता पराशर
मुिन ने भी तो वही िकया था!
म यगंधां ज ाह मुिन: कामातुर: तदा
(देवी भागवत)
कामातुर होकर म यगंधा को पकड़ लया था। और, जब बेचारी
मछुआइन क या डरते-डरते बोली–
िपतरं क वी य सगभा चे भवा यहम्
वं गिम य स भु वा मां क करोिम वद व तत्
(दे. भा.)
“आप तो भोग कर चले जाइएगा और मुझे गभ रह गया तो अपने िपता
से या कहूँगी?”
तब पराशर ने आशीवाद िदया था–
पुराणक ा पु ते भिव य त वरानने
वेदिव भागक ा च यात भुवन ये
(दे. भा.)
अथात्, “तु हारे गभ से जो पु होगा वह वेद म पारंगत और पुराण का
क ा होगा।” वही पु यास हुए। उनका ज म ीप म हुआ था इस लए
ैपायन कहलाए। ैपायन यास अपना पैतृक सं कार कैसे छोड़ते? जब
रिनवास क काम-कला वीणा दासी ने उ ह पूणतया संतु िकया तो
इ ह ने भी आशीवाद िदया िक “तु हारे गभ से धमा मा पु (िवदरु ) उ प
होगा।”
संतोिषत तया यासो दा या कामकलािवदा
िवदरु स्ंतु समु प ो धमाशः स यवान् शु च:
(दे. भा.)
इसी लए, देखते नह हो, महाभारत म यास ने िवदरु क िकतनी बड़ाई
क है!
ख र काका ने एक चुटक सुपारी का कतरा मुँह म रखा। बोले–देखो
जी, य भचार का प रणाम अ छा नह होता। यास को भी तो पीछे जाकर
प ा ाप हुआ है।
य भचारो भवा: िक मे सुखदा: य:ु सुता: िकल
(दे. भा.)
“ या मेरे ये य भचारजात पु क याणकारी ह गे?”
अजुन के मन म भी तो आ म लािन उ प हुई थी!
दोषैरत
े ःै कुल नानां वणसंकरकारकै:
उ स ंते जा तधमाः कुलधमा शा ता:
(गीता 1 । 43)
अजी, एक बार कुल म दाग लग जाने पर ज द नह िमटता। उसे धोने
के लए बहुत िदन तक ाय करना पड़ता है।
ख र काका िफर बोले–देखो जी, गतानुग तको लोक:!
स यवती से अंबा लका ने सीखा, अंबा लका से कंु ती ने सीखा, कंु ती
से ौपदी ने सीखा। इसी कार िव च वीय के कुल म िव च परंपरा चल
पड़ी और कुलवधुएँ दिू षत होती गय । उनके वणसंकर पु ने जो कुल वंस
िकया, वह तो िविदत ही है। महाभारत मनन करने क व तु है। उसम या
नह है? य भारते त भारते!
मने कहा–परंतु महाभारत के असली सू धार तो ीकृ ण थे।
ख र काका बोले–हाँ, उ ह के बल पर तो अजुन कूदते थे। जैसे, खँट
ू े
के जोर पर बछड़ा कूदता है। धमयु होता तो पांडव लोग कभी नह
जीतते। लेिकन छ लया कृ ण ने वैसा नह होने िदया। महाभारत म आिद से
अंत तक अधमयु हुआ है। कण, ोण, भी म, जय थ, सबका वध तो
अ याय से ही िकया गया है। िफर भी गीताकार कहते ह–धम े े कु े े!
मुझे तो यह सरासर यं य जैसा मालूम होता है। यास ने कहा है–यतो
धम ततो जय:। लेिकन महाभारत म यतोऽधम ततो जय: हुआ। इसी लए
तो वह जय भी य के प म प रणत हो गयी!
मने कहा–ख र काका, महाभारत का मूल कारण हुआ दःु शासन ारा
चीरहरण।
ख र काका बोले–हाँ, दःु शासन ने एक चीरहरण िकया, उस पर तो
महाभारत मच गया, और ीकृ ण ने उतना चीरहरण िकया सो शु भागवत
बनकर रह गया! परंतु कम का फल एक न एक िदन भोगना ही पड़ता है।
ज ह ने गोिपय के साथ उतना रास रचाया, उनक य को भी अंत म
अहीर लोग लूटकर ले गये। देखो–
कृ णप य: तदा माग चौराभीरै लुिं टताः
धनं सव गृहीतं च िन तेजा ाजुनोऽभवत्
(देवी भागवत 2 । 7)
जब कृ ण क प नयाँ ारका छोड़कर ह तनापुर जा रही थ , तो
रा ते म लूट ली गय और उनके संर क अजुन मुँह ताकते ही रह गये! उस
समय धनुधर का तेज कहाँ गया? अजी, काल गव हारी होता है। िकसी का
घमंड रहने नह पाता।
ख र काका ने गहरी साँस ली। िफर बोले–िनय त क अ भुत लीला
है। ज ह ने जीवन भर उतने असुर का वध िकया, वह ीकृ ण अंत म एक
बहे लये के तीर के शकार हुए! ह र एक पेड़ के नीचे ह रण के धोखे म मारे
गये और उनक राज-मिहिषयाँ मवेशी क तरह लूट ली गय ! इसे िव ध-
िवडंबना कहा जाय या कमिवपाक?
ीकृ ण ने कु े म भाई-भाई को, सगे-संबं धय को, आपस म
लड़ाकर कु वंश का संहार करा िदया।
कु पांडवयु ं च कारयामास भेदत:
भुवोभारावतरणं चकार यदनु द
ं न:!
( वैवत)
लेिकन यदन
ु द
ं न को उसका फल या िमला? उनका अपना यदवु ंश भी
उसी तरह न हो गया। कु े का बदला भास े म िमल गया।
पु ा: अयु यन् िपतृ भः ातृ भ
िम ा ण िम :ै सु द: सु भः
(भागवत पुराण)
भाई-भाई, बाप-बेटा, सब इस तरह आपस म लड़कर मर िमटे िक
वृ णवंश का िवनाश हो गया। रहा न कोउ कुल रोवनहारा! अजी, िवष-वृ
का फल िवष ही होता है, अमृत नह ।
ख र काका नस लेते हुए बोले–जो अ याय करता है, सो अंत म गल
ही जाता है। तभी तो पांडव लोग िहमालय म गल गये। यु धि र के साथ
राजपाट तो गया नह , गया एक कु ा! ातृ-िवरोध से, नर-संहार से, या
फल िमला? लेिकन तो भी तो हम लोग क आँ ख नह खुलती ह। भगवान्
न कर िक भारत को िफर कभी उस तरह का महाभारत देखना पड़े!
आदश च र
ख र काका ने मेरे हाथ म पु तक देखकर पूछा–आज बड़ी मोटी पु तक
लेकर चले हो, जी!
मने कहा–आदश च रतावली है।
ख र काका मु कुरा उठे । बोले–आजकल कोई इन आदश पर चलने
लगे, तो सीधे पागलखाना पहुँच जाय!
मने कहा–ऐसा य कहते ह, ख र काका? दे खए, स यवादी दानवीर
राजा ह र कैसे थे?
चं टरै सूरज टरै, टरै जगत योहार
पै ढ़ ी ह रचंद को, टरै न स य िवचार!
ख र काका मु कुराते हुए बोले–वाह रे स य िवचार! मान लो, सपने म
तुमने अपना खेत मुझे दान कर िदया, तो या जागने पर द तावेज बना
दोगे? म सपने म िकसी को क यादान कर दँ,ू तो या जागने पर उसे अपना
दामाद बना लूँगा?
मने कहा–ख र काका, वहाँ ता पय है स य क मिहमा िदखलाना।
ख र काका बोले–यह तो मूखता ारंभ हो जाती है। व न म न जान,
लोग िकतनी बे- सर-पैर क बात देखते ह। यिद उ ह सच मानकर चलने
लग, तो या हालत होगी? मगर अपने यहाँ तो कुएँ म भी भंग पड़ी है। हम
जा त् अव था से व न को ही अ धक मह व देते ह। इसी न व पर वेदांत
का भवन खड़ा है। सारा संसार व नवत् है। सव िम या। ब क सुषुि से
भी एक डेग और आगे, तुरीयाव था को, हम आदश मानते ह। िव के और-
और देश म जागृ त के नगाड़े बजते ह, और हमारे यहाँ का मं है–
या देवी सव भूतेषु िन ा पेण सं थता
नम त यै नम त यै नम त यै नमोनम:
(दगु ास शती)
मने कहा–ख र काका, अपने यहाँ का ि कोण आ या मक है।
ख र काका यं यपूवक बोले–हाँ, इस लए हम िदन को रात और रात
को िदन समझते ह!
या िनशा सवभूतानां त यां जाग त संयमी
य यां जा त भूतािन सा िनशा प यतो मुने:
(गीता 2 । 69)
जब सारा संसार जागता है, तब हम सोये रहते ह। और, जब सब सो
जाते ह, तब राि के अंधकार म हम जागते ह। हो सकता है, िकसी प ी से
ेरणा िमली हो।
म–ख र काका, आपका यं य तो ‘नावक का तीर’ होता है। ‘देखन म
छोटौ लगै, घाव करै गंभीर।’
ख र काका बोले–गलत थोड़े ही कहता हूँ? इस देश के प ी भी
त वदश होते ह। शुक, जटाय,ु ग ड़, काक, सभी तो हमारे गु ह। और,
उलूक क तो कोई बात ही नह ! यिद उनम िवशेषता नह होती, तो वैशेिषक
को औलू य दशन य कहा जाता?
मने कहा–ख र काका, राज ष जनक जैसे ानी भी तो इसी देश म
हो गये ह।
ख र काका बोले–अजी, इसी ान ने तो हम लोग को चौपट कर
िदया। िम थलेश जनक का स ांत था–
िम थलायां दी ायां न मे दह त कचन
“सारी िम थला जलकर खाक हो जाय, तो इसम मेरा या िबगड़ता
है?” यिद आज सभी भारतवासी यही आदश मानकर चलने लग, तो इस
देश क या दशा होगी?
मने कहा–ख र काका, उनका आदश था प मप िमवांभसा। जस
कार कमल का प ा जल म रहकर भी असंपृ रहता है, उसी कार
संसार म रहते हुए भी उससे िन ल रहना चािहए।
ख र काका बोले–उपमा तो बड़ी सटीक है। लेिकन एक िदन भी उस
तरह रहकर देखो तो। तुम प म-प क तरह िन वकार बैठे रहो, तो म अभी
जाकर तु हारा समूचा घर-बार दखल कर लूँ।
मने कहा–ख र काका, जनक िवदेह थे। उनके लए जैसे िम ी के ढेले,
वैसे सुंदरी के तन।
ख र काका िवहँसकर बोले–तब तो िवदेह बनने म अिनवचनीय आनंद
है! लेिकन एक बात बताओ िक यिद वह सचमुच िवदेह थे, तो उनके जए
जैसे राम, वैसे रावण। िफर धनुष-य ठानने क या आव यकता थी? और
यिद कह रावण ही धनुष तोड़ देता तो?
मने कहा–ख र काका, मह ष या व य को ली जए। वह कैसे
आ म ानी थे!
ख र काका मु कुराते हुए बोले–ऐसे आ म ानी थे, िक दो-दो प नयाँ
रखते थे। आ मा के लए मै ेयी और शरीर के लए का यायनी।
मने कहा–परंतु गाग के साथ उनका शा ाथ िकतने उ तर पर हुआ
था?
ख र काका बोले–िब कुल बचकाने तर पर हुआ था। जब गाग
पर पूछकर उनको नाकोदम करने लगी, तब झ ा उठे “अब यादा
पूछोगी तो तु हारी गदन कटकर िगर पड़ेगी।”
म–वह कैसे यागी थे?
ख.–ऐसे यागी थे िक शा ाथ से पहले ही सभी गाय को हँकवाकर
अपने घर भेज िदया िक बाद म कह दस
ू रा न ले जाय।
म–यहाँ के ा ण कैसे वीतराग होते थे?
ख.–ऐसे, िक उनक नाक पर हमेशा ोध ही चढ़ा रहता था। भृगु ने
िव णु को लात मार दी। भागव ने अपनी माता क गदन उड़ा दी।
म–मह ष व श और िव ािम कैसे थे?
ख.–दोन वे या-संसग थे। एक उवशी के गभ से िनकले। दस ू रे ने
मेनका को गभ कर िदया। ऋिषय का भीतरी हाल अ सराएँ जानती ह।
म–देव ष नारद कैसे पहुँचे हुए भ थे…
ख.–िक मोिहनी ने बंदर क तरह नचा िदया! अजी, यहाँ के मुिनय को
सुंद रयाँ सदा से अँगु लय पर नचाती आयी ह। एक ूभगं से उनक सारी
तप या भंग कर देत ह।
म– ाद और िवभीषण कैसे धमा मा थे?
ख.–एक ने बाप को मरवाया, दस
ू रे ने भाई को। भगवान् ऐसे आदश से
भारत क र ा कर!
म–भी मिपतामह कैसे मयादा-पालक थे?
ख.– जो भरी सभा म ौपदी को न होते हुए देखकर भी चुप लगा गये!
म– ोणाचाय िकतने महान् थे।
ख.–िक वाथवश एकल य जैसे श य का अँगूठा कटवा लया। आज
का छा रहता, तो दरू से ही अँगूठा िदखा देता!
म–आ ण कैसे गु भ थे…
ख.–जो गु के खेत म आड़ बाँधने के बजाय खुद वहाँ लेट गये! वह
िवशु मूखता का आदश िदखा गये ह। ऐसे ही िव ाथ िढबरी म तेल नह
रहने पर िदन भर सूखे प े बटोरते थे और रात म उ ह जलाकर पढ़ने बैठते
थे।
मने ु ध होते हुए देखा–ख र काका, तब ऐसी कथाओं क कोई
उपयोिगता नह ?
ख र काका बोले–उपयोिगता थी। उस समय के गु चालाक थे।
िव ाथ मंदबु होते थे। इसी लए गु भि के ऐसे-ऐसे उपा यान गढ़े गये
ह। आचाय लोग िव ा थय से गाय चरवाते थे, लकड़ी कटवाते थे। येक
कथा म कुछ न कुछ अ भ ाय भरा है। िकसी ने िबना पूछे पेड़ से अम द
तोड़ लया होगा। उसी को ल त करने के लए शंख- ल खत क कथा रच
डाली गयी। िकसी राजा ने ा ण को गाय देकर छीन ली होगी। उसी को
डराने के लए राजा नृग क कहानी गढ़ दी गयी। राजा नृग ने इतनी हजार
गौएँ दान क , वे तो गय कोठी के कंधे पर! और, एक गाय भूली-भटक
उनके पास लौट आयी तो उ ह हजार वष तक कुएँ म िगरिगट बनकर रहना
पड़ा! अजी, नृग के वंशज को जरा भी अ रही होगी, तो िफर कभी
भूलकर भी गोदान का नाम नह लया होगा।
मने कहा–ख र काका, आपसे कौन बहस करे? मगर दे खए, इसी
भरत भूिम पर कैसे-कैसे राजा हो गये ह! भरत को लेकर हमारे देश का नाम
भारत पड़ा। उनके िपता द ु यंत यहाँ के भूषण थे।
ख र काका बोले–द ु यंत ने कुमारी मुिनक या शकंु तला को दिू षत कर
िदया और पीछे पहचानने से भी इनकार कर िदया। ऐसे लंपट और कायर
राजा को तुम भूषण कहते हो? दषू ण कहो।। द ु यंत नाम भी तो वही सू चत
करता है। अजी, एक से एक कामुक और िवषयलोलुप राजा यहाँ हो गये ह।
राजा यया त क वृ ाव था म इंि य श थल हो जाने पर भी यौन लालसा
नह िमटी तो पु से यौवन उधार माँगकर भोग िकया! ऐसी उ ाम
कामवासना का ांत और िकसी देश के इ तहास म िमलेगा?
मने कहा–ख र काका, आप दस ू रा प य नह देखते ह? इसी देश म
शिव-दधी च जैसे आदश दानवीर भी तो हो गये ह!
ख र काका बोले–हाँ, राजा शिव ने अपना मांस काटकर दान िकया।
दधी च ने अपनी ह ी दान कर दी। तुम भी अपनी नाक काटकर िकसी को
दे दो, तो या म तु ह आदश मान लूँगा?
मने कहा–ख र काका, आप तो ऐसा दो-टू क कह देते ह िक जवाब ही
नह सूझता। लेिकन दे खए, ये सात च र अमर समझे जाते ह–
अ थामा ब ल यास: हनूमां िवभीषण:
कृप: परशुराम स ैते चरजीिवन:
ख र काका मु कुराकर बोले–इस ोक का असली ता पय समझ?
द र ा ण, मूख राजा, खुशामदी पं डत, अंध भ , कृत न भाई, दंभी
आचाय एवं ोधी िव –ये सात च र इस भूिम पर सदा िव मान रहगे।
यह देश का दभ
ु ा य समझो।
मने कहा–ख र काका, अपने यहाँ एक से एक आदश च र भरे पड़े ह
और आपको कोई जँचता ही नह ! दे खए, सती-सािव ी जैसी आदश
देिवयाँ इसी देश म हो गयी ह।
ख र काका बोले–इन देिवय म िकसी ने अपने बाप क बात नह
मानी। माता-िपता से िव ोह कर वे छानुसार ेम-िववाह िकया। इ ह को
तुम आदश मानते हो? आज अगर मेरी बेटी भी वैसा ही करने लग जाय, तो
मुझे कैसा लगेगा? इसी लए म सती-सािव ी के उपा यान अपनी लड़िकय
को नह पढ़ने देता। देखो, यह च रतावली मेरे घर म नह जाने पाए!
मने ु ध होते हुए कहा–इ ह आदश को लेकर तो हमारा देश धम ाण
कहलाता है। यहाँ एक से एक अनुपम आदश हो गये ह!
ख र काका ने कहा–यह बात ठीक कहते हो। यहाँ ऐसे-ऐसे बेजोड़
नमूने हो गये ह, जनका दिु नया म जवाब नह ! मोर वज पर आ त य का
उ माद चढ़ा, तो बेटे को आरे से चीरकर अ त थ के आगे रख िदया! इसे
स ांत कहोगे या पागलपन? िकसी पर दानो माद चढ़ता था; िकसी पर
स यो माद! एक ी पर सती व क सनक सवार हुई, तो कोढ़ी प त को
सर पर लादकर उसे वे या के कोठे पर भोग कराने के लए ले गयी! तुम
इ ह आदश समझते हो। म कहता हूँ, ये लोग मान सक िवकृ तय के शकार
थे।
मने कहा–ख र काका, अपने यहाँ के राजा और ा ण उ स ांत
पर चलते थे।
ख र काका बोले–अजी, राजा के पास बल था, बु नह । ा ण के
पास बु थी, बल नह । एक बात-बात पर श िनकालते थे, दस ू रे बात-
बात पर शा िनकालते थे। एक के हाथ म चाप चढ़ा रहता था। दस ू रे क
ज हा पर शाप चढ़ा रहता था। ा ण को सनक चढ़ती थी, तो कोई वचन
गढ़ लेते थे। राजा को सनक चढ़ती थी तो कोई ण ठान लेते थे। ऐसे-ऐसे
ण के चलते न जान इस देश म िकतने ाण गये ह!
मने कहा–ख र काका, अपने यहाँ तो यह परंपरा रही है िक ाण जा ह
पर वचन न जाह !
ख र काका बोले–यही तो मूखता है। स ांत हमारे लए बने ह; हम
उनके लए नह बने ह। वे हमारे साधन ह, सा य नह । अगर वे ल य क
पू म साधक नह होकर बाधक बन जायँ, तो िकस काम के?
वा सोना को जा रये जा स टू टै कानं!
आज बचपन का मोजा तु ह नह अँटेगा, तो या उसी के मुतािबक
अपना पाँव काट लोगे?
मने कहा–पर स ांत तो मोजे क तरह बदलनेवाली चीज नह है।
ख र काका बोले– य नह है? कभी प त क चता पर सती होनेवाली
ी देवी क तरह पूजी जाती थी। आज कोई ऐसा करने जाय, तो उसे
पु लस पकड़कर ले जाएगी।
मने कहा– कतु जो स ांतवादी ह, वे कानून क दफा के अनुसार थोड़े
ही चलते है?
ख र काका बोले–नह चल। कतु बु के अनुसार तो चलना ही
चािहए। ऐसा कोई स ांत नह है, जस पर आँ ख मूँदकर चला जाय। मान
लो, कोई गु िव ाथ को आदेश देते ह– ‘पूरब क ओर जाओ।’ अब यिद
वह िव ाथ नाक क सीध म बढ़ता चला जाय और िकसी ताड़ के पेड़ से
टकरा जाय और वहाँ जद पकड़ ले िक ‘एक इंच भी पेड़ से इधर या उधर
होकर नह जाऊँगा’, तो या इसे आदश कहोगे या बेवकूफ ? इस
अ खड़पन के चलते िकतने राजा कट मरे, िकतनी रािनयाँ जल मर ,
िकतने महल खँडहर हो गये! सारा इ तहास तो इ ह मूखताओं से भरा है।
मने कहा–ख र काका, तो िफर ऐसे पौरा णक उपा यान य बने?
ख र काका कहने लगे–अजी, राजाओं को ठगने के लए, िव ा थय
और शू से सेवा कराने के लए, य को वश म रखने के लए, इतने सारे
उपा यान गढ़े गये ह। उपा यानकार जस नै तक आदश का च ण करते
ह, उसे पराका ा पर ही पहुँचा देते ह। सती व क मिहमा िदखलानी हुई, तो
िकसी सती के आँ चल से आग क लपट िनकलती है! कोई वामी को
यमराज के हाथ से छीनकर ले आती है! कोई सूय के च े को रोककर काल
क ग त बंद कर देती है! िबना अ तशयोि के उ ह बोलना ही नह आता।
नतीजा यह हुआ िक आदश के च फोटो नह होकर महज काटू न (िव ूप)
बन गये ह।
मने पूछा–तब इन पौरा णक आदश का कोई मू य नह ?
ख र काका बोले–वही मू य, जो अजायबघर म रखी, पुरानी जंग-लगी
ढाल-तलवार का होता है। वे दशन के लए होते ह, यवहार के लए नह ।
म–ख र काका, च र - च ण म इतनी अ तशयोि य है?
ख र काका बोले–अजी, अ तशयोि हमारे र म है। वैिदक यगु से ही
हम जसक शंसा करते ह, उसे वमक: वं सोम: करते हुए आकाश पर
चढ़ा देते ह। जसक नदा करनी होती है, उसे पाताल म धँसा देते ह। ‘जेिह
िग र चरण देिह हनुमत
ं ा, सो च ल जाँिह पताल तुरत
ं ा!’ बीच का रा ता हम
जानते ही नह ।
देखो न, हमारा सारा सािह य ही अ तशयोि य से भरा हुआ है। बड़ी
आँ ख अ छी लग तो उ ह कान तक सटा िदया। पु पयोधर पसंद आये,
तो उ ह कलश के बराबर बना िदया। अजी, सब बात क एक सीमा होती
है। यहाँ तो कोई सीमा ही नह !
मुख म ती त व यं दशह ता हरीतक !
जसे जो मन म आया, लख मारा। कोई पहाड़ उठा लेता है! कोई
समु सोख जाता है! कोई पृ वी को दाँत म रख लेता है! कोई सूय को
िनगल जाता है! कोई चतुरानन, कोई पंचानन, कोई षडानन, कोई दशानन!
कोई चतुभुज, कोई अ भुज, कोई सह भुज! कोई एक सह वष यु
करता है। कोई पाँच सह वष तप या करता है। कोई दस सह वष भोग
करता है! इ ह अ तशयोि य के वाह म हमने स य को डु बो िदया।
मने पूछा–तो या ये सारी बात कपोल-क पत ह?
ख र काका यं यपूवक बोले–जब तक हमारे देश म िद गज पं डत
मौजूद ह, तब तक ऐसी बात कहने क धृ ता कौन कर सकता है? हमारे
एक महावीरजी आ जायँ तो सभी देश क सेनाओं को अपनी पूँछ म लपेट
ल! एक अग य मुिन आ जायँ तो जहाज सिहत सभी समु को सोख
जायँ! एक वराह अवतार हो जाय, तो सारी पृ वी को उठाकर फुटबॉल क
तरह फक द एक वामन आव तो डेग भर म चं मा को नाम ल! और देशवाले
आिव कार करते रह, हम लोग का काम अवतार से ही चल जाता है। एक
अवतार अभी हो जाय, तो सारी सम याएँ हल हो जायँ। एक हुक ं ार से
खा ा का पहाड़ लग जाय! एक वाण से दध ू -दही का समु लहराने लगे!
मने कहा–ख र काका, आपने तो अ तशयोि क धारा बहा दी।
ख र काका हँसते हुए बोले–अजी, हम वंशज िकसके ह? र का धम
कह छुटता है? िव ान क उ त करने के लए तो और देश ह ही।
क पना-िवलास का भार भी तो िकसी पर रहना चािहए!
अ छा भाई। अपना अलबम ले जाओ। मुझे-ऐसे आदश नह चािहए। म
यथाथवादी हूँ।
स यनारायण
ख र काका ल सी का आनंद ले रहे थे।
मने कहा–ख र काका, आज मेरे यहाँ स यनारायण भगवान् क पूजा
है।
ख र काका बोले–सचमुच? लेिकन कह ऐसा न हो िक स य के नाम
पर अस य क …
मने कान पर हाथ रखते हुए कहा–ख र काका, भगवान् के साथ हँसी
नह करनी चािहए।
ख र काका मु कुराते हुए बोले–भगवान् के साथ हँसी-खेल तो तुम
लोग करते हो।
म–सो कैसे?
ख र काका ने कहा–तब पूजा क ‘प त’ देखो। भगवान् क
षोडशोपचार पूजा कैसे होती है?
आसनं वागतं पा म माचमनीयकम्
मधुपकाचमनी नानं वसनं भरणािन च
गंधपु पधूपदीपनैवे ािन िवसजनम्
पहले भगवान् का आवाहन कर उ ह आसन िदया जाता है। वागत
िकया जाता है। इहाऽग छ, इह त , इदमासनं गृहाण। (यहाँ आया जाय,
बैठा जाय, आसन हण िकया जाय।) तब पा ाघ : (यानी पाँव धोने का
जल)। मुख ालन के िनिम आचमनीयम्। मधुपक (यानी हलका
जलपान)। नान के लए नानीयं जलम्। नव व ा छादन। फूल, माला,
चंदन, धूप, कपूर आिद सुगं धत य का अपण। तदनंतर भाँ त-भाँ त के
नैवे ।
घृतप वं हिव या ं पायसं च सशकरम्
नानािवधं च नैवे ं िव णो मे तगृ ताम्
भगवान् को िनवेदन िकया जाता है िक “घी म बने हुए ये पकवान और
पायस वगैरह मधुर पदाथ आप भोग लगाव।”
सचमुच भोग लगानेवाले तो दस
ू रे ही भा यवान होते ह। लेिकन िफर भी
मखौल क तरह भगवान् के सामने पान-सुपारी भी पेश कर दी जाती है!
लवंगकपूरयत
ु ं तांबूलं सुरपू जतम्
ी या गृहाण देवेश मम सौ यं िववधय
“ल ग कपूर से सुवा सत खुशबूदार पान हा जर है। शौक फरमाइए।”
और अंत म खड़े होकर आरती िदखाकर जाने क घंटी बजा देते ह।
पू जतोऽ स सीद। व थानं ग छ। अपराधं म व।
“आपक पूजा हो चुक । अब खुश होइए। अपने घर जाइए। जो कुछ
भूल-चूक हो गई हो, उसे माफ क जए।”
अजी, यह सब िद गी नह , तो और या है? और इतनी सारी
आवभगत िकसक होती है? कुछ छोटे से चकने प थर क , जो घस-
िपटकर गुलाब-जामुन या काला जामुन के आकार के बन गये ह!
मने कहा–ख र काका, नमदे र और शाल ाम तो सा ात् शव और
िव णु के तीक ह?
ख र काका हँसते हुए बोले–अजी, नमदे र का अथ ही होता है नम
प रहासं ददा त इ त नमद: त कारक: ई र:! यानी हास-प रहासवाले
भगवान्। शाल ाम क बदौलत इस िवशाल ाम म इतने लोग के
मनोिवनोद का ो ाम बन जाता है और कई िकलो ाम लड् डू भी बँट जाते
ह! यह सनेमा से स ता पड़ता है, य िक इसम िटकट नह लगता और
अंत म साद भी िमल जाता है। इसम ब के खेल से अ धक गंभीरता
रहती है। य िक इसम बड़े-बूढ़े भी शािमल रहते ह और एहसास नह होता
िक यह सब वाँग हो रहा है। लड़िकयाँ गुिड़या को दल ु िहन क तरह
सजाकर खेलती ह; तुम लोग भगवान् को मेहमान बनाकर खेलते हो। जैसे
शाल ाम तु हारे समधी ह !
म–सो कैसे, ख र काका?
ख र काका बोले–देखो, बारात म समधी के आने पर जो सब
खा तरदारी क जाती है, वही सब तो भगवान् क पूजा म भी होती है।
आसन, पानी, नान, जलपान, फूल-माला, खुशबू, िम ा -भोजन, पान-
सुपारी, धोती और अंत म मा ाथना िक भूलचूक माफ करगे। तब फक
यही है िक शाल ाम को चु ू भर पानी म नान-आचमन करा िदया जाता है
और भोग जो लगाया जाता है सो सब य -का- य रखा रह जाता है। व
के नाम पर सूत से भी काम चल जाता है। घंटे-भर म घंटी बजाकर िवदा कर
देते ह– व थानं ग छ। असली समधी देवता को ऐसा कहा जाय तो अनथ
ही हो जाय! परंतु भगवान् तो िकसी के समधी ह नह । समधी का अथ है
“समान बु वाला।” यिद भगवान् म भी उतनी ही बु हो, जतनी यजमान
म, तब तो ई र ही बचाय!
म–लेिकन पूजा के साथ कथा भी तो होती है?
ख र काका बोले–हाँ, पूजा है नाटक; कथा है उप यास। इस तरह
य और ा य, दोन का मजा दशक को िमल जाता है।
म–ख र काका, कथाओं म तो बहुत गूढ़ त व भरे ह गे?
ख र काका ने आलमारी से स यनारायण- त-कथा िनकालते हुए
कहा–तब वह भी सुन लो। पं डतजी रात म शंख बजा-बजाकर जो कथा
बाँचगे, उसका िनचोड़ म अभी बता देता हूँ। एक बार नैिमषार य म
लोकिहत क ि से एक िवचार-गो ी आयो जत क गयी। उ े य यह था
िक मानव के दःु ख दरू करने के लए कोई ऐसा सुगम माग ढू ँ ढ़ा जाय िक
कम समय म, कम खच म, कम प र म म, अ धक-से-अ धक फल ा हो
सके।
व प मै: व पिव ैः व पकालै स म
यथा भवेत् महपु यं तथा कथय सूत न:
‘कनफरस’ के अ य सूतजी ने कहा– “एक बार वैकंु ठ लोक म
नारदजी यही िव णु भगवान् से पूछते भये थे–”
म यलोके जना: सव नाना े शसम वता:
त कथं शमये ाथ लघूपायेन त द
(म यलोक म लोग नाना कार के े श से पीिड़त ह। कोई ऐसी
आसान तरक ब बताइए िक उनका उ ार हो जाय।)
“तब परम कृपालु भगवान् यह उपाय बतावतो भये थे”–
स यनारायण यैत तं स यग् िवधानत:
कृ वा िह सवद:ु खे यो मु ो भव त मानव:
(स यनारायण क पूजा िव धपूवक करने से मनु य सभी दःु ख से मु
हो जाता है।)
इतना ही नह , भगवान् ने पूजा क िव ध यानी साद का नुसखा भी
बता िदया!
रंभाफलं घृतं ीरं गोधूम य च चूणकम्
अभावे शा लचूण वा शकरा च गुडं तथा
“पके हुए केले, दध
ू , घृत, गुड़-श र और गेहूँ का आँ टा–सब एकसाथ
िमला कर साद बना लो।” भगवान् इतने दयालु ह िक वे िवक प बताना
भी नह भूले! “यिद गेहूँ का आँ टा नह िमले, तो चौरेठा लेकर भी काम चला
सकते हो।”
बु देव ने दःु ख क सम या को हल करने म अपना पूरा जीवन लगा
िदया और ऐसा अ ांग माग बताया, जसे क ांग माग ही समझना चािहए।
लेिकन भगवान् ने इस सम या का चुटिकय म समाधान कर िदया और
ऐसा िम ांग माग बता िदया, जो सबके लए सुलभ है।
सादं भ ये भ या नृ यगीतािदकं चरेत्
तत बंधु भः साध िव ां तभोजयेत्
“लोग ेमपूवक साद पाव, पवाय। कुछ नाच-गान का भी शगल रहे।
भाई-बंधुओ ं के साथ-साथ ा ण को भोजन कराया जाय।”
तत्कृ वा सवद:ु खे यो मु ो भव त मानव:
“ऐसा करने पर मनु य सभी दःु ख से मु हो जाता है।”
अब इससे बढ़कर आसान तरीका और या हो सकता है?
मने कहा–लेिकन…
ख र काका बोले–इसी ‘लेिकन’ का जवाब देने के लए चार माण
पेश िकये गये ह, जनसे भ के मन म आ था जमे और पूजा करने क
ेरणा िमले।
ख र काका ने स यनारायण कथा के पृ उलटते हुए कहा–देखो।
पहली कथा काशी के एक द र ा ण क है। भगवान् तो दया च ह।
उ ह ने ा ण को भीख माँगते देखकर उपदेश िदया–
स यनारायणो िव णु: वां छताथफल द:
त य वं पूजनं िव कु व तमु मम्
“स यनारायण भगवान् क पूजा करो, जो सभी मनोरथ को पूरा
करनेवाले ह।”
उसी िदन ा ण को बहुत पैसे िमल गये। उसने पूजा क । नफा
देखकर हर महीना पूजा करने लगा।
सवद:ु खिविनमु : सवसंपत् सम वत:
सवपापिविनमु : दल
ु भं मो मा वान्
वह सब दःु ख से, सब पाप से, मु होकर, सभी सुख-साधन से
स प हो गया और अंत म मो भी पा गया, जो योिगय के लए भी दल
ु भ
है!
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–काशी म रोज ढेर के ढेर
भ ुक ा ण घूमते ह। पता नह , भगवान् एक उसी पर य ढु ल पड़े!
और, उसे सलाह भी दी तो उ म करने क नह , पूजा करने क ! खैर, जब
रा ता मालूम हो ही गया है, तब अभी तक वहाँ रोज भखमंग का मेला य
लगा रहता है? अभाग को इतनी अ य नह होती िक िकसी से कज
लेकर एक बार घी-श र वगैरह सामान जुटा ल। िफर तो उनके मुँह म
हमेशा घी-श र रहेगा।
मने कहा–ख र काका, या सभी कथाएँ ऐसी ही ह?
ख र काका बोले–हाँ जी। म इ ह इ तहास नह , इ तहार समझता हूँ।
एक लकड़हारे ने पूजा क । उसे लकड़ी का दन
ू ा दाम िमल गया।
ति ने का मू यं च ि गुणं ा वानसौ
और, उसी पूजा क बदौलत उसे दौलत, बेटा, वग, सबकुछ िमल
गया! इसी तरह एक राजा (अंग वज) ने पूजा क और उसे भी सबकुछ
िमल गया।
त त य भावेण धनपु ा वतोऽभवत्
इहलोके सुखं भु वा चांते स यपुरं ययौ
अजी, ये सब िव ापन नह , तो और या ह? लगता है, जैसे कोई
दलाल बोल रहा हो! बीमा-एजट क तरह।
म–लेिकन ये सब तो ब क कहािनयाँ जैसी लगती ह।
ख.–सो तो ह ही। हाँ, एक कहानी अलब ा रसीली है। उसम
स यनारायण भगवान् के च र क कुछ झाँक भी िमल जाती है।
मने पूछा– या लीलावती-कलावती वाली कथा?
ख र काका बोले–हाँ। वह तो जानते ही होगे?
मने कहा–नह , ख र काका। आपके मुँह से सुनने म मजा आयेगा।
ख र काका बोले–तब सुनो। एक महाजन ने पूजा क , और
एक मन् िदवसे त य भाया लीलावती सती
ग भणी साऽभवत् त य भाया स य सादत:
उसक ी लीलावती को गभ रह गया। स यनारायण के साद से।
एक सुंदर क या का ज म हुआ, जसका नाम पड़ा ‘कलावती’। महाजन ने
संक प िकया िक इसक शादी के व िफर पूजा, क ँ गा। लेिकन
बदिक मती के मारे बेचारा भूल गया। नतीजा यह हुआ िक भगवान् नाराज
हो गये और शाप दे बैठे।
िववाह समये त या: तेन ोऽभवत् भु:
त मालो य शापं त मै द वान्
दा णं किठनं चा य मह :ु खं भिव य त
(“अ छा ब !ू तुमने वादा खलाफ क है! अब लो, मजा चखो।”)
अब आगे का हाल सुनो। महाजन अपने जामाता के साथ वा ण य के
सल सले म बाहर गया। वहाँ राजा (चं केतु) के यहाँ चोरी हुई। भगवान् क
ेरणा से चोर वह माल छोड़कर भागा, जहाँ ये दोन (ससुर-दामाद) ठहरे
हुए थे। राजा के सपािहय ने वहाँ से माल बरामद िकया और दोन को
पकड़कर ले गये। उनक सारी संप ज त कर ली गयी और वे कारागार म
बंद कर िदये गये। वे बहुत रोये-कलपे, लेिकन
मायया स यदेव य न ुतं कै तयोवच:
स यनारायण क माया से िकसी ने उनक बात क सुनवाई नह क ।
मने कहा–ख र काका, इससे तो भगवान् के च र पर ब ा लगता है।
ख र काका बोले–भगवान् पर भले ही ब ा लगे, भ का अपना ब ा
तो साद से भर जाता है। अगर वे भगवान् को इस प म अंिकत नह
करगे, तो लोग डरगे कैसे? और डरगे नह , तो पूजा कैसे चढ़ायँगे?
स यनारायण को मामूली देवता मत समझो। वह दारोगा से कम नह ह।
रोकर हो, गाकर हो, उ ह दो। नह तो ऐसा फँसा दगे, िक जेल म सड़ते रह
जाओगे।
म–ऐसे भगवान् से िकसी को ी त कैसे हो सकती है?
ख.–अजी, ‘िबनु भय ह ह न ी त।’ सामा य जनता ी त से उतना
नह करती, जतना भी त से। अगर लोग को िव ास हो जाय िक शाल ाम
से कुछ बनने-िबगड़ने का नह , तो उ ह सीधे शाल ामी नदी म िवसजन कर
दगे। दिु नया म शु ं-बु ं बनने से काम नह चलता। इस लए नारायण को
तशोध-परायण बना िदया गया है।
मने पूछा–तब ससुर-दामाद छूटे कैसे?
ख र काका ने कहा–आगे का हाल और िदलच प है। माँ-बेटी घर पर
थी। उ ह या पता िक दोन के प त हवालात क हवा खा रहे ह। एक रात
कलावती देर से घर लौटी। माँ डाँटने लगी–“तू इतनी रात तक कहाँ थी?”
कलावती ने कहा िक स यनारायण क पूजा देख रही थी। यह सुनते ही
लीलावती को अपनी त ा याद आ गयी। उसने भी लगे हाथ पूजा कर ली
और भगवान् से ाथना क –
अपराधं च मे भ ु-जामातु: तु मह स
“मेरे प त और दामाद का अपराध मा कर।”
तेनानेन सतुं : स यनारायण: भुः
भगवान् ग गद हो गये और राजा (चं केतु) को व न िदया–
देयं धनं च त सव गृहीतं यत् वयाऽधुना
नो चेत् नाश य यािम सरा यधनपु कम्
“महाजन का सारा धन लौटाकर उ ह तुरत
ं छोड़ दो, नह तो राज-
पाट समेत तु हारा नाश कर दँगू ा।”
अजी, भगवान् या हुए? शनै र हुए! जस पर लग जाएँ गे, उसे समूल
न करं दगे। बेचारा चं केतु या करता? महाजन का जतना माल था,
उसका दन
ू ा देकर उ ह िवदा कर िदया।
पुरानीतं तु य यं ि गुणीकृ य द वान्
ोवाच तौ ततो राजा ग छ साधो िनजा मम्
कहा– “महाराज! जाइए अपने घर, और मेरी जान ब शए!”
मने पूछा–ख र काका, बेचारे चं केतु का या कसूर था, जो भगवान्
उस पर िबगड़ गये?
ख र काका बोले–भगवान् को एकाएक मरण हो आया होगा िक
कलावती का यौवन िवरह के ताप से कु हला रहा है और उसके प त को
वह द ु राजा बंद िकये हुए है। वह भूल गये ह गे िक उ ह क माया से ऐसा
हुआ। अजी, साम यवान् और िगरिगट को रंग बदलते िकतनी देर लगती है!
ख र काका को हँसी आ गयी। बोले–देखो, एक थे उ देव शा ी। उ ह
एक बार भोजन म जरा देर हो गयी तो ी का गला काटने दौड़े। और जब
आगे म गरम-गरम कचौिड़याँ परोसी गय , तो इतने खुश हुए िक ी के गले
म चं हार लाकर डाल िदया। दस ू रे िदन दाल म कुछ यादा नमक पड़ गया;
चं हार छीनकर ले गये। मुझे तो स यदेव भी उ देव ही जैसे लगते ह। णे
: णे तु :। न ख झते देर, न रीझते देर! गु से म महाजन को बँधवा भी
िदया और जब उसक बेटी कलावती क कला पर मु ध हो गये, तो उसे
छुड़वा भी िदया। भगवान् या हुए, रयासत के जम दार हो गये!
ख र काका ने नस ली। िफर बोले–अभी िक सा खतम नह हुआ है।
जब महाजन नाव पर सामान लादकर चला, तो िफर नारायण एक साधु के
वेष म आ पहुँचे और पूछा िक नाव म या है? महाजन को शक हुआ िक एक
अप र चत य ऐसा पूछ रहा है। उसने यह कहकर टाल िदया िक
लताप ािदकं चैव व ते तरणौ मम
“नाव म घास-फूस वगैरह है।” भगवान् तो ऐसे ही मौके क ताक म थे। िफर
एक चरण लगा िदया–स यं भवतु व च:। बस, जतना माल-मता था, बस
ल ा-प ा बन गया। अब तो बेचारा बिनयाँ लगा सर पीटने। भगवान् खुश
हो रहे थे–“कैसा मजा चखाया? चले थे ब ू मुझसे चालबाजी करने! अब
छल करने का दंड भोगो।”
अजी, भगवान् वयं अपना प छपाकर छ मवेष म वहाँ गये सो तो
छल नह हुआ, और बेचारे बिनयाँ ने आ मर ा क ि से अजनबी को
माल का हाल नह बताया, तो वह छल हो गया! यही भगवान् का इंसाफ है!
खैर, बेचारे महाजन ने वादा िकया–
सीद पूज य यािम यथा िवभविव तरैः
“ जतना हो सकेगा सो लेकर ज र आपक पूजा क ँ गा।” तब जाकर
भगवान् संतु हुए और उसका माल लौटा िदया। चुंगीवाले अफसर का भी
कान भगवान् ने काट लया!
म–खैर, िकसी तरह बेचारा सकुशल घर लौट आया।
ख.–अभी और है जी। उधर घर पर खबर पहुँची तो कलावती उतावली
होकर प त को देखने के लए नदी क ओर दौड़ी। हड़बड़ी म भगवान् का
साद लेना भूल गयी।
सादं च प र य य गता सािप प त त
बस, भगवान् ने िफर थानेदारवाला िवकराल प धारण िकया।
तेन : स यदेवो भ र तर ण तथा
सं य च धनै. साध जले त ावम यत्
उनका ोध ऐसा भड़का िक पूरी नाव को ही उलट बैठे। यह देखते ही
कलावती बेहोश होकर िगर पड़ी। उसके माँ-बाप रोने-पीटने लगे। तब
भगवान् ने िफर फ तयाँ कस –“बड़ी चली थी प त से िमलने! मेरा साद
छोड़कर, मेरा अपमान कर वामी के पास दौड़ गयी। अब कहो! जब तक
घर जाकर मेरा साद नह खायेगी, तब तक प त देवता गोते लगाते रहगे।”
मरता या न करता! कलावती दौड़ी घर गयी, साद खा आई। िकसी तरह
ठे हुए भगवान् को मनाया!
ख र काका सुपारी का कतरा करते हुए कहने लगे–अजी, म पूछता हूँ
वह नवयव ु ती उमंग म अपने प त से िमलने को दौड़ी तो भगवान् के िदल म
इतनी ई या य धधक उठी? इस तरह क त पधा तो सनेमा के
खलनायक म होती है। भगवान् कह ऐसा कर? इनको तो और खुश होना
चािहए था िक कलावती अपने प त-देवता को भगवान् से भी बढ़कर मानती
है। लेिकन यह तो त ंि ता पर उतर आये! अंत म तो कलावती इनके
स यलोक म गयी ही। चांते स यपुरं ययौ। पता नह वहाँ इनके साथ उसक
कैसी िनभी होगी? मुझे तो स यनारायण के नाम से ही भय लगता है!
मने पूछा–ख र काका, स यनारायण-कथा म चार-चार कहािनयाँ य
दी गयी ह? या एक से काम नह चल सकता था?
ख र काका बोले–देखो। ा ण, ि य, वै य, शू , चार से एक-एक
तिन ध लये गये ह, जससे जनता का येक वग पूजा करने के लए
ो सािहत हो।
“एक ा ण गरीब से धनी हो गया। एक राजा को बेटा हुआ। एक
बिनयाँ को बेटी हुई। एक लकड़हारे को यादा नफा हुआ।” यही न चार
कथाओं का सारांश है? अजी, ये सब बात तो रात-िदन होती ही रहती ह।
लोग पूजा कर या न कर। लीलावती गभवती हो गयी, तो कौन-सी अनोखी
बात हो गयी? यही अ द ु ा िमयाँ ने कब पूजा क िक उसके दजन-भर ब े
ह? और, चौधरानीजी हर महीनां कथा बचवाने पर भी ग भणी नह हुई ं।
अजी, मा सक पूजा से कह मा सक धम बंद होता है? बेचारे ि वेदी जी
जीवन भर शंख फँू कते रह गये, कभी घर पर खपड़ा नह चढ़ा और,
तनकौड़ी लाल ने चोर बाजार क बदौलत तमं जला मकान उठा लया।
तु हारे स यनारायण ने उसको दंड देकर तीनकौड़ी का य नह बना
िदया?
म–तो या स यनारायण क कथा अस य है?
ख.–तुम वयं सोचकर देख लो। आिद से अंत तक इस कथा को देखने
से यही लगता है, जैसे नारायण हद दज के लोभी, वाथ , ु और द ु ह ।
नारायण को नर से भी नीचे िगरा िदया गया है। ब क एक वानर जैसा
च ण िकया गया है, जो बात-बात म बंदर-घुड़क िदखाकर, हाथ का फल
छीनकर ले भागे और िफर खुश होकर दे दे! ऐसे च र से मन म भि या
होगी, उलटे अभि हो जाती है।
म–लेिकन पूजा का फल िकतना बताया गया है?
ख.–हाँ–
सौभा यसंत तकरं सव िवजय दम्
“जो पूजा करेगा, उसक सव जीत होगी।” म पूछता हूँ, अगर मु ई-
मु ालह, दोन एक साथ पूजा कर, तो िकसक जीत होगी?
कथाकार लखते ह–
एतत् कृते मनु याणां वांछा स भवे ुवम्
यजमान क वांछा स हो या नह , पर पुरोिहत क वांछा तो त काल
स हो जाती है। य िक कथाकार यह लखना नह भूले ह–
िव ाय द णां द ात् कथां ु वा जनै: सह
अगर द णा नह िमले तो िवधाता भी वाम हो जायँ!
म–तो या यजमान से साद और द णा ऐंठने के लए ही यह कथा
गढ़ी गयी है?
ख.–और या! यजमान को उसी तरह फुसलाया गया है, जैसे ब
को फुसलाया जाता है–“कान छे दवा लो, तो गुड़ िमलेगा।” इसी तरह
यजमान को लालच िदया गया है–“गुड़-केला दध ू म घोलकर बाँटो, तो बेटा
िमलेगा।” बस, भोले-भाले यजमान स ता सौदा खरीदने के लए टू ट पड़ते
ह। जैसे, ब े दस पैसे क नकली घड़ी के पीछे दौड़ते ह! उ ह कहाँ तक
कोई समझाए िक नकली माल के फेर म मत पड़ो! या रोकने से भी वे
मानगे? इसी तरह एक हाँड़ी दधू , केला, गुड़ घोलकर जो उसके बदले म
बेटा-बेटी या वग पाना चाहते ह, उ ह या कहा जाय? इस देश म तो
भेिड़याधसान है। तभी तो नकली माल के दलाल मालामाल हो जाते ह,
और स य क राह पर चलनेवाले पामाल होते रहते ह।
म–ख र काका, तब या करना चािहए?
ख र काका बोले–अगर शि है, तो असली स यदेव क पूजा करो।
जहाँ-जहाँ अस य हो, अ याय हो, धोखाधड़ी हो, जुआ-जोरी हो, घूसखोरी
हो, काला-बाजार हो, स य पर पदा डालने क सा जश हो, वहाँ जाकर शंख
फँू को, जनता म जागृ त करो, समाज को स य के पथ पर लाओ। वही
असली स यनारायण क पूजा होगी। और जब वैसी पूजा होने लगेगी, तो
सचमुच पृ वी पर वग उतर आयेगा। कुछ भी दल ु भ नह रहेगा।
न क चत् िव ते लोके य यात् स यपूजनात्!
दगु ापाठ
पं डतजी आसन पर बैठे दगु ास शती पाठ कर रहे थे–
पं देिह जयं देिह, यशो देिह, ि षो जिह
(अगला तो )
तब तक पहुँच गये ख र काका। बोले–पं डतजी या, देिह, देिह क रट
लगाये हुए ह? िवजय भी कह भीख माँगने से िमलती है? वयमेव मृग ता!
जो परा मी होते ह, उ ह वयं िवजय-ल मी वरण करती है। आसन पर
पलथा लगाकर सफ ‘देिह, देिह’ जपने से या होगा? इसी भ ुक
मनोवृ ने तो देश को अकम य बना िदया।
मने पूछा–ख र काका, हम लोग म माँगने क यह वृ कैसे आ
गयी?
ख र काका बोले–देखो, यह रोग बहुत ाचीन है। वैिदक यगु से ही हम
लोग क ज ा पर ‘द’ अ र बैठा है। देिह, देिह, देिह। सभी देवी-देवताओं
से हम एक ही अ र का संबध ं रखते आये ह–दे। उपिनष भी आयी, तो द
द द (दान, दया, दमन) का गु मं लए हुए!
या देयम्, अ या देयम्,
या देयम्, ि या देयम्, भया देयम्!
(तै रीय 1 । 11)
अजी, वेद और उपिनष दोन का अंत तो ‘द’ अ र से ही होता है!
दशन भी तो ‘द’ अ र से ही आरंभ होता है। हमारी सं कृ त ही दान पर
आधा रत है। जो हम दान नह देते, उ ह हम नादान समझते ह।
म–ख र काका, याचना तो िनकृ व तु है।
ख.–हाँ, परंतु यहाँ आिद से ही भ ा क श ा दी जाती है। उपनयन म
दी त होते ही चारी को मं पढ़ाया जाता है– भ ां देिह। या वेदांती,
या बौ ! यहाँ जो भी आये, सो भ ु का बाना बनाये हुए। वे कम को तु छ
समझकर भ ुक बनने म गौरव का अनुभव करने लगे। संपूण देश म भ -ु
वृ फैल गयी। वही सं कार अभी तक हमम बना है। कभी इं -व ण से
माँगते थे। अब अमे रका- स से माँगते ह। अभी भी भ ा-पा लये संसार
के आगे खड़े ह–अ ं देिह!
उधर पं डतजी पोथी बाँचे जा रहे थे–
इ थं यदा यदा बाधा दानवो था भिव य त
तदातदाऽवतीयाऽहं क र या य रसं यम्
(इ त ोक-जपे महामारी शा त:)
(स शती माहा य)
ख र काका ने मुझसे कहा–देखो, कैसे-कैसे उपाय अपने यहाँ के
िवशेष बता गये ह! देश म हैजा- लेग हो, यह ोक पाठ कर दरू भगा दो।
इसी पोथी म वरा य लेने का उपाय भी बताया गया है!
ततो व े नृप: रा यिम त मं य जपे वरा य-लाभ:
(स. मा.)
अपने देश के नेताओं को यह बात मालूम रहती, तो इसी मं के जप से
भारत को वाधीन कर लेते। बेकार इतने लोग जेल गये!
अब पं डतजी से नह रहा गया। बोल उठे –आप तो यं य कर रहे ह।
परंतु पाठ से या नह हो सकता?
ख र काका बोले–पं डतजी, तब एक बात क जए। रोगान् अशेषान्
वाले ोक से पाठ क जए, तािक मले रया-फले रया आिद सम त रोग देश
से भाग जायँ। अपना देश आकंठ िवदेश ऋण म डू बा हुआ है। तब य न
सभी भारतवासी िमलकर अनृणा अ म वाले ोक का सामूिहक पाठ कर
देश को ऋणमु कर द? और कांसो म वाले ोक के जप से देश को
एकबारगी समृ शाली बना डाल?
मने पूछा–ख र काका, या ये सब बात भी दगु ा-माहा य म ह?
ख र काका बोले– या नह ह? भ - भ ोक के संपुट पाठ से
भ - भ कार के फल बताये गये ह। ी- ाि से लेकर मो - ाि तक!
उधर पं डतजी पाठ िकये जा रहे थे–
प न मनोरमां देिह मनोवृ ानुसा रणीम्
ता रण दगु संसार सागर य कुलो भवाम्
(अगला तो )
ख र काका के ह ठ पर मु कान आ गयी। बोले–म तो मनाता हूँ िक
पं डतानीजी ठीक दगु ादेवी क तरह बन जायँ!
यो मे जय त सं ामे यो मे दप यमोह त
यो मे तबलो लोके स मे भ ा भिव य त
(दगु ास शती)
तब पं डतजी को असली दगु ा से भट हो जाएगी!
िफर पं डतजी से रहा नह गया। बोले– या आप अगला और क ल-
कवच पाठ को िनरथक समझते ह? दे खए–
अगलं द ु रतं ह त क लकं फलदं भवेत्
कवचं र ते िन यं चं डका ि तयं तथा
(शतचंडी िव ध)
अगला से पाप दरू होता है, क ल-कवच से र ा होती है।
ख र काका बोले–पं डतजी, ये सब अनगल बात ह। यिद सचमुच ही
श ु से र ा करनी है, तो लोहे का क ल-कवच तैयार करना चािहए। यिद
ोक से ही श ु भाग जाते, तो यहाँ िवदेशी राज य होता? यिद य -जाप
से द:ु ख-दा र ्य दरू हो जाता तो, इतना ओम् और होम होने पर भी देश क
ऐसी दरु व था य रहती?
उ मेन िह स य त काया ण न मनोरथै:
सो उ म तो आप लोग करगे नह । एक भानुमती क िपटारी आपको
चािहए, जससे बैठे-बैठे धन, धा य, सुख, संत त, आरो य, मो , सबकुछ
एक साथ िमल जाय! अगर एक मकड़ा भी घाव कर दे, तो चाहगे िक इसी
दगु ापाठ से छूट जाय!
मने पूछा– या यह भी दगु ा-माहा य म लखा हुआ है?
ख.–हाँ, देख लो।
न य त याधय: सव लूतािव फोटकादय:
(कवच तो )
म–ख र काका, ऐसी बात य लखी ह?
ख र काका बोले–अजी, हम लोग को मनमोदक खाने का अ यास है।
अ या य देश म जन व तुओ ं को लोग बाहुबल से या बु बल से अ जत
करते ह, उ ह हम बैठे-बैठे मं बल से ही ा करना चाहते ह। वे लोग
पाताल गंगा से पानी ख चकर पटाते ह। हम लोग आकाश-गंगा पर टकटक
लगाये जप करते रहते ह। इस लए जहाँ वे लोग व ण को अपने अधीन कर
कुबेर बन गये ह, वहाँ हम लोग इं पर िनभर रहकर अनावृि का रोना रोते
ह। द ु भ होने पर दगु ाजी को गोहराने लगते ह–
दा र ्यद:ु खभयहा र ण का वद या!
पं डतजी िफर बोल उठे –तब आप दगु ापाठ को यथ समझते ह?
ख र काका ने कहा–पं डतजी, यही तो मेरी समझ म नह आता िक
आ खर इस तरह पाठ करने से फल या है? मान ली जए, दगु ाजी क कथा
इ तहास ही है। परंतु इ तहास भी तो जपने क व तु नह है। एक बार
पढ़कर समझ ली जए िक इस कार चंड-मुड ं , शुभ
ं -िनशुभ
ं , र बीज और
मिहषासुर का वध हुआ। उससे कुछ श ा िमले तो हण क जए; जीवन म
च रताथ क जए। लेिकन इन सात सौ ोक को हजार बार या लाख बार
जपने से या लाभ? सो भी तूफान मेल क तरह! जैसे, ब े पहाड़ा रटते ह।
पं डतजी बोले–तब जप का माहा य दे खए–
जकारो ज मिव छे द: पकार: पापनाशक:
ज मपापहरो य मात् जप इ य भधीयते
“जप करने से ज मज मांतर का पाप कट जाता है।”
ख र काका बोले–यिद ोक ही माण, तो म भी ख र पुराण का
वचन कहता हूँ–
जकारो ज पना नाम पकार: पाठ उ यते
वृथा ज पमय: पाठ: जप इ य भधीयते
“वृथा ज पत श द का पाठ ही जप है!”
‘जप’ क तरह ‘गप’ पर भी ोक बन सकता है।
गकार: ग वा ा यात् पकार: प भाषणम्
ग प मयानंद: गप इ य भधीयते
‘ग’ से ग और ‘प’ से प का आनंद! तब शु क जप को छोड़कर
सरस गप ही य न हो?
पं डतजी बोले–आप तो हँसी करते ह। लेिकन ‘दगु ा’ नाम का रह य
दे खए–
दै यनाशाथवचनो दकार: प रक ततः
उकारो िव ननाश वाचको वेदस मत:
रेफो रोग नवचनो ग पाप नवाचक:
भयश ु नवचन ाकार: प रक त:
(मु डमालातं )
‘द’ से दै यनाश, ‘उ’ से िव ननाश, ‘र’ से रोगनाश, ‘ग’ से पापनाश,
‘आ’ से श ुनाश होता है।
ख र काका बोले–पं डतजी, यह सब ब का खेल है। िकसी भी नाम
का अ राथ जैसा मन म आवे, बैठा दी जए। यिद उस ोक म दकार: क
जगह मकार: कर िदया जाय, तो या आप मुगा-मुगा जपने लग जायँगे?
पं डतजी बोले–जप अपने मन से य थोड़े ही िकया जाता है? उसका
िवधान है–
िदवा ल ं शु चभू वा हिव याशी जपे र:
तद ते हवनं कुयात् त ोकेन् पायसै:
(शतचंडीिव ध)
हिव य भोजन करने पर जप होता है। ोक-पाठ के साथ पायस से
हवन िकया जाता है।
ख र काका बोले–ये सब ोक खीर खाने के लए बनाये गये ह। तर
माल क आशा पर ही माला पर अँगु लयाँ िफरती ह।
तब तक ब ल दान के लए एक बकरा आ गया। पं डतजी ने कहा–अब
इसको नान कराकर, पु पमाला पहनाकर, जय जगदंबा कर दी जए।
ख र काका बोले–पं डतजी! बेचारे बकरे ने या कसूर िकया है, जो
इसका वध करवा रहे ह? जो संपूण जगत् क माता ह, वह या इस छागल
क िवमाता ह? जनको मांस खाना हो, य ही काटकर खा ल। झूठमूठ
काली माता को य कलंिकत करते ह? ज ह आप सव पकारकरणाय
सदा च ा कहकर तु त करते ह, उनके नाम पर ऐसी नृशस
ं ता य करते
ह? या ब लदान का बकरा सव क सीमा से बाहर है?
पं डतजी बोले–आप ना तक क तरह तक करते ह। दे खए, वयं देवी
क आ ा है–
ब ल दाने पूजायामि काय महो सवे
सव ममैत रत मु ाय ा यमेव च
(माकडेय पुराण)
इसी लए उनक पूजा के साथ ब ल दान होता है।
ख र काका ने कहा–पं डतजी, ब लदान तो पशु व का होना चािहए।
उसके बदले पशु का ही ब लदान कर देते ह! और पशु भी कैसा, तो िनरीह!
यह कहाँ का याय है?
पं डतजी बोले–शा सं दाय म ऐसा ही होता है। शि पूजा का रह य
जानना हो, तो मं दे खए। भगवती के अनंत प ह। कह काली, कह
गौरी, कह तारा, कह यामा, कह चंडी, कह चामुड ं ा! िविवध कार से
उनक आराधना क जाती है। ये सब गु िवषय ह।
ख र काका ने कहा–पं डतजी, आप लोग क ये ही गु बात मेरी
समझ म नह आत । जो कहना हो, साफ-साफ य नह कहते?
पं डतजी बोले–सभी रह य सबको नह बताये जाते। दे खए–
िव ा: सम ता: तव देिव भेदा:
य: सम ता: सकला: जग सु
संसार म जतनी याँ ह, सबम देवी का अंश है। लखा है–
चांडाली च कुलाली च रजक नािपतांगना
गोिपनी योिगनी शू ा ा णी राजक यका
श य: परमेशािन िवद धाः सवयोिषत:
(रेवती तं )
ा णी से लेकर चांडाली तक, राजक या से लेकर धोिबन तक, सभी
याँ शि व पा ह।
कामदा कािमनी कामा कांता कामांगदा यनी
(कामा या तं )
िवशेषत: कुमारी क या तो सा ात् भगवती है। इसी लए ‘कुमारी-
पूजन’ का इतना मह व है। दे खए, कुमारीतं और बालातं म…
ख र काका बोले–पं डतजी, ‘कुमारी’ और ‘बाला’ का नाम तो आप
बार-बार लेते ह, लेिकन वृ ातं का नाम एक बार भी नह लेते! या देवी
का अंश केवल नवयौवनाओं म ही रहता है?
ख र काका बोले–देवी का यान तो ऐसे ही िकया जाता है। दे खए,
कहा गया है–
नव त णशरीरा मु केशी सुहारा
शव िद पृथुतुगं त ययु मा मनो ा
अ णकमलसं था र प ासन था
शशुरिवसमव ा स कामे री सा
(का लका पुराण)
कामे री भगवती सदा नवत णी के प म रहती ह। वह लाल फूल,
लाल व से स होती ह। इस लए कहा गया है–
नार च र वसनां ा वंदेत भि त:
(कुलाणव तं )
र वसना नारी को सा ात् भगवती का प समझकर भि पूवक
वंदना करनी चािहए।
ख र काका मु कुरा उठे । बोले–पं डतजी, यह आपने अ छा बता
िदया। तब तो कोई लाल साड़ी-चोलीवाली कह िमल जाय, तो उसक
नवधा भि करनी चािहए?
वणं क तनं चैव मरणं पादसेवनम्
अचनं पूजनं दा यं स यमा मिनवेदनम्
मगर उसी बीच म कह उसका बाप-भाई आ गया, तो?
पं डतजी बोले–आप तो हर बात को हँसी म उड़ा देते ह। कतु धा मक
िवषय म प रहास नह करना चािहए।
पं डतजी क भि पूवक ोक पढ़ने लगे–
दगु ा दगु त दगु त दगु ानाम िह केवलम्
यो जपेत् सततं भ या जीव मु : स मानव:
(माकडेय पुराण)
ख र काका बोले–पं डतजी, यिद आपका लड़का सब काम-धाम
छोड़कर घर म बैठ जाय और केवल ‘माई, माई, माई’ जपने लग जाय, तो
पं डतानीजी को कैसा लगेगा? या उ ह स ता होगी या अपनी िक मत
को रोयगी िक कैसा िनक मा कपूत पैदा हुआ? या जग ननी म उतनी भी
बु नह है, जतनी साधारण माता को होती है?
पं डतजी बोले–वह साधारण ी थोड़े ही ह! वही माता सभी संकट से
हमारी र ा करनेवाली ह। इसी लए हम उनक ाथना करते ह।
भये य ािह नो देिव दगु देिव नमोऽ तुते
(दगु ास शती)
ख र काका बोले–पं डतजी! एक लड़का था, मातादीन। वह बड़ा हो
जाने पर भी माँ पर ही िनभर रहता था। जहाँ िकसी से झगड़ा हो िक “मैया
से कह दगे!” कह मारपीट हो तो माँ के आँ चल म छपकर कहता था, “अब
आओ तो जान!” मुझे तो आप लोग जैसे दगु ामाता के भ भी मातादीन के
समान ही तीत होते ह!
पं डतजी बोले–हम लोग जग ननी के ब े तो ह ही।
ख र काका बोले–पं डतजी, बचपन म जननी के दध
ू से शि िमलती
है। इसका यह अथ नह िक हम आजीवन तनपायी शशु क तरह छठी का
दधू ही पीते रह।
पं डतजी पुन: तु त करने लगे–
शू लनी व णी घोरा गिदनी चि णी तथा
शं खनी चािपनी वाणा भुशुड
ं ी प रघायध
ु ा
शूलेन पािह नो देिव पािह खड् गेन चांिबके
घंटा वनेन न: पािह चाप यािनखनेन च
(दगु ा तो )
ख र काका से नह रहा गया। मु कुराकर बोले–पं डतजी! शूल, व ,
गदा, च , धनुष, वाण, तलवार, सभी अ -श तो आपने देवी को ही धरा
िदये। वयं अपने हाथ म या रखगे? चूिड़याँ?
उधर पं डतजी का पाठ जारी था–
तनौ र ेत् महादेवी मन:शोक िवना शनी
नाभौ च कािमनी र ेत् गु ं गु े री तथा
रोमकूपेषु कौमारी वचं वागी री तथा
शु ं भगवती र ेत् जानुनी व यवा सनी
(दगु ाकवच तो )
ख र काका भभाकर हँस पड़े। बोले–पं डतजी, आपने अ छा कवच
बना रखा है! अंग- यंग क र ा का भार देिवय को स प िदया है। सबको
अलग-अलग अंग वाँट िदये ह। तन महादेवी को और ना भ कािमनी को!
गु े री गु ांग क र ा करगी और कुमारी रोमावली क ! घुटने
व यवा सनी देवी के संर ण म रहगे और धातु भगवती के! ध य ह
महाराज! आप लोग -सा ैण पृ वी पर नह िमलेगा।
मने पूछा–ख र काका, तो शि पूजा म आपक आ था नह है?
ख र काका बोले–अजी, शि पूजा हम लोग करते ही कहाँ ह? असली
शि पूजा करते ह वे देश, तो आकाश-पाताल को वश म िकये हुए ह। हम
लोग तो केवल वाँग करते ह। िम ी क मिहषासुर-म दनी बनाकर। दै य के
पुतले जलाकर। लेिकन वा तिवक वीर िम ी के शेर से नह खेलते। नकली
रा स को नह मारते।
म–ख र काका, कुछ भी हो। दगु ा देवी ह तो हमारी ही। हम अनािद
काल से उनक आराधना करते आये ह।
ख र काका बोले–यही तो भूल है। दगु ा, ल मी या सर वती िकसी का
पोस नह मानत । मंिदर म पट बंद कर, धूप, आरती और नैवे का लोभ
देकर कोई उ ह वश म नह रख सकता। दगु ा, ल मी और सर वती, तीन
प म गय । जो उनक अनवरत साधना म लीन ह, उ ह छोड़कर वे हमारी
कैसे ह गी? इसी लए लाख सदरू , अँचरा और महा साद का लोभन देने
पर भी वे हमारी ओर नह ताकत । य ताकगी? िनरीह अजापु पर
परा म िदखाने म ही जनक वीरता िनःशेष हो जाय, उ ह सहवािहनी
य पूछगी? नायमा मा बलहीनेन ल य:!
मने कहा–ख र काका, कल िवजयादशमी है।
ख र काका बोले–िवजय तो हम लोग जो कर रहे ह, सो हम जानते ह।
हाँ, िवजया (भंग) का सेवन अलब ा कर सकते ह! दसो इंि याँ श थल हो
जायँ, तभी तो दशहरा नाम साथक!
पं डतजी बोले–तब आपका अ भ ाय है िक दगु ापाठ ब द कर िदया
जाय?
ख र काका बोले–नह , पं डतजी, दगु ाकवच का एक ोक ऐसा है जो
हम ल ग को िनरंतर मरण रखना चािहए।
पं डतजी ने पूछा–वह कौन-सा ोक है?
ख र काका ने कहा–
या देवी सवभूतेषु ल ा पेण सं थता
नम त यै नम त यै नम त यै नमोनम:!
देवता
ख र काका ने हम लोग के हाथ म जलपा देखकर पूछा–आज सबेर-े सबेरे
तुम लोग कहाँ चले हो?
म–आज शवराि है। हम लोग शवजी पर जल चढ़ाने जा रहे ह।
ख.–इस फागुन क सुबह म अभी इतनी ठंढी हवा चल रही है और तु
मलोग उन पर पानी ढालने जाते हो! शवजी ने तुम लोग का या िबगाड़ा
है, जो इस तरह उन पर धावा करने चले हो!
म–ख र काका, आपको तो हमेशा मजाक ही रहता है।
ख.–हँसी नह करता हूँ। शवजी तो वयं शीतवीय ह। उन पर जल
ढालने क या ज रत है? इससे तो अ छा है िक लोटे का पानी इस पुदीने
म डाल दो।
मने कहा–ख र काका, आपको देवताओं म भि नह है?
ख र काका बोले–तब जरा बैठ जाओ। कािफला तो जा ही रहा है। तुम
जरा बाद ही पहुँचोगे तो या होगा? हाँ, देवताओं के िवषय म या कहते
हो?
म–यही िक उनम भि रखनी चािहए।
ख.–लेिकन यिद पुराण माण, तो भि कैसे रखी जाय? म तो सभी
देवताओं के च र जानता हूँ। कहो तो एक-एक क ब खया उधेड़कर रख
दँ।ू मुझे तो कोई देवता ऐसे नह दीखते जो कामी, कपटी, कायर, कािहल
और ू र नह ह ! दै य बल से जीतते थे। देवता छल से जीतते थे। मेरी
समझ म तो देवता दै य से भी यादा िगरे थे।
म–ख र काका, आप तो हर बात म उलटी गंगा बहा देते ह।
ख.–तो देवासुर सं ाम पढ़ो। जहाँ असुर लोग चढ़ाई करते थे िक
देवतागण ािह- ािह कर भागते थे। ा के यहाँ से िव णु के यहाँ, और
िव णु के यहाँ से महेश के यहाँ! जब उनसे भी नह सँभलता था तो दगु ा को
गोहराते थे। इसी भी ता पर मिहषासुर ने फटकारा था–
ह वा वां िनहिन यािम देवान् कपटमं डतान्
ये नार पुरत: कृ वा जेतुिम छ त मां शठा:
(देवी भागवत 5 । 18)
अथात् “जो देवता नारी को आगे कर कपट से मुझे जीतना चाहते ह,
उ ह म रण म सुला दँगू ा।” लेिकन देवताओं को लाज थोड़े ही थी! देवी को
आगे कर वयं अंचल क ओट म छप जाते थे।
म–तो या देवी देवताओं से यादा शि शा लनी थ ?
ख.–इसम या संदेह? िव णु चतुभुज थे तो दगु ा अ भुजा थ । शव
बैल पर चलते थे, दगु ा सह क सवारी करती थ । शि के िबना शव केवल
शव रह जाते ह!
देवी अपनी देह का मैल छुड़ाकर फक देती थी, वह भी देवता के छ े
छुड़ा देता था। तभी तो जब देवता लोग हारने लगते थे, तो देवी क गुहार
करते थे।
ि पुर य महायु े सरथे प तते शवे
यां तु वु:सुरा:सव तां दगु ा णमा यहम्
( वैवत)
जब ि पुरासुर से यु करते समय शवजी रथ के साथ िगर पड़े, तो
सभी देवता दगु ा क तु त करने लगे िक “देवीजी! अब आप ही बचाइए।”
म–यह तो ल ा क बात हुई!
ख.–अजी, देवताओं को सो लाज रहती तो छलपूवक िवषक या के
हाथ से दै य को जहर िदला देते? समु मंथन से अमृत िनकला, सो तो
वयं पीकर अमर हो गये, और दै य के आगे िवष रख िदया! इससे बढ़कर
अ याय या होगा? ये लोग ऐसे वाथाध थे िक मह ष दधी च से उनक रीढ़
क ह ी माँग ली! खुदगज म इतना भी िवचार नह रहा िक या माँग रहे ह!
वह ह ी व बन गयी। ऐसी जगह तो व पात हो जाना चािहए!
म–ख र काका, आप एकतरफा फैसला करते ह। देवताओं ने कैसे-
कैसे काम िकए ह, सो भी तो दे खए।
ख र काका बोले–अजी, काम तो ऐसे-ऐसे िकये ह िक उनका नाम भी
नह लेना चािहए! देवताओं के राजा इं ने ऐसा पाप िकया िक उनके शरीर
म सह छ हो गये!
गौतम या भशापेन भगांग: सुरसंसिद
देवराज द ु ऐसे थे िक जहाँ िकसी को तप या करते देखते िक उनका
इं ासन डोलने लगता था। जहाँ कह य -काय होने लगा िक मूसलाधार
पानी बरसाने लगते थे।
म–परंतु वह वीर कैसे थे?
ख.–ऐसे वीर िक मेघनाद ने र से म बाँध िदया! अजी, जो रात-िदन
अमरावती म पड़ा-पड़ा अ सराओं के साथ भोग-िवलास म ल रहेगा, वह
यु म कहाँ तक ठहरेगा? तभी तो पुराण म इं क इतनी भ सना क गयी
है!
ल मीसमशचीभ ा पर ीलोलुपः सदा
( वैवत)
शची के समान प नी होते हुए भी सदा पर य म ल ! उ ह िन य
नयी-नयी यव
ु तयाँ चािहए!
न या न या यव
ु तयो भव त मह ेवानाम्
(ऋ वेद 30 । 55 । 16)
उनम रात-िदन सचन करना ही इनका काम था।
तासु रेत: ा सचत्
(शतपथ 2 । 1 । 1 । 5)
म–दे खए, सूय और चं मा कैसे पु य- ताप से चमक रहे ह!
ख.–दोन म कोई देवता दध ू के धोये नह ह। सूय के पु य का हाल
ऊषा और कु ती जानती ह। ताप का यह हाल है िक केतु बार-बार िनगल
जाता है। समझो तो यह उ छ ह, जूठे ह। तभी तो यो तज म इनको
पाप ह कहा जाता है। तब गाय ी मं म तेज कहाँ से आवे! इसी से िकतना
भी ‘ धयो योन: चोदयात्’ करने से कुछ फल नह िनकलता है। सिवता
का गुण हमने इसी अथ म हण िकया है िक सिवता का काय तेजी के
साथ करते ह। और चं मा तो ऐसी कृ त कर गये ह िक अब तक मुँह पर
का लमा पुती हुई है। गु प नी का भी िवचार नह ! यह कलंक ‘याव
िदवाकरौ’ िमटनेवाला नह ! तभी तो वह य रोग से सत हुए। ऐसे
महापातक म तो ग लत कु हो जाय।
म–ख र काका, देवता गण अज अिवनाशी होते ह…
ख.–हाँ, अज कहते ह बकरे को और अिव नाम भेड़ का है। उसके
नाशक तो अव य होते ह।
अ ं नैव गजं नैव या ं नैव च नैव च
अजापु ं ब ल द ात्, देवो दबु लघातक:!
जो अबल रहते ह, उ ह पर देवता बल होते ह।
म–ख र काका, छोटे-छोटे देवताओं को छोिड़ए। बड़े ह– ा, िव णु,
महेश।
ख र काका बोले–तो बड़ क भी सुन लो। ा को तो िम ी का ल दा
ही समझो। चार मुँह रहने से या होता है! कभी कोई काम उनसे पार नह
लगा। जब-जब देवता लोग सहायता के लए पहुँचे, तब-तब या, तो “िव णु
के यहाँ जाओ।” अथात् “मुझ से कुछ नह होगा।” वह वयं सा ी गोपाल
क तरह प ासन लगाये बैठे रहगे! वैसा बोदा तो कोई देवता नह ।
म–ख र काका, सृि के आिद-मूल को आप ऐसा कहते ह?
ख.–आिद-मूल या रहगे? वह तो खुद िव णु क ना भ से िनकले ह।
और, सृि क बात या करते हो? स ययगु म ज म लेकर उ ह ने जैसा
कृ य िकया, वैसा क लयगु म भी ाय: कोई नह करता। चार वेद के क ा
होकर अपनी ही क या के पीछे दौड़ गये! कहलाने को ‘अज’, और काम
बोतू का! तभी तो अज का अथ बकरा भी हो गया है। इसी छागली वृ के
कारण वह अपू य माने जाते ह। सभी देवताओं क पूजा हो जाने पर जो
अ त शेष बच जाता है, वही उनके नाम पर छ ट िदया जाता है।
मने कहा–ख र काका, सबसे बड़े ह िव णु भगवान्।
ख र काका बोले–तब िव णु क भी सुन लो। उनके जैसा मायावी तो
कोई नह । कह मोहन प बनाकर नारी को लुभाते ह, तो कह मोिहनी प
धारण कर पु ष को रझाते ह। मधु-कैटभ सुंद-उपसुंद, सबको तो छल से
ही मारा। जालंधर क ी वृंदा के साथ ऐसा जाल िकया िक अं तम वद ु
तक पहुँचा िदया! ऐसा छ लया दस ू रा कौन होगा?
म–परंतु उ ह ने अवतार लेकर कैसे-कैसे काम िकये ह, सो नह देखते
ह?
ख र काका सुपारी कतरते हुए कहने लगे–अजी, सभी काम तो वैसे ही
ह। छल, कपट और वाथ से भरे हुए। राजा ब ल से ऐसा तकड़म िकया िक
बेचारा ब लदान ही पड़ गया! मुझे तो जान पड़ता है िक उसी ब ल से
ब लदान श द बना होगा। ब लव दानं ब लदानम्! कह बाप से बेटे को
लड़ाते ह। कह भाई से भाई को। कह प त से प नी को फुटकाते ह। क शपु
से वैर ाद से नाता! रावण को मार िवभीषण को राज्! राधा के साथ रास
और उसके प त से साहब-सलामत तक नह !
म–ख र काका, दे खए, उ ह ने कैसे ऐन व पर ौपदी क लाज
बचायी!
ख र काका मु कुराते हुए बोले–अजी, मुझे तो ऐसा लगता है िक यमुना
तट पर चुरायी हुई गोिपय क सािड़याँ लेकर ही उ ह ने ौपदी के आगे ढेर
लगा दी ह गी। जब तक वाथ था, तब तक वृंदावन िबहारी बने रहे और
काम िनकल जाने पर ा रका का रा ता लया। िफर य राधा क खोज
करगे? कभी एक च ी तक बेचारी को नह लखी! जस यशोदा ने इतना
म खन खलाकर पोसा उ ह को कौन-सा यश िदया? समझो तो यह िकसी
के भी नह थे। सफ अपने मतलब के यार! अपना वाथ साधने के लए
मछली, कछुआ, सूअर, कौन-कौन बाना नह बनाया? ऐसा बहु िपया कौन
होगा? न नर सह प धारण करते देर, न बु देव बनते! राम बनकर धनुष
तोड़ते ह, परशुराम बनकर कु हाड़ी चलाते ह! कभी बु के प म ी को
घर म छोड़कर वन का रा ता लगे! कभी राम के प म खुद घर म रहकर
ी को वन का रा ता धरायगे! ऐसे-ऐसे ऊटपटाँग काम म ही तो इनका
मन लगता है। एक अवतार म माता क गदन काटते ह, दस ू रे म मामा को
पटककर मारते ह। अब क क अवतार म न जाने या करगे?
म–ख र काका, यह सब तो भगवान् क लीला है।
ख.–हाँ, भगवान् खेलते ह। कोई गा जयन तो ऊपर म है नह । जो-जो
मन म आता है, करते रहते ह। यह चाल या कभी छूटनेवाली है? समझो
तो वह अभी तक नाबा लग ही ह। इसी से राम या कृ ण क मू म कह
दाढ़ी-मूँछ देखते हो?
म–ख र काका, यह तो पते क बात कही। िव णु भगवान् चर िकशोर
नजर आते ह। परंतु िव के पालन-क ा तो वही ह?
ख.–अजी, तभी तो िव क यह हालत है! वह ऐसे आल य-िवलासी ह
िक हमेशा ससुराल म ही पड़े रहते ह। सदा ीर सागर शयन! देवता लोग
बहुत गोहार करगे तो एक-एक बार ग ड़ पर चढ़गे और जाकर सुदशन च
से काम कर आवगे। उसके बाद िफर वही ल मी-मुख-कमल मधु त! रात-
िदन ससुराल म रहते-रहते आदमी अहदी बन जाता है। अजी, जस पर
संसार भर का भार हो, वह कह ऐसा घरजमाई बनकर पड़ा रहे! परंतु
इनको डाँटे कौन? कभी भृगु जैसे ा ण से पाला पड़ जाता है, तो सीख
जाते ह। इसी से तो यह ा ण से भड़के हुए रहते ह। यिद इनम ा ण के
त भि रहती तो मेरे कपार पर द र ा य सटी रहती?
म–तब तो ि मू म बाक बचे सफ महादेव।
ख र काका एक चुटक कतरा मुँह म रखते हुए बोले–तब महादेव क
भी सुन लो। वह तो सहज ही बौड़म ठहरे। आक-धतूर खाकर म ! न
जा त-पाँ त का िठकाना, न छुआछूत का िवचार! भूत- ेत बैताल का संग!
चमड़े पहने, हाड़-मूँड लेकर मशान म ीड़ा करते रहते ह। औघड़ क
तरह! इसी कारण उनका साद कोई नह खाता।
मुझे मुँह ताकते देख ख र काका कहने लगे–समझो तो महादेव भारी
ना तक थे। उ ह ने सारा कम-धम डु बो िदया। न शखा-सू रखा, न
ा ण-भोजन कराया। कोई भला आदमी बैल क पीठ पर सवारी करता है?
गले म साँप लपेटता है? एक बार जी म आया तो जहर उठाकर पी गये!
समझो तो उनके जैसा सनक आज तक पैदा नह हुआ।
म–ख र काका, महादेवजी िन वकार ह।
ख.–सीधे िन वकार मत समझो। ससुर ने य म िनमं ण नह िदया तो
जाकर उनक गदन ही काट आये! ससुर का तो यह हाल, और ससुर क
बेटी को सर पर चढ़ाकर अधनारी र बन गये! समझो तो इ ह क
देखादेखी आजकल के क लयगु ी प त य को सर पर चढ़ाए रहते ह।
म–परंतु महादेवजी आशुतोष ह। उ ह स होते भी देर नह लगती।
ख.–हाँ, जहाँ िकसी ने एक बेलप चढ़ाकर ूम् बोल िदया िक तुरत वरं
ूिह। वरदान देते समय औढरदानी! इसी का फल हुआ िक भ मासुर उ ह
के म थे हाथ देने लगा! समझो तो सभी रा स इ ह के बहकाए हुए ह।
देवताओं म ऐसा अलम त कौन िमलेगा? इसी लए तो बमभोला कहलाते ह।
अजी, मने तो भरसक चे ा क िक भोलानाथ से कुछ झीटू ँ, लेिकन अभी
तक कहाँ हाथ लगे ह! ऐसे मद का भरोसा ही या?
म–ख र काका, तब सभी देवताओं म े आप िकसको समझते ह?
ख.–कैसे कहूँ? वयं देवता लोग भी इसका िनणय नह कर सके ह।
महादेव िव णु को बड़ा मानते ह। िव णु महादेव को बड़ा मानते ह। राम
महादेव को पूजते ह। महादेव राम नाम का जप करते ह। सीता गौरी क पूजा
करती ह। िग रजा सीता का यान करती ह। पावती महादेव क आराधना
करती ह। महादेव दगु ा क तु त करते ह। ऐसा गड़बड़-घोटाला है िक वयं
देवताओं को भी पता नह िक कौन बड़ा, कौन छोटा। नह तो महादेव के
िववाह म कह गणेश क पूजा हो! बाप के िववाह म बेटे क पूजा! देवताओं
क बात ही िनराली होती ह।
म–ख र काका, जो जतने बड़े देवता ह, वे उतने ही न और
िवनयशील होते ह।
ख र काका हँसकर बोले–जो देवानां ि य: (मूख) होगा, वही ऐसा
कहेगा। अजी, देवताओं जैसा झगड़ालू कौन िमलेगा? इन लोग म इस तरह
लड़ाइयाँ हुई ह िक या तीतर-बटेर म ह गी? पहले तो “आप बड़े, तो आप
बड़े।” और, जहाँ िकसी बात पर बझ गयी तो भड़ंत होते भी देर नह ! इं
और कृ ण म, कृ ण और महादेव म, महादेव और गणेश म, िकस कार
उठा-पटक हुई है, सो देखना हो तो पुराण पढ़ो। और, अंत म िफर वही
तु त! “आप पू य, तो आप पू य!” अजी, ये लोग ण य देवता थे!
म–ख र काका, अगर सभी देवता ऐसे ही ह, तो िफर सृि का काम
कैसे चलता है?
ख र काका महीन कतरा करते हुए बोले–सच पूछो तो एक ही देवता
असली सृि क ा ह, और वह ह कामदेव। उ ह से सारी सृि चलती है।
ा, िव णु, महेश-तीन उनसे हारे हुए ह। जब बड़ का यह हाल तो कु
ग यो गणेश:!
मने कहा–ख र काका, गणेश क पूजा तो सव थम होती है। िव न दरू
करने के लए।
ख र काका बोले–हाँ, वह िव नेश कहलाते ह। परंतु उनका तो अपना
ही जीवन िव न से भरा हुआ है। शिन क ि पड़ी तो म तक कट गया।
गजवदन बनना पड़ा। परशुराम से लड़ाई हुई तो फरसे से एक दाँत टू ट गया।
एकदंत हो गये। जब अपने ही िव न दरू नह कर सके तो दस ू रे का िव न
या दरू करगे! इसी से लाख गणप त वं हवामहे करते रहने पर भी हम
लोग के दःु ख दरू नह होते ह।
म–तब गणेश से भी बल ह कामदेव?
ख.–गणेश के बाप से भी बल ह। कामदेव को पछाड़नेवाला आज तक
कोई पैदा नह हुआ। इसी से म इनको सबसे बड़ा देवता मानता हूँ। जब तक
सृि का वाह चलता है, तब तक कामदेव क स ा को कौन अ वीकार
कर सकता है? यह पंचभूतमय शरीर इ ह के पंचसायक का साद है। और,
जस िदन यह देवता अपना वाण तरकस म रखकर कूच करगे, उसी िदन
लय समझो। सृि के लोप को ही तो लय कहते ह।
म–तब कामदहन क कथा य है?
ख र काका बोले– ‘काम-दहन’ का असली अथ है कामेन दहनम्।
चौरासी लाख योिनयाँ कामाि से द ध होती रहती ह। देखो, इनके जतने
नाम ह, सभी से यही बात सू चत होती है। सभी कामनाओं म बल,
इस लए कामदेव। म कर देते ह, इस लए मदन। मन को मथकर छोड़ देते
ह, इस लए म मथ। अ य ह, इस लए अनंग। कोमल टीस देते ह, इस लए
पु पध वा। संयोग करवाते ह, इस लए र तप त। िवयोग म जान ले लेते ह,
इस लए मार!
म–तो महादेवजी उ ह नह जीते हुए ह?
ख र काका बोले–महादेव या जीतगे? कामदेव ही महादेव को जीते
हुए ह। तभी तो–
दगु ाग पशमा ेण कामेन मू छत: शव:
( वैवत)
दगु ा के अंग पश से ही वह काम-मू छत हो गये! ‘ वैवत’ पुराण म
शव का संभोग-वणन पढ़ो, तो समझोगे िक कामदेव ने महादेव क कैसी
ददु शा क है!
भूमौ पपात त ीय तत: कंदो बभूव ह।
यिद शव सचमुच कामजयी होते तो का केय और गणेश का ज म
कैसे होता? लोग कहते ह िक शवजी ने मदन को भ मीभूत कर िदया। म
कहता हूँ िक मदन ने ही उ ह भ ममय बना डाला। तभी तो सती के िवयोग
म भ म लेपे रहते ह! जानते हो, भ म या चीज है?
ा ेयात् परवीय त भ म प रक ततम्
(बृह ाबालोपिनष )
भ म सा ात् का वीय है! अब तु ह कहो, महादेव बल ह या
कामदेव?
मुझे मुँह ताकते देख ख र काका बोले–वेद म भी कामदेव को सबसे
बल देवता माना गया है। देखो–
कामो ज े थमो नैनं देवा आपु: िपतरो न म या:
तत वम स
यायान् िव हा महान् त मै ते काम नाम इ त वृणोिम
(अथववेद 9 । 2 । 19)
भिव यपुराण म तो यहाँ तक लख मारा है िक
वक यां च सुतां ा िव णुदेव: वमातरम्
भिगन भगवान् शंभ:ु गृही वा े तामगात्!
( तसगखंड)
मने पूछा–ख र काका, तो अ या य देवताओं क तरह कामदव के
मंिदर य नह बने ह?
ख र काका हँस पड़े। बोले–तुम िब कुल भोले हो। वह देवता हर मंिदर
म रहते ह! शरीर-मंिदर से लेकर देवमंिदर तक म। कह -कह , जैसे कोणाक
और खजुराहो म, कट प से िव मान ह। अ य मंिदर म छ पम
ह। अभी तुम जस शव लग पर जल ढारने जाते हो, वह िकसका तीक है?
मंिदर म जाकर देखो, तो शव लग और जलढरी, दोन का रह य समझ म
आ जाएगा।
म–ख र काका, आप देवताओं से भी प रहास करते ह?
ख.–हँसी नह करता हूँ। पुराण देखो।
लगवेदी उमादेवी लगं सा ा महे र:
तयो: संपूजनादेव देवी देव पू जतौ
( लगपुराण)
और भी वचन लो।
शवश यो च य मेलनं लगमु येते
( शवपुराण)
य लगं त योिन: य योिन तत: शव:
उभयै ैव तेजो भः शव लगं यजायत
(नारदपंचरा )
शैव लोग एक अंग क पूजा करते ह; शा लोग दस ू रे अंग क । कुछ
लोग दोन क । अब उसे ैत कहो या अ ैत या िव श ा ैत! उससे मुझे कोई
झगड़ा नह ।
मने कहा–ख र काका, आप तो हँसी-हँसी म ही बु को उलझा देते
ह। या आपको देवता म िव ास नह है?
ख र काका बोले–अजी, िव ास य नह है? ‘देवता’ का अथ है
िद य कां त से यु । रंगिबरंगे व म चमकते हुए राजाओं को देखकर
‘देवता’ क क पना हुई। ‘ई र’ का अथ मा लक। ल मीप त का अथ
धनवान्। नारायण का अथ है, जलमहल म शयन करनेवाला। ग ड़वाहन
का अथ, शी गामी यान पर चलनेवाला। जाप त का अथ, जा का
वामी। हर का अथ, कर (मालगुजारी) हरण करनेवाला। चतुभुज का अथ,
जसका बाहुबल चार ओर या हो। पंचमुख का अथ, जो पाँच यि य
का भोजन खा जाय! ये ही लोग देवता कहलाते आये ह। जो धनी या
भावशाली ह वही देवता।
ख र काका नस लेते हुए कहने लगे–देखो, पहले छोटे-छोटे गण थे।
इस लए गणेश अथात् गण के सरदार से ीगणेश हुआ। वे दलनायक होते
थे, इस लए िवनायक नाम पड़ा। उन िदन भी गणप त गजवदन होते थे और
साधारण जनता चूहे क भाँ त उनके भार से दबी रहती थी। इसी से
मूिषकवाहन कहलाए। बाद म बड़े-बड़े महाराज को महल म िवलास करते
देख अ सरालय म िवहार करनेवाले इं क क पना क गयी। एकछ
स ाट् को देखकर एकमेवाऽि तीयं क क पना हुई। देवता लोग
सामंतवाद के तीक ह; सा ा यवाद के। परंतु अब तो समाजवाद का
यगु है। इस लोकतं म असली देवता हम लोग ह।
फ लत यो तष
उस िदन यो तषीजी मेरे यहाँ पंचांग देख रहे थे। उसी समय ख र काका
पहुँच गये। उनको देखते ही यो तषीजी अपना पोथी-प ा समेटने लगे।
िफर भी ख र काका पूछ ही बैठे– यो तषीजी! या हो रहा है?
यो तषीजी ने कहा–नयी दल
ु हन अभी मायके म ह। वह िकस िदन
यहाँ के लए या ा करगी, उसी का िवचार कर रहा हूँ।
ख र काका बोले–वह जब चाहगी, चली आयँगी। इसके लए आप य
परेशान हो रहे ह?
यो.–लेिकन थान तो अ छे ही िदन म करगी!
ख.–अव य! द ु दन म, आँ धी-पानी के िदन, तो नह ही चलगी।
यो.–लेिकन इस महीने म तो एक भी िदन नह होता है।
ख.–इस महीने म पूरे तीस िदन होते ह।
यो.–लेिकन काल जो अभी पूव म है?
ख.– यो तषीजी, मुझे मत ठिगए। काल या आपका छु ा साँड़ ह, जो
अभी पूरब क तरफ मैदान म चरने गया है? काल कब िकस जगह नह
रहता?
यो.–आप तो शा मानते ही नह । अभी सूय द णायन ह।
ख.–ह, तो ह। इसम दल
ु हन का या कसूर है िक आप उ ह ससुराल
नह आने देते?
यो.–म या क ँ ? अभी तीन महीने िबदा होने का कोई िदन नह
बनता।
ख.– य नह बनता?
यो.–दे खए, पूस म तो िबदा हो नह ।
ख.– य नह हो?
यो.–पूस महीना श त नह है।
ख.–पूस महीने ने कौन-सा पाप िकया है?
यो.–अब आपसे कौन बहस करे? माघ-फागुन म सामने काल पड़
जाता है। चैत म चं मा वाम पड़ता है।
ख.–इनका िवधाता ही वाम है िक आपसे या ा का िदन तका रहे ह।
यो तषीजी, जरा सािह य का भी योग दी जए। फागुन म कह काल का
िवचार होता है! चैत का चं मा कह वाम हो!
यो.–उसके बाद तो भ ा ही पड़ जाती है।
ख.–भारी भ ा तो ह आप। मुझे कह, तो आज ही िदन बना दँ।ू
यो.–सो कैसे? आज सोमवार को तो पूरब क ओर िदशाशूल ही लग
जाएगा।
ख.–कैसे लग जायगा? रा ते म या कह क ल गड़ी हुई है?
यो.–आप तो ना तक क तरह बोलते ह।
‘शनौ सोमे यजेत् पूवाम्…’
ख.–कथं यजेत?् तब आज िद ी से हाबड़ा जानेवाली गाड़ी कथं
चलेत्? संपूण पृ वी ही प मी से पूव क ओर कथं मेत्?
यो.–जो बु मान ह, वे िद बल म चलते ह।
ख.– यो तषीजी, आपक बात म सोलहो आने मान लेता, यिद िद बल
म चलने से रा ते म मगदल के लड् डू बरस जाते। परंतु म तो हर रोज हर
तरफ जाता हूँ। न तो िदशाशूल म कभी शूल गड़ा, और न िद बल म फूल
झड़ा।
यो.–तो आपके लए िदक्शूल कुछ नह है?
ख.– जसे आप िदक्शूल कहते ह, वह सफ एक क पत क्शूल है,
जो आपक आँ ख म खटकता है।
यो.–तो आपके लए वारदोष कुछ नह है?
ख.–रोममा दोष नह है। वारदोष और देश म य नह लगता?
“सबसे उजबक दीनानाथ” या हम लोग ह?
यो.–यिद शा ही उठा दी जए, तब तो कोई बात ही नह । परंतु
मुहू चताम ण दे खए…
ख र काका बीच ही म काटते हुए बोले–मुहू चताम ण नह , धू
चताम ण! आप लोग अपना उ ू सीधा करने के लए सभी लोग को मुहू
के फेर म डाले हुए ह। राजा के लए अ भषेकमुहू ! सेना के लए
अ गजसंचालनमुहू ! सपाही के लए श धारणमुहू ! बिनया के लए
य-िव यमुहू ! महाजन के लए ऋणदानमुहू ! सोनार के लए
भूषणघटनमुहू ! धोबी के लए व ालनमुहू ! न क के लए
नृ यारंभमुहू ! यह सब पाखंड नह तो और या है? बेचारे िकसान को
पग-पग पर मुहू -जाल म फँसा िदया गया है। हल जोतने के लए
हल वहणमुहू ! बीज बोने के लए बीजोि मुहू ! धान रोपने के लए
श यरोपणमुहू ! धान काटने के लए धा य छे दनमुहू ! य क चोटी
तो आप लोग ने और भी कसकर पकड़ी है। कह कब जूड़ा बाँधे उसके लए
केशबंधनमुहू ! कब चू हा गाड़े, उसके लए चु हका थापनमुहू ! कब
नहाये, उसके लए नानमुहू ! ब े को कब दध ू िपलाए, उसके लए
तनपानमुहू !
मुझे िव मत देखकर ख र काका बोले–म हँसी नह करता। तन पर
भी यो तिषय का अ धकार है! तनंधय शशु को भी मुहू के बंधन से
छुटकारा नह ! िव ास नह हो, तो उसका भी वचन सुन लो–
र ां भौमं प र य य िवि पातं सवैधृ तम्
मृदध
ु ृव भेषु तनपानं िहतं शशो:!
(दैव व भ)
अजी, म पूछता हूँ, यह सब या मजाक है? कोई सू तका मंगलवार
को अपना तन नवजात शशु के मुँह म लगा देगी, तो या मंगल ह
िबगड़कर अमंगल कर दगे? उनको तन से या बैर!
मने कहा–हो सकता है, ह-न का कुछ सू म भाव पड़ता हो,
इसी लए इतना काल-िवचार िकया गया है।
ख र काका बोले–अजी, यही काल तो हम लोग का महाकाल बन
गया! बाट म काल! हाट म काल! घाट म काल! खाट बुनो, तो काल! ठाट
बाँधो, तो काल! इतना ठाट-बाट तो लाट साहब का भी नह होता, जतना
काल स ाट् का! “वह होकर िव ाट कर दगे!” इसी डर ने लोग को
जािहल-जाट बना िदया। शादी करो, तो मुहू देखो। गौना करो, तो मुहू
देखो! गृह वेश करो, तो मुहू देखो। यहाँ तक िक गभाधान करो, तो मुहू
देखो! यह सब खेलवाड़ नह , तो और या है?
म–ख र काका, आप िद गी कर रहे ह। गभाधान भी कह प ा
देखकर िकया जाता है।
ख र काका बोले–गभाधान ही य , इनका वश चले तो गमा धान का
भी मुहू बना द!
गभाधान का वचन देखो–
ष मी पंचदशी चतुथ चतुदशीर यभ
ु य िह वा
शेषा: शुभा: य:ु तथयो िनषेके वारा: शशांकाय सतदज
ु ा
(बृह यो तषसार)
“ष ी, अ मी, पू णमा, अमाव या, चौठ, चतुदशी म गभाधान क
परिमट नह िमलती। स ाह म केवल तीन िदन, सोम, बुध, शु को इस
काय के लए लाइसस दी जाती है। अजी, म पूछता हूँ, यिद पू णमा क
आनंदमय राि म वर-क या ‘िमथुन-ल ’ हो जायँ, तो या चं मा को हण
लग जायगा या आसमान फट पड़ेगा? रिववार को दांप य संयोग होने से
या सूय के रथ का घोड़ा भड़क जायेगा या च ा टू ट जायेगा? िफर ये
वयंभू यो तषी दाल-भात म मूसलचंद य बन जाते ह? िमथुन-रा श के
बीच वृ क बनकर य पहुँच जाते ह? पूछे न आछे , म दल
ु िहन क चाची!
म–ख र काका, आपको यो तष म िव ास नह है?
ख र काका बोले–अजी, फ लत यो तष यिद फ लत होता, तो अभी
तक म ढाई हजार बार मर चुका होता!
म–सो कैसे, ख र काका?
ख.–देखो, यो तष का वचन है–
रिव तापं का त िवतर त शशी भूिमतनयो
मृ त ल म सौ य: सुरप तगु व हरणम्
िवप ं दै यानां गु र खलभोगानुगमनम्
नृणां तैला यंगात् सपिद कु ते सूयतनय:
( यो त: सारसं ह)
अथात्, “रिववार को तेल लगाने से क , सोमवार को कां त, मंगलवार
को मृ य,ु बुधवार को ल मी, बृह प त को द र ता, शु वार को िवप
और शिनवार को सुख क ाि होती है।” इसम कौन-सा काय-कारण
संबध
ं है, सो तो दैव ही जान! मगर म पचास वष से िन य तेल लगाता
आया हूँ। इतने िदन म ढाई हजार से यादा मंगलवार पड़े ह गे। परंतु आज
तक म जदा ही हूँ। िफर भी तुम यो तष म िव ास रखने को कहते हो?
मने कहा–ख र काका, इसका उ र तो यो तषी ही दे सकते ह।
ख र काका बोले– यो तषी या उ र दगे! अपने ही फंदे म फँस
जायँगे। देखो, कसा गड़बड़झाला है! ऋतु करण म एक जगह कहते ह–
आिद ये िवधवा नारी
अथात्, “यिद कोई ी रिववार को ऋतुमती हो, तो िवधवा हो
जाएगी।” और िफर दस
ू री जगह कहते ह–
पंच यां चैव सौभा यम्
अथात्, “यिद पंचमी त थ म ऋतुमती हो, तो वह सौभा यवती होगी।”
अब म यो तषी महाराज से पूछता हूँ िक अगर पंचमी रिववार को कोई
ी ऋतुमती हो, तब वह या होगी?
यो तषीजी को चुप देख ख र काका बोले–और देखो। एक वचन है–
माघे पु वती भवेत्
अथात्, “माघ मास म रजोदशन होने से ी पु वती हो।”
और दस
ू रा वचन है–
कृ कायां तु बं या यात्
अथात्, “कृ का न म रजोदशन होने से ी बं या हो।”
अब यो तषाचाय से पूछो िक यिद माघ मास कृ का न म ी
रज वला हो जाय, तब तो बं या-पु का ज म हो जाएगा!!
यो तषीजी को िन र देखकर ख र काका िफर बोले–और तमाशा
देखो। एक जगह तो कहते ह िक–
धने प त ता ेया
अथात्, “धन रा श म रज वला होने से प त ता हो।”
और दस
ू री जगह कहते ह िक–
मंदे च पुं ली नारी
अथात्, “शिनवार को रज वला होने से य भचा रणी हो।”
अब तु ह कहो िक यिद वह धन रा श म शिनवार को रज वला हो
जाय, तब या करेगी?
अजी, कहाँ तक कहूँ? इतने पाखंड भरे हुए ह, िक वणन करने से
महापुराण बन जाय। िफर भी यहाँ के लोग बात-बात म यो तषी का पुँछ ा
पकड़े रहते ह!
ख र काका बोल ही रहे थे तब तक बु नाथ चौधरी दौड़ते हुए पहुँचे
और बोले– यो तषीजी, अभी-अभी मेरे घर म शशु का ज म हुआ है। इसी
से दौड़ा आ रहा हूँ। जरा ल -कम दे खए।
यो तषीजी ने पूछा–िकतनी देर पहले शशु का ज म हुआ है?
बु नाथ बोले–यही करीब दस िमनट होते ह।
यो तषीजी प ा देखते-देखते एकाएक चीख उठे –बाप रे बाप!
ख र काका ने पूछा– या हुआ? यो तषीजी! या ततैया ने काट
लया?
यो तषीजी सर पर हाथ रखकर बोले–नह , महाराज! सो रहता तो
या बात थी? यह तो सवनाश हो गया!
बु नाथ चौधरी को काटो तो खून नह ! थरथर काँपते हुए बोले–ज द
किहए, यो तषीजी! या बात है?
यो तषीजी बोले–कहूँ या खाक? मूल न के थम चरण म ज म
हुआ है। गंडयोग म! वह आप ही को ले डू बेगा। मूला पादे िपतरं िनह त!
बु नाथ चौधरी पर व पात हो गया। वह फूट-फूटकर रोने लगे।
यो तषीजी गंभीर भाव से कहने लगे– शशु ने आपका नाश करने के लए
ही ज म लया है। दो ही उपाय ह। या तो उसे कह फक दी जए या आज ही
माँ के साथ निनहाल भेज दी जए। आठ वष तक उसका मुँह आपको नह
देखना है। और अभी से गोदान, वणदान, नव हपूजा, यह सब करना
पड़ेगा।
धेनुं द ात् सुवण च हां िप पूजयेत्
अब ख र काका से नह रहा गया। बोले– जसने यह सब लखा है, वह
झूठा है, म ार है! असली ह तो आप लोग ह। न क आड़ म अपना
न बनाते ह। य इस बेचारे को यथ महाजाल म डाल रहे ह?
यो.–तो या आप ज मकंु डली का फल नह मानते?
ख.–कंु डली का इतना ही फल मानता हूँ िक उससे आपके ब े के कान
म कंु डल पड़ जाते ह। मेरी नजर म वह सरासर जाली द तावेज है। इसी
समय हजार ब े दिु नया म पैदा हुए ह गे। तो या सभी के भा य-कम एक-
से ह गे? एक ही साथ दो जुड़वाँ ब े ज म लेते ह। एक जीता है, दस
ू रा मर
जाता है। टीपन तो एक ही रहती है। िफर फल य पर पर िव होते ह?
यो तषीजी कुछ कंु िठत होते हुए बोले– तो भृगु-पराशर आिद जो
इतना सारा जातक-िवचार कर गये ह, वह िम या है?
ख र काका बोले–ये ही सब नाम बेचकर तो आप लोग हजार वष से
यह ठग-िव ा का यापार चला रहे ह। जो मन म आवे सो ोक गढ़कर
जोड़ दी जए और ठोक दी जए पराशर के म थे!
अजी, मने भी यो तष के ंथ देखे ह। उनम ऐसी-ऐसी बात ह, जो
धू क ही रची हो सकती ह। यजमान क आँ ख म धूल झ ककर
यजमािनन के साथ भ े मजाक िकये गये ह।
यो तषीजी ने सशंिकत होते हुए पूछा–कैसे? आप उदाहरण दे सकते
ह?
ख र काका ने कहा–एक-दो नह , अनेक । दे खए, यार लोग कैसा ढ ग
रचे हुए ह!
उपपदे बुधकेतु यां योग संबध
ं के ि ज
थूलांगी गृिहणी त य जायते ना संशय:
(पाराशरहोरासार)
यजमान क ज मकंु डली देखकर वे पहले ही जान जाते ह िक उसक
प नी मोटी, गुलथुल बदन क होगी। इतना ही नह , कंु डली म ह का
िहसाब लगाकर तन का आकार भी भाँप लेते ह!
किठनो व कुजाचाय े थूल तनो मा
(पा. हो.)
“अगर कुज (मंगल) बुलद
ं ह गे, तो कुच भी बुलद
ं रहगे।”
मुझे िव मत देखकर ख र काका कहने लगे–अजी, इतने ही म मुँह बा
रहे हो? अभी और सुनो।
जािम े मंदभौम थे तदीशे मंदभौमजे
वे या वा जा रणी चािप त य भाया न संशय:
(पा. हो.)
जसक टीपन म इस तरह का योग होगा, “उसक प नी िनःसंदेह रंडी
होगी या यार के साथ आशनाई करेगी।”
मने कहा–अरे! ऐसी बात से तो दांप य संबध
ं का िव छे द हो जा
सकता है।
ख र काका बोले–उसक िफ ोक बनानेवाले को थोड़े ही है? और
सुनो।
भ पादा संयोगा ि तीया ादशी यिद
स मी चाकमंदारे जायते जारजो ुवम्
(पा. हो.)
अथात्, शशु क कंु डली म उपयु योग रहे, तो वह िन य जारज
संतान है।
म–यह ोक तो ी का गला कटवा दे सकता है।
ख.–अजी, केवल ी का ही नह , छोटे भाई का गला कटानेवाला
ोक भी है। देखो–
हराजे थते ल े चतुथ सिहकासुते
वदेवरात् सुतो प : जाता त या: न संशय:
(पा. हो.)
अथात्, टीपन म ऐसा योग हो, तो “िन संदेह देवर के वीय से पु ो प
हुई है!” टीपन सूँघने से यो तषी महाराज को वीय क गंध लग जाती है!
अब तु ह बताओ, यह सब गुड ं ई नह , तो और या है? और ऐसे-ऐसे
शोहद को इस देश म कहा जाता है यो त व ाणव!
मने पूछा–आपने जो सब वचन कहे ह, वे या सचमुच यो तष के ंथ
म है?
ख र काका बोले–नह तो या म अपनी तरफ से गढ़कर कह रहा हूँ?
यो तषाचाय तो यहाँ बैठे ही हुए ह! पूछ लो िक ये सब ोक ंथ म ह या
नह । सो भी ंथ कैसा िक पाराशर होरासार!
यो तषीजी सर खुजलाते हुए बोले–हाँ, वचन तो ज र ंथ म ह।
‘पाराशर होरासार’ यो तःशा का ामा णक ंथ है। कतु उसको आप
अस य य मानते ह?
ख र काका बोले–केवल अस य ही नह , अ ील भी। उसम ऐसी-ऐसी
गंदी गा लयाँ भरी हुई ह, जैसी चकले म ही सुनने को िमलगी। दे खए–
धनेशे स मे वै े परजाया भगािमक:
जाया त य भवे े या मातािप य भचा रणी
(पा. हो.)
इस कार क हदशा हो, तो “वह आदमी पर ी-गामी होगा, उसक
प नी रंडी होगी, उसक माँ य भचा रणी होगी!” ऐसी माँ-बहूवाली गा लयाँ
भिठयार के मुँह से ही िनकल सकती ह। या यह िव ान क भाषा है?
मने कहा–ख र काका, यो तषशा म ऐसी बात भी ह गी, यह म
नह जानता था।
ख र काका बोले–तुमने यो तष पढ़ा ही कब? बृह ातक, पाराशर
आिद देखो तब पता लगेगा।
अब यो तषीजी से नह रहा गया। शा ाथ क मु ा म बोले–यह सब
झूठ है, इसका माण?
ख र काका ने उ र िदया– माण वयं म हूँ। मेरी टीपन म राजयोग
लखा है।
वाहनेश तथा माने मानेशो वाहने थत:।
ल धमा धपा यां तु ो चेिदह रा यभाक्।।
(पा. हो.)
परंतु राज िमलने क या बात, एक राज (मजदरू ) तक नह िमलता।
राजयोग के बदले रोज हठयोग का अ यास करना पड़ता है। अब रहा
जारयोग! सो जरा तकशा का योग लगाकर दे खए। या य भचार प ा
देखकर िकया जाता है? और उससे जो गभ होता है, वह या ल का
िवचार कर पेट से िनकलता है? आप दस
ू र का कौन कहे, अपने पु का भी
जारज योग नह पकड़ सकते! इसी लए कहा गया है–
गणय त गगने गणक: चं ेण समागम: िवशाखाया:
िविवधभुजगं ीडास ां गृिहण न जाना त!
िवशाखा, अनुराधा, और रोिहणी के समागम पर तो आपक सू म ि
रहती है, चु चे चो ला अ नी 1 को आप कसकर पकड़े रहते ह, आकाश के
ह त न का वेश आप देखते ह, कतु अपने घर क ह तनी क
ग तिव ध आप नह जानते! तब जारज योग या पकिड़एगा?
यो तषीजी तलिमला उठे । बोले–यह तो गाली हो गयी। यो तषी क
ी या ग णका होती है?
ख र काका हँसकर बोले–गणक का ी लग तो ग णका ही होना
चािहए। और, वयं गणक भी तो कुछ हद तक ग णका के समान ही होते ह,
दे खए, कैसी चुटीली उि है!
ग णका गणकौ समानधम िनजपंचांगिनदशकावुभौ
जनमानस मोहका रणौ तौ िव धना िव हरौ िविन मतौ
“िवधाता ने गणक ( यो तषी) और ग णका (वे या) को इसी लए
बनाया है, िक वे अपने पंचांग के ारा जनमन को मोिहत कर य हरण
कर। ये प ा खोलकर िदखलाते ह, वे पाँच अंग को खोलकर िदखला देती
ह।”
यो तषीजी कटकर रह गये। िफर भी अ भमानपूवक बोले– यो तष के
सभी वचन ामा णक और स य ह। भृगु पराशर आिद ि कालदश थे।
ख र काका ने मु कुराते हुए पूछा– यो तषीजी, आपको अपनी
ज मकंु डली पर पूण िव ास है?
यो.–अव य।
ख.–अ छा, तो जरा अपनी कंु डली मुझे देखने दी जए।
यो तषीजी ने कुछ िहचिकचाते हुए अपनी कंु डली ब ते से िनकालकर
ख र काका के हाथ म दी।
ख र काका ने कंु डली देखकर कहा– य यो तषीजी? म फल कहूँ?
आप भागगे तो नह ?
यो.–भागूँगा य ?
ख र काका–तो सुिनए। पराशर का वचन है–
भौमांशकगते शु े भौम े गतेऽिप च
भौमयु े च े च भगचु बनभाग् भवेत्!
अब आप अपने शु का थान दे खए। यह योग आपम लगता है िक
नह ? अब यिद आप कह, तो म ठे ठ भाषा म सबको अथ समझा दँ।ू
यह सुनते ही यो तषीजी पोथी-प ा समेटते हुए तुरत
ं उठकर िबदा हो
गये।
ख र काका बार-बार पुकारते रह गये–ओ यो तषीजी! अजी
यो तषीजी महाराज! सुपारी तो लेते जाइए।
परंतु यो तषीजी काहे को लौटगे?
1. गंणेश उपा याय िम थला म न य याय के ज मदाता ह और गोनू झा हा यरस के अवतार माने
जाते ह।
धम-िवचार
पं डतजी नदी म नान करते हुए ोक पढ़ रहे थे–
पापोऽहं पापकमाऽहं पापाऽ मा पापसंभव:
ािह मां पुड
ं रीका सवपापहरो ह र:
तब तक ख र काका भी नहाने के लए पहुँच गये। बोले–पं डतजी, यह
या कर रहे ह? इसी हीनता क भावना ने तो हम लोग का यि व कंु िठत
कर िदया। ऐसा य नह कहते िक–
पु योऽहं पु यकमाऽहं पु याऽ मा पु यसंभव:
सीद पुड
ं रीका सवपु यमयो ह र:
आप भगवान् के आगे अपने को पापी भी घोिषत करते ह और र ा भी
चाहते ह! भगवान् धमा मा क र ा करते ह या पापी क ? और, या आप
सचमुच अपने को पापी समझते ह? यिद और लोग भी आपको इसी श द से
संबोधन करने लग जायँ, तो या आप पसंद करगे? तब भगवान् से झूठ
य बोलते ह।
पं डजी कुछ सहमते हुए बोले–आपके सामने तो कोई ोक पढ़ना भी
मु कल है। दीनबंधु दीनानाथ से तो दीनता ही िदखायी जाती है।
ख.–पं डतजी, दीन का बंधु कोई नह होता। दै यभाव छोिड़ए। अदीना:
याम किहए।
मने कहा–ख र काका, शरणाग त तो परम धम है।
ख.–धम से तुम या समझते हो?
मने कहा–म धम पर आप लोग के सामने या बोल सकता हूँ? सीधी-
सी बात जानता हूँ िक–
महाजनो येन गत: स पंथा:
महापु ष जस माग पर चलते ह, वही धम है।
ख र काका बोले– जतनी सीधी बात समझते हो, उतनी सीधी नह है।
महावीर ‘ जन’ का माग है–अ हसा परमो धम:। महावीर हनुमान का माग
है–शठे शाठ् यं समाचरेत्। दोन महावीर तो पू य ही ह। िकनका माग
अपनाया जाय? िकनका छोड़ा जाय?
मने कहा–ख र काका, दया िह परमो धम:। सभी जीव पर दया रखना
ही धम है।
ख र काका बोले–जरा समझाकर कहो। मेरी खाट म खटमल भरे ह।
या उ ह रात-भर अपना र चूसने दँ?ू पेट म कृिम है। उसे मारने के लए
दवा न खाऊँ? म छर पर ‘ि ट’ नह छड़कँू ? घर म साँप िनकले तो उसे
व छं द छोड़ दँ?ू यिद हम सभी जीव पर दया करने लग तो या जीिवत
रह सकते ह?
मने कहा–तो या हसा के िबना जीवन नह चल सकता?
ख र काका बोले– कृ त का िनयम तो यही है िक–
जीवो जीव य भ णम्
छोटी मछली को बड़ी मछली खा जाती है; बड़ी मछली को उससे भी
बड़ी िनगल जाती है। यही म य याय संपूण जगत् म चलता है। घोड़ा घास
से यारी करेगा तो खायगा या? भ य-भ क म ी त कैसे रह सकती है?
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–संसार म वही जा त जीिवत
रह सकती है, जसे भ ण करने का साम य है। यिद अ हसा का अथ हो
भ य बनकर रहना, तो सबसे बड़ा अ हसक है कचुआ, जो िकसी का कुछ
नह िबगाड़ता। जसके मन म आये, कुचलता हुआ चला जाय! मुझे तो ऐसी
अ हसा म िव ास नह है।
म–ख र काका, यिद सभी जीव पर दया करना संभव नह भी हो, तो
कम-से-कम मनु य पर तो दया करनी ही चािहए।
ख र काका बोले– या सभी मनु य दया के पा होते ह? मान लो िक
देश पर आ मण करने के लए श ु आ गये ह। तब या उन पर दया
िदखानी चािहए? उदारतापूवक वागत करना चािहए? शरबत और पान-
इलायची से खा तर करनी चािहए? जो गला काटने आव, उ ह गले लगाना
चािहए?
म–उ ह ेम से जीतना चािहए।
ख.–यही बात तो मेरी समझ म नह आती। मान लो िक कोई आततायी
घर म घुसकर बला कार कर रहा है। तो या उसे पंखा झला जाय?
गुलाबजल छड़का जाय? इ दान पेश िकया जाय? कपूर क आरती
िदखायी जाय? फूल-माला पहनाकर िवदा िकया जाय?
म–श ु का दय-प रवतन करना चािहए।
ख.–मगर उससे पहले तो वही प रवतन कर देगा। ऐसा बमगोला मारेगा
िक कलेजे के टु कड़े-टु कड़े कर देगा। गाजर-मूली क तरह कचरकर रख
देगा। मिहलाओं को मैदे क लोई क तरह मसल देगा। तो या लंगूर को
अंगूर के बगीचे म छूट दे दी जाय? या अ हसा के पुजारी बैठकर पूजा करते
रहगे–
एतािन पु पधूपदीपतांबूलनैवे ािन ी श वे नम:!
या करताल लेकर ेम-क तन करगे?
जय जय श सुस त रपुदल जय नरसूदन ज णो!
शरणं देिह रणं मा कु मा मारय हे भिव णो!
पं डतजी बोले–मनु ने धम के दस ल ण बताये ह–
घृ त: मा दमोऽ तेयं शौचिम यिन ह:
धी व ा स यम ोधो दशकं धमल णम्
ख र काका हँसते हुए बोले–पं डतजी, ये सब मुस माती धम ह, जो
िनबल के लए बनाये गये ह। अबला धैय धारण कर बैठ जाती है। कमजोर
गम खाकर रह जाता है। कतु सबल के ये धम नह होते। यिद पांडव धैय
धारण कर लेते, तो महाभारत का यु य होता? यिद रामचं मा कर
देते, तो लंकाकांड य मचता?
मने पूछा–तो िफर ये धम य बने?
ख र काका बोले–अरे भाई, सेवक को यह श ा देना ज री था िक
“धैय रख, अथात् सूखी रोटी भी खाना पड़े तो संतोष कर। डाँट भी पड़े तो
चुप रह। मन म िवकार मत ला। लोभ का दमन कर। कोई चीज मत चुरा।
सफाई के साथ काम कर। जीभ आिद इ य पर िनयं ण रख। हो शयार
और जानकार बनकर काम कर। मार खाने पर भी ोध मत कर।”
यही ‘दशकं धम ल णम्’ का रह य है। यह धम िवशेषत: िव ा थय ,
य और शू के लए बनाया गया है। जो समथ होते ह, उनका धम और
ही होता है। महाभारत म भी कहा गया है–
अ यो धम: समथानां िनबलानां तु चापर:
(शां तपव)
म–ख र काका, समथ का धम या होता है?
ख.– जससे उसक इ छापू हो। वह चाहे बंदक
ू के जोर से हो, या
बम के जोर से।
समरथ को न ह दोष गुसाई ं
रिव पावक सुरस र क नाई ं ।
साधारण यि एक खून करता है, तो फाँसी पाता है। सैिनक यु म
सौ खून करते ह, तो ‘वीर–च ’ पाते ह। इसी लए कहा गया है–समूहे
ना त पातकम्। एक लोटा पानी म कौआ च च डाल दे, तो अशु हो जाता
है। लेिकन गंगाजी सैकड़ कौओं के नहाने पर भी अशु नह होत ।
पं डतजी बोले– यासजी का उपदेश है–
अ ादशपुराणेषु यास य वचन यम्
परोपकार: पु याय पापाय परपीडनम्
मने कहा–ख र काका, हम लोग भी तो यही जानते ह िक जससे दस ू रे
का उपकार हो, वह पु य है; और जससे दस
ू रे को पीड़ा पहुँचे, वह पाप।
ख र काका बोले–यह ल ण भी य भच रत है। यिद दस ू रे क पीड़ा
हरण करना ही धम हो, तब तो कामपीिड़ता ी को संतु करना भी धम हो
जायगा।
पं डतजी बोले–आप तो िवतंडावाद कर रहे ह।
ख र काका बोले–म या अपनी ओर से कह रहा हूँ? कुमा रल भ
कहते ह–
ोशता दयेनािप गु दारा भगािमनाम्
भूयो धम: स येत भूयसी पु का रता।
( ोकवा तक 1 । 1 । 244)
यिद उपकार ही धम माना जाय, तो या गु प नीगमन करनेवाले को
भी धम होना चािहए! इन सब शंका-समाधान पर तो आप मनन करगे नह ,
केवल मुझको दोष दगे!
मने पूछा–ख र काका, आपका अपना िवचार या है?
ख र काका हँसते हुए बोले–अजी, मेरा कोई िवचार थायी थोड़े ही
रहता है? िफर भी ख र–पुराण का एक ोक है–
अ ादश पुराणेषु ख र य वचो यम्
िनजोपकार: पु याय, पापाय िनजपीडनम्
“ जससे अपना उपकार हो, वही धम है; जससे अपने को क पहुँचे,
वही पाप है।”
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–देखो, परमाथ का च ा भी
चलता है, तो वाथ क धुरी पर। दान-पु य या वैसे ही िकया जाता है?
कह नाम के लए, कह वग के लए। सबम कुछ न कुछ लोभ रहता है।
यिद वाथ का तेल समा हो जाय, तो परमाथ क ब ी भी बुझ जाय।
म– कतु तप वी लोग जो धम के लए इतना क सहते ह?
ख र काका बोले–अजी, कुछ लोग क बु ही िव च होती है। वे
समझते ह िक अपने शरीर को जतना क पहुँचाया जाय, उतना ही अ धक
धम होगा। इसी लए कोई ‘चां ायण त’ करते ह, कोई ‘पंचाि साधन’
करते ह! कोई एक टाँग पर खड़े रहते ह! कोई मचान पर बैठे रहते ह! कोई
काँट पर सोते ह। कोई मौनी बाबा बन जाते ह। कोई बेलप का रस पीकर
रहते ह।
पं डतजी बोले–यह सब साधना है।
ख.–साधना नह , ‘साध’ किहए। नाम, दाल या काम क ।
घटं भ वा पटं छ वा कृ वा रासभरोहणम्
येन केन कारेण स पु षो भवेत्!
पं.–परंतु िनवृ माग तो सबसे ऊपर है।
ख.–िनवृ माग िन पाय के लए है। जो िन य ह वे ही नै क यवाद
का प ा पकड़ते ह। जो िनराश ह, वे ही उदासीनता का नाट् य करते ह। जो
अ कचन ह, वे ही कंचन क भ सना करते ह। याग और वैरा य क बात
लाचारी क बात ह।
पं.–संतोष: परमं सुखम्।
ख.–पं डतजी, यह सफ कहने क बात है। िम थला के अयाची िम
सवा क ा बाड़ी पर संतोष कर आजीवन साग खाते रह गये। उनके ढेर
शंसक ह। परंतु वे लोग अपने बेट के िववाह म सह याची बन जाते ह।
मने पूछा–ख र काका, चय के िवषय म आपक या राय है?
ख र काका हँसते हुए बोले– चय का अथ है, के समान चया।
नपुस
ं क लग है। अत: चय का अथ है नपुस
ं कवत् आचरण।
पं.–आप तो प रहास कर रहे ह। चय है वदरु ा।
मरणं वदपु ातेन जीवनं वदध
ु ारणात्।
ख र काका बोले–म कहता हूँ–
जीवनं वदपु ातेन मरणं वदध
ु ारणात्!
यिद सभी वद ु पु ष के कोषागार म ही रह जायँ, तब सृि कैसे होगी?
वदपु ात ही से तो जीव का ादभ
ु ाव होता है।
पं.–तब या चारी बनना मूखता है।
ख र काका मु कुराते हुए बोले– ज ह साम य है, वे दस
ू रे अथ म
चारी बन सकते ह। ‘ ’ व छं द होता है, इस कारण ‘ चारी’ का
अथ हुआ व छं दाचारी। जैसे, सं यासी का अथ है “स यक् कार से
‘ यास’ अथात् याग करनेवाला।” इसी कारण वे लोग सामा जक बंधन
को याग देते ह। कोई-कोई व का बंधन भी यागकर िदगंबर या ‘नागा
बाबा’ बन जाते ह। गृह थ लोग गृह वामी बनकर बैल क तरह जुते रहते ह।
वैरागी लोग गो वामी बनकर साँड़ क तरह व छं द िवचरते ह।
पं डतजी बोले–वे लोग इतनी योग-साधना जो करते ह सो या यथ
है?
ख र काका तरंग म आ गये थे। बोले–तब सुिनए। सम त योग का
उ े य है भोग। कुछ लोग समझते है िक इस नाक को दबाने से उस ‘नाक’
( वग) का दरवाजा खुल जायगा। यहाँ कंु ड लनी (योग) जगाने से वहाँ
कंु ड लनी (कंु डलवाली रमणी) िमल जायगी। यहाँ ‘खेचरी’ (मु ा) साधन
पर वहाँ ‘खेचरी’ (आकाश-िवहा रणी परी) िमल जायगी। जो नारी को नरक
क खान बताते ह, वे भी नारी के लोभ से वग जाना चाहते ह। रंभा के लोभ
म भगवान् को रंभाफल (केला) चढ़ाते ह। ‘ तलो मा’ के लोभ म तल
छ टते ह। अगर सभी लोग समझ जायँ िक वग का फाटक एक टाटक मा
है, तो आज ही सारा ाटक और पूजा का नाटक समा हो जाय! यिद
‘चं मुखी’ ही न िमलेगी, तो लोग ‘गोमुखी’ म हाथ देकर जप य करगे?
यिद ‘मृगनयनी’ नह िमले, तो लोग ‘मृगछाला’ य पहनगे? यिद ‘षोडशी’
क आशा न हो तो एकादशी य करगे?
म–अहा! अलंकार क वषा हो गयी।
ख र काका बोले–केवल अलंकार ही नह , यथाथ भी है। म पूछता हूँ,
यिद वारांगना वरांगना नह समझी जाती, तो वग म देवांगना होकर कैसे
िनवास करती? बड़े-बड़े महा मा भी पु य का य होने पर म यलोक म आ
जाते ह। परंतु रंभा, उवशी, मेनका, तलो मा आिद अ सराएँ अ त-यौवना
होकर िन य सुख भोगती ह। िकसी कुलवधू को ऐसा सौभा य ा है?
मने कहा–ख र काका, कहाँ कुलवधू, कहाँ वे या?
ख र काका बोले–दोन म उतना ही अंतर है, जतना एक चु ू पानी
और सदानीरा महानदी म। एक ु ता क मू है, दस ू री उदारता क । जो
एक ही यि के काम आये, वह शरीर भी कोई शरीर है? ध य है वह शरीर
जो अनेक के काम आवे! परोपकाराय सतां िवभूतय:!
पं डतजी–वे या तो प य ी है। शरीर-सुख देकर पैसे लेती है।
ख र काका बोले–वे या कभी-कभी लेती है। भाया आजीवन लेती
रहती है। तभी तो भाया कहलाती है, ( जसका भरण करना पड़े)। फक यही
है िक भाया एक को सुख देती है, वे या अनेक को। देवी-भागवत म लखा
है–
प त ता चैकपतौ ि तीये कुलटा भवेत्
तृतीया घ षणी ेया चतुथ पुं ली तथा
वे या च पंचमे ष े पुगं ी च स मेऽ मे
तत: ऊ व महावे या ….
अथात्, “एक प त से संसग होने पर प त ता, दो से…कुलटा, तीन से
घ षणी, चार से पुं ली, पाँच-छ: से वे या, सात-आठ से पुग
ं ी, और उसके
ऊपर महावे या! उदारच रतानां तु वसुधव ै कुटु बकम्!
पं डतजी–वे या तो नरकगािमनी होती है।
ख र काका बोले–तब धमशा देख ली जए। गृिहणी आजीवन
प तसेवा करती रहेगी, तब वैकंु ठ जायगी। एक बार जरा भी सेवा म चूक हो
गयी, तो यमदत
ू उसके मुँह म ऊक लगा दगे!
वािमसेवा िवहीना या: वदं त वािमने कटु म्
मुखे तासां ददा येव मु कां च यम ककरा:
( वैवत)
और वे या सीधे िव णुलोक पहुँच जायगी! यिद मु कुराकर बोलती हुई
अपने को सवथा सम पत कर दे!
य िद छ त िव े : त त् कुयात् िवला सनी
सवभावेन चाऽ मानं अपयेत् मतभािषणी
(भिव यपुराण उ रपव 4 । 111)
वे याओं से िव णु भगवान् भी स रहते ह। इसी लए तो मुि का
माग उनके लए इतना सुगम बना िदया गया है। तभी तो वगलोक वे याओं
से भरा है। मगर एक भारी गड़बड़ है। वग जाने से धम हो जायगा!
अब पं डतजी से नह रहा गया। बोले–आप तो उलटी गंगा बहाते ह।
भला वग जाने से कह धम हो!
ख र काका ने कहा–दे खए, पं डतजी, मान ली जए, आपके सभी
पूवज वग गये। आप भी जायँगे। कतु भो या अ सराएँ तो वे ही सब रहगी!
रंभा, उवशी, तलो मा–जो यगु -यगु से सभी क तृि करती आ रही ह। तब
तो वग को भी ‘भैरवी- े ’ ही सम झए! इसी से म कहता हूँ िक वग जाने
से धम न हो जाता है।
पं डतजी–आप तो हँसी कर रहे ह। परंतु सती व धम से बढ़कर कोई
धम नह है।
ख र काका मु कुराते बोले–पं डतजी, सती व धम से भी अ धक
बल है कृ त धम, जो सृि के आिद से ही चल रहा है। िववाह तो हमारा
आपका रचा हुआ कृि म बंधन है। उ ालक-पु ेतकेतु जैसे ऋिष बंधन
बनाते आये ह, और जाबाला जैसी यव
ु तयाँ उ ह तोड़ती आयी ह। दीघतमा
तो कहती है िक एक प त क था उसके पहले थी ही नह ।
अ भृ त मयादा मया लोके ति ता
एक एव प तनायाः याव ीवं परायणम्
(महाभारत आिदपव)
पं डतजी–तब पा त य ई रीय आ ा नह है?
ख.–यिद ई रीय आ ा होती, तो वयं भगवान् ही वृंदा का पा त य
कैसे भंग करते?
पं डतजी–वह तो पौरा णक ई र ह। म िनगुण, िनराकार क बात
करता
हूँ।
ख र काका हँस पड़े। बोले–पं डतजी, िनराकार को उसम य
घसीटते ह? या उनका यही काम है िक ी-पु ष के बीच म घुसकर
झरोखे से मुजरा लेते रह!
पं डतजी होकर बोले–आप ‘ ’ को गाली दे रहे ह? यिद ई रीय
आ ा नह है, तब पा त य धम क उ प कैसे हुई?
ख र काका मु कुराकर बोले–दे खए, लोकायत दशन कहता है–
पा त यािद संकेत: बु म दबु लैः कृत:
पवीयवता साध ीके लमसिह णु भ:
“बलहीन चालाक प तय ने प-वीय वाले पु ष से अपनी य को
बचाने के लए ई यावश पा त य धम क थापना क ।”
एक का तो यहाँ तक कहना है िक–
कृत: धम पंचोऽयं परमु ां न यत पतेत्
कदा चत् वकृश ीवा प नीपीन तनोऽथवा
“अपनी पतली गदन और प नी का पीन तन दस ू रे क मु ी म नह
पड़े, इसी उ े य से धम का इतना सारा पंच रचा गया है!”
पं डतजी बोले–आपको तो सदा िवनोद ही म रस िमलता है।
ख र काका बोले–सो तो है ही। परंतु मा क जएगा, पं डतजी! आप
जसे ‘पा त य’ कहते ह, यही यथाथत: ‘ य भचार’ है।
पं डजी िबगड़कर बोले–आप तो ‘कबीरदास क उलटी बानी’ बोल रहे
ह!
ख र काका बोले–पं डतजी, आप वयं सोचकर दे खए! य भचार का
या अथ? सामा य िनयम का अपवाद। सामा य िनयम िकसे कहते ह?
यापक िनयम को। अब दे खए, सृि का यापक िनयम या है? नर और
मादा के संयोग से वभावत: गभाधान हो जाता है। उसके लए न शंख
फँू कने क ज रत है, न शहनाई बजाने क । सदरू दान और गठबंधन तो
केवल आडंबर मा ह। ी को भस क तरह नाथने के लए। इसी से तो
मिहषी और नाथ जैसे श द चल पड़े।
पं डतजी को चुप देखकर ख र काका िफर बोले–दे खए, ाणी मा
को मैथुन कम म वतं ता है। केवल मनु य ने ही इस िनयम का उ ंघन
कर ी को घेरे के अंदर बंद कर िदया है। इसी कारण पा त य धम को म
अपवाद या य भचार कहता हूँ।
पं डतजी का नान समा हो गया था। अघमषण सू पाठ करते हुए
िवदा हो गये।
मने कहा–ध य ह ख र काका, आप जो न स कर द! मगर ऐसा
किहएगा तो सती व धम को ध ा लगेगा।
ख र काका भभाकर हँस पड़े। बोले–अजी, मेरे जैसे मदकची के कहने
से तो ध ा लगेगा! और मृ तकार लोग जो य भचार का इतना
खु मखु ा समथन कर गये ह, उससे ध ा नह लगेगा?
म–ख र काका, यह आप या कहते ह? मृ तय म कह य भचार का
समथन हो?
ख र काका बोले–तब देखो, मृ तय म कैसे-कैसे वचन ह?
न ी द ु य त जारेण
(जार-कम से ी दिू षत नह होती)
रजसा शु यते नारी
(रजः ाव हो जाने पर नारी शु हो जाती है)
और देखो,
असवण तु यो गभ: ीणां योनौ िनषे यते
अशु ा सा भवे ारी याव गभ न मुच
ं त
िवमु े तु तत: श ये रज ािप यते
तदा सा शु यते नारी िवमल कांचनं यथा
(अि मृ त)
अथात्, “असवण से भी ी को गभ रह जाय, तो उसका याग नह
करना चािहए। पुन: पु पवती होते ही वह िनमल वण क तरह शु हो
जाती है।”
शौचं सुवण नारीणां वायस
ु ूय दरु म भः
(आप तंब मृ त)
अथात्, “कािमनी और कांचन सूय-चं मा क िकरण और हवा से ही
शु हो जाते ह।”
न द ु येत् संतता धारा वातो त
ू ा रेणव:
यो वृ ा बाला न द ु य त कदाचन
(आप तंब मृ त)
“ जस कार बहती धारा म कोई दोष नह , हवा म उड़ते हुए धू लकण
म कोई दोष नह , उसी कार य , वृ और ब म कोई दोष नह
लगता।”
अजी, जैसे-जैसे सामा जक प र थ तयाँ बदलती गयी, मृ तकार भी
उ ह के अनु प वचन बनाते गये। इसी लए कहा गया है–
ु त व भ ा मृतयो िव भ ा:
नैको मुिनय य वच: माणम्!
मने पूछा–ख र काका, आपको वग म िव ास नह है?
ख र काका बोले–यिद एक भी आदमी वग से आकर कहता, तब न
िव ास होता! परंतु आज तक जो भी गये सो लौटकर नह आये। और जो
कहते ह, सो गये ही नह ह! िफर उनक बात का या भरोसा?
म–ख र काका, अगर इस बात म कोई त य नह होता, तो इतने िदन
से कैसे चलती आती?
ख र काका बोले–अजी, पृ वी पर लोग को भोग से तृि नह होती।
तृ णा का अंत नह है। परंतु जीवन प रिमत है। देह क शि अ प है। कुछ
ही िदन म बुढ़ापा आ जाता है। और, भोग-तृ णा बनी ही रह जाती है। तब
तक खेल खतम हो जाता है। इसी कारण लोग आकाश-कुसुम क क पना
करते ह। मनमोदक खाते ह। “मृ यु के अनंतर ऐसी जगह जायँगे जहाँ
अमृत-तु य मधुर भोजन िमलेगा, भोग के लए अ सराएँ िमलगी!” अजी,
सुरालय या हुआ, शुरालय हो गया! ब क उससे भी लाख गुना बढ़कर।
ससुराल म तो एक ही षोडशी पर सोलह आने अ धकार रहता है। लेिकन
वग म तो षोडश सह षोड शयाँ रहती ह। सभी अ त यौवना! और,
कोई साला-ससुर रोकने वाला नह ! ऐसी चक स और कहाँ िमलेगी?
म–ख र काका, आप तो सभी बात हँसी म उड़ा देते ह। तब धम है
या?
ख र काका बोले–अजी, मु डे मु डे म त भ ा! कोई कहते ह–आ मा
र तो धम:। कोई कहते ह–धारणा धम इ याहुः। कणाद का मत है–
यतोऽ यद
ु य िनः ेयस स : स धम: 1 । जैिमिन क प रभाषा है–
चोदनाल णोऽथ धम: 2 ।
म–ख र काका, आप िकस मत को मानते ह?
ख.–म सभी वचन को मानता हूँ। सफ भा य अपना करता हूँ। जससे
आ म-र ा हो, शरीर का धारण संभव हो, अ धकतम आनंद क ाि हो,
सृि का वाह चलता रहे, वही धम है।
म–परंतु धमाचाय का कहना है–ना त स यात् परो धम:। सबसे बड़ा
धम है स य।
ख.–यह अस य है। मान लो, कोई तलवार लेकर तु ह काटने आया है,
और तुम झािड़य म छपे हो, तो या मुझे सच-सच बता देना चािहए? वहाँ
स यर ा धम है या ाणर ा?
म–तब शा त धम या है, सो मेरी समझ म नह आता।
ख.–बड़ -बड़ क समझ म नह आता! इसी से तो कहा गया है–धम य
त वं िनिहतं गृहायाम्! उस गुफा म वेश िकये िबना धम का मम नह जाना
जा सकता।
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–अजी, िकस पचड़े म हो?
ऐसा कोई धम नह , जो सवदा सवथा सबके लए लागू हो। देश-काल-पा
के अनुसार धम भी बदलते रहते ह। सभी धम आपे क होते ह, अव थाओं
पर, प र थ तय पर, िनभर करते ह। िनरपे या ऐका तक धम नाम क
कोई चीज नह है। देखो, महाभारत के शां तपव म साफ कहा गया है–
ै मो िव भ ते
देशकालिनिम ानां भेदध
निह सविहत: क दाचार: सं व ते।
आचाराणामनेका ्यं त मात् सव यते
न व ै ा तको धम धम वापे क: मृत:
ै क
मने पूछा–तब इतने धमशा य बनाये गये ह?
ख र काका ने हँसते हुए कहा–अजी,
मंदबोधोपकाराथ धमशा ं िविन मतम्
िनज क याण माग िह प य त सु धय: वयम्
जो मंदबु ह, उ ह के लए धमशा बनाये गये ह। जो बु मान ह, वे
वयं अपना माग पा लेते ह।
1. वैशेिषक सू 1 / 1 / 2
2. मीमांसा सू 1 / 1 / 2
मो -िववेचन
ख र काका बनारसी ठंढाई छान रहे थे। तब तक पं डतजी ोक पढ़ते आ
गये–
अयो या मथुरा माया काशी कांची अवं तका
पुरी ारावती चैव स ैता: मो दा यका:
ख र काका मु कुराकर बोले–पं डजी, मो पाने का बड़ा स ता
नुसखा आपने बता िदया। फैजाबाद या बनारस का िटकट कटा ली जए
और मो ले ली जए! तब तो वहाँ के सभी लोग के लए मो क पहले ही
‘एडवांस बु कग’ हो गयी होगी?
पं डतजी बोले–आप तो हँसी करते ह, परंतु जीवन का चरम ल य मो
ही है।
ख र काका बोले–इसी ल य ने तो हम लोग को भ य बना िदया!
और देश के लोग संसार को ीड़ागार समझते ह, हम लोग कारागार
समझने लगे। “जीवन ही बंधन है। कैसे इससे, छुटकारा होगा!”
पं डतजी बोले–अपने यहाँ क ि आ या मक रही है।
ख र काका ने कहा–यही तो बीमारी है। हमारी ि पर अ या मवाद
का ऐसा मो तया बद छा गया, िक संपूण संसार ही धुँधला तीत होने लगा।
जैसे पी लया रोग म सबकुछ पीला–पीला नजर आता है। मो का ऐसा
चसका लगा िक या अफ म का नशा चढ़ेगा? उसके आगे जीवन के सभी
आनंद फ के पड़ गये। जैसे बुखार म िमठाइयाँ भी बेमजा लगती ह।
पं डतजी–अपने यहाँ के ा सबसे बड़े आनंद क तलाश म थे।
ख र काका बोले–हाँ, वे भूिम छोड़कर ‘भूमा’ के पीछे दौड़ने लग गये!
सभी शा –पुराण मो के एजट बन गये। जगह–जगह मो के गोदाम खुल
गये। उनम धड़ े से मो क िब ी होने लगी। मो ाि के एक–से–एक
नायाब नुसखे िनकाले जाने लगे। “इस कार नाक दबाओ तो पुनज म न
िव ते। इस कार दान करो, तो पुनज म न िव त। अमुक तीथ म नान
करो तो पुनज म न िव ते। अमुक मं का जप करो, तो पुनज म न
िव ते!” जैसे, पुनज म कोई हौआ हो, गले का फंदा हो, जसे ज द–से–
ज द उतार फकना ज री है!
मने कहा–ख र काका, आपको मो म िव ास नह है?
ख र काका ने कहा–अरे, मूलं ना त कुत: शाखा! जब पुनज म म ही
िव ास नह है, तो िफर मो क या बात?
पं डतजी ने शा ाथ क मु ा म कहा–पुनज म अव य है। तभी तो
अबोध शशु पूवज म के अ यासवश तन क ओर लपकते ह।
ख र काका ने मु कुराते हुए कहा–पं डतजी, आधुिनक यव
ु तयाँ ब
को तन नह , बोतल िपलाती ह। तब तो वे दस ू रे ज म म तन क जगह
बोतल पर लपकगे?
पं डतजी–आपको तो सब जगह िवनोद ही क बात सूझती ह। पर
दे खए, कोई ज म से ही ती होता है, कोई मंद। कोई पूणाग होता है, कोई
िवकलांग। ऐसा य होता है?
ख र काका बोले–पं डतजी, ग े के खेत म कोई ग ा मोटा िनकलता
है, कोई पतला। कोई सीधा, कोई टेढ़ा। कोई यादा मीठा, कोई कम मीठा।
इसका या कारण है?
पं.–बीज े , खाद इ यािद के भेद से ऐसा होता है।
ख.–तब यही बात ब के साथ भी समझ ली जए।
पं.–आप अ नह मानते ह?
ख.–दे खए, कुछ कारण अ होते ह। जैसे, आपके गाल पर एक लाल
म सा है। उसका कारण ात नह है। इसी को म अ कारण कहता हूँ।
पं.–आप तो अथ ही बदल देते ह। म पूछता हूँ िक आप कम–फल
मानते ह या नह ?
ख.–जहाँ काय–कारण संबध ं है, वहाँ अव य मानता हूँ। जैसे, इस बार
पानी पटाने से शफतालू खूब फला है और सचाई नह होने के कारण आलू
सूख गया। ऐसा नह िक पूवज म के कमफल से ऐसा हुआ है। जब
कारण मौजूद है, तो अ का सहारा य लगे?
पं.–इसका मतलब िक आप य वादी ह। परंतु यिद अ कोई व तु
नह , तब य कोई यि राजा होकर ज म लेता है और कोई भ ुक
होकर?
ख.–पं डतजी राजा और रंक का भेद ई र नह बनाते ह। हम लोग
सामा जक ढाँचा गढ़ते ह, जो समयानुसार बदलता रहता है। आज स–
अमे रका म न कोई राजा होकर ज म लेता है, न भ ुक होकर।
पं डतजी बोले– ार ध का फल तो भोगना ही पड़ता है।
ख र काका कहने लगे–पं डतजी, जरा खुलासा करके समझाइए।
जस कार बक म जमा–खच का िहसाब रहता है, या उसी कार
परलोक म भी कम–फल के खाते खुले हुए ह? हम लोग जो भी करते ह और
भोगते ह, वे सब या बही म दज होते जाते ह?
पं.–अव य।
ख र काका बोले–और जब लेना–पावना बराबर हो जायगा अथात्
कमफल के खाते म शू य रह जायगा, तब हम फारखती अथात् मुि िमल
जायगी?
पं.–अव य।
ख.–तब तो कम का फल जतना भोग लया जाय उतना अ छा है?
पं.–अव य। कृतकमणां भोगादेव य:।
ख र काका बोले–तब तो लोग को अपने–अपने कम–फल भोगने देना
चािहए। कोई दद से छटपटा रहा है। कोई भूख मर रहा है। िकसी पर लाठी
का हार हो रहा है। िकसी अबला पर बला कार हो रहा है। तब हम य
दौड़? उ ह अपने–अपने ार ध का फल भोगने दी जए। जतना भोग लगे
उतना पाप कट जायगा। हम य बीच म पड़कर उनके मो के माग म
बाधक बन?
पं डतजी क समझ म नह आया िक या जवाब द? ार ध और
ि यमाण के बीच िवभाजक रेखा कैसे ख च! कुछ बोल देना चािहए,
इस लए बोले–
अव यमेव भो यं कृतं कम शुभाशुभम्
सभी जीव को ार ध के अनुसार मनु य, पशु, प ी, क ट, पतंग
अथवा उि योिन म ज म लेकर सुख–द:ु ख भोग करना पड़ता है।
ख र काका बोले–अ छा, सामने खेत म धान के पौधे लहलहा रहे ह।
तब तो आपके िहसाब से वहाँ लाख जीवा मागण पंि ब खड़े होकर
अपने–अपने पूव कम का फल भोग रहे ह? अ छा, म पूछता हूँ िक बाढ़
आने पर ये पौधे न हो जायँगे, या यह भी ार ध का ही फल होगा? तब
तो खेत म बाँध नह बाँधा जाय? जीवा मा लोग को ार ध का भोग करने
िदया जाय?
पं डतजी चुप रहे।
ख र काका ने कहा–दे खए, महामारी के कोप से सैकड़ यि मर
जाते ह। भूकंप म हजार मनु य दब जाते ह। आँ धी के झ के म लाख म छर
न हो जाते ह।
या इन घटनाओं म भी कम–फल–दाता क पूव–र चत योजना रहती
है?
पं डतजी से कुछ प उ र देते नह बना।
ख र काका ने कहा–अ छा, पं डतजी! एक बात पूछता हूँ। अभी पृ वी
पर धम क मा ा अ धक है अथवा पाप क ?
पं डतजी–क लयगु म पाप क मा ा अ धक रहती है।
ख.–जो मनु य यादा पाप करता है, उसे तो मनु य योिन नह िमलनी
चािहए।
पं.–नह !
ख.–तब तो मनु य क सं या कम होनी चािहए? िफर िदनानुिदन
बढ़ती य जा रही है?
पं डतजी को सहसा उ र नह सूझा।
ख र काका ने पूछा–दःु ख–सुख का भोग तो पाप–पु य से ही होता है।
पं.–अव य।
ख.–तब तो हल जोतनेवाले बैल ने पूवज म म पाप िकया था जसका
फल भोग रहे ह? और काशी के साँड़ ने पु य िकया था, जो तर माल चाभते
िफरते ह?
पं डतजी चुप लगा गये।
ख र काका पुन: कहने लगे–दे खए, पं डतजी! अमे रका के लोग िदन
म चार–चार बार म खन उड़ाते ह और यहाँ हम लोग को छाछ भी नह
जुड़ती। जब तो वे लोग पूवज म के पु या मा ह। या य किहए िक आजकल
धमा मा लोग ायश: अमे रका म ही जाकर ज म लेते ह।
पं डतजी बोले–आप कारांतर से यह कहना चाहते ह िक हम लोग
पूवज म के पापी ह, इस लए इस देश म द:ु ख भोग रहे ह।
ख र काका बोले–म तो पुनज म मानता ही नह । जो मानते ह, उनके
स ांत का खुलासा जानना चाहता हूँ।
पं डतजी बोले–आप तो चावाक क तरह तक करते ह। हम लोग
ना तक के साथ शंका–समाधान नह करते।
ख र काका बोले–पं डतजी, यही तो आप लोग म भारी दोष है िक
तप ी को ‘ना तक’ कहकर टाल देते ह। समझने क को शश नह
करते। आपका सारा महल आ मा क न व पर खड़ा है? उसी आधार– तंभ
पर आप पुनज म और कमफल क इमारत तुत कर मो क पताका
फहरा रहे ह। लेिकन आज िव ान आपक जड़ खोद रहा है। आ मा के तले
से धरती खसकती जा रही है। अगर वह पाया टू टा, तो आपक संपूण
अ ा लका ढह जायगी। आपका सारा हवाई महल ताश के प क तरह
िबखर जायगा। तब आप कहाँ जायँगे? आप जसे मीनार समझ रहे ह, वह
कह खसकता हुआ बालू का कगार तो नह है? यह भी तो आपको देखना
चािहए। कह ऐसा नह हो िक आप जसे पेड़ क डाल समझकर मजबूती से
पकड़े हुए ह, वह सरकता हुआ साँप स हो जाय और आप उसे लये–
िदये धड़ाम से नीचे िगर पड़!
पं डतजी बोले–आज के भौ तकवािदय को कठोपिनष से उ र िमल
जायगा। मृ यु के बाद या होता है, इसका रह य यम ने न चकेता को
समझाया है।
ख र काका ने कहा–अजी, कठोपिनष म कोरा कठिववाद है! यम ने
न चकेता को ब ा जानकर बहला िदया है। पहले तो बड़े–बड़े नखरे िदखाए
िक यह राज मत पूछो। और आ खर म बताया या? वही घसीिपटी आ मा
क बात, और अंत म सहवीय करवावहै! न चकेता बेवकूफ थे, इसी लए
उनको यह भी नह पता चला िक यमराज ने कैसा चकमा िदया! जो
पूछने गये थे, वह तो य ही रह गया। उ ह हाथ या लगा? खोदा पहाड़
िनकली चुिहया! आज के िव ानवे ा न चकेता क तरह अ पचेता नह है,
जो इस तरह घपले म आ जायँ। वे चेिकतान ह!
पं डतजी ने कहा–अभी तो िव ालय का समय हो रहा है। बाद म
आकर िफर आपके साथ िवचार क ँ गा। वादे वादे जायते त वबोध:।
ख र काका ने कहा–अव य आइएगा। लेिकन ऐसा न हो िक–
वादे वादे जायते त वरोध:!
अब केवल उपिनष का उ रण देने से उ ार नह है। समी क क
प रष से पास होना भी ज री है।
पं डतजी के चले जाने पर मने कहा–ख र काका, आप तो पं डतजी
को उलझन म डाल देते ह। इसम आपको मजा िमलता है। मगर यह बताइए
िक या मृ यु के बाद कोई आ मा या चैत य कायम नह रहता?
ख र काका बोले–अजी, यही बात तो समझ म नह आती है। जब
संपूण शरीर ही न हो गया, तब म त क पर आ त चैत य का अ त व
िकस पर आधा रत रहेगा?
भ मीभूत य देह य कथं चैत यसं थ त:?
जब घड़ी ही टू ट गयी तो िफर उसक ‘िटक्–िटक्’ कैसे िटकेगी?
मने कहा– कतु अपने यहाँ के लोग तो समझते ह िक आ मा पजड़े के
पंछी क तरह है, जो मृ यु के बाद शरीर से िनकलकर उड़ जाता है।
ख र काका बोले–अजी, इसी क पना पर तो पुनज म का भवन खड़ा
है। अगर आ मा नह , तो पुनज म िकसका होगा? कम–फल कौन भोग
करेगा? और यह सब नह , तो िफर मो का या अथ रह जायगा? आज के
वै ािनक ‘आ मा’ नह मानते। उनका िवचार है िक शरीर पजड़ा नह ,
कं यटू र क तरह है। उसम कोई चिड़या नह है, केवल कल–पुज ह।
मान सक ि याओं को भी वे शरीर–यं क करामात समझते ह। अगर यह
बात स हो गयी, तब तो ‘आ मा’ का खातमा ही समझो। ‘न सोनू साह,
न सहजन का गाछ!’
मने कहा–ख र काका, यिद आ मवाद म त य नह , तो इतने िदन से
चलता कैसे आ रहा है?
ख र काका बोले–देखो, मृ यु क िवभीिषका से बचने के लए अमर व
क क पना क गयी है। धनवान को भोग करते देखकर छाती नह फट
जाय, इसी लए पूवज म क क पना क गयी है। इससे मन को सां वना
िमलती है। “अमुक ने पु य िकया था, इस लए कलाकंद खा रहा है, मने पाप
िकया था, इस लए शकरकंद खा रहा हूँ।” यह भावना दःु ख म मलहम का
काम करती है। हम अपने मन को संतोष देते ह िक इस ज म म पु य करगे
तो अगले ज म म एकबारगी खब ू सुख–भोग कर लगे। इसी आम–
तारणावश बहुत लोग जीवन म तरह–तरह के क सहकर पु य बटोरने के
फेर म लगे रहते ह। इसी याशा पर िक पीछे एक ही बार सबकुछ हाथ लग
जायगा। इसी कारण नाना कार के य –याप, तीथ– त, दान–पु य िकये
जाते ह। सबके मूल म एक ही भावना काम करती है, ‘भिव य म अ धकतम
सुख क ाि ।’ कोई वग का व न देखता है, कोई मो का मनमोदक
खाता है। साधकगण चाहते ह िक इस जीवन म अ धक–से–अ धक फ स
देकर वग या मो का बीमा करा ल! इस वा ण य–वृ को ‘धम’ का नाम
िदया जाता है! मगर, मुझे तो इस बीमा कंपनी म िव ास नह । म आजीवन
िक त चुकाता जाऊँ, और अंत म वह कंपनी नकली सािबत हो जाय, तब?
इसी लए म भी चावाक वाला स ांत मानता हूँ–
वरम कपोत: ो यरू ात्!
‘शायद कल कह मोर िमल जाय’, इस उ मीद म हाथ आये कबूतर को
छोड़ देना िवशु मूखता है। वगलोक म कदा चत् कोई अ सरा अमृत
िपला दे, इस वकांड– याशा म इस ठंढाई को फक दँ,ू यह या बु मानी
होगी?
मने पूछा–तब आपको मो म आ था नह है?
ख.–अजी, म तो सीधी बात जानता हूँ–
देहो छे दो मो :!
जस िदन यह चोला छूट जायगा, उस िदन वत: सब दःु ख से
छुटकारा िमल जायगा। यह मो तो एक िदन िमलना ही है। म चाहूँ या नह
चाहूँ। तब अभी से उसके पीछे अपना आराम य हराम क ँ ?
मने कहा–तब मो के हेतु य न करने का योजन नह ?
ख र काका यं यपूवक बोले–हाँ, एक य न मो के लए कर सकते
हो। मो का अथ है, ‘अ ान से मुि ’। सबसे बड़ा अ ान है, ‘मो म
अंधिव ास।’ यिद इस मो पी बंधन से छुटकारा हो जाय, तो बहुत बड़ा
मो िमल जाएगा।
मने पूछा–ख र काका, जीव मु कैसे होते ह?
ख र काका मु कुराते हुए बोले–अजी, मुझे तो आज तक एक भी नह
िमले। कह िमल जाते तो एक डंडा लगाकर देखता िक उनक थत ता
कहाँ तक कायम रहती है।
ख र काका हँस पड़े। बोले–जो अभागे ह, वे मो के पीछे दौड़ते ह। जो
भा यवान ह, वे बैठे–बैठे ही सब बंधन खोलकर सायु य मो ा कर लेते
ह।
मने कहा–सो कैसे, ख र काका?
ख र काका िवनोदपूवक बोले–देखो, जो लोग पहुँचे हुए ह, उनके लए
िव ध या और िनषेध या?
िन ैगु ये प थ िवचरतां को िव ध: को िनषेध:!
जो अभागे ह, वे
भ ोपवासिनयमाकमरी चदाहै:
अपने शरीर को सुखा डालते ह। जो भा यवान ह, वे
आ लगनं भुजिनपी डत बाहुमूल
भु ो त तनमनोहरमायता या:
आनंद लूटते ह। उनके लए तो नीिवमो ो िह मो :!
मने कहा–ख र काका, आप तो सब बात को िवनोद ही म उड़ा देते ह।
लेिकन गौतम, कणाद, किपल आिद जो मो का इतना सारा िववेचन कर
गये ह, सो या यथ है?
ख र काका हँसते हुए बोले–देखो, गौतम–कणाद के मो म न चैत य
है, न आनंद है। जड़ पाषाण क तरह िन े थ त है। इसी लए एक
आलोचक ने आड़े हाथ लया है–
मु ये सवजीवानां य: शला वं य छ त
स एक: गोतम: ो : उलूक तथाऽपर:
“जो मुि के नाम पर ‘ शला व’ दान करते ह, उनके नाम ‘गोतम’
(पशुतम) और ‘उलूक’ (उ ू प ी) ठीक ही बैठते ह।”
म–एक ने तो झ ाकर यहाँ तक कहा है िक–
वरं वृंदावनेऽर ये ृगाल वं भजा यहम्
न च पाषाणव मो ं ाथयािम कदाचन
“वृंदावन म गीदड़ होकर ज म लेना अ छा, लेिकन प थर के समान मो
अ छा नह ।”
म–ख र काका, गौतम ने ऐसे मो का य उपदेश िदया!
ख र काका बोले–अजी, उ ह ने अपनी ी को शाप देकर जीतेजी
प थर बना िदया। तब से ऐसे पाषाण दय हो गये िक सबको प थर बनने का
उपदेश देने लगे। मुझे तो ऐसा जड़ मो नह चािहए।
म– कतु सां य के मो म तो चत् है?
ख.–अजी, उसम भी आनंद नह है। केवल चत् रहकर या होगा?
अखाड़े म चत हो गये तो िफर पु षाथ ही या रहा?
म–लेिकन वेदांत का मो तो सत् चत् आनंद है?
ख.–हाँ, पर वह आनंद िकस काम का जसम म ही न रहूँ? अगर द ू हा
ही नह ; तो िफर शादी कैसी? जब मेरी ह ती ही नह रहेगी, तो आनंदभोग
कौन करेगा? जो थरबु रस मूढ़: बनकर रहना चाहते ह, वे मूढ़ ह। जो
ा ी– थ त के पीछे पागल ह, उ ह ा ी बूटी का सेवन करना चािहए।
म–तब िनवाण भी कुछ नह ?
ख.–जब वयं उसके वतक ही सव शू यम् कहते ह, तो िफर मुझसे
या पूछते हो?
म–तब आपका अपना मत या है?
ख.–सो तो तुम जानते ही हो।
न वग नैव नरकं पुनज म न िव ते
ना त मृ यो: परं क चत् मो ो देहिवमोचनम्!
“ वग–नरक कह नह है; पुनज म नह होता; मृ यु के बाद कुछ शेष
नह रहता; यह शरीर छूट जाना ही मो है।”
वह मनहूस मो जतने िदन नह आये, उतना अ छा। िफर जीवन के
ये आनंद कहाँ िमलगे?
दिु नयाँ के जो मजे ह ह गज वे कम न ह गे
महिफल यही रहेगी अफसोस हम न ह गे!
यह कहकर ख र काका ेमपूवक ठंढाई का िगलास उठाकर पी गए।
पं डतजी
उस िदन मेरी ससुराल के पं डतजी बुरी तरह ख र काका के चपेट म आ
गये। बात य हुई िक पं डतजी ा के िनमं ण म आये हुए थे। ठाकुर
साहब क मृ यु पर बात चल रही थी। पं डतजी सां वना दे रहे थे–भावी
पर िकसी का वश नह चलता है। उनक तो अभी मरने क अव था नह
थी। परंतु नाऽकाले ि यते क त् ा काले न जीव त। जब समय पूरा जो
जाता है, तब कोई बच नह सकता है। और जब तक समय पूरा नह होता
तब तक मर नह सकता।
उसी समय ठाकुरबाड़ी के पुरोिहत चरणामृत बाँटने आये। पं डतजी
उसे हण करते हुए ोक पढ़ने लगे–
अकालमृ यहु रणं सव या ध िवनाशनम्
िव णुपादोदकं पी वा शरसा धारया यहम्
इतने ही म न जान िकधर से पहुँच गये ख र काका। उ ह ने आते ही
टोका– य पं डतजी! आपने अभी कहा है िक िबना समय पूण हुए कोई
मर नह सकता। तब िफर अकालमृ यह ु रणम् य कहते ह?
पं डतजी एकाएक इस तरह म पकड़ आ गये िक कुछ जवाब देते नह
बन पड़ा।
ख र काका ने पूछा– य पं डतजी! भावी तो सव प र है?
पं डतजी–अव य।
न भव त य भा यं भव त व भा यं िवनािप य नेन
करतलगतमिप न य त य य िह भिवत यता ना त
ख र काका–अ छा, मान ली जए, कल आपक मृ यु होती है। अब
किहए िक लाख य न करने पर भी आप बच सकते ह?
पं.–कदािप नह । जब राजा परी त इतना उपाय करने पर नह बचे,
तब म या बचूँगा? य ा ा ल खतं ललाटपटले त मा जतुं क: म:!
ख.–और यिद बड़े–से–बड़े डॉ टर को बुलाया जाय तो?
पं.–ध व त र के बाप के आने से भी कोई लाभ नह होगा।
ख.–और यिद भावी हो िक बच जायँगे?
पं.–तब अनायास ही बच जायगे।
ख.–तब तो दवा करने क कोई ज रत नह ?
पं.– (कंु िठत होते हुए) नह , उ ोग तो करना ही चािहए।
उ ोिगनं पु ष सहमुपै त ल मी:
दैवेन देयिम त कापु षा वद त
दैवं िनह य कु पौ षमा मश या
य ने कृते यिद न स य त कोऽ दोष:
ख.– य पं डतजी! इस वचन से तो दैव उड़ जाते ह! भिवत यता
वाली बात कट जाती है।
पं.–नह , भिवत यता को कौन काट सकता है?
ता शी जायते बु या शी भिवत यता
जैसी होनी रहती है, वैसी ही बु हो जाती है।
ख.–इसका अथ यह हुआ िक बु वतं नह है। िनय त के अधीन
है। तब पु षाथ का या अथ रह जायगा?
पं डतजी अ फुट वर म ग ग करने लगे।
ख र काका ने पूछा–यिद भिवत यता अिनवाय है, तब तो िकसी को
उपदेश देना भी यथ है?
पं.–सो कैसे?
ख र काका कहने लगे–यिद क ा वतं हो, तभी तो स यं वद, धम
चर, वा य साथक हो सकते ह। परंतु आपने जो ोक पढ़ा उसका
आशय िनकलता है िक हम लोग वतं नह ह। यो य क ा मा ह।
तब िव ध–िनषेध का या अथ? धनुष से छूटे हुए वाण को कोई आदेश
देता है िक इस वेग से चलो? समु क लहर को कोई उपदेश देता है िक
इस तरह मत उमड़ो? जब सभी लोग िनय त क धारा म बह रहे ह और
अपनी ग तिव ध पर िकसी को कोई अ धकार ही नह है, तब इदं
क यम्, इदं न क यम् इस त य यय का अथ ही या रह जाता है?
तब तो चािहए श द ही कोष से उड़ जाना चािहए! ऐसी थ त म पाप–
पु य का भेद ही िमट जायगा और सारा धमशा िनरथक हो जायगा।
या पं डतजी! आप यह बात वीकार करते ह?
पं डतजी िफर ग ग करने लगे।
ख र काका ने कहा–पं डतजी! मेरे सामने गड़बड़झाला नह चलेगा।
या तो भिवत यतावाला ोक कािटए या संपूण धमशा को गंगाजी म
िवसजन क जए। दोन घोड़ पर आप एक साथ सवार नह हो सकते।
िकसी एक पर रिहए।
परंतु पं डतजी दोन म िकसी प को छोड़ना नह चाहते थे। इस लए
असमंजस म पड़ गये।
मने देखा पं डतजी साँसत म है। अत: संग बदलते हुए पूछ िदया–
पं डतजी! ा तो बड़ी धूमधाम से हो रहा है?
पं डतजी को राहत िमल गयी। िनसाँस छोड़ते हुए बोले–भला, इसम
भी पूछने क बात है? ठकुरानी सािहबा िदल खोलकर खच कर रही ह।
ऐसा भोज बहुत िदन से नह हुआ था। आज दो िदन से बालूशाही
क डकार हो रही है।
यह कहकर पं डतजी इतमीनान से त द पर हाथ फेरते हुए
अजीणनाशन मं पढ़ने लगे–
आतापी भ तो येन वातापी च महाबल:
समु : शोिषतो येन स मेऽग यः सीदतु
िफर कहने लगे–सात तरह क िमठाइयाँ बनी ह। ेतो सग म असली
चाँदी के बतन दान िकये गये ह। श यादान म रेशमी तोशक दी गयी है।
अशफ से पड काटा गया है। पं डत को िवदाई म दश ु ाले भी िमलगे।
ठाकुर साहब थे भी वैसे ही इकबाली! उ ह ने िन य िकसी राजा–
महाराज के घर म ज म लया होगा। जैसे द रयािदल थे, वैसा ही कम भी
हो रहा है। वग म भी देखकर स होते ह गे। भगवान् उनक आ मा को
शां त दान कर!
ख र काका इतनी देर तक चुपचाप सुन रहे थे। अब उनसे नह रहा
गया। बोले–पं डतजी, आप तीन तरह क बात य बोलते ह?
पं डतजी–सो कैसे?
ख.–आपका या िव ास है? ठाकुर साहब वगलोक म ह? अथवा
ेतयोिन म ह? अथवा पुनज म हण कर चुके ह? तीन बात तो एक
साथ नह हो सकती ह।
पं डतजी को िफर डकार आ गयी।
ख र काका ने कहा–आप वयं सोचकर दे खए। यिद ठाकुर साहब
ने ज म हण िकया होगा, तो वह अभी तन–पान करते ह गे। तब अभी
भात का पड देने से या फल? यिद वग–लोक म िवहार करते ह गे, तो
वहाँ का अमृतोदक छोड़कर यहाँ का ह तोदक पीने य आवगे? और
यिद वह ेतलोक म भटकते ह गे, तो उनके िनिम श या और छाता–
जूता दान का या अथ? या ेत लोग जूता पहनकर चलते ह?
पं डतजी को गुँगुआते देखकर ख र काका ने कहा–पं डतजी! यह
महाजाल आप ही लोग का फैलाया हुआ है। जब तक ठकुरानी सािहबा
जैसी मछ लयाँ फँसती रहगी, तब तक आप जैसे पं डत को बालूशाही
क डकार आती ही रहगी। परंतु अब अ धक िदन तक यह चालाक नह
चलने क । न जान िकतनी सिदय से आपके पाखंड का पदाफाश हो
रहा है!
मृतानामिप ज तूनां ा ं चेत् तृि कारकम्
िनवाण य दीप य नेह: संवधये छखाम्!
यिद मृत यि को ा से तृि होती है, तब तो बुझे हुए दीप म भी
तेल डालने से ब ी जल जानी चािहए!
वग थता यदा तृ ग छे यु त दानत:
ासाद योप र थाना म क मा दीयते?
यिद यहाँ दान देने से वगलोक म िपतर को पहुँच जा सकता है, तो
य न आपको कोठे पर बैठाकर नीचे भोजन उ सग कर िदया जाय?
ग छतािमहज तूनां वृथा पाथेयक पनम्
गेह थकृत ा ेन प थ तृि रवा रता
अगर मं पढ़ देने से ही भोजन का फल िकसी को िमल जा सकता
है, तो य न पं डतानीजी आपके परदेश जाने पर घर म ही थाली
परोसकर मं पाठ कर देती ह? आप बेकार य भोजन क पोटली राह म
ढोने का क करते ह?
यिद ग छे त् परं लोकं देहादेष िविनगत:
क मा भूयो न चाया त बंधु नेहसमाकुल:?
यिद सचमुच ठाकुर साहब कह िकसी लोक म मौजूद ह, तो ठकुरानी
सािहबा को इस तरह रोती–कलपती देखकर भी ढाढस बँधाने के लए,
एक बार आँ सू प छने के लए, य नह आ जाते?
चावाक क इन चुनौ तय का जवाब आप लोग अभी तक नह दे पाये
ह।
पं डतजी बोले–यहाँ मरने पर भी िपतर को जल िदया जाता है। यही
तो इस देश क िवशेषता है।
ख र काका बोले–यही बात तो मेरी समझ म नह आती। या मृतक
पानी पी सकते ह? आप एक चु ू जल लेकर तपण कराते ह–
अ मत् िपता अमुक शमा
तृ यताम् इदं जलं त मै वधा!
मान ली जए, िपतर पीते भी ह , तो या चु ू भर पानी उ ह परलोक
म नह िमल सकता? या वहाँ पानी का इतना अकाल है? या वे चातक
क तरह दो बूँद पानी के लए तरसते ह? आप मं पढ़कर भ गा अँगोछा
िनचोड़ देते ह!
ये के चा मत्कुले जाता अपु ा: गोि णो मृता:
ते िपबंतु मया द ं व िन पीडनोदकम्
“मेरे कुल म जो भी िनःसंतान मर गये ह , वे यह व का िनचोड़ा
हुआ पानी पी ल!” या यह उदारता क बात हुई। अगर जीतेजी आपका
लड़का ऐसा करे, तो आपको कैसा लगेगा? सच पू छए तो िपतर के
जलदान के नाम पर धू लोग वयं अपने जलपान क यव था िकये हुए
ह। वैतरणी पार कराने के बहाने यजमान को यह मं पढ़ाकर उसक गाय
ले लेते ह–
यम ारे महाघोरे कृ णा वैतरणी नदी
तां संततु ददा येनां कृ णां वैतरण च गाम्
यजमान तो गाय क पूँछ पकड़कर रह जाय और आप द ु धपान करते
रह! इस लए लोकायतमत वाले कहते ह–
तत जीवनोपाया: ा णैरवे िन मता:
मृतानां ेतकाया ण न ि य ते व चत् तथा
आज लोग ने अपनी जीिवका के लए ये सब उपाय रचे ह। और
कह इस तरह के ा –कम नह होते। य िक और देश म ा ण ह ही
नह , जो गाय क पूँछ पकड़ा कर वैतरणी पार कराव!
पं डतजी होकर बोले–आप आ मा नह मानते ह, इस लए
ना तक क तरह बोलते ह।
ख र काका ने पूछा–आप आ मा िकसको कहते ह?
पं डतजी शा ाथ क मु ा म बोले–शरीर, इंि य, मन, बु , सबसे
परे जो है, वही ‘आ मा’ है। वह शु , बु , मु , आनंद व प है।
ख र काका ने पूछा–पं डतजी! जब आ मा वत: आनंद व प है,
तब आपने यह य कहा िक भगवान् ठाकुर साहब क आ मा को शां त
दान कर! या उनक आ मा को पे चश क बीमारी है?
पं डतजी पुन: डकार लेते हुए ोक पढ़ने लगे–
अग यं कंु भकण च श न च वडवानलम्
आहारप रपाकाथ मरे भीमं च पंचमम्
( कंदपुराण)
ख र काका ने िफर टोक िदया–पं डतजी, भोजन िकया है आपने,
और पचावगे भीम! यह तो वही कहावत हो गयी िक “खायँ भीम और…”
पं डतजी बमक उठे –आप तो ना तक ह। दस ू र क आलोचना
करते ह, और वयं ा ण होकर चंदन तक नह लगाते!
ख र काका ने शांत भाव से उ र िदया–पं डतजी! सामंतवादी यगु
म भोगा भलािषणी यव ु तयाँ तन पर चंदन लेप करती थ , और
भोजना भलाषी ा ण ललाट म। या अब भी यह ‘साइनबोड ज री है?
या ‘ ीखंड’ (चंदन) के िबना ीखंड (दही) गले म अटक जाता है?
या भ म लगाने से ही भोजन भ म हो सकता है?
पं डतजी क ोधाि म घृत पड़ गया। बोले– लखा है–
अ ं िव ा जलं मू ं य िव णोरिनवेिदतम्
( वैवत)
या आप भोजन के समय भगवान् को नैवे उ सग करते ह?
ख र काका ने उ र िदया–म वयं थाली म खाऊँ और भगवान् के
नाम पर एक मु ी िनकालकर जमीन पर रख दँ,ू ऐसा अपमान नह कर
सकता! भगवान् या िब ी ह, जो कौरा खायँगे?
पं डतजी ने पूछा–आप ‘गाय ी–सािव ी’ का यान करते ह?
ख र काका ने मु कुराते हुए कहा–आप लोग गाय ी को ‘बाला’ और
सािव ी को ‘यव
ु ती’ प म देखते ह।
गाय य रां बालाम्!
वह बाला भी कैसी, तो गोरे रंग क , रेशमी साड़ी पहने, फूलमाला
और अलंकार से यु !
ेतवणा समुि ा कौशेयवसना तथा
ेतै वलेपनै: पु पैरलंकारै भूिषता
(सं योपासनिव ध)
और, सािव ी का यान करते ह–
सािव यव
ु त शु ां शु वणा ि लोचनाम्
(स. िव.)
म गाय ी–सािव ी मं के साथ इस तरह का खेलवाड़ नह करता।
पं डतजी ने होकर कहा–मनुजी का आदेश है–
नोप त त य:पूवा नोपा ते य तु प माम्
स शु व बिह काय: सव माद ि जकमण:
या आप सं यावंदन करते ह? ‘अघमषण सू ’ का पाठ करते ह?
108 बार गाय ी मं जपते ह?
ख र काका ने हँसते हुए जबाव िदया– ‘अघमषण’ का अथ है पाप
दरू करनेवाला। ‘गाय ी’ मं बु को चोिदत ( े रत) करने के लए है।
इस लए जो पापी या मंदबु ह , उ ह यह सब जप करना चािहए।
पं डतजी ‘अि वायु ’ हो गये। बोले–आप यंजना से मुझे ‘मूख’
बना रहे ह। या पं डत लोग मूख होते ह?
ख र काका ने िवनयपूवक उ र िदया–सब पं डत को तो म नह
कहता। कतु कुछ पर ये सात ल ण घिटत होते ह–
दंभी लोभी तथा ोधी कृपण: ैण एव च
नदक ाटु कार पं डत: स ल ण:
कुछ पं डत म अहंकार, लोभ, ोध, कृपणता, ैणता, नदकता
और चाटु का रता, ये अ धक मा ा म पाये जाते ह।
पं डतजी रोषपूवक बोले–आप भी तो पं डत ह।
ख र काका ने कहा–इसी लए मुझम भी कुछ ल ण ह।
मने पूछा–ख र काका, पं डत लोग इतने अहंकारी य होते ह?
ख र काका नस लेते हुए बोले–कारण यह है िक सं कृत याकरण म
‘म’ उ म पु ष, ‘तुम’ म यम पु ष, और बाक सारे लोग ‘अ य’ पु ष
माने जाते ह। ‘उ म’ और ‘म यम’ के बाद तो ‘अधम’ ही होता है। इसी
कारण और लोग उनक ि म अधम होते ह।
मने कहा–ख र काका, यह तो आपने अनूठी बात कही।
ख र काका–तब ख र–पुराण का एक और ोक सुन लो–
मधुरषे ु महा ी त: ृगं ाररस– च तनम्
परोपदेशे पा ड यं प डत य योगुणा:!
पं डत लोग िम ा और ृग
ं ार रस के अ धक ेमी होते ह, परोपदेश
म कुशल होते ह।
म–सो य , ख र काका?
ख.–इसका भी कारण याकरण ही है। सं कृत भाषा म पहले ही
ि या का भेद कर िदया गया है। पर मैपद और आ मनेपद। इसी अ यास
के कारण पं डत लोग ि या मा म पर मै (दस ू रे के लए) और आ मने
(अपने के लए) का भेद करते ह।
मने कहा–ख र काका, यह भी लाख टके क बात हुई। राजा भोज
जैसे गुण ाहक रहते, तो ऐसी–ऐसी बात पर अश फयाँ उझल देते।
ख र काका–अजी, मुझे तो ब फयाँ उझलनेवाले भी नह िमलते ह।
कोरी शंसा लेकर या चाटू ँगा?
मने कहा–ख र काका, तो यह भी बताइए िक पं डत लोग लोभी य
होते ह?
ख र काका बोले–अजी, ज ह बा याव था से ही एक–दो नह ,
दस–दस लकार कंठ थ करा िदये जायँ, उ ह यिद ल अ र का सं कार
नह होगा, तो या द अ र का होगा? इसी कारण पं डत लोग लेना
जानते ह, देना नह ।
मने कहा–ख र काका, आप तो सब चम कार ही बोलते ह। तब यह
भी किहए िक पं डत लोग इतने र सक य होते ह?
ख र काका मु कुराते हुए बोले–एक कारण तो यही िक वे गु से
मनोरमा कुचमदन 1 का पाठ पढ़कर, उसम परी ा भी देते ह। और िकसी
भाषा के याकरण म ऐसा पाठ् य ंथ िमलेगा?
मने कहा–ख र काका, आप तो हमेशा िवनोद ही मे म रहते ह। तब
यह भी बताइए िक पं डत लोग अपनी बु से साचकर कुछ नया
आिव कार य नह करते ह?
ख र काका यं यपूवक बोले–अजी, ारंभ से ही लघुकौमुदी म–
अहं वरदराज भ ाचाय:, अहं वरदराज भ ाचाय: 2
रटते–रटते उनम कुछ उसी कार का सं कार बन जाता है।
मने कहा–ख र काका, इ ह बात से लोग आपको ‘पं डत–पछाड़’
कहते ह।
ख र काका हँसकर बोले–अजी, ससुराल के पं डतजी ह, तो इतना
भी नह कहूँ?
पं डतजी बोले–तब आप शा ाथ कर ली जए।
ख र काका ने कहा–शा ाथ पं डत को मै खूब जानता हूँ। एक–
से–एक अजीबोगरीब बात को लेकर आप लोग बहस करते ह। “घट म
घट व समवेत है; घट फूट गया, तो घट व कहाँ गया?” घट–पट क
लड़ाइय म ऐसी खटपट होती है, िक झटपट कोई बीच म पड़कर लटपट
नह छुड़ाए, तो चत–पट हो जायँ!
पं डतजी गव ि पूवक बोले–अव छे दकता के शा ाथ म कौन हमारे
सामने िटक सकता है?
पलाय वं पलाय वं भो भो ता ककिद गजा:
सहभ ः समाया त स ा तगजकेसरी!
ख र काका हँस पड़े। बोले–एक राजा के दरबार म तीन बाँके
पहलवान गये। पहले ने अपना नाम बताया–अ रदलगंजन सह! दस ू रे ने
मूँछ पर ताव देते हुए कहा–अ रदलभुजबलभंजन सह! तीसरे ने ताल
ठोकते हुए कहा– अ रदलप नीपीनपयोधरमंडलमानिवमदन सह! आप
लोग इसी कार के वा वीर ह। जो असली वीर ह, वे बोलते नह , कर
िदखाते ह। ‘शूर समर करनी कर ह, किह न जनाव ह आपु।’ जो असली
पं डत ह, वे संसार म एक–से–एक अ भनव आिव कार करते जा रहे ह,
और आप हजार वष से, घटोघट: और नीलोघट: के प र कार म लगे
हुए ह। घट से ऊपर नह उठ सके ह। उसी म अव छे दकता क ल छे दार
राबड़ी घ टते रहते ह!
आप ‘घट’ को सीधे ‘घट’ नह कहकर ‘घट वाव छे दकाव छ ही
कहगे, तो इससे या भ ता आ जायगी? वह वागाडंबर शर ऋतु का
शु क मेघाड बर मा है, जसम िनरा गजन ही होकर रह जाता है। हाँ,
शा ाथ के नाम पर कुछ ‘अथ’ ( य) अव य बरस जाता है।
मने पूछा–ख र काका, असली और नकली पं डत क पहचान या
है?
ख र काका बोले–असली पं डत िव ा के पीछे रहते ह, नकली
पं डत िवदाई के पीछे । असली पं डत गुण क खोज म रहते ह, नकली
पं डत य क खोज म। असली पं डत ान का िव तार करते ह;
नकली, अपनी त द का। असली पं डत मूखता का संहार करते ह, नकली
पं डत केवल िम ा का।
इतने ही म ठकुरानी सािहबा क हवेली से टोकरी भर िमठाइयाँ पहुँच
गय । वाद–िववाद का जो सल सला चला था, वह ‘मधुरण े समापयेत्’ हो
गया।
…
गो ं नो व ताम्, दातारो नोऽ भव ताम्…
“खूब जय, खूब देख-सुन। खूब वंश बढ़े, दाता लोग बढ़। धन-धा य
और संत त बढ़े। गाय खूब दध
ू द। बैल खूब जोत। समय पर वषा हो।” बस,
और या चािहए? अभी तक दवू ा त मं म ये ही सब आशीवाद िदये जाते
ह।
…दो ी धेनुव ढानड् वान्…िनकामे िनकामे न: पय यो
वषतु, फलव यो न: ओषधय: प य ताम्, योग ेमो न: क पताम् 9
…
म–ख र काका, दवू ा त का या अ भ ाय है?
ख.–अजी, गौ-भस के लए दवू ा (अथात् दबू ) और अपने लए अ त
(अथात् चावल) रहे, यही दवू ा त का अ भ ाय है।
म–ख र काका, उन लोग का जीवन िकतना सुखी था!
ख.–अजी, वैिदक यगु के लोग म त थे। खाओ, पीओ, मौज करो। परंतु
बाद के उपिनष वाले ऋिष मनहूस िनकले। ऐसे अभागे, िक इंि य से ही
यु ठान िदया! अजी, माना िक इंि याँ घोड़े के समान चंचल ह, परंतु
इसका यह मतलब तो नह िक इ ह भूख मार दो। तब रथ कैसे चलेगा?
सफ लगाम ही हाथ म रखने से या फायदा? मृ तकार भी आये; तो वही
िनषेध का चाबुक लए हुए। जो िवषय उ ह ा य नह थे, उ ह या य कहने
लगे। ख े अंगूर कौन खाय? अजी, सोचकर देखो तो असमथता ही
िनवृ माग क जननी है।
मने पूछा–ख र काका, स ययगु के लोग तो देव-तु य होते थे।
ख र काका बोले–वे लोग भी हम लोग क तरह होते थे। मनु य क
मूल- वृ याँ नह बदलती ह। केवल प र थ तयाँ बदलती ह। उस समय
लोग कम थे। जो अ -फल उपजता था, उसे ही नह खा सकते थे। अि
को एक हजार गौएँ , व श को दो हजार! अब इतना दध ू , दही, घी या हो?
इसी कारण अ त थ देवो भव! जो बचता था, सो होम कर िदया जाता था।
जब सबकुछ ज रत से यादा ही था, तब लोग चोरी य करते? परंतु अब
जनसं या बहुत बढ़ गयी है। भूिम उतनी ही है, कतु खानेवाल क सं या
सुरसा के मुँह क तरह बढ़ रही है। इसी से हाय-हाय मची हुई है।
मने कहा–ख र काका, यह क लयगु का भाव है।
ख र काका बोले–अजी, ‘एक बीमार, सौ अनार’, तो ‘स ययगु ’ हुआ।
‘सौ बीमार, एक अनार’ तो ‘क लयगु ’ हुआ। पहले भी कभी अकाल पड़ता
था, तब क लयगु के धम कट हो जाते थे। एक बार अ थामा को दध ू नह
िमला, तब चौरेठा घोलकर िपलाया गया। अभी देश म करोड़ अ थामा
मौजूद ह। अगर आज भी भो ाओं से भो य पदाथ अ धक हो जाय, तो
िफर स ययगु क झलक िमल जायगी।
मने पूछा–ख र काका, तब ाचीन और नवीन यगु म धममूलक भेद
नह है?
ख र काका–धममूलक नह , अथमूलक भेद है। इसी आ थक आधार
पर समाज के नै तक आदश बनते ह। म तो समझता हूँ िक अथ ही धम का
मूल है। यिद अथ न हो, तो िकसी आदश का कोई अथ नह ।
म–सो कैसे, ख र काका?
ख र काका–देखो, सबसे बड़ा धम है दान और दया। दो मु ी है, तो
एक मु ी दो। जसे रहेगा ही नह , वह देगा या? इसी कारण म कहता हूँ िक
धम का मूल अथ है।
म–परंतु दस
ू रे-दस
ू रे धम भी तो ह?
ख र काका–हाँ, ह। पर िवचार कर देखो, तो अथ के िबना िकसी धम
का मू य नह । गौ, गंगा, सभी आदश इसी भ पर िटके ह। गौ क कृपा से
दध
ू -दही और खेती म सहायता, इस लए वह माता! गंगा के साद से
सचाई और वा ण य, इसी कारण वह भी मैया! सभी म आ थक ता पय
भरा है।
म–परंतु, अपने यहाँ तो अथ को तु छ माना गया है!
ख र काका बोले–अजी, उसी तु छ अथ के कारण तो इतना अनथ
होता आया है। मनु य कहाँ बदला है! संप क मिहमा सब िदन से है।
इसी के कारण पहले भी कु े मचता था, आज भी मचता है। सोना-चाँदी
म झूठ को भी सच बनाने क शि है।
िहर मयेन पा ेण स य यािपिहतं मुखम् 10
यह बात पहले भी थी, आज भी है।
मने कहा–ख र काका, तब स ययगु और क लयगु म या अंतर है?
ख र काका बोले–देखो,
क ल: शयानो भव त सं जहान तु ापर:
उ ं ेता भव त कृतं संप यते चरन् 11
म इसका मतलब य लगाता हूँ। स ययगु म हमारे पूवज व छं द
िवचरते थे। यायावर क तरह। ेता म थोड़ी थरता आने लगी। राजा
जनक भृ त हल जोतने लगे। िम ी से अ पी सीता िनकलने लगी। लोग
घर बनाकर रहने लगे। एक थान म पैर जमने लगा। ापर म लोग और
सु य त हुए। सुख के साधन बढ़े। लोग आराम म आकर ऊँघने लगे। और,
क लयगु म तो िवला सताओं क सीमा ही नह ! लोग िन ंत होकर सो रहे
ह। इसी तरह स यता का िमक िवकास हुआ है।
मने कहा–ख र काका, ऐसा िवकास तो कभी नह हुआ था। आज हम
रेल म सोये-सोये हजार मील चले जाते ह। पर उन िदन तो जंगल के
रा त से पैदल चलना पड़ता था।
ख र काका बोले–हाँ। उन िदन वन के कुश पाँव म अंकुश क तरह
गड़ते थे। इसी लए चतुर शा कार ने फतवा िदया- ‘कुश उखाड़ते जाओ।’
वैसे कोई नह भी उखाड़ता। इस लए ोक बना िदया–
कुशा े वसते : कुशम ये तु केशव:
कुशमूले वसेत् ा, कुशान् मे देिह मेिदिन।
(कृ यमंजरी)
भाद म जब सबसे घना जंगल रहता था, तभी कुशो पाटन का िदन
बनाया गया। िबना मजदरू ी के, केवल पु य के लोभ से सामूिहक प से कुश
उखाड़ा जाने लगा। उपनयन, िववाह, ा , य , पूजा, सभी म कुश का
यवहार चला िदया गया। पिव ी, ि कुशा, मोढ़ा, कुशासन आिद बनाने के
लए लोग कुश उखाड़ने लगे। जस घर म कुश नह , वहाँ कुशल नह । वही
यि कुशल कहलाता था, जो कुश काटने म वीण हो। कुशं लुनाती त
कुशल! कुशल पूछने का अथ था िक घर म पया कुश है न? िबना पैसे के
हर साल कुश का उ मूलन होने लग गया। अजी, शा कार लोग चाण य
के िपतामह थे!
मने कहा–ख र काका, ऋिषय ने कैसा गंभीर दाशिनक चतन िकया
है?
ख र काका अंगीठी क आग कुरेदते हुए बोले–अजी, किपल, कणाद,
गौतम आिद द र ा ण थे। उ ह पद-पद पर क का अनुभव होता था।
जंगल म कुश-काँटे गड़ते थे। जाड़ा-गम , दोन का कोप सहन करना
पड़ता था। तभी तो त त ा पर इतना जोर दे गये ह। वषा म पणकुटी चूती
थी। साँप-क ड़े घुस आते थे। जंगली भालू-बंदर का उप व! बाघ- सह का
भय। िमला तो फलाहार, नह तो िनराहार। पेट-पीठ म सट जाता था। उस
पर रात म िनशाचर का उ पात! उनके दःु ख का अंत नह था। ऐसी
प र थ त म यिद दःु खम् दःु खम् नह कहते तो या कहते? वैसी पृ भूिम
म दखु :वाद नह िनकलता तो और या िनकलता? उन लोग ने ऐसी
उदासी का वर फँू का िक अभी तक लोग वही िवरहा आलाप रहे ह- ‘यह
संसार िवराना है।’ कािमनी और कांचन दल
ु भ रहने के कारण सबसे यादा
चोट उ ह दोन पर क गयी है।
संसार िवषवृ य े फल कांचनं- कुचौ!
म–ख र काका, मह षय क िद य ि के कारण ही तो वेदांत जैसे
दशन क उ प हुई।
ख र काका मु कुराते हुए बोले–मुझे तो लगता है िक मंद ि के
कारण ही वेदांत दशन क उ प हुई है।
मुझे चिकत देखकर ख र काका बोले–अजी, वृ ऋिष-गण अँधेरे मुँह
जंगल-मैदान जाते थे। रा ते म कभी-कभी र सी को साँप समझकर डर
जाते थे। उसी म के आधार पर समझने लगे िक सारा संसार ही म है।
और वही म वेदांत के नाम से सं म पा गया। उनके ि -दोष से हो, या
हमारे अ दोष से हो, वही ा तदशन हमारा धान दशन बन गया। र ौ
यथाऽहे म:! इसी मवाद से ‘ वाद’ क उ प हो गयी!
म–ख र काका, आप जो न स कर द! कहाँ र सी, कहाँ दशनशा !
ख र काका बोले–अजी, र सी को देखकर ही याय, सां य, वेदांत
आिद दशन बने ह। उसी के आधार पर ि गुण क क पना क गयी है,
उभयत: पाशार ु क रचना क गयी है, भव-बंधन का जाल रचा गया है।
म–तो या कमफल का स ांत भी क पत ही है?
ख र काका बोले–देखो, सामा जक प र थ तय के अनुसार ही दशन
बनता है। इस कृिष धान और ऋिष- धान देश म खेती के अनुभव पर कम-
फल का स ांत गढ़ा गया है। जैसा बोओगे, वैसा काटोगे। जैसे भुना हुआ
बीज अंकु रत नह होता, उसी तरह िन काम कम फ लत नह होता। इसी
कार कु हार को देखकर ांड-कुलाल क क पना हुई। घूमते हुए चाक
को देखकर भव-च क क पना हुई। लोहार क िनहाई देखकर कूट थ-
क क पना क गयी। िकसी ठगनेवाली यव ु ती को देखकर माया क
क पना क गयी।
म–परंतु दाशिनक िवचार म जो इतने गूढ़ त व भरे हुए ह?
ख र काका बोले–सभी त व का सार यही िक “संसार म कुछ सार
नह है, अत: संसार छोड़ दो।” अजी, िकसी व तु का सार उसम वेश
करने पर ही िमलता है। क यायाः पलाव यं जामाता वे नो िपता!
क या म या सार है, सो दामाद ही जान सकता है। सास- शुर या
समझगे? यहाँ के दाशिनक ने संसार का सुख समझा ही नह । जैसे,
आजकल के कुछ दामाद पूरी िवदाई नह िमलने पर ठकर ससुराल से
भागते ह, उसी तरह ये लोग भी संसार से भागते थे। अजी, एक थे िनरसन
गोसाई ं। उनक ी कह भाग गयी। तब लंगोट लगाकर सभी ना रय को
सा लयाँ बनाकर गा लयाँ देने लग गये। िनवृ मागवाले दाशिनक िनरसन
गोसाई ं के समान थे।
म–परंतु वेद-वेदांत म तो लोक-क याण क भावना है?
ख र काका बोले–अजी, दोन म वाथ क पूजा है। वेद वाले सीधे
कहते ह–य ाथ पशव: सृ ाः। वैिदक हसा हसा न भव त! अथात् मांस-
भ ण म दोष नह है। वेदांतवाले अमर व का मुल मा चढ़ा देते ह–
अजो िन य: शा तोऽयं पुराण: न ह यते ह यमाने शरीरे!
अथात्, “शरीर काट देने पर भी आ मा का हनन नह होता।” वेदवाले
अनेक देवताओं क पूजा करते थे। वेदांतवाले सबसे बड़ा देवता अयमा मा
अथात् अपने को समझने लगे। वेद म जो वाथवाद था, उसे इन लोग ने
अंत पर, यानी पराका ा पर पहुँचा िदया। म तो ‘वेदांत’ का यही अथ
समझता हूँ।
मने कहा–परंतु ान और वैरा य के इतने उपदेश…
ख र काका बोले–देखो, द र ऋिषय को जब िकसी धनाढ् य यि
को देखकर संताप होता था, तो वे कहने लगते थे–
समलो ा मकांचन:!
(गीता 6 । 8)
सोना या है, िम ी का ढेला है! दःु ख म मन को समझाते थे, सुख-
दःु ख दोन बराबर है!
सुखदःु खे समे कृ वा लाभालाभौ जयाजयौ
(गीता 2 । 38)
जब वा भमान पर ठे स लगती थी, तो थत के ल ण गढ़ने लगते
थे–
दःु खे वनुि मना: सुखेषु िवगत पृहः
(गीता 2 । 56)
अपनी हीनता का एहसास होता था, तो अहं ाऽ म कहकर अपनी
मह वाकां ा क पू करते थे। जब इ छाएँ पूरी नह होती थ , तब कहते थे
िक सभी इ छाओं को तलाक देने म ही शां त है!
िवहाय कामान् य: सवान् पुमां र त िनः पृहः
िनममो िनरहंकार: स शा तम धग छ त
(गीता 2 । 7)
अजी, यह सब या है? हारे को ह र नाम!
मने कहा–ख र काका, वे लोग वे छया अप र ह को ेय कर
जानकर वरण करते थे।
ख र काका बोले–गलत। उन िदन भी जो ऋिष भा यशाली होते थे, वे
आजकल के महंत क तरह महल म रहकर खीर खाते थे और द र ऋिष
उनसे खार खाते थे। देखो, छांदो य उपिनष 12 म ऐसे वैभवशाली आचाय
को “महाशाल: महा ोि य: कहा गया है। मुडं कोपिनष 13 म शौनको ह वै
महाशाल: का उ ेख है। कठोपिनष 14 म भी यमाचाय न चकेता को महल,
हाथी-घोड़े और सुंद रय का लोभन देते ह। कुछ आचाय को चेले-चे लय
से इतनी आमदनी हो जाती थी, िक वे राजा क तरह िवलासमय जीवन
िबताते थे। छांदो य 15 म रै व नामक ऋिष क कथा देखो। उनके पास
राजा जन ु त बहुत-सा य और छ: सौ गाय लेकर पहुँचे। ऋिष ने भट
कबूल नह क । तब राजा और अ धक सोना, म ण, एक हजार गौए्ँ, गाँव क
जम दारी का प ा और अपनी सुंदरी क या को लेकर िफर उनक सेवा म
उप थत हुए। इस बार ऋिष ने क या का मुख देखते ही सारा उपहार
वीकार कर लया।
त याह मुखं मुखो गृ न् उवाच आजहारेमाः!
(छां. 4 । 2 । 5)
उनका सारा अ या म आ धभौ तक आँ च म िपघल गया!
मुझे मुँह ताकते देख ख र काका बोले–अजी, उस यगु म भी बाबा लोग
मुँह बाये रहते थे। ऊपर से िवराग का जोिगया राग आलापते थे और भीतर
क रग म अनुराग क रािगणी वसंत-बहार का रंग भरती थी। माथा मुँड़ा
लेने पर भी छ -चमर का सप ऊपर छ काढ़े रहता था। ‘बे-दाँत’ क
अव था म वेदांत सूझने लगता है। िफर भी रसना तो रस लेने के लए रहती
ही है। तृ णा के दशन कभी नह टू टते। ज ा जैसी अन थ (ह ी-रिहत)
इंि याँ द ु नवार होती ह। वेदांत के ‘दम’ का या दम है िक उनके कदम
रोक सके! अहम् को जीतने का अहंकार एक वहम मा है। िफर भी हम
शता दय से सोऽहम्! दासोऽहम्! सदा सोऽहम् क आ या मक शहनाई
बजाते आ रहे ह।
मने कहा–ख र काका, कल वामी आ मानंद का भाषण होगा।
अ या मवाद पर। वह कहते ह िक भौ तकवादी सं कृ त ही सारे अनथ क
जड़ है।
ख र काका यं यपूवक बोले–हाँ। यह भौ तक ‘लाउड पीकर’ पर
गला फाड़-फाड़ कर, भौ तक ‘ि ज’ का ठंढा पानी पी-पीकर, भौ तकवाद
को कोसगे। और, उनके आ यािमक अनुयायी उनका व य भौ तक
‘टेली ाम’ के ारा भौ तक ‘ ेस’ म छपने के लए भेज दगे िक भौ तकता
का बिह कार करो! अजी, सच पूछा तो ये आ मानंद लोग ‘मोटरानंद’,
‘मालानंद,’ ‘मु ानंद’, ‘मोदकानंद’, और ‘मदनानंद’ होते ह! इ ह
पंचमकार म म रहते ह! परमानंद-सरोवर से मोती चुनते रहते ह, इस लए
परमहंस कहलाते ह। उनके अंधभ भ पू बजाते ह और श याएँ अंगु ोदक
पीती ह। परंतु ये स महा मा ायश: एकांत म महातमा स होते ह।
कषाय व का रंग मन: कषाय (काम, ोध, लोभ, मोह) से और गहरा हो
जाता है। ऐसे ही बगुलाभगत पर वा मीक य रामायण म छ टा कसा गया
है–
प य ल मण पंपायां व : परमधा मक:
शनै: शनै: पदं ध जीवानां वधशंकया!
िबडालवै णव और नीलवण ृगाल हर यगु म होते आये ह और
सं कृ तपु कर क मछ लयाँ उनके चरण पर लोटती आयी ह। र को य
भ क:!
मने कहा–ख र काका, वामीजी ऋ वेद म ‘अन रथ’ (4 । 36 । 1)
श द से स करते ह िक ाचीन यगु म भी हवाई जहाज था।
ख र काका मु कुराते हुए बोले–अजी, स करनेवाले तो ऐसे-ऐसे
होते ह िक त मै ी गुरवे नम: के नाम पर त मई (खीर) भी चेल से वसूल
कर लेते ह! मेरे एक दो त समझते ह िक कृ ण भगवान् चाय पीते थे!
य िक गीता म एक जगह लखा है-यथा संहरते चायम्! (2। 58) इसी तरह
कोई शोधक ा वेद के ओम् से ओमलेट भी िनकाल लगे!
मने कहा–ख र काका, एक बात कहना तो म भूल ही गया। कल गाँव म
िवराट् य हो रहा है। अखंड हवन होगा। बीस िटन घी आया है।
ख र काका अपना सर पीटते बोले–हाय रे बु ! खाने के लए घी
नह , और जलाने के लए घी! अजी, जब सलाई नह थी, तब हमारे पूवज
घृत क आहु त दे-देकर अि को व लत रखते थे। अब, जब एक तीली
रगड़ देने से आग पैदा हो जाती है, तब िटन-के-िटन घी बरबाद करने से
या फायदा? साँप सरककर कहाँ-से-कहाँ चला गया, और हम लोग लक र
पीटते चले जा रहे ह!
म–ख र काका, कुछ लोग कहते ह िक धुएँ से वषा होती है, इस लए
य िकया जाता है।
ख र काका बोले–अगर धुएँ से ही वषा होती, तो आज देश म लाख
चमिनयाँ और इं जन रात-िदन धुआँ उगलती रहती ह। िफर और धुआँ पैदा
करने क या ज रत?
म–तो आप यह बात लोग को समझाते य नह ?
ख र काका बोले–अजी, मुझे ही या पड़ी है िक लोग से झगड़ा मोल
लेता िफ ँ ? जहाँ इतने क र ह, वहाँ एक ख र या कर लगे?…भाई, खूब
घी जलाओ। चावाक कह गये ह–ऋणं कृ वा घृतं िपबेत्। तुम लोग ऋणं
कृ वा घृतं दहेत् करते जाओ। घी नह जलाओगे तो सं कृ त कैसे बचेगी!
1. ऐतरेय/ ा ण 3/33/15
2. ऋ वेद 4/57/2
3. ऋ वेद 10/12/5
4. बृ. 1/3/28
5. ऋ वेद 1/1/1
6. ऋ वेद 10/191/2
7. कठ 6/19
8. यजुवद 36/24
9. यजुवद 22/22
10. शु यजुवद संिहता 40/17
11. ऐतरेय 7/15
12. छांदो य उपिनष 5/11/1
13. मुड
ं कोपिनषद 1/13
14. कठोपिनष 1/25
15. छांदो य उपिनष 4/25
ानंद
आषाढ़ का महीना था। रम झम वषा हो रही थी। ख र काका मेरे यहाँ
आ ा का भोज 1 खा रहे थे। ेमपूवक खीर म आम का रस गाड़ते हुए बोले–
वाह! लगता है जैसे सुजाता क खीर और अंबपाली के आम, दोन एक
साथ िमल गये ह ! िनवाण का आनंद आ गया! रसो वै स:।
मने कहा–ख र काका, वह रस तो आ या मक है?
ख र काका आनंद-लहरी म थे। बोले–अजी, सभी रस एक ह। चाहे
वेदांत का रस हो, या बेदाना अनार का! जयौव त का हो, या कृ णभोग
आम का! का यरस और ा ारस म, गंगाजल और गुलाबजल म, पंचामृत
और अधरामृत म, म कोई भेद नह मानता। जो रसकण कािमनी पुथ के
पराग म जाकर मधु बनता है, वही कोमल कािमनी के अधर पर जाकर
अमृत बन जाता है। अ णाई पर आते हुए क मीरी सेब और त णाई पर
आते हुए क मीरी गाल म अंतर ही या है? क ी नाशपाती और मु धा
ना यका, दोन म एक ही त व है। स : िवक सत बेला और स : िवक सत
बाला म भेद ही या है? रस मूलत: एक ही है। चाहे वह उमड़ते हुए पयोधर
से बरसे या उभड़ते हुए पयोधर से। वही रस कह सरोज बनकर मर को
लुभाता है, कह उरोज बनकर र सक को। चाँदनी छटक गयी, चं कला
खल उठी, चं मुखी मु कुरा उठी! बात तो एक ही है। कलकंठी खल खला
उठी, शेफा लका के फूल झड़ गये, चाशनी म बुँिदया पड़ गयी! तीन म भेद
ही या?
मने कहा–अहा! अलंकार क वषा हो गयी! परंतु ख र काका, अपने
यहाँ के ा कहते ह िक िवषयानंद णक ह, अतएव या य ह।
ख र काका बोले–अजी, यह सब कहने क बात ह। ा लोग वयं
फूल और चंदन य चाहते थे? दध ू और फल य लेते थे? सभी भोजन-
पान तो अंततोग वा मल-मू म प रणत हो जाते ह। तब या सभी म खन-
मलाई उठाकर पहले ही शौचागार म फक देना चािहए? मू से लेकर पु
तक, सभी तो अ थायी ह। तब जीवन म कौन-सा आनंद का सू रह
जायगा?
म–उनका आशय यह है िक सांसा रक सुख म दःु ख िमला रहता है,
इस लए उनका याग करना चािहए।
ख र काका सरस क चटनी का आ वादन करते हुए बोले–इसका
करारा जवाब चावाक दे गये ह।
या यं सुखं िवषयसंगमज म पुस
ं ां,
दःु खोपसृ िम त मूखिवचारणैषा
ीहीन् जहास त सतो म तंडुलाढ् यान्
को नाम भो तुषकणोपिहतान् िहताथ !
अजी, जीवन म सुख-दःु ख दोन रहते ह। लेिकन कौन बु मान भूसा
छुड़ाने के डर से धान फक देता है? या काँट के डर से कोई मछली खाना
छोड़ देता है? म छर और मेहमान के डर से मकान बनाना बंद कर देता
है? सल पर भंग रगड़नी पड़ती है, तो या इस लए ठंढाई का आनंद लेना
छोड़ िदया जाय? नीिवमोचन म भी कुछ म पड़ता है, तो या िववाह नह
िकया जाय? तब पु षाथ ही या रह जायगा?
मने कहा–ख र काका, उनका ता पय यह है िक जस सुख का
प रणाम दःु ख हो, उसे छोड़ देना चािहए।
ख र काका ने छूटते ही उ र िदया-तब तो ी को सव-वेदना के
भय से गभ नह धारण करना चािहए? तुम तो ऐसा रा ता बताते हो िक सृि
ही लु हो जाय!
म-ख र काका, उनका आशय है िक आपात-मधुर प रणाम-िवष सुख
का याग कर देना चािहए। जैसे शहद का च टा उसम िमठास के लोभ से
जाकर मर िमटता है, यह मूखता है।
ख र काका मु कुराते बोले–लेिकन च टे क ओर से यह भी तो
वकालत क जा सकती है िक वह स े ेमी क तरह शहद पर शहीद हो
गया। ततली हरजाई क तरह फूल से थोड़ा-थोड़ा रस लेकर उड़ जाती
है। च टा वेदांती क तरह अनुभव करता ह-ना प़े सुखम त। वह माधुय म
खो जाता है। देर तक थोड़ा-थोड़ा धुँधँआु ने क अपे ा एक ण का
धधकना अ छा समझता है।
मुहूत वलनं ेय: न च धूमा यतं चरम्!
म–परंतु, अपने यहाँ ेय और ेय म भेद िकया गया है।
ख.–यही भेद तो प नह है। ‘ ेय’ या है?
म– ेय है ोपासना।
ख र काका भभाकर हँस पड़े। बोले–अजी, ोपासना का असली
अथ है आ मोपासना।
अयमा मा
इसका अथ है िक यह आ मा ही है।
एकोऽहं ि तीयो ना त
इसका अ भ ाय िक अपने सवा दस
ू रा कोई नह । अथात् म ही
सबकुछ हूँ। अहं ा म।
सव मयं जगत्
का ता पय–
सव वाथमयं जगत्
अथात् वाथ के लए ही यह सारा संसार है। या व य यही त व
अपनी ी मै ेयी को समझा गये ह–
न वा अरे! सव य कामाय सव ि य भव त
आ मन तु कामाय सव ि यं भव त
(बृहदार यक 2 । 4 । 5)
“ ी-पु , धन, धा य, देवी-देवता, सभी कुछ अपने ही लए ि य होते
ह।” म यही बात तु हारी काक को ठे ठ बोली म कहूँ, तो लोग वाथ कहगे।
यह सं कृत म बोल गये, तो ऋिष कहलाए!
मने कहा–ख र काका, वेदांती तो वाथ को छोड़ परमाथ पर जाने क
श ा देते ह?
ख र काका मु कुरा उठे । बोले–वेदांती तो व और पर म कोई भेद
मानते ही नह । तब वाथ या और पराथ या? ‘ वपु ष’ और ‘परपु ष’
म भी कोई अंतर नह रह जाता। परपु ष और पर एक ही ह। यिद याँ
भी वेदां तनी बन जायँ, तो कैसा अनथ हो!
मने कहा–ख र काका, वेदांत और योग म जो इतने यम िनयम आसन
के िवधान ह?
ख र काका खीर म मलाई सानते बोले–अजी, छूँछा ‘यम’ तो यम का
सहोदर है। असल म समझो तो चौरासी भोगासन क नकल पर चौरासी
योगासन बने ह। सुरतयोग के अनुकरण पर समा धयोग क क पना हुई है।
लेिकन जसे प िमनी उपल ध है, वह प मासन य लगावेगा? जसे
कािमनी का अ ांग ा है, वह योग के अ ांग माग को सा ांग य नह कर
देगा? पतंज ल को तलांज ल य नह दे देगा? जसे िब व तनी िमली है,
वह बेलप य ख टेगा? काम के अभाव म ही िन काम सूझता है। िवयोग
से योग का ादभु ाव होता है। र त का ार अव होने पर उपर त का ार
खुलता है। अभावे शा लचूणवा! यह सनातन िनयम है। जसे असली घी
िमलेगा, वह नकली के पीछे य दौड़ेगा?
यिद सा विनता दये िम लत
व जप: व तप: व समा धिव ध:!
ज ह वह विनता नह िमलती है, वे ‘माया’ या ‘ कृ त’ सुंदरी क
क पना कर अपना शौक पूरा करते ह! सां यवाले कहते ह–
कृते: सुकुमारतरं न क चद ती त मे म तभव त
(सां यका रका)
म–ख र काका, आपने सां य क कृ त को ी बना िदया?
ख र काका बोले–अजी, मुझे तो सां य क कृ त िब कुल ी ही
जैसी लगती है। दोन सृि करनेवाली, दोन रझाने म वीण, दोन अनािद
काल से पु ष को आकषण-पाश म बाँधे हुए! दोन ही सा याव था पु ष से
संयोग होने पर भंग हो जाती ह। तभी तो कहा गया है–
योिषत: कृतेरशा: पुमांस: पु ष य च।
( वैवत, गणेशखंड)
म–परंतु कृ त तो ि गुणा मका होती ही है। स व, रज, तम…
ख र काका–ये तीन गुण तो ी म भी रहते ही ह। ेम म स व गुण,
कलह म रजोगुण और ठने पर तमोगुण कट होते ह। नारी के ने म भी
तीन गुण ह–
अिमय हलाहल मद भरे, ेत याम रतनार!
े , स वगुण; याम तमोगुण, लाल रजो गुण। नारी के ये तीन गुण
त
मश: अमृत-त व, िवष-त व और मद-त व ह। समय-समय पर हष, िवषाद
और मोह उ प करते ह। यही ि गुणा मका कृ त का रह य है। समझे?
म–ध य ह, ख र काका! आपने सां य क कृ त को साड़ी पहनाकर
ी बना िदया!
ख र काका िवहँसकर बोले–म या बनाऊँगा? सां यकार ने ही
कृ त को पेशवाज पहनाकर न क बना िदया है।
रगं य दश य वा िनव ते न क यथा नृ यात्।
(सां यका रका)
ख र काका आम चाभते हुए बोले– कृ त वे या क तरह नये-नये प
धारण कर छमकती है। पु ष जनखे क तरह िन वकार देखता रहता है।
इसी लए तो पु ष को ‘ ा’ मा कहा गया है, क ा नह । अंध-पंगु याय
का ता पय यह है िक ी अंध अथात् कामांध होती है, और पु ष पंगु
अथात् लाचार होता है। जब कृ त पु ष पर चढ़ती है तो चत् चत हो जाते
ह। अजी, वृ दशनकार ने अपना ही अनुभव तीक प म य िकया है।
समझो तो सां य म िवपरीत र त क भावना िनिहत है।
म-ऐं! सां य म िवपरीत र त! आप या कह रहे ह? ख र काका!
ख र काका–ठीक कह रहा हूँ। इस देश के किव र सक- शरोम ण होते
ह। इस कारण का य म अ धकतर िवपरीत र त का ही वणन िमलेगा। सां य
म भी वही बात समझो। इसी कारण कृ त को सि य, और पु ष को
िन य कहा गया है।
म–ख र काका, आप तो गजब का अथ लगा रहे ह। परंतु कृ त के
सारे ि या-कलाप तो इसी कारण होते ह िक अंत म पु ष को मो िमल
जाय।
ख र काका–हाँ, सो तो अंत म होता ही है। सां यका रका म कहा है-
पु षिवमो िनिम ं तथा वृ : धान य। मो ‘मुच’् धातु से बना है,
जसका अथ है ‘छोड़ना’। जब कृ त सारी ि याएँ करके छोड़ देती है, तब
पु ष का मोचन होता है। इस थ त म आ म ान, आ म लािन, कवा
काम-रािह य होना वाभािवक ही है। पु ष पुन: कैव याव था म आ जाता
है, यानी एकाक रह जाता है।
म–ख र काका, आप तो हर बात म प रहास ही करते ह।
ख र काका मु कुरा उठे । बोले–सो जो समझो। लेिकन म पूछता हूँ िक
यिद सां य माण, तो य भचार म या दोष है? मैथुन कृ त का काय है,
या पु ष का?
म– कृ त का। पु ष तो िन ल रहता है।
ख.–तब कृ त का एक प रणाम दस ू रे प रणाम से िमलकर तीसरे
प रणाम क सृि करता है। इसम पु ष के बाप का, बाप तो है ही नह , पु ष
का या िबगड़ता है?
म–ख र काका, अभी आप वाह म ह।
ख र काका–तभी तो कहता हूँ िक जस तरह सां य का पु ष मौगा
( ैण) है, उसी तरह वेदांत का नपुस
ं क है। एक को कृ त पटकती है,
दस
ू रे को माया पछाड़ती है।
म–ख र काका, ऋिषगण तो िवषय-भोग को हेय समझते थे।
ख र काका मलाई म आम का रस सानते हुए बोले–यही तो म है। वे
लोग ऊपर से भोग क भ सना करते थे, पर भीतर से उसी के लए याकुल
रहते थे। वैिदक ऋिष सीधे थे। खु मखु ा भोगवाद का ढोल पीटते थे।
परंतु उपिनष के ऋिष अ धक गहरे थे। इसी कारण डू बकर पानी पीते थे।
म–उपिनषद के ऋिष तो वादी थे।
ख र काका यं य के वर म बोले–हाँ! तभी तो उपिनषद म संभोग का
वैसा वणन कर गये ह!
म–ऐं! उपिनषद म संभोग? ख र काका, आप ानंद को िवषयानंद
से िमला रहे ह!
ख र काका बोले–म य िमलाऊँगा जी? उ ह लोग ने िमलाया है
जन लोग को ानंद म भी ी-संभोग सूझता था! बृहदार यक उपिनष
म देखो–
यथा ि यया या संप र व ो न बा ं कचन वेद ना तरमेव
(बृ. 4 । 3 । 21)
अथात्, जैसे ेयसी के आ लगनपाश म बँध जाने पर बाहर-भीतर का
कोई ान नह रह जाता!…य और वेदपाठ, सभी म उ ह संभोग ही
सूझता है! देखो, य क उपमा कसे देते है–
योषा वा अि ग तम त य उप थ एव सिम ोमािन
धूमोयोिनर चयद त: करो त तऽगारा: अ भन दा
िव फु लगा:। त म ेत म ौ देवा रेतो जु त
त या आहु यै पु ष: संभव त…
(बृ. 6 । 2 । 13)
म–इसका अथ?
ख र काका–भावाथ यह िक आग ी है, शला जनने य है, धुआँ
रोआँ है, वाला ी का गु ांग है, चनगारी आनंदकण है, आहु त वीय है,…
यादा खोलकर कैसे कहूँ?
म–यह सब या सचमुच उपिनष म लखा है?
ख र काका–तब या म अपनी ओर से बनाकर कह रहा हूँ? उपिनषद
म सबसे मु य ह बृहदार यक 2 और छांदो य 3 , और दोन म यह िव मान
है।
म–ख र काका, इसका कारण?
ख र काका–अजी, ऋिष लोग पुराने र सक थे। य क उपमा तो देख
ही चुके हो। अब वेदपाठ क कैसी उपमा देते ह सो भी देख लो।
उपमं यंते स हकार:। पयते स: ताव:।
य: सह शेते स उ गीथ: त ी सहशेते
स: तहार:
(छांदो य 2 । 13 । 1)
सामगान क िव ध म भी उ ह भोग क बात सूझती ह! ‘ हकार’ का
अथ आमं ण, ‘ ताव’ का अथ कामयाचना! ‘उ गीथ’ का अथ
सहशयन! और तहार का अथ शांकर भा य म य समझाया गया है–
न कांचन यं वा मत प ा ां प रहरेत् समागमा थनीम्
अथात्, “जो ी श या पर समागम के लए आ जाय, उसे नह छोड़ना
चािहए।”
देखो, बृहदार यक म लखा है–
िकसी क ी हो, िकसी के साथ शयन करे, जरा-सा घी आग म डाल
दो, िक सा ख म! य भचार या हुआ। एक खेल हो गया!
मुझे मुँह ताकते देखकर ख र काका बोले–समझो तो अहं ा म,
यही महावा य सारे अनथ क जड़ है। अ ैतवािदय ने ‘सजातीय’,
‘िवजातीय’ और ‘ वगत’, सभी कार के भेद उठा िदये। इसी अभेद क
आड़ म गु और श या तक म सभी भेद िमट गये!
अहं भैरव: वं भैरवी!
कृ णोऽहं भवती राधा चावयोर तु संगम!
इस कार भैरवीच , रासच आिद नाम से तरह-तरह के खेल चलने
लगे। भवबंधन से मुि िमली या नह , सो तो वे ही जान, लेिकन कंचुक
और नीवी के बंधन अव य खुले। एकांत भि के नाम पर एकांत भोग होने
लगे।
मने पूछा–ख र काका, भि के नाम पर ऐसे-ऐसे सं दाय य चल
पड़े?
ख र काका मालदह आम चाभते हुए बोले–अजी, सभी सं दाय भोग
के लए बने ह। चतुथ सं दाने। यही सभी संबध ं और कम का आधार है।
चरिपपासु मनु य सदा से रस-कलश क ओर लपकता आया है और
मोिहनी माया अपना अमृत-कलश छलकाती हुई उसे नचाती आयी है।
िकसी को मिदरा म रस िमलता है, िकसी को मिदरा ी म। िकसी को कंचन
म, िकसी को कंचनी म। िकसी को तुलसी-माला म, िकसी को वैजयंती-
माला म। िकसी को गौरी म, िकसी को यामा म। िकसी को कुमारी क या
म, िकसी को क या-कुमारी म। िकसी को भैरवी (देवी) के यान म, िकसी
को भैरवी (रािगणी) क तान म। िकसी को किवता के पद म, िकसी को
कािमनी के पद म। िकसी को गीता के संदेश म, िकसी को छे ने के संदेश म।
द ध मधुरं मधु मधुरं ा ा मधुरा सतािप मधुरवै
त य तदेव िह मधुरं य य मनो य संल म्
मने पूछा–ख र काका, आपको सबसे अ धक आनंद िकसम िमलता
है?
ख र काका बोले–देखो,
का येन ह यते शा ,ं का यं गीतेन ह यते
गीतं भोगिवलासेन ुधया सोऽिप ह यते
शा ानंद ि य है। उससे भी ि य है का यानंद। संगीत का आनंद
उससे भी बढ़कर है। उससे भी बल है िवषयानंद। शा , का य-संगीत,
सबको पछाड़ देती है कािमनी। कतु एक चीज ऐसी है जो उसको भी
पछाड़नेवाली है। वह है ुधा। इस लए भोजनानंद को म सबसे बल मानता
हूँ।
म–ख र काका, आप षट् रस के अ धक ेमी ह या नवरस के?
ख र काका मु कुराते बोले–मुझे षट् रस म ही नवरस िमल जाते ह।
मधुर ृग ं ार का, अ ल हा य का, कटु रौ का, त बीभ स का, लवण
क ण का, चटपटा अ त ु का, और कषाय शांत रस का तीक है। जो रस
गोनू झा के चुटकुले म है, वही इमली क खटिम ी म। जो रस वीर का य म
है, वही लाल िमच म। अभी दही-बड़ा खाया, उसम अ त ु रस िमल गया।
षट् रस भोजन म सभी रस िमल जाते ह!
तब तक ख र काका के आगे ढेर से रसगु े आ गये।
ख र काका उ सत होकर बोल उठे –बस, बस, बस। अब साकार
सगुण का सा ा कार हो गया! मेरे लए तो यही आनंद है!
अखंडमंडलाकारं माधुयरसपू रतम्
आन दं साकारं रसगोलं भजा यहम्!
मने कहा–ख र काका, आप जीवन का आनंद लेना जानते ह।
ख र काका एक रसगु ा मुँह म रखते हुए बोले–अजी, िव म चार
ओर रस का समु लहरा रहा है। सव रसमयं जगत्! म भी अपना लोटा भर
लेता हूँ और आनंद-िवनोद म म त रहता हूँ। बेकार लड़ाई-झगड़ा कर रस
को िवष बनाने से या फायदा? जदगी म हँसना चािहए, फँसना नह । यह
दिु नया दाशिनक के लए भूलभुलय ै ा है, वै ािनक के लए योगशाला है,
किवय के लए मधुशाला है, लड़ाकुओं के लए अखाड़ा है, यापा रय के
लए स ाबाजार है, अपरा धय के लए कठघरा है, मनहूस के लए मशान
है और मेरे लए सदाबहार महिफल है। म समझता हूँ िक बारात म आया हूँ।
जनवासे का मजा ले रहा हूँ। एक िदन तो िवदा होना ही है। जब तक जीता
हूँ, रस पीता हूँ, रस बोलता हूँ। मेरा स ांत है–
याव ीवेत् सुखं जीवेत्
रसं पी वा रसं वदेत!्
1. बेर
2. नारंगी
3. अनार
4. बेल
यगु -लहरी
सावन क यामल घटाएँ उमड़ रही थी। ख र काका सतार पर मलार क
धुन बजा रहे थे। मुझे देखकर बोले–आओ, आओ, कहाँ चले हो?
मने कहा– ‘भारतीय सं कृ त’ पर एक वचन हो रहा है। उसी म जा
रहा हूँ।
ख र काका यं यपूवक मु कान के साथ बोले–अजी, सं कृत को
अं ेजी खा गयी, संवत् को ईसवी खा गयी, मंिदर को ब खा गया,
धमशाला को होटल खा गया, रामलीला को सनेमा खा गया, हाथी को
मोटर खा गयी, घोड़े को साइिकल खा गयी, सेर को ‘िकलो’ खा गया, मन
को ‘िक्ंवटल’ खा गया, गु कुल को ‘कनवट’ खा गया, पं डत को साहब
खा गया, पं डतानी को मेम खा गयी, िपता को ‘पापा’ खा गया, माता को
‘म मी’ खा गयी, भोज को पाट खा गयी, णाम को ‘टा टा’ खा गया और
तुम अभी तक भारतीय सं कृ त का नाम जप रहे हो? आज स यता क
टंकार ‘टकार’ पर चलती है– ‘टो ट, टी, टेरे लन, ट ज टर, टौपलेस और
टा टा!
मने कहा–ख र काका, यह तो और क नकल हुई।
ख र काका–अजी, हर एक यगु म ऐसा ही होता आया है। पं डत लोग
जो ‘िमजई’ पहनते ह, वह या वैिदक यगु क व तु है? मुसलमानी
अमलदारी म िमजा लोग पहनते थे। तंबाकू अमे रका क चीज है। लेिकन
हम लोग ने तमाल प ं परमं पिव म् कहकर उसे आ मसात् कर लया है।
भिव यपुराण म तो ‘तमाखु-सेवन’ पर ोक भी जोड़ िदया गया है! इसी
तरह आज क ‘संकर’ मकई भी कल ‘शंकर’ के नाम से जुड़ जायगी।
स यता वणसंकरी होती है। उसम शु ‘शंकरा’ नह , संकर राग चलता है।
म–तब अपनी मूल सं कृ त कैसे अ ु ण रखी जा सकती है?
ख र काका बोले–अजी, सं कृ त या िपटारी म बंद कर, रखने क
चीज है? ‘संसार’ का अथ ही है ‘संसृ त’ अथात् आगे सरकना। समय पीछे
क ओर नह मुड़ता। गंगासागर का जल िफर गोमुखी म नह लौटता। आज
हम बैलगाड़ी से ‘हे लको टर’ पर पहुँच गये ह। अब ‘िमल’ क जगह चरखा
नह चल सकेगा! ‘घड़ी’ क ‘घड़ा’ ( ाचीन घटीयं ) नह चलेगा। या तुम
िफर से घुटन पर चलना पसंद करोगे?
म–परंतु अपना पुरातन आचार….
ख र काका–अजी, नया आचार नये अँचार क तरह यादा चटपटा
लगता है। कलमी स यता बीजू से यादा मीठी होती है। “तीन कनौ जया,
तेरह पाक” का जमाना लद गया। अब डेढ़ चावल क खचड़ी नह पकेगी।
बड़ा समाजवादी हंडा चढ़ेगा। पुरानी पगिड़याँ, लँहगे-दपु ,े चुनरी-चो लयाँ,
इस प छया आँ धी म उड़ जायँगी। छोटे-छोटे िदये बुझ जायँगे। उनक जगह
बड़ा-सा कृि म चाँद पृ वी पर चमकेगा।
म–िफर भी इस धम ाण देश म…
ख.–अब ‘धम ाण’ नह , ‘धम-िनरपे ’ कहो। मठ-मंिदर म कल-
कारखाने खुलगे। य क जगह चमिनय के धुएँ उड़गे। सेतु-बाँध से
भाखरा नंगल का बाँध बड़ा तीथ माना जायगा। ई र केवल शपथ खाने के
लए रह जायँगे!
म–लेिकन हमारे नै तक स ांत तो बहुत ऊँचे ह?
ख.–हाँ। स ांत तो बहुत उ ह। वसुधव ै कुटु बकम्! लेिकन जब
स ांत पर बात आती है, तो कुटु ब म कुट मस शु हो जाती है। जन-
सामा य म ‘समान िवतरण’ तो नह होता; िव श जन म सामान िवतरण
हो जाते ह। िवतरण के नाम पर िव -रण होने लगते ह। अभी स या ह के
थान म स ा ह चल रहा है। जो छ ा-पंजा जानते ह, वे ही स ा ह थया
रहे ह। लग, वचन और ि या के स यक् योग केवल याकरण ही म
सीिमत रह गये ह। अ धका र-िववेचन चला गया। उसके थान म िनवाचन
का अ धकार आ गया। आज जो अ धकार क ग ी पर बैठते ह, उ ह
अ धकतर ध ार ही ा होते ह!
म–ख र काका, जनतं के िवषय म आपका या मत है?
ख र काका बोले–अजी, जस तं म एक िव ान से दो मूख का मत
अ धक मू यवान माना जाय, उसे मूख ही पसंद कर सकते ह, य िक उ ह
क सं या अ धक है। बहुमत वाले मतवाले बन जाते ह और गुणी-जन गौण
पड़ जाते ह। वैशेिषक का सू है– या तो गुण:। अथात् गुण य पर
आ त रहता है। यही बात समाज पर भी लागू है। य िक गुणी यि भी
धिनय और बिनय पर आ त रहते ह। इस लए जनतं व तुत: धनतं
बनकर रह जाता है। सुजनतं नह होकर वजनतं हो जाता है। कह -
कह जनतं भी!
म–िफर भी लोकतं ….
ख.–लोकतं य कहते हो? थोकतं कहो। पद क ओट म नोट क
बदौलत वोट क लड़ाइयाँ जीती जाती ह। कभी-कभी लाठी क चोट पर
भी। इस लए ठोकतं भी कह सकते हो।
म–परंतु यह जातं ….
ख.– जातं मु ी भर लोग के लए मजातं है, शेष के लए सजातं ।
भाषण क अ धकता है, राशन क कमी। जब शासन कुशासन क तरह
चुभता रहे, तब अनुशासन कैसे रहेगा? रामराज या ामराज के बदले बढ़ता
हुआ दामराज चल रहा है। स ती के साथ म ती गयी। अब इस महँगाई म
बहार कैसे गायी जायगी? कभी-कभी चीनी के अभाव म ‘गौडीय’ सं दाय
क शरण लेनी पड़ती है। अभी व भाचाय भी रहते तो अपना मधुरा क
भूल जाते। य िक चौरा धपतेर खल मधुरम्! जंगली यगु क कहावत थी–
“ जसक लाठी, उसक भस” आधुिनक समाज का नारा है– “जो जोते,
उसक जमीन!” यिद कह इसी िदशा म और अ धक ग त हुई तो जो
पालक ढोएँ गे, उ ह क दलु हन हो जायगी! भूदान के समान भायादान का
अ भयान भी शु हो जायगा! भूिमप तय क तरह प तय क हालत भी
नाजुक हो जायगी!
मने कहा–ख र काका, अभी आजादी हुई ही कै िदन क है?
ख र काका हँस पड़े। बोले–अब वह ब ी नह ; चौबीस साल क यव ु ती
है। लेिकन य - य बढ़ती जाती है, ‘बंिदय ’ क सं या म वृ होती
जाती है। ‘चकबंदी’, ‘हदबंदी’, ‘नसबंदी’, ‘नशाबंदी’, ‘दलबंदी’,
‘कामबंदी’! मज बढ़ता ही गया, य - य दवा क ! हम अपनी बु को दोष
नह देकर, प र थ त को दोष देते ह! नद त कंचुिक मेव ाय: शु क तनी
नारी!
मने कहा–ख र काका, अभी जीिवका क सम या जिटल है।
ख र काका यं यपूवक बोले–िकसी ने ऊँट से कहा, “तु हारी गदन
टेढ़ी है।” ऊँट ने जवाब िदया, “मेरा कौन-सा अंग सीधा नजर आता है?”
अजी, अभी कौन-सी सम या टेढ़ी नह है? पहले सम या गढ़कर पू क
जाती थी। अब आपू ही एक सम या बन गयी है। ‘समाधान’ कोष ही म
रह गया है। इस समय स ाथ भी रहते तो ‘ ा श-िनदान’ या, ‘अ ादश
िनदान’ से भी कोई अथ स नह होता।
म–परंतु इतनी योजनाएँ जो बन रही ह
ख.– जतनी योजनाएँ बनती ह, सुिवधाएँ उतने ही योजन दरू चली
जाती ह! िवकास पदा धकारी अपना िवकास कर रहे ह। ‘उ पादन’ का
श द मा सुनाई पड़ता है। ‘लाइफ’ को ‘फाइल’ खा गयी! कर-भार से
जनता क कमर टू ट रही है। केवल सुंद रय के प-यौवन पर टै स लगना
बाक है। मू यवृ , शु कवृ , करवृ से जनता क जो क वृ हो रही
है, उसे देखनेवाला कोई नह । िफर भी सरकार आ म- शंसा का ढोल पीट
रही है।
िनजयौवनमु धाया: वह तकुचमदनम्।
म–लेिकन यह सब देखने के लए तो बड़े-बड़े सरकारी अफसर तैनात
ह?
ख र काका बोले–अजी, अफसर लोग अजगर होते ह। देखते नह हो,
िकतनी समानता है! दोन चार वण के, मा ाहीन। दोन वरािद ह, अथात्
आिद म फुफकार का वर छोड़ते ह! रकारांत ह, अथात् अंत म रगड़ मारते
ह! दोन भारी-भरकम, आलसी, आरामतलब। दोन कंु डली मारकर बैठे
रहते ह, मुँह बाये हुए, शकार क ताक म। जो दायरे के अंदर आया, सो पेट
म गया!
म–तभी तो ‘हड़ताल’ और ‘घेराव’ होने लगे ह। या ाचीन यगु म भी
यह सब होता था?
ख.–पहले कभी िवशेष प र थ त म ह ताल होता था। अथात् हाट म
ताला लग जाता था। अब तो हड़ताल को हरताल ही समझो। कब िकस
समय िकस बात पर ‘हर’ का तांडव-ताल ारंभ हो जायगा, उसका
िठकाना नह । मयादाओं पर हरताल िफर रही है। ापर म एक बार गोिपय
ने रथ के चार ओर लेटकर ‘अ ू र’ का घेराव िकया था। अब तो ू र से
ू र हािकम भी घेराव म पड़कर सभी भाव-िवभाव और अनुभाव भूल जाते
ह।
मने पूछा–ख र काका, पहले के लोग यादा मौज से रहते थे?
ख र काका बोले–अजी, आराम के साधन आज जतने उपल ध ह,
उतने कभी नह थे। यिद रामच जी के समय म टीमर चलती होती, तो
लंका पहुँचने के लए उतना भगीरथ- यास य करना पड़ता? यिद
पृ वीराज के समय म कूटर रहती, तो संयु ा को घोड़े क पीठ पर
चढ़ाकर य भगाते? अगर मलकाओं के जमाने म मोटर का मजा रहता, तो
वे पालक गाड़ी म बैठकर य चलती? वे कठपुतली का नाच-भर देखकर
रह गय ; सनेमा नह देख सक । यिद उन िदन आइस ीम क मशीन
रहती तो नूरजहाँ क खा तर गुलमग से िद ी तक ऊँट का कािफला बफ
लादकर य चलता? वा जद अली शाह जैसे ऐयाश नवाब जदगी म एक
रसगु ा नह चख सके, य िक तब तक ईजाद ही नह हुआ था। पहले
खाजा ही राजा था और बालूशाही क बादशाही थी! आज एक मेहतरानी
भी रेल म चढ़ती और रे डयो सुनती है, जो उन िदन क महारानी को
मुअ सर नह था। आज क योम-िवहा रणी जस शान से बे-गम होकर
उड़ती है, उस तरह आसमान म उड़ना िकस बेगम को नसीब हुआ?
मने पूछा–ख र काका, इतने सुख-साधन के बावजूद भी आज लोग
दख
ु ी य ह?
ख.– य िक, राजा सगर क संतान से भी अ धक संतान-सागर लहरा
रहा है। जैसे-जैसे जनसं या म वृ होती जाती है, उसी अनुपात म दय
क कमी होती जाती है। पहले लोग ‘भर पेट’ खलाते थे, अब ‘ लेट भर’
खलाते ह। पहले ड बू से घी परोसा जाता था, अब च मच से दही परोसा
जाता है! पहले कहा जाता था–
िवना गोरसं को रसो भोजनानाम्!
“िबना गोरस (दध
ू , दही, घी) के भोजन या?” अब बड़े-बड़े होटल म
भी इसका अथ बदल गया है।
िवना गोरसं ‘कोरसो’ भोजनानाम्!
यानी, गोरस के अभाव म अब भोजन-काल म कोरस (समवेत संगीत)
चलता है! तभी तो इस डालडा यगु म एक ‘मील’ (खाना) पचाने के लए दो
मील चलना पड़ता है!
म–ख र काका, पहले के लोग िवशाल दय होते थे।
ख.–तभी तो इतने बड़े दालान बनवाते थे िक सैकड़ बाराती ठहर
सक। अब तो माशूक क कमर क तरह कमरे का घेरा भी तंग होता जा रहा
है। उसम सिव तर मेहमान कैसे समायँगे? समझो तो प रवार-िनयं ण से
यादा अ त थ-िनयं ण ही चल रहा है। इस यगु को ‘दावत’ से जैसे
‘अदावत’ हो गयी! शादी म भी नाशादी हाथ लगती है। उपहार लेकर
जाइए, उपाहार लेकर आइए! पता नह , िकस अभागे ने यह उपसग जोड़
िदया! प त-प नी के संग म, और आहार-िवहार के करण म, कह ‘उप’
लगे! यह ‘उप’ देखकर चुप रह जाना पड़ता है!
ख र काका नस लेते बोले–अजी, िवशालता लु हो रही है। किवता ही
के े म देखो। पहले ऐसे महाका य बनते थे जो पु त-दर-पु त चलते थे।
अब क किवता जुगनू क तरह चमककर घुप अँधेरे म िवलीन हो जाती है।
बड़ी से छोटी क यादा क होती है। कंचुक और इलायची क तरह। बड़ी
घड़ी दीवाल म लटक रहती है, छोटी कलाई पकड़े रहती है। यही बात
ेिमका पर भी लागू होती है। यह ‘अणु’ यगु है। ‘महत्’ का मह व गया।
पहले ‘आजीवन’ ेम चलता या, अब ‘आयौवन’ ेम चलता है। अब तो
यार स ा बाजार का सौदा हो गया!
म–ख र काका, अपनी सं कृ त तेजी से बदल रही है।
ख र काका बोले–अजी, सं कृ त का अथ ही बदल गया है।
सां कृ तक काय के मानी हो गये ह नाच! सुसं कृत वेशभूषा का अथ
न क क पोशाक! जो संसार क कुल-ललनाएँ कर रही ह, वही अपने यहाँ
क कुल-ललनाएँ भी करने लगी ह। अब क याएँ बाबा को ‘बॉल’ और चाचा
को ‘चा चा चा’ डांस िदखा रही ह। कोहबर क बहुएँ ‘को ागल’ बनकर
‘केबरे’ क करामात िदखला रही ह। पहले क नारी रानी बनती थी, अब
उलटकर नीरा बन रही ह। पवती लूपवती हो रही है। तनंधया से
तनध या होना चाहती है। जो मधु ावणी त रखती थी, वह वयं
मधु ािवणी बन रही है। जो नागपंचमी पूजा करती थी, वह वयं नािगन बन
रही है। जो िवषहरा को पूजती थी, वह वयं िवषक या बन रही है।
म–ख र काका, ऐसा प रवतन कैसे हो गया?
ख.–कालभैरवी सबको नचा रही है। काल-भेद से ताल बदलते रहते ह।
कभी-कभी नाच िफर उसी वद ु पर आ जाता है। देखो, आज अजंता,
एलोरा क मू याँ सजीव होकर नगर म िवचरण कर रही ह। जो नारी
शता दय से अवगुिं ठत थी, अब वह अकंु िठत होकर सब ओर से खुल रही
है!
न ोदरी न पृ ा न व ः थला तथा
अध मु तन ार यु मसं ध िनदशना
नवीन यगु -सं ध का उ घाटन इसी ‘यु म-सं ध’ के अनावरण से हो रहा
है। ‘जीवन दशन’ यौवनदशन’ म प रणत हो गया है। ‘अभार- दशन’ से
अ धक ‘उभार- दशन’ ही श ाचार का अंग बन गया है। आज क कुछ
मु ाएँ उदारता के उस वद ु पर पहुँच गयी ह, िक दो मु ी मांस छोड़कर शेष
को बंधनमु कर रही ह। आधुिनक वीरांगनाएं घािटय के बीच म ले जाकर
गला काटती ह!
मेरे मुँह पर िव मय का भाव देखकर ख र काका हँसते हुए बोले–
घबराओ मत। मेरा मतलब कंचुक से है। झाँक -दशन के लए उसका गला
काटा जाता है। वह लो ‘कट’ या, जो ‘लौकेट’ के नीचे नह चला जाय!
इस यगु क ललनाएँ उदार- दया बनकर पु ष को जीतने म बाजी मार रही
ह। जो सुंदरी अपनी खुली पीठ नह िदखाती, वह मानो रण म पीठ िदखाती
है। ना भ-कूप को सावजिनक रस-पान के लए उ मु कर िदया जाता है।
ये ना भ-दशनाएँ नवयगु क अ द ू तका ह।
मुझे मुँह ताकते हुए देखकर ख र काका बोले–देखो, आधुिनक मह ष
ह मा स और ायड! एक सं कृ त को उदर-कि त मानते ह। दस ू रे उस
क को कुछ और नीचे ले जाते ह। दोन के बीच म य बद ु है ना भ। वह अथ
और काम का सं ध- थल है। इस लए म ना भ-दशनाओं को तीका मक
प म देखती हूँ।
मने कहा–ख र काका, आजकल फैशन का यगु है।
ख र काका बोले–अजी, ‘फैशन’ और ‘पैशन’ िकस यगु म नह होते?
सफ उनक अदाएँ बदलती रहती ह। आज नवयगु का सेहरा आधुिनकाओं
के सर पर है, इस लए वे उ तम तक होकर शान से चलती ह
मुमताजमहल ताज लगाती थी। आज क मुमताज ताज क जगह सर पर
ताजमहल खड़ा कर लेती ह। अब कुच-कंु भ क तरह कच-कंु भ क उपमा
भी चल जायगी। उनके दशन से भ को कंु भ- नान का फल िमल जाएगा!
म–ख र काका, पहले के ेम म और आज के ेम म या फक है?
ख.–पहले का ेम कोयले के ताव क तरह देर से सुलगता था, देर तक
ठहरता था। आज का ‘ यार’ गैस क तरह भक्-से धधक उठता है और
फक्-से बुझ जाता है। आधुिनक सं कृ त णवािदनी है। वह सेकंड पर
चलती है। ‘पुश बटन’ (बटन दबा दो) का जमाना है। पहले का ेम चरम
कोिट का होता था, अब चम कोिट का है। आज के रोिमयो कोरा रोमांस
नह चाहते; वे रोम-मांस चाहते ह। इस लए कृि म साधन क बाढ़ आ
गयी है। नायलन के बाल और रबड़ के कुच-िनतंब लगाये जाते ह। वे यौवन
को बैसा खय पर टेके रहते है। नवयौवन उलटने पर भी नवयौवन बना
रहता है। असली पर नकली हावी हो रहा है। प म-सुंदरी से अ धक छ म-
सुंदरी का बोलबाला है। वेदांत का सव िम या समझो तो इसी यगु म सबसे
अ धक च रताथ हो रहा है। केवल बिहरंग देखकर स य का ान नह हो
सकता। इसी लए स दय- तयोिगता के अखाड़े म नािगन कंचुक को
कचुल क तरह उतार फकती ह। जनके वद ु परी ा म सव होते ह,
उनको िव -सुंदरी का मुकुट पहना िदया जाता है।
मने कहा–ख र काका, अपनी सं कृ त का मूलमं था आ म-संयम।
ख र काका बोले–संयम-िनयम तो अब यमलोक का िटकट कटा रहे
ह। आज के मनःशा ी कहते ह िक आ म-दमन बेवकूफ है; उससे
यि व कंु िठत होता है। इस लए अब इंि य-िनरोध के बदले गभ-िनरोध
चल रहा है। पहले पु ज म पर ढोल पीटते थे, अब सर पीटते ह। ज म-
िनरोध का महाल पहले मो वािदय के ज मे था। अब सरकार ने यह
पोटफो लयो छीनकर अपने हाथ म ले लया है। पुनरिप जननं पुनरिप मरणं
पुनरिप गभ-िनवास: का ोत ही बंद हो रहा है। न रहे बाँस, न बजे बाँसुरी!
ख र काका मु कुरा उठे । बोले–इस ‘ ेसरी-पेसरी’ के यगु म अब ‘नर-
केसरी’ कैसे पैदा ह गे?
मने पूछा–ख र काका, यह सब प रवतन कैसे हो गया?
ख र काका बोले–अजी, किवता क तरह सं कृ त क भी दो वृ याँ
होती ह, प षा और कोमला। अभी कोमला वृ है। कोमलांिगनी षोड शय
क षोडशोपचार पूजा हो रही है। यगु -यगु क वंिदनी आज यगु ारा वंिदता
हो रही है।
य नाये तु पू य ते रम ते त देवता:
जो जतने बड़े शहर ह, उनम उतने ही अ धक देवता रमण करते ह!
नाना पधरा दे यः िवचर त महीतले!
महानग रय क नाग रयाँ रस-रंग क गग रयाँ छलकाती चलती ह।
उनम अनेक वाधीनप तका ह। यिद आज ृश ं ारी किव होते, तो ना यका-
भेद के अंतगत बहुत-सी नवीन ना यकाओं का समावेश कर देते। परक या
क तरह पाक या (पाक म घूमनेवाली)! अ भसा रका क तरह सह-सा रका
(साथ चहकनेवाली मैना)! वासकस ा क तरह आपण-स ा (सुस त
िव य बाला)! वयंद ू तका क तरह वयं ो तका (अपने को झलझल
का शत करनेवाली)! िव ल धा क तरह ल धा (तुरत सेवा म हा जर
हो जानेवाली)! वयंवरा क तरह वयंभरा (अपना भरण-पोषण
करनेवाली)! ोिषतप तका क तरह पोिषतप तका (प त को पोसनेवाली)
पहले प त प नी क माँग भरते थे, अब प नयाँ कमाकर प त क माँग पूरती
ह। पहले प नी प त क पद-पूजा (चरण-पूजा) करती थी, अब प त प नी
क पद-पूजा (पदवी क पूजा) करने लगे ह। पहले अ सराएँ नाचती थ , अब
वे अफसराएँ बनकर और को नचाती ह।
म–ख र काका, मिहलाओं क इतनी ग त तो कभी नह हुई थी?
ख.–इसम या संदेह? न ी वातं यमह त का फतवा देनेवाले भारत-
भा य-िवधाता यिद आज जीिवत रहते तो देश क भा य-िवधा यकाओं के
आगे घुटने टेक देते। आज क वीणा-पु तक-धा रणी सर व तय को
देखकर कुचभरतांतां नमािम शवका ताम् पाठ करने लग जाते! यिद ाचीन
काल के र सक किव इस यगु म पदापण करते तो पद-पद पर यगु -देिवय के
पद पर श त क पदावली अ पत करते चलते! अफसरा क तु त
करते–
उ ासने! उ पदे! उ यौवनग वते!
उ ा धकार संयु े ! उ म ते! नमो तुते!
‘नस’ को देखकर कहते–
शु व ा महा ेता बाला मुकुट-मं डता
नाडी- पशकरी नारी ध येयं प रचा रका!
‘लेडी डा टर’ को देखकर वणन करते–
ीवालंिबत यं माला वत पयोधरा
उर: परी का देवी स ः ाण दा यका!
एन.सी.सी. क बंदक
ू -धा रणी वीरांगनाओं के सामने आ मसमपण कर
देते!
‘पट’ बूट‘यत
ु ा’ ौढा ‘कोटव ’ तनो ता
‘हंटर’-धा रणी ह ते ह तनी ‘मद’म दनी!
आज क वािदनी गा गय से हार मानते–
दी का िव ायां योगा यास िनरी का
आसन श का बाला चयपरी का!
‘एयर हो टेस’ (िवमान-बाला) और ‘ रसे शिन ट गल’ ( वागत-
बाला) क अदाओं पर िफदा होकर कहते–
स कारपुणा बाला रं जतो ी मतानना
चि ता बरसंयु ा मधुपा दा यका!
आधुिनक िवषक याओं क मोिहनी माया पर मु ध होकर मरने लगते!
गा यका रंगमंचेषु मधुशालासु पा यका
ना यका ी तगो ीनां वासे सुख-शा यका
नृ ये सहचरी बाला कृ ये गु चरी तथा
सव वहा रका बाला मा रका सुकुमा रका!
मने कहा– सनेमा क अ भनेि य को देखकर तो वे लोग और भी
चिकत हो जाते!
ख र काका बोले–इसम या संदेह? पूरा सनेमा- तो ही बना देते।
मेरे एक भजनानंदी िम गाते ह–
स ययगु म रंभा और उवशी तलो मा जो
देवताओं को भी िद य प से लुभाती है
ेता म मेनका शकंु तलािद प म भी जो
मुिनय को मोहती, स ाट को रझाती है
ापर म राधा आिद गोिपय के प धर
उँ गली के इशारे भगवान् को नचाती है
शि वही िन य नव नूतन वेष धारण कर
क लयगु म च पट क ता रका कहाती है!
अब तो च -ता रका ही भव-ता रका क तरह पूजी जाती है। दगु ा से
दगु ा खोटे, गीता से गीतावाली और इं ाणी से इं ाणी रहमान क यादा
चचा होती है। नूतन साधना को छोड़कर कोई ाचीन साधना के पथ पर
जाना नह चाहता। अब तो हर एक च -पट पर च पट अंिकत है।
कबीरदास भी रहते, तो अपना दोहा य बदल देते–
पोथी पिढ़-पिढ़ जग मुआ पं डत हुआ न कोय
ढाई अ र िफ म का पढ़े सो पं डत होय!
सं कृत के तो कार रहते तो नवीन देवी- तु त पाठ करते!
वैजयंती च माला च वनमाला च म का
मधुबाला सुबाला च ी तबाला तथैव च
राज ी जय ी प म ी: न गस तथा
वहीदा च फरीदा च सईदा च जुबेदका
लीला मीला शम ला शा लनी मा लनी तथा
रेहाना सुलताना च शािहदा जािहदा तथा
किवता सिवता चैव बिबता ल लता लता
गीता रीता च सु ीता नंिदता च िनवेिदता
सुि या च सुरख
े ा च सु च ा च सुलोचना
यामा श शकला शांता शेफाली शोभना शुभा
प िमनी तमा प मा पू णमा च ि यंवदा
मीना नीना सक ना च िन मी स मी तथैव च
अनेकनाम पा तु ता रका: भव-ता रका:
तासां मरणमा ेण वगानंद: जायते
इदं तो ं महापु यं पठ् यते भि पूवकम्
रसो मो भवेत् त वष त मधु वदव:!
मने कहा–ख र काका, सचमुच मधुवषा हो गयी।
ख र काका बोले–महामाया नाना कार के मोहक प धारण कर नृ य
कर रही ह। कह अ भने ी बनकर अदाएँ िदखाती ह, कह राजने ी बनकर।
कह मागने ी बनकर, कह मृगने ी बनकर। कह योगमाया बनकर, कह
भोगमाया बनकर। वह रस क चाशनी चखा रही है। पु ष च ट क तरह
उसम चपके हुए ह। वह ऐसा िपलाती है िक जलाती भी है, मारती भी है! न
जाने संसार: िकममृतयम: क िवषमय:!
मने कहा–ख र काका, कुछ लोग का कहना है िक पा ा य स यता के
भाव से वे छाचार बढ़ रहा है।
ख र काका बोले–यह सब बकवास है। अह या कौन मेम थी? कब
लंडन गयी थी? िकस ‘नाइट ब’ म रही थी? मगर (वा मीक य रामायण
म) देखो, िकस तरह ठसक के साथ इं से कहती है–
कृताथा म सुर े ग छ शी िमत: भो
आ मानं मां च देवेश सवथा र गौतमात्!
“हे देवराज! म कृताथ हो गयी। अब ज द यहाँ से चले जाइए, जससे
गौतम को कुछ पता नह चले और हम दोन बच जायँ!”
इं भी ध यवाद देते हुए कहते ह–
सु ो ण प रतु ोऽ म गिम यािम यथाऽगत:
“हे सुंदरी! म भी पूण संतु हूँ। जैसे आया हूँ, वैसे ही जा रहा हूँ।”
यह ‘डायलाग’ (वा ालाप) आज के हीरो-‘हीरोइन’ (नायक-ना यका)
का नह , हजार वष पुराना है। जब ‘हीरो’ के परदाद के परदादे भी पैदा
नह हुए थे! पर अ याधुिनक सोसाइटी म भी इससे बढ़कर और हो ही या
सकता है? अह यावाद, कंु तीवाद और पांचालीवाद अनािद काल से चले
आ रहे ह। इ ह इस यगु क देन समझना भूल है। ‘सती- था’ बंद हो गयी,
इसका अथ यह नह , िक सती क परंपरा लु हो गयी! सािवि याँ आज भी
ह, कमी स यवान क है। आज क प नी पहले क प त ता से अ धक
मह वपूण है, य िक वह ‘सहध मणी’ ही नह , ‘सहक मणी’ भी होती है।
वह स े अथ म ‘अधािगनी’ बनकर ‘अधाग-पीिड़त’ समाज को पूणाग बना
रही है। वह अनुचरी से सहचरी बन गयी है। पैर दबानेवाली नह , हाथ
बटानेवाली हो गयी है। वह प त क सखी, स चव, श या ही नह , अब
गु आनी भी बन रही है। उसक यो यता देखकर गाग का गव खव हो
जाता, मै ेयी का मान अंतधान हो जाता।
मने कहा–ख र काका, तब आप आधुिनक देिवय के हा दक शंसक
ह?
ख र काका बोले–अव य।
एको िह दोषो गुणस पाते िनम ती दो: िकरणे ववांक:!
चं मा क तरह चं मु खय के दोष भी उनके सुंदर गुण म छप जाते
ह। यिद आज का लदास रहते तो अपनी कूची म नया रंग भरते। शकंु तला
‘कोट’ म खड़ी होकर बहस करती। मुआवजा लेकर रहती। या िप तौल
लेकर द ु यंत को मजा चखा देती। िवरिहणी य णी हे लकॉ टर से उड़कर
य के पास पहुँच जाती। अथवा ‘फोन’ से ‘ ाइंग िकस’ (हवाई चुंबन)
भेजती। पवत-क या एक आसन से अिवचल बैठकर वषा क बूँद को
पयोधरी सेघिनपात चू णता: बही बनाती। वह पवतारोहण म पी.एच.डी. कर
लेती। सभी मुिन-क याएँ कॉलेज-क याएँ बन जाती। वे ब कल-वसना से
छल-छल-वसना बन जाती और तपोवनी जूड़ा बनाकर कमंडलाकार ‘पस’
हाथ म लेकर चलती। आ खर ये आधुिनकाएँ भी तो उ ह चपला चिकता
चंचला णी वनक याओं के नवीनतम सं करण ह! म मु कंठ से व छं द
मु क म इन व छं द मु ाओं क वंदना करता हूँ!
ख र काका आनंद-म होकर झूमते हुए सतार पर गाने लगे–
हे ा तका रके।
हे यगु सुधा रके!
उ मु सा रके!
व छं दचा रके!
सबलां सफलां वावल बनीम्
णयरतां प रणय - िवल बनीम्
का य - नाट् य - संगीत - मोिदनीम्
ीड़ा-कौतुक - रस - िवनोिदनीम्
तूपाकृ त कचपाश धा रणीम्
रं जताधरां चम का रणीम्
पारद श - प रधान - द शनीम्
चंचलांचला मन:क षणीम्
किटत यौवन - कोर - शो भनीम्
सौरभ - लोलुप मधुप - लो भनीम्
अग णत र सक-समाज - ह षणीम्
मधुगध
ं ां मधुकलश - व षणीम्
वंदे वां हे यगु -कुमा रके!
आिदशि नव प-धा रके!
चर छलनाम य मनोहा रके!
वंदे वां मायावता रके!
पुराण क चाशनी
ख र काका द ू धया भंग के गुलाबी नशे म म त थे।
मने कहा–ख र काका, थान पर भागवत हो रहा है।
ख र काका बोले–तब महा अनथ हो रहा है।
म–सो कैसे?
ख.–अजी, रासलीला और चीरहरण क कथाएँ सुनकर गाँव क बहू-
बेिटयाँ बहक जायँगी। यहाँ यमुना नह है, इससे या? कमला नदी का
कछार तो है!
म–ख र काका, आप तो हँसी करते ह।
ख.–नह जी, सच कहता हूँ।
ता वायमाणा: िपतृिमः प त भ ातृ भ तथा
कृ णं गोपांगना: रा ौ रमय त र ति या:
( वैवत)
‘घर म बाप, भाई, वामी मना करते ही रह जाते ह और यव
ु तयाँ
उ म होकर रास रचाने को बाहर चली जाती ह! कहो, यह कोई अ छी
बात हुई?”
म–परंतु कुछ िव ान का मत है िक चीरहरण और रासलीला का
आ या मक ता पय है।
ख र काका बोले–मुझे बहलाओ मत। ये बाल धूप म नह पके ह। म
अठारह पुराण देख चुका हूँ। अभी भी वैवत पुराण सामने रखा है।
म–इसम तो केवल क चचा होगी?
ख र काका बोले–हड़बड़ी तो नह है? तब बैठ जाओ। चीर-हरण का
वणन देखो। यवु तयाँ यमुना जल म नंगी खड़ी होकर नान कर रही है।
उनके व घाट पर रखे हुए ह। उ ह लेकर कृ ण कदंब वृ पर चढ़ जाते ह।
ऊपर से कहते ह–
भो भो गोपा लका: न ा: इदान िक क र यथ?
“ऐ न ाओ! अब तुम लोग या करोगी?”
तब राधा स खय को आ ा देती है िक चलो, इस र सया को पकड़कर
बाँधो। बस,
सवा: राधा या पूण समु थाय जलात् ु धा
ज मुग िपका: न ा: योिनमा छा पा णना
सभी यव ु तयाँ हाथ से अपने गु ांग ढककर उ ह पकड़ने चलती ह।
परंतु वृंदावन-िवहारी तो इस फौज का सामना करने को तैयार ही थे। बोले–
यु माकमी री राधा क क र य त मेऽधुना?
“तुम लोग क लीडरानी राधा मेरा या कर लेती ह, सो देखता हूँ!”
यह सुनते ही राधा हँस पड़ती है और उनका ोध काम म प रणत हो
जाता है।
ु वा जहास सा राधा बभूव कामपी डता!
और उसके बाद तो–
न ा: ीड़ा भरास ा: ीकृ णा पतमानसाः!
नायक-ना यकाओं क इ छा पूरी होती है। और कथा सुननेवाली
बालाओं क इ छा भी पूण हो, इसके लए पुराणकता आशीवाद देते ह िक–
भ या कुमारी तो ं च ृणय
ु ात् व सरं यिद
ीकृ णस शं का तं गुणव तं लभेत् ुवम्!
अथात्, “कुमा रयाँ साल-भर भि पूवक यह तो सुन तो िन य ही
कोई वैसा ही र सया उ ह िमल जायगा।” या अब भी तु ह शंका है?
म–ख र काका, रासलीला का कुछ गूढ़ ता पय होगा।
ख र काका ने कहा–तब वह भी सुन लो!
पुन: ज मु ता: म ा: सु दरं रासमंडलम्
पूण दच
ु कायु ं र तयो यं सुिनजनम्
का दच
ु :ु हरे कृ ण व ोडेऽ मां कु व त
गृही वा ीहरे: कंध मा रोह च कांचन
का च ाह मुरल बलादाकृ य माधवम्
जहार पीतवसनं कृ वा न ं च कािमनी
उवाच का चत् े णा तं गंडयो: तनयोमम
नाना- च -िव च ा यां कु प ावली िम त!
( वैवत)
“पू णमा क रात, यमुना का तट, एकांत थान, यव ु तयाँ िन संकोच
के ल कर रही ह। कोई मुरलीधर क मुरली छीन लेती है, कोई पीतांबर
खोल देती है, कोई गोद म बैठ जाती है, कोई कूदकर कंधे पर चढ़ जाती है,
कोई कहती है िक, ‘गाल म दाँत काटो’’, कोई कहती है, ‘नख त
करो’।”… या अब भी तु हारा संदेह दरू हुआ या नह ?
मुझे चुप देखकर ख र काका बोले–तो लो, और सुनो।
का चत् कामातुरा कृ णं बलादाकृ य कौतुकात्
ह ता ंश िनज ाह वसनं च चकष ह
का चत् काम म ा च न ं कृ वा तु माधवम्
िनज ाह पीतव ं प रहा य पुनददौ
चुचु ब गंडे िब बो े समा य पुन: पुन:
स मतं सकटा ं च मुखच ं तनो तम्
कां चत् कां चत् समाकृ य न ां कृ वा तु कामत:
का च छो ण सुल लतां दशयामास कामत:!
( वैवत)
म–ख र काका, जरा अथ समझाकर किहए।
ख र काका–अजी, या कहूँ? यव ु तयाँ कामो म ा होकर ल ा याग
देती ह। कोई उनको न कर अपनी ओर ख च लेती है, कोई गाल और ह ठ
चूमती है, कोई अपनी छाती म सटा लेती है, कोई अपनी सखी को नंगी कर
उन पर ठे ल देती है, कोई वयं सम पता हो जाती है। सामूिहक संभोग-
ीड़ा होती है। अजी, मुझे तो लगता है िक इसी ‘रास-च ’ से ‘भैरवी-च ’
क उ प हुई होगी।
म–ख र काका, आप तो अ भुत ही कहते ह! कृ ण तो योगी र थे।
ख र काका बोले–तब देखो िक योगी र कैसे भोगी र थे!
कृ ण: कर हाघातं ददौ तासां कुचोप र
ोणीदेशे सुकिठने नख च ं चकार ह
आ लगनं नविवधं चु बना िवधं मुदा
ृगं ारं षोडशिवधं चकार र सके र:!
अब इससे अ धक या होता है?
मने कहा–ख र काका, वह ेम शारी रक नह था।
ख र काका बोले–तुम वैसे नह समझोगे। तब खोलकर सुनो।
जगाम राधया साध र सको र तम दरम्
सु वाप राधया साध र तत पे मनोहरे
कृ णो राधां समाकृ य वासयामास व स
ोणीदेशे च तनयो नख छ ं चकार ह!
( वैवत)
मने कहा–परंतु भगवान् कृ ण तो उस समय बालक थे। वह काम ीड़ा
नह , बाल ीड़ा रही होगी।
ख र काका िबगड़कर बोले–मूख य ना यौषंधम्! एक बार तीन
मूखराज ससुराल गये। एक जब एकांत शयनागार म नववधू क श या पर
गये तो
नीिव-मोचनकाले िह व मू य-िववेचनम्!
अनावरण के समय ही व ाभूषण का दाम जोड़ने लग गये। िहसाब जोड़ते-
जोड़ते रात खतम हो गयी! दस ू रे साहब क बीबी गले म मौल सरी क माला
पहने हुए थी, सो न क-झ क म टू ट गयी। वह सुई-डोरा लेकर रात-भर माला
ही गाँथते रह गये! तीसरे हजरत को खाट कुछ ढीली मालूम पड़ी। वह
र सयाँ खोलकर खाट बुनने लग गये और जब चारपाई तैयार हुई तब तक
सुबह हो चुक थी! ये तीन िद गज थे–म याचाय! मालाचाय! खट् वाचाय!
तुमको या कहा जाय? बाल- ीड़ाचाय?
मने कहा–ख र काका, कुछ पुराणाचाय का मत है िक उस समय
कृ ण केवल नौ वष के थे।
ख र काका यं यपूवक बोले–हाँ। वह राधा क गोद म खेलते थे! तु ह
गद खरीद कर दे आये थे! मेरा गु सा मत बढ़ाओ।
मुझे चुप देखकर ख र काका जोश म आकर कहने लगे–तु हारा म
दरू करना ज री है। तब और देखो। थल ीड़ा के बाद कैसे जल ीड़ा
होती है!
थले र तरसं कृ वा जगाम यमुनाजलम्
व ं ज ाह त या सा न न ा बभूव ह
तां च न ां समा य िनमम जले ह र:
सा वेगेन समु थाय बला ाह माधवम्
उ थाय माधव: शी ं तां गृही वा ह य च
कृ वा व स न ां च चुचु ब च पुन: पुन:!
( वैवत)
अजी, ऐसा उ मु िवहार होता है और िफर भी तु ह लगता है िक वह
‘भोग’ नह , ‘योग है!’ हाय रे बु !
मने कहा–परंतु भगवान् कृ ण तो ‘अ यत
ु ’ थे?
ख र काका डाँटते हुए बोले–‘अ ुत’ थे, तो िफर ु न का ज म
कैसे हो गया? अहीर बुझावे सो मद! इतना समझा गया, िफर भी ‘परंत’ु
लगा रहे हो! तब कान खोल कर सुन लो।
माधवो राधया सा म तधानं चकार ह
अतीव िनजने थाने भृशं रेमे तया सह
िवलु वेशां कामा ा न ां श थल-कु तलाम्
गंडयोः तनयो ं चकार मधुसूदन:
एवं रेमे कौतुकेन कामात् शत् िदवािन श
तथािप मानसं पूण न क चत् तु बभूव ह!
( वैवत)
लगातार तीस िदन तीस रात तक रमण होता रहा, िफर भी दोन का
मन नह भरा। वह य देखने के लए आकाश म देवी-देवताओं का मेला
लग गया! देवगण िव मय-िवमु ध हो गये। देिवयाँ सौ तया डाह से जलने
लग । पुराणकार उस पर िटपणी करते ह–
न कािमनीनां काम ृगं ारेण िनव ते
अ धकं व ते शश्वत् यथाि घृतधारया
“जैसे घी क धारा से अि क वाला शांत नह होती है, उसी तरह
संभोग से कािमनी क कभी तृि नह होती है।” …अब भी तु हारा म दरू
हुआ िक नह ?
मने ु ध होते हुए कहा–ख र काका, पुराण-क ा ने राधा-कृ ण का
ऐसा न च ण य िकया है?
ख र काका बोले–ऐसा नह करते तो ोताओं को रस कैसे िमलता?
कथावाचक को पैसे कैसे िमलते? कािमनी पर ही तो कंचन बरसता है।
इस लए देवी-देवताओं के नाम पर खुलकर संभोग का वणन िकया गया है।
ा, िव णु, महेश, िकसी को नह छोड़ा गया है।
मने पूछा–तो या शव-पावती का भी ऐसा ही वणन िकया गया है?
ख र काका बोले–जैसे ‘ ी कृ णज मखंड’ म राधा क ददु शा क गयी
है, उसी तरह ‘गणप तखंड’ म पावती क । देखो,
तां गृही वा महादेवो जगाम िनजनं वनम्
श यां र तकर कृ वा पु पचंदन-च चताम्
स रेमे नमदा-तीरे पु पो ाने तया सह
सह वष-पय तं देवमानेन नारद!
तयोबभूव गं ारं िवपरीतरतािदकम्
रतौ रत िन े ो न योगी िवरराम ह!
( वैवत)
सह वष तक लगातार शव-पावती का संभोग होता रहा, िफर भी
शवजी ख लत नह हुए। तब िव णु भगवान् को चता हुई और उ ह ने
ा को आदेश िदया–
येनोपायेन त ीय भूमौ पत त िन तम्
तत् कु व य नेन सा देवगणेन च
“आप फौरन देवताओं के साथ जाइए और ऐसा उपाय क जए िक
शवजी क धातु भूिम पर ख लत हो जाय। तब इं , सूय, चं , पवन आिद
देवता वहाँ जाकर शवजी क तु त करने लगे, जससे शवजी क र त-
समा ध भंग हो गयी।”
िवजहौ सुख-संभोगं कंठल ां च पावतीम्
उ तो महेश य त यल त यच
भूमौ पपात त ीय तत: कंदो बभूव ह!
“ शवजी ने ल त होकर पावती को छोड़ िदया और जैसे ही उठने लगे
िक भूिम पर खलन हो गया। उसी से का केय का ज म हुआ।” देवतागण
पावती के भय से भागे। तथािप पावती ने शाप दे ही िदया–
अ भृ त ते देवा यथवीया भव तु वै!
(“आज से देवताओं का वीय यथ हो जाय!”)
मने पूछा–पावती ने शाप य िदया?
ख र काका बोले–केवल ‘वा यायन भा य’ 1 पढ़ने से काम नह
चलेगा। ‘वा यायनसू 2 भी पढ़ो। देखो, पावती वयं ही यह रह य अपने
मुँह से खोलकर महादेव को कहती ह–
र तभंगो दःु खमेकं ि तीयं वीयपातनम्
र तभंगेन य दःु ख त समं ना त च या:
( वैवत)
अथात्, “यिद संभोग-ि या के बीच म ही बाधा पड़ जाय अथवा पु ष
अ य ख लत हो जाय तो ी के लए इससे बढ़कर दस ू रा दःु ख नह हो
सकता।”
तब महादेवजी बहुत कार से उ ह मनाते ह और दस
ू रे संभोग क
रचना होती है। परंतु–
रेत: पतनकाले च स िव णु नजमायया
िवधाय िव पं तु आजगाम रतेगृहम्
( वैवत)
जहाँ िफर ख लत होने का समय आया िक िव णु भगवान् िव का
प धारण कर पहुँच गये और बोले िक “म सात शाम का भूखा हूँ, पारण
कराओ।” यह सुनकर पावती झट उठकर खड़ी हो गय और–
पपात वीय श यायां न योनौ कृते तदा!
( वैवत)
जो धातु श या पर िगर पड़ी, उसी से गणेशजी का ज म हुआ!
ख र काका मुझे तं भत देखकर मु कुराते हुए बोले–इस कथा म एक
और गूढ़ ता पय है। अगर संभोग के समय भी भूखा ा ण आ जाय तो
चटपट उठकर पहले भोजन कराना चािहए, तब और कुछ! ध य थे ये पेटू
देवता!
मने कहा–ख र काका, पुराण म कैसी-कैसी बात ह!
ख र काका बोले–अजी, बात तो ऐसी-ऐसी ह, जैसे पीकर लखी गयी
ह ! बेचारे ा क तो और भी अ धक दगु त क गयी है!
म–ऐं! वैवत म ा क ददु शा?
ख र काका बोले–तब वह भी सुन लो। एक बार मोिहनी ने यौवन मद
से म होकर ा से संभोग क याचना क । वृ ा अपनी असमथता
कट करते हुए बोले िक िकसी र सक यव ु ा को पकड़ो। बार-बार उकसाने
पर भी ा तैयार नह हो सके। तब मोिहनी ने उ ह ध ारा िक–
इंिगतेनव
ै नारीणां स ो म ं भवे मन:
करो याकृ य संभोगं य: स एवो मो िवभो
ा वा फुटम भ ायं नाया सं ेिषतो िह य:
प ात् करो त संभोगं पु ष: स च म यम:
पुन: पुनः े रत य या कामा या च य:
तया न ल ो रह स स वो न पुमानहो!
( वैवत)
अथात्, “उ म पु ष वह है जो िबना कहे ही, नारी क इ छा जान,
उसे ख चकर संभोग कर ले। म यम पु ष वह है जो नारी के कहने पर
संभोग करे। और; जो बार-बार कामातुरा नारी के उकसाने पर भी संभोग
नह करे, वह पु ष नह , नपुस
ं क है!”
परंतु इतना कहने पर भी ा को उ ेजना नह हुई। तब मोिहनी ने
ोध से उ म होकर शाप िदया–
अये न् जग ाथ वेदक ा वमेव च
वक यायां पृहास : कथं हस स न क म्
दासीतु यां िवनीतां च दैवेन शरणागताम्
यतो हस स गवण ततोऽपू यो भवाऽ चरम्!
( वैवत)
अथात्, “हे ा! अपनी क या के साथ तो िवचार ही नह रहा और
आप हमारे सामने धमा मा बन रहे ह! जाइए, आप अपू य हो गये।”
अब ा के चार मुँह म लन हो गए। दौड़े िव णुलोक गये। वहाँ भगवान्
भी उ ह ही डाँटने लगे–
यिद कामवती दैवात् कािमनी समुप थता
वयं रह स कामा ा न सा या या जते यै:
ुवं भवेत् सोऽपराधी त या अ ावमानत:
( वैवत)
“यिद संयोगवश कोई कामातुरा एकांत म आकर वयं उप थत हो
जाये तो उसे कभी नह छोड़ना चािहए। जो कामा ा ी का ऐसा अपमान
करता है, वह िन य ही अपराधी है।”
ल मी भी ा पर बरस पड़ –
ा कथं न ज ाह वे यां वयमुप थताम्
उप थताया यागे च महान् दोषो िह योिषत:
( वैवत)
“जब वे या ने वयं मुँह खोलकर संभोग क याचना क , तब ा ने
य नह उसक इ छा पूरी क ? यह नारी का महान् अपमान हुआ।” बस,
चट ा को शाप दे बैठ –
तव मं ं न गृ त केऽिप वे या भशापत:
वद य-देव-पूजायां तव पूजा भिव य त।
जाओ, अब वे या के शाप से तुम अपू य हो गये। कोई तु हारा मं नह
लेगा।
मने ु ध होते हुए कहा–वृ जाप त क ऐसी फजीहत!
ख र काका बोले–अजी, बेचारे क इससे भी अ धक छीछालेदर क
गयी है। वयं अपनी क या के साथ लांछन लगाया गया है!
तां संभो ंु मन े सा द ु ाव भया सती!
ना रयाँ ा को ध ारती ह–
वं वयं वेदक ा च क यां संभो ु िम छ स
अ माकं दरू तो दरू ं ग छ कामा मानस!
बेचारे ा लािनवश आ मह या करने को तुत हो जाते ह।
ा शरीरं सं य ंु ीडया च समु त:!
मने कहा–ख र काका, वैवत पुराण म सृि क ा ा क यह
ददु शा! हद हो गयी!
ख र काका बोले– पुराण म भी तो ा क वैसी ही ददु शा क गयी
है! देखो–
तामदशमहं त होमं कुवन् हरा तके
ेऽगुं े द ु बु या वीय सु ाव मे तदा
ल या कलुषीभूत: क ं वीयमचूणयम्
म ीयात् चू णतात् सू मात् बा य ख या तुज रे!
सारांश यह िक एक बार ा महादेव के साथ होम कर रहे थे। उसी
समय गौरी पर ि पड़ जाने से वह ख लत हो गये। ा ने ल त होकर
िनःसृत धातु को चुटक से मसल िदया। उसी से बा य ख य मुिन का ज म
हुआ।
मने कहा–ख र काका, ऐसी अ ील बात पुराण म कैसे आ गय ? ये
मालूम होती ह।
ख र काका बोले– ह , या िव । लखनेवाल ने देवताओं क
िम ी पलीद कर दी है। पौरा णक देवता या हुए, म खन के पुतले हुए, जो
जरा-सा आँ च पाते ही िपघल जाते ह! जहाँ दे खए–वीय स मुमोच ह!
त ीय पपात ह! जैसे, वह धातु नह , दोने का द ु धामृत साद हो! जरा-सा
छू गया, चू गया!
मने कहा–ख र काका पुराण म ऐसा िनल तापूण वणन य है?
ख र काका बोले–पुराणक ा यास ने अपने ही अनुभव पर लखा है।
वह भी तो घृताची को देखते ही घी क तरह िपघल गये थे!
बहुशो गृ माणं च घृता यां मोिहतं मन:
अर यामेव सहसा त य वीयमथाऽपतत्!
(देवीभागवत 1 । 14 । 7)
इस लए उ ह ने ा, िव णु, महेश जैसे देवताओं से लेकर दै य तक
का उसी कार िनःसंकोच खलन कराया है।
याव ददश चावग पावत दनुजे र:
तावत् स वीय मुमुचे जडांग तथाऽभवत्
( शवपुराण 22 । 37)
ी तक के िवषय म उ ह यह कहते हुए संकोच नह हुआ िक
यं तु पु षं ा योिन: ि ते या:!
(सांबपुराण)
या ये ही बात शालीनतापूवक नह कह जा सकती थ ?
मने पूछा–पुराण म इतने य भचार- संग भरने क ज रत ही या
थी?
ख र काका बोले–इस शंका का उ र एक आलोचक दे गये ह–
पौरा णकानां य भचारदोषो
नाशंकनीय: कृ त भः कदा चत्
पुराणक ा य भचारजात:
त यािप पु : य भचारजात:!
पुराणक ा यास और उनके पु शुकदेव दोन का ज म तो य भचार
से ही हुआ था। तब य भचार-पुराण कैसे नह गढ़े जाते?
मने कहा–ख र काका, कह आप यास-ग ी लगाकर पुराण बाँचने लग
जाते, तो अनथ हो जाता! िफर यास-पराशर के त लोग के मन म या
आ था रह जाती?
ख र काका नस लेते हुए बोले–अजी, कहाँ के यास और कहाँ के
पराशर! ग ृं ारी किवय को िकसी बहाने संभोग-वणन करना था, सो उ ह ने
िकया है। इस तरह खु मखु ा अ ील वणन से उ ह ने अपनी काम-
तृ णा शांत क है। देवी-देवताओं के नाम पर मान सक य भचार िकये ह।
इस लए पुराण म एक-से-एक उ ेजक न च ण भरे ह। उनम यौन
वासनाओं का समु लहरा रहा है। कहने-सुननेवाल को धम के नाम पर
कुछ मजा िमल जाता है। जैसे, पुरी-भुवने र के मंिदर म न मू याँ
देखकर।
धा मक तीथ क मिहमा िदखाने के लए तो और भी जघ य पाप क
कहािनयाँ गढ़ी गयी ह।
मातृयो न प र य य िवहरेत् सवयोिनषु!
वाम माग क इस चरम सीमा का भी उ ंघन कर िदया गया है!
पुराण म मही नामक त णी िवधवा का अपने यव
ु ा पु से संभोग का
वणन है!
मेने न पु मा मीयं स चािप न मातरम्
तयो: समागम ासीत् िव धना मातृपु योः!
और वह महापाप कटता है कैसे, तो गौतमी तीथ म नान करने से! यह
सब पंड का ‘ ॉपगंडा’ है, पुजा रय का हथकंडा है! पंडा, पं डत, पुजारी,
पुरोिहत और पौरा णक, ये पाँच ‘पकार’ पर पर ी त कर पंचपं जका
तुत िकये हुए ह! भंडा फूट जाय, तो िफर हंडा कैसे चढ़ेगा?
इतने ही म घड़ी-घंटा क विन होने लगी। ख र काका बोले–देखो,
कथा आरंभ हो रही है। म य-पुराण म कहा गया है–
परदाररतो वािप परापकृ तकारक:
संशु ो मुि मा नो त कृ णनामानुक तनात्!
“कृ ण-क न से य भचार आिद सम त दोष कट जाते ह;
पर ीगामी भी परम पद ा कर लेता है!”
जो चाह, बहती गंगा म हाथ धो ल! अ छा भाई, तु ह देर हो रही है।
जाकर कथा का पु य लूटो। नह तो कथावाचक ध ारते हुए कहने लगगे–
येषां ीकृ ण-लीला-ल लत-रस-कथा सादरौ नैव कण
येषामाभीर - क या - गुण - गण - कथने नानुर ा रस ा
येषां- ीम शोदा - सुत - पद - कमले ना त भि नराणाम्
धक् तान् धक् तान् धगेतान् कथय त सततं क तन थो
मृदगं :!
1. यायशा का थ
2. कामशा का थ।
वैिदक तरंग
उस िदन होली थी। ख र काका दो बार पी चुके थे और तीसरी बार छान
रहे थे। मुझे देखकर बोले–आओ, आओ, अभी केस रया भंग छन रही है।
तुम भी पी लो।
म–ख र काका, म तो नह पीता।
ख र काका गहरे नशे म थे। बोले–अजी, अपना सनातन वैिदक धम
य छोड़ते हो?
मने पूछा–यह वैिदक धम कैसे है?
ख.–वेद पढ़ो, तब समझोगे िक हम लोग के पूवज कैसे पीते थे! वेद म
सोमरस के तु त-गान भरे ह। कह -कह तो ऐसा वाह छूटा है िक सबकुछ
उसी म डू ब गया है!
म–परंतु सोमरस भंग ही है, इसका या माण?
ख.– माण एक-दो नह , अनेक ह। देखो, उसे स टा-कंु डी म घ टा
जाता था। 1 लोढा लेकर पीसा जाता था। 2 कपड़े से छाना जाता था। 3 दध
ू
या पानी म घोला जाता था। रंग-िबरंग के मसाले पड़ते थे। वह तीन रंग
4 5
1. ऋ वेद 1/28/7
2. वही, 1/27/1
3. वही, 9/66/9
4. वही, 9/66/16
5. वही, 8/2/11
6. अथववेद 11/3/5
7. ऋ वेद 4/58/9
8. ऋ वेद 9/68/7
9. वही, 9/77/7
10. वही 7/18/7
11. वही, 10/26/4
12. वही, 2/11/17
13. ऋ वेद 9/101/14
14. वही, 10/30/6
15. ऋ वेद 7/33/12
16. वही, 1/147/3
17. वही, 4/42/8
18. वही, 2/29/1
19. ऋ वेद 10/10/1
20. वही, 10/61/5-6
21. अथववेद 9/10/12