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Mrigtrishna (Hindi Edition) by Sudha Murthy
Mrigtrishna (Hindi Edition) by Sudha Murthy
Mrigtrishna (Hindi Edition) by Sudha Murthy
मृगतृ णा
◆ ◆ ◆
मृ ग तृ णा
अनुज बे
Copyright © 2020 अनुज बे
-" शवम्"
चला थका माँदा सा
कंधे बोझ उठाये,
राह मगर भटका है
कुछ भी समझ न आये,
लगती नयी गली सी
"साँझ ढली-सी!"
भू मका
मृगतृ णा.
-अनुज बे
२२ जून, २०२०
◆ ◆ ◆
अनु म
1. अ स
2. आओ फर ब े हो जाएं
3. यह कह
4. उस रात को
5. साँझ ढली-सी
6. हा शया
7. इक लड़क
8. तू लौट आ
9. रंग
10. इंसा नयत
11. पहर
12. आहट
13. तुमको दे ख न पाया
14. हसरत
15. इंसां
अ स
या आ है मुझे?
मालूम नह -
कसी ने छु आ है या?
शायद कह !
दल म दद है एक,
मीठा सा:
कोई वाब पल उठा है
झूठा सा!
जगा दे गा मुझे फर
जीने को.
दे खा तुझको मने दे खते-
अपनी ओर,
हो गया जैसे तेरा,
या फर-
तू मुझम कह घुल सा गया,
तभी तो
कुछ मीठा सा लगता है,
जदगी म !
तेरी आँख ये सुरमई सी!
ख च गय -
अ स कोई मोह बत का,
दल पर.
नजर ना चुरा तू-
दे ख ना,
तुझको ही दे ख रहा ँ
तू मुड़ तो!
या आ है तुझे भी?
जो आ मुझ?े
मालूम नह !!
आओ फर ब े हो जाएं
शांत कह मल बैठ आ चल
गीत वही सुन बैठ आ चल
घरे एक कोने ह बादल
सूरज चलता हो अ ताचल
नजर उतारे रात का काजल
सुनकर फर वो लोरी न छल
याद आ जाए माँ का आंचल
आओ हम तुम मल, खो जाय
गली पुरानी लौट के जाय
आओ फर ब े हो जाय
यह कह होगा
वह अपमान जससे
तुम चढ़ गए थे
वह शंसा जो सर चढ़ गयी थी तु हारे
आज कहाँ वो सब?
उसी शू य म
यह कह होगा
वो माँ का ेम
जैसा सरा नह
न वाथ, नसंकोच और नमल
अब कहाँ मलेगा मुझे
वो धन लुट चुका है
उसी शू य म
यह कह होगा
उस ेयसी का ं
चुने ेम या फर जीवन
अ न ने र कया उस वधा को
आ त चढ़ अमर आ ेम
उसी शू य म
यह कह होगा
जब ढूं ढा जायेगा हज़ार वष के बाद
य भीमबेटका
य साँची या फर कोई भी
मृ त च ह
उसी शू य म
उस रात को
उस रात को,
अकेले.
दे खा चाँद को-
जाते संग तार के!
जैसे के-
राह दखाता हो-
और कहा उसने,
पता नह या?
शायद गाता था।
उसके वो श द,
महसूस ए-
कुछ-कुछ
और जाना मने,
म भी ये गुनगुनाता ँ।
उसने कहा जैस-े
"तुम सब हो संग,
मानते हो कहना,
पर कोई न तुमम
है मुझ-सा..
अफसोस!"
दे खा उसक ओर ,
संग गुनगुना उठा म-
आँगन म अपने,
दे खा उसने,
मेरी ओर तो लगा
जैसे कहा उसने हँसकर-
"पाओगे उसे ज र!"
और फर बढ़ चला-
उस रात को........
साँझ ढली-सी
साँझ ढली-सी
मुरझाए से चेहरे वो
चल पड़ते घर को
म क खुशबू
और छाँव भली-सी
साँझ ढली-सी!
बादल ह घर आए
का हा भीग न जाए
ार खड़ी सोचे माँ
मुझे दे ख हषाए
च ता एक टली-सी
साँझ ढली-सी
खड़क पर बैठ
ारे आँख टकाए
पूरा है ंगार
मगर मन म सकुचाए
वेला म ली-सी
साँझ ढली-सी
म बैठा चुपचाप
सोचता ल खूँ या म
श द नह मलते
पर भीतर मेरे मन के
याद क बाढ़ चली-सी
साँझ ढली-सी
हा शया
एक लड़क थी द वानी-सी
सबसे जैसे अनजानी-सी
उसक आँख कुछ कहती थ -
थी खुद म एक कहानी-सी!
मृ नयन म एक अँ धयारा
और पलक म एक राज बसा;
अधर पर क चत् के श द-
और दल म था एक दद छपा!
वह आती तो थी कई बार,
पर आकर भी ना आती थी;
वह जाती तो थी कई बार,
पर जाकर भी ना जाती थी!
एक दन ना मला जब म उससे
तब एक सहारा छू ट गया;
उससे मलने क आस लये
म कतरा कतरा टू ट गया!!
तू लौट आ
म तेरे बन अकेला ँ
अ जान क ब ती है
और म नया नवेला ँ
तू लौट आ
आधी रात को म
अब कससे बात क ँ
धड़कन का कारोबार
अब कसके साथ क ँ
तू लौट आ
तुझको सुनने को म
रात रात जागा
तुझको सुनकर भी म
रात रात जागा
तू लौट आ
म खोने से डरता ँ
म रात को मरता ँ
कहता म नह ले कन
तेरी वा हश करता ँ
तू लौट आ
दे जा गुलाब का फूल वो
ले जा अपनी सब याद
म थका आ ँ
इंतजार म
तू लौट आ
एक सपना आता है
तेरा संदेशा दे ने
दल रोकर कह ही बैठा
तू लौट आ
तू लौट आ
रंग
तुमसे लड़ लया
झगड़ लया
तुम तो कह गय
कतनी आसानी से
मत दखाना फर
यह मुंह अपना
सच बताना
तुमने क पना क थी?
ये चे ा, ये उप म, ये यास
सोचे थे तुमने?
यह आशा तो न थी
पर कैसे सोचती
तुम कभी दे ख ही न पाय
आँख बंद कर
यह कह तो चुक हो
पर याद रहे
यह कहने भर क बात नह
यह मन तो पहले ही मान चुका
तुम चली गय यह जान चुका
अब आने का न य न करो
खुद से ही अब ये करो
म रंग तु हारा ँ
म ढं ग तु हारा ँ
मुझसे खुद को न र करो
म अंग तु हारा ँ
इंसा नयत
उसे तू नह दे ख सकता-
तेरी आँख पर च मा है ख़ुदगज का;
तू भी महसूस नह कर पायेगा-
तेरे खयालात म वो ज़ दगी नह !
तू शायद दे ख ले,
पर उसक मुफ लसी से आँख ज र फेर लेगा|
और तू भी नह दे ख पायेगा-
तेरी नज़र क न ल और ही है!!
सरे के दद से छलनी मन
और उसका ही दल जलता आया है-
इन ठं डे जवाब से!
आँसू ही प छता आया है वो,
अब भी कहता है
"रहम का असबाब चा हये ";
हो तेरे या मेरे सीने म,
वो इंसा नयत वाली आग चा हये!
वो पूछ रहा था-
" ये मुदा इंसान ह?
या ज़दा लाश?"
मुझे फक नह पता था!
पहर
तृ णा मृग के पास नह
खग का ही आकाश नह
ग खो बैठे और
ा को ही आभास नह
यह कैसी माया
तुमको दे ख ना पाया..
अपने र ते क हक़ क़त का अभी तक इ म है
अब भी उनसे मलके हम नीचे नजर कर लेते ह
कहते ह आवाज़ नह
वो गूंगा फर गाता यूँ है
एक नूर ते सब जग उपजा
मार प रदे खाता यूँ है
आँख दखाता था कल तक जो
अब फर आँख चुराता यूँ है
मं दर म एक दया जला
ब ती म आग लगाता यूँ है
सब छोड़ो बस ये बतला दो
तुमसे मेरा नाता यूँ है
अंत म
मृगतृ णा
◆ ◆ ◆