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*॥प्रार्थना॥*

मााँ कुं डलिनी चितिशक्ति आपको प्रणाम है


मााँ आप जाग्रि हो उर्ध्थगामी हो
मेरे जन्म जन्मान्िरों से सुंचिि कमों को
भस्म करिे हए सषम्ना मागथ में गमन करिे हए
मेरे सहस्रार में क्स्र्ि लश् से जा लमिो मााँ
सहज रूप से आपकी गति उर्ध्थ हो
नर से नारायण होने की यारा पण
ू थ करो मााँ।

नमः लश्ाय
समय:
रात्रर सोने से पू्थ

िाभ:
*यह उत्तम तनद्रा प्रदान करिा है *, *िना् मक्ति करने में सहायक है , बढ़िी उम्र को रोकने ्ािा ए्ुं
प्राण शक्ति को बढ़ािा है *।
*सूजन और कैंसर िर्ा बैतटीररया आदद को कम करिा है *।

*सामग्री:*
दो कप पानी, एक िम्मि हल्दी पाउडर, पाुंि पत्ते ििसी, दो टकडे अदरक, एक टकडा दाििीनी,
िीन दाने कािीलमिथ, िार टकडे िौंग, एक कप गाय का िाजा दध
ू , एक िम्मि शद्ध शहद
*व्चध*:
*दो कप पानी धीमी आुंि पर रखें , उसमें एक िम्मि हल्दी, पाुंि पत्ते ििसी, दो टकडे अदरक और एक
दाििीनी का टकडा डािें *।
*िीन टकडे कािी लमिथ के दाने पीसकर उसे भी डािें , िार टकडे साबि िौंग के डािें *
*जब पानी आधा रह जाए िब िक इस काढ़े को धीमी आुंि पर उबािें*।
*पानी आधा रह जाने पर एक कप दध
ू लमिाकर और र्ोडी दे र इसे उबिने दें ।*
*अब काढ़े को छान िें और उसमें एक िम्मि शहद लमिाकर सोने से पहिे वपयें*।
~ *ईशान लश्ानन्द*
व्पस्सना र्धयान की िीन व्चधयाुं: ओशो

व्पस्सना का अर्थ है : अपनी श््ास का तनरीक्षण करना, श््ास को दे खना। यह योग या प्राणायाम नहीुं
है । श््ास को ियबद्ध नहीुं बनाना है ; उसे धीमी या िेज नहीुं करना है । व्पस्सना िम्हारी श््ास को
जरा भी नहीुं बदििी। इसका श््ास के सार् कोई सुंबुंध नहीुं है । श््ास को एक उपाय की भाुंति उपयोग
करना है िाकक िम द्रष्टा हो सको। तयोंकक श््ास िम्हारे भीिर सिि घटने ्ािी घटना है ।

अगर िम अपनी श््ास को दे ख सको िो व्िारों को भी दे ख सकिे हो।


यह भी बद्ध का बडे से बडा योगदान है । उन्होंने श््ास और व्िार का सुंबुंध खोज लिया।
उन्होंने इस बाि को सस्पष्ट ककया कक श््ास और व्िार जड हए है ।
श््ास व्िार का शारीररक दहस्सा है और व्िार शरीर का मानलसक दहस्सा है । ्ह एक ही लसतके के दो
पहि है । बद्ध पहिे व्यक्ति है जो शरीर और मन की एक इकाई की िरह बाि करिे है। उन्होंने पहिी
बार कहा है कक मनष्य एक साइकोसोमैदटक, मन:शाररररक घटना है ।

व्पस्सना र्धयान की िीन व्चधयाुं—

व्पस्सना र्धयान को िीन प्रकार से ककया जो सकिा है —िम्हें कौन सी व्चध सबसे ठीक बैठिी है , इसका
िम िना् कर सकिे हो।
पहिी व्चध—

अपने कृत्यों, अपने शरीर, अपने मन, अपने ह्रदय के प्रति सजगिा। ििो, िो होश के सार् ििो, हार्
दहिाओ िो होश से दहिाओ,यह जानिे हए कक िम हार् दहिा रहे हो। िम उसे त्रबना होश के युंर की
भाुंति भी दहिा सकेि हो। िम सबह सैर पर तनकििे हो; िम अपने पैरों के प्रति सजग हए त्रबना भी
िि सकिे हो।

अपने शरीर की गतिव्चधयों के प्रति सजग रहो। खािे समय,उन गतिव्चधयों के प्रति सजग रहो जो
खाने के लिए जरूर होिी है । नहािे समय जो शीिििा िम्हें लमि रही है । जो पानी िम पर चगर रहा
है । और जो अपू्थ आनुंद उससे लमि रहा है उस सब के प्रति सजग रहो—बस सजग हो रहो। यह
जागरूकिा की दशा में नहीुं होना िादहए।

और िम्हारे मन के व्षय में भी ऐसा ही है । िम्हारे मन के परदे पर जो भी व्िार गूजरें बस उसके


द्रष्टा बने रहो। िम्हारे ह्रदय के परदे पर से जो भी भा् गूजरें , बस साक्षी बने रहो। उसमें उिझों मि।
उससे िादात्म्य मि बनाओ, मूल्याुंकन मि करो कक तया अच्छा है , तया बरा है ; ्ह िम्हारे र्धयान का
अुंग नहीुं है ।

दस
ू री व्चध—

दस
ू री व्चध है श््ास की; अपनी श््ास के प्रति सजग होना। जैसे ही श््ास भीिर जािी है िम्हारा पेट
ऊपर उठने िगिा है , और जब श््ास बहार जािी है िो पेट किर से नीिे बैठने िगिा है । िो दस
ू री
व्चध है पेट के प्रति—उसके उठने और चगरने के प्रति सजग हो जाना। पेट के उठने और चगरने का बोध
हो……ओर पेट जी्न स्रोि के सबसे तनकट है । तयोंकक बच्िा पेट में माुं की नालभ से जूडा होिा है ।
नालभ के पीछे उसके जी्न को स्रोि है । िो जब िम्हारा पेट उठिा है , िो यह ्ास्ि् में जी्न ऊजाथ
हे , जी्न की धारा है जो हर श््ास के सार् ऊपर उठ रही है । और नीिे चगर रही है । यह व्चध कदठन

नहीुं है । शायद ज्यादा सरि है । तयोंकक यह एक सीधी व्चध हे ।

पहिी व्चध में िम्हें अपने शरीर के प्रति सजग होना है , अपने मन के प्रति सजग होना है । अपने
भा्ों, भा् दशाओुं के प्रति सजग होना है । िो इसमें िीन िरण हे । दस
ू री व्चध में एक ही िरण है ।
बस पेट ऊपर और नीिे जा रहा है । और पररणाम एक ही है । जैसे-जैसे िम पेट के प्रति सजग होिे
जािे हो, मन शाुंि हो जािा है , ह्रदय शाुंि हो जािा है । भा् दशाएुं लमट जािी है ।

िीसरी व्चध—

जब श््ास भीिर प्र्ेश करने िगे, जब श््ास िम्हारे नासापटों से भीिर जाने िगे िभी उसके पति
सजग हो जाना है ।
उस दस
ू री अति पर उसे अनभ् करो—पेट से दस
ू री अति पर—नासापट पर श््ास का स्पशथ अनभ् करो।
भीिर जािी हई श््ास िम्हारे नासापटों को एक प्रकार की शीिििा दे िी है । किर श््ास बाहर जािी
है …..श््ास भीिर आई, श््ास बहार गई।
ये िीन ढुं ग हे । कोई भी एक काम दे गा। और यदद िम दो व्चधयाुं एक सार् करना िाहों िो दो
व्चधयाुं एक सार् कर सकिे हो। किर प्रयास ओर सधन हो जाएगा। यदद िम िीनों व्चधयों को एक
सार् करना िाहो, िो िीनों व्चधयों को एक सार् कर सकिे हो। किर सुंभा्नाएुं िीव्र िर होंगी। िेककन

यह सब िम पर तनभथर करिा है —जो भी िम्हें सरि िगे।


स्मरण रखो: जो सरि है ्ह सही है ।

सरि व्चध—

व्पस्सना र्धयान की सरििम व्चध है । बद्ध व्पस्सना के द््ारा ही बद्धत्् को उपिब्ध हए र्े। और
व्पस्सना के द््ारा क्जिने िोग उपिब्ध हए हे उिने और ककसी व्चध से नहीुं हए। व्पस्सना व्चधयों
की व्चध है । और बहि सी व्चधयाुं है िेककन उनसे बहि कम िोगों को मदद लमिी है । व्पस्सना से
हजारों िोगों की सहायिा हई है ।

यह बहि सरि व्चध है । यह योग की भाुंति नहीुं है । योग कदठन है , दभ


ू र है , जदटि है । िम्हें कई प्रकार
से खद
ू को सिाना पडिा है । िेककन योग मन को आकवषथि करिा हे । व्पस्सना इिनी सरि है कक उस
और िम्हारा र्धयान ही नहीुं जािा। व्पस्सना को पहिी बार दे खोगें िो िम्हें शक पैदा होगा, इसे र्धयान
कहें या नहीुं। न कोई आसन है , न प्राणायाम है । त्रबिकि सरि घटना—साुंस आ रही है , जा रही है , उसे
दे खना बस इिना ही।

श््ास-उच्छ्ास त्रबिकि सरि हों, उनमें लसिथ एक ित्् जोडना है : होश, होश के प्रव्ष्ट होिे ही सारे

िमत्कार घटिे है । –ओशो


*ऊाँ की र्ध्तन का महत्् जातनये*
एक घडी,आधी घडी,आधी में पतन आध,,,,,,,
ििसी िरिा राम की, हरै कोदट अपराध,,,,,,।।
1 घडी= 24लमनट
1/2घडी=12लमनट
ी़
1/4घडी=6
ी़ लमनट

*तया ऐसा हो सकिा है कक 6 लम. में ककसी साधन से करोडों व्कार दरू हो सकिे हैं।*
उत्तर है *हााँ हो सकिे हैं*
्ैज्ञातनक शोध करके पिा ििा है कक......
लसिथ 6 लमनट *ऊाँ* का उच्िारण करने से सैकडौं रोग ठीक हो जािे हैं जो द्ा से भी इिनी जल्दी
ठीक नहीुं होिे.........

छः लमनट ऊाँ का उच्िारण करने से मक्स्िष्क मै व्षेश ्ाइब्रेशन (कम्पन) होिा है .... और
औतसीजन का प्र्ाह पयाथप्ि होने िगिा है।
कई मक्स्िष्क रोग दरू होिे हैं.. स्रे स और टे न्शन दरू होिी है ,,,, मैमोरी पा्र बढिी है ..।

िगािार सबह शाम 6 लमनट ॐ के िीन माह िक उच्िारण से रति सुंिार सुंिलिि होिा है और
रति में औतसीजन िेबि बढिा है ।
रति िाप , हृदय रोग, कोिस्रोि जैसे रोग ठीक हो जािे हैं....।

व्शेष ऊजाथ का सुंिार होिा है ......... मार 2 सप्िाह दोनों समय ॐ के उच्िारण से
घबराहट, बेिन
ै ी, भय, एुंग्जाइटी जैसे रोग दरू होिे हैं।

कुंठ में व्शेष कुंपन होिा है माुंसपेलशयों को शक्ति लमििी है ..।


र्ाइराइड, गिे की सज
ू न दरू होिी है और स््र दोष दरू होने िगिे हैं..।

पेट में भी व्शेष ्ाइब्रेशन और दबा् होिा है ....। एक माह िक ददन में िीन बार 6 लमनट िक
ॐ के उच्िारण से
पािन िन्र , िी्र, आाँिों को शक्ति प्राप्ि होिी है , और डाइजेशन सही होिा है , सैकडौं उदर रोग
दरू होिे हैं..।

उच्ि स्िर का प्राणायाम होिा है , और िेिडों में व्शेष कुंपन होिा है ..।
िेिडे मजबि
ू होिे हैं, स््सनिुंर की शक्ति बढिी है , 6 माह में अस्र्मा, राजयक्ष्मा (T.B.) जैसे रोगों
में िाभ होिा है ।

आय बढिी है ।
ये सारे ररसिथ (शोध) व्श्् स्िर के ्ैज्ञातनक स््ीकार कर िके हैं।
*जरूरि है छः लमनट रोज करने की....।*

*�नोट:- ॐ का उच्िारण िम्बे स््र में करें ।।*

*आप सदा स््स्र् और प्रसन्न रहे यही मुंगि कामना


बीज मुंरो से रोगों का तनदान

बीज मुंरों से अनेक रोगों का तन


दान सिि है । आ्श्यकिा के्ि अपने अनकूि प्रभा्शािी मुंर िनने और उसका शद्ध उच्िारण से
मनन-गनन करने की है । पौराणणक, ्ेद, शाबर आदद मुंरों में बीज मुंर स्ाथचधक प्रभा्शािी लसद्ध होिे
हैं उठिे-बैठिे, सोिे-जागिे उस मुंर का सिि ् शद्ध उच्िारण करिे रहें । आपको िमत्काररक रुप से
अपने अन्दर अन्िर ददखाई दे ने िगेगा।

यह बाि सदै ् र्धयान रखें कक बीज मुंरों में उसकी शक्ति का सार उसके अर्थ में नहीुं बक्ल्क उसके
व्शद्ध उच्िारण को एक तनक्श्िि िय और िाि से करने में है ।
बीज मुंर में स्ाथचधक महत्् उसके त्रबन्द में है और यह ज्ञान के्ि ्ैददक व्याकरण के सघन ज्ञान
द््ारा ही सुंभ् है ।
आप स््युं दे खें कक एक त्रबन्द के िीन अिग-2 उच्िारण हैं।
गुंगा शब्द ‘ङ’ प्रधान है ।
गन्दा शब्द ‘न’ प्रधान है ।
गुंभीर शब्द ‘म’ प्रधान है ।
अर्ाथि इनमें क्रमशः ङ, न और म, का उच्िारण हो रहा है ।
कौमदी लसद्धाुंि के अनसार ्ैददक व्याकरण को िीन सर
ू ों द््ारा स्पष्ट ककया गया है -
1 - मोनस््ारः
2 - यरोननालसकेननालसको
िर्ा
3- अनस््ारस्य यतय पर स्णे। बीज मुंर के शद्ध उच्िारण में सस््र पाठ भेद के उदात्त िर्ा अनदात्त
अन्िर को स्पष्ट ककए त्रबना शद्ध जाप असम्भ् है और इस अशद्चध के कारण ही मुंर का सप्रभा्
नहीुं लमि पािा। इसलिए स्थप्रर्म ककसी बौद्चधक व्यक्ति से अपनेअनकूि मुंर को समय-परख कर
उसका व्शद्ध उच्िारण अ्श्य जान िें । अपने अनरूप िना गया बीज मुंर जप अपनी सव्धा और
समयानसार िििे-किरिे उठिे-बैठिे अर्ाथि ककसी भी अ्स्र्ा में ककया जा सकिा है । इसका उद्दे श्य
के्ि शद्ध उच्िारण एक तनक्श्िि िाि और िय से नाड़डयों में स्पदन करके स्िोट उत्पन्न करना है ।

काुं - पेट सम्बन्धी कोई भी व्कार और व्शेष रूप से आुंिों की सूजन में िाभकारी।

गुं - मिाशय और मूर सम्बन्धी रोगों में उपयोगी।

शुं - ्ाणी दोष, स््प्न दोष, मदहिाओुं में गभाथशय सम्बन्धी व्कार औेर हतनथया आदद रोगों में
उपयोगी।

घुं - काम ्ासना को तनयुंत्ररि करने ्ािा और मारण-मोहन-उच्िाटन आदद के दष्प्रभा्के


कारण जतनि रोग-व्कार को शाुंि करने में सहायक।

ढुं - मानलसक शाुंति दे ने में सहायक। अप्राकृतिक व्पदाओुं जैसे मारण, स्िम्भन आदद प्रयोगों
से उत्पन्न हए व्कारों में उपयोगी।
पुं - िेिडों के रोग जैसे टी.बी., अस्र्मा, श््ास रोग आदद के लिए गणकारी।

बुं - शूगर, ्मन, कि, व्कार, जोडों के ददथ आदद में सहायक।

युं - बच्िों के िुंिि मन के एकाग्र करने में अत्यि सहायक।

रुं - उदर व्कार, शरीर में वपत्त जतनि रोग, ज््र आदद में उपयोगी।

िुं- मदहिाओुं के अतनयलमि मालसक धमथ, उनके अनेक गप्ि रोग िर्ा व्शेष रूप से आिस्य
को दरू करने में उपयोगी।

मुं - मदहिाओुं में स्िन सम्बन्धी व्कारों में सहायक।

धुं - िना् से मक्ति के लिए मानलसक सुंरास दरू करने में उपयोगी ।

ऐुं- ्ाि नाशक, रति िाप, रति में कोिेस्राॅि, मूछाथ आदद असार्धय रोगों में सहायक।

द््ाुं - कान के समस्ि रोगों में सहायक।

ह्रीुं - कि व्कार जतनि रोगों में सहायक।

ऐुं - वपत्त जतनि रोगों में उपयोगी।

्ुं - ्ाि जतनि रोगों में उपयोगी।

शुं - आुंिों के व्कार िर्ा पेट सुंबुंधी अनेक रोगों में सहायक ।

हुं - यह बीज एक प्रबि एन्टीबॉयदटक लसद्ध होिा है । गाि ब्िैडर, अपि, लिकोररया आदद
रोगों में उपयोगी।

अुं - पर्री, बच्िों के कमजोर मसाने, पेट की जिन, मानलसक शाक्न्ि आदद में सहायक
इस बीज का सिि जप करने से शरीर में शक्ति का सुंिार उत्पन्न होिा है ।
-- गप्ि-सप्िशिी --

साि सौ मन्रों की ‘श्री दगाथ सप्िशिी, का पाठ करने से साधकों का जैसा


कल्याण होिा है , ्ैसा-ही कल्याणकारी इसका पाठ है । यह ‘गप्ि-सप्िशिी’
प्रिर मन्र-बीजों के होने से आत्म-कल्याणेछ साधकों के लिए अमोघ िि-प्रद
है ।
इसके पाठ का क्रम इस प्रकार है ।
प्रारम्भ में
‘कक्जजका-स्िोर’
उसके बाद
‘गप्ि-सप्िशिी’
िदन्िर
‘स्ि्न‘ का पाठ करे ।

कक्जजका-स्िोर म ् अर््ा लसद्धकक्जजकास्िोरम ् ॥

श्री गणेशाय नमः ।

ॐ अस्य श्रीकक्जजकास्िोरमन्रस्य सदालश् ऋवषः, अनष्टप ् छन्दः,


श्रीत्ररगणाक्त्मका दे ्िा, ॐ ऐुं बीजुं, ॐ ह्रीुं शक्तिः, ॐ तिीुं कीिकम ्, मम
स्ाथभीष्टलसद्र्धयर्े जपे व्तनयोगः ।

लश् उ्ाि
श्रण
ृ दे व् प्र्क्ष्यालम कक्जजकास्िोरमत्तमम।्
येन मन्रप्रभा्ेण िण्डीजापः शभो भ्ेि॥1॥

न क्िुं नागथिास्िोरुं कीिकुं न रहस्यकम।्
न सूतिुं नावप र्धयानुं ि न न्यासो न ि ्ािथनम॥2॥

कक्जजकापाठमारेण दगाथपाठििुं िभेि।्
अति गह्यिरुं दे व् दे ्ानामवप दिथभम॥3॥

गोपनीयुं प्रयत्नेन स््योतनरर् पा्थति।
मारणुं मोहनुं ्श्युं स्िम्भनोच्िाटनाददकम।्
पाठमारेण सुंलसद्धये
् ि ् कक्जजकास्िोरमत्तमम ् ॥4॥

अर् मुंर

ॐ ऐुं ह्रीुं तिीुं िामण्डायै व्च्िे। ॐ ग्िौ हुं तिीुं जुंू सः


ज््ािय ज््ािय ज््ि ज््ि प्रज््ि प्रज््ि
ऐुं ह्रीुं तिीुं िामण्डायै व्च्िे ज््ि हुं सुं िुं क्षुं िट् स््ाहा

॥ इति मुंरः॥

नमस्िे रुद्ररूवपण्यै नमस्िे मधमददथ तन।


नमः कैटभहाररण्यै नमस्िे मदहषामददथ तन ॥1॥

नमस्िे शम्भहन््यै ि तनशम्भासरघातितन ॥2॥


जाग्रिुं दह महादे व् जपुं लसद्धुं करुष्् मे।

ऐुंकारी सक्ृ ष्टरूपायै ह्रीुंकारी प्रतिपालिका॥3॥


तिीुंकारी कामरूवपण्यै बीजरूपे नमोऽस्ि िे।

िामण्डा िण्डघािी ि यैकारी ्रदातयनी॥4॥


व्च्िे िाभयदा तनत्युं नमस्िे मुंररूवपणी ॥5॥

धाुं धीुं धू धूजट


थ े ः पत्नी ्ाुं ्ीुं ्ूुं ्ागधीश््री।
क्राुं क्रीुं क्रुंू कालिका दे व्शाुं शीुं शूुं मे शभुं करु॥6॥

हुं ह हुं काररूवपण्यै जुं जुं जुं जम्भनाददनी।


भ्ाुं भ्ीुं भ्ुंू भैर्ी भद्रे भ्ान्यै िे नमो नमः॥7॥
अुं कुं िुं टुं िुं पुं युं शुं ्ीुं दुं ऐुं ्ीुं हुं क्षुं चधजाग्रुं चधजाग्रुं रोटय रोटय दीप्िुं
करु करु स््ाहा॥

पाुं पीुं पुंू पा्थिी पण


ू ाथ खाुं खीुं खुंू खेिरी िर्ा साुं सीुं सुंू सप्िशिी दे व्या
मुंरलसद्चधुंकरुष्् मे॥

इदुं ि कक्जजकास्िोरुं मुंरजागतिथहेि्े। अभतिे नै् दािव्युं गोवपिुं रक्ष


पा्थति॥
यस्ि कुं क्जकया दे व्हीनाुं सप्िशिीुं पठे ि।्
न िस्य जायिे लसद्चधररण्ये रोदनुं यर्ा॥

। इति श्रीरुद्रयामिे गौरीिुंरे लश्पा्थिीसुं्ादे कुं क्जकास्िोरुं सुंपूणम


थ ्।

गप्ि-सप्िशिी

ॐ ब्रीुं-ब्रीुं-ब्रीुं ्ेण-हस्िे, स्िि-सर-बटकैहाां गणेशस्य मािा।


स््ानन्दे नन्द-रुपे, अनहि-तनरिे, मक्तिदे मक्ति-मागे।।
हुं सः सोहुं व्शािे, ्िय-गति-हसे, लसद्ध-दे ्ी समस्िा।
हीुं-हीुं-हीुं लसद्ध-िोके, कि-रुचि-व्पिे, ्ीर-भद्रे नमस्िे।।१

ॐ हीुंकारोच्िारयन्िी, मम हरति भयुं, िण्ड-मण्डौ प्रिण्डे।


खाुं-खाुं-खाुं खड्ग-पाणे, ध्रक-ध्रक ध्रककिे, उग्र-रुपे स््रुपे।।
हाँ -हाँ हाँ काुंर-नादे , गगन-भव्-ििे, व्यावपनी व्योम-रुपे।
हुं -हुं हुं कार-नादे , सर-गण-नलमिे, िण्ड-रुपे नमस्िे।।२

ऐुं िोके कीिथयन्िी, मम हरि भयुं, राक्षसान ् हन्यमाने।


घ्ाुं-घ्ाुं-घ्ाुं घोर-रुपे, घघ-घघ-घदटिे, घघथरे घोर-रा्े।।
तनमाांसे काक-जुंघे, घलसि-नख-नखा, धूम्र-नेरे त्रर-नेर।े
हस्िाब्जे शूि-मण्डे, कि-कि ककिे, लसद्ध-हस्िे नमस्िे।।३

ॐ क्रीुं-क्रीुं-क्रीुं ऐुं कमारी, कह-कह-मणखिे, कोककिेनानरागे।


मद्रा-सुंज्ञ-त्रर-रे खा, करु-करु सििुं, श्री महा-मारर गह्ये।।
िेजाुंगे लसद्चध-नार्े, मन-प्न-ििे, नै् आज्ञा-तनधाने।
ऐुंकारे रात्रर-मर्धये, स््वपि-पश-जने, िर कान्िे नमस्िे।।४

ॐ व्राुं-व्रीुं-व्रुंू व्रैं कव्त््े, दहन-पर-गिे रुक्तम-रुपेण िक्रे।


त्ररः-शतिया, यति-्णाथददक, कर-नलमिे, दादद्ुं पू्-थ ्णे।।
ह्रीुं-स्र्ाने काम-राजे, ज््ि-ज््ि ज््लििे, कोलशतन कोश-परे।
स््च्छन्दे कष्ट-नाशे, सर-्र-्पषे, गह्य-मण्डे नमस्िे।।५

ॐ घ्ाुं-घ्ीुं-घ्ूुं घोर-िण्डे, घघ-घघ घघघे घघथरान्याड़ि्घ्-घोषे।


ह्रीुं क्रीुं द्रुं ू द्रोजि-िक्रे, रर-रर-रलमिे, स्थ-ज्ञाने प्रधाने।।
द्रीुं िीर्ेष ि ज्येष्ठे , जग-जग जजगे म्िीुं पदे काि-मण्डे।
स्ाांगे रति-धारा-मर्न-कर-्रे , ्ज्र-दण्डे नमस्िे।।६

ॐ क्राुं क्रीुं क्रुंू ्ाम-नलमिे, गगन गड-गडे गह्य-योतन-स््रुपे।


्ज्राुंगे, ्ज्र-हस्िे, सर-पति-्रदे , मत्त-मािुंग-रुढे ।।
स््स्िेजे, शद्ध-दे हे, िि-िि-िलििे, छे ददिे पाश-जािे।
ककण्डल्याकार-रुपे, ्ष
ृ ्ष
ृ भ-र्ध्जे, ऐक्न्द्र मािनथमस्िे।।७

ॐ हाँ हाँ हुं कार-नादे , व्षम्श-करे , यक्ष-्ैिाि-नार्े।


स-लसद्धयर्े स-लसद्धैः, ठठ-ठठ-ठठठः, स्थ-भक्षे प्रिण्डे।।
जूुं सः सौं शाक्न्ि-कमेऽमि
ृ -मि
ृ -हरे , तनःसमेसुं समद्रे ।
दे व्, त््ुं साधकानाुं, भ्-भ् ्रदे , भद्र-कािी नमस्िे।।८

ब्रह्माणी ्ैष्ण्ी त््ुं, त््मलस बहिरा, त््ुं ्राह-स््रुपा।


त््ुं ऐन्द्री त््ुं कबेरी, त््मलस ि जननी, त््ुं कमारी महे न्द्री।।
ऐुं ह्रीुं तिीुंकार-भूि,े व्िि-िि-ििे, भू-ििे स््गथ-मागे।
पािािे शैि-श्रुंग
ृ े, हरर-हर-भ्ने, लसद्ध-िण्डी नमस्िे।।९

हुं िुं क्षुं शौक्ण्ड-रुपे, शलमि भ्-भये, स्थ-व्घ्नान्ि-व्घ्ने।


गाुं गीुं गूुं गैं षडुंगे, गगन-गति-गिे, लसद्चधदे लसद्ध-सार्धये।।
्ुं क्रुं मद्रा दहमाुंशोप्रथहसति-्दने, ्यक्षरे ह्सैं तननादे ।
हाुं हूुं गाुं गीुं गणेशी, गज-मख-जननी, त््ाुं महे शीुं नमालम।।१०

स्ि्न

या दे ्ी खड्ग-हस्िा, सकि-जन-पदा, व्यावपनी व्शऽ्-दगाथ।


श्यामाुंगी शति-पाशाक्ब्द जगण-गणणिा, ब्रह्म-दे हाधथ-्ासा।।
ज्ञानानाुं साधयन्िी, तिलमर-व्रदहिा, ज्ञान-ददव्य-प्रबोधा।
सा दे ्ी, ददव्य-मूतिथप्रद
थ हि दररिुं, मण्ड-िण्डे प्रिण्डे।।१

ॐ हाुं हीुं हूुं ्मथ-यतिे, श्-गमन-गतिभीषणे भीम-्तरे।


क्राुं क्रीुं क्रुंू क्रोध-मूतिथव्थकृि-स्िन-मखे, रौद्र-दुं ष्रा-करािे।।
कुं कुं कुंकाि-धारी भ्मक्प्ि, जगदददुं भक्षयन्िी ग्रसन्िी-
हुं कारोच्िारयन्िी प्रदहि दररिुं, मण्ड-िण्डे प्रिण्डे।।२

ॐ ह्राुं ह्रीुं हूुं रुद्र-रुपे, त्ररभ्न-नलमिे, पाश-हस्िे त्रर-नेर।े


राुं रीुं रुुं रुं गे ककिे ककलिि र्ा, शूि-हस्िे प्रिण्डे।।
िाुं िीुं िूुं िम्ब-क्जह््े हसति, कह-कहा शद्ध-घोराट्ट-हासैः।
कुंकािी काि-रात्ररः प्रदहि दररिुं, मण्ड-िण्डे प्रिण्डे।।३

ॐ घ्ाुं घ्ीुं घ्ूुं घोर-रुपे घघ-घघ-घदटिे घघथरारा् घोरे ।


तनमााँसे शष्क-जुंघे वपबति नर-्सा धम्र
ू -धम्र
ू ायमाने।।
ॐ द्राुं द्रीुं द्रुं ू द्रा्यन्िी, सकि-भव्-ििे, यक्ष-गन्ध्थ-नागान ्।
क्षाुं क्षीुं क्षूुं क्षोभयन्िी प्रदहि दररिुं िण्ड-मण्डे प्रिण्डे।।४

ॐ भ्ाुं भ्ीुं भ्ूुं भद्र-कािी, हरर-हर-नलमिे, रुद्र-मूिे व्कणे।


िन्द्राददत्यौ ि कणौ, शलश-मकट-लशरो ्ेक्ष्ठिाुं केि-मािाम ्।।
स्रक् -स्थ-िोरगेन्द्रा शलश-करण-तनभा िारकाः हार-कण्ठे ।
सा दे ्ी ददव्य-मतू िथः, प्रदहि दररिुं िण्ड-मण्डे प्रिण्डे।।५
ॐ खुं-खुं-खुं खड्ग-हस्िे, ्र-कनक-तनभे सय
ू -थ काक्न्ि-स््िेजा।
व्द्यज्ज््ािा्िीनाुं, भ्-तनलशि महा-कत्ररथका दक्षक्षणेन।।
्ामे हस्िे कपािुं, ्र-व्मि-सरा-पूररिुं धारयन्िी।
सा दे ्ी ददव्य-मतू िथः प्रदहि दररिुं िण्ड-मण्डे प्रिण्डे।।६

ॐ हाँ हाँ िट् काि-रारीुं पर-सर-मर्नीुं धूम्र-मारी कमारी।


ह्राुं ह्रीुं ह्रूुं हक्न्ि दष्टान ् कलिि ककि-ककिा शब्द अट्टाट्टहासे।।
हा-हा भि ू -प्रभूि,े ककि-ककलिि-मखा, कीियन्िी ग्रसन्िी।
हुं कारोच्िारयन्िी प्रदहि दररिुं िण्ड-मण्डे प्रिण्डे।।७

ॐ ह्रीुं श्रीुं क्रीुं कपािीुं पररजन-सदहिा िक्ण्ड िामण्डा-तनत्ये।


रुं -रुं रुं कार-शब्दे शलश-कर-ध्िे काि-कूटे दरन्िे।।
हाँ हाँ हुं कार-कारर सर-गण-नलमिे, काि-कारी व्कारी।
्यैिोतयुं ्श्य-कारी, प्रदहि दररिुं िण्ड-मण्डे प्रिण्डे।।८

्न्दे दण्ड-प्रिण्डा डमरु-ड़डलम-ड़डमा, घण्ट टुं कार-नादे ।


नत्ृ यन्िी िाण्ड्ैषा र्र्-र्इ व्भ्ैतनथमि
थ ा मन्र-मािा।।
रुक्षौ कक्षौ ्हन्िी, खर-खररिा र्ा िाचिथतन प्रेि-मािा।
उच्िैस्िैश्िाट्टहासै, हह हलसि र्ा, िमथ-मण्डा प्रिण्डे।।९

ॐ त््ुं ब्राह्मी त््ुं ि रौद्री स ि लशणख-गमना त््ुं ि दे ्ी कमारी।


त््ुं िक्री िक्र-हासा घर-घररि र्ा, त््ुं ्राह-स््रुपा।।
रौद्रे त््ुं िमथ-मण्डा सकि-भव्-ििे सुंक्स्र्िे स््गथ-मागे।
पािािे शैि-श्रुंग
ृ े हरर-हर-नलमिे दे व् िण्डी नमस्िे।।१०

रक्ष त््ुं मण्ड-धारी चगरर-गह-व््रे तनझथरे प्थिे ्ा।


सुंग्रामे शर-मर्धये व्श व्षम-व्षे सुंकटे कक्त्सिे ्ा।।
व्याघ्े िौरे ि सपेऽप्यदचध-भव्-ििे ्क्ह्न-मर्धये ि दगे।
रक्षेि ् सा ददव्य-मतू िथः प्रदहि दररिुं मण्ड-िण्डे प्रिण्डे।।११
इत्ये्ुं बीज-मन्रैः स्ि्नमति-लश्ुं पािक-व्याचध-नाशनम ्।
प्रत्यक्षुं ददव्य-रुपुं ग्रह-गण-मर्नुं मदथ नुं शाककनीनाम ्।।
इत्ये्ुं ्ेद-्ेद्युं सकि-भय-हरुं मन्र-शक्तिश्ि तनत्यम ्।
मन्राणाुं स्िोरकुं यः पठति स िभिे प्राचर्थिाुं मन्र-लसद्चधम ्।।१२

िुं-िुं-िुं िन्द्र-हासा ििम िम-िमा िािरी चित्त-केशी।


युं-युं-युं योग-माया जनतन जग-दहिा योचगनी योग-रुपा।।
डुं-डुं-डुं डाककनीनाुं डमरुक-सदहिा दोि दहण्डोि ड़डम्भा।
रुं -रुं -रुं रति-्स्रा सरलसज-नयना पाि माुं दे व् दगाथ।।१३

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