Zindagi Aais Pais

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ज़दगी आइस पाइस

(कहानी-सं ह)
ज़दगी आइस पाइस

न खल सचान
ISBN: 978-93-84419-20-2

काशकः
ह द-यु म
1, जया सराय, हौज ख़ास, नई द ली-110016
मो. 9873734046, 9968755908

कला- नदशन: वज एस वज www.vijendrasvij.com

पहला सं करणः 2015

© न खल सचान

Zindagi Aais Pais


(A collection of short stories by Nikhil Sachan )

Published By
Hind Yugm
1, Jia Sarai, Hauz Khas, New Delhi- 110016
Mob: 9873734046, 9968755908
Email : sampadak@hindyugm.com
Website - www.hindyugm.com

First Edition: 2015


माँ और पापा के लए
ज ह ने बोलना सखाया

द द के लए
जो स ाथ को बोलना सखा रही है

शुभांगी के लए
जसको बोलते ए सुनना, सुकू न दे ता है
बात क बात

मेरी पहली कताब ‘नमक वादानुसार’ को आपने बे-इंतहा मुह बत, इ ज़त और लार
ब शा। अब ‘ ज़दगी आइस पाइस’ भी उसी ख़ुदग़ज़-सी आरज़ू म आपके सामने है। मने
कभी नह सोचा था क म रात -रात एक घो षत लेखक हो जाऊँगा। एक अदनी-सी कताब
के लए लगभग हर हद -अं ेज़ी अख़बार, मैगज़ी स और यहाँ तक क ट वी पर भी जगह
पाऊँगा।
मेरे लए यही ब त था क इ का- का लोग फ़ोन पर या मेल पर मेरी तारीफ़ म चंद
ईमानदार ल ज़ कह द। बे ट सेलर, पॉपुलै रट , सेल के नंबस, ताम-झाम, राज़मटाज़ और
आल-दै ट-जैज़ तो ब त र क कौड़ी थी। पर जतना कुछ मला, उससे इतना अ भभूत ँ
क हया जुड़ा गया है।
लखना मेरे लए बस रोम टसाइज़ करना भर रहा है। हाँ ये अलग बात है क ये रोमस
मने पूरी शदद् त से कया और अभी तक कर पा रहा ँ। माटफ़ोन, ई-मेल, मी ट स,
लैपटॉप और ए बशन के मकड़जाल म रोज़गार बुनते-बनाते और पूरी तरह ोफ़ेशन लज़म
नभाने क क़वायद के बीच, जब भी समय मला, लखता रहा। सुधारता रहा। पढ़ता रहा
और सीखता रहा। ऐसे म अ सर ख़ुद के लखे को परफ़े ट बना लेने क वा हश
ऑ सेशन म बदलने लगती है। उससे जूझता भी रहा।
न मालूम कब और कैसे लखने का व त नकाल पाया ले कन ख़ुश ँ, क एक और
कताब आपके बीच रख पा रहा ँ। सुकून इस बात का है क जब मने डरते-डरते अपने
ए डटर साहब को कताब का पहला ा ट भेजा, तो उ ह ने कहा क इस बार मेरी कताब
सच म मुक मल हो गई है और म पहली कताब से भी बेहतर लख पा रहा ँ।
खैर, लेखक, ए डटर और प लशर कभी कताब मुक मल नह कर सकते। कताब
सफ़ पढ़ने वाल से मुक मल होती ह। इस लए ‘ ज़दगी आइस पाइस’ आप पर छोड़ रहा
ँ।
ज़दगी जहाँ कह हो, उसे खो जए, ध पा मा रए और खल खला के हँ सए।
इन कहा नय के ज़ रये (या इनके बना ही) भूली बसरी ग लय म भटक आइए,
खेलते-कूदते ब च को नहा रए, पुराने बंद सं क म सुकून के चार ल हे खो जए, कुछ
पुरानी मुह बत को याद क रए और मेरी मान तो कुछ नई भी फ़रमाइए।
आपका,
न खल
कथा म

फर एक परवाज़
व क म हो ा का यार
19 तयाँ 57
ब ती-ब ती ढे र उदासी
अट रया पे लोटन कबूतर रे
बलमवा तुम या जानो ीत
यूट मोहर सह
बन पूँछ के टै डपोल
कैनवस के जूते और रातरानी के फूल
ज़दगी आइस पाइस

आओ न पीछे से जाकर मार उसको ध पा


कह घुमाओ हमको प ठू लेकर च पा च पा

नीली वाली च ड़या खोज झबरा वाला प ला


ढूँ ढ कहाँ छु पा बैठा है नरा आलसी ब ला

गैरज म है भूत भला या चलो झाँककर आएँ


दे ख फ़ ट कौन आएगा कसकर दौड़ लगाएँ

दन भर खेल ल गदागद, राजा मं ी बन ल


इन दोन म चोर कौन है आओ बूझ चुन ल

खोज कहाँ बड़ी वाली उँगली है इस मुट् ठ म


ख़ुशी क तरह छपी ई है जीवन क गु थी म
फर एक परवाज़

ये वो हसीन दौर था जब नानू और सुबू क ज़दगी (आवास वकास कॉलोनी, नवाबगंज) म


व क नह आया था। व क के आने से पहले सब कुछ कतना आसान था वो दोन
आवास वकास कॉलोनी के सबसे ‘करारे’ लड़के आ करते थे। नया मोटे तौर पर तीन
टे रटरी म बँट ई थी कूल के भीतर, कूल और कॉलोनी के बीच, और कॉलोनी के
अंदर। अगर कूल क टे रटरी को एक बार के लए हटा दया जाए तो नानू और सुबू के
हसाब से वो कॉलोनी के ही नह ब क पूरी नया के सबसे करारे लड़के हो सकते थे।
कूल भी एक व त तक उनके कं ोल म था। ले कन पछले साल ख ा मा टर के आने
के बाद से दोन का ग णत बगड़-सा गया था। “साला ख़ुद को वनोद ख ा समझता है।”
नानू अ सर कहता था। “छोड़ न यार, एक दन म भी ऐसा अमरीश पुरी वाला तरक ब
भड़ाऊँगा क उस वनोद ख े का सोम-सोम-सामो-शा-शा हो जाएगा।” कहकर सुबू नानू
को शांत करा दया करता।
सुबू ने नानू को ‘बाई गॉड का ॉ मस’ कया था और उसने इस भरोसे को दल म बठा
कर वनोद ख े क टशन को बाहर नकाल दया। वो ये भी भूल गया क वनोद ख े ने
उसे सब लड़क (ख़ासकर लड़ कय ) के सामने मुग़ा बनाया था और नै सी उसे दे खकर
ब त हँसी थी। नानू क दली वा हश थी क एक दन नै सी को भी मुग़ा बनाया जाए
ले कन सुबू ने उसे बताया क ख े नै सी को कभी मुग़ा नह बनाएगा।
“ य नह बनाएगा ” नानू ने पूछा था।
“अरे यार तू एकदम डफर है या ” सुबू ने कहा।
“ य इसम डफर वाली या बात हो गई ”
“अरे यार नै सी लड़क है ”
“हाँ तो ”
“ओ हो तू कुछ नह समझता है यार वो लड़क है। लड़ कयाँ कट पहनती ह।
उनको मुगा नह बना सकते ह न। पागल नह तो ”
“अरे हाँ बे ये तो मने सोचा ही नह ।” नानू ने खी होकर कहा। ले कन अगले ही पल
वो काफ़ दे र तक ये सोचकर हँसा क अगर लड़ कयाँ मुग़ा बनगी तो वो कैसी लगगी।
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और फर इसी हँसी-ख़ुशी म जैसे-तैसे दोन ने इस बात से समझौता कर ही लया क
नै सी, जो उनक नंबर वन मन थी उसे कभी मुग़ा नह बनाया जाएगा। समझौता कया
था या शायद वो इस बात को भूल ही गए थे य क कूल के बाहर क टे रटरी तो उनक ही
थी। कम-से-कम उस व त तक तो ज़ र, जब तक आवास वकास कॉलोनी म व कू नह
आया था।
व कू अचानक यूँ ही आया। ग मय क छु ट् टय म, अ ैल के महीने म। सनडे क
एक गनगुनी-सी, अलसाई-सी दोपहर म।
आवास वकास कॉलोनी के लड़के केट खेल रहे थे, अंकल लोग घर के बाहर
चबूतरे पर स दय क बची ई मूँगफ लयाँ खा रहे थे और आं टयाँ घर म रामायण और
च हार दे खने के बाद आज थोड़ा अ धक फ़सत म घर के काम-काज नपटा रही थ ।
“यार इसका बेबी ओवर करवाओ। लगातार चार वाइड फक चुका है।” सुबू च लाया।
बेचारा ववेक ब त दे र से अपना ओवर ख़ म करने क को शश कर रहा था ले कन गद
उसका कहा मान नह रही थी। वो द सय क़दम दौड़ कर आता, और ट प के क़रीब आते
ही उसके रन अप का हसाब- कताब गड़बड़ा जाता और उसे अचानक ककर गद फकनी
पड़ती। कुछ दन पहले तक उसे कॉलोनी के तेज गदबाज म शा मल नह कया जाता था
ले कन जबसे उसने द ली से नई केट कट मँगाई थी तब से वो भी एक तेज़ गदबाज हो
गया था।
कॉलोनी के लड़के उसे ख़ुश करने के लए उसे मनोज भाकर कहने लगे थे (और पीठ
पीछे म यम ग त का झाँटू गदबाज कहते थे)। कहने को क पल दे व भी कह सकते थे
ले कन बस एक केट कट के हसाब से ये थोड़ा यादा हो जाता। ट प, बैट, टे नस क
गद और पैड्स के एवज़ म ‘मनोज भाकर’ का टु चा-सा ख़ताब कोई बुरा सौदा नह था।
हालाँ क, ववेक ने सौदा अपने ह से म मोड़ लेने के लए ए ा डमांड ये रख द थी क
अब से नाली म गद जाने पर वो नकालने नह जाएगा।
सोनू कॉलोनी म केट खेलने वाले लड़क म सबसे छोटा था इस लए अब ववेक के
मोशन के बाद नाली म से गद नकालने का ज़ मा उसके ह से था। सोनू इस ज़ मेदारी
को मु तैद से नभाता था और पुराने टू टे ए वाइपर के डं डे से सेकड म गद नकाल दया
करता था।
ववेक का ओवर कटकर बेबी ओवर नह आ और वो एक के बाद एक कुछ अ धक
वाइड और कुछ ब त अ धक वाइड गद फकता रहा। ओवर क तेरहवी गद (जो क वाइड
नह थी) एक फुलटॉस थी और नानू ने उसे छः रन के लए तान दया। और यही वो व त
था जब व कू आवास वकास कॉलोनी के मान च पर एक धूमकेतु क तरह चमक उठा
था।

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व कू ने यूँ ही एक हाथ से नानू का आसमानी शॉट बाउ ी पर लपक लया और गद
छ का होने से पहले ही उसक हथेली म क़ैद-ए-बामश क़त, गर तार हो गई। सभी
लड़के उसे हैरत भरी नज़र से दे खते रह गए।
उसने गद वापस फक द और वो बी 25 के नीचे खड़े क से अपना सामान उतरवाने
लगा। चार सरकारी कमचारी उसका सामान सरी मं जल पर चढ़ा रहे थे और वो मनट-
दर- मनट आवास वकास कॉलोनी का ह सा होता जा रहा था।
तीन घंटे के भीतर चीफ़ इंजीनयर रघुवीर स सेना का बेटा व कू आवास वकास का
उतना ही बड़ा ह सा हो चुका था जतना क नानू और सुबू। बाक़ लड़के ( जनम क नानू
और सुबू नह थे) उसके क के इद- गद मंडराते ए ये दे खते रहे क कनुमा पटारे से बड़े -
बड़े काटन म या- या उतर रहा है। इ का- का लड़के हक़ से बी 25 तक हो भी आए,
कुछ एक व कू क गयर वाली साइ कल दे ख रहे थे और दो-एक लड़के क के चार ओर
घूम-घूम कर उसपे लखा लोगन (मा ती ते साबुनदानी है, काँ ही मदा द नशानी है)
पढ़कर हँस रहे थे।
व कू और कॉलोनी के बाक़ लड़क म कई बु नयाद अंतर थे। पहला ये क व कू के
पता चीफ़ इंजी नयर (बड़े साहब) थे और बाक़ लड़के जू नयर इंजी नयर के बेटे थे।
सरा ये क व कू द ली म डीपीएस से पढ़कर आया था जब क यहाँ के लड़के सर वती
शशु मं दर म पढ़ते थे। तीसरा ये (जो क पहले और सरे अंतर का जोड़ भी कहा सकता
है) क व कू मॉडन, माट और नए ज़माने का लड़का था।
इन तीन अंतर के चलते व कू कुछ ही दन म न ववाद प से कॉलोनी का सबसे
करारा लड़का होता जा रहा था और सुबू नानू के हाथ से ये टे रटरी भी फसल रही थी।
नानू और सुबू के अलावा बाक़ सारे लड़क ने दो दन म ही पाट बदलने का सल सला
शु कर दया था और वो आजकल व कू के इद- गद ही मंडराते पाए जाते थे। वजह
लाज़मी थी। व कू जो भी काटन- पटारा खोलता था उसम ऐसा कुछ नकलता था जो
उ ह ने पहले कभी पास से नह दे खा था। या दे खा था तो उसे छू ने-खेलने क हसरत उनके
मन म ही रह गई थी।
जहाँ नानू और सुबू कौ वा लड़ाने और राजा मं ी चोर सपाही जैसे ां तकारी खेल
खलाकर कॉलोनी के लड़क के बीच हीरो बने थे वह व कू सीधे ही दो रमोट और गन
वाला वी डयो गेम लेकर आया था। उसके पास बी सय कैसेट थ और हर एक कैसेट म
न यानबे हज़ार नौ सौ न यानबे गेम आ करते थे। मा रयो, कॉ ा, रोडरैश, आइसरनर,
ओल पक और न जाने या या।
जहाँ नानू और सुबू अभी तक इस बात का ल दे ते आए थे क उनके घर म लडलाइन
फ़ोन है वह व कू सीधे कॉडलेस फ़ोन को हाथ म थामे कॉलोनी म आया था। और तो
और वो कॉलर आईडी के ज़ रये ये भी बता सकता था क फ़ोन कौन से नंबर से कया गया
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है। जब भी उसक मौसी उसे द ली से फ़ोन करती थ तो वो बालकनी म आकर उनसे बात
करता, अं ेज़ी म “हाय मौसी हाउ आर यू”, कहकर बात शु करता और “टॉक टू यू
लेटर” कहके फ़ोन रखता।
कॉलोनी के बदले ए समीकरण से सुबू खी था। या ये कह ल क वो ँ आसा था,
रोना चाहता था और व कू को मारना चाहता था। खी होना एक उबाऊ और फ़ालतू
या है इस लए ब चे खी नह होते। रो लेना और मार पीट लेना बो रग नह है और
कारगर भी है।
वो तमाम वजह से व कू को मारना चाहता था। मसलन
1. कल ववेक ने सुबू को पहली बार सुबू भै या कहकर नह बुलाया था। ववेक जो
नाली म से गद नकालता था और जसे पहली बार कॉलोनी क केट ट म म सुबू ने ही
भत कया था।
2. ववेक क दे खा-दे खी कॉलोनी के बाक़ ब चे भी अब उसे भै या कहना भूल ही
चुके थे। और तो और उनम से अ धकतर व कू को भै या बुलाते थे जब क वो उ म सुबू
से छोटा था।
3. व कू के आने से केट के नयम बदलने लगे थे और नानू और सुबू के अलावा
कसी ने उस पर आप भी नह जताई थी। पहली बार आवास वकास कॉलोनी म वन-
टप-वन-है ड और एलबीड लू क घुसपैठ ई थी। अब हर गदबाज को गद फकने से पहले
ये भी बताना होता था क वो ‘ओवर द ’ बॉ लग करेगा या फर ‘राउंड द ’।
4. पहले जब भी कभी कॉलोनी म लाइट जाती थी तो सभी लड़के टॉच लेकर बाहर
नकल आते थे और अंधेरे म आइस-पाइस और ल-गदागद खेला करते थे। ले कन अब
व कू के घर म जनरेटर होने क वजह से सभी लड़के लाइट जाने पर उसके घर वीसीआर
पर ूस ली क फ़ म दे खने प ँच जाते थे।
5. व कू हरामी था (और इसक कोई वजह नह थी)।
इतनी सारी वजह को मदद् े -नज़र रखते ए ये तय कया गया क नानू और सुबू अपना
खोया आ सा ा य वापस लेकर रहगे। मा टर लान बनाने के लए टू टे गैरेज के अंदर
मी टग बुलाई गई।
“यार ये ब त हीरो बन रहा है। ज द ही कुछ गेम करना पड़े गा इसका। सभी लड़क
को ल दे ना पड़े गा क वो उससे 'अ ट ब ट जनम भरे क क ट ’ कर ल। नह तो उनको
हमेशा के लए कॉलोनी क ट म से गेट आउट कर दगे।” नानू ने पे सी कोला चूसते ए
कहा।

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“कोई उससे क ट नह करेगा। उ टा सब हमसे क ट हो जाएँगे।” सुबू ने होराइज़न
से तीस ड ी ऊपर दे खते ए दाश नक के अंदाज़ म कहा।
“ य नह करगे ” नानू ने रडमली फ़ायर होते ए कहा।
“अबे यार तू एकदम बेकूफ है या फालतू बात करता है ”
“अ छा सारी यार।”
“कभी खुद भी दमाग़ लगाया कर यार।”
“हाँ, बात तो सही है तेरी पर यार तू ही बता दे न क उससे कोई क ट य नह
करेगा ”
“उसका घर दे खा है तूने उसके पास ऐसे खलौने ह जो कॉलोनी म कसी ल डे ने
पहले कभी दे खे भी नह ह। उसके पास गयर वाली साय कल है जो स ी मोपेड से भी तेज
भागती है। बंट बता रहा था क उसके पास सट वाली रबर है और व कू बीस पए वाले
पायलट पेन से लखता है। उसके पास ऐसी बं क है जससे ट वी पर नशाना लगाने से
त तरी फूट जाती है और कु ा हँसने लगता है।” सुबू एक साँस म कह गया।
“हाँ यार, वो गेम तो गजब है। मने भी खेला था एक दन।” कहते-कहते नानू कसी
सुनहरी नया म खो गया और उसके चेहरे के भाव पचरंगे हो गए।
“तू वो गेम खेलने गया तू व कू के घर ” सुबू ने नानू के मुँह से पे सी कोला क प ी
ख च कर जमीन पर फक द और अ व ास म उसे गोलमटोल आँख से घूरने लगा।
“नह यार वो मतलब म तो ऐसे ही गया था यार। बस दे ख रहा था।” नानू ने जैसे-
तैसे जवाब बनाया।
“ठ क है बेटा। अब तू जा बस। तेरी मेरी दो ती क सल। अ ट ब ट जनम भरे क
क ट ।”
“अबे सुबू यार, इसम क ट करने क या बात है उसने खेलने ही कहाँ दया था बस
एक चा नस द थी और उसके बाद बाक लोग क चा नस आ गई। फर मेरी बारी आई तो
बोला क तेरी चा नस तो हो गई।”
“हाँ तो और खेल जाके उसके यहाँ। तू इसी लायक है।”
“अब नह खेलूँगा। तू ग़ सा मत हो यार। भाई नह है ”
“ये भाई भाई मत कया कर मेरे से। भाई वाला कोई काम तो करेगा नह तू। और
लड़ाई होने पर तोता जैसे भाई-भाई रटने लगेगा।”

“ े े ो ई े ई ोई ”
“अ छा बेटा ये बात हो गई मने भाई वाला कोई काम नह कया ” नानू का अंगूर
जैसा चेहरा सकुड़ कर कश मश हो गया।
“घंटा या काम कया है तू खुद बता जरा।”
“मुझे जब द द टॉफ दे ती है तो म तेरे लया हमेशा आधी बचा के लाता ँ। लाता ँ
क नह लाता ”
“तू सफ चटर-मटर और गु -चेला लेकर आता है। जब भी द द तुझे क मी बार
लाकर दे ती है तो उसक आधी टॉफ तू लाया है कभी ”
“तू क मी क बात कर रहा है। म तेरे लए डे री म क लेकर आया था। चार पए क
आती है ब चू बोल लाया ँ क नह ” नानू ने तमतमाते ए कहा।
“हाँ लाया है।” सुबू ने अपनी ग़लती मान ली।
“बात करता है तूने मेरे पेन क नब तोड़ द थी तो मने खुद पापा से मार खाई और तेरा
नाम नह बताया।” नानू ँ आसा हो गया और उसका गला ँ ध गया।
“अ छा सारी यार। इतनी ज द ग़ सा हो जाता है। भाई नह है तू मेरा ” सुबू ने नानू
के कंधे पर थपक दे ते ए कहा।
“हाँ ँ।”
“तो चल फर दो ती कर वापस।”
दोन ने कानी उँग लयाँ मलाकर वापस दो ती कर ली। र ता (जो क टू टा भी नह था)
मनट भर म वापस जुड़कर और भी प का हो गया। हमेशा क तरह उँगली मलाना बस
एक बहाना भर था। ले कन ऐसा करना ज़ री था य क छोटे ब च क सारी दो ती कानी
उँगली म बसती है।
दो ती फर से हो गई और व कू के तबे को ख़ म करने का ांड लान बनना शु हो
गया।
सुबू और नानू एट एन पर जो भी फ़ म दे ख रहे होते उसम वलेन व कू होता और वो
दोन हीरो होते। ‘सबसे बड़ा खलाड़ी’ म सुबू ल लू (अ य कुमार) होता तो व कू अमर
सह (सदा शव राव अमरापुरकर)। ‘करन अजुन’ म दोन सलमान और शाह ख़ होते तो
व कू ठाकुर जन सह (अमरीश पुरी)। ‘बरसात’ म सुबू बादल (बॉबी दे ओल) होता तो
व कू, दनेश ओबेरॉय (राज ब बर)। सारी फ़ म म सलमान, शाह ख़, अ य और बॉबी
दे ओल जैसे नामी गरामी हीरो, अमरापुरकर, अमरीश पुरी और राज ब बर को यूँ ही नह
मार दे रहे थे। पहले उ ह तड़पाया जाता था। फर ज़लील कया जाता था और आ ख़र म
मारा जाता था।

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तय कया गया क पहले व कू को नीचा दखाया जाए।
नीचा दखाने क पहली कड़ी म नानू का बथडे आया और उसम आवास वकास
कॉलोनी के सभी लड़क को बुलाया गया। नानू ने ज़द पकड़ ली क इस बार म क
माउस के फ़ेस वाला केक आएगा। ज़द भी इस हद तक पकड़ी क माँ से मार खाने तक
नह छोड़ी। बथडे से एक दन पहले अपने लाल को पीटने के अपराधबोध ने माँ का कलेजा
झंझोड़ दया और उसने नानू के पापा को अ ट मेटम थमा दया क इस बार केक पर
म क माउस ही होगा।
सभी लड़के जैसे-तैसे कुछ-कुछ ग ट लेकर आए और ग ट थमाते ही उनक आँख
म क माउस को तलाश रही थ । व कू भी ग ट लेकर आया और उसने नानू को ‘है पी
बथडे ’ कहा। नानू ने जवाब म ‘थक यू’ नह कहा और वो इस बात पर उलझ गया क
व कू को तो पाट म बुलाया ही नह गया था। आगे क कमान सुबू ने थाम ली और उसने
व कू को वापस कट लेने का रा ता दखाया। व कू ये बोलते ए वापस चला गया क
नानू ही असली ‘लूज़र’ है य क वो ग ट म नानू के लए स वाला वी डयो गेम लाया
था जसम टे स खेला जा सकता था। नानू और सुबू को इस बात का आभास आ क वो
‘हार गए हरंटे’ ह। ले कन असली हार इसके आगे खड़ी थी।
ववेक (जो क नाली म से गद उठा कर लाता था) चीखता आ आया क व कू के
घर वीसीआर पर ‘ व ा मा’ लगी है और उसके बाद ‘मृ युदाता’ लगेगी। चूँ क केक कट ही
चुका था इस लए लड़क ने धीरे-धीरे खसकना शु कर दया। थोड़ी ही दे र म पाट ख़ाली
हो चुक थी और सुबू नानू ये सोच रहे थे क आ ख़र ये आवास वकास कॉलोनी के लड़क
को आ या है ये कल के ल डे जो पहले उ ह भै या-भै या कहते नह थकते थे उनके
ईमान-धरम का जॉनी लीवर य हो गया है वो आ ख़र क़ादर ख़ान क तरफ़ ह या गो वदा
क तरफ़
बदला लेने और नीचा दखाने क सरी कड़ी म ये तय कया गया क व कू को कूल
म ज़लील कया जाए। गम क छु ट् टयाँ ख़ म हो चुक थ और कूल म व कू क नई
भत ई थी। नानू और सुबू इस जुगत म लग गए क कसी तरह से वनोद ख े क लास
से ठ क पहले मॉनीटर से व कू का नाम बोड पर लखवा दया जाए और जब ‘ वनोद
ख े’ उसका नाम बोड पर लखा दे खे तो व कू क ढं ग से सुताई हो। ले कन ये काम बेहद
मु कल इस लए था य क इस बार नै सी ( जसे कभी मुग़ा नह बनाया जा सकता था)
लास क मॉनीटर थी और वो उन दोन क नंबर वन क मन भी थी।
नै सी को पॉ पस से लेकर रंगीन ल टू तक का लालच दया गया ले कन उसका ईमान
डगा नह । उसने आ शक़ क ऑ डयो कैसेट का ऑफ़र भी ठु करा दया य क अब वो
रा ल रॉय पर जान नह छड़कती थी। जूनून दे ख लेने के बाद से उसे रा ल रॉय पागल
और डरावना लगने लगा था। आ ख़र म सुबू ने नै सी के बे ट ड रोहन को पटाने क जुगत

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भड़ाई, य क नै सी रोहन क हर बात मानती थी। रोहन लास म फ़ ट आता था और
नै सी हमेशा सेकड रह जाती थी। वो रोहन जैसी बनना चाहती थी।
रोहन का ईमान नै सी जतना प का नह था और वो कुछ-एक बूम-बूम-बूमर चु गम,
अंडर टे कर और बग शो के काड और हीमैन के मैगनेट टकर पर फसल गया। रोहन ने
‘ लीज़ नै सी’ कहा और नै सी ने वनोद ख े के आने से ठ क पहले शोर मचाने वाले ब च
क ल ट म व कू का नाम सबसे ऊपर लख दया। थोड़ी ही दे र म ख ा मा टर लास म
दनदनाते ए घुसे और उ ह ने बोड पर सात लड़क के नाम लखा दे खा।
नानू और सुबू क ख़ुशी का कोई ठकाना नह था। वो व कू को वनोद ख े से कुटते
ए दे खना चाहते थे। ख ा मा टर का ै क रकॉड शानदार था। वो लड़क को एलबीड लू
करने के मामले म एलन डोना ड जतने ख़तरनाक थे। वो पीटने म क़तई भरोसा नह करते
थे और ‘कूटने’ क फ़लॉसफ़ के अनुयायी थे। उनका टाइल यही था क वो मारते कम
घसीटते यादा थे।
“खड़े हो जाओ भई ये सात जमूरे।” ख ा मा टर ने आते ही फ़रमान सुनाया।
सात लड़के खड़े हो गए। छः के पैर काँप रहे थे और सातवाँ व कू ख ा मा टर के
ताप से बेख़बर पैर जमा कर खड़ा था। बाक़ ब चे सरडर कर चुके थे। उ ह पता था क
उनके हाथ म अब कुछ भी नह है। ख ा मा टर ने अगला फ़रमान सुनाया क जो लड़का
अभी तुरंत बोड पर आकर चौथे चै टर का तीसरा सवाल दो मनट म हल कर दे गा उसे
प नशमट नह दया जाएगा। बाक़ लड़क को ह ते भर तक ख ा मा टर के आने से पहले
ही मुग़ा बन जाना होगा और उनके जाने तक मुग़ा बने रहने होगा।
ख ा मा टर का फ़रमान सुनने के बावजूद कोई भी लड़का अपनी जगह से हला नह ।
सबको पता था क चौथा चै टर एलसीएम और एचसीएफ़ का था और उसके सवाल से
भड़ना बेवक़ूफ़ था। सुबू और नानू ख़ुशी के मारे अपनी जगह पर थर बैठ नह पा रहे थे।
वो आठ पए वाली ला टक क भारी वाली गद क तरह ऊँचा उछल जाना चाहते थे।
“सर एलसीएम ऑफ़ 12 एंड 15 इज़ 60। एचसीएफ़ ऑफ़ 12 एंड 15 इज़ 3.”
व कू ने अपनी जगह पर खड़े -खड़े ही जवाब दया। उसे बोड पर आने तक क ज़ रत ही
नह पड़ी।
ख ा मा टर स रह गए। नानू और सुबू को काटो तो ख़ून नह । ख ा मा टर के यारह
साल के क रयर म आज तक ऐसा नह आ था क कसी लड़के ने मुँह ज़बानी एलसीएम
और एचसीएफ का सवाल हल कर दया हो और उसका जवाब अं ेज़ी म उनके मुँह पर
मारा हो। उ ह इस हद तक सदमा लगा क उ ह ने व कू के ह से क मार म चार का गुणा
करके बाक़ लड़क को परोस दया।

औ ै ँ ो
एक बार फर नानू और सुबू का अंगूर जैसा मुँह सकुड़ कर कश मश हो गया। व कू
बच गया। वो हीरो भी बन गया और उ टे नानू और सुबू को बूम-बूम-बूमर चु गम, अंडर
टे कर, बग शो के काड और हीमैन के मैगनेट टकर का अदद नुक़सान हो गया।
व कू ने स चन क तरह एफ़टलेसली उधेड़-उधेड़ कर दोन के दमाग़ का शेन वान
कर दया था। दोन को दन-रात सपन म व कू दखाई दे ने लगा। वो उनक हर फ़रक
को उनके सर के ऊपर से लपेट दे ता था। ‘मोड’ बदलने से भी कुछ नह हो रहा था। शेन
वान से गले पी म वच करना भी बेअसर रहा। ले मग और मै ा होना भी।
फर भी व कू पर छोटे -बड़े तमाम बाउंसर जारी रहे। घूरने से लेकर ले जग तक।
उसक ह क नोटबुक ग़ायब करने से लेकर लंचबॉ स म म ट भरने तक। सफ़ेद शट
पर चेलपाक क नीली इंक छड़कने से लेकर पट पर चु गम चपकाने तक।
ले कन व कू बेअसर, बेखटके खड़ा था। स चन क तरह।
जैसे नानू और सुबू कह थे ही नह । आ े लयन गदबाज क तरह। जैसे वो दोन इस
लायक़ भी नह थे क व कू उनक तरफ़ दे खकर उ ह तव जो दे ता। जैसे मैदान म सफ़
व कू था। जैसे व कू अजेय था। श मान था। कै टन ोम था। हांड का र क
आयमान था। चाचा चौधरी था।
नानू और सुबू को यही बात यादा ट स रही थी क व कू उ ह लड़ने लायक़ भी नह
समझ रहा था। वो डॉ टर जैकाल, केकड़ामैन, वकाल, वेनम, दान, राका और गोबर सह
से भी गए गुज़रे सा बत हो रहे थे। कूल से लेकर कॉलोनी तक हर कोई व कू का लोहा
मान चुका था। नानू और सुबू एक चुटकुला बन चुके थे। अब वो केट भी अकेले खेलते
थे। कूल म जब भी ट म बँटाई होती थी तो कोई भी क तान उनको अपनी ट म म सबसे
आ ख़र म ही चुनता था।
टू टे गैराज पर फर से मी टग बुलाई गई।
नानू इस हद तक बेचैन था जैसे ेशर कुकर म सीट लगने पर मटन का लेगपीस। वो
बुदबुदा रहा था। बड़बड़ा रहा था। अपने बे ट ड क तरफ़ कातर नगाह से दे ख रहा था।
सुबू उससे नज़र नह मला पा रहा था य क उसके पास व कू का कोई समाधान नह
था। पहले ऐसा कभी भी नह आ क नानू क कसी भी ॉ लम को सुबू ने झट से सॉ व
न कर दया हो।
“यार कुछ गेम कर न इसका।” नानू ने कहा।
“करते ह।” सुबू ने कहा। ये एक बड़े -से सवाल का एक छोटा-सा जवाब था।
“ या करते ह ” नानू ने चढ़कर कहा।
“मारते ह साले को।” सुबू ने बना चढ़े कहा।
“ ”
“ह ”
“हाँ।”
“कैसे मारते ह मतलब, कसको ”
“ कसको या व कू को मारगे। मारना ही पड़े गा। साला ब त हीरो बन रहा है।”
“कैसे ” नानू ने फर से पूछा।
“गु मा से।”
“प थर फक कर ”
“प थर नह रे। गु मा से। प थर तो छोटा-सा होता है।”
लान ओपन एंड शट केस था। आगे कुछ बहस नह ई, य क लान तो ब त समय
से बन रहे थे, बस ए जी यूट नह हो पा रहे थे। गु मा मार दे ना एक कारगर लान इस लए
था य क इंसानी सर पोपला होता है और ज द फूट जाता है। इस लए भी य क वो
कालोनी के ब च से तेज़ दौड़ लेते ह और सट से ग़ायब भी हो सकते ह।
दोन गैराज़ के पीछे छु प गए। व कू का इंतज़ार होने लगा। व कू आधे-एक घंटे म
अपनी गयर वाली साय कल पर कॉलोनी के च कर लगाने नकला। सुबू पूरी तरह से तैयार
था। एक पैर आगे और सरा पैर पीछे । व कू क़रीब आ रहा था। नानू ने उसके हाथ म
प थर थमाया।
“अबे गु मा दे गु मा।” सुबू च लाया।
“यार ब त बड़ा है ”
“अबे दे साले ”
नानू ने सुबू के हाथ म गु मा थमाया और व कू के क़रीब आते ही सुबू ने गु मा कस के
उसके सर पर नशाना साध कर फका। गु मा उसक ताक़त के हसाब से ठ क-ठाक बड़ा
था इस लए उसका नशाना चूक गया और वमा अंकल क कार के शीशे पर जा लगा। कार
का शीशा चकनाचूर हो गया। दोन इस ख़याल से अंदर तक हदस गए क अगर गु मा उसके
सर पर लग गया होता तो व कू का सर भी ऐसे ही चकनाचूर हो गया होता।
दोन दौड़ कर तब तक भागे जब तक क उ ह इस बात का सुकून नह हो गया क वो
अब कार से ब त र आ चुके ह। दोन एक महफ़ूज़ जगह प ँच कर ज़मीन पर लोट कर
ख़ूब हाँफे।
“साले लग गया होता तो ” नानू डर के मारे हाँफा।
“सच म बे ” सुबू सुकून के मारे हाँफा।
“ ”
“पूरा सर फट जाता उसका।”
“सही म यार अ छा आ बच गया।”
“अब शीशा तोड़ने के लए कुटै या होगी घर म।”
“अबे पट लेना बे, डे ली तो मार खाते ह हम दोन । व कू मर-मुरा गया होता तो लंबे
लपेटे जाते।” सुबू क हँसी छू ट गई।
“हाँ यार, एक दन और मार खा लगे।” सुबू को हँसता दे खकर नानू भी हँस पड़ा।
दोन ब त दे र तक पेट पकड़ कर हँसते रहे। इस ख़ुशी म वो कतनी बड़ी मु कल म
पड़ने से बच गए। इस सुकून म क व कू मरने से बच गया। इस अंदाज़े से क वमा अंकल
रोज़ घंटा भर अपनी कार को नहलाते ह। वो अब जो कार का हाल दे खगे तो उनक हालत
कतनी मज़ेदार होगी। जैसे-तैसे जो हाँफ दौड़ने से नकली थी, वो म म ई, तो हँसते ही
एक नई हाँफ छू ट पड़ी। पहले दोन ख़ुशी से हँस रहे थे और फर इस वजह से हँस रहे थे
क सरा भाई कैसे पागल क तरह हँस रहा था।
“अबे हँसना बंद कर।” सुबू ने कहा।
“पहले तू बंद कर।” नानू ने कहा।
“अबे मर जाऊँगा भाई लीज हँसना बंद कर।”
“यार तू भी बंद कर न। तू हँसता रहेगा तो म कैसे हँसना बंद क ँ गा।”
“भाई मर जाऊँगा। लीज मत हँसा।”
“म कहाँ हँसा रहा ँ साले तू ही हँसा रहा है। तुझे दे ख कर मुझे हँसी आ रही है।”
व क म हो ा का यार

1. 20 सतंबर 2013 को छः बजकर बयालीस मनट पर शाम के झुटपुटे के बीच,


गुजरात म एक मह वाकां ी आदमी भारत का धानमं ी बनने का ‘अ त-मह वाकां ी
सपना’ दे ख रहा था।
2. ठ क इसी समय द ली क एक बड़ी (नीरस) म ट नैशनल कंपनी म, ओवरटाइम
पर अपने बॉस से चढ़ा बैठा, स ाईस साल का एक नवयुवक मैनहैटन जाकर उससे भी
बड़ी कंपनी म नौकरी करने का ‘चमकदार सपना’ दे ख रहा था।
3. वह जोधपुर क स ल जेल म, पछले बीस मनट से एक धमगु यान म बैठा, एक
म हला वै से इलाज करवाने का ‘सेहतमंद सपना’ दे ख रहा था।
4. छः बजकर बयालीस मनट से कुछ घंटे पहले लखनऊ वधानसभा म समाजवाद
पाट का एक बला पतला वधायक, भारतीय जनता पाट के एक मोटे -तगड़े वधायक का
अधगंजा सर फोड़ने का ‘पाक-प व सपना’ दे ख रहा था।
5. इन सभी बड़े , ड और शानदार सपन के बीच, व क म हो ा द ली के बु ा
गाडन म, या का इंतज़ार करते ए एक टु चा-सा ‘लोअर- म डल- लास सपना’ दे ख
रहा था। या को यार करने का सपना। उसके शरीर को बस एक बार छू लेने का सपना।
इतने सारे सपन के बीच व क म हो ा का सपना ऐसा दखाई दे रहा था जैसे कसी
फाइव टार होटल के मे यू काड म चकन और मटन क अफ़गानी, पेशावरी और पंजाबी
ल ज़त के बीच दाल- खचड़ी क बे द फ़रमाइश।
ले कन व क म हो ा सच म यार करना चाहता था। और वो इतनी श दत से यार
करना चाहता था क अगर छः बजकर बयालीस मनट पर उसे दे श का धानमं ी या
मैनह टन म सी नयर कंस टट बनाए जाने क पेशकश क जाती, तो उसे बड़ी वन ता से
ठु करा कर, बदले म व क म हो ा बस या को यार करने का अ धकार माँग लेता।
जब वो बु ा गाडन पाक म तमाम सारे कप स को मुह बत करते ए दे खता, तो वो
बस यही तम ा करता क एक दन उसके पास भी या आकर बैठे और उससे यार से बात
करे। वो हौले से उसके बाल पर हाथ फराकर कहे, ‘ व क म हो ा, आई लव यू।’ वो
‘आई’ और ‘लव’ के बीच कोई और घुसपै ठया या लाग़-लपेट नह चाहता था। ‘आई
रयली लव यू’, ‘आई ए मली लव यू’ या फर ‘आई डीपली लव यू’ कहे जाने क
े ई ी ो ो ईऔ े ी ो े
फ़रमाइश उसे क़तई नह थी। वो तो बस आई और यू के बीच म लव को दे खना चाहता था।
उसे कसी भी तरह के लव से परहेज़ नह था। इ क़ वाला लव, मी वाला लव, ख़ुसरो
वाला लव, म स एंड बूंस वाला लव, या फर समीर के सदाबहार हट् स वाला लव। वो उन
सबसे गुले-गुलज़ार हो सकता था, बशत वो लव या के साथ वाला लव हो।
चूँ क या अभी तक आई नह है और व क अकेले बोर हो रहा है इस लए म इस
ख़ाली समय का फ़ायदा उठाकर आपको व क के बारे म कुछ और ज़ री-सी बात बता
दे ता ँ।
जैसे क व क म हो ा, व क का असली नाम नह था। उसका असली नाम सुधीर
कुमार था। ले कन ये नाम उसे लूज़र वाला लगता था। उसके हसाब से ये ब त लाज़मी
बात थी क आज कल क लड़ कयाँ सुधीर नाम सुनते ही बदक जाएँ। जहाँ सुधीर नाम म
एक ग़रीब-सा दे हातीपना था, वह व क म हो ा नाम म एक अजीब-सा तबा था। वो
एक अरसे से सोचता रहा था क सुधीर नाम को तलांज ल दे कर एक नया नाम रख लया
जाए, ले कन उसे समझ नह आ रहा था क वो नया नाम आ ख़र हो या
वो नए नाम क तलाश म भटक ही रहा था क एक दफ़ा उसने शाह ख़ खान क
बाज़ीगर दे खी। जसमे शाह ख़ अपना नाम अजय शमा से बदलकर व क म हो ा रख
लेता है और नाम बदलते ही, मदन चोपड़ा (यानी क दलीप ता हर), व क म हो ा क
क़ा बलीयत से ख़ुश होकर व क को अपनी बेट काजोल और ‘पावर ऑफ़ अटन ’ स प
दे ता है।
व क म हो ा हार कर जीतने वाला इंसान था। व क म हो ा बाज़ीगर था।
उस दन सुधीर कुमार रात भर ये सोचता रहा क शाह ख़ ने अपना नाम बदलकर
व क ही य रखा वो शाह ख़ है, कोई असरानी या जगद प तो है नह क कुछ भी
बना सोचे समझे कर दे ता। और अगर उसका नाम सुधीर ही होता, तो या मदन चोपड़ा
उसे पावर ऑफ़ अटन दे ता इस बात को समझने के लए उसने अपने दमाग़ म उस सीन
के कई रीटे क लए।
“सुधीर, ये लो पावर ऑफ़ अटन ।”
“सुधीर, म तुमको पावर ऑफ़ अटन दे ना चाहता ँ।”
“सुधीर, तुम बड़े क़ा बल हो। म अपनी पावर ऑफ़ अटन तु हारे नाम करता ँ।”
“सुधीर ये लो सुधीर सुधीर .. ”
शट
कसी भी तरह से ‘सुधीर’ ‘पावर ऑफ़ अटन ’ के साथ फट नह हो पा रहा था। पर
जैसे ही व क म हो ा ने पावर ऑफ़ अटन क तरफ़ हाथ बढ़ाया, मदन चोपड़ा ने तुरंत
“ ई ी े े ो ोऔ
कहा “ व क माई वाय, लीज़ तुम कुछ दन के लए मेरा कारोबार संभाल लो और म
बे फ़ होकर, इन झंझट से र, थोड़े व त के लए छु ट ले पाऊँ।”
बदले म व क म हो ा हकलाते-हकलाते हँसा।
य द सुधीर कुमार हकलाते ए हँसकर मदन चोपड़ा से हाथ मलाता तो चोपड़ा उसक
जालसाज़ी तुरंत पकड़ लेता। ले कन चूँ क उसका नाम व क म हो ा था, इस लए मदन
चोपड़ा उसक चालाक नह पकड़ पाया। मदन चोपड़ा जो ख़ुद एक छँ टा आ हरामी
था। मदन ख़ुद तो बेवक़ूफ़ बना ही, अगले ही सीन म काजोल शाह ख़ के बाल से खेलती
ई पाई गई।
जैसे काजोल शाह ख़ के आग़ोश म समा गई थी उसी तरह बु ा गाडन पाक म तमाम
ेमी जोड़े एक- सरे के आग़ोश म समाए ए थे। उ ह दे खते ए और या का इंतज़ार
करते ए, व क यही सोच रहा था क अगर उसने या को अपना नाम सुधीर कुमार
बताया होता तो या वो उससे पाक म मलने के लए तैयार होती
शायद नह ।
‘शायद नह ’ या, ‘पूरा नह ’ वाला नह ।
उसने सोचा क अगर उन दोन क शाद का काड छपता तो ‘ या वेड्स सुधीर कुमार’
कतना बेढंगा लगता।
ऐसा नह है क व क ने एकबारगी ही या को यार करने (या फर छू लेने) का
सपना दे ख डाला था। छू लेने क बात तो सोच पाने म उसे तमाम साल लग गए थे। वो तो
शाह ख़ क वचारधारा का था जो कहता था क यार दो ती है। उसे मोहनीश बहल
एकदम पसंद नह था य क उसने ‘मने यार कया’ फ़ म म सलमान और भा य ी क
प व मुह बत का मज़ाक़ ये कहकर उड़ाया था क ‘एक लड़का और लड़क कभी दो त
नह हो सकते।’
एक दन व क ने या से कहा था क मोहनीश बहल बेहद ही नीच क़ म का इंसान
है और उसे इस तरह के लड़क से हमेशा बचकर रहना चा हए। या भी व क क हरेक
बात से इ ेफ़ाक़ रखती थी और वो दो ती क कसौट को अ वल नंबर से पार करने के बाद
ही यार के हायर-सेक ी म दा ख़ल होना चाहती थी।
व क क इस सोच को समझ पाने के लए हम व क म हो ा के डी.एन.ए. को
पकड़कर हौले-हौले, सरे से पूँछ तक, समझना होगा और कुछ साल पहले के व क
म हो ा क ज़दगी म टहल कर आने क मश क़त करनी होगी।
टहल आने म कोई बुराई भी नह है य क या अभी तक नह आई है और व क ने
उसके इंतज़ार म एक गो ड लेक सुलगा ली है।

ो ( ी ी ) े े
व क म हो ा (यानी क सुधीर कुमार) छठव क ा से लेकर बारहव क ा तक एक
ऐसे कूल म पढ़ा था जहाँ पर लड़ कयाँ नह पढ़ती थ । पढ़ते तो वहाँ लड़के भी नह थे
ले कन कूल ज़ र आते थे। लड़ कयाँ उस कूल म वैसे ही नह आती थ जैसे हथेली पर
बाल या बाल म खाल। ये एक वा ज़ कूल था। इसे कूल नह , व ालय कहा जाता था
और यहाँ पर लंगोट, व ान से कह यादा मह वपूण फ़लसफ़ा आ करता था। मुह बत
फ़ म के अ मताभ ब चन क तरह इस व ालय का सपल परंपरा, त ा और
अनुशासन क ढपली बजाता था और अ मताभ से भी चार क़दम आगे सदाचार, संयम और
चय को जीवन का सबसे ज़ री पहलू समझता था।
यह एक हॉ टल था जहाँ से बाहर नकलने क अनुम त महीने म एकाध बार ही द
जाती थी। बाहरी नया से ता लुक़ रखने के लए फ़ म और मोबाइल फ़ोन भी यहाँ
मय सर नह थे। ऐसा माना जाता था क फ़ म हमारी सं कृ त और स यता का वनाश
करने के लए बनाई जाती ह और इसम ज़ र वदे शी ताक़त का हाथ है। कुछ एक मनचले
क़ म के लड़क ने दो-एक बार व ालय क बाउं ी फाँदकर सनेमाघर जाने क को शश
क , तो सपल साहब ने उनका सर मुड़वा कर दन भर के लए उ ह च पल के ढे र म
बठाकर रखा।
ऐसे माहौल म पढ़ते- लखते, जब व क म हो ा एक आदश बालक बनने क पुरज़ोर
को शश कर रहा था तब उसके अ धकतर दो त गंद फ़ म दे खने म मगन थे। ले कन तब
भी व क म हो ा अपने भीतर पैदा होती कसी भी कार क ‘वासना’ पर क़ाबू पाना
चाहता था और चय का वलंत उदाहरण हो जाना चाहता था।
पर तुरा ये, क व क तो च र वान था ले कन उसका हाथ च र हीन क़ म का था।
उसका दमाग़ दाएँ चलने को कहता था तो उसका हाथ चुपचाप बाएँ चल आता था।
कभी-कभी उसका जी करता था क वो अपना हाथ काटकर फक दे । ले कन हाथ काटने के
लए भी हाथ क ज़ रत होती है। वो यादा-से- यादा एक हाथ ही काट सकता था
ले कन ऐसा उसने इस लए नह कया य क उसे पूरा यक़ न था क एक हाथ क
अनुप थ त म, उसका सरा हाथ वो ज़लील हरकत करना कभी नह छोड़े गा।
ले कन इन इ का- का मौक़ क बात छोड़ द जाए तो व क म हो ा एक आदश
बालक था और ऐसा ब कुल नह है क व क अपने च र क इस कमज़ोरी पर श मदा
नह होता था। व क म हो ा कुंठा, यानी क े शन का शकार होता जा रहा था और
अपनी हर नाकामी पर उसे गंभीर प से अपराधबोध होता।
इस लए उसने क़सम खाई थी क बारहव क ा पास करने तक व क इन सब ग़लत
हरकत से पूरी तरह री बनाकर रखेगा और इसी क़सम के चलते, तब जब क कॉ वट म
पढ़ने वाले लड़के-लड़ कयाँ लव यू, मस यू और ड् स फॉर-एवर वाले यूट ी टग काड् स

े े े ो े ी
ए सचज करने म लगे ए थे, उस व त हमारा व क म हो ा आसाराम बापू के अजीम
शाहकार ‘यौवन सुर ा’ म अपना माथा फोड़ रहा था।
हो सकता है क आप ये भी समझ रहे ह क इसका व क म हो ा के यार या फर
व क म हो ा के सपने से घंटा लेना-दे ना नह है ले कन मुझे लगता है क ये सब बताना
बेहद ज़ री है और अगर म आपको ये सब नह बताऊँगा तो आप ये कभी नह समझ
पाएँगे क व क इतनी श दत से या को यार करना और छू ना य चाहता था।
या। जो क यहाँ अपने घर से बु ा गाडन पाक के लए नकल चुक थी और उसने
पीले रंग का सलवार सूट पहना आ था और प टे पर नीले रंग क छ ट का सुंदर काम
था। उसने ऑटो म बैठते ही व क को मैसेज भेजा “री चग इन टे न मनट् स डयर।”
व क ने मैसेज को पढ़ते ही सगरेट बुझा द और अपनी आँख को बंद करते ए गहरी
साँस ली।
पता नह उसने गहरी साँस को शश करके ली थी या फर या का मैसेज पढ़ने से उसे
गहरी साँस ख़ुद-ब-ख़ुद आ गई। य क साँस उसे ऐसे ही आई थी जैसे बा रश म गीली
म ट क महक उठने पर भु टा खाने क तलब आती है या फर फरवरी क लंबी सद रात
क आमद पर चाय का गलास हाथ म पकड़ने क तलब अपने आप ही आती है।
व क आँख म च कर मनट भर के लए एक नई सुनहरी नया म कूद गया और वो
अपनी बढ़ ई धड़कन को सुन सकता था। वहाँ बस व क था और या थी। वहाँ वो
या को छू सकता था और या उसक छु अन पर सहर रही थी, खल रही थी और बना
कुछ कहे व क को ये जता- सखा रही थी क वो उसे कहाँ-कहाँ और कैसे-कैसे छू सकता
है। छू लेना व क के लए जान लेने जैसा था। एक ऐसी गु थी को सुलझा लेने जैसा था
जसे वो तमाम साल से सुलझाना चाहता था। ले कन व क या को डरते- सहरते ही छू
रहा था, उतना ही जतना क ज़ री हो। उतना क जतना यार म कया जाता हो।
ज द ही व क क आँख ये सोचते ही खुली क उसे बाबा-इलायची या पपर मट खा
लेना चा हए। उसने हड़बड़ी म जेब म हाथ डाला तो क़ मत से मट क दो गो लयाँ बची
ईथ।
या का इंतज़ार करते ए, मट क गो लयाँ खाते ए व क सोच रहा था
1. या उसे या को बता दे ना चा हए क उसका असली नाम ‘सुधीर कुमार’ है
2. या या, सुधीर कुमार को उसी तलब-तड़प से चूमेगी जससे क वो व क
म हो ा को चूमने वाली है
3. या या सुधीर कुमार को ‘चुंबन’ दे ने से उसी तरह मुकर जाएगी जस तरह से
व क के ख़याल म मदन चोपड़ा सुधीर कुमार को पॉवर ऑफ़ अटन दे ने से मुकर गया
था
े ी ो ो ी े
व क ने लकड़ी का एक छोटा-सा टु कड़ा उखाड़ कर, पोली म ट पर पहले सवाल
का जवाब लखा “नह ।” वैसे तो सरे सवाल का जवाब भी ‘नह ’ ही होता ले कन तुरंत
उसका जवाब ‘न’ म लख दे ना उसे अपने प व पाक यार (‘ यार दो ती है’ से शु ए
यार) का अपमान मालूम आ। इस लए उसने सरे सवाल का जवाब लखा ‘शायद’
और वो तीसरे सवाल क ओर बढ़ चला।
तीसरा सवाल बेहद पेचीदा था और व क उसका जबाव सोच ही रहा था क उसने
एक जानी-पहचानी ख़ुशबू महसूस क ।
या क ख़ुशबू।
टै लकम पाउडर क ख़ुशबू। डयो ट क ख़ुशबू। धुले ए बाल क ख़ुशबू।
वो एक छोटे ब चे के उ साह से पीछे मुड़ा तो उसका चेहरा या के प टे से ढक
गया। या व क के चेहरे से अपना प टा हटाए बना व क क बग़ल म बैठ गई
य क उसे हर बार से कुछ अ धक शम आ रही थी। ‘कुछ अ धक’ इस लए य क वो
कभी व क से सटकर नह बैठती थी।
अमूमन व क से न सटने क वजह ये थी क उसे ‘सटने’ क क पना मा से ही
‘हरारत’ होने लगती थी। हरारत इस लए य क वो शायद कभी कसी से (अपनी इ छा से)
सट नह थी। उसने अपनी मज़ से कसी क छु अन को दे र तक महसूस नह कया था।
हालाँ क, छु अन से उसका प रचय आ ज़ र था ले कन छु अन उसे अ छा अनुभव
दे कर नह गई थी। छु अन उसके ह से म या तो तब आई थी जब उसने उसक वा हश
नह जताई थी या फर तब आई थी जब वो ये समझने के लायक़ भी नह थी क छु अन के
समीकरण के वै रएबल या- या होते ह।
छु अन क क शश और श दत के लहाज़ से व क और या एक ही पेज़ पर थे। वो
इस समय एक- सरे से सटे ज़ र थे ले कन इसके आगे क कायवाही फ़लहाल उनके बस
के बाहर थी। उन दोन के बीच बस यही संभव हो पाया था क व क क बड़ी उँगली,
या क छोट उँगली से गले मलने आ प ँची थी। ये आ लगन उन दोन के बीच का
अकेला-पहला संपक सू था।
जैसे कसी ने बजली के पतले तार से, बजली के मोटे तार पर क टया मार द हो और
बजली का आदान- दान शु हो गया हो।
क टया मारते ही, व क और या एक- सरे क साँस क आवाज़ साफ़-साफ़ सुन
सकते थे। य क इस व त उनक सारी इं याँ अपनी मता से अ धक काम कर रही थ ।
वो अ धक सुन सकते थे, अ धक दे ख सकते थे, अ धक छू सकते थे, अ धक सूँघ सकते थे
और अ धक वाद ले सकते थे।

े औ ी ी े ी औ े
ये व क और या क ज़दगी का अभी तक का सबसे हसीन ल हा था। और सबसे
ताक़तवर भी। ताक़तवर इस लए य क इस छोटे से ल हे ने भारी-भरकम व त को रोक
दया था। वो व त जो कभी कसी के लए कता नह है, उसे इस चूज़े से ल हे ने कान
पकड़कर बठा दया था।
व क और या जब भी इस दन को याद रखगे तो इसी बात के लए याद कया
करगे क इस दन उन दोन ने एक- सरे को पहली बार छु आ था। हालाँ क, बाक़ क
नया इस दन को ‘य द’ याद करेगी तो कुछ ज़ री और मह वपूण बात के लए याद
करेगी। मह वपूण। जैसे क इस दन यमन क म ल और अल क़ायदा क मुठभेड़ के
बीच 46 लोग मारे गए।
ईरान के रा प त ने सी रया क सरकार से ‘ स वल वार’ के सल सले म बात-चीत
करने क इ छा जताई।
ए पल ने जापान म आई फ़ोन 5S और 5C लांच कया।
अरमानी ने मलान म ंग-समर कले शन पेश कया
और एले स रो ीगेज़ ने यूयाक यक स के लए 24 ड लैम होमर स का रकाड
बनाया।
फर भी, व क और या क ेम कहानी, इन बेहद-ज़ री घटना के बीच, अपनी
गैर-ज़ री उप थ त दज कराने क क मकश म उबाल ले रही थी।
तब, जब क वो दोन इ तहास के इस ल हे म अमर हो जाना चाहते थे। व क ने
अचानक महसूस कया क कसी ने उसक पीठ पर लकड़ी क छड़ी (या फर डं डे) से ज़ोर
का वार कया है।
व क ने मुड़कर दे खा, तो मोहनीश बहल जैसा दखने वाला एक पु लसवाला, दो
पु ष और तीन म हला पु लसक मय के साथ खड़ा, ग़ से म फनफना रहा था। मोहनीश
बहल और और उसके पाँच सा थय ने पूरी उदारता के साथ, अपने-अपने मुँह से गा लय
का फ़ वारा खोल रखा था।
जस तरह सभी न दयाँ और झरने, आ ख़रकार, समंदर म मल कर समंदर हो जाते ह
और उनका ख़ुद कोई अ त व नह बचता। उसी तरह मोहनीश और उसके सा थय क
गा लयाँ, अपना ग़ाली-नुमा ग़लीज़ अ त व खोकर, व क क माँ-बहन म मलकर माँ-
बहन हो जा रही थ । हालाँ क, व क को गा लय क जगह, बस यही सुनाई दे रहा था
“एक लड़का और लड़क कभी दो त नह हो सकते।”
हालाँ क, मोहनीश बहल कुछ और कह रहा था।

“ े ी ी ै ो ो े ी ई
“साले, बड़ी आग लगी है तुम लोग को। डं डा मार-मार के आज सारी अगन न बुझाई
तो म अपने बाप का नह । इतनी ही खुजली है तो साले होटल य नह कर लेते हो तुम
लोग ”
अचानक पाक म साफ़ा बाँधे ए तमाम नवयुवक फूटकर बखर आए जो एक मनट म
दे श क स यता और सं कृ त को नुक़सान प ँचाने वाले लड़के-लड़ कय को ऐसा सबक़
सखा दे ना चाहते थे जो उ ह ज़दगी भर याद रह जाए (म आपको उनके साफ़े का रंग नह
बताऊँगा)। जब तक व क कुछ समझ पाता, उनम से एक ‘क चर- व जला टे ’ ने या
के बाल पकड़ कर उसे ज़मीन पर पटक दया और उसे कसकर थ पड़ रसीद दया।
मोहनीश बहल ने इस बात का वरोध नह कया और उसक म हला पु लसकम
सा थय ने ‘क चर- व जला टे ’ क हरकत से ‘ यू’ लेते ए या को थ पड़ रसीदने क
कायवाही आगे बढ़ानी शु क । बेसुध होती ई या इस बात से हैरान हो रही थी क ये
कौन-सी म हलाएँ ह जनके हाथ म पु ष से अ धक जान है ताक़त भी और वहशीयत
भी। एक व त ममता स चने वाले इन हाथ म इतनी नममता कहाँ से आ ठहरती है
वो च लाते ए ये भी पूछ रही थी क वो उसे य मार रही ह और आ ख़रकार उसने
ऐसी या ग़लती कर द है क उसके साथ ऐसा बताव कया जा रहा है। जो हद दज क
ग़लीज़ औरत के साथ कया जाता है।
वैसा बताव, जैसा उसका मामा, या क मामी के साथ करता था य क उसक मामी
अ सर घर से बाहर जाने पर प टा लेना भूल जाती थी। उसके हसाब से ये ग़लीज़ औरत
क पहली नशानी आ करती थी। ले कन या तो आज भी प टा डालना नह भूली
थी।
व क , जो अभी तक जड़ खड़ा था, वो ज़ोर से च लाया। और इतनी ज़ोर से
च लाया क म हला पु लसकम काँप ग । मोहनीश बहल व क क इस धृ ता पर ग़ से
म आगे बढ़ा और उसने व क का कॉलर पकड़ लया। व क ने उसका हाथ अपने कॉलर
से छु ड़ाते ए उसके पेट पर ज़ोर क लात मार द ।
“साले पु लस वाले हो तो या लड़क पर हाथ उठाओगे तुम लोग। या को मारोगे
तुम। साले हाथ ही तो पकड़े ए थे और या कर रहे थे। तुम साला दो कौड़ी का आदमी
जान ले लगे हम तु हारी।”
व क मोहनीश बहल क छाती पर बैठ गया था और घूसे मार-मार कर उसका मुँह
तोड़ दे ना चाहता था। मोहनीश बहल क नाक से ख़ून का फ़ वारा फूट पड़ा था। ये वो
ग़लती थी जो व क को नह करनी चा हए थी। सारे सपा हय और साफ़ा-धा रय ने
व क को ध का मारकर ज़मीन पर पटक दया।

ो ी ी े ो ँ ो े
थोड़ी ही दे र म व क म हो ा ख़ून म लथड़ा आ पड़ा था। आँख पर ख़ून होने क
वजह से वो ये भी नह दे ख पा रहा था क या रोते ए, कान पकड़ कर, उठक-बैठक
लगा रही थी और साफ़ा पहने ए लोग ( जसका रंग म आपको नह बताना चाहता) बीच-
बीच म, या को, इधर उधर छू कर ढं ग से उठक बैठक करने का आदे श दे रहे थे। या के
पीले रंग के सलवार सूट का प टा ( जस पर नीले रंग क छ ट का सुंदर काम था) ज़मीन
पर गर गया था, जसे वो उठक-बैठक लगाने के दौरान उठा लेना चाहती थी। ले कन
उसक इस वा हश को ये कहके ख़ा रज कर दया गया क जब वो यहाँ प टा सरकाने
ही आई थी, तो अब उसे उठाने का नाटक य कर रही है।
वो या को आज ऐसा सबक़ सखाना चाहते थे जससे क वो बारा उनक सं कृ त
और स यता को खुले म गंदा करने से पहले दस बार सोचे। उनम से एक ने या को बताया
क वो रंडी है। सरे ने या को छाती पर छू कर पूछा, “ब त आग लगी ई है यहाँ ”
तीसरे ने सलाह द क उसके जैसी छनार को जीबी रोड पर जाकर बैठ जाना चा हए।
व क म हो ा आँख पर ख़ून होने क वजह से ये भी नह दे ख पा रहा होगा क या
रोते-रोते पाक से बाहर भाग रही है। वो बे-इंतहा डरी ई है। इतना क अब वो शायद बारा
कभी व क का फ़ोन भी नह उठाएगी। म हला पु लसकम ने केस को वह शट-डाउन
करने क इ छा से या के घर वाल को इस बात क इ ला कर भी द थी क उनक बेट
एक नंबर क छनाल है।
या (उफ़ छनाल) भागते ए ये सोच रही थी क आज अगर वो घर नह जाएगी तो
कहाँ जाएगी। उसके घर म उसक जैसी लड़ कय के लए कोई जगह नह थी। य क
उसके घर म पहले उसके मामा के लए जगह थी। उसके बाद या के लए।
आँख पर ख़ून होने क वजह से व क म हो ा ये भी नह दे ख पा रहा होगा क फटे
कपड़ म या बु ा पाक से धौला कुआँ क रोड क तरफ़ बेसुध दौड़ रही है और भारतीय
स यता के चार र क एक ज सी म उसका पीछा कर रहे ह। या के फटे कपड़े , फट ई
भारतीय सं कृ त को उजागर कर रहे थे और या (उफ़ छनाल) इतना भी नह समझ रही
थी क फटे कपड़ म सड़क पर दौड़ना भारतीय स यता को कस हद तक शमसार कर रहा
था
ये तो भला हो भारतीय स यता के उन र क का, जो साफ़ा बाँधकर ज सी म आए
और या को गाड़ी म डालकर धौला कुआँ के बयाबान क ओर ले गए और वहाँ उसे ऐसा
सबक़ सखाया क अब वो कभी भी इतनी घ टया हरकत करने क को शश नह करेगी।
इधर, बु ा गाडन म व क म हो ा जैसे-तैसे सुध बटोर कर वापस उठा और वो
दोबारा मोहनीश बहल को गराकर उसक छाती पर बैठ गया और अपने हाथ क पूरी
श बटोरकर उसने मोहनीश को तब तक घूसे मारे जब तक क च र के र क ने पीछे से
मार-मार कर व क को अधमरा नह कर दया।
ै े ो ी ी
वैसे तो व क च र वान था। मगर उसका हाथ ही च र हीन क़ म का था।
19 तयाँ 57

ये बात तब क है जब म तक़रीबन आठ साल का रहा ँगा। म पापा के वे पा कूटर क


आवाज़ कतनी भी र से सुन लया करता था। कभी-कभी तो पापा के आने के पाँच-सात
मनट पहले ही म माँ को बता दे ता था क पापा अब घर के पास वाले चौराहे पर प ँच चुके
ह गे और अब धीरे-धीरे ढलान से कूटर नीचे उतार रहे ह गे। ऐसा सचमुच होता भी था, क
कुछ ही मनट म पापा का वे पा हमारे दरवाजे पर आकर ‘पी-पीप’ क छोट आवाज़
करता था। छोट आवाज़ इस लए य क पापा को शोर बलकुल पसंद नह था।
माँ कहती थी क पापा रोज़ ही सवा सात बजे घर आ जाते ह। इस हसाब से तो कोई
भी अंदाज़ा लगा सकता है क अब वो घर आने वाले ह गे। पर मुझे लगता है क म सच म
कसी छठे से स से उनका आना महसूस कर सकता था। जैसे ची टयाँ, कु े और पंछ
ब त-सी ऐसी बात के ‘होने’ का अंदाज़ा व त से पहले ही लगा लेते ह, जनका पता हम
बड़ी-बड़ी योगशालाएँ बनाकर भी नह लगा पाते।
म ये भी बता सकता था क कूटर को टड पर खड़ा करते ही पापा, माँ को स जी का
थैला ज़ म रखने के लए कहगे। माँ कचन म होने क वजह से स जी को ज़ म रखने
क बात दो-तीन बार म भी नह सुन पाएगी ले कन पापा नाराज़ ए बना, तीसरी या चौथी
बार वही बात च लाकर कहने के बजाय, ख़ुद ही स जी का थैला ज़ म रख दगे। ये
सल सला हर रोज़ होता था पर माँ को शायद इस बात का पता इस लए नह चल पाया
होगा य क कसी क भी आवाज़ आँगन से कचन तक च लाए बना नह जा सकती
थी। पापा ने च ला कर कहने क को शश शायद इस लए भी नह क होगी य क ऐसे
च लाना सफ़ ‘ च लाना’ नह होता, ब क वो ‘माँ पर च लाना’ हो जाता। माँ बीमार
रहती थी और पापा उनक हर छोट -बड़ी बात का पूरा ख़याल रखते थे।
म ये भी बता सकता था क आज भी पापा के ांसफ़र क दर वा त क मंज़ूरी नह
ई होगी। इस लए वो थोड़ा-सा परेशान दखाई दे रहे ह। बड़े बाबू ने आज फर पापा को
शराब म साथ दे ने के लए घर बुलाया होगा ले कन पापा ने मु कुरा कर मना कर दया
होगा। बड़े बाबू ने फर यही सलाह द होगी क अगर आप चीफ़ साहब को शराब क पाट
का नमं ण दगे तो आपका ांसफ़र तुरंत हो जाएगा। पर पापा ने उस सलाह को भी मु कुरा
कर टाल दया होगा। य क पापा द तर से सीधे घर आना पसंद करते थे।

े ो े ो
दरअसल, द तर से घर आकर पापा को मुझे ग णत पढ़ाना होता था। य क म ग णत
म कमज़ोर था। इसका मतलब ये आ क पापा का ांसफ़र मेरी वजह से ही का आ था
और जब तक मेरा ग णत मज़बूत नह होता हम कानपुर नह जा सकते थे। इसका मतलब
ये भी आ क कानपुर जाने के लए मुझे मेहनत से पढ़ाई करना शु कर दे ना चा हए था।
ले कन म ऐसा कर नह पा रहा था य क मेरा मन खेलने म यादा लगता था।
मुझे कभी-कभी इस बात पर बुरा भी लगता था, अपराधबोध भी होता था। ले कन म
ज द ही उस ‘बुरा लगने’ को भी भूल जाता था। बचपने क सबसे अ छ बात यही होती है
क उस दौरान कोई भी बात, कतनी भी बार रट-रट कर भी दमाग़ म बठाई गई हो, वो
घड़ी-दो-घड़ी म ही दमाग़ के पजरे से नकल कर उड़नछू हो जाती है।
यूँ ही हर बात भूल जाना कतना सुखद होता है, ये बात मने बड़े हो जाने के बाद
समझी है। जब म चाह कर भी ऐसी तमाम सारी बात नह भूल पाता ज ह याद रखने से
सारी-सारी रात दमाग़ म उलझन बनी रहती है।
बचपने म तो म ये भी भूल जाया करता था क मेरे घुटने म चोट लगी ई है और फूटे
ए घुटने के साथ म घंट धूप म केट खेलता रहता था। चोट क याद भी मुझे तब ही
आती थी जब मुझे नहलाते ए, ग़लती से माँ का हाथ घुटने से छू जाए या बस तो मुझे ऐसा
लगे क माँ का हाथ मेरे घुटने से छू गया होगा और फर म घंटे भर रोता रहता था।
भूल जाने से मेरा मतलब ये नह है क कोई बात आपके दमाग़ के र ज टर से हमेशा
के लए मटा द जाए। भूल जाने का मतलब ये समझना चा हए क कसी चीज़ क
मौजूदगी, उसके होने के बावजूद भी, ग़ैर-मौजूदगी-सी लगे। जैसे तमाम बार, य द कोई
आपको ये अहसास दलाए क आपक ज़दगी म कतना-कुछ तो है, फर आप खी य
ह, तो आपको अचानक से अ छा महसूस होने लगता है। और ऐसा सच म लगने लगता है
क हाँ, ख़ुदा क द ई कतनी ही नेमत मेरे कबड म क़रीने से सजी ई ह म बस उ ह दे ख
नह पा रहा ँ।
ये दे खो .ये रही ख़ुशी। उस कताब क बग़ल म।
हाँ, तो म ये कह रहा था क म ये बात भूल जाता था क मुझे ग णत क पढ़ाई अ छे से
करनी चा हए और एक से लेकर बीस तक के पहाड़े मुँह-जबानी याद कर लेने चा हए।
ले कन बार-बार रटने के बाद भी म पहाड़ा भूल जाया करता था, ख़ास तौर पर स ह और
उ ीस का पहाड़ा। म बीस का पहाड़ा कभी नह भूलता था। पापा को भी ये बात अ छ
तरह पता होती क मुझे बीस का पहाड़ा ज़बानी याद है और वो जान-बूझकर उ ीस का
पहाड़ा सुनाने को कहते थे।
म पहाड़ा गाना शु करता था। बना गाए पहाड़ा कह पाना मेरे लए संभव नह होता।
कई-कई बार तो म पहाड़ा सफ़ इस लए भूल जाता था क मने उसे जस लय म याद कया
था म वो धुन भूल चुका होता। हालाँ क, पापा को लगता था क म पहाड़ा भूल गया ँ पर
े ै े े ै
म उ ह ये बात कैसे समझाता क असल म मुझे पहाड़ा याद है, बस धुन नह याद आ पा
रही।
उ ीस एकम उ ीस।
उ ीस नी अड़तीस।
उ ीस तयाँ उ ीस तयाँ
म कभी नह बता पाता था क उ ीस तयाँ स ावन होता है। कभी-कभी मुझे इस बात
पर ब त ग़ सा आता था क उ ीस तयाँ स ावन य होता है। स ावन मुझे एक बेहद
घ टया नंबर लगता था ले कन पापा कहते थे क स ावन एक बेहद यारा नंबर है य क
सन् 1857 म हमने आज़ाद क पहली लड़ाई छे ड़ी थी।
हाँ तो, हमने बेशक स ावन म आज़ाद क मु हम शु क होगी ले कन स ावन ने
मुझे ग णत क लैक-एंड- हाइट कताब और एक छोटे से नीरस क़ बे म क़ैद कर र खा
था। म आज़ाद होकर कानपुर के बड़े -बड़े मैदान म केट खेलने नह जा पा रहा था।
काश उ ीस एकम बीस होता उ ीस नी चालीस और उ ीस तयाँ साठ होता तो म
कानपुर म केट खेलकर केटर बन जाता। ले कन ये मुआ स ावन अपनी गंद , बेढंगी
श ल लेकर उ ीस के पहाड़े म सफ़ इस लए घुस गया ता क म, कभी भी केटर ना बन
पाऊँ।
स ावन के अंक क केट से मनी क बात मुझे तब पता चली जब टाइटन कप म
स चन दो बार स ावन पर आउट हो गया। हालाँ क, पापा ने कहा क ग़लती स चन क ही
थी और उसे रा ल वड़ क तरह ऑफ़ साइड क गद से छे ड़छाड़ नह करनी चा हए थी।
उसे सावधान रहना चा हए था।
पापा स चन को पसंद नह करते थे। उ ह रा ल वड़ पसंद था य क वड़ एक
बेहद ज़ मेदार खलाड़ी था और वो अ छ तरह से जानता था क उसक एक ग़ैर-
ज़ मेदाराना हरकत पूरे दे श को श मदा कर सकती है। इससे भी यादा वो ये बात समझता
था क लोग उसे द वार य कहते ह।
पापा हमारे घर क सबसे मज़बूत द वार थे। हम उनक हर एक बात पर आँख मूँद कर
भरोसा कर सकते थे। वो कतना कुछ जानते थे उस व त गूगल नह होता था पर पापा
होते थे। शायद गूगल उस व त रहा भी हो पर हम उसके ‘होने’ का पता इस लए भी नह
चला होगा य क पापा के ‘होने’ से हम गूगल के ‘होने’ क ज़ रत ही महसूस नह ई
होगी।
पापा सब कुछ बता सकते थे। म पापा से पूछता था क माँ क बीमारी ठ क तो हो
जाएगी न पापा मु कुराकर कहते थे क माँ को कुछ नह होगा, उ ह बस ह क -सी खाँसी

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ई है। म एकदम न त हो जाता था। एक दफ़ा माँ को खाँसी के साथ ख़ून के थ के भी
आए, पर पापा ने कहा क अब ऐसा बारा नह होगा। वो माँ को कानपुर के सबसे अ छे
डॉ टर को दखलाएँगे। और पापा अगले ही दन माँ को लेकर कानपुर गए भी।
उसके बाद मने कभी माँ क खाँसी म ख़ून आता आ नह दे खा।
पापा इसी तरह हमारी हर सम या का समाधान कर दया करते थे। हमारी सम या माँ
क बीमारी जतनी बड़ी हो सकती थी और कूल खुलने पर ढे र सारी कॉपी- कताब पर
कवर चढ़ाने जतनी छोट भी। या फर वो अलमारी के ऊपर सामान चढ़ाने जतनी ऊँची
भी हो सकती थी। पापा खड़े -खड़े ही अलमारी के ऊपर सामान रख सकते थे।
उनका क़द ब त ऊँचा और रौबदार था।
पापा जब हमारी कताब और कॉ पय पर कवर चढ़ाते थे तो कताब कतनी सुंदर
लगने लगती थ वो हर एक काम कतने व थत और सुलझे तरीक़े से करते थे पहले
कवर को ज़मीन पर बछाया जाता था, फर उस पर कताब क नपाई होती थी, जससे
कम-से-कम कवर बेकार हो। बड़े र ज टर क बग़ल म पापा सं कृत क छोट वाली कताब
लगा दे ते थे। हम घर म असे बली लाइन क तरह काम करते थे। पापा का काम कवर को
कची से काट कर, कताब को कवर म लपेटना होता था, उसके बाद म कवर क लंबाई
और चौड़ाई को कताब क द ती म दबाकर द द क तरफ़ बढ़ा दे ता था। द द फटाफट
उसपर टे पलर लगा दे ती थी। अगर माँ क त बयत ठ क होती थी तो वो कताब पर रंग-
बरंगी चट चपका दे ती थी, नह तो वो काम भी द द ही कर दे ती थी।
माँ पापा क समझ पर जान छड़कती थी। वो मुझे अ सर ये बताया करती थी क जब
म पैदा आ था तो म डॉ टर क बताई तारीख़ से सोलह दन पहले ही पैदा हो गया था। इस
वजह से म ब त कमज़ोर पैदा आ था। मेरा वज़न सफ़ दो कलो और सौ ाम था। मेरा
सर तकोना और बेढंगा था, इस वजह से माँ को मुझे गोद म लेने से डर लगता था। दाद ने
माँ को समझाया क उसे ह के हाथ से मेरे सर क तेल-मा लश करनी चा हए और मेरे
सर को हौले-हौले गोल करना पड़े गा पर माँ मा लश करने से डरती थी। मेरा सर आटे क
लोई क तरह पोला था, ज़ोर लगाने पर वह और भी बेढंगा हो सकता था। ऐसे म पापा मेरे
सर क मा लश कया करते थे।
पापा क बड़ी-बड़ी हथे लयाँ मेरे सर को ऐसे ढाँप लेती थ जैसे एक मंझा आ कु हार
चाक पर रखे म ट के ल दे को ढाँप लेता है। जैसे एक पेड़ ओस क बूँद को अपनी प ी
पर उतार लेता है। जैसे एक सीप खारे पानी के कतरे को अपने चकने कवच म सँजोकर
उसे मोती बना दे ता है। माँ कहती थी क म भी गीली म , ओस क बूँद और खारे पानी के
कतरे क तरह, पापा क हथेली क सलाहीयत पहचान कर कौतूहल से इधर-उधर मटकने-
ढु लकने लगता था और ख़ुद-ब-ख़ुद मेरा सर गोल होने लगा। हालाँ क, ये एक नय मत और

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धीमी या थी पर ये पापा क हथे लय का ही कमाल था क मेरा बेढंगा सर, सुंदर
दखने लगा।
द द मुझे हमेशा चढ़ाती थी क मेरे सर के एक कोने पर अभी तक एक छोटा गु मड
है ( जसे वो गडे का स ग कहती थी)। ले कन म उसक बात को अनसुना कर दे ता था
य क मुझे पता था क पापा अपने कसी भी काम म कसी भी कार क ग़लती नह
करते ह। हो सकता है क म खेलते समय कभी गर गया ँगा या फर ये गु मड ला टक
क आठ पए वाली मोट -सी गद लगने से नकला होगा।
हाँ, गद लगने से ही आ होगा। गद सीधे सर पर आकर लगी होगी और म उसे हथेली
से रगड़ना भूल गया ँगा। इसी वजह से गु मड बढ़ गया होगा।
मुझे अ सर केट खेलते ए चोट लग जाती थी। कभी घुटना फूट जाता था तो कभी
कोहनी छल जाती थी, इसी लए पापा कहते थे क म केट कम से कम खेला क ँ ।
ले कन म दोपहर साढ़े तीन बजे से ही कॉलोनी म सबके दरवाजे खटखटाना शु कर दे ता
था। एक दन तो म तीन बजे खेलने नकला और रात साढ़े आठ बजे घर लौटा। उस दन
पापा ने मुझे पहली बार मारा।
पापा ने गाल पर ऐसा तमाचा मारा था क म ज़मीन पर गर गया था। वो ग़ से से
झ लाए ए थे और लगभग काँप रहे थे। वो शायद इस लए काँप रहे ह गे य क मारने के
अगले ही ण उ ह मुझे मारने का अपराध-बोध होने लगा होगा और वो ब त बुरा महसूस
करने लगे ह गे। ऐसा एक बार तब भी आ था जब उ ह ने एक शराबी को घूसा मार दया
था, जसने शराब के नशे म हमारी कूटर को ट कर मार द थी और हम ज़मीन पर गर गए
थे। मेरे माथे से ख़ून रसता दे ख उ ह ने आवेश म शराबी को पेट पर घूसा मार दया था
ले कन उसे कराहता दे ख, पापा ने शराबी को सड़क के कनारे एक चबूतरे पर बठाया और
उसक साइ कल कनारे खड़ी कर द ।
द द ने मुझे बताया क आज फर माँ को खाँसी म ख़ून के थ के आए थे। खाँसते-
खाँसते, जब वो दवाई खाने के लए पानी लाने उठ तो उनक छाती का दद बढ़ गया और
खाँसी ब त ज़ोर से आने लगी। उस व त न म घर म था और न ही द द । इसी झ लाहट म
पापा को ग़ सा आ गया होगा, वना वो मुझे नह मारते। उस दन मुझे पापा पर ब त ग़ सा
आया था। इस लए नह , य क उ ह ने मुझे थ पड़ मारा था, ब क इस लए य क
उ ह ने कहा था क माँ ठ क हो जाएगी और उसे कभी खाँसी म ख़ून नह आएगा। पापा ने
झूठ कहा था। उनसे ये समझने म ग़लती ई थी क माँ का इलाज कस तरह से कराया
जाए।
उस दन मुझे ऐसा पहली बार लगा क पापा कोई सुपरमैन-वुपरमैन नह ह। वो बस
पापा ह। शवम, वैभव, र चत, अ भषेक और अतुल के पापा क तरह। और पता नह य

े े े े ी ो े े ो ो ी े
उसके बाद से मुझे पापा के एक मामूली इंसान होने के सबूत हर छोट -छोट चीज़ म मलने
लगे।
उन चीज़ म भी, जो पहले मुझे उनके सुपरमैन होने का संकेत दे ती थ ।
वो बाज़ार म कसी र शे वाले को हड़काकर उसे सामने से र शा हटा लेने को नह
कहते थे। वो इंतज़ार करते थे क र शा वाला जगह मलने पर र शा हटा ले और पापा
गली से कूटर नकाल ले जाएँ। म चढ़कर, र शे वाले से च लाकर कहता था क वो
ज द से अपना र शा, कनारे से नकाल ले नह तो म उसका हडल टे ढ़ा कर ँ गा।
बड़े बाबू अ सर शु वार क बाज़ार म मल जाया करते थे। वो हमेशा क तरह पापा
से कहते थे क कभी उ ह और चीफ़ साहब को पाट पर बुलाएँ पर पापा पहले तो मु कुरा
कर मना कर दे ते थे। फर उ ह ने बड़े बाबू को दे खकर क ी काटना शु कर दया। अब वो
शु वार के बजाय, मुझे श नवार को बाज़ार लेकर जाने लगे। म बड़े बाबू से च लाकर
कहना चाहता था क हमने कोई दा का ठे का नह खोल रखा है क आप और चीफ़
साहब, जब जी करे, तशरीफ़ ले आएँ। अगर आपको दा पीनी ही है तो आप चीफ़ साहब
को ले जाकर, पुरानी माकट म सरकारी शराब क कान से दा य नह ख़रीद लेते ख़ूब
दा पी जए। और, आप और आपके चीफ़ साहब, वह बेहोश होकर म ट म लोट जाइए।
माँ कभी-कभी हारकर कहती थी क अब शायद वो नह बच पाएगी। या तो इस
डॉ टर क दवा असर नह कर रही या फर उ ह एलोपैथी छोड़कर कुछ समय हो मयोपैथी
पर भरोसा करना चा हए। पापा कहते थे क हम ख़ुद से दमाग़ लगाने के बजाए डॉ टर पर
भरोसा करना चा हए। और कौन-सी दवा चलाई जाए, का फ़ैसला भी डॉ टर पर ही छोड़
दे ना चा हए। मुझे लगता था क डॉ टर जान-बूझ कर माँ को असरदार दवा नह दे रहा
ता क वो कम-से-कम साल भर उसे दखाने के लए कानपुर आया-जाया कर और वो हर
महीने हमसे पाँच सौ पए ठ सके।
पापा ब त भोले थे। और जब भी कोई चालाक आदमी हम परेशान करने या बेवक़ूफ़
बनाने क को शश करता था तो वो उसक चालाक को पकड़ नह पाते थे। चालाक आदमी
से मुक़ाबला करने के लए आपका घाघ होना ब त ज़ री है।
मसाल के तौर पर, अतुल के पापा बेहद चालक इंसान थे। पूरी कॉलोनी म सफ़ अतुल
के पापा के पास टाटा सफ़ारी थी और दो ाईवर हमेशा इस बात का ख़याल रखते थे क
सफ़ारी हमेशा उनक वद से यादा सफ़ेद दखाई दे । वो गाड़ी का दरवाज़ा खोलकर हमेशा
उनको सलाम करते और बना आवाज़ कए दरवाज़े को सलीक़े से बंद करते।
अतुल बताता था क आज तक कसी भी नौकर ने उसके घर म थोड़ी भी हेराफेरी
करने क ह मत नह क । उसके पापा को हमेशा पता होता था क उनक कौन-सी जेब म
सौ पए के कतने नोट ह और यहाँ तक क एक पए के स क का भी अंदाज़ा उ ह

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बराबर होता था। एक बार उ ह ने पं ह पए ग़ायब होने का शक होने पर धोबी क इतनी
सुताई क क उसने तुरंत ब नयान क जेब से पं ह पए नकाल कर मेज़ पर रख दए।
धोबी तेरह साल का पतला- बला लड़का था। वो पापा के पास आकर घंट रोता रहा
क वो उसे काम पर रख ल। उसने कहा क उसने सच म कोई चोरी नह क है और उसक
बेवजह पटाई कर द गई। उसका कहना था क वो पं ह पए भी उसने अपनी जेब से
नकाल कर दए थे जो उसने पछले महीने क तन वाह से बचाए थे।
मने पापा को समझाया भी क वो उ ह बेवक़ूफ़ बनाने क को शश कर रहा है और
अतुल के पापा का अंदाज़ा कभी ग़लत नह हो सकता। पर पापा ने उसे काम पर रख
लया।
अतुल के पापा ने भी उ ह समझाया क वो ऐसी ग़लती न कर। पर पापा ने कहा,
“ म ा जी, इतनी-सी उ म कोई चोरी य करेगा ”
“चोरी का उ से या लेना-दे ना आप भी अजीब बात करते ह जी चोरी तो इसके
जैसे लड़क के ख़ून म होती है।”
म ा अंकल धोबी को बारा मारने के लए बढ़ ही रहे थे क माँ क हालत अचानक
ख़राब होने लगी। उनक साँस ज़ोर से फूल रही थी और वो चादर को अपनी मु ठ म
कसकर दबाए साँस पकड़ने क को शश कर रही थ । म ा अंकल और पापा तुरंत माँ को
टाटा सफ़ारी म बठाकर अ पताल ले गए और रात भर क मेहनत के बाद माँ क साँस
नॉमल हो सक ।
“दे खए म आपको अभी भी समझा रहा ँ क अ पताल से छु ट मलने के बाद भाभी
जी को तुरंत ह र ार ले जाकर इनका हो मयोपैथी इलाज शु करवाते ह। ये सब साँस के
पचड़े एलोपैथी से ठ क नह होते ह।”
“नह म ा जी, म इनको परस वापस कानपुर ले जाऊँगा। यहाँ के डॉ टर का भी
यही कहना है क इनक हालत जैसे ही थोड़ी थर होती है, आप इ ह कानपुर म उसी
डॉ टर के यहाँ भत करवा द जो अभी तक इनका इलाज कर रहे थे।”
पापा माँ को लेकर कानपुर चले गए। हम लगा था क पापा हमेशा क तरह अगले दन
माँ को लेकर वापस आ जाएँगे ले कन धीरे-धीरे महीना-डे ढ़-महीना गुज़र गया। हम सफ़
फ़ोन से जान सकते थे क माँ क हालत म कतना सुधार आ है। हालाँ क, पापा फ़ोन
करते, तो हमेशा यही कहते थे क माँ धीरे-धीरे एकदम अ छ होती जा रही है ले कन म
समझ चुका था क माँ ठ क नह है।
द द हमेशा यही कहती थी क य द पापा कह रहे ह तो वो झूठ नह कह रहे ह गे।
ले कन म द द से हमेशा ये बात छपा जाता था क पापा कोई सुपरमैन नह ह। वो बेहद

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साधारण आदमी ह। शायद साधारण भी नह । म ये नह चाहता था क जो नराशा और
हताशा स चाई क तरह मेरे सामने आ खड़ी ई है वो द द के ह से म आए।
ऐसा हमेशा होता था क मुझे लगता क म द द से यादा समझदार ँ। जब क द द
को ऐसा लगता था क वो मुझसे कह अ धक समझदार है। हाँ, ये बात ज़ र थी क द द
के पास तमाम टे ढ़े-मेढ़े सवाल का जवाब होता था य क वो साइंस और ग णत अ छे से
पढ़ती थी। वो उ ीस का पहाड़ा बना ग़लती कए सुना सकती थी और उसे पहाड़ा याद
रखने के लए कसी ख़ास धुन म गाने क ज़ रत भी नह पड़ती थी।
पापा के न होने क वजह से द द मुझे रोज़ शाम पढ़ाया करती थी। उसने मुझे स ह
और उ ीस का पहाड़ा याद करने के लए दया आ था। म ग़ से और ज़द म ज़ोर-ज़ोर से
पहाड़े रट रहा था। ग़ सा इस लए य क तीन दन से पापा ने फ़ोन नह कया था और ज़द
इस लए य क म नह चाहता था क अब जब भी पापा मुझसे पहाड़ा सुन तो म अटक
जाऊँ और वो उसको जवाब दे कर सुपरमैन हो जाएँ।
“17 एकम 17
17 नी 34

17 छ के 102 17 स े 119

17 दहाई 170”

“19 एकम 19
19 नी 38
“19 तयाँ ”
“19 तयाँ ”
म अपनी बेवक़ूफ़ पर रोना चाहता था। ले कन म इस लए नह रोया क मुझे रोता
दे खकर द द भी रोने लगती। मने प सल क नोक को ज़ोर से मेज़ पर पटक कर तोड़ दया
और टू ट नोक क प सल से काग़ज़ को रगड़कर फाड़ डाला। मने वो कवर भी फाड़ डाला
जो पापा ने कॉपी पर चढ़ाया था।
“19 तयाँ 57 मेरे ब चे .”

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मने च ककर पीछे दे खा तो माँ और पापा लौट आए थे। माँ इतनी ख़ुश, सेहतमंद और
सुंदर दखाई दे रही थी, जतना पहले कभी नह दखी होगी। माँ और पापा मु कुरा रहे थे
और वो दोन बाँह फैलाए मुझे बुला रहे थे।
“19 तयाँ 57.. तुम अभी भी भूल जाते हो बेटा ” पापा ने मु कुराते ए कहा।
पापा ने कसकर मुझे अपनी बाँह म भर लया और म फूट-फूट कर रोने लगा। माँ ने
द द को गोद म उठा लया।
“दे खो पापा से यादा ताक़त आ गई है।” माँ ने मु कुराते ए कहा।
म इतनी ज़ोर से हँसा क ब त ज़ोर से रो पड़ा
मुझे मेरा सुपरमैन वापस मल चुका था।
ब ती-ब ती ढे र उदासी

मुझे नह पता क म ये कहानी य लख रहा ँ। ये कहानी ले-दे कर चराग़ क ज़दगी के


दो-एक दन के रडम नैपशॉट् स से अ धक कुछ भी तो नह है। और फर उसम भी म वही
ह से चुन पाया ँ जसम उदासी के अ स के अलावा कुछ नह है। ख़ैर। जो भी, जतना
भी, दे ख सुन पाया ँ वो ज़ेहन पर ख़राश छोड़ गया है। खोल कर नह रखूँगा तो छरछराता
रहेगा। जलता रहेगा।
तरावट क इसी ख़ुदग़ज़-सी आरज़ू म ये कहानी कह रहा ँ और आपको चेता भी रहा
ँ क ये एक ट पकल (अ छ ) कहानी नह है, पलायन क एक वा हश भर है। इस
कहानी म मुझे भी नराशावा दय के उसी पुराने कस ने डस रखा है जसके चलते वो ब ती-
ब ती घूमते-घामते बस ढे र उदासी ही दे ख पाते ह।
पर जो है, सो है। कह-सुन रहा ँ।

पहला नैपशॉट: ससुराल समर का


दन शु आ और उसक ज़दगी म कोई ख़ास बदलाव कए बना चला गया। कुछ लोग
को लगा क चलो एक और दन तमाम आ। और दन को लगा क चलो लोग, कुछ और
तमाम ए।
ऑ फ़स के लैपटॉप पर आ ख़री मेल भेजने के बाद चराग़ ने जले ए दन क बची ई
राख बटोरनी शु क । टक नोट् स पर टू -डू ल ट म कुछ काम बाक़ थे। उसने ल ट
डलीट करने क को शश क तो लैपटॉप ने फर से पूछा क या वो सच म ल ट डलीट
करना चाहता है यूँ तो उसे आज एक अधूरी कहानी ख़ म करनी थी और एक कताब के
कुछ प े भी। ले कन उसने अनमने टू -डू ल ट डलीट कर द ।
कुछ दे र ट वी पर चैनल सफ़ कए। 301 पर समर ससुराल छोड़ कर जा रही थी
ले कन उसक सास उसे उसके तीन साल के बेटे से आ ख़री बार मलने नह दे रही थी।
303 पर राम क तीसरी शाद हो रही थी और पूरा ख़ानदान इस उलझन म तमाम आ जा
रहा था क कौन कस गाने पर डांस करेगा। 401 पर ये बहस ज़ारी थी क सा भगवान् ह
या नह । 408 पर उस ब ची क हैरतंगेज़ कहानी आ रही थी जो ज़दा साँप खाती थी।

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617 पर रॉयल टै ग का चार आ रहा था जसम अजुन कपूर ‘ मॉल’ मलाता जा रहा था
और अपनी ज़दगी को ‘लाज’ बनाता जा रहा था। 503 पर व ा बालन ये बता रही थी क
जस घर म शौचालय नह उस घर म ब टया क शाद नह ।
व ा बालन को दे ख कर चराग़ को वापस लैपटॉप याद आया और वो पॉन ाफ सफ़
करने लगा। ए शयन, लटाइना, जैपनीज़, एमे योर, होममेड, हाडकोर, रडम और न जाने
या- या उसे अपने आग़ोश म समा जाने का योता दे रहा था।
दन हमेशा यूँ ही ख़ म होता था। चराग़ रोज़ एक टू -डू ल ट बनाता था जसम
अ धकतर वो काम होते थे जो इंसान को उसके ज़दा होने का अहसास कराते ह। मसलन
कताब पढ़ना, क़ से-कहा नयाँ लखना, फ़ म दे खना और ग़ज़ल सुनना। ले कन
अ धकतर वो इनम से एक भी काम ख़ म नह कर पाता था।
पॉन ाफ दे खना टू -डू ल ट म नह था, शायद इस लए नयम से पूरा होता था।
एक जैपनीज़ लड़क चराग़ को सुकून क रोज़ाना ख़ुराक प ँचाने ही वाली थी क
तभी उसक गल ड ख़ुशी का एसएमएस आया
“ चराग़ इट् स नॉट व कग आई थक वी शुड ेकअप।”
चराग़ ने दा हने हाथ से मोबाइल उठाया और चार-छः सेकड के लए, फोकस करके,
ये सोचा क या उसे एसएमएस का जवाब अभी दे ना चा हए या नह । बाएँ हाथ ने नेगे टव
म जवाब दया और दाएँ हाथ ने फ़ोन कनारे फक दया। अगले साढ़े तीन मनट म ख़ुशी ने
कोई सात-आठ मैसेज और भेजे ह गे। ले कन चराग़ के बाएँ हाथ ने सोचा क इन चार
मनट म जवाब न दे ने से चराग़ क ज़दगी ऐसी भी या बदल जाएगी।
मैसेज का जवाब न पाकर ख़ुशी ने झ लाकर फ़ोन कया
“ चराग़ तु ह इतनी भी फ़सत नह है क तुम मेरे मैसेज का जवाब दे सको म तुमसे
ेकअप कर रही ँ।”
“ह म.”
“ह म ये ह म या मतलब है ”
“दो मनट हो ड करो ख़ुशी।”
चराग़ ने फ़ोन कनारे रख दया। ग़ से म ख़ुशी के च लाने क आवाज़ आती रह ।
चराग़ जैपनीज़ लड़क को आँख झुकाकर दे ख रहा था और वो चराग़ को आँख उठाकर
ताक रही थी।
“हाँ, अब बोलो।” दो मनट बाद चराग़ ने फ़ोन उठाते ए, गहरी साँस लेते ए, सुकून
से कहा।
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“वाट द फ़क चराग़ तुम इतनी ज़ री बात के बीच म मेरा फ़ोन कैसे रख सकते
हो ”
“अब तुम मुझसे ेकअप करना चाहती हो तो इसम म या कर सकता ँ ख़ुशी दो
मनट फ़ोन पर बात कर लेने से कौन-सा तुम अपना इरादा बदल दोगी ” चराग़ ने बौ
सं या सय -सी शां त का कलेवर ओढ़ कर कहा।
“ चराग़ तु हारी इ ह सारी बात क वजह से म तुमसे अलग होना चाहती ँ। हमारे
बीच आ ख़र बचा ही या है हम आ ख़री बार मले ए सात महीने हो चुके ह। दन म हम
तीन-चार मनट से यादा बात नह कर पाते। तु हारे पास तु हारी जॉब के सवाय दन म
बचता ही या है तुमसे बात करते ए मुझे ऐसा लगता ही नह है क म कसी ज़दा इंसान
से बात कर रही ँ। तुमसे यादा ज़दा तो वो टे डी बयर है जो तुमने मुझे मेरी साल गरह पर
दया था।” एक साँस म जतना कुछ बोला जा सकता था, ख़ुशी ने आधी-पौने साँस म कह
दया और वो ग़ से से हाँफने लगी।
“म समझ सकता ँ।”
“समझ सकते हो या समझ सकते हो चराग़ ”
“एक सेकड ख़ुशी, कसी का फ़ोन आ रहा है ” चराग़ ने ख़ुशी का फ़ोन अगले सात
मनट के लए हो ड पर डाल दया। यूँ तो ख़ुशी तुरंत उसका फ़ोन काट दे ना चाहती थी
ले कन ये जाने बग़ैर ब कुल नह क ऐसे मौक़े पर चराग़ कस इंसान क वजह से उसका
फ़ोन हो ड पर डाल रहा है।
“हाँ ख़ुशी बोलो।” चराग़ ने लाइन वापस जोड़ी, “ एक दो त का फ़ोन था।”
“दो त कौन-सा दो त ”
“है एक। ऑ फ़स के बाहर सगरेट क कान है उसक ।”
“ सगरेट क चराग़ तुम पागल हो चुके हो म फ़ोन रख रही ँ।”
“ .” चराग़ ने जवाब नह दया।
ख़ुशी कुछ दे र चीखती- च लाती रही। चराग़ ने शायद कुछ इस लए भी नह कहा
य क वो ख़ुद नह चाहता था क ख़ुशी जैसी यारी-सी लड़क उसके साथ रहकर अपनी
ज़दगी ख़राब करे। उसे लगा क ख़ुशी क एक-एक बात सच ही तो थी।
“ चराग़ तुम पागल हो।”
“ चराग़ तु ह सायकेट र ट क ज़ रत है।”
“ चराग़ तुम एक आ ट ट हो, तुम इस घ टया ऑ फ़स के लए अपनी हर अ छ चीज़
य बबाद कर रहे हो ”
“ ो े ो ो ो ”
“ चराग़ तुम वो य बनना चाहते हो जो तुम नह हो ”
“ चराग़ यू ड ट लव मी।”
“ चराग़ ड ट यू लव मी ”
“ चराग़ यू आर अ हाटलेस बा टड।”

सरा नैपशॉट: च ट् ठय के ग़ बारे


‘मेरे तु हारे दर मयाँ
ये जो डोर है
उसम
गाँठ बन कर ही सही
रह जाओ न।”
चराग़ ने एक छोट -सी पच म ये कुछ लाइन लखकर उसे मरोड़ दया और एक
ग़ बारे म ठूँ स दया। यूँ तो रोजाना बीस-तीस सगरेट पीने क आदत ने उसके फेफड़ क
आधी जान ख च नकाली थी ले कन जैसे-तैसे वो अब भी रोज़ रात यूँ ही छोट -छोट
प चयाँ भर कर एक-दो ग़ बारे फुला लया करता और उ ह हवा म छोड़ दे ता था। वो ये नह
जानता था क उसक च ठय के ग़ बारे कभी कसी तक प ँचते ह भी या नह ले कन वो
ऐसी च ट् ठयाँ नयम से लखता-फूँकता-उड़ाता रहता था।
वो ये भी नह जानता था एक बार ऐसी ही एक च ठ बीसव माले पर बना दरवाज़ा
खटखटाए घुस आई थी और ख़ुशफ़हमी म कसी क उ म दो-एक दन का इज़ाफ़ा कर
गई थी। वो इस बात से भी ना-वा क़फ़ था क एक बार ऐसी ही एक च ठ कसी ऐसे ने
लूट ली जसे पढ़ना नह आता था और उसने कसी और से वो च ठ डरकर इस लए भी
नह पढ़वाई य क पढ़ लए जाने से च ट् ठयाँ, च ट् ठयाँ नह रहत । काग़ज़ का टु कड़ा
हो जाती ह। वो इस बात से भी अनजान था क एक च ठ हवा म ही फूट गई थी। शायद
उस रात हवा म चुभन कुछ यादा रही होगी।
हर ऐसी बात से अनजान और ना-वा क़फ़, वो ये ज़ र जानता था क बालकनी से उड़
जाने का मतलब था क उसक च ठ पो ट ज़ र हो गई है और उसके ज़ेहन का वज़न
ध नया के दो क ठे जतना ह का हो गया है।
‘भाँ त-भाँ त के लोग भतेरे
भाँ त-भाँ त क वा हश
भाँ त-भाँ त बा द भतेरे
एक अकेली मा चस।’
े औ ीऔ े
उसने एक और च ठ लखी और उसे हवा म उड़ा दया।
च ठ का ग़ बारा ‘आ पाली रॉयल’ के अँधेरे म डू बे टावर म झाँकता आ उड़
चला। उसने दे खा क टावर बी म 917 नंबर अपाटमट म रा गनी ब तर पर सो रही थी और
उसका प त राघव, सोफे पर। शाद के तीन साल बाद दोन अब ब तर शेयर नह करते थे,
अ धक-से-अ धक एक सगरेट शेयर कर लया करते थे। 1312 नंबर म सात बैचलर लड़के
‘ज ट मैरीड’ कप स क तरह एक- सरे को पकड़ कर बेसुध सो रहे थे। वो आज रात तीन
सौ अ सी पए म ओ ड म क क क थई बोतल म सफ़ेद रंग क ज त ख़रीद लाए थे।
टावर सी म 1501 नंबर अपाटमे ट म एक छोटा ब चा अपनी माँ के पेट पर धा सो रहा
था। ग़ बारा उसक खड़क पर टकराया ले कन न द म होने क वजह से ब चा उसे दे ख
नह पाया और उसे लपक लेने के लए दौड़ा नह ।
इधर ग़ बारे से बेख़बर, चराग़ हं े ड पाइपस के नशे म ख़ुशी के नए-पुराने एसएमएस
पढ़ता रहा।
“य टरडे नाइट वाज़ रयली- रयली पेशल।”
“यू नो वॉट मुझे तु हारी बाँह म एक अजीब-सा सुकून मलता है।”
“ चराग़, यू म ट डू हाट यू लाइक।”
“ चराग़, यू म ट थक बग।”
“ चराग़, यू ड ट हैव टाइम फॉर मी।”
“तुम कब तक ब च क तरह बहेव करते रहोगे ”
“ चराग़, तुम इतने इन स योर य हो। गो एंड फ़ाइट इट आउट।”
“ चराग़ लीज़, वो होने क को शश मत करो जो तुम नह हो।”
“ चराग़, मुझे नह लगता क तुम वही चराग़ हो जसे म तीन साल पहले मली थी।”
“ चराग़, यू आर अ हाटलेस बा टड।”
ख़ुशी के मैसेज पढ़कर चराग़ अपनी पछली ज़दगी को सौ-सवा-सौ श द म रवाइज़
कर सकता था। टच फ़ोन पर उँग लयाँ फराते-घुमाते वो ये दे ख पा रहा था क पहले का
चराग़ तारीख़ के फेर म कैसे आज के चराग़ म बदल गया। वा हश से मुँह फेर लेना
इंसान को कस हद तक मँहगा पड़ सकता है। वो ये भी सोच रहा था क उसे जो एसएमएस
ना-पसंद ह उ ह डलीट कर दए जाने से या कुछ बदल जाएगा
या वो ख़ुशी से गड़ गड़ा कर कुछ अ छे एसएमएस मँगवा ले
जैसे “ चराग़, यू टू हैव अ पाइन।”

“ ी ी े े ो”
“ चराग़, तुम अभी भी बेहद यारे हो।”
“ चराग़, म अभी भी तु ह ब त यार करती ँ।”
“ चराग़, यू आर नॉट इनसेन।”
या फर ये क “ चराग़ तुम डरपोक नह हो और तुम भी सब छोड़-छाड़ कर अपना
सपना पूरा करने जा सकते हो।”
“ चराग़, तुम इस बाज़ार के ग़लाम नह हो।”
“ चराग़, तुम पेशल हो।”
उसने ख़ुशी को कॉल करने क को शश क ले कन वो उसे लॉक कर चुक थी।
ख़ुशी अब जा चुक थी।

तीसरा नैपशॉट: बेल कव


अगले दन सुबह ई तो आनन-फ़ानन दे खने म सुबह का नोएडा रात के नोएडा से बेहद
अलग लग रहा था। रे डयो मच पर ह क -सी आवाज़ वाली सा रका के हसाब से आज
क सुबह बड़ी ही यूटली रोम टक-सी सुबह थी। ले कन जहाँ से चराग़ दे ख पा रहा था
वहाँ से दखने वाली सुबह रात के उस अघोरी जैसे लगती थी जो बना नहाए-धोए- श
कए, बदबू मारते, टु कुर-टु कुर ताकते, म ट लपेटे, भ च का-सा खड़ा हो गया हो और ये
दे ख कर हदस गया हो क वो शांत-सी अधेरी रात, आँख लगने के फेरे म न जाने कहाँ गुम
गई।
यूटली रोम टक सुबह के थोबड़े को हैरान-सा तकता वो ऑ फस प ँचा तो उसे कुछ
सर दखाई दए और तमाम सारे लैपटॉप। ये वो सर थे जनम कोई भाव नह था। रस भी
नह । सुख या ःख भी नह । बस कोने-कोने तक उदासीनता। इ डफरे स।
ये चेहरे आईने हो चले थे जनम मशीन क परछा मशीन से अ धक या कम कुछ नह
थी।
हालाँ क, ये चराग़ का सोचना था। आभा का नह । आभा कहती थी क उसक ट म
‘ऑसम’ थी और चराग़ को थोडा ‘लाइट’ लेने क ज़ रत थी। वो हमेशा कहती थी क
‘लाइफ़ इस ऑल अबाउट एट ूड।’ और चराग़ को सब कुछ बुरा इस लए नज़र आता है
य क उसका एट ूड अंदर तक नेगे टव है। उसने अ सर चराग़ से बात करने क
को शश क थी ले कन चराग़ आमतौर पर ऑ फ़स म कसी से बात करना पसंद नह करता
था।

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आभा पहले तो चराग़ से बात करना पसंद करती थी ले कन अब वो चराग़ से डरने
लगी थी। उसे चराग़ क हरकत बेहद अजीब लगने लगी थ । मसलन, वो रोज़ सुबह
ऑ फस आने पर कई बार यूँ ही अपना लैपटॉप ऑन कए बना उसक न दे र तक घूरता
रहता था। उसका शरीर हमेशा सगरेट क बू क चादर म लपटा रहता था। वो लाइंट के
मेल पढ़कर यूँ हँसने लगता था जैसे क उसम कोई चुटकुला लखा हो। वो अ सर आभा से
कहता था क वो यहाँ से रज़ाइन कर दे नह तो उसे ए लयन उठा ले जाएँगे।
“आभा, बग दर इज़ वॉ चग यू।”
“आभा वट ”
“आभा दे आर कंसपाय रग टू ांसफॉम यू इन टू अ मशीन।”
“रन आभा रन ”
यहाँ चार हज़ार लोग क कंपनी म उसके तीन ही दो त थे। प म काम करने वाला
द पक, कट न वाला हरीश और ऑ फ़स के बाहर सगरेट बेचने वाला राजू। ऐसा इस लए
नह था क चराग़ हद फ़ म के स दय हीरो (सलमान ख़ान) क तरह नचले तबके के
लोग के लए मन म दया रखता था। ऐसा बस इस लए था य क वो यूँ ही चराग़ के दो त
बन गए थे। या ये कह ल क चराग़ उ ह बदा त कर सकता था और वो चराग़ को।
“ या तुम मेरे के बन म आ सकते हो ” चराग़ को बुलाकर मैनेजर अपने के बन क
ओर बढ़ गया।
चराग़ ने मैनेजर का पीछे से पीछा कया।
“ चराग़, या तुम मुझे बता सकते हो क पछले कुछ दन से तु हारी परफॉरमस को
या हो गया है तुम एक सी नयर ए लॉई हो। ऐसी ग़ल तयाँ तुमसे कैसे हो सकती ह ”
“कैसी ग़ल तयाँ ”
“कैसी ग़ल तयाँ तुम मुझसे पूछते हो चराग़ कल तुमने लाइंट को जो फ़ाइनल
डलीवरी मेल भेजा था उसम बना कोई अटै चमट लगाए तुमने मेल म लख दया था,
‘ लीज़ फाइंड द अटै ड ड लवरेबल ’ तुमने लाइंट को बेवक़ूफ़ समझ रखा है या
जासूस या फर कल यूँ ही मसख़री करने का मन था ”
मैनेजर दे र तक कुछ-कुछ कहता रहा ले कन चराग़ कुछ ही दे र तक उसे सुन पाया।
बाक़ समय वो बस ये दे ख पा रहा था क मैनेजर का मुँह खुलता है। हलता है। बंद होता
है। दे खते-दे खते मैनेजर एक बतख म बदल गया जो कसी ऐसी भाषा म जब रश कर रही
थी जो चराग़ नह समझता था। बतख बेहद दया क पा लग रही थी। एक ऐसी बतख
जसके पंख कुतर दए गए ह और पैर के पतवार आपस म बाँध दए गए ह । एक ऐसी
बतख जसे गोद म बठाकर उसक पीठ पर हाथ फर दया जाए तो वो शांत हो जाएगी।
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थोड़ी दे र गहरी साँस लेगी, फर म म साँस और आ ख़र म उसक छाती क ध कनी
एकदम ठं डी पड़ जाएगी।
दे खते-सोचते चराग़ बौ हो गया। तथागत हो गया। वो सच म इस तड़पती ई बतख
को उठा लेना चाहता था और उसे तब तक अपनी गोद म जकड़ कर रखना चाहता था जब
तक क वो शांत नह हो जाती। कुछ दे र के लए। हमेशा के लए।
इधर बीच जब चराग़ मैनेजर को बतख समझ रहा था, उस दौरान मैनेजर ने उसे तमाम
सारी नसीहत द जो उसने अपने नौ साल के चमकदार क रयर म सीखी थ । बेहतर होता
य द चराग़ ये सुन पाया होता क अगर वो लगातार अ छ परफ़ॉरमस नह दे पाएगा तो वो
कंपनी के ‘बेल कव’ के बाएँ कोने म समट जाएगा। वो उन 68 तशत लोग म भी नह
आ पाएगा ज ह कंपनी एवरेज समझती है। बेहतर होता य द चराग़ ये सुन पता क एवरेज
होना कतनी दयनीय बात है। मैनेजर ( जसे चराग़ बतख समझ रहा था) अपने समूचे
क रयर के दौरान हमेशा बेल कव के दा हने कोने म शान से पीठ टकाए रहा और इसी
वजह से उसक ोथ ए से शनल, अभूतपूव, ए पोने शयल, अ तीय और पी रयड रही।
मैनेजर उन ‘ वनस’ म था जो ‘लूज़स’ नह थे। उसने बताया क ‘लूज़स’ वो लोग ह
जो जवान उ म भी आराम-तलब थे। ‘वक-लाइफ़-बैलस’ क अजीब-अजीब बात करते ह
और गाहे-बगाहे सैर-सपाटा करते ह। ‘ वनस’ वो लोग ह जो इन सब ऐब-ओ-शौक को उ
के आ ख़री मुक़ाम के लए छोड़ दे ते ह। धूप, आसमान, नद , नाले, तारे, दरगाह, समंदर,
क ती, गाँव, घ ड़याल और आल-दै ट-बुल शट दे खने के लए सारी उ पड़ी ई है।
मैनेजर ( जसे चराग़ बतख समझ रहा था), चराग़ को ये सब इस लए बता रहा था
य क उसने चराग़ म ऐसा टै लट दे खा था जो उसने कसी और ए पलॉई म पहले कभी
नह दे खा और वो सचमुच चराग़ क गरती ई परफॉरमस से च तत हो उठा था।

चौथा नैपशॉट: ला सक माइ ड् स


चराग़ राजू क कान पर खड़ा ला सक माइ ड् स सुलगा रहा था और राजू छः-आठ
हाथ क र तार से कोट, पट, टाई वाल को अ ा, रेगुलर, माइ ड् स, मथॉल, लैक,
मालबोरो, गुदा गरम बाँट रहा था। राजू को पता था क चराग़ का ांड या है और
आमतौर पर हर आने-जाने वाले का। राजू क कान (जो क एक साइकल भर थी) क
छतरी के नीचे हज़ार सगरेट फूँकते-बुझाते चराग़ और राजू का मेल वैसे ही हो गया था
जैसे क सगरेट और पान-पसंद का। राजू पान-पसंद जैसा था, जसक पूछ सगरेट के
बग़ैर त नक भी नह थी और चराग़ सगरेट जैसा था जसे अपनी अकराहट, कसैलापन
और तीखी भनक मटाने के लए पान पसंद क ज़ रत दन म ज़ र पड़ती थी।

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राजू क दलच पी हर उस ख़ास बात जानने म थी जो काँच के शीश के उस पार थी
और चराग़ उन सबसे सरोकार रखता था काँच के शीशे के इस पार थी। मसलन, राजू ये
जानना चाहता था क ऑडी से भी महँगी गाड़ी कुछ होती है या इस बात म कतनी
स चाई है क ऑडी य द क को लभेड़ दे तो ऑडी को तो कुछ नह होगा ब क क का
बोनट डस मस हो जाएगा। राजू ये भी जानना चाहता था क ये ‘मैनेजर’ कौन कमीना
जीव होता है। ‘काहे से जो है’ क सगरेट पीने आने वाला सारा साहब लोग उसको माँ-
बहन-भौजाई का गाली नापता रहता है। कभी-कभी ाइडे को वो ये जानना चाहता था क
आज हर कोई इतना ख़ुश य नज़र आ रहा है और मनडे को वो अ सर इस सोच म पड़
जाता था क आज इन सबक कौन-सी नानी मर गई है जो हर कोई चार सगरेट यादा
सुलगा रहा है। दसंबर के आ ख़र म ऐसा या होता है जो ब त लोग उससे अपना हसाब
क लयर कराकर नौकरी छोड़ जाता है
और चराग़ ये जानना चाहता था क इस बार राजू छठ म घर जा पाएगा या नह वो
पछली बार छठ म घर गया था तो छोट बहन और माँ के लए या ले गया था वो कैसे
सोलह सौ पए म अपने पूरे प रवार के लए नया जहान क ख़ु शयाँ ख़रीद ले जाता है।
सूती साड़ी, गुलाबी सलवार सूट, कुता-पैजामा, फूल वाला हेयरबड, म छर मारने वाला
रैकेट और ट ल का डनर सेट। वो एक बार फर से राजू से वो मज़ेदार क़ सा सुनना
चाहता था जब वो अपने गाँव के दो त को ग प मारते ए बताता है क नोएडा म उसक
तीन-तीन गल ड ह और वहाँ सब कोई कतना क होती ह। गाँव क लड़ कय टाइप
स ब ली नह ।
“भै या जी, आज कल ऊ कट वाली नह आ रही ह सगरेट पीने। उनको बुखार-
उखार आ गया है या ” गंभीरता से राजू ने पूछा।
“कौन कट वाली ”
“अरे ओही, आपके साथ जो भै या जी आते ह, उनक स टग।”
“वो कोई कसी क से टग-वे टग नह है।”
“तो हम ही से स टग करवा द जए उनका। एतना सुंदर प पाई ह, बेकारे फेड हो
जाएगा इकेले-इकेले”।
“तुमको लड़क लोग के अलावा और कुछ सूझता नह है ”
“सूझता है न भै या। ग ले म नोट गनने का। दन म दो बेर सूझता है। एक बेर जब
सुबह-सुबह साइ कल लगाते ह। और एक बेर जब शाम को साइ कल टड से उतारते ह।”
“अबे यार, तुम चुप करो बे। हमको ये फालतू बात नह पसंद है। कतनी बार बताया है
तुमको।”

“ े ै ो े े ो े े ो ो
“अरे चराग भै या, आप तो बेकारे फायर हो जाते ह। आपका मूड ठ क करने को बोल
रहे थे।”
“मूड माय फुट ” चराग़ ने सरी सगरेट सुलगा ली। राजू ख से नपोर कर चुप हो
गया और बाक़ ाहक के हालचाल लेने लगा।
सगरेट पर तरह-तरह क चचा हो रही थी, जसे न चाहते ए भी चराग़ सुन पा रहा
था और ये दे ख पा रहा था क उसके आसपास के लोग कन- कन मुदद् पर बात-बे-बात
बल बला रहे थे। उसने दे खा क वो अचानक से झ गुर म बदल रहे थे और झाँय-झाँय क
तीखी कानफाडू आवाज़ का इरीटे टग झुनझुना बजा रहे थे (हो सकता है यहाँ आभा को
झ गुर नह दखाई दे ते और वो अपनी फ़ेव रट मट सगरेट का छोटा छ ला बनाने क
‘कूल’ को शश कर इस माहौल को एक ‘लाइट-सा योलो सेटअप’ बताती)।
पर चराग़ के हसाब से, कुछ एक झ गुर अपने माटफ़ोन के शीशे को अपनी नाजक
नुक ली टाँग से खुरच रहे थे। कुछ बड़े तलच टे को गाली दे रहे थे और उसे खडू स होने
क वजह से कोस रहे थे। कुछ ये शकायत कर रहे थे क उ ह कल रात भर काम क वजह
से न द नसीब नह ई। कुछ कम मेहनताने क शकायत कर रहे थे तो कुछ घुटन क । एक
सुनहरा झ गुर ये कह रहा था क अगर उसक क़ मत साथ दे ती तो वो भी एक तलच टा
हो सकता था। इतने म एक झ गुर बोलते-बोलते यूँ ही उलट गया और वो इस बात क
शकायत करने लगा क वो अब सीधा कैसे हो। वो पीठ के बल पड़ा आ अपनी सारी टाँग
और हाथ को हवा म इस उ मीद से झटक रहा था क वो कैसे भी सीधा हो जाए पर पलट
नह पा रहा था।
चराग़ क इ छा ई क वो उसके पेट को पैर से धकेल कर उसे सीधा कर दे पर उसे
बल बलाता दे ख चराग़ को हँसी आ रही थी।

पाँचवा नैपशॉट: पड़ोस वाले शमा जी


चराग़ अपनी लखी ई अधूरी कहा नयाँ पढ़ रहा था और नशे म बे-इंतहा धु था। धु
इस लए कह रहा ँ य क वो सु र म नह था। अज़ीज़ मयाँ और नुसरत फ़तेह अली
ख़ान साहब सु र म थे पर उ ह ने शराब नह पी ई थी।
अज़ीज़ मयाँ मुँह म पाव भर पान का क था भरे ए कह रहे थे, “फ़सले गुल है शराब
पी लीजे, शम कैसी जनाब पी लीजे।” चराग़ ने शम नह क । “आगे चल कर हसाब होना
है, इस लए बे- हसाब शराब पी लीजे।” चराग़ ने बे- हसाब शराब पी ली। अज़ीज़ मयाँ के
क वाल ने झूम-झूम कर ताली बजाई। चराग़ उ ह घूरता रहा ले कन उ ह ने हड़बड़ा कर
ताली क ताल म गड़बड़ नह क ।

“ े ै ै ै” े
“अब आदम का ये हाल रहता है, म त रहता है चूर रहता है।” नुसरत साहब ने कहा
और वो फर थोड़ी दे र के लए अपने ही ांस म चले गए। चराग़ भी ांस म चला गया और
उसने नुसरत साहब का कहा मानकर चूर होकर शराब पी ली। इतना क वो अपनी ही उ ट
म सना आ पड़ा था। ह का होता तो शायद बह जाता ले कन इंसान भारी होता है, इस लए
बहा नह ।
उसक कहा नय के प े ह के थे, इस लए वो उसक उ ट म उतराने लगे। छु टपुट
क वताएँ और भी ह क थ , इस लए वो तैर भी ग । एक क वता जो बाक़ क वता क
तुलना म थोड़ा अ धक र तार से तैर रही थी और उ ट सोख रही थी, वो क वता कम
सवाल यादा थी
‘बाँह म दबा कर गुलाबी त कया, सोते नह ह
ये मद न जाने य रात म रोते नह है
दल म छु पाए फरते ह, सब आरजएँ जनानी
वही य बनना चाहते ह, जो होते नह ह।’
नीचे चराग़ का साइन था जो गीला होकर ग़ायब हो चुका था।
अगर चराग़ ये जान पाता क गीला होने से ग़ायब आ जा सकता है तो वो भी पूरी
तरह गीला होकर ग़ायब होने क को शश करता। ले कन वो बेख़बर धु पड़ा आ था और
उसके पेट के नीचे उसका माटफ़ोन दबा आ घ -घ कर रहा था। साँस टू टने से दम तोड़
रहा था। उसक न पर ‘पापा कॉ लग’ का नो ट फ़केशन उछल रहा था और वो चराग़
को पेट पर ध का मारकर उठाने क को शश कर रहा था। तीसरी घंट पर चराग़ ने जैसे-
तैसे फ़ोन उठाया।
आज पापा अ छे मूड म थे इस लए उ ह ने वयल से लेकर ख़ास तक सारी अपडे ट्स
द । चराग़ ने बीच-बीच म ‘ ँ’ और ‘हाँ पापा’ कहकर फ़ोन कॉल को ज़दा रखा। अपडे ट्स
कई तरह क थ । मसलन म ा जी के लड़के का इस बार फर आईआईट म सेले शन
नह आ। मौसा जी का लड़का बक पीओ म भत के लए को चग कर रहा है य क वो
बीसीए म फर से फ़ेल हो गया। ऑ फ़स म उनके बॉस ने ताव रखा क वो अपनी लड़क
क शाद चराग़ से करवाने के बारे म सोच रहे ह। “अब ख़ूबसूरत है, जवान है,
म ट नैशनल म है, आईआईट से है। इससे यादा गा जयन को और या चा हए।”
चराग़ ने फ़ोन पीकर पर लगा दया और चेहरे पर लगी उ ट साफ़ क । यूँ तो पापा
कभी खुलकर तारीफ़ नह करते थे पर आज उ ह ने पहली बार कहा, “बेटा अ छा आ
तुमने अपना रायटर बनने का भूत उतार दया। दे खो आज तुम कहाँ प ँच गए हो ” चराग़
ने हड़बड़ा कर कमोड से मुँह बाहर नकाला, “बड़े साहब क बात सुनकर सीना चौड़ा हो
गया।” पापा ने कहा।

“ ँ ो ” े
“ चराग़, कहाँ हो ” जवाब न पाकर पापा ने पूछा।
“वाइपर से उ ट उलीच रहे ह। दा पी रहे थे।” चराग़ ने ज़ोर से हँसते ए कहा।
“ या या बोल या रहे हो चराग़ होश म तो हो ”
“नह होश म नह ह। दा पी रहे थे न। इतना उ ट कए क पूरा शरीर सन गया है।”
वो फर हँसा।
“ चराग़, या बकवास कर रहे हो तुम दा पीते हो म कल ही तु हारे घर आ रहा
।ँ ” पापा ने ग़ से म कहा।
“मत आइए।”
“मत आइए का मतलब ”
“म जा रहा ँ।”
“कहाँ ”
पता नह ।” चराग़ ने फ़ोन काट दया और उसका सम नकाल कर कमोड म बहा
दया।
वापस आया तो नुसरत फर से ांस म जा चुके थे। या शायद आ ख़री बार ांस म जाने
के बाद से अभी तक वापस ही न आए ह । साथी क वाल और छोटे राहत फ़तेह अली ख़ान
उनके ांस से वापस लौटने का इंतज़ार कर रहे थे और ता लयाँ बजाते ए उनका मुँह ताक
रहे थे। नुसरत बेख़बर थे।
चराग़ सोचने लगा क काश नुसरत को भी उनके वा लद का फ़ोन आ जाए और वो
ांस से जाग जाएँ।
ले कन नुसरत के वा लद ने उ ह फ़ोन नह कया।
चराग़ हँसा और च ठ का एक और ग़ बारा लखने बैठ गया
‘एक दन
तुम भी हमसे कह दे ना
क सुनो रे ‘ लूटो’
हम नह मानते
ये तु हारा वजूद
अब चलो यहाँ से फूटो ’
उसने ग़ बारा उड़ाया ले कन ग़ बारा वज़नी होने क वजह से उड़ा नह और इधर-उधर
भटक कर गुम गया।
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आ ख़री नैपशॉट: संपूण ां त ए स ेस
अगले दन चराग़ ऑ फ़स नह गया। बस यूँ ही नकल गया। चराग़ वज़नी था, इस लए
उड़ा नह । वो संपूण ां त ए स ेस म बैठा हर पीछे छू ट जाती ई चीज़ को खड़क से
दे ख रहा था और ये सोच रहा था क अगर संपूण ां त एक े न है तो या े न एक संपूण
ां त है
घर, मकान, झोपड़ी, वीराना, नद , नहर, खेत, ख लहान, आदमी, औरत, जानवर, पेड़,
सड़क, पटरी, लोहा, ग ट , म ट , कान, नाका, ा सग, थूक, बोतल, प ी, काग़ज़ सब
पीछे छू ट जा रहे थे। सब े न क र तार क दशा से उ टे दौड़ रहे थे। जैसे क उन सबको
े न से कोई एलज हो। जैसे वो सब चुंबक का पछला- ह सा ह और े न चुंबक का
अगला- ह सा हो। जैसे वो सब चराग़ क ज़दगी का पछला- ह सा ह और े न म बैठा
चराग़ ख़ुद, चराग़ क ज़दगी का अगला- ह सा हो। अगला चराग़, पछले चराग़ से र,
ब त- र भाग रहा था।
साल -साल बाद सूरज साफ़ दख रहा था। गोल और चमकदार। शायद पहले भी साफ़
रहा हो ले कन दख आज रहा था। पता नह य सूरज पीछे नह छू ट रहा था। े न जहाँ-
जहाँ जा रही थी, सूरज हर उस जगह मौजूद मलता था। चराग़ ने सीखा क सूरज को े न
से एलज नह थी।
दो ब चे उँग लय के बीच म गोल- चकने प थर फँसा के बजा रहे थे और फ़ मी गीत
गा रहे थे। बड़ी बहन ने हारमो नयम लटकाया आ था और वो गाती थी तो मंझला भाई
दोहराता था। मंझले को जहाँ गीत के बोल नह समझ आते थे वहाँ वो पछले श द को
ख च कर भर दे ता था।
‘ नया बनाने वाले
या तेरे मन म समाई
तूने काहे को नया बनाई।’
बड़ी बहन ने गाया।
‘ नया बनाने वाले
या तेरे मन म..एं.एं..एं ई..
तूने काहे को ऊँ..ऊँ..ऊँ एं..एं.ई..’
मंझले भाई ने दोहराया।
छोटे भाई ने हाथ फैला दया।
लोग जो अभी तक कौतूहल से गाना सुन रहे थे उ ह ने मुँह फेर लया य क छोटा
भाई हाथ बढ़ाकर उसी से पैसा माँगता था जसके चेहरे पर अ धक कौतूहल दखाई दे ता

ो ै े ी े े े ँ ो ो े
था। इ का- का लोग पैसा दे ना भी चाहते थे ले कन पाँच का फटा नोट न होने क वजह
से दे नह पा रहे थे। चराग़ ने ऊपर क पॉकेट म हाथ डाला और एक नोट नकाल कर
हारमो नयम पर रख दया। नोट पचास का था।
बड़ी बहन ने चराग़ को कृत ता से दे खा और पचास के नोट को घूर कर। फर उसने
नोट अपनी ॉक म डाल लया नह तो वो हड़बड़ी और डर म गीत के बोल भूल जाती।
ॉक क जेब फट होने से नोट नीचे गर गया तो मंझला उसे उठाने दौड़ा ले कन तब तक
छोटा नोट उठाकर अपनी च ढ क इला टक म ख स चुका था। मंझले ने उसे एक चपत
लगाई तो छोटे के सर पर उँग लय के बीच म फंसा प थर लग गया और वो चीख कर रोने
लगा।
बड़ी बहन ने उसे घूर कर दे खा और वो चुप होकर फर से प थर बजाने लगा।
‘काहे बनाए तूने माट के पुतले
धरती ये यारी यारी
मुखड़े ये उजले’
बड़ी बहन ने पूछा।
‘काहे बनाए तूने
ऊँ ऊँ..उतले
माट ये उजले’
मझले भाई ने जवाब दया।
चराग़ ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा और उसने पूरा पस लड़क के हारमो नयम पर ख़ाली
कर दया। लड़क डर गई और दोन भाई उँग लय म फँसे प थर ज़मीन पर फककर पस
पर झपट पड़े ।
‘तू भी तो तड़पा होगा
मन को बना कर
तोहफा ऊँ ऊँ..
मन म ऊँ ऊँ..’
लड़क ने गाया।
और वो आगे के गीत के बोल भूल गई। वो मझले भाई को दे खने लगी। वो आँख
मचकाने लगा।
‘तू भी तो तड़पा होगा मन को बनाकर
तूफाँ ये यार का मन म छु पाकर

ोई ो ो ी ँ ेी
कोई छ व तो होगी आँख म तेरी
आँसू भी छलके ह गे पलक से तेरी।’
चराग़ ने गीत को पूरा कया और वो ज़ोर-ज़ोर से रोने लगा। लड़क डर गई और वो
अपना हारमो नयम लेकर दौड़ गई। मंझला और छु टका हँसने लगे य क उ ह ने कभी
जवान आदमी को रोते ए नह दे खा था। चराग़ उ ह हँसता दे खकर और रोया। उसे रोते
ए ब त सुकून मल रहा था और मंझले-छु टके को हँसते ए। चराग़ और रोया, वो दोन
और हँसे।
बड़ी बहन दौड़ते ए वापस आई और दोन को घसीट कर र ख च ले गई। संपूण
ां त धीमी हो रही थी और तीन लगभग कूदते ए लेटफॉम पर दौड़ पड़े ।
चराग़ उ ह जब तक दे ख सकता था, दे खता रहा। रोता रहा। और रोते रोते गाता रहा।
‘ ीत बना के तूने जीना सखाया
हँसना सखाया, रोना सखाया
जीवन के पथ पर मीत मलाए
मीत मला के तूने सपने जगाए

सपने जगा के तूने


काहे को दे द जुदाई
काहे को नया बनाई
तूने काहे को नया बनाई।’
अट रया पे लोटन कबूतर रे

ये एक फंडामट ल ट कूल था।


यहाँ बे माठ साब कोस के हसाब से जब भी ेम पर कुछ ‘इंटस’-सा पढ़ाया करते, तो
हमेशा यही कहते थे क तुत पं याँ आ मा और परमा मा के मलन को बयाँ करते ए
कही गई ह। ल ज़ चाहे जतने भी न न ह , उघारे ह और प क सेज पर अपने यतम
को चूम लेने क हरारत म बेक़रार कसमसा रहे ह , ले कन लऊँड को हमेशा यही
बरगलाया जाता था क तुत पं य म ‘आ मा’ चाहती है क वो टू टकर- बखरकर
‘परमा मा’ म समा जाए। एकाकार हो जाए।
बस, ‘अ ट मेटली’ उसे जीवन-मरण के च कर से मु मल जाए।
ऐसे म, लास म दो तरह के ब चे आ करते थे। एक वो, जो अपनी ट नेजरी क
दहलीज पर उकडँ बैठे अपने सपन क ेत मु ग़य को णय-बाँग दे रहे होते थे और ख़ूब
समझ रहे होते थे क ‘मरी’ आ मा को ऐसी कौन-सी आग लगी पड़ी है जो जब दे खो
परमा मा क बाँह म समाने को पगलाई रहती है। आ मा जो न पानी से ‘गीली’ हो सकती
है और न आग से जल सकती है, वो आ शक़ या घंटा करेगी
सरी तरह के ब चे वो आ करते थे जो सच म हाथ जोड़कर भरे मन से ये ाथना कर
रहे होते थे क आ मा और परमा मा का मलन कसी तरह बस हो ही जाए। वो ‘ दलवाले
ह नया ले जाएँगे’ के े न वाले आ ख़री सीन क ववेचना भी इसी तरह करते क यहाँ पर
अमरीश पुरी ‘संसार क माया’ का तीक है और काजोल ‘आ मा’ का त प है। हो-न-
हो शाह ख़ ‘परमा मा’ है।
फ़ म के आ ख़री सीन म जब अमरीश पुरी काजोल का हाथ छोड़कर कहता है- “जा
समरन, जी ले अपनी ज़दगी।” तब ये साफ़ हो भी गया था क वो े न पी अलौ कक-
असांसा रक या ा के मा यम से, माया से हाथ छु ड़वाकर, आ मा को परमा मा से मलने के
लए भेज रहा था।
ये सरी तरह के ब चे बड़े भोले थे। ले कन बे जी क पहली तरह के ब च से हमेशा
फट रहती थी। य क गाहे-बगाहे उनम से कोई-न-कोई खड़ा होकर पूछ ही दे ता था-
“माठ साब, तुत प य म क व आ मा के मा यम से ये कौन से मीठे -मीठे दद क
बात कर रहा है। माने दद तो ठ क बात है माठ साब, ले कन ये कस कार का दद है जो
ी ी ै ”
मीठा-मीठा-सा लगता है ”
बे जी भी ख़ूब भले मानस थे। ब च क यू रयॉ सट का भरपूर जवाब दे ते थे।
मसाल के तौर पर, इस सवाल के जवाब म उ ह ने नीम क पं ह बत वनोद के पछवाड़े
पर स ट-स ट के मारी। और कहा-
“अब ये जो तु हारे पछवाड़े पर हो रहा है न, यही वो मीठा-मीठा दद है, जो आ मा को
अ सर आ करता है। अब तो समझ पा रहे हो न बेटा बनोद ”
वनोद हमारी लास के सबसे हरामख़ोर लड़क म से एक था। इस लए मने मन-ही-
मन उसे अपना गु मान लया था। मेरे लए वनोद उ मीद क वो करण था जो मुझे
‘ सरी तरह’ के ब चे से ‘पहली तरह’ के ब चे म त द ल कर सकता था। म पहली तरह का
ब चा इस लए हो जाना चाहता था य क मुझे यार हो चला था और म नह चाहता था
क मेरा यार भी आ मा-परमा मा वाला बकवास यार रह जाए।
हम सब जानते थे क वनोद पूरी लास म अकेला ऐसा लड़का था जसके पास गल
ड थी। हालाँ क, वनोद उसे आइटम, फंट या माल कहलवाना पसंद करता था। ले कन
मुझे ऐसा कहना बलकुल पसंद नह था। य क म नह चाहता क कल को ु त मेरी
गल ड बने और कोई उसे माल कहे। मने पहले से तय कर लया था क म उसे ‘जानू’
क ँगा।
म भूगोल के बो रग पी रयड म अपनी क पना म ु त को जानू कहने का अ यास
कया करता। और इतना सोच भर लेने से मेरे चेहरे का मान च बदलने लगता। मुझे ये
सोच कर रोमांच हो जाता क अगर ु त ने पलटकर मुझे भी जानू कह दया तो मेरे बदन के
शु क म थल पर उसक आवाज़ क नम पछु आ पवन टकराकर, मौसम का पहला
मानसून ले आएगी। वहाँ, जहाँ आज तक बा रश क एक बूँद भी नह गरी, आज वहाँ
मूसलाधार बरसात आएगी और मेरे बदन के म थल का रोम-रोम चेरापूँजी के घ सयाले
मैदान क हरी ब-सा खल उठे गा।
ु त ने भी हठ पकड़ ली थी। वो हरेक पी रयड म मेरे दमाग़ का ह सा हो लेती। जैसे
वो मुझसे कहना चाह रही हो क म य उसके पास प ँचकर उससे बात नह करता। उस
दन तो हद ही हो गई जब भूगोल क लास के बाद अं ेज़ी क लास म ु त लूसी े
बनकर आ गई। व लयम वड् सवथ क क वता क एक-एक लाइन म लूसी का च ण, -
ब- ु त से मलता था।
अं ेज़ी के बाद, ग णत क लास म उस दन कोऑ डनेट योमे पढ़ाई गई। ुत
वहाँ भी थी। पैराबोला और इ ल स के उठान और उभार म।
वहाँ म भी था। अ स टोट बनकर। पाठ माठ साब ने बताया क अ स टोट वो
लाइन होती है जो पैराबोला को अनंत पर जाकर मलती है। मेरे दल क धड़कन अचानक

औ े ो े औ े
और तेज़ हो ग । मुझसे रहा नह गया और मने हाथ खड़ा कया।
“सर ”
“हाँ बालक, कहो या है ”
“अनंत पर मलना या होता है ”
“अनंत पर मलना, मतलब इन फ नट पर मलना।”
“हाँ तो माठ साब, इन फ नट पर मलना या होता है ”
“इन फ नट पर मलना मतलब अनंत पर मलना।” पाठ जी ने चीखते आ कहा।
“सर आप समझ नह रहे ह। मने ये तो समझ लया क इन फ नट मतलब अनंत होता
है। ले कन ये ‘ मलना’ या होता है ”
“पगला गए हो या बालक बना बात दमाग़ ख़राब कर रहे हो। इधर आकर मुग़ा बन
जाओ।”
“सर आप तो बला वजह नाराज़ हो रहे ह। मन म सवाल था तो पूछ लया।”
“सवाल गया बाबा जी लंगोट म। अब इधर आकर सीधी तरह मुग़ा बनते हो या नह ”
“इन फ नट पर मलना भी कैसा मलना आ सर ऐसे तो फर अ स टोट पैराबोला
से कभी नह मल सकेगा। सीधे-सीधे आप ये य नह कह दे ते क दरअसल दोन कभी
मलते ही नह ह। ऐसा बस तीत होता है क दोन कह मल रहे ह।” मने मुग़ा बने ए
घुटन के बीच से पाठ जी को घूरते ए, खी मन से जवाब दया।
मेरा दल टू ट चुका था। साथ म मेरी टाँग भी।
आधे घंटे लगातार मुग़ा बने रहना कतना क दायक होता है इसका असली अंदाज़ा तब
होता है जब आप कु कड़ यो न से मनु य यो न म वापस आते ह। चलना शु करते ही
घुटन क गद ै वट और शन से झगड़ना शु करती ह जसम बीच-बीच म ऐसा
महसूस होता है क अभी अचानक घुटन क दोन गद पॉप करके बाहर आ जाएँगी। यूटन
ने भले ही सेब को गरता दे ख ै वट को हेलो बोला होगा। ले कन ै वट से हमारी नम ते
तो पाठ माठ साब ने ही कराई थी।
अगर इस व त ु त मेरी लास म होती तो वो मुझे मुग़ा बने दे खकर ज़ र ःख
ज़ा हर करती। वो मेरे लास क लड़ कय क तरह नमम और शैलो नह थी जो मुझे मुग़ा
बने दे खकर ह ठ पर माल लगाकर हँस रही थ । ख़ास तौर पर वो यंका सघा नया और
ईशा कपूर जैसी तो बलकुल नह थी, ज ह जतना ग़ र अपनी ख़ूबसूरती और ए सट
वाली अं ेज़ी का था उससे कह अ धक ग़ र उ ह ‘ सघा नया’ और ‘कपूर’ होने का था।

“ ी ई ” ो े ेे े े
“अपनी लंका खुदई लगा लए बउआ ” वनोद ने मेरे कंधे पर सहानुभू त से हाथ
रखकर कहा।
“हम तो सीधा-साधा सवाल पूछे थे। ये पाठ माठ साब बला-बात ज बाती हो
लए।”
“सवाल तो हम भी भरपूर सुने तु हारा। इतना लंठई वाला सवाल पूछे हो क तरप ठया
क जगह हम होते तो तुमको ज़मीन पर नह तरछ वाली डे क पर मुग़ा बनाते और जब
तक तुम अंडा न चुआते, तब तक तुमको नीचे भी न उतारते।”
“दे खो, फालतू बकवास न करो वनोद। माथा पहले से ही खराब है, प सल घुसेड़ के
मारगे तुमको।”
“जाओ बेटा फर तुम प सल ही घुसा लो। हम तो मदद करने आए थे तु हारी।”
“प सल ही घुसा लो से या मतलब है बे ”
“मतलब, प सल ही घुसाओ अब तुम। तुम उसी लायक हो। बाक़ जो घुसाना है वो तो
तुमसे घुसाने से रहा।”
“ या, मतलब या है तु हारा .. ह या घुसाना है और हम या घुसा रहे ह ”
“मतलब-वतलब हम रोज दे ख-समझ रहे ह। ख ा मा टर क ग णत क को चग म तुम
दोन का बनता आ समीकरण सबको ख़ूब दखता है। ले कन बेटा जहाँ तुम ेम क सरल
रेखा से जुड़ना चाह रहे हो वहाँ कोण म त के इतने लव टरगल उलझने को तैयार बैठे ह
क क टया उतारते-उतारते करंट खाकर मर जाओगे।”
हालाँ क, वनोद क ओछ से बात पर मुझे बेहद ग़ सा आ रहा था ले कन उसने ग णत
और दशनशा को मलाकर इतना सब कुछ ऐसे सट क अंदाज़ म कह दया था क म
उसक बात को इ नोर कर दे ने क ह मत नह जुटा पाया। और वैसे भी, इ नोर करने के
र क क एक तरफ़ ु त थी और सरी तरफ़ जानू।
मेरी जानू।
बेशक, वनोद कमीना था। ले कन ऐसे नाजक मौक़े पर मुझे उसक कमीनापंती के
ए पट ज़ क ही ज़ रत थी। ‘जहाँ काम आवे सुई, या करे तलवार’ हद के बे माठ
साब हमेशा कहा करते थे। इस लए इस व त मने वनोद क शरण म जाना उ चत समझा।
वनोद के काफ़ हाथ-पैर जोड़ने और उसक ै टकल फ़ाइल के अलावा हरबे रयम
फ़ाइल बनाने के वायदे के एवज़ म उसने मुझे अपनी शरण म ले भी लया। काश मने
मोलभाव करने क क़ा बलीयत अपनी माँ से ढं ग से सीखी होती, तो म भी वनोद से ‘भैया
ठ क-ठ क लगा लो’ कह दे ता और हरबे रयम फ़ाइल बनाने से बच जाता। ले कन फर मने

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सोचा क हर टु चा लफंटर भी अपनी े मका के लए चाँद-तारे तोड़ लाने के वायदे करता
है। तो म प याँ तो तोड़ ही सकता ँ।
अगले ही दन वनोद मेरा मटर हो गया।
वनोद क पहली सीख ये थी क मुझे को चग लास म कभी भी कूल- े स म नह
आना चा हए। मुझे उसक बात लाज़मी भी लगी य क हमारी कूल े स सचमुच
वा हयात थी। उस दन मने पहली बार महसूस कया क लाल वेटर पर ख़ाक रंग क पट
म, म कैसा नमूना दखता रहा ँगा। ये भी मने उसी दन नो टस कया क को चग म मेरे
आलावा, सारे लड़के कपड़े बदलकर ही प ँचते थे।
पर मेरी वधा ये थी क कूल शाम चार बजकर तीस मनट पर ख़ म होता था और
को चग शाम पाँच बजे शु होती थी। ऐसे म मेरे लए घर जाकर कपड़े बदल पाना संभव
नह था। वो तो भला हो वनोद के लयंट सुझाव का क म कूल के ब ते म ज स और
ट -शट रख कर लाने लगा। जब माँ ने मुझे सुबह-सुबह कूल के ब ते म ज स शट डालते
ए दे खा तो उसे बड़ी हैरानी ई। ले कन मेरे पास वनोद का रटाया आ जवाब पहले से
तैयार था।
“माँ रात तक सफ़ेद शट पहने रहने से उस पर मैल चढ़ता रहता है। फर बेकार म तुम
उसको रगड़-रगड़ कर परेशान होती रहती हो।”
माँ ने मुझे ऐसी संदेह भरी नज़र से दे खा जैसे म ब ते म बं क रख कर ले जा रहा था।
ले कन म फटाफट ब ता भरकर कूल के लए नकल गया। जैसे-तैसे कूल ख़ म आ
और म कूल के टॉयलेट म कपड़े बदल कर को चग आ गया।
ु त पहली डे क पर बैठती थी। वनोद के कहे अनुसार म चौहान सर के आने से पहले
ु त के सामने से दो-तीन बार आ-जा चुका था। मेरा अंदाज़ा है क ु त ने इस दौरान मुझे
एक-न-एक बार ज़ र दे खा होगा। ले कन म ये यक़ न से इस लए नह कह सकता य क
म ख़ुद एक भी बार ु त क ओर दे ख नह सका था। हर बार उसके सामने से गुज़रना
उतना ही क ठन होता था जतना पहली बार पापा क उँगली के बना कानपुर क चौड़ी
सड़क को पार कर पाना आ था।
वनोद का सरा मा टर ोक था को चग के आवारा क़ म के लड़क क ट ट टाइट
करना। उन सबको स त हदायत द जा चुक थी क ु त मेरी आर.ए.सी. है। हालाँ क,
मुझे वनोद के श द चयन पर तीखी आप थी ले कन मन मारकर मने उसके लान म
ह त ेप नह कया। आधे घंटे म सभी लड़क को पता चल चुका था क वनोद मेरी
आर.ए.सी. को कंफ़म कराने म जुटा आ था। इस लए उ ह ने अपनी-अपनी वेट ल ट
कसी और डे टनेशन पर लगा द थी।

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वनोद मेरी तेज र तार शाह ख़-काजोल-डीडीएलजे-ए स ेस का ट .ट . बनकर आ
चुका था।
चौहान सर क आदत थी क वो सभी सवाल को पूरा-पूरा हल नह करवाते थे। वो
समय बचाने के लए सवाल को सॉ व करने का तरीक़ा बताकर, उसे बीच म ही छोड़ दे ते
थे। इस वजह से ु त को ग णत म ख़ासी द क़त पेश आती थी। वनोद के तीसरे मा टर
ोक के तहत, उसने दो-तीन लड़ कय से ु त को ये कहलवा दया क पुनीत ग णत म
ग़ज़ब तेज़ है। उ ह जन भी सवाल म डाउट रह जाता है, पुनीत (यानी म) उ ह सरल
तरीक़े से समझा कर, लयर करा दे ता है।
ख़ुश- क़ मती से उस दन चौहान सर कैलकुलस पढ़ा रहे थे और ु त का कैलकुलस
से छ ीस का आँकड़ा था। जहाँ ु त अपर ल मट और लोअर ल मट के बीच परेशान
भटक रही थी वहाँ म इंट ेशन क बारी कय को समझता आ आज क लास म सभी
सवाल का बढ़-चढ़कर जवाब दे रहा था। चौहान सर ने आज के पहले मुझे लास म उसी
तरह नो टस नह कया था जैसे मने आज तक इंसानी वकास म कैलकुलस के योगदान को
नो टस नह कया था। म सवाल को मु तैद से हल करता आ यही सोच रहा था क य द
लास के हर लड़के को ु त जैसी कसी लड़क से यार हो जाए तो वो सब सौ परसट
नंबर से पास होना शु हो जाएँगे।
काश पाठ माठ साब हम ग णत पढ़ाने के बजाय सफ़ ेम करना सखाते। मुग़ा
बनाने के बजाय बस मुह बत क सीख दे ते। य द ऐसा होता तो म दावे के साथ कह सकता
ँ क एक दन पैराबोला ख़ुद अ स टोट से मलने चला आता।
म एक बार फर पैराबोला के उठान और उभार म खो जाने के लए नकल पड़ा था क
तभी मने अपने जीवन क सबसे मीठ आवाज़ सुनी-
“ए स यूज़ मी। यू आर पुनीत। राइट ”
म तुरंत हाँ कहना चाहता था। ता क कोई और मुझसे पहले ये दावा न ठोक दे क वो
पुनीत है और ु त उसे पुनीत समझकर उससे बात करने लगे। म ख़ुशी और डर के मारे
ज़ोर से च लाना चाहता था, “हाँ .हाँ म ही ँ पुनीत। असली वाला पुनीत। पुनीत द
रयल वाला पुनीत।” (जैसे हक म उ मानी के हर बैनर पर लखा होता था क यही असली
वाले हक म साहब ह और इनक कोई अ य शाखा नह है)। ले कन म सफ़ सर हला पाया
और वो भी श श कपूर टाइल म नह , ब क ए. के. हंगल क टाइल म।
“आय म ट से दै ट यू आर अ जी नयस।”
म ‘थक यू’ कहना चाहता था। ले कन म सफ़ ‘ओके’ कह पाया। और मेरा ‘ओके’
कहने का लहज़ा भी इतना बुरा था क वो क़तई ओके नह था। ले कन ु त सच म इतनी
अ छ लड़क थी क उसने मेरी बेवक़ूफ़ का बुरा नह माना और उ टा मु कुराने लगी।

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अगर यहाँ पर ु त क जगह यंका सघा नया और ईशा कपूर होत तो वो अपने फ़ेक
ए सट म ‘वाटे वा..’ कहकर नकल जात । वो अं ेज़ी बोलकर अं ेज़ पर एहसान करती
थ । इस लए वो ‘वाटे वर’ का ‘र’ खा जाती थ और उसे ‘वाटे वा..’ कहकर नकल लेत ।
ले कन ु त उनके जैसी नह थी। उसक मु कुराहट म मेरा मज़ाक़ क़तई छु पा आ नह
था। अगर उसक मु कुराहट म कुछ छु पा आ था तो शायद चाँद क पायल के छोटे -छोटे
घुँघ ।
मने ह मत जुटा कर जैसे-तैसे कैलकुलस म उसके सवाल का कॉ फडटली जवाब
दया और ल मट से खी होकर ल मटे ड हो चुके उसके चेहरे पर वापस ख़ुशी इ ट ेट
होकर तैर गई। उसक हँसी मेरे लए आज तक का सबसे बड़ा इनाम थी। अगर म ग णत म
सौ नंबर भी ले आता तो मुझे इतनी ख़ुशी कभी नह होती। इतनी ख़ुशी मुझे बस तीन दफ़ा
ई थी -
एक दफ़ा तब, जब मेरी बो रग, उदासीन, सदाचारी, बकवास ज़दगी म पहली बार
केबल आया था। और रात 12 बजे के बाद टार लस, रेन ट वी म बदल गया था और उसने
मुझे केट वसलेट (के गोरे शरीर) से मलवाया था। सरी दफ़ा तब, जब मने पहली बार
रेज़र से शेव करके अपने कशन कुमार ( दर ऑफ़ गुलशन कुमार) छाप फ़ालतू से थोबड़े
को कुमार गौरव टाइप चॉकलेट चेहरे म बदलते दे खा था। और तीसरी दफ़ा तब, जब पापा
ने मेरे बथडे पर मुझे एलजी का कलर न मोबाइल फ़ोन लाकर दया था जसम कसी
भी गाने क रग टोन सेट क जा सकती थी। मने ‘अनदे खी अनजानी-सी, पगली-सी
द वानी-सी’ को अपनी रग टोन बनाया था।
मने ु त को उसक साय कल तक छोड़ा और उसे अपना मोबाइल नंबर भी दया।
ता क जब भी ु त कसी सवाल म अटक जाए तो वो अपना दल छोटा न करे और मुझे
फ़ोन करके तुरंत उसका सॉ यूशन समझ सके। म एकदम नह चाहता था क कोई भी
मन स-सा सवाल ु त क हँसी म छु पे घुँघ क खनक पर ज़ंग चढ़ाए।
ये मेरी ज़दगी का अब तक का सबसे ख़ास दन था। म जब घर प ँचा तो ु त क
आवाज़ के जग स मेरे दलो दमाग़ को खनका रहे थे। ‘पुनीत’, ‘जी नयस’, ‘ए स यूज़
मी’, ‘आय म ट से’। ु त के ह ठ लो मोशन म कल होकर मुझे बार-बार बुला रहे थे। हर
ल ज़ पर मुझे हरारत हो रही थी और ये हरारत मरे लए ब कुल नई थी। इससे मेरा ता फ़
कभी बे माठ साब ने कराया ही नह था। वो जस अलौ कक ेम क बात करते थे वो
कतना बो रग और ठं डा था, इसका अंदाज़ा मुझे आज ु त से मलकर हो गया था।
म अपनी नई-नई हरारत का तापमान मापने क को शश कर ही रहा था क अचानक
मेरे मोबाइल फ़ोन पर ु त का एसएमएस लैश आ-
‘ ड शप इज़ अ सी
एंड ड् स आर फशेज़
ो े
यू आर माय गो डे न फश
आय वल क प यू सेफ इन माय हाट
बट इफ यू ाय टू इ केप
माँ क़सम ाई करके ब ली को खला ँ गी।’
आ ख़री लाइन के बाद ु त ने तरह-तरह क माइली बनाई ई थी। कॉमा पी, कॉलन
डी, कॉलन ओ। मने हरेक माइली को वैसा ही चेहरा बना कर पढ़ा और म सचमुच ख़ुशी से
बावला हो रहा था। म ये सोचकर और भी ख़ुश हो रहा था क ु त ऐसे चेहरे बनाकर
कतनी यारी लग रही होगी। आँख मचकाकर हँसते ए, वो बे-इंतहा यूट लग रही होगी।
जीभ नकालकर हँसते ए वो नॉट लग रही होगी और खुलकर मु कुराते ए एक ब ची
जैसी लग रही होगी।
म ु त के एसएमएस क हरेक लाइन और हरेक ल ज़ का अथ समझने क को शश,
वैसे ही कर रहा था जैसे म जयशंकर साद क क ठन क वता क संदभ- संग स हत
ा या करने क को शश कया करता था। तुत पं य म ु त ये कहने क को शश
कर रही थी क दो त मछ लय के सामान होते ह पर म कोई आम मछली नह था। म
उसक सबसे ख़ास सुनहरी मछली था और इसी लए ु त मुझे अपने दल क तजोरी म
सुर त रखना चाहती थी। भले ही अ य मछ लयाँ उसके दल के फश-बाउल से कूद कर
मर-मुरा भी जाएँ पर तुत पं य म ु त कहना चाहती थी क म हमेशा के लए उसके
दल म र ँ।
म ु त के लए ख़ास था और इस बात का अहसास मेरी आने वाली ज़दगी को पूरी
तरह से बदल दे ने वाला था।
अब म दन भर कूल ख़ म होने और को चग शु होने का इंतज़ार कया करता। म
को चग म ु त के साथ बैठने लगा जो अपने-आप म एक ां तकारी क़दम था। आमतौर
पर लड़ कयाँ आगे क तीन लाइन म बैठती थ और लड़के पीछे क लाइन म। हालाँ क, म
को चग के सारे लड़क क आँख क कर करी बन चुका था ले कन वो वनोद क हदायत
क वजह से आँख मलकर ही शांत हो लेते थे। पता नह य , म पहले कभी वनोद के
भीतर छपा नः वाथ म दे ख नह पाया था।
वनोद ने मुझे एक एसएमएस पैक भी फारवड कर दया और उसके एक-एक
एसएमएस को कब-कहाँ-कैसे उपयोग करना है, उस पर मुझे ै श कोस भी दया। सुबह
उठ कर गुडमॉ नग मैसेज म लड़क को ये जताना चा हए क आज क सुबह उसक हँसी
क तरह ताज़ा है। दन से लेकर शाम के व त एक-दो फनी चुटकुले भेजे जा सकते ह और
रात म सोने से पहले कुछ ऐसे मैसेज जो थोड़े शरारत से भरे ह ।
मसलन, पहली लाइन म ‘आई’ लखा हो, सरी लाइन म ‘लव’ लखा हो और उसके
आ ख़री लाइन तक प ँचने के लए ब त सारी ख़ाली लाइन ह । मनट भर ॉल करने के
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बाद आ ख़री लाइन म ‘ ली पग’ लखा हो और कॉलन पी वाला माइली। म जब भी कभी
इस तरह के मैसेज भेजता तो ु त भी उसका जवाबी मैसेज भेजती। जसे पढ़ते ही मुझे
लंबी-लंबी साँस लेकर सो जाने को दल करने लगता था।
इन सबम कैलकुलस न जाने कहाँ छू ट गई और हमने उसे ढूँ ढ़ने क को शश क भी
नह । ऐसे म न ही मुझे ‘लोअर ल मट’ क फ़ थी और न ही ‘अपर ल मट’ क चता। म
बु से अ स पटोट क तरह, घ घे क तरह, रगते-रगते ु त तक नह प ँचना चाहता था।
तीन दन बाद ु त का बथडे था और म चाहता था क म उस ख़ास दन उसे ऐसा कुछ ँ
क म उसक ज़दगी म और भी ख़ास हो जाऊँ। सुनहरी मछली से भी अ धक ख़ास।
मने वनोद को फ़ोन लगाया -
“भाई ”
“हाँ, बोलो मेरे चॉकलेट वाय।”
“यार, एक आ ख़री एहसान और कर दे भाई।”
“तु हारी माल से तु हारा याह करवाना है या ”
“यार, तुम हमेशा ऐसे य बात करते हो वो कोई माल-वाल नह है। उसका नाम ु त
है। तुम सीधी तरह से उसे ु त कहकर नह बुला सकते या ”
“ठ क है यार। तो बता तेरी माल ु त से तु हारा याह करवाना है या ”
वनोद से बहस करना बेकार था। ले कन वो बुरा आदमी नह था। इसी लए मने ‘ ु त
माल नह है’ पर बहस करने के बजाय सीधे मु दे पर आना ठ क समझा।
“भाई, तीन दन बाद ु त का बथडे है। उसे बथडे पर या ग ट ँ ”
“अबे लड़ कय को ग ट दे ने म इतना या सोचना आच ज़ क कान चले जाओ।
परेड चौराहे पर है। वहाँ पक कलर म जो भी मले उठा ले आना।”
“यार, ु त वैसी लड़क नह है। ये सब यंका सघा नया और ईशा कपूर जैसी
लड़ कय को पसंद आता होगा।”
“हम समझ रहे ह। कटे गा तु हारा ”
“कटे गा मतलब य कटे गा तुम ु त को इतना शैलो य समझते हो ”
“अबे गधे, नया म सब लड़ कयाँ एक जैसी ही होती ह। पक कलर पर सबका
‘ऑ सो यूट’ नकल आता है। और अगर तुम ु त को सब लड़ कय से अलग ही
समझते रह गए तो कटा लोगे अपना। आच ज़ से पक टे डी बयर, पक कुशन और लाल
रंग का ी टग लाकर दो उसे। और फर दे खो ”

“ ो औ े ओ े ो औ
“नह वनोद, कुछ और पेशल-सा बताओ न ये सब तो हर सरा लफ़ंगा और हर
तीसरा आ शक़ करता ही रहता है। म कुछ अलग करना चाहता ँ। जो ु त को बेहद ख़ास
लगे। जो ऐसा हो क सफ़ पुनीत ही ु त के लए कर सकता हो।”
वनोद ने फ़ोन काट दया। म उसे दोबारा फ़ोन करना भी नह चाहता था। य क मुझे
नह लगता था क वनोद इस बात को समझ सकता था क ु त मेरे लए या थी। इसम
उसक ग़लती थी भी नह , य क ु त के लए पुनीत का यार कोई फ़ालतू-सड़कछाप
यार नह था। मने दमाग़ ह का करने के लए रे डयो मच ऑन कया।
रात के आठ बज रहे थे और लवगु का ो ाम आ रहा था। “लवगु म सहारनपुर से
आशीष बोल रहा ँ। म शीतल को बे-इंतहा यार करता ँ और तीन दन बाद उसका
ज म दन है। म उस ख़ास दन के लए उसको एक ख़ूबसूरत-सा गाना सुनाना चाहता ँ।”
या ये मा एक संयोग था या फर क़दरत का कोई इंडीकेशन ले कन ये भी तो कोई
नया तरीक़ा न आ। ऐसा तो आशीष, सहारनपुर से ऑलरेडी कर चला था। पर फऱ मुझे
वनोद क बात याद आई। शायद लड़ कय को यही सब यूट तरीक़े पसंद आते ह और म
बेवजह ही उ ह नज़र-अंदाज़ कर रहा था। आम-सी बात को भी ख़ास अंदाज़ म कहा जा
सकता है न। शायद लड़ कय को यही सब पसंद आता हो इस लए मने तय कर लया क
म ु त को रे डयो पर बथडे वश क ँ गा। एक ख़ास से अंदाज़ म। जो सफ़ पुनीत ही ु त
के लए कर सकता हो।
म बीस अग त का इंतज़ार करने लगा। हालाँ क, बीस अग त तीन दन बाद ही आने
वाला था ले कन इंतज़ार करने से तीन दन तीस के बराबर लगने लगे थे। वनोद क मदद से
मने ु त क सबसे अ छ दो त नेहा को अपने सर ाइज़ म भागीदार बना लया था। नेहा
तुरंत ही तैयार भी हो गई थी य क उसे ये ‘ स पली यूट’ लगा था। उसने ॉ मस कया
क वो बीस अग त को ठ क आठ बजे ु त को रे डयो सुनने बठा दे गी।
बीस तारीख़ को मने जान-बूझ कर ु त को अवॉइड कया। जैसे क मुझे इस बात का
अंदाज़ा ही न हो आज के दन ु त जैसी यारी-सी लड़क इस नया म आई थी।
हालाँ क, ऐसा कर पाना मेरे लए बेहद मु कल हो रहा था ले कन इस बार मने वनोद क
बात मानना ठ क समझा। ठ क साढ़े -सात बजे मने एक साफ़ से काग़ज़ पर वो मैसेज लख
कर रख लया जो म ु त को दे ना चाहता था। दो-तीन बार उसे पढ़कर ै टस कर लेने के
बाद मने ठ क सात बजकर पतालीस मनट पर अयाज़ को नंबर लगाकर दो बार चेक
कया। फ़ोन लाइंस ठ क काम कर रही थ । सात बजकर पचपन मनट पर नेहा का
एसएमएस भी आया- “ऑल गुड।” और अगले ही मनट वनोद का एसएमएस आया -
“छा जा मेरे शेर ”
सबसे पहली कॉल मेरी ही थी। सरी तरफ़ अयाज़ ही था।
“जी क हए। कौन ज़नाब बोल रहे ह ”
“ ॉ ौ ी े े ो े
“ ु त रॉय चौधरी आज तु हारे ज म दन पर म तु ह सबसे ख़ूबसूरत तोहफ़ा दे ना
चाहता ।ँ अपने यार के इज़हार का तोहफ़ा।”
“अरे, आप बोल कौन ज़नाब रहे ह अपना नाम तो बता द जए।”
“ ु त, मने जस दन से तु ह चौहान सर क लास म दे खा है तुम मेरे दल-ओ- दमाग़
और तन-मन-धन का ह सा बन चुक हो। मुझे इस बात क ख़ुशी है क तुम भी मुझे बेहद
पसंद करती हो।”
“अरे, अपना नाम तो बता दो यार ”
आज म तुमसे कह दे ना चाहता ँ क म ताउ तु ह बे-इंतहा यार करता र ँगा और तुम
हमेशा मेरे जीवन का ह सा रहोगी। आई वांट टू मैरी यू आई वांट टू ो ओ ड वद यू।”
“जनाब, कुछ हमारी भी तो सुन ल ”
“अयाज़ म चाहता ँ क तुम ु त के लए, ज़रा-ज़रा महकता है, आज तो मेरा तन-
बदन, गाना डे डकेट कर दो।”
मने फ़ोन रख दया और अयाज़ ने मेरा गाना ले कया। मेरा दल तेज़ी से धड़क रहा
था। म ख़ुश भी था य क मने बना कोई ग़लती कए अपने यार का इज़हार कर दया। म
यही सोच रहा था क इस व त ु त ये गाना सुनते ए कतना ‘ पेशल’ फ़ ल कर रही
होगी। अगले ही मनट नेहा का एसएमएस आया- “यू डफर।” और उसके अगले ही पल
वनोद का फ़ोन आया। ले कन मने वनोद का फ़ोन नह उठाया और म सफ़ ु त से बात
करना चाहता था।
ठ क यारह बजे ु त ने फ़ोन कया। म ु त क मसरी जैसी आवाज़ म ‘आई लव यू
पुनीत’ सुनने के लए बेक़रार हो रहा था-
“यू ई डयट तुम समझते या हो अपने आपको मने आज तक तु हारे जैसा बेवक़ूफ़
इंसान नह दे खा।”
“ ु त, फ़ोन पर तुम ही हो न ”
“हाँ म ही ँ और नह तो कौन होगा मने कब तुमसे कहा क म तुमसे यार करती
ँ तुम दो कौड़ी के लड़के एक ख़ूबसूरत लड़क ने तुमसे हँसकर बात या कर ली तुमने
ये मान लया क वो तुमसे यार करने लगी है। और तो और रे डयो पर पूरे कानपुर के
सामने ये लाऊड पीकर पर कहने क या ज़ रत थी और तुम इतने अ वल दज के गधे
हो क तुमने मेरा पूरा नाम भी बता दया और ये भी बता दया क म चौहान सर क को चग
म पढ़ती ँ।”
“ ु त, ु त है पी बथडे आज के दन ग़ सा नह करते।”

“ ै ो ी ॉ े े ो ी े े
“हैव यू टोटली लॉ ट इट तुम कतने बड़े चप हो यार तु हारी बेवक़ूफ़ क वजह से
मेरे पापा को पूरे ऑ फ़स टाफ़ के सामने श मदा होना पड़ा। कुछ लोग ने तो उ ह इस बात
क बधाई भी दे द क अ छा आ रॉय साहब, आपको बेट के बथडे पर जमाई भी मल
गया। आज के बाद तुम मुझसे बात करने क ह मत भी मत करना।”
“है पी बथडे ु त।”
ु त ने ग़ से म फ़ोन रख दया और म समझ चुका था क ु त के साथ आज मेरा भी
है पी वाला बथडे मन गया है। मने ह मत जुटाकर उसे दोबारा फ़ोन करने क को शश क
ले कन ु त मेरा फ़ोन नंबर लॉक कर चुक थी। मने दल ह का करने के लए वनोद से
बात क और उसने मुझे सरल श द म समझा दया क तु हारी लव टोरी पर फुल टॉप
लग गया है। (“गु तुम तो फरी फंड म पल गए। अब तु हारी आरएसी तो हम भी कंफ़म
न करा पाएँगे। ब ढ़या रहेगा अगर जीवन भर के लए रेल या ा का वचार ही याग दो।”)
एक ही रात म, दो मनट के भीतर म एक मज़ाक़ बन चुका था। अगले दन कूल
प ँचा तो मेरी छोट -सी लव टोरी कूल के हर टॉयलेट, द वार, डे क और लैकबोड पर
तराशी जा चुक थी। ‘पुनीत ल स ु त’, टॉयलेट क बदबू से हल- मल कर सड़ांध मार
रहा था। कभी स फर जैसा तो कभी सड़े ए अंडे से भी अ धक बुरा। ु त का फ़ोन नंबर,
‘मुझसे बात करो’ क टै गलाइन के साथ दल के नशान क बीच च पा कर दया गया था।
आज फर ग णत क लास ई ले कन उसम पैराबोला और अ स टोट नह था।
कॉ ले स इ वेशन थी। रयल के बीच म इमै जनरी था। दोन मलकर कॉ ले स हो चुके
थे। अं ेज़ी क लास ई ले कन आज उसम लूसी े नह थी। ‘फॉरगे टग’ पर सटायर था।
यौ फ क लास म मूसलाधार बा रश नह थी। सूनामी पर छोटा-सा ड कशन ज़ र
था। जैसे-तैसे आ ख़री लास तक दन रगते-रगते प ँचा तो बायोलोजी म इंसानी दल क
संरचना पढ़ाई जा रही थी।
“इंसान का दल चार चबस म बँटा आ होता है। इंसानी दल दन भर ख़ून को पंप
करता रहता हो।” उमेश जी ने पढ़ाया।
“सर, ये चाट म कसका फोटो बना आ है ” मने हैरान होकर पूछा।
“अब जब दल के बारे म पढ़ा रहे ह तो आँत का फोटो तो बना नह होगा ” उमेश जी
ने ग़ से म कहा।
“ले कन सर, ये दल का फोटो लग तो नह रहा है।” मने भी ग़ से म कहा।
“ या बकते हो जी ”
“सर ये कैसा गंदा-सा बे दा फोटो है दल तो पान के प े जैसा होता है ना ये तो
कडनी लग रहा है।”

“ ो े ो ो ी ै ी
“दो ल पड़ पड़गे तो दल- दमाग़-नज़र सब त हो जाएगा। कडनी राजमा जैसी
होती है। फर भी दल से ख़ूबसूरत दखाई दे ती है। फ़ म कम दे खा करो। इंसान का दल
ऐसा ही दखलाई दे ता है। ढे ले जैसा। माँस का लोथड़ा।”
उमेश जी आगे पढ़ाने लगे और म खी होकर, सर झुकाकर बैठ गया। मुझे बेहद ग़ सा
आ रहा था। फ़ म पर और उनम झूठ दखाई जाने वाली मूखता पर। फ़ म का कारोबार
ही ‘ दल’ ल ज़ पर चलता है। न बे तशत गाने दल-जान- जगर क बकवास के बना
बनाए ही नह जा सकते। दल, जो क इतना बेढंगा-बे दा-घ टया दखलाई दे ता है। दल,
जो क बस एक मज र क तरह ख़ून ख चता और फकता रहता है। एक पचकारी क
तरह। उमेश जी क तरह। जो क लास के बीच म ही द वार के कोने पर लाल-लाल पान
क पीक फकते रहते ह।
मने कताब का प ा पलटा तो उसम ु त क पासपोट साइज़ फोटो दबी ई नकली,
जो एक बार मने को चग म ु त क डे क के नीचे से उठाई थी और म उसे ु त को वापस
करना भूल गया था। मने काले पेन से ु त क मूँछ बना । मेरी बग़ल म वनोद बैठा आ
था। वो मु कुराया और उसने ु त के गाल पर काला म सा रख दया। अपनी ये ट वट
पर वनोद और भी ख़ुश ए। उसने मुझे काग़ज़ क चट पास क ।
“डाकू सुरती सह।” वनोद ने लखा।
“खूँखार डाकू सुरती सह।” मने करे शन करते ए लखा।
“अब लाइन पर आए हो ” उसने लखा।
“अपनी माल क फोटो दखाओ।” मने लखा।
बलमवा तुम या जानो ीत

व म क पीठ पर चोट का यह नशान उसके पता ने दया था। यह नशान एक यारह


इंच लंबी, काली े ट लाइन थी। े ट लाइन, जो क उसक रीढ़ क ह ी के पैरलल थी।
‘ े ट लाइन’ क प रभाषा कहती है क यह वो योमे कल आकार है जसम सफ़ एक
डाइमशन होता है। एक, यानी क लंबाई। इसके अ त र , इसम न ही चौड़ाई होती है और
न ही गहराई।
ले कन, व म क पीठ पर मार का ये नशान, जो क एक े ट लाइन थी उसम लंबाई
से अ धक गहराई थी और गहराई से कह अ धक चौड़ाई। गहराई इतनी क इसम उसका
पूरा अतीत भलभला कर, बजबजा कर, नाली के क चड़ क तरह बहता था। चौड़ाई इतनी
क इसम उसके पता क द ई सारी मोट -भ द गा लयाँ एक-के-ऊपर-एक खचाखच टै टू
हो रखी थ और उसके बाद भी उसम ट ल क उस रॉड के फट होने क जगह भरपूर बच
जाती थी, जससे उसके पता कनल राठौर ने उसे बेइंतहा मारा था।
मारने क वजह लाज़मी थी। व म ने अपने बाईसव बथडे पर अपने पता को बता
दया क वो गे है। “गे मतलब” पता ने तुरंत पूछा था। जसके जवाब म उसने डरते-डरते
कहा, “गे मतलब होमोसे सुअल।”
“मतलब क तुमको लड़का लोग पसंद है ”
“हाँ।”
“पसंद है तो या करोगे ”
“बस पसंद है। करना या है, ये नह मालूम।”
“अरे, तो या लड़का से शाद करोगे। उसके साथ सोना चाहते हो ”
“पता नह ”
“पता नह का या मतलब होता है। ह जी, मतलब तुमको नह पता है क तुम उनके
साथ सो भी सकते हो ”
“पता नह ।” व म ने फर से कहा और इस इक़रार के एवज़ म उसके पता ने उसे घंटे
भर धुना था।

ो े े ी
व म को यादा बुरा इस बात का नह लगा था क उ ह ने उसे बुरी तरह मारा था
ब क इस बात का लगा क उ ह ने व म क माँ को भी मारा। इस अपराध म क उसने
कसी और क औलाद को जना है।
कनल राठौर क औलाद गांडू नह हो सकती।
उस दन के पाँच साल बाद आज, जब क व म का स ाईसवाँ ज म दन था, कुमार
व म क पीठ पर बनी काली े ट लाइन क गहराई और चौड़ाई को अपने ह ठ के
ह क -सी छु अन से भरने क को शश कर रहा था।
उसके छोटे -छोटे चुंबन व म क पीठ पर पघलकर, घुलकर, यारह इंच लंबी, काली,
े ट लाइन क गहराई और चौड़ाई के आ ख़री पोर तक आसानी से प ँच जाते थे। वो
नशान, जो आज तक नह भर पाया था, आज भरने को होता था।
वो जो अब तक हरा-हरा था, आज गुलाबी-गुलाबी होने को होता था।
व म क पूरी पीठ को बेइंतहा चूमने के बाद कुमार ने हौले से व म के चेहरे को
अपनी हथे लय म भरा और उसके ह ठ को बेहद यार से चूम लया। कुमार ने व म को
वैसे ही चूमा था जैसे एक लड़का एक लड़क को चूमता है। जसे य द फ़ म के पद पर,
लो-बैक ाउंड यू ज़क के साथ दखा दया जाए तो जनता सी टयाँ मारने लगती है। कुमार
ने व म को वैसे ही चूमा था जैसे ‘कासा लांका’ म रक ने इलसा को चूमा था, जैसे
‘टाईटै नक’ म जैक ने रोज़ को चूमा था। या फर, वैसे ही जैसे ‘द नोटबुक’ म नोआह ने
एली को चूमा था।
ले कन व म ने कुमार के चुंबन के जवाब म, कुमार को वापस नह चूमा य क आज
उसे अचानक इस बात का अंदाज़ा आ क जब उनका चुंबन फ़ मी पद पर प ँचेगा, तो
उसके जवाब म ता लयाँ और सी टयाँ नह मलगी। उसके जवाब म तोहमत मलगी। उसके
जवाब म ज़बान भर के थूक मलेगा।
और एक बार फर उसने वैसे ही मुँह फेर लया जैसे वो अ सर अपने अतीत और
अपनी पहचान से घन खाकर फेर लेता था। वैसे ही, जैसे उसका पता व म के बाप होने
क स चाई से मुँह फेर लेता था।
व म जब मुँह फेर लेने वाला व म नह था, तब वो ब चा था। या यूँ कह ल क
व म जब तक ब चा था तब तक वो मुँह फेर लेने वाला व म नह था। बचपने का व म
साँस फूलने तक तत लय के पीछे भागता था। जुगनु संग जागता था। बचपने का व म
पतंग लूटता था। तीर से कमान-सा छू टता था। बचपने का व म (मुँह फेर लेने वाले व म
से पहले का व म) ख़ुदा या फर उसक ख़ुदाई से उपजी हर एक नेमत से बुरी तरह
ऑ से ड आ करता था।

े े ो ो ो ँ
अगर कुमार ने बचपने म व म को चूमा होता तो व म खल खलाकर हँस पड़ा
होता।
अपने आस-पास होती हर एक छोट -बड़ी बात को व म भगवान से जोड़ता था और
उसे लगता था क उसके साथ जो कुछ भी हो रहा है या होने वाला है, वो न सफ़ भगवान्
क इ छा से हो रहा है ब क व म क ज़दगी म भगवान् क ख़ास दलच पी क वजह से
हो रहा है।
अगर उसक साइ कल क चेन उतर जाती थी तो वो सोचता था क य द चेन नह
उतरती तो आज प का वो साइ कल से गरने वाला था। इस लए भगवान् ने उसे पैदल
चलने को बोला है। य द छमाही परी ा म, ग णत म उसके दो नंबर यादा कट जाते थे तो
वो सोचता था क शायद भगवान् उसे इस लए सीख दे रहा है ता क वो सालाना परी ा म
पूरे म पूरे नंबर ले आए।
व म ख़ुश था। जब तक उसे ये अहसास नह आ क होमोसे सुअल होना या
होता है। व म ख़ुश था। जब तक क वो जवान नह आ था। जवान होने और अहसास
होने के अगले ही दन से व म ने भगवान् को मानना बंद कर दया था।
य क शायद भगवान् को मानने का अथ ये होता क उसक क़ मत म ये त खी
भगवान् ने ख़ुद लखी थी।
अब व म कसी भी मानने लायक़ चीज़ को नह मानता था। पर वो ये ज़ र मान
बैठा था क वो नॉमल नह था। कभी-कभी वो ये भी सोचता था क वो दमाग़ के कसी-न-
कसी कोने म बीमार है। व म हर उस बात से मुँह फेर लेता था जससे उसे ख़ुद के
एबनॉमल होने का अहसास होता था।
जैसे अपने ह ठ पर कुमार के ह ठ के चुंबन से।
ले कन कुमार व म जैसा नह था। उसे इस बात से कोई तकलीफ़ नह थी क वो
होमोसे सुअल था। उसे कसी भी क़ म के यार से तकलीफ़ नह थी। उसके हसाब से
यार नया का एकमा नॉमल फ़लसफ़ा था। अगर उसे नया म कसी भी बात से
तकलीफ़ थी, तो बस इस बात से क व म जब भी अपने अतीत से परेशान होता था तो वो
कुमार से मुँह फेर लेता था।
“तकलीफ़ या है तुमको ” कुमार ने व म क त खी से चढ़कर, लगभग च लाते
ए कहा।
“तकलीफ़ मतलब ” व म ने आँख चुराए ए सवाल का जवाब सवाल से दया।
“ह ठ पर चूम लेने से या तकलीफ़ है तुमको ” कुमार ने और ग़ से म, और भी
अ धक च लाते आ पूछा।

े े े े े े े ो
व म ने जवाब दे ने से बचने के लए अपने ह ठ अंदर को ख च लए।
“ वल यू मैरी मी और नॉट ” कुमार ने व म के भचे ए ह ठ से पूछा।
“अब ये अचानक से मैरी मी क बात कहाँ से आ गई ” व म के भचे ए ह ठ ने
बाहर नकलते ए जवाब दया।
“अचानक से व म अचानक से बी सय बार पूछा है तुमसे और बी सय बार तुमने
इनकार कया है।”
“हाँ मना कया है य क एक लड़के का सरे लड़के से शाद करना बेवक़ूफ़ है।
शाद लड़के और लड़ कय के बीच होती है। हमारी शाद म हन बनकर कौन आएगा
म टर कुमार लाल साड़ी पहनकर तुम आओगे या म शाद के बाद तुम मसेज़ व म
कहलाओगे या फर म मसेज़ कुमार हो जाऊँगा ”
व म कुमार से चढ़कर सरे कमरे म चला गया।
सरे मतलब उस कमरे म जसमे वो तब रहता था, जब क वो इस लैट म नया-नया
आया था। व म का लैटमेट बनकर। ‘लव ऐट फ़ ट साईट’ जैसा कुछ-कुछ तो उनके
बीच भी आ था।
कुमार व म को एकटक दे खता रह गया था और व म कुमार को क़ त म चुरा-चुरा
कर दे खता रहा। हालाँ क, कुमार इस बात पर श मदा नह हो रहा था क वो व म को
टकटक बाँधे दे खे जा रहा था। पर व म हर बार नज़र मलने पर, पकड़े जाने पर, नज़र
झुका ले रहा था। नज़र मलाने और नज़र बचाने के इसी बरस पुराने खेल म कोतवाल को
चोर से ेम हो गया।
तीसरा दन ही बीता था, जब कुमार ने व म से कहा था क उसे व म क आँख
बेहद ख़ूबसूरत लगती ह और वो उ ह केच करना चाहता है। व म ने दो चुटक शमा कर
और एक चुटक झप कर मुँह फेर लया था। ले कन वो मु कुराया भी था और वाश म
जाने का बहाना करके अंदर आईना दे खने चला गया था।
व म आईने म ग़ौर से अपनी आँख को दे ख रहा था और अपनी आँख क पुत लय
म उस इन ी डएंट को खोजने क को शश कर रहा था जो उसक आँख को सुंदर बना रहा
था। शमाया आ व म इतनी आँख मचकाता था क उसके लए दो-तीन सेकड भी
अपनी आँख खोले रख पाना ार हो जाता था। फर भी, जैसे-तैसे व म अपनी आँख
को भौह तक चढ़ाकर उनक सुंदरता को समझने क को शश कर रहा था।
“अखरोट खोज रहे हो ” पीछे से कुमार ने खल खला कर हँसते आ पूछा था।
“नह वाश म ही जा रहा था। आँख म कुछ फँस गया है शायद।” बोलकर व म
फ़ौरन वाश म भागा और उसने झट से दरवाज़ा बंद कर लया था। कोई बीस मनट तक
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व म वाश म से बाहर नह नकला। य क उसे दरवाज़े पर कुमार क आहट सुनाई दे
रही थी। ख़ुशी-ख़ुशी म जी भर के रो लेना या होता है, इस बात का तजुबा उसे उस दन
पहली बार आ था।
हालाँ क, दरवाज़े के उस पार से कुमार के खटपट करने क आवाज़ अभी तक आ रही
थ ले कन ह मत करके व म बाहर नकला। कुमार एक बड़े से कैनवस पर व म क
आँख केच कर चुका था और वो उ ह तरह-तरह के एंग स से नहार रहा था।
“ठ क बनी ह ” कुमार ने पूछा।
“बेहद ” कहने क व म ने को शश क ।
“तु हारी आँख क पुत लयाँ हेज़ल नट जैसी ह।” कुमार ने कहा था। “न भूरी, न
काली। न ब लौरी, न शेर क आँख -सी। दोन के एकदम बीच -बीच। ले कन यादा रोया
मत करो। हेज़ल नट क सेहत के लए यादा पानी अ छा नह होता। सील जाता है।”
कुमार व म के हेज़ल नट् स क सीलन म धूप क गुनगुनाहट क तरह आया था। जब
व म दे र शाम अपनी नौ-से-सात क नौकरी बजाकर लौट रहा होता तो अ सर कुमार
कचन म तड़का लगा रहा होता। ये लगभग रोज़ाना ही होता था क व म कुछ दे र जी
भरकर अपने मैनेजर को कोस रहा होता और कुमार उतनी दे र म डाइ नग टे बल पर खाना
सजा दे ता।
व म के कोसते ए ह ठ पर कुमार अपने हाथ म थामा आ नवाला लगा दे ता था
और व म अचानक चुप हो जाता। जब कभी व म उस पर भी चुप नह होता तो कुमार
ज़ रत से बड़ा नवाला उसके ह ठ के भीतर सरका दे ता। व म सफ़ इस वजह से चुप
हो जाता था य क मुँह म इतना बड़ा कौर होने से उसके लए बोलना मु कल हो जाता।
व म पानी का गलास खोजने लगता तो कुमार उसे परे सरकाकर कहता क खाने के
बीच म पानी नह पया जाता। थोड़ी दे र पानी के गलास के लए झगड़ा होता ले कन
व म ज द ही हार मान लेता और चुपचाप खाना खाने लगता।
खाने के दौरान कुमार को पैर के अँगूठे से टे बल के नीचे व म के पाँव पर गुदगुद
करना बेहद पसंद था। व म को इस पूरे खेल से कोई ऐतराज़ नह था, बशत उस दन
उनके साथ कोई और डनर न कर रहा हो। हालाँ क, कुमार को ये खेल यादा मज़ेदार तभी
लगता था जब उस दन एक अदद मेहमान डनर टे बल पर मौजूद हो। शम से व म के
चेहरे को सुख़ होते दे खना उसे बेहद पसंद था।
डनर के बाद दोन अ सर बालकनी म बैठकर दे र रात तक वाइन पया करते और
आसमान तका करते। कुमार को दन का ये ह सा सबसे ख़ास लगता था य क यही वो
व त था जब आसमान क काली-सफ़ेद सीनरी और वाइन के ह के सु र क आड़ म
व म वो सब कह दया करता था जो वो अमूमन नह कहा करता था। जैसे क
“ ँ ेओ े े ी ैऔ े े ी े ी
1. “चाँद नया क सबसे ओवर-रेटेड चीज़ है और उसने बेवजह ही नया के सभी
क वय और पटर का माथा ख़राब कर रखा है।”
2. “मुझे तारे गनना पसंद है और तु ह चाँद गनना पसंद है। ले कन चाँद तो एक ही
होता है कुमार गनना ही है तो तुम तारे य नह गनते हो ”
3. “जब लोग मर जाते ह तो वो तारा बन जाते ह। एक दन मेरी माँ भी मरकर चुपचाप
तारा बन जाएगी ले कन जब मेरा बाप मर जाएगा तो वो भगवान क नाक म तब तक दम
करेगा जब तक क वो उसे चाँद नह बना दे ता। उसे तारे एकदम पसंद नह ह।”
4. “ले कन चाँद बनकर हर पं ह दन बाद मेरा बाप मट जाएगा। मेरी माँ हर रात
ज़दा रहेगी। ज़दा रहेगी न कुमार ”
5. “अगर तु ह एक मा टरपीस पट करना होगा तो तुम या पट करना पसंद करोगे
कुमार चाँद या फर उसके बाज़ू म गुमसुम-सा बैठा वो तारा . ”
6. “ मुझे मालूम है। तुम तारा ही बनाओगे है न कुमार ”
कुमार इन सब बात का न ही कोई मतलब नकालने क को शश करता था और न ही
कोई जवाब। इनका शायद कोई मतलब था भी नह । या अगर था भी तो उनको ‘न
समझना’ उ ह ‘समझे जाने’ से कह अ धक ख़ूबसूरत था।
और उससे भी अ धक ख़ूबसूरत था, ये सब कहते-बोलते व म का कुमार क गोद म
वाइन का गलास थामे ए सो जाना, हौले से वाइन के गलास का ढु लक जाना। लाल वाइन
म ओवर-रेटेड चाँद का अंडर-रेटेड अ स झलकना। कुमार का व म के बाल पर हाथ
फराना और उसके जाने बग़ैर चोरी से उसके ह ठ को ह के से चूमते रहना।
ऐसे म, व म को अपनी गोद म लेटे ए दे खना कुमार को बे-इंतहा सुकून दे ता था।
उसका भोला चेहरा दे खकर कुमार का हया जुड़ा जाता था। वो उन सारे ल ह को उँग लय
पर गना करता था जब व म इतना ही भोला, बे-परवाह,शांत और मगन दखाई दया हो।
जब कुछ पल के लए ही सही, व म अपने आप से ज़रा-सा भी श मदा, ख़फ़ा न दखा
हो।
वो याद करता था, माच क वो गुनगुनी दोपहर जब दोन पुराना क़ला दे खने गए थे
और व म अपनी आवाज़ का ईको सुनकर ब चे क तरह ख़ुश हो गया था। “कुमार”, वो
म म आवाज़ म च लाया था और जवाब म सारी द वार ने मलकर कुमार को पुकारा
था। व म ए ड़य पर कौतूहल से उछल पड़ा था और उसक आँख चमक आई थी। उसने
डरते-डरते दे खा क अगल-बग़ल कोई नह था।
वो याद करता था कस तरह से व म फर से म म से त नक अ धक ऊँची आवाज़ म
‘कुमार आई लव यू’ च लाया, और ‘कुमार’, ‘आई’, ‘लव’ और ‘यू’ क चार आवाज़

े ो औ े ो
अलग-अलग द वार से टकराकर, मो तय और रंग- बरंगे कंच क तरह, उन दोन पर
बरसने लग । व म उ ह मु ट् ठय म पकड़ घंट अपनी जेब म भरता रहा।
वो याद करता था नवंबर क एक बुझी-सी शाम जब व म ने शरारती होते ए पूछा
था, “इस पेड़ पर अपना नाम लख द कुमार ल ज़ व म ” और फर ख़ुद ही ये सोचकर
शमा गया था क ये थोड़ा यादा चीज़ी हो जाएगा। नाम न लख पाने क क रह-रहकर
उसके मन म कई दन तक उठती रही।
वो याद करता था जनवरी क अलसाई-सी सुबह जब रज़ाई म लेटे ए व म मु ठ म
अपनी बीच वाली उँगली छु पा लया करता था और कुमार से उसे खोजने क ज़द करता
था। फर अ सर इस बात पर खल खला कर हँस पड़ता था क कुमार हमेशा उसक कानी
उँगली ही पकड़ पाता है।
वो याद करता था अग त क वो सीली भीगी-सी रात जब झमाझम बा रश से चहककर
व म ने कहा था क चलो हम दोन पैसे जोड़ लेते ह और भागकर हवाई चले चलते ह।
सुना है वहाँ ख़ूब बा रश होती है और वो जगह बा रश म बेहद सुंदर लगती है। वहाँ हम कोई
पहचानता भी नह है।
आज फर झमाझम बा रश गर रही थी।
कमरे म अकेले उदास बैठे व म ने खड़क से बाहर दे खा तो ऐसा लग रह था जैसे
कोई वाइपर से चाँद को धुल रहा हो।
झगड़ बैठना उसे इधर ट स रहा था और उधर कुमार को। अ सर झगड़ा होने पर मनाने
क पहल कुमार करता था ले कन आज घंटा भर बीत जाने के बाद भी कुमार व म के
कमरे म नह आया। चूँ क ऐसा पहले कभी नह आ था इस लए व म क पीठ पर
काली- े ट-लाइन म कुछ कसमसा रहा था।
कुछ था जो पीठ पर चूँट काट रहा था। कुमार क ग़ैरमौजूदगी म वो बेइं तहा घबरा रहा
था। हालाँ क, कुमार उसके बग़ल वाले कमरे म ही था ले कन ये डर उसे खाए जा रहा था
क अगर कुमार उससे ग़ सा होकर कह चला गया तो वो या करेगा
ऐसा लग रहा था क काली- े ट-लाइन फर से ताज़ा हो रही है और अभी फट पड़े गी।
चौड़ाई म। गहराई म। फट गई तो न जाने उसके भीतर से या- या नकल पड़े गा। ट ल
क रॉड, ‘गांडू’ लखा आ टै टू। उसक बेबस माँ। कनल राठौर क वद पर लगे टास।
ख़ुद कनल राठौर, चमड़े क बे ट।
व म इस क़दर बेचैन हो रहा था क वो शीशे के सामने खड़ा गदन घुमा कर मुड़-मुड़
कर अपनी पीठ को दे खने क को शश कर रहा था ले कन ऐसा करके भी वो ये नह दे ख पा
रहा था क उसक पीठ के भीतर या है, जो बजबजा रहा है, भलभला रहा है। ‘गांडू’
कसी ने पीछे से कहा, शायद कनल राठौड़ ने। वो हाँफता आ फर पीछे घूमा।
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ले कन गदन घुमाने से पीठ भी घूम जाती थी।
पीठ घूम जाने से शीशा सरी तरफ़ मुँह फेर लेता था।
शीशा सरी तरफ़ था और उसम व म था। अकेला था। कुमार नह था। उसम कनल
राठौर भी थे। उनके हाथ म चमड़े क बे ट भी थी। कुमार नह था। कुमार कहाँ था
“कुमार ” व म चीखा।
कुमार सरे कमरे म था और वो ग़ से म कैनवस पर लाल रंग के अलग अलग शेड्स
फक रहा था। वो हाँफने क वजह से गहरी साँस ले रहा था या फर गहरी साँस लेने क
वजह से हाँफ रहा था। कैनवस पर बखरा आ रंग ऐसे जमा आ था जैसे उसे पहले दाएँ
से बाएँ सरका कर बखेर दया गया हो और फर बाएँ से दाएँ सरका कर वापस समेट दया
गया हो।
कुमार ख़ुद भी लाल रंग से सराबोर था।
व म दौड़ा। सरा कमरा कोई अ धक र नह होता पर वो फर भी दौड़ा। जैसे उसके
पास कुछ-एक सेकड क ज़दगी ही बाक़ है। जैसे कोई मछली पानी क तह से ऊपर
छटक आई हो और उसे पता हो क अगर वो ज द ही पानी के अंदर डु बक नह लगाएगी
तो उसक साँस हवा म ही छू ट जाएँगी। बची ई साँस को ज द -ज द नगलते ए व म
दौड़ा। वहाँ जहाँ पानी था।
वो कुछ दो-तीन सेकड म कुमार के कमरे म प ँच भी गया। ले कन कुमार व म क
तरफ़ मुड़ा नह और वो कैनवस पर रंग फक रहा था। ामोफ़ोन पर वनाइल रकॉड लगा
आ था और मेटल क त ी उसे खुरच-खुरच कर उसके सीने से ज बात कुरेद-कुरेद कर
नकाल रही थी। एक त ी व म का सीना भी कुरेद रही थी और एक त ी कुमार का।
“बलमवा तुम या जानो ीत या जानो तुम या जानो ीत।” वनाइल ने ताना
कसा।
व म ने च ककर कातर आँख से एक तरफ़ कुमार को दे खा और सरी तरफ़
ामोफ़ोन को। बेग़म अ तर ये सवाल कससे पूछ रही थ
“कुमार ” व म ने हाँफते ए कहा। कहा या शायद पूछा। उसक आवाज़ म आ ह
था, बेबसी थी और मदद क गुज़ा रश भी। कुमार ने बचा खुचा सारा रंग कैनवस पर उड़े ल
दया और वो कैनवस को अपनी बाँह म भ चकर बैठ गया।
व म डरते ए आगे बढ़ा और उसने रोते ए कुमार को अपनी बाँह म भर लया।
कुमार ने अपनी मु ट् ठयाँ भ च ली। वो अपने हाथ को, व म को गले लगाने से रोकना
चाहता था इस लए उसने कैनवस का कपड़ा अपनी मु ट् ठय म भ च लया। व म ने
कुमार क मु ट् ठयाँ ख च कर उनक गलब हयाँ बना ल ।
“ ई ॉी” े
“आई एम सॉरी।” व म ने कहा।
“आई ड ट नीड योर सॉरी।” कुमार ने कहा।
“आई लव यू।” व म ने कहा।
“आई ड ट नीड योर लव आइदर।” कुमार ने कहा।
“मुझे तुमसे कुछ कहना है कुमार।” व म ने कहा।
“ ..” कुमार ने कुछ नह कहा।
“जब हम बालकनी म बैठकर वाइन पी रहे होते ह और तु ह लगता है क म वाइन के
नशे म तु हारी गोद म सो चुका ँ। तुम चोरी से मेरे ह ठ को चूम लेते हो। दरअसल, म उस
व त सो नह रहा होता। म हर बार उस ल हे का इंतज़ार कर रहा होता ँ जब तुम चोरी से
मेरे ह ठ को चूम लो।”
“ ..” कुमार ने फर कुछ नह कहा।
“आज पीठ म ब त दद हो रहा है कुमार, लीज़ मुझे चूम लो।”
कुमार ने मुँह घुमा लया।
“ये अपराध-बोध, ये ग ट जो पता नह य मेरी पीठ पर बे ट का नशान बन कर छप
गया है। मुझे नह पता वो कभी मटे गा या नह । ले कन अब म उसके भरने- मटने का
साल-दर-साल इंतज़ार करना भी नह चाहता। कुमार आई वांट यू टू कस मी।” कहते-
कहते व म फूट-फूटकर रोने लगा।
“कुमार ब त छरछरा रहा है। दद हो रहा है। मुझे चूम लो न।”
व म को रोता दे ख कुमार का दल सील गया और उसने व म के माथे को चूम
लया।
“नो नॉट लाइक दै ट म टर कुमार इट् स माय बथडे ।”
कुमार ने काँपते ह ठ से व म के गाल को चूम लया।
“इट् स माय बथडे म टर कुमार कस मी लाइक यू हैव नेवर बफ़ोर। कस मी ऑन
माय ल स।”
कुमार उसे चूमने के लए मुड़ा और उसने व म का चेहरा अपनी दोन हथे लय म
भरा। वो सोच ही रहा था क वो परफ़े ट कस कौन-सा होगा ले कन व म ने उसका
इंतज़ार करने या फर उससे बारा आ ह करने के बजाय ख़ुद कुमार के ह ठ को कसकर
चूम लया। कुमार कुछ कहने-बोलने-सुनने क हालत म नह था य क पहली बार व म

े े े ऐ ोई ो
ने उसे इस तरह चूमा था। ये एक ऐसा चुंबन था जसम कोई अपराध-बोध या ग ट नह
था।
य क अब व म को इस बात क क़तई फ़ नह थी क जब उनका चुंबन फ़ मी
पद पर प ँचेगा तो लोग उसके जवाब म ता लयाँ बजाएँगे या ज़बान भर के थूकगे।
व म के ह ठ डा कया बन कर आए थे और ये चुंबन एक च ठ थी जो व म ने
कुमार के ह ठ के लेटरबॉ स पर हौले से पो ट कर द । च ठ मलते ही कुमार शांत हो
गया। सुकूँ से भर गया। कहने-बोलने क बेजा मश क़त म वो सब कुछ जो दोन एक- सरे
को पछले पाँच साल म नह समझा पाए थे वो उस च ठ ने बना बोले कह दया।
“ वल यू मैरी मी म टर कुमार ” व म ने अपने घुटन पर झुककर पूछा।
“आई वल।” कुमार ने कहा।
कुमार का एक आँसू व म क रग- फ़गर पर गर कर अँगूठ हो गया।
यूट मोहर सह

मोहर सह को अ छा लगता था जब उ ह कोई दबंग कहता था। हालाँ क, उ ह ‘दबंग’ के


अलावा और भी तमाम वशेषण से नवाज़ा जाता था। मसाल के तौर पर, कोई उ ह ठाकुर
जी कहता था, कोई बड़े भाई जी पुकारता था। तो कुछ लोग उ ह सह साब भी कहते थे।
मज़ाज क बात कर, तो मोहर सह ग बर सह क कद-काठ और तापमान के पट् ठे थे।
उनक चतवन ऐसी करारी थी क जसे घूर कर दे ख ल वो पैजामा स हाले खेत क ओर
दौड़ जाए।
ऐसे म मोहर सह ने कभी नह सोचा था क वो एक दन दबंग, ठाकुर जी, बड़े भाई जी
या फर सह साब म से कुछ भी नह रहगे और रात -रात ‘ यूट मोहर सह’ हो जाएँगे।
ऐसा उ ह ने इसी लए भी नह सोचा होगा, य क इतनी बेढंगी बात सोचने क कोई लाज़मी
वजह भी तो होनी चा हए
ले कन होनी तो फर होनी ही होती है। और होनी के फेर म, मोहर सह एक दन
सुजाता को याह लाए। फर वो बड़ी-बड़ी दाढ़ -मूँछ के बीच, जतना भी दखाई दे ते थे,
उतने पूरे चेहरे-मोहरे म, वो एक-एक इंच तक सुजाता के ‘ यूट मोहर सह’ हो गए।
मोहर सह को समझ नह आता था क सुजाता के पायल क छम-छम कान म पड़ते
ही उनके पूरे बदन म झुरझुरी-सी य दौड़ जाती थी। हैरान होकर उ ह ने एक बार सुजाता
से कहा भी था
“जानती हो, जब तुम कमरे म आती हो हमको कुछ अजीब-सा होने लगता है।”
“अजीब-सा माने ” सुजाता ने गोल होती ई आँख क गोलाई से पूछा।
“अजीब-सा माने .झुरझुरी-सा।” मोहर सह ने थोड़ा सोचते ए जवाब दया।
“झुरझुरी-सा माने ”
“झुरझुरी-सा माने जैसे यादा नमक लगाकर, पूरी एक फाँक इमली चाट ली गई हो।
ऐसा बचपन म अ सर होता था।”
सवाल का जवाब दे ते-दे ते मोहर सह एक पल म इमली क डाल पर प ँच गए और
ब चे हो गए। उनका जवाब भी ब चे जैसा था। जो दे खा सो कहा वाला जवाब। वैसे भी
मोहर सह कोई पढ़े - लखे तो थे नह क वो इस झुरझुरी को यार का नाम दे पाते। वो
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यादा-से- यादा बे दे थे। इस लए वो जस को जस ही कहते थे, तस नह । हालाँ क,
अ छ बात ये थी क सुजाता भी कोई अ धक पढ़ लखी नह थी इस लए वो जस म तस
नह खोजती थी और ‘तनी’ से जस को पकड़कर ब ची क तरह ख़ुश हो जाती थी।
बात क बात ये क मोहर सह इस नई यारी ज़दगी से हैरान ज़ र थे पर बेइंतहा ख़ुश
भी थे।
सुजाता के आने से मोहर सह क पूरी दनचया सरे से बदल गई थी। ऊट का पटांग हो
गया था और गोबर का गुड़। वही मोहर सह जो सुबह उठते ही, लोटा उठाने से पहले दं ड
पेलने भागते थे, वो अब चाय बनाती सुजाता को कचन से, धीरे से पकड़ लाते और उसे
त कया क तरह बाँह म भरकर, वापस आधे घंटे के लए सो जाते थे।
वही मोहर सह जो पहले अपनी नाली बं क का एक-एक ह सा-पुज़ा खोल-
नकालकर घंट साफ़ कर बारा, रवस म जोड़ दे ते थे, वो अब उसके फूले ए नथुन जैसी
नाल क तरफ़ भूले- बसरे भी नह दे खते थे। मतलब यह क मोहर सह दबंगई का कारोबार
वैसे ही भूल बैठे थे जैसे अचानक औक़ात से यादा राजपाट मल जाने पर, वानर राज
सु ीव भगवान् राम क बपदा भूल गए थे।
यादा व त नह बीता था जब मोहर सह ‘फटम’ आ करते थे। आजकल उनक
चेला-पाट को सबसे यादा ःख इसी बात का होता था क अब वो ‘बड़े भैया’ के साथ
कह द बश दे ने नह नकल पाते ह। चाय क कान पर बैठे, आजकल यही रोना रोते रहते
थे क उनका ब बर शेर भी पालतू हो गया। ब बर शेर न सफ़ दातून करने लगा है ब क
नैप कन से मुँह भी पोछने लगा है।
चेला पाट , यानी क भगत, जुआरी और साधू समोसे को ध नया क खट् ट चटनी और
आँसु के खारे चखने से गले के नीचे धकेल रहे थे। भगत तो ह थे से उखड़ चुका था
य क उसे ऐसा लग रहा था क वो मोहर सह क शाद क वजह से इकट् ठे ही अनाथ
और बेरोज़गार हो गया। इतना ःख तो उसे तब भी नह आ था, जब उसका क ाइवर
बाप अपने लीनर क बीवी के साथ हमेशा के लए बाहर-गाँव भाग गया था। साधू और
जुआरी क इ छा तो नह हो रही थी ले कन वो फर भी उसे समझा-बुझा कर चुप कराने
क को शश कर रहे थे
“अरे, चुप भी हो जा बे या तो खा ले या फर रो ले। बुझा नह रहा है क तू खा-खा के
रो रहा है या फर रो-रो के खा रहा है।”
“चुप कैसे हो जाएँ साधू भैया। शरीर का एक-एक अंग बेकार-सा मालूम होता है। हाथ
ह ले कन घुमा के कसी को कंटाप नह लगा सकते। टाँग है ले कन कसी क छाती पे धर
के ओकरा गटई नह दबा सकते। तमंचा है ले कन पैजामे क इला टक म बस फँसा के
र खे ए ह। नकालने का ल गा ही नह लग पा रहा है।”

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“तुमको मालूम है आज कौन-सा दन है भगत ” साधू ने कहा।
“ह हारी-तु हारी बबाद का उ ाटन दवस है आज।” भगत ने चढ़ कर कहा।
“आज मुरैना वाले ढाबे क लूट का पहला हैपी-ब े है।” साधू ने याद दलाया।
आज से ठ क एक साल पहले मोहर सह ने भगत, जुआरी और साधू के साथ दन-
दहाड़े एक ढाबा लूट लया था। यह लूट अपने आप म एक कहानी इस लए बन गई थी
य क ये ढाबा मुरैना के ह शीटर हलकान सह का था। वैसे तो मोहर सह का ऐसा
कोई लान नह था ले कन बात सफ़ यूँ बगड़ गई क मना करने के बावजूद बीयर के साथ
लाए गए चखने म हरी मच कतर द गई थी। मोहर सह को तीता लग गया और उ ह ने
टे बल साफ़ करने वाले लड़के के सर पर कग फ़शर ांग फोड़ द थी।
य द उस दन मोहर सह ने ांग क जगह लाईट पी होती तो शायद बात का बतंगड़
नह बनता। ये ांग का ही करा-धरा था क मोहर क ट ट खुल गई। वैसे अमूमन तो
भगत, जुआरी और साधू मोहर सह का तापमान क़ाबू कर लेते थे ले कन उस दन वो भी
ांग पीकर ही टाइट थे। इस लए बजाय मोहर को मना करने के, उ ह ने एक-एक करके
उनके हाथ म बारह बोतल थमा द और मोहर सह बोतल फोड़ते चले गए।
वैसे तो मोहर सह नया के पहले दबंग नह थे ज ह बीयर क बोतल ने दबंग बना
दया था। ले कन मोहर सह नया के ऐसे पहले दबंग ज़ र थे जो हन से याह कर के
ख़ुद हन हो गए।
अब उनके चेल को चता इस बात क सता रही थी क उनके ब बर शेर क दातून कैसे
छु ड़ाई जाए और उसे वापस जंगल म शकार करने के लए कैसे लाया जाए। ले कन इधर
ब बर शेर तो रग मा टर के इ क़ म ख़ुद हज़म होने क तैयारी कए बैठा था। रग मा टर
तो या उसे तो चाबुक से भी इ क़ हो गया था।
सुजाता म उनक जान बस गई थी। यहाँ वही क़ सा हो चला था जो जा गर और तोते
क कहानी म फ़रमाया गया है। वही कहानी, जसम कहने को पजरे म तोता क़ैद आ
करता था ले कन असल म, पजरे म जा गर क जान क़ैद आ करती थी।
जस दन सुजाता मोहर सह से ठ जाती थी उस दन उनक जान नकलने को
होती। हालाँ क, यादातर सुजाता यूँ ही जान-बूझ कर ठ बैठती थी पर उस झूठ-मूठ के
मनौवल म भी मोहर क ऐसी-तैसी हो जाती थी। मानो दल का कारख़ाना ही ठ प हो गया
हो। न उगलते बनता था न नगलते।
ख़ैर। ठते-मनाते और इ क़ फ़रमाते, यूट मोहर सह क ज़दगी हसीन हो चली थी।
इसी मानी सल सले म एक दन मोहर और सुजाता र ववार क सुबह रदशन पर
रंगोली दे ख रहे थे। ेता तवारी एक से बढ़कर एक गान क रंगोली लेकर आई थी। अभी

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थोड़ी दे र पहले ‘लग जा गले’ ख़ म आ था और उसके बाद ‘सबक पसंद नरमा’ का
व ापन आने लगा तो सुजाता वापस चाय बनाने के लए कचन म चली गई। अगले गाने
‘मोरा गोरा अंग लई ले, मोहे याम रंग दई दे ’ क आवाज़ आते ही सुजाता सब छोड़-छाड़
कर ट वी क तरफ़ भागी और मोहर के बग़ल म बैठकर गाना गुनगुनाने लगी।
अमूमन गोरा और याम मलकर ेत- याम रंग बनाते ह ले कन जब सुजाता के गोरे
रंग ने मोहर के याम रंग को ह के से छु आ तो लाल रंग बन गया।
च कारी का काम जारी रहता ले कन उसम बाधा डालने को दरवाज़े पर घंट बजी।
सुजाता भाग कर वापस कचन म चली गई और मोहर दरवाज़ा खोलने उठे । दरवाज़ा खोला
तो दे खा क साधू और भगत आए ए थे। और दोन ने पहले से ही नम कार क मु ा बनाई
ई थी। जैसे क ट वी खोली गई हो और ेता तवारी ने रंगोली के ‘ ू ’ के इशारे पर चार
इंच क मु कान ओढ़ ली हो।
मोहर सह दोन को ऐसे दे ख रहे थे जैसे क इस े म म वो दोन कह से भी फट ही
नह हो पा रहे थे। मानो रामायण के इंतज़ार म ट वी खोली गई हो और न पर मूक
ब धर के समाचार वाले एंकर वराजमान ह । साधू मूक हो चुका था और भगत ब धर।
मोहर ने पूछा “कैसे आना आ ” भावा तरेक म भगत को कुछ सुनाई ही नह पड़ा और
डर के मारे साधू को कुछ बोलते ही न बना।
मोहर सह ने चढ़कर दोन को अंदर का रा ता दखाया तो साधू और भगत अंदर
आकर सोफ़े पर सकुचाए से बैठ गए। भगत ग़लती से सुजाता क चु ी पर बैठ गया। चूँ क
सुजाता बना चु ी के आ नह सकती थी, इस लए उसने जैसे-तैसे े और चाय के कप को
चु ी के स ट ूट के तौर पर पकड़ा। सुजाता चाय ले तो आई ले कन वो े को टे बल पर
रख नह रही थी।
“नम ते भाभी जी अरे इतनी तकलीफ़ काहे उठाई आपने लाइए ई े हमको
पकड़ाइए, हम सबको चाय दे ते ह।”
साधू चाय लेने के लए खड़ा हो गया। उसने े क तरफ़ हाथ बढ़ाया तो सुजाता छटक
कर दो क़दम पीछे हट गई। साधू एक क़दम और आगे बढ़ा तो सुजाता चार क़दम और पीछे
छटक गई।
“अरे भाभी जी, काहे पाप लगा रही ह। ये सब तो हम ही लोग का काम है। आप ऐसे
चाय लेकर आएँगी तो अ छा थोड़ी लगेगा। पहले तो हम ही लोग बनाते थे।”
“चु ी .” सुजाता ने च क कर कहा।
“चीनी हाँ वो कचन म रखा होगा, अभी लए आते ह।”
“चु ी ”

“ ी ी ”
“जी चु ी हम ”
“वो आपके दो त उस पर बैठ गए ह।”
भगत उछल कर ऐसे खड़ा हो गया जैसे वो चु ी नह , गम तवे पर बैठा आ था।
हड़बड़ी म उसे ये नह समझ आया क वो चु ी सुजाता को कैसे पकड़ाए। उसने अपने
हाथ से तो े पकड़ रखी थी। डर के मारे, अचानक उसे ऐसा लगने लगा क अभी मोहर
पैजामे से अपना तमंचा नकालकर उसके कान पर सटा दगे और वो मरने से पहले बहरा हो
जाएगा। वो मरने से उतना नह डरता था जतना बहरा होकर मरने से डरता था। इस डर से
उसने चु ी सुजाता के कंधे पर फक द और चाय क े लेकर मेज़ पर रख द ।
“ये या चल या रहा है चाय। चीनी। चु ी। कोई समझाएगा हमको ” मोहर सह
बौरा के ज़ोर से च लाए।
अगले ही सेके ड साधू और भगत चाय का कप लेकर सोफ़े पर बैठे मले। ऐसे, जैसे
क कुछ आ ही नह था। ऐसे जैसे क ससर बोड ने पछले दो मनट का े म अ ीलता
क वजह से डलीट मार दया हो। अचानक से दोन ने अपने चेहरे पर गंभीरता और
भोलेपन क खचड़ी लेप ली।
“चाय ब ते अ छ बनी है जो है भाभी जी ।” भगत ने कहा, “अभी भकोसर क
कान पर एकदमे घ टया चाय पीकर आ रहे थे। मुँह गंधा गया था ऐसी बकवास चाय थी ”
“आपक चाय म इलायची क ख़ुशबू है।” साधू ने समथन दे ते करते ए कहा।
सुजाता और अ धक श मदा नह होना चाहती थी इस लए वो कुछ ना ता बनाने का
बहाना करके अंदर चली गई।
अब मैदान म सफ़ तीन लोग थे साधू, भगत और मोहर। मनट भर म मोहर सह ने
उन दोन को, सवा सौ ग लयाँ दे कर ‘तर’ कर दया। इस बात क शायद ही कोई गुंजाइश
बची थी क उनके ख़ानदान क कोई भी म हला आज कुँवारी छू ट गई हो। और इसका पाप
चढ़ा साधू और भगत क बेवक़ूफ़ के माथे
भगत ने दौड़ कर मोहर सह के पैर पकड़ लए।
“आप तो हमको अनाथ ही कर दए न बड़े भाई जी। मतलब, हम लोग से ऐसा कौन-
सा अपराध हो गया जो आप अपना हाथ ही हटा दया हमारे माथे से। आप चाहे तो इस
बेवक़ूफ़ के लए कूट द जए हमको ले कन ऐसा भी या ग़लती आ हम लोग से क दो
महीना से आप द बश-दबंगई तो र, हम लोग के साथ चाय पीने को भी नह आए। हम भी
कौन-सा अधीर ए जा रहे थे। हम कतना साइलट रहे ह इतना दन। ऐसा नह है क हम
आपको परेशान करने आए ह एक भी बार, ले कन ऐसे अ छा थोड़े ही लगता है। आप हम

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लोग को एकदम भूल ही गए। ब चा अनाथ हो जाएगा तो या रोएगा भी नह । कलप के
मर ही न जाएगा ”
मोहर भगत के इतने लंबे मोनोलॉग को सुन कर औचक हो गए। काटो तो ख़ून नह ।
अब ये कौन-सा भाव था, या मालूम। उस पर भगत रोए जा रहा था। यहाँ सुजाता क
चु ी भी नह थी, जो उससे वो अपने आँसू प छ लेता।
कुछ बेहतर न समझ आने पर मोहर ने उसके कंध को दोन हाथ से पकड़ कर, उसे
ख चकर, सोफ़े पर अपनी बग़ल म बठा लया। नतीजतन भगत और रोने लगा। अब ये वो
नाजक मौक़ा था क अगर भगत अगले आधे मनट म रोना नह बंद करता तो मोहर
चढ़कर उसे एक चमाट रसीद दे ते। ले कन उसक ख़ुश- क़ मती थी क वो चुप हो गया।
“अ छा अब ये रोना बंद करो। ऐसा या हो गया जो इतना फूट पड़े ”
“ठाकुर जी, सब लोग आपका मज़ाक़ उड़ा रहे ह। कह रहे ह क मोहर घाघरा-घु सू हो
गया। मोहर सह अब ‘मोहरा’ सह हो गया और .” साधू कहते-कहते क गया।
“और, और या ”
“छो ड़ए, जाने द जए।”
“बोलो।”
“बड़े भाई जी, हमसे बोला नह जाएगा।”
“नह बोलोगे तो दाँत तोड़ दगे तु हारा, फर पोपले मुँह से बोलोगे।”
“यही क अब मोहर सह से अपनी बीवी के साथ लूडो-साँप-सीढ़ खेलने के अलावा
और कुछ नह हो सकेगा। बेहतर यही होगा क तुम लोग अपना नया सरदार खोज लो।”
“और वो ये भी कहते ह क मोहर सह सकस का शेर हो गया है।” भगत ने साधू क
बात म एक और वाइंट जोड़ते ए कहा। उसका चेहरा तमतमा रहा था।
“मा लक कोई हम लोग को ग रया ले तो हम लोग सुन भी ल, ले कन आपको कोई
कुछ भी कहे ये हमसे बदा त नह होता।”
भगत बारा रोने लगा।
मोहर को समझ आ चुका था क अब माँद से बाहर नकलने का व त आ चुका है और
य द अब शकार नह कया गया तो लोग उ ह च ड़याघर का शेर घो षत कर दगे। और वो
दन अब र नह जब ब चे उनक खड़क के जंगले से झाँक कर उ ह दे खने आया करगे।
वो मूँगफली फकगे और जवाब म मोहर दहाड़े गा तो वो ताली बजाकर हँसगे।
वो दन र नह जब वो ‘सामान’ हो जाएँगे।

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और फर गुलद ता हो जाएँगे।
“चलो जीप नकालो और हमको चाय क कान पर मलो। सब अपना-अपना
ह थयार लेकर आओ और मुँह पर बाँधने के लए अंगोछा भी।”
“मा लक आज धूप नह है। लू भी नह चल रही है।”
“अबे हम सर न फोड़ द तु हारा अंगोछा मुँह च हाई से बचने के लए लाना है। तमंचा
लेकर धूप म तफ़री तो करते फरगे नह आज कुछ बड़ा हाथ मार के आएँगे। जससे क
सब हरा मय का मुँह कम-से-कम साल भर न खुल सके।”
“बड़ा माने ”
“बड़ा माने कुछ भी। जहाँ सबसे जादा पैसा हो वह लूट मारगे। सुनार का कान, सेठ
का घर, तजोरी-ताला कुछ भी।”
“मा लक बक ” साधू ने कह तो दया ले कन वो कहते-कहते ख़ुद ही क गया।
मोहर क आँख म चमक आ गई। साधू और भगत डर गए। उ ह भी समझ आ रहा था
क वो बक कस मुँह से लूटगे। बना ला नग, बना सूझ-बूझ। कोई ऐसे ही बक लूटने थोड़े
ही चल दे ता है। क बस अंगोछा बाँधे और लूट लए। ले कन मोहर क चमक से साफ़ था
क अब तो बक लुट के रहेगा। ऐसे मौक़े पर साधू और भगत बैल हो जाते थे। भले ही उ ह
अपने कंध और स ग पर भरोसा न हो ले कन उ ह हाँकने-जोतने वाले पर पूरा भरोसा
होता था।
“ठ क है मा लक। अब तो बक ही लुटेगा। यहाँ के बड़े -बड़े हरा मय का पैसा सरकारी
बक क तजोरी म बंद है। एक तजोरी लूट ली तो उन सबक तजोरी इकट् ठे लुट
जाएगी।”
“एक घंटे म चाय क कान पर मलो।” मोहर ने कहा।
साधू और भगत हरनी क तरह कुलांचे भरते ए मोहर के घर से फ़रारी बन नकले।
वो ‘गली म आज चाँद नकला’ वाली पूजा भट् ट क तरह ख़ुश भी थे, हैरान भी और
भ च के भी। उ ह उनका मोहर वापस मल गया था। वो ‘सनाथ’ हो गए थे।
लावा रस के अ मताभ ब चन को उसका अमजद ख़ान मल गया था।
मोहर ब त दन बाद आज फर अपनी नाली साफ़ कर रहे थे। नाली नथुने फुलाए
बैठ थी। मोहर ने उसे तेल दया और नज़ाकत से कपड़ा फराया तो उसके नथुने शांत ए।
वो नाली के ज़हन म झाँक कर आर-पार दे ख सकते थे। उसक चलमन के उस पार क
नया, इस पार क नया से कह अ धक हसीन होती थी।

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अचानक सुजाता आई तो मोहर ऐसे सकपका गए जैसे सुजाता ने उ ह पुरानी दल बा
क बाँह म दे ख लया हो।
“ या आ आज अचानक बं क य साफ़ कर रहे ह ” सुजाता ने घबराकर पूछा।
“बस यूँ ही बाहर तक जा रहे ह।”
“बाहर तक जा रहे ह, तो बं क लेकर जाने क या ज़ रत है। नाली तो चोर-डाकू
लोग लेकर जाते ह। बदमाश लोग रखते ह।”
“अरे, कुछ हमारा भी मान-स मान है इधर हम बना बं क के नह नकलते ह।”
“हमारी सहेली ने कहा था क मोहर सह दबंग आदमी ह। ले कन पापा ने कहा था क
सहेली तुमसे जलती है, इस लए झूठ बोल रही होगी। वो सच कह रही थी या ”
“एक नंबर क झूठ है तु हारी सहेली। हम कोई दबंग-उबंग नह ह। ठे केदार ह।
इ ज़तदार ह।”
“हाँ, तो फर अभी क जाइए न।”
“अरे य भई बोले ह न क अभी आते ह। ज़रा-सा टहल कर।”
“ टार लस पर ‘साथ नभाना सा थया’ शु होने वाला है। हम हमेशा साथ म दे खते
ह। आप ऐसे कभी भी हमको अकेला छोड़कर नह गए ह सनडे को।”
“अकेला छोड़कर नह गए ह तुम कोई ब ची थोड़े ही हो। हम अपना काम नपटा
कर आ जाएँगे। इतने दन से तो घर म घुसे ए ह तु हारे च कर म।”
सुजाता को ऐसे जवाब क उ मीद नह थी। उसक गोल-गोल आँख से एक मोटा-सा
आँसू गाल पर ढु लककर ट प से ज़मीन पर गर गया। ऐसा पहली बार आ था क मोहर
क कसी बात पर सुजाता को रोना आ गया हो। वो बना कुछ कहे अंदर के कमरे म चली
गई और दरवाज़ा अंदर से बंद कर लया।
मोहर का दल पसीज गया। उ ह इतना बुरा पहले कभी नह लगा था। या अगर लगा
भी था तो उ ह वो ण याद नह आ रहा था। ये ण ताज़ा था। सामने था।
वो सुजाता को मनाने के लए, उससे दरवाज़ा खोलने क दरख़ा त कर रहे थे ले कन
सुजाता कुछ जवाब नह दे रही थी। अब ये एक ऐसी ‘ सचुएशन’ थी जसम मोहर पहले
कभी नह फँसे थे। य द मोहर को इस सचुएशन को एक श द म बयाँ करना होता तो वो
शायद इसे ‘ व च ’ कहकर बयाँ करते। उ ह सुजाता को मनाने के तरीक़े का आइ डया लग
तो रहा था, ले कन एक शम थी, जो उ ह उस तरीक़े का प ला पकड़ने से रोक रही थी।
ये शम वैसी ही थी जैसे आपने पहले कभी ऐसा श द न बोला हो जसे स य समाज म
बोलना ‘कु ’ समझा जाता हो। मसलन, आप नाबा लग़ उमर म दो त के बीच ी-पु ष
े ी े े े े े ‘ े ’
के शरीर के ाइवेट ह स का नाम ले द। या फर हद के लेखक ‘से स’ श द क चचा
छे ड़ दे । या आप कसी मोहतरमा के सामने ऐसे अंतरंगी कपड़े का नाम ले द, जो वो पहन
सकती है ले कन आप नह ।
फर भी मोहर सह ने ह मत क । य क सुजाता को मनाना बेहद ज़ री थी।
इस लए उ ह ने वो क़दम भी उठा लया जो उ ह हद दज तक असहज बना दे ता था
मोहर सह ने सुजाता को जानू कहा
“जानू लीज़ दरवाज़ा खोलो।”
मोहर ने दरवाज़े पर कान लगाकर सुना। अंदर कुछ खटपट न ई। इस समय बस
उनक ख़ुद क धड़कन सुनाई दे ती थी। उ ह ने फर से ह मत क और ‘कु ’ क दशा म
सरा क़दम बढ़ाया
“मेरी जान दरवाज़ा खोलो।”
फर भी कोई खटपट नह ई।
“डा लग, सुजाता मेरी रानी ”
इस बार मोहर क धड़कन के अलावा ख टया पर से ह क चूँ क आवाज़ सुनाई द ।
“लाडो मेरी गु ड़या। दरवाज़ा खोलो न आगे से ऐसी ग़लती नह होगी। सच म
तु हारी क़सम खाकर कहता ँ। चाहो तो मुझे मार लो ले कन ऐसे ग़ सा मत हो।” और
मोहर सचमुच रोने लगे।
सुजाता ने भागकर दरवाज़ा खोला तो मोहर के गाल आँसुओ से तर हो रखे थे। वो
इसके पहले शायद ही कभी इस तरह से रोए ह । बचपने का मुझे पता नह । या ये भी हो
सकता है क मोहर कभी कठोर इंसान न रहे ह । बस वो कभी ऐसी नाजक प र थ त से
होकर गुज़रे न ह । सुजाता ने उ ह कस के गले से लगा लया और वो मु कुराने लगी।
इतराने लगी।
इस समय उसके चेहरे पर ममता का भाव था और वो मोहर के आँसू पोछ रही थी।
सुजाता के हाथ लगाते ही वो और ज़ोर से रोने लगे। पता नह य , ले कन सुजाता ने उ ह
रोने दया। शायद इस लए य क इस व त ‘रोना’, ये बताता था क वो सुजाता को कस
हद तक यार करते ह।
“आपने मुझे कस नाम से बुलाया था ”
“ह म।”
“ह म.. या फर से क हए न।”

“ ”
“नह ।”
“ फर से क हए न..बस एक बार।”
“नह ।” मोहर शमा गए। सफ़ शमाए नह , ब क बेइ तहा शमा गए। वो तो भला हो
भगत और साधू का ज ह ने बेव त फ़ोन करके मोहर सह को इस सचुएशन से नकाल
लया। साधू क आवाज़ म एक अजीब-सा उ साह था।
“अरे, ददद् ा कहाँ रह गए ह आप हम लोग कब से आपका भेट कर रहे ह इधर।”
“हम आज नह आ पाएँगे।” मोहर ने सुजाता क आँख म दे खते ए कहा। जैसे वो ये
बात सफ़ सुजाता को सुनाते ए कहना चाहते थे। सुजाता मु कुराई। या शायद अचानक
मले ‘मान’ से शमाई भी। मोहर ने दोबारा दोहराया क वो आज नह आ पाएँगे और उ ह ने
फ़ोन रख कर सुजाता को कस कर गले लगा लया।
“कल चले जाइएगा। बस आज हमारे पास क जाइए।” सुजाता ने कहा।
मोहर क गए और दोन ‘साथ नभाना सा थया’ दे खने लगे। उसके बाद ‘वीरा एक
वीर क अरदास आया’। और फर ‘ दया और बाती हम’। इस सब के बाद शाम चार बजे
हद फ़ चर फ़ म भी आई। दन कुछ यूँ ही गुज़र गया जैसे गुज़ारने क ज़ रत ही न पड़ी
हो।
रात म सुजाता क बाँह म सोते ए मोहर ने तय कया क वो अगली सुबह उठते ही
अपनी बं क लेकर नकल जाएँगे। सुजाता का सोता आ चेहरा दे खकर वो ये भी सोच रहे
थे क अगर वो ये सब ग़लीज़ काम बंद कर द, तो वो ऐसा या कर सकते ह क उनका घर
भी चल जाए और वो सुजाता को बता भी सक भी क वो आ ख़र या कारोबार करते ह।
सुजाता जब सोती थी तो अ सर ऐसे चेहरे बनाती थी जैसे छोटे ब चे सोते-मचकते ए
बनाते ह। मोहर ने ऐसा पहले कभी नह दे खा था। या शायद दे खा हो पर ग़ौर न फ़रमाने क
वजह से उनसे क़दरत क ये नेमत ‘नज़र दाज़’ हो गई हो। वो यही सोच रहे थे क वो हर
रात सोया ही न कर, ता क वो सोती ई सुजाता को घंट नहार सक।
ख़ैर, सुजाता सो गई। और अगले दन सुजाता के उठने से पहले ही मोहर, साधू और
भगत को जीप पर बठाकर सरकारी बक लूटने के लए नकल पड़े ।
साधू और भगत क उमंग का कोई ओर-छोर न था। वो जीप म बैठे इतने ख़ुश थे जैसे
ब चे अपने पता जी के साथ मेला दे खने जा रहे ह । ख़ुशी का आलम ये था क वो इस बारे
म सोच ही नह पा रहे थे क वो बक लूटने जा रहे ह। और उस पर तुरा ये क उ ह हवा भी
नह थी क बक लूटने का काय म कैसे संप होगा। तस पर मोहर भी इतने आराम से बैठे
ए थे जैसे वो बक नह , ब क परचून क कान लूटने जा रहे ह ।

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साधू और भगत ने अंदाज़ा लगाया क वो पं ह मनट म बक प ँचने ही वाले ह। भगत
ने साधू से इशारे से पूछना चाहा क महराज लान या है या हम जाते ही फ़ायर शु
कर दगे और पैसा लेकर भाग आएँगे
साधू ने गमछा उठाया और भगत को दखाते ए चेहरे पर बाँध लया। गमछे से बस
आँख और नाक ही झाँक सकते थे। भगत ने भी इशारा समझते ए चेहरे को गमछे म अ छे
से पैक कर लया।
साधू ज़ोर-ज़ोर से हँसने लगा।
“काहे हँस रहा है बे ” भगत ने पूछा।
“हम दोन जुडवाँ लग रहे ह।” साधू ने कसी तरह अपनी हँसी पर सेमी कॉलन
लगाते ए जवाब दया।
“तू गदहा है या बे ”
“इसम गदहा वाली या बात हो गई ठाकुर जी से पूछ ले। य ठाकुर जी ” साधू ने
मोहर सह से डरते-डरते पूछा।
मोहर सह ने जवाब नह दया। वो अपने फ़ोन म उलझे नज़र आए। सुजाता उ ह
सुबह से कई बार कॉल कर चुक थी ले कन मोहर सह फ़ोन नह उठा रहे थे। वो इस सोच
म उलझे ए थे क सुजाता कस बात को लेकर खी हो गई होगी। मोहर सह के हसाब से
सुजाता के नाराज़ होने क एक वजह यह हो सकती थी क कल रात उसने दाल फुलाई ए
होगी जससे वो सुबह-सुबह मोहर के लए दाल क पकौड़ी छानती, ले कन मोहर सह
बना पकौड़ी खाए ही आ गए।
एक वजह यह भी हो सकती थी क आज उ ह ने सुजाता के हाथ क बनाई ई चाय
नह पी। और-तो-और आज जब सुजाता कचेन म चाय बना रही होगी तो उसे कचेन से
बेड म तक वापस ख च लाने के लए मोहर नह आए। सुजाता को सुबह-सुबह वाली वो
आधे घंटे क सरी न द, रात भर क न द से यादा पसंद थी।
इसी क़वायद को उधेड़ते-खोलते-सुलझाते-बुनते मोहर सह खी हो रहे थे। मोहर सह
को फ़ोन पर उलझा दे ख साधू और भगत को अंदेशा हो रहा था क ठाकुर जी उनके साथ
जीप म बैठे ज़ र ह ले कन उनका दल-ओ- दमाग़ अभी भी सुजाता क पाज़ेब के छोटे -
छोटे घुँघ म छनक रहा है। एक वो व त भी था जब मोहर लूट पर नकलते तो र ते भर
नाली के नथुन से, आस-पास से गुज़रते हर नर-मादा-जानवर-गाड़ी को तब तक घूरते
रहते जब तक क वो अपनी क पना म उसका शकार न कर ल।
ऐसा कभी नह आ क उ ह ने मौक़ा-ए-वारदात पर प ँचने से पहले, र ते म इ का-
का पंछ न मार गराए ह ।

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ख़ैर, वो सरकारी बक प ँच गए। जीप गेट पर रोक गई।
“पहले गेट के सपाही को लपेटना है। घुसते ही एक आदमी सपाही को घपच दे गा
और सरा आदमी मैनेजर को धरेगा। और हम हॉल के बीच -बीच खड़े रहगे ता क कोई भी
क टमर फटम बनने क को शश न करे। समझ आई बात ”
“जी सरकार।”
“साधू, मैनेजर तु हारे ज़ मे और भगत, सपाही तु हारे हवाले।”
“मा लक बुरा न मान तो हम मैनेजर को धर ल और साधू सपाही को धर लेगा ” भगत
ने डरते-डरते पूछा।
“काहे बे वारदात चालू करने के पहले ही फटने लगी तु हारी ” मोहर ने इ वायरी
क।
“नह मा लक, बात वो नह है। बस हम मैनेजर बी.एन. सह को ही धरना है।”
“मा लक इसका फटता है। हम बता रहे ह न सपाही के पास होगा बं क और मैनेजर
होगा नह था, इसी लए फट रहा है इसका।” साधू ने वरोध जताया।
“नह , हमारा फट नह रहा है। बी.एन. सह को इस लए धरना है हमको य क वो
हमारा अकाउंट खोलने से मना कर दया था। कह रहा था क गारंटर लेकर आओ। राशन
काड लेकर आओ। हइ लाओ, हउ लाओ। नह तो अकाउंट नह खुलेगा। हम तभी सोच
लए थे क साला एक दन इसी का अकाउंट खोल कर रहगे हम।”
“अबे ठ क है बे, जाओ तुम मैनेजर को धरो और साधू सपाही को धरेगा।”
“हौ जी मा लक।” दोन ने और यादा मु तैद होते ए जवाब दया।
“अगर दोन म कोई भी कमज़ोर पड़ रहा होगा तो हम उसके ं ट पर सपोट करगे और
य द ज़ रत पड़ी तो फ़ायर कर दगे।”
“एकदम ठ क।”
“तुम लोग ज़रा अंदर घुस कर कायवाही चालू करो हम एक फ़ोन करके आते ह।”
“मा लक इस व त फोन ”
“हाँ, फ़ोन करके सुजाता को शांत कर द। साला चौबीस बार फ़ोन बज चुका है और
स ह ठो मै सज पड़ा आ है। न जाने इसको मै सज करना कौन सखाया है।”
“ले कन मा लक ”

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“अबे दो मनट ठ ड रखो न जी बोले न आ रहे ह अभी। तुम दोन तब तक अंदर
जाकर सपाही और मैनेजर को लपेटो। दोन को बाँध कर हाल के बीच म डाल दे ना और
हम उतनी दे र म फ़ोन करके आ जाएँगे।”
साधू और भगत कुम बजाने के लए अंगोछे क गाँठ कस कर अंदर जूझ पड़े और
मोहर सह ने बाहर से शटर गरा दया।
भगत ने बी.एन. सह को पेला और साधू ने सपाही को। बी.एन. सह बं क दे खकर तो
वैसे ही च ँक पड़ा और ख़ुद ही सरडर क मु ा म हाल के बीच बीच घुटन पर बैठ गया।
सपाही इतना बूढ़ा था क फ़ायर करना उसके बस क बात नह थी। अगर वो बुढ़ापे पर
वजय पाकर फ़ायर करने क सोचता भी, तो भी बं क ठाँय नह हो पाती य क उसक
बं क उससे भी अ धक बूढ़ थी।
इधर मोहर ने कॉल करने से पहले मैसेज चेक कए। स ह मैसेज सुजाता के थे। दो-
एक मैसेज पढ़ते ही, मोहर का चेहरा, जो धूप और लू से अभी तक लाल नह आ था, घड़ी
भर म लाल हो चला। और अगली ही घड़ी लाल से पीला हो गया। पहला मैसेज था ‘आज
हमारा बथडे है, आपको इतना तक नह पता।’ सरा मैसेज था ‘आप हमको बना बताए
कहाँ चले गए अब हम आपसे कभी बात नह करगे।’
उसके बाद ‘हम समझ गए ह क आप हमस यार नह करते’ से लेकर ‘अगर आप एक
घंटे म घर वापस नह आए तो हमारा मरा मुँह दे खगे’ तक हर एक मैसेज के अंत म ःखी
वाला माइली भी बना आ था। मोहर क आँख के सामने सुजाता का, कल वाला रोता
आ चेहरा क ध गया।
जैसे-तैसे कड़े मन से दस मैसेज झेले, तो यारवाँ मैसेज उनक छाती के पार न तर क
तरह उतर गया। इसे बदा त कर पाना उनके बूते के बाहर था। सुजाता ने लखा था-
‘घर म नाली भी नह है सच म आप कह चोर डाकू तो नह है ’ और उसके बाद
‘हमारी सहेली सच कहती थी। आप सचमुच बुरे आदमी ह। हम काहे शाद कए आपसे।’
मोहर सह को ब त बुरा महसूस आ। अचानक ही उ ह लगने लगा क वो सचमुच बुरे
आदमी ह।
ये अपराध बोध, ये ग ट वाली फ लग, उ ह पहले कभी नह ई थी। तब भी नह
जब उ ह ने हलकान सह के ढाबे पर, बैरे का सर बीयर क बोतल से फोड़ दया था। तब
भी नह जब उ ह ने हलकान सह का ढाबा लूट कर पहली बार डकैती को अंजाम दया
था। और तब भी नह जब उ ह ने पहली बार एक सुनार क कान म घुसकर उसक जाँघ
पर गोली मार द थी।
उधर भगत और साधू, कायवाही के अगले टे प क जानकारी न होने क वजह से,
मोहर के इंतज़ार म बी.एन. सह और सपाही को धूने जा रहे थे और इधर मोहर ँ आसे
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होकर सुजाता को फ़ोन पर फ़ोन कए जा रहे थे। मोहर का गला इतना ँ ध गया था क
अगर सुजाता फ़ोन उठा भी लेती तो उनसे हेलो भी नह बोला जाता।
वो ख़ुद नह समझ पा रहे थे क उ ह इतना रोना य आ रहा था और इसी वजह से वो
जीप म छु प कर बैठे ए थे य क य द कोई उ ह रोते ए दे ख लेता तो वो कसी को मुँह
दखाने के क़ा बल नह रहते। जब बार-बार फ़ोन करने पर भी सुजाता ने फ़ोन नह उठाया
तो उ ह कसी अनहोनी के डर ने आकर ज़ोर से घपच लया।
उ ह ने सुजाता का आ ख़री मैसेज बारा पढ़ा ‘अगर आप एक घंटे म घर वापस नह
आए तो हमारा मरा मुँह दे खगे।’
कह सचमुच सुजाता ने कुछ अनाप-शनाप तो नह कर लया जैसे एक दन मोहर क
माँ ने कर लया था। मोहर ने जीप टाट क और तुरंत घर भागने को ए तो उ ह सुध आई
क अंदर भगत और साधू उनका इंतज़ार कर रहे ह गे। जीप वापस बंद करके वो अंदर को
दौड़ पड़े ।
मोहर सह ने शटर उठाकर दे खा तो भगत और साधू बी.एन. सह और सपाही को मार-
पीट कर थक चुके थे। बक म कुल जमा दस-बारह लोग रहे ह गे जो ज़मीन पर एक लाइन
म बैठे ए ये सोच रहे थे क अंगोछा-धारी ये दोन डकैत आ ख़र चाहते या ह मोहर सह
के इंतज़ार म भगत और साधू कुस पर बैठे ए थे।
साधू अपने नो कया 1100 पर रगटोन बदल-बदल कर टाइमपास कर रहा था और
भगत अपने मोबाइल पर ‘ नेक’ खेल रहा था। य द वो ज द आउट हो जाता था तो उसक
े शन बी.एन. सह के सर पर फोड़ दे ता था। दोन बस इसी ख़ुशी म मगन थे क आज
बड़े दन बाद उ ह दबंगई का मौक़ा मला।
“ऐ साधू चलो नकलो ज द से।”
“मा लक हम साधू नह भगत ह। आप गमछे क वजह से पहचान नह पाए न ” भगत
ने गमछे के अंदर से मु कुराते ए कहा।
“अबे साले भगतवा, नाम काहे बता रहा है हमारा।” साधू ने गमछे के अंदर से च लाते
ए कहा।
“अबे नाम जानके का उखाड़ लगे ये लोग। शकल पे तो हम लोग गमछा बाँधे ए ह।”
“हाँ, वो बात भी है।” साधू ने कहा। “बस मा लक आप ही का इंतज़ार कर रहे थे। बस
आप अपने शुभ हाथ से तजोरी खोल द जए और हम लोग सारा पैसा बैग म भरना शु
करते ह।”
“नह । तुरंत वापस चलो। यहाँ कोई डकैती-उकैती नह हो रहा है।”
“मा लक ये या कह रहे ह आप ” भगत ने घ घयाते आ कहा।
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“भगवान के लए ऐसा न क हए ” साधू ने र रयाते ए कहा।
“कह दए न यहाँ कोई डकैती नह हो रहा है। इन दोन को खोलो और तुरंत हमारे
साथ जीप म बैठो, नह तो हम अकेले ही नकल रहे ह।”
दोन का इंतज़ार कए बना मोहर वापस जीप टाट करने दौड़ पड़े । ग़ से म साधू और
भगत ने जाते-जाते एक मनट म बीस लात क र तार से बी. एन. सह और सपाही को
फर से तीन मनट धुना और उ ह खोले बना वो भी जीप म सवार हो लए।
दस मनट के भीतर, मोहर सह ने दोन को नाके पर पटका और दनदनाते ए अगले दो
मनट म अपने घर क और दौड़ पड़े । ज़ोर से दरवाज़े को ध का मारा तो दरवाज़ा पहले से
ही खुला आ था। शायद सुजाता उनके आने का इंतज़ार कर रही होगी। इसी अधीरता म
उसने दरवाज़ा खुला छोड़ दया होगा।
सुजाता सोफे पर सकुड़ कर बैठ ई थी और रोते-रोते गठरी-सी बन गई थी। मोहर ने
चैन क साँस ली। जैसे भी थी, सुजाता उनके सामने थी। मोहर सुकून से हाँफ रहे थे।
य क उ ह पता था क वो सुजाता को जाकर यार से मना लगे। वो आसानी से नह
मानेगी ले कन आज वो चाहते भी नह थे क सुजाता आसानी से मान जाए। वो चाहते थे
क सुजाता उनसे रात भर ठ रहे।
और वो उसे रात भर मनाते रह।
पूरी रात मनाने क मश क़त के बाद, जब वो मान बैठे तो मोहर क गोद म सुकून से सो
जाए और मोहर उसके सोते-मचकते चेहरे को, तरह-तरह क श ल बनाते तब तक दे खते
रह जब तक क वो बारा ख़ुद न उठ जाए।
मोहर ये सोच कर मु कुराने लगे क सुजाता जब सुबह उठ जाएगी और चाय बनाने के
लए कचन म चली जाएगी तो वो उसे कचन से वापस ख च लाएँगे। उसी आधे घंटे क
न द लेने के लए, जो सुजाता को रात भर क न द से कह अ धक पसंद थी। जब वो उसे
कस कर पकड़ कर ब तर पर ख च लगे तो सुजाता झूठ मूठ कहेगी-
“छो ड़ए न, चाय उबल रही होगी।” और मोहर हर बार क तरह, शरारत से, मु कुराते
ए कहगे
“अरे छोड़ो भी इधर तु हारे वरह म हम उबल रहे ह और तुमको चाय के उबलने क
चता आन पड़ी है।”
और फर सुजाता उनक गोद म आकर सा धकार बैठ जाएगी और कहेगी-
“आप भी न। बड़े यूट ह। यूट मोहर सह ”
बन पूँछ के टै डपोल

माँ ने उसका नाम काजू रखा था। ये और बात है क काजू ने काजू कभी दे खे नह थे। सुने
ज़ र थे। भुने काजू। तले काजू। नमक लगे काजू। छ कल वाले काजू। पै कट वाले
काजू। शायद माँ को इसका अंदाज़ा रहा भी हो क उसके बेटे क ज़दगी म काजू क
हा ज़री लगाने का एकमा तरीक़ा यही है क वो उसका नाम ही काजू रख दे , इस लए
उसने भु खड़-सी द लगी म अपने मखाने जैसे गुलगुल बेटे का नाम काजू रख दया।
माँ काजू के पता के इंतज़ार म रो टयाँ बेल रही थी और काजू कसी का इंतज़ार कए
बग़ैर अपने क़ मती पटारे म रखे सामान से खेल रहा था। उसके सामान को खलौना कहा
जा सकता था। खलौन क ल ट बेतरतीब-सी चीज से तैयार ई थी।
मसलन, उसम कांच क शीशी थी। शीशी म तालाब का पानी था और पानी म तैरते
मढक के टै डपोल थे। मा चस क ड बी थी। ड बी म द वाली पर बचे तीन सीको पटाख़े थे
और पटाख़े का गट् ठर बाँधने के लए पीली गे टस थी। शीशे का टू टा कांच था, कांच क
चूड़ी थी और चूड़ी से झड़ी ई रंग- बरंगी कर करी भी थी। अनारदाना था। चूरन था। काजू
नह था।
“माँ, बक म मढक के ब चे जमा होते ह ”
“हाँ, य नह बक वाल को यही एक चीज़ तो मली है जमा करने को।” माँ ने
मु कुराते ए कहा।
“सीको का पटाका ” काजू ने माँ क बात से ख़ुश होते ए कहा।
“हाँ, वो भी। ये मा चस क ड बी भी जमा करते ह। ये पीली गे टस भी और कांच क
टू ट चूड़ी भी। चूरन चटनी भी। पर ये सब जमा काहे करना है ल ला ” माँ ने फूली ई
रोट म उँगली से च च मारते ए पूछा।
“कल से म भी तो बाबा क तरह पैसा कमाने लगूँगा न तो बक म पैसे के साथ-साथ
अपने खलौने भी जमा करा ँ गा। मढक के ब चे ज द बड़े हो जाएँगे न अगली द वाली
तक बक वाले पटाख़े का पूरा पै कट वापस करगे फर। चूड़ी दज़न भर वापस करगे तो तुम
पहन लेना।” काजू ने फुदकते ए कहा।
“ये तुमको बक के बारे म इतना कौन बताया काजू जी महराज ”
“ ी े ो ो ै ”
“मजनू क कान पर ट वी पे आ रहा था। रोज़ तो आता रहता है।”
“ल ला, फर तो तुमको भी बक म जमा करवा ँ । हमारे लए दो ल ला बना कर दे दगे
वो ” माँ ने फुदकते ए काजू को रबर क गद क तरह बाँह म लपकते ए, शरारत से
कहा।
माँ गुदगुद कर रही थी, काजू गदगद हो रहा था। वो माँ क बाँह से छू टकर भागने क
उतनी ही को शश कर रहा था जतने म वो माँ से छू ट भी न पाए और उसे गुदगुद से पल
भर को राहत भी मल जाए। उसे पता था क माँ के हाथ म यादा ताक़त नह है इस लए
वो छू टने को ज़ोर नह लगाता था। वो हँसता था तो माँ को बेहद सुकून मलता था। वो पटर
हो जाती थी और उसके चेहरे पर यहाँ-वहाँ म क माउस वाली माइली पट कर दे ती थी।
ह ठ कान तक खल खला आते थे और फर थक कर गोल हो जाते थे। माँ जा गर हो
जाती थी। काजू जा हो जाता था। दो पल के लए ऐसा लगता था क काजू क ना भ
ख़ु शय का बटन है। माँ उसपर उँग लयाँ फराती थी तो खल खलाहट खल-जा- सम-
सम हो जाती थ ।
“माँऽ .बस ..बस।”
माँ ने काजू को छोड़ दया और वो वापस रोट फुलाने लगी। उसे रोट काजू के पेट-सी
लग रही थी। नरम। छु ई-मुई।
काजू खाए बना ही सो गया। माँ ने शायद जगाया भी न हो य क काजू सोते ए
बेहद सुंदर लगता था और वो रात क न द से अचानक उठा दए जाने पर आसा हो जाता
था। कांच क बोतल म टै डपोल भी सो गए और तालाब का पानी भी। पानी शायद इस लए
सो गया था य क सोते ए टै डपोल अं ेज़ी के ‘कॉमा’ जैसे लगते थे। पानी उनक श ल
को सच मान बैठा होगा और ठहर गया होगा।
सोते ए टै डपोल धीरे-धीरे मढक म मेटामोफ़ ज़ हो रहे थे और मेटामोफ़ सस क इस
या म उनक पूँछ ग़ायब हो रही थी। ये तो भला आ क उनम सोचने के लए दमाग़
नह था वना वो एक सुबह उठते और अपनी पूँछ को नदारद पाते तो उनको बड़ी हैरानी
होती। पता नह टै डपोल कस ख़याल म सोए थे पर काजू तो इस ख़याल म सोया था क
कल से जब वो चाय क कान पर नौकरी करने लगेगा तो उसको महीने का पं ह सौ पया
मलने लगेगा और वो माँ के लए जूते ख़रीद सकेगा। माँ रोज़ाना काम से लौटती थी तो
उसके पैर सूजे ए होते थे। काजू ज़द करता था क वो मुलायम वाले जूते ख़रीद ले ले कन
वो फ़ज़ूलख़च नह करना चाहती थी।
ब चे के पैर म जूते न ह तो माँ को अपने पैर म च पल का होना भी फ़ज़ूलखच ही
लगता है।

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अगले दन सुबह ई तो माँ काजू के सरहाने पर रात क बची रो टयाँ का ड बा रख
कर काम के लए नकल चुक थी। काजू भी फटाफट तैयार होकर मजनू क कान पर
प ँच गया। वो ज द ज़ र तैयार आ था ले कन वो ठं डे पानी से नहाकर नकला था।
उसने बाल म सरस का तेल डाल कर कंघी भी फराई थी। माँ कहती थी क अ छे ब चे
बीच से माँग नह नकालते, इस लए उसने कंघी से एक तहाई बाल को बाएँ कर दया और
दो तहाई बाल को दा हने।
काजू का अंदाज़ा था क वो ठ क व त से थोड़ा पहले ही मजनू क कान पर प ँच
गया होगा। मजनू भगौने म चाय खौला रहा था और चाय आसपास क हवा को खौला रही
थी।
“आ गया। चल सीधे काम पे लग जा कजुआ। बाक़ का बात बाद म समझाएगा।”
काजू आँख गोल करके मजनू को ऐसे दे ख रहा था जैसे मछ लयाँ अ वेरीयम के अंदर
से दे खा करती ह।
“अरे बाबा, इतना मु कल नह है रे कान खुला रखने का और हाथ मज़बूत रखने का।
जो भी ाहक आवाज़ दे गा उसके पास जाने का और ऑडर लेकर आने का। समोसा
बोलेगा तो इधर रखा मलेगा। नह है तो म छान रहा होगा। चाय माँगेगा तो इधर से भरा-
भराया कप उठाने का और उधर दे के आने का। सपल ”
काजू ने काम समझ कर हाँ के एवज़ म आँख मचका । मछ लयाँ आँख नह
मचकात पर उनको कुछ समझ भी तो नह आता। अगले ही पल काजू हर जगह था। वहाँ
जहाँ खाने के आइटम क कोई भी आवाज़ थी। वहाँ जहाँ समोसे छन रहे थे। वहाँ जहाँ
चाय उबल रही थी। वहाँ जहाँ कोई बतन या गलास ख़ाली हो रही थी। अगर इस व त
उसक आँख पर पट् ट भी बाँध द जाती तो बस वो आवाज़ को जोड़ता आ अपना काम
पूरा कर दे ता। मजनू क आवाज़ को ाहक क आवाज़ से एक सरल रेखा म जोड़ दे ने से
उसका काम पूरा हो जाता था।
“ए छोटू , दो कचौरी लेके आ ज द ।”
“लाया साहब।”
“ओये हाफ पट, एक कड़क लाना।”
“हाँ साब।”
“अबे बहरे ”
“जी..जी साब।”
“अरे बेटा, ज़रा चटनी और दे ना।”

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“हाँ, अभी लाया न साहब ” काजू मजनू क टाइल म जवाब दे ना सीख रहा था।
बात-क -बात पूरी कर दे ने से काम बेहद आसान हो गया। मजनू अपनी छोट वाली
आँख से काजू पर नज़र रख रहा था और बड़ी वाली आँख से चू हे पर। वो स के क
खनक से यादा नोट का कड़कना सुन सकता था। काजू हर बार पैसे-नोट लेकर चू हे के
पास रखे ग ले म डाल जा रहा था और मजनू को पूरा हसाब दे जाता था। अगर चटनी लग
जाने से नोट गंदा हो जाता था तो वो उसे ब नयान से ह का-सा प छ कर ग ले म डालता
था। स के आसानी से प छे जा सकते थे ले कन नोट ज़रा क़रीने से पोछना होता था।
वो पाँच का स का सीधे ब नयान म डाल कर चमका दे ता था और दस का नोट झाड़ने
के लए वो उसे एक हाथ क हथेली पर रख कर, सरे हाथ क दो उँग लय को ब नयान से
कवर करके प छ दे ता था।
मजनू काजू को दे ख कर मु कुराया।
“अ छे से झाड़ दया न कजुआ दे ख कह दस का नोट सौ का तो नह हो गया।”
काजू एगबारगी मजनू क बात को सच मान करके ग ले म वापस हाथ डालने लगा
और फर अपनी ही बेवक़ूफ़ पर हँसकर अगले ही पल आवाज़ का पीछा करता आ
ऑडर लेने दौड़ गया। वो बेहद ख़ुश था य क वो एक दन म बड़ा हो गया था। वो बेहद
ख़ुश इस लए भी था य क अब वो कुछ दन बाद माँ के लए जूते ख़रीद सकता था। वो
अपने पता जैसा बन सकता था।
दन भर काम के बाद शाम ई। या शायद सुबह।
माँ घर आई तो काजू शीशे के सामने खड़ा था। वो दोन होठ को अंदर भ चकर ये
दे खने क को शश कर रहा था क शायद उसे मूँछ आ रही ह।
उसने पता जी का दाढ़ बनाने वाला ड बा नकाला और हो शयारी से श पर शे वग
म डाला। पता क नक़ल करते ए उसने सावधानी से म चेहरे पर लगाकर श से
झाग बनाया। उसे पहले-पहल गुदगुद -सी महसूस ई ले कन छः-आठ बार रगड़ा मारने पर
गुदगुद बंद हो गई। हाँ, रोमांच अब ज़ र होने लगा था। बना लेड लगाए रेज़र गाल पर
फराया तो चेहरे पर से झाग उतरना शु हो गया।
जहाँ झाग था, वहाँ काजू नह था, उसके पता थे। जहाँ झाग उतर चुका था वहाँ-वहाँ
काजू था। ( या इसका उ टा होना चा हये ) ये उसके लए अब तक का सबसे नया खेल
था। दाढ़ बनाकर अ सर ब चे कैसे अपने पता जैसा महसूस करने लगते ह, ये भी उसने
आज ही जाना था।
“अरे रे, बाबा ये लड़का या कर रहा है ” माँ ज़ोर से च लाई।

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काजू चोरी पकड़े जाने पर डरा नह । उसने एक बार माँ को पलट कर दे खा और वापस
आईने म दे खने लगा।
“अरे अब मेरे भी दाढ़ -मूँछ आने लगी है। इसी लए तो बना रहा ँ। इसम इतना ह ला
करने क या बात है ”
“कट जाएगा। पागल हो गया है या। अरे छोड़ ज द से। लेड नीचे रखता है क
नह ”
“अरे, इसम लेड तो लगाया ही नह है तुम भी न कुछ पता तो है नह तुमको। ये हम
आदमी लोग का काम है। तुमको समझ नह आएगा।”
“अभी बताते ह तुमको काजू-जी-महराज।” माँ ने काजू को पकड़कर आँचल म दबा
लया और वो उसे ग़सलख़ाने से उठाकर सीधे ख टया पर ले आई और वो जबरन अपने
आँचल से उसका चेहरा साफ़ करने लगी।
“माँ या कर रही हो अरे म सच कह रहा ँ मुझे मूँछ आने लगी है। दे खो तुमको भी
दखाई दे गी।”
“हाँ, ख़ूब दखाई दे रही है हमको तु हारी मूँछ। दे खो कान तक प ँच गई है। अब
चुपचाप मुँह धोकर आओ, नह तो चोट बना दगे तु हारी मूँछ क और रबड़ लगा दगे।”
“अब म ब चा नह रह गया। जो भी बाहर जाकर पैसा कमाने लगता है वो ब चा नह
रहता। मजनू ने हमको आज काम करने का बीस पया दया है। ये दे खो।”
“अरे तुमको आज पहले ही दन पैसा मल गया काजू जी महराज ”
“हाँ।” मजनू ने कहा क आज पहला दन है और तुम ब त ब ढ़या काम कए।
इस लए नक़द बीस पया दे रहे ह। उसके बाद महीने-महीने ही मलेगा। ले कन समझ लो
य द गलास तोड़ोगे तो एक गलास का पाँच पए म काट लेगा। अगर एक भी गलास नह
तोड़ा तो महीना के आ ख़र म पाँच पया इनाम भी।”
“ह म तभी पाँच पया का बाज़ार से मूँछ ख़रीद लाए हो तुम।” माँ ने मु कुराते ए
पूछा।
“पाँच पया का ”
“और नह तो या। मजनू ने तुमको बीस पया दया ले कन तु हारी मुट् ठ म तो पं ह
पया है। अब तुम उसका समोसा तो खाए नह होगे। मूँछ ही ख़रीदे होगे।” माँ ने काजू को
गुदगुदाते ए कहा।
“नह माँ, समोसा ही खाए ह। स ची। छोड़ो। माँ गुदगुद मत करो न। स ची समोसा ही
खाए ह।”
“ े े े े ौ ँ ँ े ई ै ी ”
“अरे, तब फर चेहरे पर ये सौ ाम मूँछ कहाँ से आ गई है जी, ह ”
“अरे नह है मूँछ। छोड़ दो न। अ छा अब कभी दाढ़ नह बनाएँगे। छोड़ दो। सच म
समोसा ही खाए थे।”
माँ काजू को छोड़ना नह चाहती थी। वो उसे लगातार हँसते दे खना चाहती थी। अगर
उसका बस चलता तो वो उसे रोज़ नयम से गुदगुदा दे ती। वजह, बला-वजह। ख़ासकर तब
जब वो उसके पसंद का खाना नह बना पाती थी। तब जब क वो उसे भरपेट नह खला
पाती थी। तब जब वो उसक ज़द पूरा नह कर पाती थी। तब जब वो सफ़ टै डपोल से
दल बहलाता था य क माँ उसे और खलौने नह दला सकती थी।
माँ खाना बनाने लगी और काजू अपने खलौन से खेलने लगा। टै डपोल थोड़ा और
बड़े हो चुके थे। उसने अंदाज़ा लगाया क अब उ ह एक बड़े मतबान म डाल दे ना चा हए।
छोट शीशी म यहाँ वहाँ तैरने पर उनक पूँछ लड़ रही थी। वो अब ‘कॉमा’ से फूलकर
अं ेज़ी के ‘ यू’ जैसा हो गए थे। उसने माँ से अचार का मतबान माँगा। माँ ने थोड़ी ना-
नुकुर के बाद एक मतबान धोकर साफ़ कर दया। काजू ने उस पर कॉपी- कताब वाला
ट कर भी लगा दया। नाम मेढक। क ा तालाब। वषय काजू।
वो हमेशा चाहता था क वो ऐसा ट कर अपनी कॉपी कताब पर लगाए ले कन उसने
पछले तीन साल से कूल जाना छोड़ दया था। वो जन कूल म पढ़ने जा सकता था
वहाँ अ धकतर माठ साब नह होते थे। आधे से यादा कमर म सीमट-बालू-दलहन भरा
होता था। हालाँ क फर भी उसे कूल जाना बुरा नह लगता था। ले कन जब मड-डे -मील
खाने से उसके चार दो त मर गए तो माँ ने डरकर उसे कूल से नकाल लया।
काजू हर उस चीज़ पर ट कर के प े से एक चट नकालकर लगा दे ता था जो उसे
पसंद होती थी। वषय का नाम हमेशा काजू लखा जाता था और नाम क ा अपने हसाब
से। कभी-कभी जब उसे माँ पर बेहद यार आ रहा होता तो उसक इ छा होती क वो एक
चट माँ के माथे पर भी लगा दे । नाम काजू क माँ। क ा काजू क माँ। वषय-काजू क
माँ।
रो टयाँ बेलते-फुलाते माँ महसूस कर पा रही थी क काजू बड़ा हो रहा था। हालाँ क वो
काजू को इस तरह से बड़े होते नह दे खना चाहती थी। वो काजू को हँसते-खेलते बड़ा होना
दे खना चाहती थी। दो त के साथ लड़ते-खेलते। टै डपोल पालते। वो नह चाहती थी क वो
अपने पता क तरह कमाना सीखते-सीखते अपने पता जैसा हो जाए। ले कन काजू यही
चाहता था क वो अपने पता जैसा हो जाए। ये अलग बात है क वो अपने पता जैसा सफ़
इस लए हो जाना चाहता था जससे क वो अपनी माँ के लए जूते ख़रीद सके। और वो सब
कुछ जो माँ के लए पता नह ख़रीद पाते।
वो सब जो क ग़ैरज़ री था। काजू उसे माँ के लए ज़ री कर दे ना चाहता था।

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लाल रंग क ल प टक। बाल के लए पीले रंग क फूलदार बंधनी। लाल रंग क
कसीदे वाली चु ी। हर वो चीज़ जो चमकती थी जो चटख रंग से बनी थी। हर वो चीज़ जो
या तो उसके पता टाल जाते थे या फर उसक माँ ख़ुद ज़द करके टलवा दे ती थी।
दस दन से भी कम समय म काजू अपने काम म प का हो गया था। वो मजनू का
ख़ासमख़ास मुला ज़म हो गया था, य क वो अपने काम म ग़लती नह करता था। उसने न
ही कोई गलास तोड़ा और न ही हसाब म कभी कोई गड़बड़ क । वो उँग लय पर गन
सकता था क महीना पूरा होना म कतने दन बचे ह। दन घट रहे थे चौबीस दन, तेईस
दन, बाईस दन, इ क स दन, बीस दन। महीना ख़ म होने म बीस दन बाक़ थे और
काजू अपने काम म पहले दन जैसा मु तैद था।
“अरे, साहब लोग आए ह। काजू दौड़ ज़रा ज द ।”
काजू ने दे खा तो ख़ाक व दयाँ और खाद के कुत-सद रयाँ आए ए थे। एक पु ल सया
जीप भी थी जसने सायरन वाली ब ी टोपी क तरह पहन रखी थी।
“हौ साहेब या माँगता है। चाय, समोसा-छोला, ल सी-छाछ, कचौड़ी चटनी ”
काजू ने मजनू क नक़ल करते ए ाहक से कहा।
“कब से काम कर रहा है यहाँ पर ” ख़ाक वद ने पूछा।
“महीना पूरा होने म बीस दन कम साहेब। बीस दन म महीना पूरा हो जाएगा।” काजू
ने दो बार ‘महीना’ पर ज़ोर दे ते ए कहा। हालाँ क वो सीधे-सीधे दस दन भी कह सकता
था। ले कन ऐसा कहने से उसे याद रहता था क उसक पहली तन वाह आने म कतने
दन बाक़ ह।
“और कतने छोटू काम करते ह यहाँ पर ” खाद के कुत म से एक म हला ने लार से
पूछा।
“जी ”
“और कतने ब चे ह यहाँ काम पर। तु हारी उ के छोटे ब चे ”
“म ँ। महमूद है। छु ट् टन और उसका छोटा भाई।”
“ या नाम है उसके छोटे भाई का ” सरी ख़ाक वद ने नोट करते ए पूछा।
“नाम नह है उसका।”
“नाम नह है या मालूम नह है ”
“होएगा। ले कन वो लूला है।”
“तो ”

“ े ो”
“इस लए लूला बुलाते ह उसको।”
“तुम सब कूल नह जाते ” खाद के कुत ने पूछा।
“इ कूल काहे को जाएँगे ” काजू ने गोल-गोल आँख से पूछा।
“तुम कतने साल का है ”
“होएगा दस साल का.. या नौ साल का।” काजू ने सुधार करते ए कहा, “माँ को सही
पता होगा। शाम को घर जाऊँगा तो उससे पूछ कर बताऊँगा साहेब। अगली बार जब चाय
पीने आओगे”।
“बाक़ सारा लड़का लोग कतने साल का है। कूल जाता है ”
“इ कूल नह जाता। सब मेरे बराबर का होएगा। या लाऊँ साहब, वो बताओ।” काजू
ने थोड़ा डरते-परेशान होते ए कहा।
“अरे बंद कराओ रे ये कान।” ख़ाक वद ने चीखते ए कहा।
जब तक काजू कुछ समझ पाता, मजनू क कान बंद कराए जाने का सल सला शु
हो चुका था। काजू डर गया य क वो ये नह समझ पा रहा था क कान आ ख़र य बंद
कराई जा रही है। वो कूल नह जाता इस लए या फर वो नौ साल का है इस लए। या फर
उसने कोई गड़बड़ कर द इस लए
मजनू ख़ाक वद से गड़ गड़ा रहा था क वो कल से सारे ब चा लोग को काम पर से
नकाल दे गा और सफ़ जवान आदमी को ही काम पर रखेगा। ख़ाक वद कड़क आवाज़ म
कह रही थी क एनजीओ वाल क शकायत है उ ह ने पहले भी दो बार साफ़-साफ़ श द
म मजनू को समझाया था क चौदह साल से कम उ के ब च को काम पर नह रखने का
है। फर भी वो उनक चेतावनी को अनसुना कर रहा है।
“साहब कुछ दे ख सुन लो न, कुछ तो दे खना सुनना बनता है न साहेब ” मजनू ने कहा।
“तू साला मेरे को या दखाएगा-सुनाएगा बे। साला चाय वाला होकर सेठ क जबान
बोलता है ” साहेब ने कहा।
“साहेब पहले चाय तो पी लो न। फर बात करते ह।”
साहेब चाय पीने लगे। चाय क पहली चु क गले से उतरते ही दे खने-सुनने क
मश क़त शु हो गई। मजनू दखा रहा था, साहेब दे ख रहे थे। बीच-बीच म मजनू सुनाता
था और साहब सुनते भी थे। काजू ट न शेड म बैठा ज़ोर-ज़ोर से रो रहा था। खाद का एक
कुता ममता से उसक और बढ़ा और उसने काजू को गोद म बठा लया।
“ कतने यूट हो तुम ”

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काजू रोने लगा।
“तुम कान पर काम य करते हो। कूल जाया करो बेटे।”
काजू ने जवाब म कुछ नह कहा।
“अगर अभी कूल नह जाओगे तो हमेशा ऐसे चाय क कान पर छोट -मोट मज़ री
करते रहोगे। अगर कूल जाओगे तो कल को ब त बड़े आदमी बनोगे। ये तु हारी भलाई के
लए है।”
काजू और अ धक रोने लगा।
“तु ह मालूम है हमारे धानमं ी जी भी पहले चायवाले थे। ले कन अगर वो सफ़
चाय क कान पर ही काम करते रहते तो आज दे श के धानमं ी नह होते। या तुम भी
उनके जैसा नह बनना चाहोगे ”
“जू ते जू..ते।” काजू ने ब-मु कल रोने के बीच म ज और उसम बड़े ऊ क मा ा
लगा कर जू भरा। ह मत करके ँ धे गले से त को ध का मारकर उसम ए लगाया। पता नह
एनजीओ ने कतना समझा। कतना नह ।
ख़ाक वद और मजनू के बीच दे खने-सुनाने क कशमकश आ ख़रकार मुक मल ई
और ये तय आ क चार ब च को महीने भर क तन वाह दे कर रफ़ा-दफ़ा कया जाएगा
और मजनू बारा कभी चौदह साल क उमर से कम के ब चे को काम पर नह रखेगा।
दे खने-सुनाने म कुछ हज़ार-दो-हज़ार लगे भी।
“ए लड़के इधर आओ ज़रा।” ख़ाक वद ने ज़ोरदार आवाज़ म काजू को बुलाया।
काजू ने आवाज़ का पीछा नह कया। वो डर गया और खाद के कुत क गोद से
कूदकर भागा। तब तक, जब तक क वो कान से ओझल नह हो गया।
“अरे बेटा सुनो तो अपने पैसे तो लेकर जाओ।” एनजीओ ने ममता भरी आवाज़ म
पुकारा।
आवाज़ ने काजू का पीछा कया पर वो शायद उस तक प ँच नह पाई।
काजू और दौड़ा। कान से और र जाने के लए।
घर प ँचकर काजू माँ क बाँह म छपकर फूट-फूट कर रोया। माँ ने उसे समझाया क
सब ठ क हो जाएगा। उसे नौकरी करने क ज़ रत ही या है माँ ने उसे पुचकार कर ये
समझाया क कुछ भी तो नह आ है और उसे कौन से जूते क ज़ रत है। जूता-वूता
फ़ज़ूलख़च है, च पल काफ़ है।
काजू अचार का मतबान पकड़ कर, माँ क गोद म रोता रहा, लेटा रहा। उसने यान से
दे खा तो टै डपोल क पूँछ लगभग ग़ायब हो चुक थी और उनके हाथ-पैर नकल रहे थे। वो
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हैरान-परेशान यहाँ वहाँ पैर मारकर तैरते ए सोच रहे थे क उनक पूँछ आ ख़र कौन चुरा
ले गया। वो यादा हैरान इस बात से थे क वो बची-खुची पूँछ से तैर या फर ताज़े-ताज़े पैर
से।
“सो जा बेटा।” माँ ने कहा।
“वो पु लस वाले का जूता कतना ब ढ़या था। सड़क पर कैसे टक-टक क आवाज़
करता था।” काजू ने ःखी मन से कहा।
कैनवस के जूते और रातरानी के फूल

चाँद
हर सहर
सूरज नकलने से
न बुझा

बुझा तो
इस गाँव म
बजली के आने से।

बाहर चाँद था। अंदर उसक बु ढ़या थी। चाँद इस व त आसमान म इस तरह टँ गा आ
था जैसे कसी बड़ी-सी आट गैलरी म नुमाइश के लए कोई ख़ूबसूरत-सा अ ै ट
आटपीस टाँग दया गया हो, जो हर कसी के लए अलग-अलग मतलब और मौसीक़
रखता हो। ले कन आटपीस इस बात से पूरी तरह बेख़बर हो क नुमाइश म आने वाल के
लए वो या मायने रखता है।
बूढ़ा बु ढ़या के मायने तो समझता था, ले कन चाँद के मायने नह समझता था।
अगर कोई उससे बु ढ़या के मायने पूछता था तो वो एक श द म बता दे ता क बु ढ़या
कछु आ है। कछु आ इस लए य क बु ढ़या यादातर नया क तरफ़ पीठ करके ही खड़ी
होती थी और यादा उलझन होने पर अपने आप म घुस कर ज़ त हो जाती थी। वो या तो
अकेले म बूढ़े के सामने नकल आती थी या फर कूल के ब च के सामने। बु ढ़या का वो
ह सा, जो नया क ओर नह था, बेहद मुलायम था।
चाँद के मायने पूछे जाने पर बूढ़ा वधा म पढ़ जाता और बु ढ़या क तरह अपने आप
म मुंडी घुसा कर छु प जाने क को शश करने लगता। य क यादातर लोग उसक नज़र
और समझ पर हँस दे ते। उसके हसाब से, चाँद सफ़ेद कपड़े का छोटा-सा पैबंद था, जसे
काले तंबू का छे द छु पाने के लए, तंबू के फटे ह से पर, रफ़ू क तरह टाँक दया गया था।
“ ो” े
“सुनो।” बु ढ़या ने कहा।
“ह म ” बूढ़े ने पूछा।
“अगर हम कल से कूल नह जाएँगे तब दन भर घर म बैठे-बैठे या करगे ”
बूढ़े ने जवाब नह दया। बु ढ़या का सवाल सुन कर वो अचानक खी हो गया। उसे
ऐसा लगने लगा क चाँद पीतल का गोल तवा है, जसे घंटे क तरह वो कूल म हर लास
ख़ म होने के बाद बजाता था। छु ट् ट का बड़ा-घंटा बजने पर ब चे अपनी-अपनी लास से
ऐसे नकल आते थे जैसे इस व त आसमान से तारे नकल आए थे।
छु ट् ट होने पर ख़ुशी से ब च के चेहरे, इतनी शदद् त से टम टमाने लगते थे क बूढ़े
का चेहरा चमककर चाँद हो जाता था।
बूढ़ा और उसक बु ढ़या पछले बाईस साल से अपने घर के पास वाले कूल म
मुला ज़म थे। बूढ़े का काम था घंटा बजाना और बु ढ़या का काम था ब च को ट ल क
गल सया से पानी पलाना। यूँ तो बूढ़ा कोई और काम नह करता था ले कन बु ढ़या छु प-
छु पाकर, ऐसे तमाम काम कर दया करती थी जो उसक नौकरी का ह सा नह थे।
जैसे जब कोई ब चा पानी माँगने आता था और बु ढ़या उसके जूते के फ़ ते खुले दे खती
तो वो यार से उ ह बाँध दे ती थी।
वो उ ह इतने सलीक़े से बाँधती थी क फ़ ते से फूल का आकार बन जाता था। एक
गोलमटोल ब चा जो तीसरी लास म पढ़ता था, वो उसे रातरानी का फूल कहता था।
रातरानी इस लए य क वो कैनवस का सफ़ेद जूता पहनता था। एक यारी-सी ब ची जो
सरी लास म पढ़ती थी, उसे च पा का फूल कहती थी। च पा इस लए य क उसके
कैनवस के सफ़ेद जूते पर, यहाँ-वहाँ, पीले रंग क छ ट थ ।
फ़ ते बँधवा के जब मुट् ठ भर ब चे वापस लौट रहे होते तो ऐसा मालूम होता था जैसे
एक यारी-सी फुलवारी उछलते-कूदते चली आ रही हो।
य द कोई ब चा अपने ट फ़न का ढ कन नह खोल पा रहा होता तो वो बु ढ़या से
खुलवाने आ जाता था। बु ढ़या पहले तो अपने आँचल से प छ कर ड बे क चकनाई ख़ म
करती फर मुट् ठ से ढ कन के कनारे क तरफ़ ह का-सा ध का मारकर ड बा खोल दे ती
थी। एक ब चा जसका नाम पुपुल था, पहले तो ड बे म झाँक कर ये दे खता था क आज
उसक माँ ने खाने के लए या भेजा है। फर बु ढ़या के चेहरे म झाँक कर दे खता था क
उसके चेहरे पर कौन-सा भाव है।
पुपुल का चेहरा बु ढ़या के चेहरे से सी-सॉ खेलता था।
मैगी भेजे जाने पर बु ढ़या शरारत से हँसती थी य क उसे पता था क पुपुल को मैगी
ब त पसंद है और आलू-मेथी भेजे जाने पर बु ढ़या सहानुभू त जताती थी। जवाब म पुपुल
ी े ो ो
जीभ नकाल कर, अपना गला पकड़ कर, उ ट करने क आवाज़ नकालता तो बु ढ़या को
सच म उबकाई आने लगती थी।
पूरी उ कूल म काम करते ए बु ढ़या ने समझ लया था क ब च को कूल म
कस- कस चीज़ क ज़ रत पड़ सकती है। या ये कह ल क उसने हर वो ज़ रया खोज
नकाला था जो उसे कसी ब चे से जोड़ सकता था। जैसे उसके आँचल म सुई-धागे और
नेल-कटर से लेकर प सल छ लने का लेड भी आ करता था। खेलते-कूदते य द कसी क
शट का बटन टू ट जाए तो असे बली म नाखून, जूते और े स क जाँच के व त, पटाई होने
का डर रहता था। इस लए बु ढ़या इंटरवल म फटाफट टू टे बटन टाँक दे ती थी। वो ख़ुद ही
पानी पलाते व त ज़बरद ती ब च के नाख़ून भी दे ख लया करती थी।
जब पी.ट . के मा टर को इस बात का पता चला तो उसने बु ढ़या क उमर और ब च
के क चे कान का लहाज़ कए बना उसे ख़री-कसैली गा लयाँ सुना द और ज़बरद ती
बु ढ़या के आँचल क गाँठ खुलवाकर उसक लार भीगी पूँजी फकवा द गई। हालाँ क
बु ढ़या ने, अगले ही दन सारा ज़ री सामान फर से इकठ् ठा कर लया और उसे मटके के
पीछे , द वार क तरफ़, लुका कर रखना शु कर दया।
बूढ़ा उसे लाख समझाता था क ये सब काम छु पा के कया करे। ले कन जो थोड़ी ब त
चालाक उसने जवानी म सीखी थी, वो बुढ़ापा चढ़ते-चढ़ते दमाग़ से उतर गई थी। हालाँ क
बूढ़ा बु ढ़या को सावधान रहने क हदायत दे ता था ले कन इसका मतलब यह नह है क वो
अपना छोटा-सा काम मु तैद से कर ले जाता था।
ले-दे कर उसके पास एक ही काम था घंटा बजाना।
बूढ़ा हर आधे घंटे बाद, पीतल के भारी-भरकम घंटे को, एक बार ज़ोर से बजाता था
ट .। आवाज़ का ज़ोरदार होना ज़ री होता, ता क कूल के हर कोने म उसे सुना जा
सके। एक वो व त था जब उसक हाथ म जान आ करती थी। घंटे क आवाज़ कान म
सट से घुस कर ऐसे बला जाती थी क ज़रा-सा ख़ुजाने का मन होता था। और एक आज
का व त है जब आवाज़ मेन ब डं ग के आगे क लासेज़ तक ही रह जाती है। बा रश के
उन बादल क तरह, जो उठ तो ज़ोर से, ले कन पहाड़ के एक छोर पर बरस के हवा हो
जाएँ।
पीछे के माइसेज़ म छठव से बारहव लास के लड़के पढ़ते थे। वो अ सर
शकायत करते थे क बु े क वजह से कुछ ऐसी लासेज़ लंबी हो जाती थ जनका व त
पर ख़ म होना ब त ज़ री आ करता था। एक बार ‘नाइ थ-सी’ क ग णत क लास
चार मनट लंबी हो गई और कुछ ऐसे लड़के नप गए जो उस दन घर से सवाल बना कर
नह लाए थे। चार मनट के अंदर महेश म ा ने स ह शकार कए थे। चार मुग और पाँच
हवाई जहाज़। अदद।

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एक लास के दस मनट अ त र खच जाने का मतलब होता था, अगली लास का
छोटा हो जाना। और अगर कभी वो लास खेल क होती थी तो पूरी-क -पूरी लास का
ग़ सा उसके सर ही फूटता था। बूढ़ा ‘ट् वे थ बी’ के लड़क से ब त डरता था। चेहरे पर
नई-नई दाढ़ -मूँछ आने क वजह से वो चड़ चड़े भी थे और ग़ सैल भी।
वो गम मज़ाज के थे और रात ठं डे मज़ाज क ।
“ या बजली घंट बजाने के लए कसी आदमी क ज़ रत नह होगी ” बु ढ़या ने
ब च के से उ साह से पूछा। जसका बूढ़े ने कोई जवाब नह दया। वो अभी तक खड़क
के बाहर कुछ दे ख-ढूँ ढ़ रहा था।
“ सपल साहब से बात कर के दे खो न कल से कूल नह जाएँगे तो सब कुछ
कतना सूना हो जाएगा। इतनी-सी बात पर कोई नकाल दे ता है भला ”
“अ छा, अगर ऐसा हो क हम उनसे कह क हम कुछ महीना कूल म काम करने का
पैसा नह माँगगे और अब घंटा बजाने म एक भी दन ग़लती नह होगी। तुम भी थोड़ा यान
रखना क घड़ी दे खकर हर आधे घंटे बाद ज़ोर से घंटा बजा दया करना।”
“अरे बु ढ़या या तुमको सच म ऐसा लगता है क महीने के तीन सौ पए बचाने के
लए वो मुझे काम से नकालने का वचार बदल दगे ”
“ह म .। राम भरे चाभी जतना, उतना चले खलौना”।
“आदमी मशीन से जतना खाता है, उससे यादा मशीन आद मय को खा जाती ह।
अलमारी से तेल उठा ला। तेरे जोड़ म लगा दे ता ँ।”
“अ छा, तुम कलाई घड़ी ख़रीद लो। उससे ताके रहा करना और ठ क टाइम पर घंटा
बजा दया करना।”
“काहे हैरान हो रही है बु ढ़या। जा तेल लेकर आ। जोड़ पराने लगगे तेरे।” बूढ़े ने
खड़क बंद करते ए कहा। फर कुछ सोचते ए उसने खड़क चार-छः अंगुल खुली छोड़
द।
बाहर झ गुर जाने कसक पाज़ेब चुरा लाया था, जसे बजा-बजा कर वो झगुराइन को
ललचा रहा था। झगुराइन के पैर के हसाब से पाज़ेब थोड़ी बड़ी थी। खड़क जतनी
खुली ई थी, उतने से कुछ-कुछ आवाज़, झुककर-सरककर अंदर आ जा रही थ । कहने
को तो खड़क के प ल के बीच दरार पतली ही थी ले कन उससे झ गुर क बली-पतली-
छोट आवाज़ भी आ सकती थी और सड़क पर चलते क क मोट और लंबी आवाज़ भी
आ सकती थी।
आवाज़ खड़क खटखटा कर नह आती थी। सा धकार चली आती थी।

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बूढ़ा पूरी हथेली पर तेल मलकर, हथेली क गदद् से बु ढ़या के घुटने क मा लश कर
रहा था। उसके खुर रे हाथ क लक र काफ़ गहरी थ । कुछ तेल तो लक र सोख जाती थ
और कुछ हथे लय का खुर रापन। मा लश से बु ढ़या को आराम मला और वो कछु ए क
तरह अपने आप से बाहर नकल आई। उसके चेहरे के भाव, जो अभी तक ज़ त थे, वो भी
बाहर नकल आए।
कुछ भाव उसक झु रय म बला गए और कुछ उसक उमर म।
बूढ़ा और बु ढ़या के ब चे नह ए थे इस लए उ ह ने अपनी सारी ज़दगी कूल के
ब च के सहारे ख़ुशी-ख़ुशी गुज़ार द । उ ह इस बात का अहसास यादा नह होता था क
कूल म पढ़ते-खेलते ब च म से कोई भी ब चा उनके घर नह लौटता। वो बूढ़े-बु ढ़या क
ज़दगी म ऐसे आते थे जैसे घर क छत पर प रदे । पुराने छ जे गुलज़ार करके प रदे , रोज़
शाम अपने-अपने घ सल म लौट जाते थे। उनके लौट जाने के बाद भी छ ज पर प रद
क चहचहाहट कुछ अ त र दे र के लए ज़ र रह जाती थी।
पुराने घर के छ जे गूँजते यादा ह।
“बस अब तेल मत लगाओ। तेल कब का ख़ म हो गया ”
“कुछ सोच रहे हो या ”
“ह म .।”
“ब च के बारे म ”
“हाँ।”
“म भी।”
“तुम या सोच रही हो ”
“पहले तुम बताओ तुम या सोच रहे थे ”
“म सोच रहा ँ क अगर मुझे कूल से नकाले जाने क बात कुछ दन पहले बता द
जाती तो म रोज़-रोज़ छु ट् ट का ख़ूब लंबा घंटा बजाया करता। छु ट् ट के लंबे घंटे से सबसे
यादा पहली और सरी लास के ब चे ख़ुश होते ह। सरी लास का एक छोटा ब चा
जब घर जाने के लए दौड़ता है तो उसक पट सरकती है।”
“उसका नाम पुपुल है। उसक पट म ब तो है ले कन उसे वो कंधे से उतार कर जेब
म ख स लेता है”, बु ढ़या ने मु कुराते ए कहा।
“वो एक दन मटकते-मचकते मेरे पास आया था और शमाते ए बोला क दादा जी
आज दस बजे वाला घंटा पाँच-सात मनट पहले बजा द जएगा। वो अं ेज़ी क कॉपी लाना

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भूल गया था। कहने लगा क वो सबसे आ ख़री सीट पर छु प के बैठ जाएगा और उसके
हसाब से अगर घंटा थोड़ी दे र पहले बज गया तो वो कॉपी चेक कराने से बच जाएगा।”
“और तुमने व त से पहले घंटा बजा दया ” बु ढ़या ने झूठ-मूठ का ग़ सा दखाते ए
कहा।
“हाँ, दस मनट पहले ही।” बूढ़ा खल खलाकर हँसते ए बोला।
बु ढ़या भी खल खलाकर हँसी। दोन इतना हँसे क उ ह खाँसी आ गई। बु ढ़या
खाँसते-खाँसते उठ और पानी लेने के लए दौड़ी। घड़े से पानी लेकर प ट तो बूढ़ा पेट
पकड़े ए था। कहने लगा, “अरे राम आज हँसते-हँसते जान नकल जाएगी।”
बु ढ़या ने पानी का गलास थमाते ए कहा, “एक नंबर का चालू ब चा है। जस दन
आलू-मेथी लेकर आता है, तो कहता है क दाद जी आप मेरा खाना खा ली जए। आप भी
भूखी ह गी। एक दन मने कहा क जस दन मैगी लेकर आना उस दन खलाना, तो कहने
लगा क म मी कहती ह क मैगी मैदे से बनती है। मु कल से हज़म होती है, इस लए आप
मत खाना। आलू-मेथी बूढ़े लोग के लए अ छ होती है, वो खाया करो। और फर हँसते-
हँसते भाग गया।”
“अब तुम बताओ क तुम या सोच रही थी ”
“छोड़ो ”
“अरे बताओ न ”
“नह तुम हँसोगे। और फर खाँसने लगोगे।”
“अरे बाबा, बताओ तो। नह हँसूँगा।”
“अब हँसोगे नह तो हँसी क बात बताने का फ़ायदा ही या ”
“अरे बोलो भी ” बूढ़े ने चढ़ते ए कहा।
“म सोच रही थी क उन ब च के जूते पर रातरानी के फूल कौन बनाएगा ”
“ये भी कोई हँसने क बात है भला ”
“मुझे लगा क तुम हँसोगे क साठ साल क ये बु ढ़या कैसे ब च जैसी बात करती
है।”
बूढ़ा लेट गया। थोड़ी दे र बाद बु ढ़या भी लेट गई ले कन दोन को न द नह आ रही थी।
दोन करवट बदल कर दे ख रहे थे क शायद सरे करवट अ छ न द आती हो ले कन आज
दोन करवट न द नह आ रही थी। बूढ़ा फर से लेटे-लेटे खड़क से बाहर झाँकने लगा।
“अ छा, खड़क बंद कर दो बु ढ़या।”
“ े ो ै”
“अरे बंद तो है।”
“नह , थोड़ी-सी खुली है।”
“तो ”
“चं मा कूल म टँ गे पीतल के घंटे क तरह लगा रहा है। रोशनी चा हए तो बजली का
ब ब जला लो।”

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