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लेखक का परिचय

लेखक का ताल्लक
ु उसी शहर है , जिसके मत
ु ाल्लिक़ कभी मीर तक़ी मीर कहा करते थे-

"आबाद, उजड़ा लखनऊ चग्ु दों से अब हुआ


मश्कि
ु ल है इस ख़राबे में आदम की बद
ू -ओ-बाश"

इनसे मिलकर आपको मीर की इस बात का ऐतबार बखब ू ी हो जाएगा। तिजारत के नाम पर यह भी वहीं करते
हैं, जो एक अरसे से मल् ु क के करोड़ों नौजवान करते आ रहे हैं। सीधे लफ्जों में कहें तो फिलहाल वक़्त का गला
रें तते हैं और इससे फुर्सत मिलने पर कभी-कभार कुछ सलीके का काम भी कर लेते हैं।

दनि
ु या की नज़र में ठीक-ठाक इम्कानों वाले एक कलमकार हैं, जबकि घरवालों की नज़र में बिल्कुल वहीं है , जो
आप और मैं अपने-अपने घर वालों की नज़र में हैं। खैर, गैर जो मर्ज़ी कहें , पर खद ु अपनी नज़र में फन्ने खान
से ज़रा भी उन्नीस नहीं हैं। किताबें जमा करने के बड़े शौकीन हैं, पढ़ते हैं या नहीं इसका इल्म आपको इनसे
मलु ाक़ात होने पर ही होगा। बाकी इनके लफ्ज़ों में कहें , तो "जो है , सो हईये है "

भमि
ू का

कई बार अपने जीवन में हम ऐसे कार्य करते हैं, जिनका आमतौर पर कोई औचित्य नहीं होता है । जैसे की जन्म
लेना, शिक्षा ग्रहण करना, प्रेम करना, इत्यादी, इत्यादी।

इसी प्रकार इन रचनाओं का भी कोई विशेष औचित्य नहीं है । जन्म, शिक्षा, और प्रेम की ही भाँति, यह भी
दिखने में सार्थक अवश्य हो सकती हैं, परं तु यह पर्ण
ू तः लेखक के अंतर्मन में हुई कुछ विचित्र वैचारिक
खजु लाहटों का परिणाम हैं। अतः इन्हें इसी रूप में ही ग्रहण करें ।

विषयसच
ू ी

1. प्रिय कुर्सी….

2. सोनपापड़ी यग
ु े-यग
ु े (भाग-1)

3. सोनपापड़ी यग
ु े-यग
ु े (भाग-2)

4. खद
ु ा कसम, मैं ही सच हूँ!

प्रिय कुर्सी...
लगभग 60-65 वर्ष की आयु का एक व्यक्ति बड़ी शान से चहलकदमी करते हुए आगे बढ़ता जा रहा है । उसके
एक हाथ में 2 काले रं ग की फ़ाइलें हैं और दस ू रे में मोबाइल फ़ोन। बड़े ही भव्य गलियारे को पार करते हुए वह
एक कमरे में प्रवेश करता है । दिखने में कमरा, गलियारे से भी भव्य है । विशाल आकार का सफ़ेद दीवारों वाला
वह कमरा उजली रोशनी से नहाया हुआ है । कक्ष कीमती कलाकृतियों, चित्रों, भव्य सोफ़ा सेट,और एक विराट
आकार के मेज से सश ु ोभित है । उस मेज कि दस ू री ओर एक सफ़ेद कुर्ता पजामा धारण किए हुए, एक 50-52
साल का चस्
ु त-दरु ु स्त दे ह वाला व्यक्ति है जो अपने फ़ोन पर कुछ टं कित करने में व्यस्त है ।

उस वद्ृ ध के कमरे में प्रवेश करते ही उस सफ़ेद कुर्ते-पजामे वाले व्यक्ति की एकाग्रता भंग हो जाती है । वद्
ृ ध
व्यक्ति को दे खते ही वह अपनी जगह से खड़ा हो जाता है और मस् क
ु ु राते हु ए कहता है -

आइए सिन्हा जी, मैं सोच ही रहा था कि आप अब तक आए क्यों नहीं?

(दोनों हाथ मिलाते हैं और सिन्हा जी मेज़ के इस पार लगी 2 कुर्सियों में से एक पर बैठ जाते हैं)

सिन्हा जी- जी क्षमा करिए अभिनव बाबू । थोड़ी दे र हो गई, असल में दयाल....

अभिनव- चलिए कोई बात नहीं। आप बता रहे थे कि त्यागपत्र दे ने से पहले कुछ कागज़ी कार्यवाही भी करनी
है ?

सिन्हा जी- जी अभिनव बाब!ू

अभिनव- जी, फिर आप बता दीजिए कहां-कहां मझ


ु े हस्ताक्षर करने हैं।

सिन्हा जी- (फाइल अभिनव की ओर बढ़ाते हुए) जी, जहां-जहां पें सिल से क्रॉस लगी हुई है , आप बस वहां-वहां
दस्तखत कर दीजिएगा।

अभिनव- (फ़ाइलों को खोलकर उसपर सरसरी निगाह डालते हुए) जी, जी! समझ गया। अच्छा, आज शाम को
जो दफ्तर के लिए हमने चाय-पार्टी रखी है , उसकी तैयारी हो ही गई होगी मेरे विचार से?

सिन्हा जी- जी, जी! आप निश्चिंत रहिए। मैं सब दे ख लग


ंू ा!

अभिनव- और मेरे लिए कोई आदे श? रहते हुए ना सही, कम से कम जाते-जाते ही आपके लिए कुछ कर जाऊँ?

सिन्हा जी- कैसी बात कर रहे हैं सर? इन 8 सालों में शायद ही ऐसा कोई मौका आया हो जब आपने मेरी कोई
बात ना रखी हो। सच कहूं तो सर, जो हुआ बहुत गलत हुआ!

अभिनव- (अपना चश्मा उतारकर मेज़ पर रखते हुए)


सिन्हा जी, कहते हैं ना-

मालिक की मर्ज़ी भाई, पलट दियो संसार।


भार झोकन के भार में , रहिमन उतरे पार।।

जनता जनार्दन है और जनार्दन कब किसका भाग्य पलट दे कोई नहीं जानता। खैर, जो भी हो, अंत में तो
जनार्दन का ही आदे श सर्वोपरि होता है ।

(यह बात खत्म होते-होते अभिनव के चेहरे पर एक कनखी मस्


ु कान फैल जाती है )
सिन्हा जी- पता नहीं क्या हुआ सर? कुछ समझ ही नहीं आया।

अभिनव- (ज़ोरदार कहकहा लगाते हुए) समझ तो अब तक उन्हेंं भी नहीं आ रहा कि हुआ क्या है ?

(सिन्हा जी अपने बॉस और प्रदे श के मख्ु यमंत्री अभिनव कुमार जी का इशारा समझ जाते हैं। असल में यह
जमु ला अभिनव जी ने अपने विपक्षियों के लिए कसा था, जो अभी तक चन ु ाव में अपनी जीत को पचाने में लगे
हुए थे । क्योंकि मतगणना की सब ु ह तक उन्हेंं इस बात का रत्ती भर भी अनम ु ान नहीं था कि चन
ु ावों में पड़े वोट
उन्हीं के लिए हैं। और चन
ु ाव जीतने के बाद उनक े खे मे में अब अपना सरदार चनु ने की आपाधापी मची हुई थी)

सिन्हा जी- सर अब मैं आपसे अनम


ु ति चाहूंगा कोई काम हो तो बल
ु ा लीजिएगा।

अभिनव- अच्छा जाते हुए जऱा वह स्टे नोग्राफर महोदय है न, उन्हेंं भेज दीजिएगा, जऱा वह इस्तीफे के ड्राफ्ट
को लेकर उन्हेंं कुछ बताना है । और लगे हाथ यह भी बता दीजिए कि आज मिलने वालों में कौन-कौन है ?
हालांकि मझ
ु े लगता नहीं कि आज कोई होगा मिलने वाला।

सिन्हा जी- नहीं सर आज तीन बैठकें हैं। 2 प्रतिनिधि मंडल हैं और एक रिज़वी साहब हैं, खास दिल्ली से आ रहे
हैं। पहली भें ट 2:30 बजे, दसू री 3 बजे और तीसरी 3:40 पर है । और सर आप इस्तीफे वाला काम मझ ु े बता
दीजिए, मैं दे ख लग ंू ा। आप उसकी चिंता मत कीजिए।

(सिन्हा जी की बातें सन
ु ते-सन
ु ते मख्
ु यमंत्री महोदय की गर्दन, दीवार पर टं गी घड़ी की ओर घम
ू जाती है )

अभिनव- अरे सिन्हा जी, आज अंतिम दिन है । थोड़ी चिंता कर लेने दीजिए। कल से फिर आराम ही आराम है ।

सिन्हा जी- जी अभिनव बाब,ू जैसा आप कहें ।

(यह कहते हुए सिन्हा जी क्षण भर में कक्ष से प्रस्थान कर जाते हैं। फिर कुछ क्षण पश्चात अभिनव बाबू
इंटरकॉम कि ओर लपकते हैं और 05 डायल करते हैं। घंटी बजते ही उधर से एक महिला की वाणी आती है -

यस सर!

अभिनव कुमार- जी एक काम करिए, अभी मैने स्टे नोग्राफर महोदय को अंदर भेजने के लिए कहा था, उन्हेंं
अभी रोक लीजिए। आप उन्हेंं तभी अंदर भेजिएगा जब मैं आपसे कहूं।

औरत- ऑलराइट सर।

फ़ोन रखते ही अभिनव बाबू अपनी कुर्सी पर पसर जाते हैं। कुछ समय कुर्सी पर पसरे रहने के बाद वह अपनी
कुर्सी को जऱा आगे खींचते हुए अपनी मेज़ की ओर मख़ ु ातिब होते हैं। अपने कुर्ते की आस्तीन चढ़ाते हुए, अपनी
दोनों कोहनियां मेज़ पर टिका दे ते हैं। फिर अपने दाएं हाथ से, अपनी बाईं कोहनी के ठीक सामने पड़ी आधा
दर्जन कलमों में से एक कलम उठाते हैं और लेटर पैड के सबसे पहले पन्ने पर कुछ लिखने लगते हैं।

लगभग 15 मिनट तक कागज़ पर क़लम दौड़ाने के पश्चात, सहसा रुक जाते हैं और लिखे हुए को पढने लगते
है । पढ़ते हुए उनके मख
ु मंडल पर फिर से असंतष्ु टी का भाव तैर जाता है । फिर कुछ दे र और पढ़ते रहने के बाद,
मख्ु यमंत्री महोदय अपनी लिखावट पर बड़ी-बड़ी तिरछी लकीरें खींचते हुए उस काट दे ते हैं। फिर एक गहरी
सांस भरते हुए खड़े होते हैं और जाकर खिड़की के पास ठहर जाते हैं। खिड़की के सामने खड़े होकर अभिनव जी,
बाहरी सड़क की अभिनवता को एकटक निहारने लगते हैं। हालांकि यह कार्य तो वह विगत 8 वर्षों से नित्य ही
करते आ रहे थे, परं तु आज टकटकी में थोड़ा अंतर था।

आज से पहले इस खिड़की के आगे खड़ा होने वाला, कल का


साधरण व्यक्ति था, जो आज एक मख् ु यमंत्री था। वहीं आज टकटकी बांधे खड़ा व्यक्ति, वर्तमान का मख्ु यमंत्री
था, जो कल एक साधरण व्यक्ति बनने वाला था। तभी फ़ोन में कोई हलचल होती है जिससे अभिनव बाबू का
ध्यान भंग हो जाता है । कुर्ते की जेब से फ़ोन को निकालकर दे खने पर एक समाचार साइट का नोटिफिकेशन
पाते है । उस नोटिफिकेशन के शीर्षक को पढ़कर अभिनव बाबू जऱा सचेत हो जाते हैं। उस शीर्षक पर अंगल ु ी
रखते ही एक नए सफ़हे पर पहुंच जाते हैं। फिर उस सफ़हे पर छपे शब्दों को बद ु बद ु ाते हुए पढ़ने लगते हैं।

"Naveen Singh elected as the new leader of Samtawadi Dal's legislative party.

The legislative party of Samtawadi Dal has unanimously elected 38-year old Naveen Singh
as its leader, in the presence of party stalwarts.
Singh is likely to meet the Governor today to stake claim to form the new government.
Samtawadi's step of pitching Naveen Singh can be regarded as a master stroke since young
voters had turned out in large numbers for the winning coalition due to their disenchantment
with the incumbent chief minister Abhinav Kumar. The swing of young voters in the favour
of...

अभी अभिनव बाबू यह पढ़ ही रहे होते है कि तभी सड़क की ओर हुई एक हलचल उनकी एकाग्रता को खंडित
कर दे ती है । दरसल वह हलचल 20-25 गाड़ियों के एक काफ़िले की थी, जो राजभवन की ओर रुख किए हुए थीं।
उन गाड़ियों के समह ू में आगे से चौथे नम्बर पर चल रही लाल रन्ग की स्कॉर्पियो को दे खते ही मख्
ु यमंत्री जी
मस्
ु कुरा दिए। वह समझ गए कि अब उनके भत ू पर्व
ू होने की बेला और निकट आ गई है ।

वस्तत
ु ः वह लाल स्कॉर्पियो परू े राज्य भर में राज्य के भावी मख्
ु यमंत्री नवीन सिंह जी की पहचान थी।
राज्यभर में जहाँ भी वह लाल स्कॉर्पियो प्रकट होती, वहाँ का स्थानीय प्रशासन तरु ं त सावधान की मद्र
ु ा में आ
जाता। क्योंकि नवीन सिंह की किसी भी स्थान पर उपस्तिथि का अर्थ था मात्र और मात्र व्यवस्था में
अस्त-व्यस्तता । नवीन सिंह की लोकप्रियता का अनम ु ान इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके विरोधी
भी यह कहे बिना नहीं रह पाते थे कि "आदमी तो सही है बस पार्टी उसने गलत चन ु ली है ।"

कुछ दे र और अभिनव कुमार जी खिड़की के पास खड़े रहने के बाद कुर्सी की ओर आए और एक विस्मयकारी
भाव से उसे निहारने लगे। क्षण भर कुर्सी को अपनी आँखों की पत
ु लियों में कैद करने के बाद, उसपर विराजमान
होकर फिर से कुछ लिखने लगे। उसी परु ानी कलम से, नए पन्ने पर, किसी अज्ञात उद्दे श्य से।

'आदरणीय महामहिम राज्यपाल जी,

इतना लिखकर फिर कुछ समय के लिए ठिठक जाते हैं। अपने बाएँ हाथ के अंगठ ू े से अपनी उसी तरफ की भौंह
को खज
ु ाने लगते हैं। फिर 'आदरणीय महामहिम राज्यपाल जी' वाले शीर्षक को भी काट दे ते हैं। दो पंक्ति भर
की जगह और छोड़कर उसके नीचे लिखते हैं-

"प्रिय कुर्सी,
परिवर्तनमेव स्थिरमस्ति' अर्थात इस संसार में अगर कुछ स्थिर है , तो वह है मात्र परिवर्तन। ऐसा गद ु ा हुआ है
मझु से आधे हाथ की दरू ी पर पड़े हुए उस पेपरवेट पर , जिससे मेरी भें ट तो कई वर्षों से हो रही थी, परं तु परिचय
वास्तव में आज हुआ है ।

वस्ततु ः अब मेरे व्यक्तित्व के अभतू पर्व


ू से भत
ू पर्व
ू होने में मात्र कुछ सौ-क्षणों का ही अंतर बचा है । ऐसे में इस
कक्ष में अपनी-अपनी जगह गौरव से जमे हुए ,मेज़, अल्मारियों, चित्रों, सोफे, फ़ाईलों, उनकी भीतर लिखीं बातों
और तम ु को अगर सत्य के धर्मकाँटे पर, इस बित्ते भर के पेपरवेट के साथ तौला जाए, तो निश्चित ही पेपरवेट
तम
ु सभी पर बीस पड़ेगा।

पर इस पेपरवेट का यह वर्चस्व मात्र तब तक ही रहे गा जब तक मैं यहाँ विराजमान हूँ। मेरे यहाँ से विदा होते ही
इसकी भी वहीं गति होगी जो साधारणत: जनता की रहती है , परू े पाँच वर्षों तक। बावजद ू इसके कि वहीं इस
तन्त्र को चलाने वाले सबसे शक्तिशाली यंत्र हैं। मेरे बाद जो आएँगे उनका भी इस पेपरवेट से कुशल-मंगल तो
प्रतिदिन होगा, परं तु परिचय तभी होगा जब उनकी विदाई की बेला निकट होगी। किंतु ऐसा भी नहीं है कि मेरे
बाद आने वाले महोदय के आते ही फिर इन मेज़, आल्मारियों, फाइलों, और तम् ु हारा प्रताप पन
ु ः स्थापित हो
जाएगा। प्रताप तो तम् ु हारा ना अब है , ना तब होगा।

आज पलड़ा उस नन्हे पेपरवेट कि ओर झक ु ा हुआ है , कल इस कलम की ओर झकु जाएगा, जिसके द्वारा में
तम
ु से बात कर रहा हूँ। वहीं कलम, जो टहलती तो यहाँ इन फ़ाईलों पर है , पर भाग्य रे खाएँ करोड़ों हाथों की
बदल जातीं हैं। तम
ु भले ही खद ु को चाहें कितना ही सर्वशक्तिमान समझती रहो परं तु वास्तविकता से तम् ु हारा
कभी परिचय हुआ ही नहीं। तम् ु हें कभी किसी ने इस बात का भान ही नहीं कराया ही तम्
ु हारा सामर्थ्य इस बात
से तय होता है कि तम
ु पर बैठ कौन रहा है ?

अर्थात तम
ु बलवान तभी होती हो, जब तम ु पर बैठने वाला बलवान होता है । अन्यथा तम ु में और किसी
कबाड़खाने में पड़ी कुर्सी में कोई अंतर नहीं है । तम
ु हम से हो, ना की हम तम ु से। पर दर्भा
ु ग्य से तम् ु हारी इस
कुटिलता को कोई पहचान नहीं पाता और तम ु अपने इस तथाकथित बाहु ब ल पर फू लकर कु प्पा बनी रहती हो।

खैर इन वर्षों में मैंने आरोपों, भर्त्सनाओं, निराशाओं और दबाव के अन्यत्र शायद ही कुछ कमाया, ऐसा मझ
ु े एक
पहर पहले तक लग रहा था। वहीं जहाँ तक बात है धन की कमाई की, तो उसके विषय में मेरी कही कोई बात
किसी के गले के नीचे सहज ही उतरे । इसलिए जो भी सबसे पहला विचार जिसके मन में आए, वह उसी को
सत्य मान ले।

मझ ु े पता नहीं लगा की समय कब मेरी इस कमाई से अनभ ु व और ज्ञान नाम की प्रोविडेंट फंड और ग्रेचई
ु टी
अलग निकालकर रखता गया। ज्ञान तम् ु हारे चरित्र का और अन भ
ु व त म्
ु हारे मायावी स्वभाव का। और यहीं दोनों
वस्तए ु ँ हीं अब मेरी सकल संपत्ती हैं। चँकि
ू यह ऐसी सम्पत्तियाँ हैं जिन्हें तिजोरी में रख संभवत: कुछ ना ही
प्राप्त हो, ऐसे में इन्हें आगे बढ़ा दे ने में ही समझदारी है । हालाँकि मझ ु े इस बात पर परू ा संदेह है कि यह संपत्ती
जिसके हिस्से आएगी, वह इसे कभी खर्च भी करे गा। क्योंकि इसे खर्चने में अच्छे - अच्छों के सिर का पसीना,
पैरों में आ जाता है ।

पर यह सब सोचने का कार्य मेरा नहीं, मेरे बाद आने वाले महानभ ु ाव का होगा। मेरे बाद वाले महोदय आएँगे तो
यहीं सोचकर कि वह मझ ु से अलग हैं और कुछ ही समय में वह अलग हो भी जाएंगे, पर यथार्थ से। और हाँ,
उनसे भी जो उन्हें यहाँ तक पहुंचाएंगे। तम्
ु हारा स्पर्श होते ही उन्हें अपने कंधों पर बिठाकर, यहाँ तक लाने वाले
लोग ही यमराज प्रतीत होने लगें गे।

वह यहाँ आएँगे तो कुछ बदलने के उद्दे श्य से, जिसमें वह सफल भी होंगे। बस अंतर इतना होगा कि बदलाव
यहाँ की चीजों के बजाय खद
ु उनमें आ जाएगा। थोड़ा समय बीतने पर वह तम् ु हें तो समझ जाएँगे, पर तम्
ु हारे
चरित्र को संभवत: कभी नहीं समझ पाएँगे। समय के साथ तम ु उन्हें ऐसे समझौते करने पर विवश कर दोगी,
जिससे वह पहले तो अपनी जय-जयकार करने वालों की नज़र में गिरें गे और फिर अंत में अपनी खद ु की नज़र
से उतर जाएँगे। यहाँ उन्हें शभ
ु चिंतक तो अनगिनत मिलेंगे, परं तु वास्तव में उनकी चिंता करने वाला कोई
शभु ेच्छु शायद ही मिलेगा।

एक बार को अगर वह स्वयं यह सब समझ भी गए, पर अन्य लोगों को यह सब कैसे समझाएंगे कि

सत्ता चाहें ,

लोक की हो या परलोक की,


परू ब की हो या पश्चिम की,
वाम की हो या दक्षिण की,
राजतांत्रिक हो या लोकतांत्रिक,

उसका चरित्र सदै व एक जैसा ही होता है ,


और सत्ता के सिंहासन का चरित्र, मात्र चार शब्दों से ही परिभाषित होता है - साम, दाम, दं ड और भेद।

अर्थात सत्ता में चाहें जो आए, जैसे आए, जब आए,


उसके शासन चलाने की पद्धति और दृष्टिकोण
भत
ू में भी यहीं थी, वर्तमान में भी यहीं है और भविष्य में भी यहीं होगी। अगर किसी चीज़ में परिवर्तन आएगा
तो वह सिर्फ साधन में ।

व्यक्ति चाहें विशेष रहा हो या साधारण, उसकी नियति अनंतकाल से ही एक प्यादे मात्र की रही है । भले ही कोई
खद ु को चाहें परम शक्तिशाली ऊँट, घोड़ा, हाथी, वज़ीर या राजा समझता रहा हो। यहाँ हर राजगद्दी पर
विराजमान काया के ऊपर भी एक बड़ी काया की छाया है ।

इस बड़ी काया/छाया को आप 'बड़ा राजा' भी कह सकते हैं। हर बड़े राजा के समक्ष, हर 'छोटे राजा' का सामर्थ्य
प्यादे भर का होता है । और इस स्थिति में आगे कोई परिवर्तन आएगा, इसपर मझ
ु े भरपरू संदेह है ।

इसलिए सत्ताएं चाहें कितनी भी या कितनी ही बदल जाएं, उसका चरित्र कभी नहीं बदलेगा। और इस चरित्र के
साथ किसी बड़े परिवर्तन की आशा रखने वाला व्यक्ति या तो अबोध होगा या मर्ख
ू ।

उन्हें तम्
ु हारी गोद में बैठकर बचपन में पढ़े उस 'यथा राजा, तथा प्रजा' वाले मह
ु ावरे की प्रासंगिकता भी
भली-भांति समझ आ जाएगी, किंतु कह कुछ नहीं पाएँगे। क्योंकि खद ु को बरु ा कहना भला किसे सह ु ाता है ?

इस समय उन्हें लग रहा होगा की तम ु से उन्हें ढे र सारा धन, बल और सम्मान प्राप्त होगा। पर समय आने पर
उन्हें यह बताने के लिए के लिए मैं नहीं होऊंगा कि तम ु जितना दे ती हो, उससे अधिक छीन भी लेती हो।
क्योंकि आत्म-सम्मान, प्रेम, सख
ु , शान्ति और सं बधं ों की बली चढ़ाकर मिलने वाला धन-बल, सदा ही घाटे का
सौदा होता है । ऐसा घाटा जिसका भार बांटने के लिए उनके साथ कोई नहीं होगा और जिसके बोझ को उन्हें
स्वयं ही ढोना पड़ेगा।

पर इन सब चीजों में , एक रोचक चीज़ और भी होगी। वह यह कि इन सभी चीजों का अपराधी वह खद ु को


जीवन पर्यंत मानते रहें गे। और हर बार की तरह तम ु निश्कलंक और पवित्र बनकर निकल जाओगी।
पर उन्हें विदा करते-करते, तमु उन्हें एक अंतर निःसंदेह समझा दोगी। वह अंतर होगा भय और सम्मान का,
जो इतना महीन है कि उसे तब तक नहीं समझा जा सकता, जब तक तम ु से दरू ना हटा जाए।

खैर, मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि भला मैं यह सब लिख क्यों रहा हूँ? क्योंकि तम
ु तो सन
ु नहीं सकती
और जो सन ु सकते हैं, वह यह सब सनु ना नहीं चाहें गे।"
यह लिखकर थमते ही अभिनव बाबू फिर से परू ी लिखावट पर तिरछी लकीरें फेरकर सबकुछ काट दे ते हैं।
तत्पश्चात उस पन्ने को फाड़कर एक गोला बनाते हैं और उसे कूड़ेदान को अर्पित कर दे ते हैं। फिर बारी-बारी से
घड़ी और इण्टरकॉम की ओर दे खते हुए खद
ु से कहते हैं-

'इंशा'-जी उठो अब कूच करो इस शहर में जी को लगाना क्या


वहशी को सक ु ँू से क्या मतलब जोगी का नगर में ठिकाना क्या।

सोनपापड़ी यग
ु े-यग
ु े (भाग- 1)

दे श, काल और परिस्थितियां, तीनों का ढांचा बदल चक ु ा था। राजा विक्रमादित्य और उनके शासन को बीते भी
काफी समय निकल चक ु ा था। ऐसे में बेताल भी मन मसोस कर 'मरता क्या ना करता' वाले मह ु ावरे को ही
अंतिम सत्य मानकर आगे बढ़ गए। अब वह भी विभिन्न तकनीकी अस्त्र-शस्त्र से लैस हो चक ु े थे। फेसबकु ,
ट्विटर इंस्टाग्राम, वॉट्सएप्प से लगाए स्नैपचैट तक पर सक्रिय हो चक ु े थे।

अब राजा विक्रमादित्य के बाद उन्हेंं खोज थी अपने नए विक्रम की। फिर इसी क्रम में उन्हेंं एक दिन मिले
विक्रमचंद्र शक्
ु ल उर्फ विक्की शक्
ु ला, इंस्टाग्राम के किसी मीम पेज के कमें ट भाग में । बेताल ने उनके कमें ट का
रिप्लाई कर दिया और दर्भा ु ग्य या सौभाग्य से रिप्लाई शक्ु ला जी को जंच गया।

दे खते ही दे खते दोनों ने एक दस


ू रे को फॉलो कर लिया और थोड़े समय में ही दोनों एक दस ू रे को मीम शेयर
करने लगे। फिर मीम का आदान-प्रदान चैटिग ं से होते हुए कब प्रगाढ़ मैत्री में बदल गया, दोनों को पता ही नहीं
चला। चकि ंू शक्ु ला जी भी एक ओपन माइक पोएट थे इसलिए जब भी कुछ लिखते, विवेचना के लिए बेताल को
सरका दे त।े और बेताल भी ऊपर की मात्र 2-3 लाईनें पढ़कर, विक्की बाबू की प्रशंसा के पल ु बांध दे ता। इस
प्रकार दोनों के हितों की सिद्धि हों रही थी।

फिर एक दिन बेताल ने एक लिंक भेजा इनबॉक्स में । उसपर क्लिक करते ही शक्
ु ला जी के फ़ोन का सारा
माल-मलिदा बेताल के पास पहुंच गया। वह सब भी, जिसके सार्वजनिक होने पर शक्
ु ला जी की सामहि
ू क कंबल
कुटाई निश्चित थी।

ऐसे में 'मरता क्या ना करता' को विक्की शक्


ु ला भी अटल सत्य मानकर बेताल संग हो लिए। दोनों में रोज़ घंटों
राजनैतिक से लगाए साहित्यिक विषयों पर घनघोर विमर्श होता। अभी सब कुछ ठीक चल ही रहा था कि तभी
लॉकडाउन हो गया। पर दोनों का विमर्श भी चलता रहा। अंतर मात्र इतना ही था कि पहले जो विमर्श
आमने-सामने बैठकर होता था, अब वह ऑनलाइन हुआ।

लॉकडाउन में ढील होने पर मिलने की योजना मिलती तभी शक् ु ला जी कोरोना से संक्रमित हो गए। फिर सब
ठीक होते-होते दिवाली आ गई। अब दोनों लगभग 7 माह बाद मिल रहे थे। ऐसे में दोनों का व्याकुल होना
स्वाभाविक था। बेताल से मिलने के लिए विक्रम उर्फ विक्की अंततोगत्वा पहुंचे। उन्हेंं दे खते ही बिना कुछ बोले
बेताल उनकी पीठ पर कूद गया।

बेताल ने अभी कूदकर विक्रम की पीठ पर अपने पैर जमाए ही थे की विक्रम ने सेनिटाइजऱ की बोतल उसके
नाक के ठीक आगे लाकर टिका दी। सेनिटाइजऱ की बोतल दे ख अनरु ाग से भरा बेताल ताव खा गया। भौहें
सिकोड़ते हुए बोला- अब तम
ु भी?

विक्रम- हम भी मतलब? हाथ पर सेनिटाइजऱ मलने के लिए ही तो कहें हैं? तम


ु तो ऐसे बऊरा रहे हो जैसे पता
नहीं क्या कह दिए हों!

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