Vishnu Krut Shri Ram Stuti - Skandpuran

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श्रीसीताराम चरणौ शरणं प्रपद्ये

स्कन्दमहापु राण अन्तर्गत श्री राम र्ीता

विष्णु उिाच:-
नमो राघिाय विभिे तुभ्यं विश्वै कसाविने।
नमो विश्वेकदे हाय नमो विश्वावतर्ाय च।।1।।
हे राम! आप सर्वव्यापक और वर्श्व के एकमात्र साक्षी हैं । ऐसे
आप को नमस्कार है । वर्श्व एकमात्र भी आपका शरीर है तथा
आप ही वर्श्व के उपर है ।

नमो वनत्याय शु द्धाय प्रभिे कालमुतगये।


दशवदग्बाहिे नमो नमः भुचरणाय च।।2।।
वनत्य, शुद्ध, सर्वसमथव तथा कालस्वरूप को नमस्कार है ।दशो
वदशाओं विनकी भु िाएं हैं तथा पृथ्वी विनका चरण है उन प्रभु
श्री राम को नमस्कार है ।

नमोऽम्भोरे तसे शश्वत्तेजानेत्राय ते नमः।


िायुचेष्टाय महते व्योमदे हाय ते नमः।।3।।
िल विनका र्ीर्व है , सनातन ते ि विनका नेत्र है , र्ार्ु विनका
चेष्टा है तथा आकाश विनका शरीर उन महापुरुष को पुनः
पुनः नमस्कार है ।

अहं ते हृदयं राम त्वं नावभ वपतामहः।


कंठस्ते नीलकण्ठऽसौ भ्रुमध्यं च वदिेश्वरः।।4।।
मैं आपका हृदर् हं , ब्रह्मा आपके नावभ है , वशर् आपके कण्ठ
तथा सुर्व आपके भौहोका मध्यभाग है , हे राम ! आपको
नमस्कार है ।

सदावशिो ललाटस्ते तत् उर्ध्वे परः वशिः।


भुषणावन च तत्वावन विश्वाकारस्य ते प्रभो।।5।।
हे राम! सदावशर् आपका ललाट है , उसके उपर का भाग
परावशर् है । सारे तत्व आप वर्श्वरुपम के आभु षण हैं ।

भुरावदसप्तलोकश्च नृत्यतो संर्भुमयः।


सप्त पातालर्त्ताश्च पार्ष्ष्णग िाताः वह ते।।6।।
हे राम! आपके नृत्य करते समर् र्े पृथ्वी आवद सप्त लोक
आपकी रं गभु वम बन िाती है और सप्त पाताल आपके पादतल
के र्ार्ु के रुप में स्थथत हो िाते हैं ।

अनन्तो शक्तयो प्रदृश्यन्ते त्वं प्रभो।


बहं श्चाष्टपुिोश्च पश्यावम अद्य वपतामहान्।।7।।
प्रभो! आपकी अनंत शस्िर्ां दृवष्टगोचर हो रही हैं ।मैं आि
आपके श्रीवर्ग्रह में पुर्व में न दे खें हुए बहुत से वपतामह को
दे ख रहा हं ।

विष्णुनसंख्यान् पश्यावम त्ववय रुद्राननेकेशः।


बहरुपान् बहभुजान् बहिणागन महोदयान्।।8।।
असंख्य वर्ष्णुओं को तथा अनेकों रुद्ों को दे ख रहा हं विनके
वर्वभन्न रूप हैं , िो बहुत सी भु िाएं र्ाले हैं तथा विनके
शरीर के रं ग वर्वभन्न प्रकार है और िो महा अभु दर्शाली है ।
ितगमानानतीताश्च सुरावनह भविष्यतः।
नाहमन्तं प्रपश्यावम विभुतीनां त्वं प्रभो।।9।।
िो अतीत के गतव में वर्लीन हो चुका है , िो र्तवमान में स्थथत
है , िो भवर्ष्य में होनेर्ाला है , ऐसे बहुत से दे र्ता आपके शरीर
में दृवष्ट गोचर हो रहे हैं ।

दे िदानिर्न्धिग यिरािसवकन्नराः।
विद्याधरश्च ऋषयश्च वसद्धाश्च सहचारणैः।।10।।
आपके रोम रोम में दे र्, दानर्, गन्धर्व, र्क्ष, राक्षस,
वकन्नर, वर्द्याधर, ऋवष मुवन, चरणों सवहत वसद्ध है ।

नराः वपतरश्चैि पशिश्च सुरीसुपाः।


त्वदे कारोमुकुपे तु लीयन्ते स्थािरै ः सह।।11।।
मनुष्य, वपतृ गण, पशुओं तथा नाग- र्े सब के सब थथार्र
सवहत वर्लीन हो रहे हैं ।
सेयं माया र्ुणमयी प्रपंञ्चोऽयं यदात्मकः।
तिेच्छात समुत्पन्ना मया विश्वं विमोह्यते।।12।।
र्े वर्श्व प्रपंच विससे उत्पन्न हुआ है ,िो वर्श्व पर वर्मोह
डालनेर्ाला है , र्ह वत्रगु ण मर्ी मार्ा आपके इच्छा आपके
इच्छा से उत्पन्न होता है ।

तिांशिोऽमी वचद्भानोः िेत्रज्ञास्त्वस्मदादयः।


वभन्ना इि प्रदृश्यन्ते मात्रा परमाथगतः।।13।।
र्द्यवप परमाथव तः िीर्ात्मारुप हमलोग आप वचद्भानु के ही अंश
है , तथावप आपके मार्ा के कारण हम सब आप से वभन्न
वदखाई पड़ रहे हैं ।

मन अहाः सनिन्नाः वसद्धाश्च ऋषयस्तथा।


येन व्यापतं सकलं च तत्ते नावभगविभो नमः।।14।।
हे वर्भो! नक्षत्र समेत ग्रह, वसद्ध, ऋवषगण िहां वर्चरण
करते हैं और विसने सारे िगत को व्याप्त कर रखा है , र्ो
आकाश आपकी नावभ है ।
त्वामाहरानन्दमखण्डमेकं वनरस्तमायोपवधमाप्तिाच।
यर्ष्स्मन् सपिो न च िा विपिो न चार्ध्वष्टकं न मंत्रलयं
च।।15।।
विनकी प्राणी प्रमाणस्वरुप मानी िाती है , ऐसे महापुरुष आपको
आनन्द स्वरूप, अखण्ड, अवितीर् तथा समस्त मार्ोपावधर्ों से
रवहत बतलाते हैं , विसमें न पक्षपात है , न र्ैरभार्, न
अधष्टक, न मंत्रालर्।

षडु मगयो िा न च नामरुपे न कारणं त्वं न च कायगतावप।


नान्तो न चावदग न च मध्यमीष दालम्बनं नैि च
शुन्यभाि।।16।।
न षडु वमवर्ा है , न नामरुप है , न कारणत्व है , न कार्वकता है ,
न अन्त है , न आवद है , न मध्य है , न थोड़ा ही आलम्बन है , न
शुन्यभार् है ।
यतोऽवतदु रे वनिसर्ष्न्त िाचो मानान्येकावन हृदा सहै ि।
यनैि विश्वं मस्सा स्वभासा पुणे सूसुक्ष्मेण वनरन्तरे ण।।17।।
मनसवहत र्ाणी तथा अनेकों प्रमाणों विससे बहुत दु र रहते हैं
वनकटता नहीं पहुं च पाते, विसने अपने परम सुक्ष्म महनीर्
प्रकाश से वर्श्व को पररपुणव कर रखा है ।

यस्यांश भुताश्च ियं तथान्ये सुराः समस्ताः वपतरश्च सिे।


वकं या बहक्तेन जर्त् समस्तं विभोविगभुवत परमो
रररं सो।।18।।
हमलोग (वत्रदे र्) तथा समस्त दे र्ता और समस्त वपतृ गण
विसके अंश भु त है , इससे अवधक कहने से क्या लाभ, र्ह
सारा िगत् रमण की इच्छार्ाले विस सर्वव्यापक की परम
वर्भु वत है ।

परात्परयाहतविश्वभुम्ने तस्मै स्वधामने वह नमो वितन्मः।


यज्ञानेशषान् जुहमश्च यस्मै स्वधां विदध्मः प्रवपतामहाय।।19।।
िो वर्श्वभु मा को समेट लेना र्ाला तथा स्वधाम स्वरुप है उस
परात्पर को हमलोग नमस्कार करते हैं । विनके वलए सब र्ज्ों
मे संपुणव आहुवत दी िाती है , उन प्रवपतामह के वलए स्वधा का
वर्धान वकर्ा िाता है ।

त्रयी समस्ता च िषट् कृवत सा स्वाहा जर्विश्वेमुझे च यस्मै।


उद्गीथ एिायमलं यदाप्त्यै िेदावदबीजं विवजतावनलानाम्।।20।।
विन वर्श्वभोिा के वलए समस्त र्ेदत्रर्ी , र्षटकार तथा स्वाहा
का प्रर्ोग होता है , प्रणार्ाम परार्ण पुरूषों को र्ेदावद
बीिस्वरुप उद्गीथ विनके प्रास्प्त के वलए पर्ाव प्त है ।

वनत्याय वनत्यप्रभिे प्रभुणां सदािधुतार्ष्खलविवियाय।


द्रुह्यन्त्यविधोपहताश्च यस्मै मत्यागवदभािं पररकल्प्य
मढाः।।21।।
िो अवर्नाशी तथा सामर्थ्वशावलर्ों के भी सनातन प्रभु हैं , विनके
बारे वर्कार नष्ट हो चुके हैं , अज्ान से आच्छवदत बुस्द्ध र्ाले मुड़
लोग मनुष्य भार् से द्ोह करते हैं ।

दे िाश्च वसद्धा ऋषयश्च सिे िेदान्ततत्वाथगविदो यतीन्द्रः।


भक्त्यैि राम स्पृहयर्ष्न्त यस्मै त्वमेि तद्ब्रह्म
यद्द्वितीयम्।।22।।
सारे दे र्ता, वसद्धा, ऋवष तथा र्ेदान्त तत्वाथव के ज्ाता र्तीन्द्र
भस्ि िारा विनकी स्पृहा करते हैं , िो अवितीर् ब्रह्म है , राम!
र्े आप ही है ।

यदै कात्मानमनेकधैि विभृज्य विश्वं व्यतनोरमुतगये।


तदे ि भानोररि रश्मयोऽमी त्वत्तो मनो राम विवनस्सृता
वह।।23।।
गु णमर्ी मुतीरवहत राम! विस समर् आप अपने एक रुपों को
अनेक रुपों में वर्भि करके वर्श्व का वर्स्तार करते हैं , तब
सुर्व के वकरणें ऐसे प्रसाररत होती हैं , तब हम लोग (वत्रदे र्,)
प्रादु भुवत होते हैं ।

राम वियाशर्ष्क्त ररयं वह पंचप्राणान् समाविश्य क्ोंवक


विश्वभर।
वचच्छार्ष्क्तरे षां त्वं पंचधैि भुंक्ते जर्ज्जावप्रख पंचििा।।24।।
हे श्री राम! र्े विर्ा शस्ि पां चों प्राणों में प्रर्ेश करके वर्श्व
का सृिन करती है । पुनः पंचमु खो वचत्त शस्ि पां च प्रकार से
संपुणव िगत का उपभोग करती है ।

इच्छोभयत्रानुर्ता दशास्या सृजत्यित्यवत्त च शर्ष्क्तराद्या।


अनन्तशक्तेररह विश्वमुते र्ष्स्तस्त्रो दृशः शर्ष्क्तमतस्तिैि।।25।।
िो इच्छारुप से इस लोक और परलोक में व्याप्त है , दसों
इस्न्दर्ों विसके मुलभु त है , र्ह आद्याशस्ि वह वर्श्व का
सृिन, पालन तथा संहार करती है । आपकी शस्ि का कोई
अन्त नहीं है , वर्श्व आपका ही स्वरुप है , आप परम
शस्िसंपन्न है अतः (सृिन, पालन तथा संहार स्वरुप) र्े
तीनों शस्िर्ों आपकी ही दृवष्टर्ों है ।
यावभमगहेश्वर वसतावसतलोवहतावभः स्वावभः
कलावभरचलप्रभुरात्मतृप्तः।
स त्वं प्रपंचयवस विश्वतया विहत्तुग त्वामेकेमेि
विभुमव्ययमवितीयम्।।26।।
हे महे श्वर ! आप अटल सामथव र्शाली तथा आत्मतृप्त है ।िब
आपकी वर्हार करने की इच्छा होती है तब आप की श्वेत,
कृष्ण और लाल रं ग की कलाएं हैं उनके िारा आप सृवष्ट का
वर्स्तार करते हैं । आप एक अवर्नाशी , सर्व व्यापक और
अवितीर् है ।

ताभ्यर्ष्स्तसुभ्य उवदता ननु तािकीभ्यो र्ौरीन्दरवर्र


इहश्वेरशक्तयोऽवप।
तत्षोडशांर्विभिावन रसर्ष्न्त वनत्यं रुद्रे षु विष्णु षु विधातृषु
विश्वभुत्यै।।27।।
हम वत्रदे र् लोग आपकी शरण में है । आपकी उन्ीं तीन
कलाओं से गौरी, लक्ष्मी तथा सरस्वती र्े तीनों ईश्वरशस्िर्ां
भी प्रकट होती है ।उनकी सोलह कलाएं वर्श्व के कल्याण हे तु
सदा रुद्ों, वर्ष्णुओं तथा ब्रह्माओं के साथ वनर्ास करती हैं ।

पुज्योऽहमन्धकररपुश्च तथा विरं वच स्त्वद्भािभाविततयैि जर्त्सु


वनत्यम्।
एतेऽवप केचन जयर्ष्न्त वनरस्तकामा स्त्वद्भर्ष्क्तमानसौ
भुिनेऽिधुता।।27।।
आपकी भार्ना से भावर्त होने के कारण िगत में हमारी वनत्य
अधकासुर के शत्रु तथा ब्रह्मा की पुिा होती है ।साथ ही कुछ
अर्धुत भी है विनकी सारी कामनाएं नष्ट हो चु की हैं और
आपकी भस्ि के िारा विनके मन की कवलर्ां धुल गई है ।

कवप स्वदे हावदषु वनस्पृहाणाम् आकाशलीनावनलचेवष्टतानाम्।


त्वमेि कल्याणकृतां मुनीनाम् आलम्बनम्
र्ध्वस्तभिाटिीनाम्।।28।।
अपने शरीर आवद में भी विनकी स्पृहा नहीं रह गई है ,
आकाश में व्याप्त रहनेर्ाली र्ार्ु िारा विनकी चेष्टा करती
है ,विनका भर्रुपा कानन ध्वस्त हो चुका है ऐसे कल्याणकारी
मुवनर्ों के सहारा आप ही हैं ।
वकं तन्महे श्वर विभोर बहधा विमृश्य तत्रावस यत्सपवद
िायसदे ि िस्तु ।
ज्ञातुं तथायपररमेय न शक्से तैयेषामनुग्रहदृशा पुनावस
चेतः।।29
पररमाण रवहत सर्वव्यापक महे श्वर! र्द्यवप आप सत् तथा असत्
र्स्तुओं में वर्रािमान हैं ।तथावप विनका वचत्त आपकी कृपादृवष्ट
से पार्न हो चु का है र्े लोग बहुत तरह से वर्चार करने पर
आपको समझने में असमथव हैं ।

क्क चायं मानुषो भािो क्क चायमवतलौवककः।


त्वनमायामोवहतानां नस्त्वमेि शरणं भि।।30
एक और कहां तो मानुष्य भार् और दु सरी ओर कहां र्े लोक
से परे ईश्वर भार् ! इसे दे खकर हम वत्रदे र् भी आपके मार्ा
से मोवहत हो रहे हैं ! अतः आप ही हमारे आश्रर् हो।
कोऽवस ब्रुवह महे शान् वकं तिाद्य हमीवहतम्।
अत्यद् भुतं ते िै श्वात्मयं सुह्यामो यवन्नरीिणात्।।31।।
महे शान् , बतलाइए आप कौन हैं तथा आि आप क्या करना
चाहते हैं ? आपका र्ह वर्श्वरूप तो बड़ा अद् भु त है विनको
दे खकर हम वत्रदे र्ों को मोह हो रहा है ।

त्वमेि िेत्थ त्वां सम्यर् योऽवस सोऽवस महे श्वर।


द्योत्सेि नैि मौशस्त्वं खद्योतैद्गयुमवणयगथा।।32।।
हे महे श्वर! आप स्वर्ं ही अपने को सम्यक प्रकार से िानते
हैं । आप िो हो, सो हों । आपको प्रमाणों िारा प्रकाश मे
नही लार्ा िा सकता िैसे िुगनुओं िारा सुर्व।

अन्तोऽर्ष्स्त परमानुणां मरूत् तेजोऽम्बु भुवमषु।


नान्तोऽर्ष्स्त त्ववय लीलानाम् ब्रह्माण्डानामखर्ष्ण्डते।।33।।
र्ार्ु, िल, अंवि और पृथ्वी में स्थथत परमाणुओं का अंत तो
वमल सकता है परन्तु अखंडस्वरुप आप में स्थथत ब्रह्माण्डो न
का अन्त नहीं।
लक्ष्मन्ते येन बहिो ब्रह्माण्डोऽवतपराक्मः।
विलिणा वमथश्चैते स्वरुप आयुध िाहनैः।।34।।
आप से उद् भु त बहुत से ब्रह्मा वदख पड़ रहे हैं विनकू परािम
की सीमा नहीं है िो स्वरुप, आर्ुध , र्ाहनों के भे द परस्पर
एक दु सरे से वर्लक्षण है ।

कवश्चत् चतुमुगखा कवश्चत् षणमखाः।


दशििा शतास्यश्च सहसत्रिदना अवप।।35।।
बहििा बहभुजा बहरुपास्तथापरे ।
विवचत्रसृवष्टकुशला विवचत्र आयुधिाहनाः।।36।।
विवचत्रशक्तयो भक्तया त्वां नमर्ष्न्त महे श्वरं ।
स्तुिर्ष्न्त बहवभः स्तोषत्ररे क ध्यायर्ष्न्त वनश्चलाः।।37।।
उनमें से कुछ चार मुख र्ाले, कुछ छह मुख र्ाले , दश
मुखर्ाले, तो कुछ सौ मुख र्ाले तो कोई सहस्त्र मुखर्ाले भी
है । कोई बहुत सारे मुख र्ाले तो बहुत सारे भु िा र्ाले और
आकार भी अनेक हैं । र्े सब सृवष्ट रचने में कुशल है तथा
उनकी शस्ि भी वर्वचत्र है । र्े सब वमलकर आप महे श्वर
भगर्ान श्री रामचन्द्र िी का स्तुती करते हैं । कुछ अनेको
स्तोत्रों िारा आपका स्तर्न करते हैं तो कुछ वनश्चल होकर
आपका ध्यान करते हैं ।

त्वतप्राप्तयुपायमन्योन्यं बोधयर्ष्न्त विमत्सराः।


प्रपन्ना सिगभािेन् त्वमेि शरणं परम्।।38।।
र्े मत्सरहीन होकर एक दु सरे को आपकी प्राप्ती का उपार्
बतला रहे हैं । र्े सर्वभार् से परमाश्रर् रुप आपके ही
शरणागत हैं ।

एिं बहविधाकार िाहनायुधविग्रहाः।


विवचत्रशक्तयोऽश्रनन्ता हरयश्च कपागवदनः।।39।।
त्वतप्रभांशाशविभिास्त्वां सदा पयुगपासते।
अनुग्रहीष्व भक्तान्नः प्रसादाद् विश्वतोमुखः।।
इसी प्रकार वर्लक्षण शस्ि संपन्न असंख्य वर्ष्णु तथा असंख्य
वशर् भी वदख रहे हैं ।उनके भी र्ाहन, आर्ुध और वर्ग्रह वभन्न
है । र्े सब आप भगर्ान के प्रभार् के अंश के अंश उद् भु त
हए हैं और सदा आपकी उपासना करते हैं । इसवलए
वर्श्वतोमुख! कृपापुर्वक हम भिों पर अनुग्रह कीविए।

---इवत स्कन्दमहापुराण विष्णु कृत श्रीराम स्तु वत


संपुणगम्---

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