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विकास या विनाश
विकास या विनाश
विकास या विनाश
नौकरी करते करते
बच्चे डिलिवर करती है माँ
जस ै े एक प्रोजेक्ट डिलिवर होता है
वस ै े ही बच्चे भी डिलिवर करती है
माँ
उसकी भी एक ड्यू डेट होती है
इसकी भी एक ड्यू डेट होती है
सारा जिम्मा होता है अस्पताल पर
सारी रस्में रख दी
जाती हैं ताक पर
जिस दिन घर आता है नवजात शिश
ुन होता है जश्न, न बजता है ढोल,
न चढ़ता है प्रसाद, न बंटती
है मिठाई
न होता है स्वागत, न घर आता है कोई दे ने बधाई
न होती है पज ू ा, न खश ु ी की लहर
बस चिंता रहती है -
चलेगा कैसे घर?
कहीं ज्यादा, तो कहीं कम,
छुट्टी मिलती है नपी-नपाई
तरु ं त लौट जाते हैं काम पर
ताकि कटे एक भी न पाई
कभी घंटों में , तो कभी हफ़्तों में
ज़िद ं गी बिताते हैं हिस्सों में
8 घंटे बिस्तर, 8 घंटे
दफ़्तर
बाकी भागदौड़ में इधर-उधर
ज़िद ं गी हो गई जैसे कोई सोप सीरियल
सब कुछ है वर्चुअल, नहीं कुछ भी
रीयल
डिस्कवरी चैनल के जरिए
जस ै े होती है बच्चों की हाथी से भें ट
वस
ै े ही स्मार्टफ़ोन की बदौलत
होती है बच्चों की
दादा-दादी से भें ट
बैटरी झल ू ा झल ु ाती है
स्मार्टफ़ोन सन ु ाता है लोरियाँ
माँ-बाप भटकते हैं सड़कों पर
और टीवी सन ु ाता है कहानियाँ
जब कभी बचपन याद
आएगा
तो बच्चे को क्या याद आएगा?
वो डबल-ए की बैटरी,
जिसने झल ू ा झल ु ाया उसे?
वो स्मार्टफ़ोन,
जिसने लोरी सन ु ा सल
ु ाया उसे?
या वो टीवी पर सन ु ी हुई
एल्मो या बॉर्नि की नसीहतें ?
या वो वीडियो पर दे खी हुई
टॉम एण्ड जैरी की शरारतें ?
जहाँ नौकरी करते-करते
माँ डिलिवर करती हैं बच्चे
वहाँ ईमान-धरम,
मान-मर्यादा बचे भी तो कैसे बचे?
जहाँ दही जमाने के लिए भी नहीं
कल्चर मयस्सर
उस ज़माने में किसी को
संस्कृति की हो क्यों फ़िकर?
जिस समाज में हर एक ज़रुरत की सर्विस है
वह समाज, समाज नहीं महज एक दरविश
है
आज यहाँ है तो कल वहाँ
घर पर नहीं कोई रहता यहाँ
हज़ारों मील दरू रहते हैं अपने
एक दस ू रे से मिलने के पालते हैं
सपने
घर से भागे, दौलत के पीछे
भाषा त्यागी, संगत के डर से
कपड़े बदले, मौसम के डर से
आभष ू ण उतारे , चोरी के
डर से
ग्रथ ं छोड़े, कट्टरता के डर से
दीप बंद हुए, आग के डर से
शख ं -घंटियाँ बंद हुईं, पड़ोसी के डर से
भोजन पकाना
छोड़ा, बदबू के डर से
रस्में दफ़ा हुईं, सहूलियत के नाम पर
बचा ही क्या फिर संस्कृति के नाम पर?
जिन पर होना
चाहिए हमें नाज़ आज
उन सब पर क्यूँ हमें आती हैं लाज?
पहनते हैं कपड़े मगर किसी और के
खाते हैं खाना मगर
किसी और का
बोलते हैं भाषा मगर किसी और की
करते हैं काम मगर किसी और का
आखिर क्या है अपना जो है इस
दौर का?
जिन पर होना चाहिए हमें नाज़ आज
उन सब पर क्यूँ हमें आती हैं लाज?
क्या दे जाएँगे हम बच्चों को
धरोहर?
प्रदष ू ण की कालिख में नहाए महानगर?
या कम्प्यट ू र प्रोग्रामिंग की कुछ वो किताबें
जो चार साल में ही हो
जाए ऑब्सोलिट?
या फिर 6 शन् ू य का बैं
क बै
ल ें स
ज ो एक घर में ही हो जाए डिप्लीट?
न चोटी, न तिलक, न जनेउ है
न
सिंदरू , न बिछुए, न मंगलसत्र ू है
माँ-बाप, सास-ससरु के चरण स्पर्श
न करती है बहू, न करता पत्र ु है
गणेश की मर्ति
ू ,
नटराज की मर्ति ू
मात्र साज-सजावट की वस्तु है
बचा ही क्या फिर संस्कृति के नाम पर?
होटल जा कर खा लेना
छौला-समोसा?
कभी इडली-सांभर, तो कभी सांभर-डोसा?
कभी आलू पराठा तो कभी मटर-पनीर?
गाजर का हलवा
या चावल की खीर?
डायटिंग और डायबीटीज़ के बीच
ये भी एक दिन खो जाएँगे
सस् ं कृति के नाम पर हम बच्चों को
अंत में क्या दे जाएँगे?
भला हो बॉलीवड ु की फ़िल्मों का
कि होली-दीवाली के त्योहार हैं अब भी जीवित
भले ही हो
सिर्फ़ सलवार-कमीज़-साड़ी-कुर्ते
और फ़िल्मी गानों पर नाचने तक सीमित
एक समय हम समद् ृ ध थे,
संस्कृति की पहचान थे
आद्यात्म, दर्शन, कला
और नीति की हम खान थे
आयर्वे ु द और औषधविज्ञान थे
ब्रह्मास्त्र और पष्ु पक विमान थे
नालंदा विश्वविद्यालय
विश्वविख्यात था
दरू -दरू से ज्ञान पाने आते जहाँ विद्वान थे
नालंदा क्यूँ रह गया बस एक खंडहर?
विलीन क्यूँ हुए
इंद्रप्रस्थ जैसे नगर?
कब और कैसे क्या हो गया?
सारा ऐश्वर्य हवा क्यूँ हो गया?
जिस दे श-समाज ने विश्व को शन् ू य
दिया
वो किस तरह हर क्षेत्र में शन्
ू य हो गया?
असली कारण तो सही ज्ञात नहीं
पर शायद हुआ ये अकस्मात
नहीं
बची-खच ु ी संस्कृति भी
हमारे सामने ही
विलप्ु त हो रही आज है
शायद उस समय वो भी
इस सच्चाई से बेखबर थे
जिस तरह से बेखबर हम आज हैं
परिवर्तन है प्रकृति की प्रवत्ति
ृ
और संस्कृति भी अवश्य है बदलती
मगर क्या ये
आवश्यक है कि
शन् ू य ही हो इसकी नियति?
राहुल उपाध्याय । 22 फ़रवरी 2008 । सिएटल
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