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शक्ति-स्िुति

संसार बताओगे किसिो जीवन से पूवव मत्ृ यु िा भय होता है ?

किस जीव िो जीवन पा जाने पर भी मरना ही प्राप्य होता है ?

ननशिदिन रोने-गाने में , सबिी सेवा िरने में िट जाता है ?

क्षण भर शमलता नहीं श्वास लेने िो उस पर ननन्िा से सत्िार किया जाता है ?

बूझ न पाई सन्सनृ त क्या जजसिो हर रोज सताया जाता है ?

क्या सतयुग? क्या िशलयुग? उसिो जो पाती प्रनत युग में िख


ु !

हााँ, ववश्व यह वही मनुज जजसिा ननहारता ईश्वर भी मुख !

ऐसी िृनत िो स्वीिायव हो यह प्रणय िा प्रणाम-गान ।

झन-झन-झन-झन झनन झनन

नारी िी याि सिा क्यों मुजश्िल में ही आती है ?

तब हल िरने िो नारी ही बेची जाती है ,

इस बशल पर भी नारी ही ननंद्य बताई जाती है ,

सबिो िंबल-चािर िे िर, वह ही जाड़ों िी रात दििुरती है ,

हालाहल पीिर स्वयं नारी, ववश्व िो अमत


ृ पान िराती है ,,

श्वासों िो लेने िा भी नारी िजव चुिाती है ,

‘किस पाप िा िं ड िे रहे हो’ , यह प्रश्न भी पछ


ू न पाती है ,

हे ववश्व! क्यों िे ते हो िजक्त िो आमंत्रण?

झन-झन-झन-झन झनन झनन


मात-ृ पि िो पववत्र यद्यवप धरती िहती है ,

परं तु इस भार िे िख
ु िो नारी ही झेलती है ,

प्राप्त होने िो ये पि, िान में यौवन गल जाता है ,

स्वणव-मख
ु िी आभा महीनो में शमट जाती है ,

िहााँ वास होता तब सख


ु िा नारी िे जीवन में ,

हर ननश्वास तब िे ती मत्ृ यु िो आमंत्रण,

झन-झन-झन-झन झनन झनन

हर नर िे ता नारी िो अरुणाचल िे स्वप्न,

वह सरला सहज िान िर िे ती मधरु -हृिय िो,

बिले में प्राप्त हो जाते हैं िुछ जस्नग्ध चुंबन औ’ आशलंगन,

बािी जीवन सहज ही िान हो जाता मत्ृ यु िो,

दिन किर जाते हैं शमलता वह नर नहीं स्वप्न दिखानेवाला

सन्सनृ त िे ती प्रेम िा िल
ु भ
व परु स्िार , िरू हो जाता नारी से घरबार ,

किर पेट पालने िो नारी िो अपनाना पड़ता वेश्याचार,

उन पावन हाथों िो िवू ित िरते वे मिमस्त व्यशभचारी पुरुि,

वह सुन्िर तन-मन इन मनुजों िे हाथों िुरूप ,

इस पर भी संसार िो नारी ही त्यज्य ,

संसार समझ रहा है नारी िो उसिा भय,

जग िााँपेगा सुन उस ववपथगा िे घुंघरू िी धुन ,

झन-झन-झन-झन झनन झनन

हे ववश्व! सिा क्यों नारी िे चररत पर िाग लगाया जाता है ?


क्यों नारी िो श्रद्धा िा श्रोत बताया जाता है ?

क्यों जनिसुता िो प्रमाण में रज में शमल जाना पड़ता है ?

क्यों िृष्णा िो चौसर में िााँव लगाया जाता है ?

क्या यही धमव सन्सनृ त िा कि नारी िो सम्पवि समझे?

इन प्रश्नो िा उिर पाने िो अिुलाती है हर नारी ,

न उिर हो तो ववश्व समझ लो है प्रलय िी तैयारी ,

जजन िर में िंिण िोशभत , वह खड्ग उिा सिते हैं

मि में झम
ू रही िनु नया िो, वे शमट्टी में शमला सिते हैं

क्यों िे ता किर जग नारी िे िंिण िो आमन्त्रण

झन-झन-झन-झन झनन झनन

अन्त हो रहा िववता िा, पर भावों िा अन्त नहीं है ,

ज्ञात हो रहे पाप-पुण्य, पर पापों िा अन्त नहीं है ,

परं तु वह िजक्त-स्वरुप नारी-सुरुप संभ्ांत नहीं है ,

शिशिर िी रातों िे पश्चात ् सिा बसंत नहीं है

वह िे वी , जग िी माता, उसिा मागव दिगंत नहीं है ,

जजस आाँचल में क्षीर िी धारा, वह पत्थर भी हो सिता है ,

हे ववश्व! मान िर नारी िा, अन्यथा तेरा अन्त िभी हो सिता है ,

जय नारी, जय िग
ु े, जय िजक्त-स्वरुप ,तम्
ु हारी िोभा में यह गान ,

झन-झन-झन-झन झनन झनन

:प्रणय

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