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श्रीमती नाथीबाई दामोदर ठाकरसी महिला विद्यापीठ मुंबई

एम. ए.(संगीत) भाग२

विषय- हिंदुस्तानी संगीत में गाये जाने वाले कर्नाटक संगीत के राग

विद्यार्थी- दिव्या शास्त्री

गाइड- डॉ.शीतल मोरे

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Declaration

I, declare that, the contents of the projects are original and have not been submitted in part or
full for any other degree or any other University/Institution.

Signature:

Name of the Student:

Date:

Certificate

I, hereby, certify that this Research Project is a bonafied record of the work done by –-------
during the year------ at the Department of Music, Pune, S.N.D.T. Women's University,
Mumbai.

It is submitted in fulfillment of the requirement for M.A. (Music)

Signature of the Guide:

Name & Designation of the Guide:

Date:

2
स्वीकृ ति

1. मैं अपने गाइड डॉ. शीतल मोरे मैम की आभारी हूँ उनके मार्गदर्शन के लिए, जिसके कारन मैं अपना यह संशोधन का कार्य पूरा कर पाई हूँ।
2. इस संशोधन के संदर्भ में मुझे जितनी सहायता और मार्गदर्शन मिला हैं मैं उसकी आभारी हूँ।
3. मैं अपने सारे प्रोफ़े सरों को धन्यवाद करती हूँ उनके सहयता के लिए।
4. “हिंदुस्तानी संगीत में गाये जाने वाले कर्नाटक संगीत के राग” इस संशोधन कार्य द्वारा मुझे भारतीय सांगीतिक परंपराओं के बारे में काफ़ी नई
जानकारी मिली हैं।
5. मैंने विश्वविद्यालय के सारे नियमों का पालन करते हुएँ इस संशोधन कार्य को पूरा किया हैं।
6. मैं अपने माता पिता की आभारी हूँ, क्योंकि उनके सहायता के बिना मैं यह परियोजना का कार्य पूरा नहीं कर पाती।

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अनुक्रमणिका

Declaration..........................................................................................................................................................२
Certificate...........................................................................................................................................................२
स्वीकृति................................................................................................................................................................३
प्रस्तावना............................................................................................................................................................६
प्रकरण १- हिं दुस्तानी सं गीत में गाये जाने वाले कर्नाटक रागों का सं क्षिप्त में अध्ययन..............................................७
१.१ इतिहास.......................................................................................................................................................७
१.२ सं गीत रत्नाकर का महत्व...........................................................................................................................११
१.३ रागों का आपसी सं बंध...............................................................................................................................१३
१.४ कर्नाटक सं गीत से हिं दुस्तानी सं गीत पद्धति से लिए गए राग.......................................................................१६
१.५ सं दर्भ........................................................................................................................................................१७
प्रकरण २ स्वर, ताल, मे ल और गीत प्रकार सं दर्भ में तु लनात्मक अध्ययन..............................................................१८
२.१ स्वर के सं दर्भ में .........................................................................................................................................१८
२. २ ताल के सं दर्भ में .......................................................................................................................................२०
२.३ मे ल के सं दर्भ में .........................................................................................................................................२२
२.४ गीत प्रकार के सं दर्भ में ............................................................................................................................२४
२. ५ सं दर्भ......................................................................................................................................................२७
प्रकरण ३- ओड़व जाति के कर्नाटक राग जो हिन्दुस्तानी सं गीत में गाए जाते हैं ।....................................................२८
३.१ रागों की जानकारी.........................................................................................................................................२९
३.२ प्रस्तु तिकरण में अं तर....................................................................................................................................३१
३.३ कुछ ज़रुरी तु लना कि चिज़े ...........................................................................................................................३३
३.४ समानताएँ ....................................................................................................................................................३५
३. ५ रागों पर आधारित कुछ बं दिश......................................................................................................................३६
३.६ सं दर्भ............................................................................................................................................................३७
प्रकरण ४-षाड़व जाती के राग जो दोनों पद्धतियों में गाए जाते हैं ।........................................................................३८
४.१ रागों की जानकारी.........................................................................................................................................३८
४.२ रागों का प्रस्तु तीकरण..................................................................................................................................४१
४.३ कर्नाटक सं गीत शै ली की विशे षताएं ...............................................................................................................४३
४.४ कुछ समस्याएँ और ऑल इं डिया रे डियो का योगदान......................................................................................४४
४.५ रागों पर आधारीत कुछ गीत.........................................................................................................................४५
४.६ सं दर्भ..........................................................................................................................................................४६
प्रकरण ५- सं पर्ण
ू जाति के राग जो दोनों पद्धतियों में गाए जाते हैं ।........................................................................४७
५.१ सं पर्ण
ू जाति के राग........................................................................................................................................४८
५.२ गायन और वादन में कुछ ज़रुरी फ़रक.............................................................................................................५०
५.३ राग और कुछ मु ख्य फ़रक..............................................................................................................................५१
५.४ सं दर्भ...........................................................................................................................................................५५
निष्कर्ष................................................................................................................................................................५६
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प्रस्तावना

हमारी सांगितीक परंपरा कितनी विशाल हैं। मुझे राग सिखने का शौक हैं, इसलिए मैंने यह विषय चुना हैं, ताकी मुझे नए राग, और उत्तर और
दक्षिण संगीत की पद्धतियों के बारे में और जानकारी मिले।
मैंने अलग पुस्तकों और सूत्रों से अपनी जानकारी हासिल की हैं। “हिंदुस्तानी संगीत में गाये जाने वाले कर्नाटक संगीत के राग” पर संशोधन
करने के बाद मुझे भारतीय संगीत के प्रति एक नया नज़रिया प्राप्त हुआ, और नई चिज़े सिखने को मिली।
मुझे यह पता चला कि इन दोनों पद्धतियों के बिच कितना फ़र्क हैं, प्रस्तुतिकरण, ताल, वाद्यों का उपयोग इत्यादी में। लेकिन काफ़ी चिज़े ऐसे भी
हैं जो एक समान हैं, और जो इन दो संगीत परंपराओं के बीच की दुरि को छोटा कर देती हैं।
राग के स्वर भले ही एक जैसे हो, पर उनके पेश करने का तरिका बिल्कु ल अलग किस्म का हैं। दोनों पद्धतियों के बिच जो दुरी हैं, वह धिरे धिरे
ज़रूर पुरी हो रही हैं, और लोगों को दोनो संगीत प्रकारों के प्रति एक समझ आ रही हैं। इसी समझ को लेकर संशोध करके मैंने अपना यह
परियोजना का कार्य किया हैं।

प्रकरण १- हिंदुस्तानी संगीत में गाये जाने वाले कर्नाटक रागों का संक्षिप्त में अध्ययन

१.१ इतिहास

हमारे भारतीय संगीत की परंपरा सालों पुरानी हैं। हिंदुस्तानी संगीत का प्रभाव भी कनार्टक पद्धित पर देखा जा सकता है। कई सालों तक दोनों
पध्दतियाँ की इतिहास समान रहीं हैं।
संवेदा को इस प्रभाव का साम्य स्त्रोत माना गया है दोनों संगीत पद्धितयां को जोड़ने में।
उत्तर हिंदुस्तान में काफी देशों के आक्रमणके कारण हमारी सालों पुरानी परपंरा पर बहुत प्रभाव पड़ा हैं। नए-नए और अलग स्टाइल हमारी
परंपराओं में दिखाई दे रही हैं।
नाट्यशास्त्र और संगीत रत्नाकार जैसे ग्रंथों में हमें भारत के शास्त्रीय संगीत की जड़ें मीलती है। १३ वीं शताब्दी के संस्कृ त ग्रंथ शारंगदेव द्वारा
रचित संगीत रचनाकार को हिंदुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत परंपराओं दोनों द्वारा निश्चित पाठ माना जाता हैं ।

7
प्राचीन भारत में संगीत की जड़ हिंदू धर्म के वैदिक साहित्य में हमें मिलता है। वेडिंग संस्कृ ति संगीत परंपरा भारत में व्यापक रूप से फै ली हुई थी।
रोवेल के अनुसार प्राचीन तमिल क्लासिक्स यह बहुत स्पष्ट रूप से दिखाते हैं कि एक सुसंस्कृ त संगीत परंपरा दक्षिण भारत में पिछले कु छ पूर्व
ईसाई शताब्दियों के रूप में मौजूद थीं।
काफी सारे प्रभावशाली ग्रंथ है जिनको शास्त्रीय संगीत परंपरा की नींव मानी जाती है। नाट्यशास्त्र, बृहद्देशी, संगीत रत्नाकर और दत्तिलम ।
१५ वीं शताब्दी तक हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत पद्धित अलग नहीं थे। लेकिन मुघल आक्रमण के बाद दोनों अलग संगीत पद्धित में
विकसित हुए- उत्तर और दक्षिण संगीत पध्दति।
कला का विकास सालों से हो रहा है और चलता जा रहा हैं ।

शास्त्रीय संगीत की यह गहराई जानने के लिए ऐसा विषय मैंने चुना हैं । यह बहुत ही ज़रूरी जानकारी है क्योंकि हम भारतीय संगीत की इतिहास
के बारे में जानकर अधिक महत्वपूर्ण बारीकियों को जान सकते हैं। भारतीय पारंपरिक संगीत पीढ़ियों से चला आ रहा हैं और एक परिवार से दूसरे
को सिखाया जाता है। वास्तव में, माना जाता है कि भारत में एक विशिष्ट ध्वनि और एक शुद्ध प्रामाणिक ध्वनि है जो महान संगीत का निर्माण
करने वाले अद्वितीय उपकरणों द्वारा कार्यान्वित की जाती है। आज भी हिन्दुस्तानी और कर्नाटक संगीत शैलियाँ राष्ट्रीय आन्दोलन के समय से ही
राष्ट्रवाद की भावना पैदा कर भारतीयों को एक करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही हैं। इसके साथ ही त्योहारों, मंचों और सिनेमा में इनका
अभ्यास किया जा रहा है। अंत में, यह कहना ठीक हैं कि भारतीय संगीत सभी भारतीय संस्कृ ति की प्रामाणिक सामग्री का मार्ग प्रशस्त करता
रहेगा और पश्चिमी दुनिया में व्यापक रूप से पहुंचेगा।

कु छ समानताएँ
1. इस कारण यह पता चलता हैं कि कै से एक गहरा प्रभुत्व पड़ा है दोनों संगीत पद्धितयों के ऊपर, और किस तरह यह प्रभुत्व बना ही रहगा।
2. आधार के रूप में स्वर, राग और ताल।
3. श्रुति को बनाए रखने के लिए तानपुरा का प्रयोग करें।
4. धर्म और अध्यात्म से गहरा जुड़ाव।
5. संस्कृ त भाषा की लिपियों के माध्यम से विकास।
6. जन्य राग का वर्णन करने के लिए संपूर्ण पैमाने का उपयोग।
7. राग समकक्षों का अस्तित्व जो दोनों के भीतर हैं ।
8. जनक थाट (जन्य राग) को परिभाषित करने के लिए संपूर्ण पैमाने के भीतर मूल ७ संगीत नोटों का उपयोग जिसे स्वर कहा जाता हैं।
9. राग गायन में आधार और पिच का प्रतिनिधित्व करने के लिए एक या दो नोटों के साथ तानपुरा का उपयोग करना।
10.रागों का महत्व दोनों पद्धतियों में हैं।

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हिंदुस्तानी संगीत की उत्पत्ति के संबंध में, इसे वैदिक काल के दौरान विकसित किया गया था और यह कर्नाटक से भी पुराना हैं। यह इस्लामी
परंपराओं, वैदिक मंत्रों और फ़ारसी मुसिक-ए-असिल शैली के साथ संश्लेषण करता है। इसके विपरीत, कर्नाटक संगीत का विकास १५ वीं
और१६वीं शताब्दी में भक्ति आंदोलन के दौरान हुआ और १९ वीं -२० वीं शताब्दी में इसे बढ़ावा मिला। इसका मतलब है कि कर्नाटक संगीत
तुलनात्मक रूप से शुद्ध हैं।
जबकि हिंदुस्तानी संगीत उप-शैली का भारत के विशाल उत्तरी भूगोल में फ़ारसी प्रभाव था, लेकिन इसमें कई बदलाव हुए। दूसरी ओर, कर्नाटक
संगीत में ज्यादा बदलाव नहीं आया।

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कनार्टक संगीत से उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में पेश किए जानेवाले कु छ राग-

1. किरवानी
2. सालग वराली
3. सरस्वती
4. हसंध्वनी
5. वाचस्पित
6. आभोगी
7. जनसनमोहिनी
8. चारूके शी
9. शिवरजंनी
10. दुर्गा

१.२ संगीत रत्नाकर का महत्व

संगीत रत्नाकर का स्थान शास्त्रीय संगीत पर उच्चकोटि हैं। शारंगदेव द्वारा रचित यह ग्रंथ में काफ़ी सारे विषयों का उल्लेख किया गया है।भारतीय
संगीत के दोनों संगीत पद्धतियों के लिए यह एक आधार ग्रंथ माना जाता है संगीत रत्नाकार में दिए गए श्लोकों का उदधरण किये बिना कोई भी
ग्रंथकार या विद्वान अपने विचारों की पुष्टि नहीं करता है। यह सच में एक आदर्श ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ की रचना 13 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध
में किया गया था। उस समय काफ़ी राजनीतिक उथल पुथल के कारण उत्तर भारत के काफी सारे विद्वान बहुमूल्य ग्रंथों को लेकर दक्षिण में जा
बसे। दक्षिण में इनका बहुत सम्मान हुआ। इस समय में राजनीतिक अस्तव्यस्तता के कारण बिखरे हुए ग्रंथों को एक करने का श्रेय शारंगदेव को
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जाता है। उन्होंने इन विभिन्न ग्रंथों को एकत्रित किया अध्ययन भी किया, और उनके इस महनत को ग्रंथ का रूप दे दिया। भरत से शारंगदेव तक
के काल में उनके अतिरिक्त आज एक भी श्रेष्ठ ग्रंथ पूर्णरूपेण उपलब्ध नहीं है। इस पर अनेक टिकाऊ का सृजन भी किया जा चुका है, जिनमें
सिंह भोपाल सुधाकर और कलीनाथ कलानिधि टीका ग्रंथ प्रमुख हैं। इस ग्रंथ को सात अध्यायों में वर्गीकृ त किया गया हैं।
1. स्वाध्याय
2. राग विवेकाध्याय
3. प्रकीर्णकाध्याय
4. प्रबंधाध्याय
5. तालाध्याय
6. वाद्याध्याय
7. नर्तनाध्याय

संगीत की दृष्टि से शारंगदेव का एक बहुत बड़ा योगदान है। संगीत शास्त्र की बारीकियों के साथ जानकारी देने वाला यह एक असामान्य और
परिपूर्ण ग्रंथ है। शारंगदेव एक महान संगीत शास्त्री के साथ एक महान कलाकार भी थे। उन्होंने लोक संगीत में प्रचलित ने एक शब्द अनेक गीत
प्रकार अनेक वाद्य प्रकार और अनेक मृत प्रकार संगीत में समाविष्ट कर संगीत का क्षेत्र अधिक व्यापक किया। आज के संगीत के लिए भी उनके
अनेक उदधरण उपयुक्त होते हैं। इसके पश्चात ही भारतीय संगीत के उत्तर हिंदुस्तानी संगीत और दक्षिण भारतीय के कर्नाटक संगीत ये दो प्रवाह
विकसित होने लगे।

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१.३ रागों का आपसी संबंध

यह हमारी परंपरा को दर्शाती हैं, और शास्त्रीय संगीत के बारेमेंऔर जानकारी दिलाती हैं। कर्नाटक संगीत के राग आजकल हिन्दुस्तानी संगीत के
कलाकार पेश करते हैं, ये कर्नाटक संगीत का प्रभाव साबित करती हैं।
चारूके शी, हंसध्वनि, किरवानी, सरस्वती, सालग वराली, इत्यादि कर्नाटक संगीत के राग हिंदुस्तानी संगीत में गाए जाते हैं।
इस पर गहरा अध्ययन करके यह पता चलता हैं इस संशोधन में मुख्य उद्देश्य हैं ऐसे रागों को ढूँढना जो कि कर्नाटक संगीत से उधार लिए गए हैं,
और उन्हें पेश करना। अलग पुस्तकों और आर्टिकलस में इस विषय के संबंध में जानकारी मिलती हैं, जैसे कि -संगीत विशारद, “A
Confluence Of Art And Music” इत्यादि। 
एक- एक अध्याय का संशोधन करने के बाद पता चलता हैं कि दोनों संगीत पद्धतियों के बीच की सम्मानताएं बहुत हैं, और इसी कारण एक दूसरे
के ऊपर का प्रभाव का परिणाम सम्मान रागों के रूप में दिखता हैं, जिसका संशोधन करना ही मेरा चुना हुआ विषय हैं। एसे नतीजे पर पहुँच
सकते  है कि रागों का वर्गीकरण करना आक्रमण अलग बातों को जानना  कोई आसान बात नहीं हैं।
अलग-अलग पुस्तकों को पढ़कर और अलग लोगों को पुछने के बाद ऐसे अलग-अलग चीजों का पता चला हैं। हिंदुस्तानी स्थानी संगीत का
कर्नाटक टिक संगीत पर प्रभाव बहुत पुराना हैं। यह एक महत्वपूर्ण और ज़रूरी चीज़ हैं जो हमारे परंपरा को दर्शाती हैं, और शास्त्रीय संगीत के
बारे में और जानकारी दिलाती हैं। दोनों संगीत पद्धति का एक दूसरे पर प्रभाव है, पर जिस तरह कर्नाटक संगीत के राग आजकल हिन्दुस्तानी
संगीत के कलाकार पेश करते हैं, ये कर्नाटक संगीत का प्रभाव साबित करती हैं।
 
एक- एक अध्याय का संशोधन करने के बाद मुझे यह पता चलता हैं कि दोनों संगीत पद्धतियों के बीच की सम्मानताएं बहुत हैं,
मैंने काफ़ी सारे पुस्तकों से जानकारी पाई हैं, और पता चलता हैं कि रागों का आपस में गहरा संबंध हैं ।

रागों को पेश करने के तरीक़े पर हमें प्रभाव दिखाई पड़ता है ।पेश कश और तालीम का पुरा तरीक़ा ही बदल गया है । पुरा परंपरागत ही अलग हो
गया है । पहले तो सिर्फ़ शुद्ध हिंदुस्तानी संगीत ही पेश हुआ करता था, पर आज के समय में कर्नाटक संगीत का प्रभाव भी दिखने को मिलती हैं ।

हंसध्वनी जैसे राग तो काफ़ी सारे कलाकार हिंदुस्तानी संगीत के बैठक में गाकर पेश करते हैं । यह बात से हमें पता चलता है कि कितना
प्रभावशाली है यह कला।श्रोताओं की रूची बढ़ाने के लिए यह काफ़ी असरदार हैं। कार्यक्रम में चार चाँद लग जाता हैं ।

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दोनों संगीत पध्दतियां का आधार धर्म पर ही है , लेकिन हिंदुस्तानी संगीत का उत्पन्न वेदिक काल में हुआ हैं, जब की कर्नाटक संगीत का उत्पन्न
भक्ति काल के दौरान हुआ था ।
यह देखा जा सकता हैं कि संगीतकार और गायक एक दूसरे से प्रभावित होकर अपनी कला सामने आकर पेश करते हैं । यही इस संशोधन का
मुख्य उद्देश्य है; इस प्रभाव को ध्यान से देखना और एक नतीजे पर पहुँचना ।

नतीजा यह है कि हर एक राग की अपनी अलग अलग पहचान बनाई जाती हैं, और इसी आधार पर उसकी नींव बनाई जाती हैं । वसंत भैरवी
बसंत मुखारी बन जाती हैं, मध्यामवती राग मधमा सारंग बन जाती हैं इत्यादि । एसे ना जाने कितने सारे राग हैं जो कर्नाटक संगीत से लेकर
हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत में अलग बन जाती है । आज कल तो कौशिकी जैसे कलाकार तो तिल्लीना भी साधक करते हैं। यही इस बात का सबूत
है कि संगीत पर अलग अलग प्रभाव पड़ते हैं, और कै से कलाकार अपनी दृष्टि और सांगितिक परंपराओं को ध्यान में रखते हुए अपनी कला को
पेश करते हैं।

कनार्टक संगीत की तुलना में हिंदुस्तानी का “राग” का बहुत्व हैं, लेकिन उसका प्रभाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है ।इसी के कारण तो
इतना मिल झुल हो रहा हैं सारे कलाकारों के बीच।

इसके अलावा, दुसरा नतीजा यह है कि इसका कलाकारों पर प्रभाव तो है ही, पर अभी श्रोताओं की रूची भी बड़ गयी है, अलग मानसिकता से
सुनने की। एक अलग सांगीतिक अनुभव के लिए मनपूर्वक तैयार हैं ।

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१.४ कर्नाटक संगीत से हिंदुस्तानी संगीत पद्धति से लिए गए राग

आभोगी

किरवानी

सालग वराली

सरस्वती

वाचस्पित

जनसम्मोहिनी

चारूके शी

हसंध्वनी

शिवरजंनी

दुर्गा

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१.५ संदर्भ

1. डॉ.भीमसेन सरल-गायन सिध्दांत


2. विजय साई -आर्टिकल- Songs After Sunset: Night Ragas In Hindustani Music
3. Music for the soul
4. Hindustani Music And Carnatic Music: An overview of differences
5. अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल प्रकाशन- राग ताल दर्शन
6. https://theqna-org.translate.goog/hindustani-and-carnatic-music-similarities-differences

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प्रकरण २ स्वर, ताल, मेल और गीत प्रकार संदर्भ में तुलनात्मक अध्ययन

२.१ स्वर के संदर्भ में

हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों में २२ श्रुति और ७ शुद्ध स्वर मानते हैं। लेकिन मुख्य अंतर यह हैं कि हिंदुस्तानी संगीत में कोमल और
तीव्र स्वर हैं। कनार्टक संगीत के स्वर में एसे चिन्ह नहीं हैं।
तार सप्तक के लिए स्वरों के ऊपर बिंदु लगायी जाती हैं, और मंद्र सप्तक के लिए स्वरों के नीचे बिंदु लगायी जाती हैं। कर्नाटक संगीत के स्वरों
के शुद्धावस्था सबसे नीचे श्रुति पर होता हैं।
दोनों पद्धतियों में एक सप्तक में १२ स्वर माने गये हैं, लेकिन नामों में परिवर्तन हैं। कर्नाटिकी शुद्ध सप्तक को दक्षिणी विद्वान में मुखारी मेल कहते
हैं।
निचे दिये हुए टेबल में हिंदुस्तानी और कर्नाटिक संगीत के स्वरों का तुलनात्मक अधय्यन दिया हैं।

कर्नाटक संगीत के स्वर


हिंदुस्तानी संगीत के स्वर
षड्ज
षड्ज
शुद्ध ऋषभ
कोमल रिषभ
गांधार (चतु: श्रुतिक रिषभ)
शुद्ध रिषभ
साधारण गंधार (षटश्रुतिक ऋषभ)
कोमल गंधार
अंतर गांधार
शुद्ध गंधार
शुद्ध मध्यम
शुद्ध मध्यम
प्रती मध्यम
तीव्र मध्यम
पंचम
पंचम
शुद्ध धैवत
कोमल धैवत
शुद्ध निषाद (चतु:श्रुतिक धैवत )
शुद्ध धैवत
कौशिकी निषाद (षटश्रुतिक धैवत)
कोमल निषाद
यही चिज़ दोनो काकली निषाद
शुद्ध निषाद
पध्दतियो के बीच मे फरक दिखाती हैं । कर्नाटिक संगीत के पहले शुद्ध मल
कनकांगी कहाँ गया है। सा रे ग म प ध नी (कनकांगी शुद्ध सप्तक) सा रे रे म प ध ध सां शुद्ध स्वरों की तुलना में ज़्यादा ऊँ चा हैं, उसको चतु:
श्रुति, षटश्रुति, साधारण अंतर गांधार, प्रती मध्यम, कौशिकी निषाद और काकली निषाद एसा बताया जाता हैं। दोनों पध्दतियों में तीनों सप्तकों
का प्रयोग होता हैं। हर एक सप्तक में ७ स्वर और ५ विकृ त स्वर होते हैं, जो मिलकर १२ स्वर बनते हैं। सा रे ग म प ध और नी यह शुद्ध और रे
ग म ध और नी विकृ त स्वर हैं।
ऐसा कहाँ जाता हैं कि षडज, मध्यम और पंचम स्वर पक्षी कि आवज़ पर आधारीत हैं, और रिषभ, गंधार, धैवत और नीषाद पशु कि आवाज़ पर
आधारीत हैं। यह सभी स्वर सुंदर तरिके से इकट्ठा होकर अलग राग को सामने लेकर आती हैं।
कर्नाटिक संगीत में कोनसे भी कोमल स्वर नही हैं। हमारे कोमल रे और ध उनके शुद्ध रे तथा ध हैं और हमरे शुद्ध रे और ध उनके शुद्ध ग और
नी हैं, अतः कर्नाटिकी स्वरों के अनुसार शुद्ध स्वर सप्तक इस प्रकार होगा-
सा रे ग म प ध नी (कर्नाटिकी)
स रे रे म प ध ध (हिंदुस्तानी)

16
17
२. २ ताल के संदर्भ में

ताल पद्धति में विशेष रूप से भिन्न्ता पाई जाति हैं। कर्नाटिक ताल पद्धति में मुख्य सात तालें मानी जाती हैं-
१.ध्रुव ताल
२. मठ ताल
३. रुपक ताल
४. झंप ताल
५. त्रिपुट ताल
६.अठ ताल
७. एकताल
मिसरा छपु, खंड छपु और आडी ताल है कर्नाटिक संगीत में। ताल पद्धति में तालों में लिखने के लिये चिन्ह नियत किये जाते हैं।
१.विराम (मात्रा १)-
२.द्रुत (मात्राएँ २)- ॰
३.लघु (मात्राएँ ४)- ।
४.गुरु (मात्राएँ ८) -S
५.प्लुत (मात्राएँ १२)- ३
६. काकपद (मात्राएँ १६)-X
विराम, द्रुत और लघु का ही प्रयोग होता हैं। शेष चिन्हों (गुरु, प्लुत और काकपद) क प्रयोग नही होता हैं। इन तीन चिन्हों क प्रयोग दक्षिण की उन
१०८ तालों में होता हैं, जो नृत्य में प्रयुक्त होते हैं।
‘पंचजाति-भेद॔ के अनुसार इन ७ तालों से ३५ प्रकार के ताल बनते हैं। नई तालों के बनने में के वल लघु की मात्राएँ ही बदलती हैं।

कर्नाटक संगीत के तालों के कु छ विशेषताएँ-

 खाली नही होती।


 सभी ताल सम से आरंभ होती हैं।
 हर ताल कि ५ जातियाँ होती हैं, जिनसे ३५ प्रकार उत्पन होते हैं।
 इन ५ जातियों के ५ भेद होते है, जिनसे ३५ प्रकार उत्पन्न होते हैं।
 लघु की मात्राएँ जाति -भेद के अनुसार बदलती रहती हैं।
 ७ प्रमुख तालें होती है इस पद्धती में।
 जिस ताल में जितने चिन्ह होंगे, उसमें उतनी ही ताली (थाप) होंगी।

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ध्रुव ताल
१ २ ३ ४ । ५ ६ । ७ ८ ९ १०। ११ १२ १३ १४
चिन्ह- x २ ३ ४

रुपक ताल
१२३४।५ ६
चिन्ह- x २

मठ ताल
१ २ ३ ४ । ५ ६। ७ ८ ९ १०
चिन्ह- x २

२.३ मेल के संदर्भ में

कर्नाटक संगीत पद्धति में ७२ थाटों का विभाजन किया गया हैं। कटपयादि नियम के आधार पर यह बनायी गयी हैं। इसका मतलब भाषा के
वर्णाक्षर उच्चारण के भेद के अनुसार यह विभाजित किया गया हैं। दक्षिण के संगीत पंडितों ने उनमें से क, ट, प, य इन वर्णाक्षरों को लेकर उनमें
सब वर्णाक्षरों का विभाजन किया। इसको कटपयादि नियम कहते हैं।
चतुदंडिप्रकाशिका में वेंकटमखी ने ७२ थाटों का उल्लेख किया हैं।
दक्षिण के संगीत पंडितों ने उनमें से क, ट, प, य इन वर्णाक्षरों को लेकर उनमें सब वर्णाक्षरों का विभाजन किया। यह कटपयादि नियम हैं।
हिंदुस्तानी राग वर्गीकरण १० थाटों में किया गया हैं, जबकि दक्षिणी राग वर्गीकरण ७२ थाटों में किया गया हैं। हिंदुस्तानी का मूल शुद्ध सप्तक
बिलावल का माना गया हैं, जबकी दक्षिणी संगीत का मूल सप्तक काफ़ी थाट का मूल सप्तक काफ़ी थाट का हैं।
पं भातखंड़े ने हिंदुस्तानी संगीत यह १० थाट का र्निमाण किया था।

1. कल्याण थाट
2. बिलावल थाट
3. खमाज थाट
4. काफी थाट
5. पूर्वी थाट
6. मारवा थाट
7. भैरव थाट
8. भैरवी थाट
9. आसावरी थाट

19
10.तोड़ी थाट

कर्नाटक संगीत को ७२ थाट में वर्गीकृ त किया है। मेलकर्ता राग कर्नाटक संगीत के मूल रागों का समूह है। मेलकर्ता राग, 'जनक राग' कहलाते हैं
जिनसे अन्य राग उत्पन्न किये जा सकते हैं। मेलकर्ता रागों की संख्या बहत्तर (७२) मानी जाती है। मेलकर्ता को 'मेल', 'कर्ता' या 'सम्पूर्ण' भी
कहते हैं ।

हिंदुस्तानी संगीत की दृष्टि से


दक्षिणी संगीत में पूर्वाग के प्रथम क्रम में गंधार नहीं है और छठे क्रम में नहीं है। इसी प्रकार उत्तरांग के प्रथम क्रम में निषाद नहीं है और छठे क्रम में
चैवत नहीं है। इस शंका का समाधान यह है कि पं० व्यंकटमखी के १२ स्वर हमारे १२ स्वरों के समान नहीं थे। व्यंकटमखी ने थाट को सम्पूर्ण
करने हेतु कु छ स्वरों के काल्पनिक नाम दिए थे जो इस प्रकार हैं। 
प्रत्येक मेल के आरम्भिक दो अक्षरों से मेल की संख्या ज्ञात की जाती है, जैसे- मायामालवगौड़ के आरम्भ में म और य है, प से गिनने पर म ५
जिसे इकाई में लगायेंगे, य से गिनने पर य = १ जिसे दहाई में लगायेंगे क्योंकि “अंकानाम् वामतो गतिः कही गयी है, अतः मायामालवगौड़ की
मेल संख्या १५ हुई। इसी प्रकार मेचकल्याणी की संख्या ६५, हनुमत्तोड़ी की ८, और कनकोंगी की एक मेल क्रम संख्या है। पूर्वांग के प्रथम
मेल के साथ उत्तरांग के छहों अर्थ मेलों को बारी जोड़ने से पर ६ मेल बनेंगे। इसी प्रकार पूर्वांग के दूसरे अर्थ मेल के साथ उत्तरांग के छहों अर्थ
मेल जोड़ने से भी ६और मेल बनेंगे । ३६ मलों में शुद्ध मध्यम के स्थान पर तीव्र मध्यम का प्रयोग ७ करने से ३६ और मेल प्राप्त होंगे जिनकी
क्रम संख्या ३७ से ७२ तक की हैं ।

२.४ गीत प्रकार के संदर्भ में

विविध रागों की अभिव्यक्ति के लिये कई स्वरुपों क निर्माण हुआ। वृत्त, छंद, गीत और प्रबंध जैसे कई स्वरूप लोकप्रिय हुए। इसके अनुसार बंदिश
बनती हैं। इसके ६ अंग हैं ।
20
1. स्वर
2. विरुद
3. पद
4. तेनक
5. पाट
6. ताल

हिंदुस्तानी और कर्नाटक, दोनों प्रणालियों के बंदिशों का अध्ययन करने पर पता चलता हैं कि प्राचिन प्र्बंध से कोइ तो संबंध हैं। ध्रुवपद में स्थयी,
अंतरा, संचारी और आभोग रहते हैं। ध्रुव के पुर्व गाया जाने वाला भाग उद्गाह, समय के गति के साथ समाप्त हो गया, और आज ना तो हिंदुस्तानी
न तो कर्नाटक मे यह पाया जाता हैं।

दोनों संगीत पद्धतियों में अलग गीत प्रकार हैं, और हर एक प्रकार कि अपनी विशेषताएँ हैं। लेकिन कु छ सम्मानताएँ भी हैं, जैसे अलनकार को
अगर देखा जाए, तो दोनों पद्धतियों में महत्वपूर्ण हैं, खास कर आरंभिक चरणों में। हिंदुस्तानी संगीत में सरगम सरल सोलफ़ा स्वरलिपि रचना हैं,
जो विभिन्न रागों और तालों में हैं।
दक्षिण में स्वरजति, जो विभिन्न रागों एवं तालों में रहती हैं, अध्ययन क आरंभिक अंग हैं।

भक्ति और दार्शनिक सामग्री कर्नाटक संगीत का एक अनिवार्य तत्व है। जबकि, हिंदुस्तानी संगीत में गजल, कजरी, ठुमरी से लेकर भजन
(सामाजिक प्रकृ ति या पौराणिक) तक की एक बहुत ही विविध सामग्री हैं।
हिंदुस्तानी संगीत के गायकों को सुधार करने की स्वतंत्रता है; यानी, इसमें आशुरचना का एक निश्चित प्रारूप है जिसे अधिक महत्व दिया जाता
हैं। कर्नाटक संगीत में, सुधार करने की कोई स्वतंत्रता नहीं है; अर्थात् रचना को अधिक महत्व दिया जाता हैं।

हिंदुस्तानी संगीत कर्नाटक संगीत


 अलंकार अलंकारम
 लक्षण-गीत लक्षण-गीत
 सरगम स्वरजति
 आलाप आलापनम
 द्रुत ख्याल द्रुत कलाक्रु ति
 मध्य लय ख्याल मध्य लय कलाक्रु ति
 विलंबित ख्याल
 ध्रुपद रागम तानम पल्लवि
 धमार
 तराना तिल्लाना
 ठुमरी पदम और जावलि
 भजन भजन

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वर्णम में राग की सभी विशेषताएँ दिखती हैं। इसके ४ प्रकार हैं- चौक, पद, तान और ध्रुव वर्णम। पल्लवि कर्नाटक संगीत का सबसे बड़ा अंश हैं।
कलाकार कि योग्यता क पता लगता हैं। कार्यक्र्म की प्रतिष्ठा स्थापित होती हैं। एकदम विलंबित ख्याल से शुरु कर यह हिंदुस्तानी संगीत पद्धति
की सारी विशेषताएँ पुरी करती हैं।
तिल्लना में तराना के समान निरर्थ के शब्ध होते हैं। पदम और जावलि ठु मरी और टप्पा के समान शास्त्रिय संगीत हैा दक्षिण में कई सारे भजन
मिलते हैं, जो मीरा, सुरदास जैसे अन्य उत्तर के संतों के भजन के समान हैं।
लेकिन कु छ मतभेद हैं इस विषय में। हिंदुस्तानी कलाकार कर्नाटक संगीत को अरुचिकर मानते हैं, और कर्नाटक संगीत के कलाकार हिंदुस्तानी
संगीत के धीमी गति को सहन नही कर सकते।
समान रागों के प्रस्तुतीकरण में विभिन्न प्रकार के फ्रे ज़ बने। उदाहरण- यमन हिंदुस्तानी में और कल्याणी कर्नाटक में। दोनों पद्धतियों की प्रुथकृ ता
का एक कारण ताल गति हैं। हिंदुस्तानी संगीत के अति विलंबित और कर्नाटक संगीत का द्रुत लय क आरंभ समान नही हैं।
बड़ें और छोटे ख्याल का साहित्य को ध्यान में रखते हुए पेश करना पड़ता हैं, और इसके साथ राग विस्तार भी। दक्षिण में क्रु तियों में पल्लवी,
अनुपल्लवी और एक अथवा दो चरणम गाने पड़ते हैं।
वाद्यों में भी फ़रक नज़र आती हैं। हिंदुस्तानी संगीत में पखावज़, तबला, हर्मौनिअम आदि वाद्यो क प्रयोग होता हैं। कर्नाटक संगीत में मृदंग, घटम
, आदि वाद्यों का प्रयोग होता हैं। दोनों संगीत प्रकार के स्वरूप अलग होने के कारण ( निबद्ध और अनिबद्ध) वाद्य भी अलग हैं।हिन्दुस्तानी में ६
प्रमुख वाद्य यंत्रों का प्रयोग किया जाता है; अर्थात तबला, सारंगी, सितार, संतूर, बांसुरी और वायलिन। दूसरी ओर, कर्नाटक संगीत में वीणा,
मैंडोलिन, मृदंगम और जलतरंगम आदि का प्रयोग किया गया हैं।

२. ५ संदर्भ

1. अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल प्रकाशन- राग ताल दर्शन


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2. वसंत- संगीत विशारद
3. स्वरगंगा.org
4. सरस्वती संगीत साधना.in
5. https://theqna-org.translate.goog/hindustani-and-carnatic-music-similarities-differences/

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प्रकरण ३- ओड़व जाति के कर्नाटक राग जो हिन्दुस्तानी संगीत में गाए जाते हैं।

जीस राग में ५ स्वर होते हैं, एसे राग ओड़व जाति के राग कहलाते हैं। यह प्रकरण अलग ओड़व जाति के रागों के बारे में हैं जो दोनो पद्धतियों में
गाये जाते हैं। हंसध्वनि, आभोगी और शवरजिंनी इस लिस्ट में आती हैं। राग तो वही हैं, लेकिन प्रस्तुतिकरण में दोनो पद्धतियों मेँ काफ़ी फ़रक
नज़र आता हैं। दोनों पद्धतियों में एक जैसे राग गाए बजाए जाते हैं, लेकिन किस तरिके से पेश करते हैं, यह अलग बात हैं। हिन्दुस्तानी शुद्ध नोटों
बनाम गामाका आधारित कर्नाटक रागों पर जोर देता है। राग निबंध उत्तर हिंदुस्तानी में नोट से नोट तक और कर्नाटक में वाक्यांश से वाक्यांश
तक विस्तृत हैं।
कर्नाटक रागों का हिन्दुस्तानी सुरों में परिवर्तन एक असमान प्रक्रिया रही है। जबकि कु छ रागों जैसे अभोगी, हंसध्वानी, और कीरवानी ने काफी
तेजी से एक स्थिर हिंदुस्तानी पहचान हासिल कर ली है, कई अन्य उनके परिचय के कई दशकों बाद अस्थिर हैं। ऐसी परिस्थितियों में, इन रागों
को बजाने वाला प्रत्येक संगीतकार अपनी व्याख्या को उसी कर्नाटक नाम से बुलाकर दर्शकों के मन में भ्रम पैदा करता हैं।

३.१ रागों की जानकारी

राग हंसध्वनि-
यह बिलवल थाट का राग हैं। यह राग रात के दुसरे प्रहर में गाया बजाया जाता हैं। षडज और पंचम वादी संवादी स्वर हैं। रामा स्वामी दिक्षीतार
को यह राग निर्माण करने का श्रेय जाता हैं,और अमन अलि खान ने इसे हिंदुस्तानी संगीत में शामील किया। राग का स्वरूप- सारेगस, सा,
गपगरे,गपनि,पनिनि,सां,रेंसां सांनिप गरेसा
पहले ज़माने के महफ़िलों में अगर वातापीगणपतिम गाया जाता था, वो सिर्फ़ इसके लिए नहीं क्योंकि यह विगनेस्वरा का एक गीत हैं। एक कारण
और हैं कि यह गीत हंसध्वनी राग पर आधारित हैं। गायन वादन का समय रात्रि का द्वितीय प्रहर हैं।

राग आभोगी-
राग आभोगी काफ़ी थाट का एक राग हैं। हिंदुस्तानी संगीत में कानड़ा अंग के साथ कलाकार इसको पेश करते हैं, और इसे आभोगी कानड़ा कहा
जात हैं। इस राग का गायन समय रात क दुसरा प्रहर हैं। गंधार स्वर कोमल होता हैं। इस राग की प्रक्रु ती गंभीर हैं। यह कर्नाटक का मूल राग हैं
जो उत्तर भारत में आभोगी तथा कानड़ा दो रूपों में प्रचार में आ गया हैं। गायन वादन का समय रात्रि का द्वितीय प्रहर हैं। मध्यम और षडज वादी
संवादी स्वर हैं।

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राग शिवरंजनी-
राग भूप में गंधार कोमल किया जाये तो शिवरंजनी कहलाता हैं। इसका गायन समय आधी रात का हैं। पंचम और षडज वादी संवादी स्वर हैं।
इसको करून रस क राग कहा गया हैं।यह गंभीर प्रकृ ति का राग है। हिंदी सिनेमा के काफ़ी सारे चित्रपट गीत राग शिवरंजनी पर आधारित हैं।
शास्त्रिय के बजाय इस राग में उपशास्त्रिय के गीत पेश किये जाते हैं।
राग भूपाली में गंधार (ग) शुद्ध न लेते हुए यदि कोमल गंधार (ग)का प्रयोग किया जाए तो राग शिवर हो जाता है |
इस राग में मध्यम स्वर और निषाद स्वर वर्जित हैं।
इस राग में विश्रांति स्थान अर्थात् न्यास के स्वर सा, ग, प है | गान समय मध्यरात्री हैं।
यह उत्तरांग प्रधान राग हैं |

राग दुर्गा-
राग दुर्गा एक अपेक्षाकृ त नया राग हैं जो कर्नाटक पद्धती से लिया हुआ हैं| यह रात्री के दुसरा प्रहर में गाया जाता हैं। उत्तर हिंदुस्तानी पद्धती में
यह इतना बड़ा राग नही हैं अभी तक|
मध्यम और षडज इस राग के वादी संवादी स्वर हैं। सा रे म प धा सा इस राग के स्वर हैं। ख्याल, तरानें, बंदिशें इत्यादी शास्त्रिय गीत प्रकार इस
राग में गाए जाते हैं।

यह प्रकरण इन ओड़व जाती रागों के बारे में होगी, साथ ही दोनों पद्धतियों में प्रस्तुतिकरण का अंतर, इत्यादि।

राग वाचस्पति-
राग वाचस्पती कर्नाटक संगीत से लिया गया राग हैं,और यह एक बहुत ही मधुर लेकिन अप्रचलित राग हैं।
वाचस्पति कर्नाटक संगीत (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत का संगीत स्तर ) में 72 मेलकार्ता राग व्यवस्था में ६४ वां मेलकार्ता राग है।
मुथुस्वामी दीक्षितार विचारधारा के अनुसार इसे भुषावती के नाम से जाना जाता हैं। यह ओड़व संपूर्ण जाति का राग हैं, रिषभ और धैवत आरोह
में वर्जीत होने के कारन।
निषाद कोमल और मध्यम तीव्र, ऐसे स्वर लगते हैं। दिन के चौथे प्रहार में यह राग गाया/ बजाया जाता हैं।
वाचस्पति अपने चालन या विशिष्ट वाक्यांशविज्ञान से हिंदुस्तानी दर्शकों के लिए तेजी से परिचित हो रहा है। हिन्दुस्तानी संगीत में राग के परिचय
की नवीनता और कद के मुट्ठी भर संगीतकारों के कारण यह चलन अपने आप में तरल है, जिन्होंने इसकी विशिष्ट मधुर पहचान को आकार देने
पर काम किया है। भिन्नता राग की प्रमुख मनोदशा तक फै ली हुई है, जिसमें गहन से जीवंत और निश्चित रूप से कु छ ऐसे हैं जो बीच में दोलन
करते हैं। इसका वादी संवादी स्वर षडज और पंचम हैं। इस राग का आरोह-अवरोह इस प्रकार हैं-
सा ग म(तीव्र) प नी सा
सा नी ध प म(तीव्र) ग रे सा

राग सरस्वती- इस राग को कर्नाटक संगीत पद्धति से हिंदुस्तानी संगीत में लाया गया है। राग सरस्वती में पंचम-रिषभ संगती राग वाचक है। तीव्र
मध्यम का एक महत्वपूर्ण स्थान हैं। कोमल निषाद का प्रयोग ऐसे किया जाता है - रे म प ध साऽ नि ध ; म प नि ध ; रे म प सा नि ध ; प म ध
प (म्)र ,नि,ध सा।
कु छ संगीतकार आरोह में कोमल निषाद का प्रयोग करते हैं, जिस्से राग की जाति षाड़व हो जाती हैं।
इसका गान समय रात का दुसरा प्रहर हैं। इसका वादी संवादी स्वर पंचम और रिषभ हैं ।

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३.२ प्रस्तुतिकरण में अंतर

मेरे संशोध के मुताबिक कर्नाटक संगीत में ज़्यादातर वाद्य संगीत के कार्यक्रम होते हैं, जबकी हिंदुस्तानी कार्यक्रम में कं ठ संगीत पर बल दिया
जाता हैं।
कर्नाटक संगीत में वाइलीन, म्रुदंगम जैसे वाद्यों का प्रयोग होता हैं। हिंदुस्तानि में गायन पर मह्त्व दिया जाता हैं। हिंदुस्तानी विलंबित लय से शुरु
होता हैं, और फिर द्रुत लय कि ओर बढ़ता हैं, जबकि कर्नाटक संगीत का आरंभ ही मध्य लय से होता हैं।
हिंदुस्तानी विलंबित लय से शुरु होता हैं, और फिर द्रुत लय कि ओर बढ़ता हैं, जबकि कर्नाटक संगीत का आरंभ ही मध्य लय से होता हैं। यह
एक बहुत ही ज़रूरी चीज़ है जो दोनों संगीत पद्धतियों के रागों के मंच प्रदर्शन में फ़रक दिखाती हैं। इन सारे रागों को पेश करते वक़्त भी यह सारे
फरक नज़र आते हैं। विलंबीत लय से द्रुत लय और तानों को पेश करना हिंदुस्तानी संगीत की सुंदरता को सामने लाति हैं।और कर्नाटक संगीत के
मध्य और द्रुत लय के कार्यक्रम में अपना अलग ही सुंदरता होती हैं। यह दो ज़रूरी भिन्नताएँ हैं।
इन दो पद्धतियों के बिच इतना भेद नज़र आता हैं। इसी कारण दोनों महफ़ीलों का माहौल अलग होता हैं, और अलग अनुभव होता हैं दोनों
महफ़ीलों को सुनने में।
हंस्वध्वनी राग को देखा जाए तो दोनों पद्धतियों में अलग बंदिश, श्लोक इत्यादि गीत प्रकार होते हैं। कर्नाटीक संगीत में गनपती और भगवान के
श्लोक पाए जाते हैं। हिंदुस्तानी में ख्याल और तराने जैसे शास्त्रिय गीत प्रकार गाए जाते हैं। राग शिवरंजनी में पुरंदरदास के क्रु ती पाए जाते हैं, जो
अलग भगवान के बारे में होते हैं। राग हंसध्वनि में "वातापिगणपतिम भजेहम" जैसे कृ ति, जिसमें पल्लवि, अनुपल्लवि और चरणम हैं, त्रिधातु प्रबंधों
के समान हैं।
राग आभोगी को देखा जाए, तो कर्नाटक प्रदर्शन में वाइलीन, वीना जैसे वाद्यों के प्रदर्शन होते हैं। हिंदुस्तानी कार्यक्रम में कं ठ संगीत पर ज़्यादा
बल दिया जाता हैं, और शास्त्रिय गीत प्रकार जैसे ख्याल गाये जाते हैं।आभोगी में काफ़ी अभंग भी पाए जाते हैं।एक कार्यक्रम में दो प्रकार के
संगीत पेश किया जाता हैं (कर्नाटक संगीत में) - मनोसधर्म संगीत और कलपिता संगीत। पहले प्रकार में कलाकार अपनी खुद कि संगीत पेश
करता हैं, जिसके ५ प्रकार हैं-
 राग अलापना
 मध्यमा काल या ताना
 पल्लवी विवरण
 स्वर कल्पना
 साहित्य प्रस्तारा
कलपिता संगीत में, एक कलाकार एसे रचनाएँ पेश करते हैं जो पहले किसी रचनाकार ने तैयार किया था, या खुद की रचना भी। कलपिता
संगीत में, एक कलाकार एसे रचनाएँ पेश करते हैं जो पहले किसी रचनाकार ने तैयार किया था, या खुद की रचना भी। श्लोक, पद्य, चुरनीक जैसे
साहित्यिक रचना संगीत में पेश किये जाते हैं।
अलग वाद्यों क प्रयोग किया जाता हैं, और इस्से कार्यक्रम में फ़रक नज़र आता हैं। कर्नाटक में मांड़ोलीन, वीना, म्रुदंगम जैसे वाद्य दिखते हैं,
जबकी हिंदुस्तानी में तबला, सारंगी, सीतार और संतूर जैसे वाद्य क प्रयोग होता हैं।
वाद्य ब्रिंदा में सभी लोग एक साथ अपने वाद्य बजाते हैं (स्त्री या परुष)। लेकीन गायक ब्रिंदा में दोनों को अलग गाना पढ़ता हैं क्योंकि उनकी पट्टी
अलग होती हैं। यह सिर्फ़ राग ( मेलोड़ी) गायन में एक समस्या हैं।
हिंदुस्तानी की तुलना में कर्नाटक में ज़्यादा आज़ादी हैं अपनी कला को पेश करने में ।

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३.३ कु छ ज़रुरी तुलना कि चिज़े

भक्ती काल में विकसित हुआ कर्नाटिक संगीत और वेदिक काल में विकसित हुआ हिंदुस्तानी संगीत में काफ़ी भिन्न्ताएँ हैं। कर्नाटिक संगीत में
क्रु ति पर ज़्यादा बल दिया जाता हैं, और हिंदुस्तानी संगीत ख्याली संगीत हैं।
हिंदूस्तानी राग वर्गिकरण १० थाटों में किय गया हैं,जबकी कर्नाटक कि नीव ७२ थाटों पर बनी हैं।
उत्तरहिंदुस्तानी संगीत राग आधारित हैं और कर्नाटक कृ ति पर आधारित है। हिन्दुस्तानी शुद्ध नोटों पर और कर्नाटक गमाका आधारित गीतों /
रागों पर ज़ोर देता हैं।
सारंगी उत्तर हिंदुस्तानी में एक प्रमुख संगत है, जबकि वायलिन कर्नाटक में महत्वपुर्ण है। उत्तर हिंदुस्तानी के पास वाद्य और गायन के लिए एक
अलग प्रदर्शनों की सरणी है, जबकि कर्नाटक के वादकों वही कृ ति-आधारित रचनाएँ बजाते हैं, जो गायक पेश करते हैं। उत्तर हिंदुस्तानी में
अलग शैली है, जब कि कर्नाटक संगीत में मदुरै मणि अय्यर, जीएन बालासुब्रमण्यम जैसे शैलियाँ हैं।
ध्रुपद, ख्याल, तराना, ठु मरी, दादरा, गज़ल जैसे गीत प्रकार हिंदूस्तानी कार्याक्राम में पेश किये जाते हैं, जबकी कर्नाटक कार्यक्रम में रागम,
तानम्, पल्लवी, अलापना, नेरावल और कल्पनास्वरम जैसे गीत प्रकार हैं।
कर्नाटक में एक ही गायन शैलि हैं, जबकि हिंदुस्तानी में अलग घरानें के हिसाब से अलग गायन शैलि होती हैं। राग क गायन वादन समय नहीं
है, जैसे उत्तर हिंदुस्तानी में हैं। कोई भी राग कभी भी पेश किया जा सकता हैं।
कर्नाटक में गायन वादन दोनों को महत्व दिया जाता हैं, लेकिन उत्तर हिंदुस्तानी में गायन ज़्यादा महत्व रखता हैं।
तानसेन और उनकी समकालीन संगीतकार ध्रुपद गाते थे और बादमें सदारंग अदारंग ने ख्याल गायन को आगे बढ़ाया।कर्नाटक संगीत का विकास
श्यामा शास्त्रि, त्यागराज, मुथुस्वामी दिक्षितार और संत पुरंदरदास द्वारा हुआ था। इन संगीतकारों द्वारा रचित क्रु तियाँ ही कर्नाटक संगीत का
आधार हैं।
एसे अलग अलग चिज़े द्वारा हमें दोनों संगीत पद्धतियों के भिन्न्ताओं के बारे में पता चलता हैं।
एक और ज़रुरी बात हैं कि कर्नाटक अपना खुद का संगीत पद्धति है, और उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में अफ़ग़ानी, फारस और अरबी संगीत का
प्रभाव दिखाइ देता हैं ।
गायन कि बात किया जाए तो उत्तर हिंदुस्तानी के गायन में सरलता और सुलभता हैं, जबकि कर्नाट्क मेंराग गायन क्लिष्ट होती हैं।
उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में संगीतकार को, विशेष परिस्थिति को छोड़कर, एकाकी प्रदर्शन का कम अवसर मिलता हैं, जबकि दक्षिणी संगीत में
संगीतकार को अपनी कला पेश करने का अवसर ज़्यादा मिलता हैं। श्रुती क महत्व कर्नाटक संगीत में दिखता हैं, उत्तर हिंदुस्तानी की तुलना में।
मध्य लय और विलंबित लय भी एक मुख्य तुलना हैं दोनों पद्धतियों के बिच। उत्तर हिंदुस्तानी विलंबित लय से आरंभ होता हैं, जबकी कर्नाटक
मध्य लय से ही शुरु होता हैं।

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३.४ समानताएँ

दोनों पद्धतियों में रागों क महत्व हैं, और वादी स्वर कि प्रमुखता दोनों पद्धतियों में दिखती हैं। दोनों पद्धतियों में ७ स्वरों क संपूर्ण सप्तक क प्रयोग
होता हैं, जनक थाट का वर्णन करने के लिये, और जन्य राग को बनाने के लिये।
दोनों पद्धतियों में तानपुरा के महत्वपूर्ण भाग हैं, मुल श्रुति को दर्शीत करने के लिये। राग गायन दोनों संगीत पद्ध्तियों की नीव हैं। भिन्नताएँ दोनों
में दिखती हैं, लेकिन उतनी सम्मनताएँ भी हैं। भरत मुनी द्वारा लिखा नाट्यशास्त्र में हिंदुस्तानी संगीत के इतिहास के बारे में काफ़ी कु छ लिखा हैं।
यह पुस्तक शास्त्रिय संगीत की देन मानी गयी हैं।भाव और रस की एक सेट पहचानी गई थी।
दोनों संगीत पद्धतियों का विकास संस्कृ त भाषा के लिपि द्वारा विकसीत हुआ हैं। एक राग को किसी ताल में गाया / बजाया जाता हैं। धर्म का
प्रभाव दोनों पद्धतियों में दिखाई देता हैं।
स्वर, राग और ताल की निव दोनों पद्धितियों में एक ही हैं।दोनों पद्धतियों में जन्य राग का वर्णन करने के लिए, संपूर्ण स्के ल का उपयोग होता हैं।

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३. ५ रागों पर आधारित कु छ बंदिश

राग हंसध्वनि- काहे करत गुमान


राग आभोगी- बीत गयी सारी रतिया
राग शिवरंजनी- रे सजना तुम बिन कल ने
राग वाचस्पति- सुगर बलमा चतुर
राग दुर्गा- सखी मोरी रुम झुम
राग सरस्वती- पिया तोरी लागे तिरछी नज़रिया

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३.६ संदर्भ

1. प्रोफ़.सामबामऊरथी- South Indian Music - भाग २ प्रकरण ७ पृष्ठ ११०


2. प्रोफ़.सामबामऊरथी- South Indian Music - भाग २ पृष्ठ १७०
3. प्रोफ़.सामबामऊरथी- South Indian Music - भाग २ प्रकरण १
4. वसंत- संगीत विशारद पृष्ठ ५२- दक्षिणी और उत्तरी हिंदुस्तानी संगित पद्धतियाँ
5. वसंत- संगीत विशारद पृष्ठ ५५- उत्तर और दक्षिण भारत का संगीत
6. अखिल भारतीय गांधर्व महाविद्यालय मंडल प्रकाशन- राग ताल दर्शन- पृष्ठ २७०- कर्नाटक संगीत के स्वर,ताल, राग के साधरण ज्ञान तथा
उत्तर भारतीय संगीत से तुलनात्मक अध्ययन

प्रकरण ४-षाड़व जाती के राग जो दोनों पद्धतियों में गाए जाते हैं।

४.१ रागों की जानकारी

राग जनसम्मोहिनी- जनसम्मोहिनी एक कर्नाटक संगीत राग है, अपने मधुर स्वरों के वाद्य यंत्र संगीत में भी इसे प्राप्त किया जाता है। यह राग
खमाज थाट में शामिल किया गया है । कोमल निषाद के अतिरिक्त शेष स्वर शुद्ध प्रयोग किये जाते है । राग सुभा कल्याण ("शुभ भाग्य"), को
जन-समोहिनी के नाम से जाना जाता है। यह एक लोकप्रिय राग है, जिसे कर्नाटक प्रणाली से लाया गया हैं। यह राग रात के स्वागत के रूप में
रात में गाया जाता है।

आरोह – अवरोह में मध्यम वर्ज्य होने से इसकी जाति षाडव – षाडव है । गायन – समय रात्रि का द्वितीय प्रहर है । गंधार स्वर को वादी और
धैवत स्वर की संवादि का स्थान प्राप्त है । आरोह- सा रे ग , प , ध नि ध सां । अवरोह – सां नि ध प , ग , रे , सा । पकड़- ग प ध नि ध ऽ प ,
ग प गरे , नि ध सा ।
राग जनसम्मोहिनी को खमाज थाट में रखा गया है ।
कोमल निषाद के अलावा शेष स्वर शुद्ध ।
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आरोह – अवरोह दोनों में मध्यम वर्ज्य
राग की जाति षाडव – षाडव है ।
गायन – समय रात्रि का द्वितीय प्रहर ।
ग वादी और ध सम्वादी है ।
आरोह– सा रे ग , प , ध नि ध सां ।
अवरोह – सां नि ध प , ग , रे , सा ।
पकड़- ग प ध नि ध ऽ प , ग प गरे , नि ध सा ।
यह कर्नाटक पद्धति का राग है , किन्तु उत्तर भारत में बहुत लोकप्रिय हो गया है । राग कलावती में रिषभ प्रयोग करने से इस राग की रचना हुई है
।हिन्दुस्तानी पद्धति की दृष्टि से इसके पूर्वांग में कल्याण और उत्तरांग में झिंझौटी के मिश्रण से इस राग का जन्म हुआ । इसमें सा रे ग प गरे , से
शुद्ध कल्याण , सा रे ग प ग रे से भूपाली और प ध नि ध प ध सां , रें सां नि नि ध ऽ प , से झिंझौटी राग की छाया आती है , किं तु कोमल
निषाद का प्रयोग और धैवत का बहुत्व दिखाने से शुद्ध कल्याण और भूपाली की छाया समाप्त हो जाती हैं और मध्यम के वर्जित होने से राग
झिंझोटी का आभास मिट जाता है । मूल रूप से शिव कल्याण कहा जाता हैं , कर्नाटक जनसमुहिनी, पं रविशंकर जी इसे कर्नाटक नाम के साथ
वापस ले आए। अलगाव की पीड़ा, विषाद, ईश्वर में निहित आस्था, जनसमुदाय की मनोदशाएं हैं। इसे शाम ६:३०से ९:३०बजे तक गाया जा
सकता हैं।
कर्नाटक संगीत में , कलावती को वलाची या वालाजी के रूप में अनुमानित किया गया है, और इसे २८ वें मेलाकार्ता , हरिकं भोजी का एक जन
माना जाता हैं।
जनसम्मोहिनी में नी को छोड़कर सभी नोट शुद्ध हैं। अवरोह में छठा स्वर रे हैं, जो राग को अन्य सुखदायक राग कलावती से अलग करता है।
कलावती में जनसमुहिनी के समान स्वर हैं, अवरोह में रे की अनुपस्थिति को छोड़कर, यानी कलावती के आरोह और अवरोह दोनों में समान
पांच स्वर हैं।

सा रे ग प ग, और ग प ग रे कल्याण से हैं और प ध नि ध सा रे सा नि नि ध प में झिनझोटी दिखती हैं। अंतरिक्ष के लिए कई तरह के संसाधन
हैं, जैसे कि ग प ध नि ध प ग प ग रे ग रे नि ध सा मिलता है।
शादाज, ऋषभ, गांधार और पंचम न्यास नोट हैं। निषाद को नि ध सा के रूप में प्रकाशित किया जा सकता है, या ध नि सा या सा नि ध के रूप
में नॉट के रूप में उपयोग किया जा सकता है।

फ़िल्म संगीत में, वालाजी और जनसम्मोहिनी का मेल अधिकांश गीतों में जगह पाता है; अक्सर एक मध्यमा रास्ता पार कर जाती है। समानता
और सूक्ष्म विविधताओं को देखते हुए, हम इस राग परिवार पर आधारित फिल्मी गीतों को एक छतरी के नीचे समूहित कर सकते हैं। एक प्रसिद्ध
भजन हैं इस राग में जिसका नाम हैं "पथिका तुम इतना कहियो जाए"।
प्रभा आतरे के राग कलावति में कर्नाटक संगीत की छवी दिखाई देति हैं, विशेष रूप से एक तान में।

सालग वराली- वरली या वराली कर्नाटक संगीत (दक्षिण भारतीय शास्त्रीय संगीत का संगीत स्तर ) में एक राग है । यह ३९वें मेलाकार्ता पैमाने
झालावराली से एक ज्ञान राग है । यह एक ज्ञान पैमाना है, क्योंकि इसे आरोही पैमाने में वक्र पैमाने (ज़िग-ज़ैग नोट्स) कहा जाता है । इस राग
को सालग वराली तोड़ी के नाम से भी जाना जाता है। इस राग को कर्नाटक संगीत से हिंदुस्तानी संगीत में कु छ बदलावों के साथ लाया गया था।
लेकिन यह राग ज़्यादा लोकप्रियता हासिल नहीं कर सका।

इस राग पूर्वांग में राग तोड़ी और उत्तरांग में राग अहीर भैरव का मेल है। राग तोड़ी की तरह इस राग की कोमल गांधार कोमल ऋषभ की ओर
झुकी हुई है। पंचम एक महत्वपूर्ण विश्राम नोट है। धैवत थोड़ा लम्बा है लेकिन आराम करने वाले नोट के रूप में उपयोग नहीं किया जाता हैं ।
उत्तरांग में, की ओर चढ़ते समय अक्सर निषादों को छोड़ दिया जाता हैं ।
ऐसा माना जाता है कि वराली, जब एक शिक्षक द्वारा सीधे एक छात्र को पढ़ाया जाता हैं ।
तो उनके रिश्ते में तनाव पैदा हो जाएगा ,या एक दूसरे पर बुरा प्रभाव पड़ सकता है। रागम को सुनने और स्वयं सीखने से सीखा जाता हैं ।

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यह राग बहुत सीधा है, लेकिन इसे प्रस्तुत करते समय बहुत सावधानी बरतनी चाहिए क्योंकि नोट्स पर प्रभुत्वा पाना कठिन है। यह राग एक
भारी वातावरण बनाता है और तीनों सप्तक में विस्तारित किया जा सकता हैं।
इन रागों का पेष करने का ढंग दोनों पद्धतियों में बिल्कु ल अलग हैं। तमिल में कर्नाटका का अर्थ हैं परंपरा,पवित्रता, संप्रदायम और शुद्धम। यह
सारी चिज़े कर्नाटक संगीत में भी दिखाई देती हैं, और राग प्रस्तुतिकरण में यह बातें पता चलती हैं।

बृहद्देशी में सबसे पहले “कर्नाटका” शब्द का प्रयोग किया गया हैं। एक देसी राग (कर्नाटा)का वर्णन इस पुस्तक में किया गया हैं। शारंगदेव
कर्नाटक संगीत कि बात करते हैं, और नृत्य भी।– (South Indian Music Book 1 पृष्ठ २१)

गायन, वादन और नृत्य, यह तीनों कलाएँ संगीत बनाती हैं, एसा संगीतकारों ने माना हैं। कर्नाटक संगीत के वल एक शैली में गाया और गाया
जाता है, हिंदुस्तानी संगीत में गायन और प्रदर्शन की विभिन्न शैलियाँ हैं। स्कू ल की प्रत्येक शैली को 'घराना' कहा जाता है। हिंदुस्तानी संगीत में
कई घराने हैं। जयपुर घराना और ग्वालियर घराना कई महत्वपूर्ण घरानों में से हैं।

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४.२ रागों का प्रस्तुतीकरण

हरिपाला के संगीत सुधाकर में कर्नाटक और हिंदुस्तानी संगीत के बारे में बताया गया हैं। दोनों प्रकार के संगीत, संगीत बजाने में उपयोग किए
जाने वाले उपकरणों के संदर्भ में भिन्न होते हैं।
दोनों प्रकार के संगीत वाद्ययंत्र जैसे वायलिन और बांसुरी, हिंदुस्तानी संगीत बड़े पैमाने पर तबला (एक तरह का ड्र म या एक पर्क्यूशन इंस्ट्रू मेंट),
सारंगी (एक तार वाला वाद्य), संतूर, सितार, क्ले रिओनेट इस तरह का उपयोग करते हैं।
दूसरी ओर कर्नाटक संगीत बड़े पैमाने पर वीणा (एक तार वाला वाद्य), मृदंगम (एक ताल वाद्य), गोटुवादिम, मैंडोलिन, वायलिन, बांसुरी,
जलतरंगम और इसी तरह के वाद्ययंत्रों का उपयोग करता है।
कर्नाटक संगीत में देखा जाए, तो मायामालवगौल में स्वरों क रियाज़ किया जाता हैं।यह पुरंदरदास के दिनों से प्रचा चली आ रही हैं। उत्तर
हिंदुस्तानी संगीत में बिलावल (संकराभरणम) से शुरुवात होती हैं। ( South Indian Music Book 1- पृष्ठ ६३)

यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि कर्नाटक संगीत ७२ मेलाकर्ता राग योजना की उपस्थिति की विशेषता हैं। ७२ प्रमुख रागों में से प्रत्येक को कई
अधीनस्थ रागों में विभाजित किया गया है। हिंदुस्तानी संगीत का मुख्य स्रोत सारंगदेव का संगीता रत्नाकर है। यह भारत के संगीत के लिए एक
महान काम हैं।

दूसरी ओर कर्नाटक संगीत मुख्य रूप से संत पुरंदरदास के प्रयासों और कर्नाटक संगीत, संत त्यागराज, मुथुस्वामी दीक्षित और श्यामा शास्त्री के
संगीत ट्रिनिटी के कारण पनपा। तीनों १८ वीं शताब्दी में कावेरी नदी के तट पर दक्षिण भारत के तिरुवयारु क्षेत्र में रहते थे।
रागम, तालम और पल्लवी कर्नाटक संगीत में राग के विस्तार का एक रूप हैं। हिंदुस्तानी संगीत में राग विस्तार को प्राथमिक महत्व दिया गया है।
भारत के शीर्ष संगीत समारोहों में इन दोनों प्रकार के संगीत का एक आदर्श मिश्रण है। एसे अलग गीत प्रकार पेष किए जाते हैं।

यह भारतीय शास्त्रीय संगीत के दो प्रमुख शैली में से एक है। इस शैली में संगीत संरचना और उसमें तत्वकालिकता की संभावनाओं पर अधीक
के न्द्रित होती है। इस शैली में “शुद्ध स्वर सप्तक या प्राकृ तिक स्वरों के सप्तक” के पैमाने को अपनाया गया है। ११वीं और १२वीं शताब्दी में
मुस्लिम सभ्यता के प्रसार ने भारतीय संगीत की दिशा को नया आयाम दिया। "मध्यकालीन मुसलमान गायकों और नायकों ने भारतीय संस्कारों
को बनाए रखा। "ध्रुपद, धमर, होरी, ख्याल, टप्पा, चतुरंग, रससागर, तराना, सरगम और ठु मरी” हिंदुस्तानी संगीत शैली में गायन की दस
मुख्य शैलियाँ हैं। ध्रुपद को हिंदुस्तान शास्त्रीय संगीत का सबसे पुराना गायन शैली माना जाता है, जिसके निर्माता स्वामी हरिदास को माना जाता
हैं।
कर्नाटक संगीत में कं ठ संगीत पर ज़्यादा बाल दिया जाता हैं, जबकी हिंदुस्तानी संगीत में गायन और वादन दोनों ज़रूरी माने जाते हैं। इसके
हिसाब से अलग प्रस्तुतिकरण देखने को मिलते हैं।

संगीत बैंड़ भारत में काफ़ी समय से चलते आ रहे हैं,जिनको तमील में पल्लियम और संगीत मेलम कहाँ जाता हैं। इनके लिए बजाए गए गीत प्रकार
वाद्य प्रबंध के नाम से जाने जाते हैं।
दक्षिण के मंदिरों में संगीत का एक सुंदर, अलग माहौल हैं। अलग रचनाएँ गाए और बजाए जाते हैं, और इस्से पता चलता हैं कि हमारी संगीत की
समृद्धि कितनी दूर तक फ़ै ली हुई हैं।

अष्टवाद्य (१८ वाद्य) भी कु छ मंदिरों में बजाए जाते हैं।


भेरि, ड़मरुका, ढ़ावला, दिंदिमा, दुनदुभी, कहला, मड्डाला, मड्डू का, मृदंग, नुपुरा, पनवा पटाह, सब्दा, ताला, तुम्बूरा, तूर्या, वेनू और विना, यह
इन १८ वाद्यों के नाम हैं। ( South Indian Music Book 1- पृष्ठ ११९)

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पंचवाद्यों का उपयोग के रला के मंदिरों में होता हैं। ( इढ़क्का, तिमिला, चेनड़ा, चेन्नाला और कोम्बु) इन्को पंच तूर्या नाम से जाना जाता हैं।
( South Indian Music Book 1-पृष्ठ ११९)

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४.३ कर्नाटक संगीत शैली की विशेषताएं

1. इस शैली में ध्वनि की तीव्रता नियंत्रित की जाती है। कुं डली स्वरों का उपयोग किया जाता है।
2. कं ठ संगीत पर ज़्यादा बल दिया जाता हैं ।

3. इस शैली में ७२ प्रकार के राग होता हैं ।

4. तत्वकालिकता के लिए कोई स्वतंत्रता नहीं होती है और गायन शैली की के वल एक विशेष निर्धारित शैली होती हैं ।

5. स्वरों की शुद्धता, श्रुतियों से ज्यादा उच्च शुद्धता पर आधारित होती हैं ।

6. शुद्ध स्वरों की ठाट को ऽमुखरीऽ कहा जाता हैं ।

7. समय अवधि कर्नाटक संगीत में अच्छी तरह से परिभाषित हैं। मध्य ऽविलाम्बाऽ से दो बार और ऽध्रुताऽ मध्य में से दो बार हैं ।

संगीत रचनाकारों का प्रभाव कर्नाटक संगीत में काफ़ी दिखाई देता हैं। बहुत से रचनाकारों ने संगीत के लिए योगदान किया हैं, जैसे तिरुगनाना
संबंदर, अरनगीरिनाथर, पुरंदरदास और क्षेत्राय्या। इन्होंने हज़ारों गीतों कि रचना कि हैं।त्यगराज का नाम तो सर्वप्रथम आता हैं, और उन्होनें
अलग संगीत प्रकारों कि रचना कि हैं। ( South Indian Music Book1-पृष्ठ ११६)

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४.४ कु छ समस्याएँ और ऑल इंडिया रेडियो का योगदान

कर्नाटक संगीत में आजकल वीणा कलाकारों की समस्या बड़ती जा रही हैं। कं ठ संगीत और वायलिन कार्यक्रमों में जितने कम श्रोतक होते हैं,
वीना कार्यक्रमों में उस्से काफ़ी कम श्रोतक आते हैं। वीणा एसा वाद्य हैं जिसमें इतनी बारिखियाँ और मुर्खियाँ होती हैं कि श्रोताओं का ध्यान
रखना काफ़ी मुश्किल हो जाता हैं।
उत्तर हिंदुस्तानी कार्यक्रमों में यह समस्या इतनी नज़र नहीं आती।
उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में पहले ध्रुपद का महत्त्व काफ़ी था, लेकिन अब ख्याल का युग होने के कारण ध्रुपद पिछे हट गया हैं। यह रागों के
प्रस्तुतिकरण में दिखाई देता हैं।

श्री आरियाकु ड़ी रामानुजा एैयंगार ने कर्नाटक संगीत पर सालों के लिये राज किया था, ६ दशक के लिये। सारे संगीतकार इस बात के शुक्रगुजार
है,आज तक। उन्होंने सबसे पहले कच्छेरी का निर्माण किया था। उनकी आवज़ सुनकर लोगों को काफ़ी आनंद होता था। ( The Hindu
Speaks On Music- ३.१)
१९५४ में उन्हें संगीत नाटक अकादमी फै लोशिप से सम्मानित किया गया, जो संगीत नाटक अकादमी , भारत की राष्ट्रीय संगीत, नृत्य और
नाटक अकादमी द्वारा प्रदान किया जाने वाला सर्वोच्च सम्मान है । इसके बाद १९५८ में भारत सरकार द्वारा उनको पद्म भूषण दिया गया।
आजकल संगीत कि दिशा और परिस्थिती पुरी तरह बदल गयी है,जो श्रोताओं और कलाकरों के बदलते नज़रियाँ द्वारा पता चलता हैं।
ऑल इंडिया रेडियो ने एक बहुत ज़रुरी योगदान किया हैं, कर्नाटक संगीत के विकास में।

आजकल संगीत कि दिशा और परिस्थिती पुरी तरह बदल गयी है,जो श्रोताओं और कलाकरों के बदलते नज़रियाँ द्वारा पता चलता हैं।
ऑल इंडिया रेडियो ने एक बहुत ज़रुरी योगदान किया हैं, कर्नाटक संगीत के विकास में।
कार्यक्रम घंटों के ६० प्रतिशत संगीत को समर्पित किया जाता हैं। अलग कर्नाटक संगीत प्रकार जैसे रागम्, तानम और पल्लवि पेष किये जाते हैं।
इतना ही नहीं, हिंदुस्तानी संगीत के प्रति दक्षिण भारत के लोगों में उत्साह जगाने के लिये भी अलग कार्यक्रम मौजूद हैं। पं स.न. रातंसंकर ने
अंग्रेज़ी में ४ अलग भाषण दिये हैं, जो हिंदुस्तानी संगीत के बारे में हैं।
वीणा और सितार के जुगलबंदी का कार्यक्रम हुआ था, जिसमें दोनों पद्धती के अलग राग ( शुभपंतुवराली और तोड़ी) को पेश किया गया था,
और मृदंगम और तबला दोनों क उपयोग किया गया था ( पलनी पिल्लई और अनोखेयलाल)। ( The Hindu Speaks On Music-
१२.५ पृष्ठ ५७४)

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४.५ रागों पर आधारीत कु छ गीत

इन सारे बातो से यह समझ में आ जाता हैं कि रागों के स्वरों में इतना अंतर ना हो, पर इनके प्रस्तुतिकरण में काफ़ी अंतर हैं, जिसे उत्तर और
दक्षिण संगीत पद्धतियों के बिच क फ़र्क समझ में आ जाता हैं।
निचे दिये हुए कु छ बंदिश हैं जो इन षाड़व जाति के रागों पर आधारित हैं।

राग जनसम्मोहिनी राग सालग वराली


निसदिन जो हरि का गुण गाए सुमीर साहिब सुलतान

राग जनसम्मोहिनी का प्रभाव फ़िल्मी गानो में काफ़ी दिखाई देता हैं। इसके अलावा इन दोनों रागों में बंदिश, किर्तनम जैसे गीत प्रकार होते हैं।
सालग वराली का प्रभुत्वा उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में इतना नहीं हैं, पर कभी कबार यह राग मंच पर पेश किया जाता हैं।
कर्नाटक संगीत में ज़्यादातर वादन को महत्व दिया जाता हैं, और यह कार्यक्रमों में नज़र आता हैं।

उत्तर हिंदुस्तानी संगीत में गमकों का इतना उप्योग नहीं होता, और अनुनासिक आवाज़ कम से कम प्रयोग किया जाता हैं। आकार क प्रयोग
उत्तर हिंदुस्तानी में होता हैं, जबकी दक्षिणी संगीत में ना, रा जैसे शब्दों का प्रयोग होता हैं।
जो मुर्खियाँ उत्तर हिंदुस्तानी में लेते हैं, वह दक्षिणी संगीत में नहीं लिया जा सकता हैं।उसमें कं पीत गमकम का प्रयोग होता हैं।
ध्रुपद और ख्याल उत्तर संगीत पद्धती कि ख़ासियत हैं, और क्रिती दक्षिणी संगीत कि ख़ासियत हैं।
दक्षिणी संगीत में ज़्यादा राग बनाया जा सकता हैं, उत्तर संगीत की तुलना में।
सिर्फ़ तानपुरा ही एसा वाद्य हैं जो दोनों पद्धतियों में एक समान हैं। बाकी सारे वाद्य बिल्कु ल ही अलग हैं।

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४.६ संदर्भ

1. प्रो. सामबामुर्ति -South Indian Music Book 1- प्रकरण १ पृष्ठ १६


2. https://www.thehindu.com/entertainment/music/the-charm-lies-in-the-difference-between-
hindustani-and-carnatic/article34841775.ece
3. https://www.aathavanitli-gani.com/Raag/Jansammohini
4. The Hindu Speaks On Music (११.२३, ७.८,३.१, १२.५)
5. http://www.differencebetween.net/miscellaneous/culture-miscellaneous/the-difference-
between-hindustani-and-carnatic-music/
6. https://saptswargyan.in/raag-janasammohini/
7. https://myviewsonbollywood.wordpress.com/tag/similarities-between-raga-kalavati-and-
raga-janasammohini/
8. https://www.raagbased.com/2021/08/hindi-film-songs-in-raag-janasammohini.html
9. https://meetkalakar.com/Artipedia/raga-janasammohini
10.https://www.thehindu.com/entertainment/music/the-bridges-between-carnatic-and-
hindustani-are-growing-steadily-stronger/article29529079.ece

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प्रकरण ५- संपूर्ण जाति के राग जो दोनों पद्धतियों में गाए जाते हैं।

यह प्रकरण सारे संपूर्ण जाति के रागों के बारे में हैं। पहले प्रकरणों के तरह इस प्रकरण में भी सारे रागों कि जानकारी और प्रस्तुतिकरण में अंतर,
एसे चिज़े इस प्रकरण में होंगे। किरवानी और चारुके शी एसे राग हैं जिसमे अलग गीत प्रकार गाये जाते हैं। किरवानी में काफ़ी सारे लोकप्रिय बंदिशें
पेश किये जाते हैं।
राग तो हिंदुस्तानी संगीत का एक ज़रुरी हिस्सा हैं, उत्तर और दक्षिण दोनो पद्धतियों में। भारतीय संगीत की कई किस्में हैं जैसे शास्त्रीय संगीत,
लोक संगीत, फिल्मी संगीत, भारतीय रॉक और भारतीय पॉप। भारतीय संगीत के सभी रूपों को दो प्रकार के संगीत में सूचीबद्ध किया गया है,
अर्थात हिंदुस्तानी संगीत और कर्नाटक संगीत।

राग को भारत का संगीत जगत में महत्वपूर्ण योगदान माना गया हैं। सारे लोकप्रिय गीत किसी न किसी राग पर आधारित हैं। इस्से यह समझ में
आ जाता हैं कि राग का प्रभूत्व और महत्व कितना हैं।मनोधर्म संगीत एक अहम हिस्सा हैं, क्योंकि कार्यक्रमों में ना के वल संगीतकारों के रचना
सुनने को मिलते हैं, पर कलाकार के रचनात्मक संगीत सुन्ने को मिलता हैं। कलाकर एक संपर्क का माध्यम होते हैं, रचनाकर और श्रोताओं के
बीच में। यह श्रोताओं को प्रसन्ता दिलाती हैं। स्वर वर्णों द्वारा यह रागों को और खूबसूरत बनाती हैं।

दक्षिणी संगीत में काफ़ी सारे गीत प्रकार उत्पन्न हुए हैं। इनको तीन प्रकार में देखा जा सकता हैं-
 गीत प्रबंध
 वाद्य प्रबंध
 नृत्य प्रबंध

दक्षिण हिंदुस्तानी संगीत में वाद्य संगीत को ज़्यादा महत्व दिया जाता हैं, और गायन और वादन के बीच कु छ फर्क दिखने को मिलता हैं। इसके
बारे में निचे के भाग में दिया गया हैं।
आवाज़ तो इन्सान के अंदर ही रहता हैं, और वो जब चाहे इसे ले जा सकता हैं। पर एक वादक को हर वक्त अपना वाद्य उठाकर लेकर आना
पड़ता हैं।

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५.१ संपूर्ण जाति के राग

राग किरवानी- यह कर्नाटक संगीत से हिन्दुस्तानी संगीत में लिया हुआ राग हैं । इस राग का वाद्य संगीत में ज्यादा प्रयोग किया जाता है। यह
चंचल प्रक्रु ति का राग होने कि वजह से इसमे ठु मरी जैसी बंदिशें ज्यादा प्रचिलित हैं। फिल्म संगीत में भी इस राग का बहुत उपयोग किया जाता
हैं।
इस राग में काफ़ी सारे प्रसिद्ध नाट्यगीत और बंदिश हैं। कट्यार कलजट घुसली में दिल की तपिश गाना राग किरवानी पर आधारित हैं। इस राग
में गंधार और धैवत कोमल लगते हैं। इस राग का गायन वादन समय सायंकाल हैं। वादी स्वर षडज और संवादि स्वर पंचम हैं।
सा रे ग म ध प ; ध प म ग रे ग म प ; प ध नि सा' नि ध प ; प ध नि सा' ; प ध सा' रे' ; सा' रे' ग' रे' सा' नि ध प ; प ध नि रे' नि ध ; नि
ध म ; ध म ग रे ; ग प म ग रे सा ,नि ; ग रे सा ,नि , ध ,नि रे सा ;

किरवानी में यूं तो खयाल भी गाया बजाया जाता है लेकिन इस राग को सुगम संगीत या लाइट म्यूजिक के लिए बहुत लाभकारी माना जाता है।
यही वजह हैं कि किरवानी में एक से बढ़कर एक फिल्मी गाने, ग़ज़लें और भजन कं पोज किए गए हैं। श्रृंगार, खास तौर पर वियोग श्रृंगार वाले गाने
किरवानी में खूब खिलते हैं। किरवानी में गंधार और धैवत कोमल होते हैं और बाकी स्वर शुद्ध। आरोह और अवरोह दोनों में सारे स्वर लगते हैं
इसलिए इसकी जाति कहलाती है संपूर्ण-संपूर्ण। किरवानी को पीलू के काफ़ी करीब जाता हैं ।
हिंदुस्तानी शास्त्रीय राग नोट्स के एक सेट पैटर्न का पालन करते हैं, राग किरवानी पर आधारित फिल्मी गाने जरूरी नहीं कि इस राग के हर
नियम का पालन करें। संगीतकार नोट्स के साथ प्रयोग करने की स्वतंत्रता लेते हैं और के वल गीत की माधुर्य को बढ़ाने के लिए सेट पैटर्न से
विचलित हो सकते हैं।
गानों के नोटेशन को संक्षेप में बताते समय भी ऐसा ही है। इसलिए, यह सलाह दी जाती हैं कि आपको इस वेबसाइट में दिए गए मूल नोटेशन के
साथ प्रयोग करना बंद नहीं करना चाहिए और अपनी सुविधा के अनुसार सुधार करना जारी रखना चाहिए।
किरवानी से कई तरीकों से संपर्क किया जा सकता है। "सख्त" किरवानी के अलावा, जौनपुरी और दरबारी के संपर्क में लाने का एक तरीका है।
इन रागों के कु छ मिजाज लाने के लिए थोड़ा सा म्यूजिकल लाइसेंस लिया जा सकता है। विशेष रूप से मैंने जौनपुरी-ईश अंग को मुहावरे में
अपनाया हैं जहां करुणा की भावना को जगाने के लिए बहुत सारे स्पर्श, कं पन आदि का उपयोग किया जा सकता हैं ।
ये राग चंचल प्रकृ ति का है इस वजह से इसमे ठु मरी ज्यादा बनती हैं। इस राग का उपयोग बहुत सारे फ़िल्मी गानों में भी हुआ हैं ।

राग चारुके शी- राग चारुके शी एक एसा राग है जिसे दक्षिण भारतीय संगीत पद्धति से लिया गया है। यह बहुत ही मधुर राग है जिसे तीनों सप्तकों
में बिना किसी स्मस्या के गाया जा सकता है। धैवत और निषाद कोमल होने के कारण यह राग उत्तरांग मे अनूठी सुंदरता दर्शाता हैं।
कर्नाटक पध्दति के चारुके शी मेल से उतपन्न राग हैं, जिसमें धैवत और निषाद कोमल हैं।
इस राग में पंचम स्वर को कभी-कभी आरोह और अवरोह में छोड़ा जाता है जैसे - ग म ध प और प ध नि ध म ग रे। इस राग में कई रागों की
छाया दिखाई देती है जैसे- सा रे ग म: नट अंग, ग म ध प:भैरव अंग, नि सा' रे' सा' ध ; ध नि रे सा' - दरबारी की छाया, रे ग म रे सा - नट
भैरव अंग। इन सभी अंगों के मिश्रण से ही राग चारुके शी का अपना स्वतंत्र अस्तित्व सामने आता है। पंचम वादी स्वर और षडज संवादी स्वर हैं।
यह एक संपूर्ण जाती का राग हैं; सारे सुर लगते हैं। दक्षिणात्य राग होने के कारण यह तो स्पष्ट है कि राग मिश्रण के आधार पर प्रस्तुत राग की
रचना नहीं की गई होगी। ऐसा अनुमान है कि राग किरवानी में गंधार शुद्ध, निषाद कोमल करके अथवा संपूर्ण आसवरी में गंधार शुद्ध करके प्रस्तुत
राग की रचना की गई होगी।
जो राग कर्नाटक पद्धति से लिये जाते हैं, उन रागों को किसी थाट में वर्गीकृ त नहीं किया जा सकता। इसलिये किरवानी को आम तौर पर किसी
भी थाट में नहीं ढ़ाला जा सकता। मेरे संशोधन के सारे छु ने हुए रागों को थाट में वर्गीकृ त नहीं किया जा सकता। पं जितेंद्र अभिषेकी के प्रसिद्ध
नाट्यगीत "हे सुरांनो चंद्र व्हा" राग चारुके शी पर आधारित हैं।
बैंया ना धरो, एक फ़िल्मी गाना, चारुके शी राग क महत्वपूर्ण उदाहरण हैं।
यह 5 वें चक्र बाण में दूसरा राग है ।
(चतुश्रुति ऋषभम, अंतरा गंधराम, शुद्ध मध्यमम, शुद्ध धैवथम, कै सिकी निषाद)
यह एक संपूर्ण राग है - एक ऐसा राग जिसमें सभी सात स्वर (नोट) होते हैं। यह ऋषभप्रिया का समप्राकृ तिक शुद्ध मध्यम है, जो ६२वां
मेलाकार्ता हैं ।

41
42
५.२ गायन और वादन में कु छ ज़रुरी फ़रक

गायन और वादन संगीत के दो ज़रुरी भाग हैं, लेकिन दोनो के बिच में काफ़ी सारे फ़रक हैं। (South Indian Music- भाग २
Appendix ४)

1. आवाज़ प्रकृ ति कि देन हैं,और देखा जाये तो सब आसानी से इसका उप्योग कर सकते हैं, जबकी वाद्यों का उप्योग करना एक ऐसी कला हैं जिसे
सिखना पढ़ता हैं।
2. आवाज़ देखी नहीं जा सकती, पर सबके पास होती हैं, लेकिन एक वाद्य एक भारी चिज़ होती हैं जिसे देखा जा सकता हैं।
3. साहित्य कि खूबसूरती को जिस तरीके से गायन द्वारा प्रस्तुत किया जाता हैं, वैसा वादन द्वारा नहीं किया जा सकता। उदहरण के तौर पर-
यमाकम, स्वरकशरा, सब्दालनकारा, अंत्य पासा, अनुप्रासा, याती पैर्टन, कोन्दु कु ट्टी , और राग मुद्रा, ताला मुद्रा, क्षेत्र मुद्रा इत्यादी को वाद्य
संगीत द्वारा नहीं पेश किया जा सकता।
4. साहित्य भाव संगती का प्रभाव गायन में ही होता हैं, और निरावली (कृ ती में) और पल्लवी भी।
5. लेकिन वाद्य संगीत का महत्व को अनदेखा नहीं किया जा सकता। वाद्य संगीत के कारन ही रागों कि मुर्खियाँ और बारिकियों को जानने को
मिलता हैं।
6. वाद्य के बिना तो कार्यक्रम अधुरा ही रह जाता हैं; कलाकार अपना गायन वाद्यों के बिना पेश नहीं कर पाएँगे।
7. गाने के नोटेशन को अगर परिशुद्ध तरिके से पेश करना हैं, तो वाद्य संगीत द्वारा ही यही संभव हैं।
8. वाद्यों की सप्तक कि क्षमता ५ से ७ हैं, जबकी एक कु शल गायक ३ सप्तक में गा सकता हैं।
9. एक गायक आम तौर पर एक अनुभवी वादक के साथ अपनी कला प्रस्तुत करना चाहेगा, अपना खुद का अनुभव बढ़ाने के लिये।
10.वादन की क्षमता श्रोतकों तक पहुँचने के लिये ज़्यादा हैं, गायन कि तुलना में।
11.एक वादक गायक भी होता हैं, कयोंकि उसे सुर की जानकारी होती हैं, जिसे वे गायक को आसानी से साहयता कर सके ।गाने का मुखड़ा गाकर
ही वो वाद्य पर उतने ही अच्छे तरिके से बजा सकता हैं।
12.एक वादक को अपना वाद्य ट्यून करना पड़ता हैं, जबकी एक गायक एसे ही अपनी कला प्रस्तूत कर सकता हैं।
13.लाईट संगीत के गाने कं ठ के माध्यम से ज़्यादा आकर्षक लगते हैं।
14.वादन को समझने के लिये संगीत के बारे में, और वाद्य बजाने क तरिका को भी ध्यान में रखना पड़ता हैं, लेकिन गायन में ऐसा नहीं हैं।
15.उमर का प्रभाव आवाज़ पर दिखाई देता हैं, पर वाद्यों पर ऐसा कोई प्रभाव नहीं पड़ता।
५.३ राग और कु छ मुख्य फ़रक

रागों का सौंदर्य अलग स्वर द्वारा बनाये जाते हैं। कलपिता संगीत एसा संगीत हैं जो पहले बनाया गया हैं, अर्थात एसे रचना जिनकी रचना पहले
हो चुकी हैं। कल्पिता संगीत और मनोधर्मा संगीत द्वारा राग दिखते हैं। दुसरे प्रकार को हिंदुस्तानी संगीत का मुख्य विशेषता मानी जाती हैं।
सिर्फ़ अलग रचना नहीं, पर एक कार्यक्रम में कलाकारों की कला सुन्ने को मिलता हैं। इन विविध रागों की अभिव्यक्ति के लिए कई स्वरुपों का
निर्माण हुआ।साम-गान से शुरु कर वृत्त, छंद, गीत और प्रबंध जैसे कई स्वरूप बाद के वर्षों में लोकप्रिय हुए। प्रबंध- स्वरूप का प्रथम उल्लेख
मतंग की बृहद्देशी में मिलता हैं।
हिंदुस्तानी और कर्नाटक की वर्तमान बंदिशों की प्राचीन प्रबंधों के साथ तुलना करने से पता चलता हैं कि इस प्रकार से इनमें मेल नहीं है ।
विभिन्न राग और तालों का प्रयोग किया गया हैं, जिस्से दोनों पद्धतियों के बीच का फ़र्क के बारे में पता चलता हैं।
वे भारतीय संगीत की नींव हैं। हालांकि हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत रागों को साझा करते हैं, रागों के नाम और प्रदर्शन शैली अलग-अलग हैं।
रागों के संदर्भ में, हिंदुस्तानी संगीत के छह प्रमुख मुखर रूप हैं: ध्रुपद, ख्याल, तराना, ठुमरी , दादरा और गजल। दूसरी ओर, कर्नाटक संगीत
में अल्पना, निरावल, कल्पनास्वरम और रागम थाना पल्लवी सहित 72 रागों की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है।
हिंदुस्तानी संगीत में, छह मुख्य राग और दस मोड या थाट हैं। कर्नाटक पैमाने में सात नोट हैं जिनमें सेमिटोन होते हैं और मधुर बाधाओं के साथ
आते हैं।
एक ओर, हिंदुस्तानी संगीत ताल पर कें द्रित है, जो लयबद्ध पैटर्न (लया का विचार) हैं। दूसरी ओर, कर्नाटक संगीत, प्रदर्शन करते समय पिच
(सावरा विचार) पर बहुत जोर देता है।

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कर्नाटक संगीत को एक विशिष्ट तरीके से गाने के लिए लिखा गया है। हिंदुस्तानी संगीत में गायन शैली कम महत्वपूर्ण है, हालांकि कई गायन
परंपराएं हैं जैसे घराना जिनकी जड़ें प्राचीन हिंदू परंपराओं में हैं।

सामान्य तौर पर, पारंपरिक कर्नाटक संगीत प्रदर्शन में एक गायक, एक वायलिन वादक और एक तालवादक होता है। गायक शैली पर जोर देने के
साथ, इस शास्त्रीय संगीत शैली को और अधिक सुधारित किया जा सकता है इसलिए यह जटिल है। इसका मतलब यह है कि कर्नाटक संगीत
संगीत के 'गायकी' कारक को बहुत आगे बढ़ाता है; यानी, वाद्य पहलू के बजाय मुखर पहलू। इसके अलावा, दर्शकों की भागीदारी को "ताला
रखने" के रूप में दृढ़ता से पसंद किया जाता है, जो पैरों और हाथों की गिनती से समय रखने में सहायता करता हैं।

बंदिश

राग किरवानी- अब तो भई भोर


राग चारुके शी- उतराई ना लेहों तोरी

दक्षिण पद्धती में देखा जाए, तो वादन का उप्योग ज़्यादा होता हैं, उत्तर पद्धती की तुलना में। यह हमेशा से एक मुख्य अंतर राहा हैं, इन दोनों
पद्धतियों में। आजकल उत्तर पद्धति संगीत के प्रति दक्षीण भारत में जागृति बड़ गई हैं।
इसके विपरीत, आजकल तो उत्तर हिंदुस्तानी के कार्यक्रमों में कर्नाटक संगीत के राग /गीत प्रकार पेश किए जाते हैं।
हिंदुस्तानी संगीत की उत्पत्ति दिल्ली सल्तनत और अमीर खुसरो (१२३३-१३२५ ईस्वी) से मानी जाती हैं, जो फारसी, तुर्की, अरबी और साथ
ही ब्रज भाषा के संगीतकार हैं। उन्हें हिंदुस्तानी संगीत के कु छ पहलुओं को व्यवस्थित करने और यमन कल्याण, ज़ीलफ़ और सर्पदा जैसे कई
रागों को पेश करने का श्रेय दिया जाता हैं ।
उन्होंने कव्वाली शैली की रचना की, जो फारसी राग को जोड़ती है और ध्रुपद जैसी संरचना पर ताली बजाती है। उनके समय में कई वाद्ययंत्र
(जैसे सितार) भी पेश किए गए थे।
हिंदुस्तानी संगीत ज्यादातर उत्तर भारत में लोकप्रिय हैं । जब मध्यकालीन भारत में फारसी तत्व लोकप्रिय हो गए, तो इससे हिंदुस्तानी संगीत
का उदय हुआ। ध्रुपद को हिंदुस्तानी संगीत की सबसे पुरानी रचना माना जाता है , जो स्वामी हरिदास की रचना है । समय के साथ ख्याल,
ठुमरी, थप्पा तिराना आदि हिंदुस्तानी संगीत की विशिष्ट शैलियों के रूप में विकसित हुए।

पुरंदर दास को संगीत की कर्नाटक शैली का संस्थापक माना जाता है। कर्नाटक शैली के विकास का श्रेय मुख्यतः तीन संगीतकारों को जाता है-
श्यामा शास्त्री, त्यागराज और मुथुस्वामी दीक्षित । उन्हें कर्नाटक संगीत का त्रिरत्न कहा जाता है। इनका काल १७०० से १८५०ई. उनके
अलावा कर्नाटक संगीत के तीन मुख्य प्रतिपादक क्षेत्र राजन, स्वाति तिरुनल, सुब्रमण्य भारती थे । उन सभी को कर्नाटक संगीत के सात महान
प्रतिपादकों में माना जाता हैं ।

कर्नाटक संगीत से जुड़े वाद्य वादन में लया को महत्वपूर्ण माना जाता है। सेमंगुड्डी, मल्लिकार्जुन मंसूर, गंगूबाई हंगल, रामानुज अयंगर, श्रीनिवास
अय्यर और एम एस सुब्बुलक्ष्मी इस शैली के संगीत के प्रसिद्ध संगीतकार हैं। यह शैली दक्षिण भारतीय राज्यों कर्नाटक, तमिलनाडु , आंध्र प्रदेश
और तेलंगाना में लोकप्रिय हैं ।
हिंदुस्तानी और कर्नाटक दो प्रकार के संगीत हैं जो न के वल अलग हैं, बल्कि जीवन के सभी क्षेत्रों में मौजूद उत्तर-दक्षिण विभाजन को भी दर्शाते
हैं। हालांकि जो लोग अपरिचित हैं, उनके लिए संगीत की दुनिया में यह एक दिलचस्प यात्रा होती हैं।
दिन के एक विशिष्ट समय से जुड़ने वाले गीतों का प्रदर्शन हिंदुस्तानी संगीत में विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। यदि गीत दोपहर के बारे में हैं तो इसे
शाम को नहीं गाया जाएगा। कर्नाटक संगीत की ऐसी कोई सीमा नहीं है।
कर्नाटक संगीत में अक्सर आध्यात्मिक और दार्शनिक विषय शामिल होते हैं। दूसरी ओर, हिंदुस्तानी संगीत में ग़ज़ल, काजीरी, ठुमरी और भजन
(सामाजिक प्रकृ ति या पौराणिक) सहित सामग्री की एक विस्तृत श्रृंखला शामिल है।

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हिंदुस्तानी गायकों को सुधार करने की आजादी है। इसमें आशुरचना का एक निश्चित प्रारूप है जो अधिक महत्व का है। कर्नाटक संगीत में,
हालांकि, कामचलाऊ व्यवस्था के लिए कोई जगह नहीं है, इसलिए रचना को प्राथमिकता मिलती है। क्योंकि कर्नाटक संगीत में गायन का एक
विशिष्ट तरीका है, यह हिंदुस्तानी संगीत की तुलना में अधिक कठोर प्रतीत होता हैं। हिंदुस्तानी संगीत में, मुखर संगीत पर प्रमुख जोर दिया जाता
है; अर्थात्, एक मुखर-कें द्रित समूह आवश्यक है, जिसमें के वल गायकों का समर्थन करने के लिए उपकरण बनाए गए हों। दूसरी ओर, कर्नाटक
संगीत, स्वर और वाद्ययंत्र दोनों पर जोर देता है क्योंकि अधिकांश रचनाएँ गायकी प्रारूप में होती हैं।
हिंदुस्तानी संगीत एक ऐसी शब्दावली को अपनाता है जो अत्यधिक औपचारिक होती है और शब्दों की अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट नहीं होती है। दूसरी
ओर, कर्नाटक संगीत में शब्दों की अभिव्यक्ति बहुत स्पष्ट होती है और कलाकार की मनोदशा को व्यक्त करने में शब्दों का अर्थ और उच्चारण बहुत
महत्वपूर्ण होता हैं।
हिंदुस्तानी संगीत बहुत वाक्पटु है, और अक्सर धीमी गति में लंबे नोट मूल्यों के साथ। कलाकार जिस भावना को व्यक्त करने का प्रयास कर रहा
है, उसके आधार पर संगीत की तीव्रता बढ़ती और गिरती है।
इस बीच, कर्नाटक संगीत में छोटे नोट मूल्यों और अधिक सुसंगत लय के साथ, टेम्पो अक्सर तेज होता है। इसका मतलब यह है कि यह लंबे
धीमी गति के चरण बनाता है जो एक छोटे टुकड़े की संरचनात्मक विशेषताओं को डिजाइन करता हैं।
दो संगीत संस्कृ तियों के बीच, संगीत वाद्ययंत्र भी भिन्न प्रतीत होते हैं। दो प्रकार के संगीत में एक गायक के साथ उपयोग किए जाने वाले संगीत
वाद्ययंत्रों के बीच कु छ समानताएं और विरोधाभास हैं ।
हिंदुस्तानी संगीत में तबला, सारंगी, सितार, संतूर और शहनाई जैसे वाद्ययंत्र शामिल हैं। इस बीच, कर्नाटक संगीत वीणा, मृदंगम, मैंडोलिन और
जलतरंगम जैसे वाद्ययंत्रों का उपयोग करता है।
दोनों वायलिन और बांसुरी का उपयोग करते हैं। चूंकि कर्नाटक संगीत मुख्य रूप से मुखर होता है, इसलिए वाद्य पर कोई भी राग गायन शैली में
होता हैं।
राग एक मधुर पैमाना है जिसमें मूल सात स्वर होते हैं। हिंदुस्तानी संगीत मुखर कें द्रित है । हिंदुस्तानी शास्त्रीय संगीत से जुड़े प्रमुख मुखर रूप हैं
ख्याल, ग़ज़ल, ध्रुपद, धम्मर, तराना और ठु मरी।
संगीत रोजमर्रा की जिंदगी का एक महत्वपूर्ण तत्व हैं। इस क्षेत्र के शोध से पता चलता है कि संगीत अनुभूति, भावना और व्यवहार पर काफी
प्रभाव डाल सकता है । यह यह भी इंगित करता है कि लोग भावनाओं के नियमन से लेकर आत्म-अभिव्यक्ति से लेकर सामाजिक बंधन तक,
विभिन्न कार्यों को पूरा करने के लिए संगीत का उपयोग करते हैं।
दोनों (कर्नाटिक और हिंदुस्तानी) में आवाज संस्कृ ति, शैली आदि के संदर्भ में कु छ भिन्नताएं हैं। दोनों को एक साथ सीखने की कोशिश करना
एक-दूसरे के साथ गंभीर रूप से हस्तक्षेप कर सकता है, जो गायक प्रगति में बाधा डालेगा। किसी एक को सीखना और उसमें महारत हासिल
करना और फिर दूसरे संगीत की ओर बढ़ना बेहतर हैं।

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५.४ संदर्भ

1. पं रामाश्रय झा "रामरंग" -आभिनव गीतांजलि भाग ४ पृष्ठ २४८


2. https://www-jagranjosh-com.translate.goog/general-knowledge/do-you-know-the-difference-
between-hindustani-music-and-carnatic-music-
3. https://theqna-org.translate.goog/hindustani-and-carnatic-music-similarities-differences/?_
4. https://learn-podium-school.translate.goog/music/hindustani-and-carnatic-music/?_
5. प्रो. सामबामुर्ति - South Indian Music- भाग २
6. https://raagparichay.in/index.php/gharana
7. https://moviecultists-com.translate.goog/what-is-the-difference-between-hindustani-and-
carnatic-music?

निष्कर्ष 
इन दोनों पद्धतियों में बहुत सम्मन्ताएँ और विषेशताएँ हैं, जो इन सारे रागों द्वारा पता चलता हैं। इस संशोध कार्य द्वारा मुझे काफ़ी सारे चिज़े पता
चली। किस प्रकार अलग राग हैं जो अलग तरीके से पेश किए जाते हैं, और कै से इनकी अपनी पहचान बनती हैं। हमारी सांगितिक परंपरा इतने
सालों से चलती आ रही हैं, और इसको समझने के लिए एक अलग नज़रिया से देखना पड़ता हैं।
हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों में नव रस या नौ बुनियादी भावनाएं हैं; अर्थात्, प्रेम, घृणा, हास्य, आतंक, आश्चर्य, क्रोध, वीरता, करुणा
और शांति जो सभी भारतीय सौंदर्यशास्त्र के लिए मौलिक हैं।
इसके अलावा, हिंदुस्तानी और कर्नाटक संगीत दोनों में जनक थाट (जन्य राग) को परिभाषित करने के लिए ऑक्टेव (पश्चिमी संगीत) या
संपूर्ण स्के ल जिसे सप्तक (भारतीय शास्त्रीय संगीत में) भी कहा जाता है, के भीतर मूल ७ संगीत नोट्स तथाकथित स्वर हैं।
एसे अलग चिज़े मैंने अपने इस संशोध से सिखी, और मुझे लगता हैँ कि आगे जाकर इन दो परंपराओं के बिच की दूरी और नज़दीक बन जाएगी।

हमारी सांगीतिक परंपरा इतनी विशाल हैं, और इन दोनों पद्धतियों की अगर तुलना किया जाए, तो पता चलता हैं कि काफ़ी सारे भिन्न्ताएँ भी हैं।
वाद्य, गीत प्रकार, मंच प्रदर्शन में इन सारे भिन्न्ताएँ के बारे में पता चलती हैं। दोनों पद्धतियों के रागों के अंग अलग प्रकार के हैं, और यह कारन
हैं कि स्वर एक होने के बाद भी पेश करने का तरिका अलग हैं। संगीत रत्नाकार का एक बहुत बड़ी भूमिका हैं, और उत्तर और दक्षिण पद्धतियों के
बारे में काफ़ी जानकारी मिलती हैं।
ताल पद्धिती में के संदर्भ में उत्तर और दक्षिण संगीत में फ़र्क दिखाई देता हैं। वाद्यों क प्रयोग, रागों कि प्रस्तुतिकरन, इन सभी विषयों पर इन
दोनों पद्धतियों में मुख्य फ़र्क दिखाई देता हैं।भारतीय सांगितिक परंपरा को जानने के लिए मैंने यह विषय चुना हैं, और इस के ऊपर संशोधन
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करने के बाद मुझे काफ़ी जानकारी प्राप्त हुई हैं। इस संदर्भ में मुझे हमारी सांगितिक परंपरा के बारे में के नया नज़रिया प्राप्त हुई हैं।मुझे अन्य महान
संगीतकारों और रचनाकारों के योगदान के बारे में पता चला हैं, कै से उन्होंने हमारी संगीत कि परंपरा को संभाल कर रखने के लिए कितनी
महनत कि हैं।संगीत एक बहुत विशाल दुनिया हैं, मुखे यह बात पता चली इस परियोजना द्वारा।

इस प्रबंध लेखन द्वारा मुझे काफ़ी सारे चिज़े पता चली।

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