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वारे न हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ (Reforms


and Policies of Warren Hastings) » आधुनिक
इतिहास » Historyguruji
34-43 minutes

क्लाइव के 1767 में इंग्लैंड वापस चला गया और 1772 में एक अंग्रेज़ राजनीतिज्ञ वारे न
हेस्टिंग्स फोर्ट विलियम प्रेसीडेंसी (बंगाल) प्रथम गवर्नर नियुक्त किया गया जो भारत का
प्रथम वास्तविक गवर्नर जनरल रहा।

1767 से 1772 के बीच के पाँच वर्षों में वेरे लस्ट और कर्टियर ने भारत में प्रशासन का
संचालन किया। दोनों ही साधारण योग्यता का प्रशासक थे और प्रशासन को सुव्यवस्थित
करना उनके वश की बात नहीं थी। इन पाँच वर्षों के दौरान क्लाइव द्वारा स्थापित की गई
द्वैध शासन प्रणाली के दोष स्पष्ट दिखाई देने लगे थे। समस्त आंतरिक व्यापार पर कं पनी के
कर्मचारियों का एकाधिकार था जो मनमाने मूल्य पर वस्तुओं को खरीदते और बेचते थे।
इससे भारतीय जुलाहों की दशा बहुत खराब हो गई थी। उन्हें उचित पारिश्रमिक नहीं मिल
पाता था, कभी-कभी उन्हें पीटा भी जाता था और योग्य जुलाहों के अगूँठे तक कटवा लिये
जाते थे।

वेरे लस्ट (1767-1769) ने मालगुजारी वसूलने के लिए उसने आमिलों को सालाना ठे के देने
की नीति शुरू की, जिससे कृ षकों की दशा दयनीय हो गई। बहुत-से किसान अपनी जमीन
बंजर छोड़ दिये या जंगलों में भाग गये। नवाब तथा कं पनी के अधिकारियों की अधिकाधिक
धन बटोरने की आकांक्षा ने बंगाल को पूरी तरह कं गाल कर दिया था। इसी समय 1769-
70 में बंगाल में ऐसा भीषण अकाल पड़ा कि लोग अपनी क्षुधा-पूर्ति के लिए लाशें तक खाने
लगे थे जबकि कं पनी के कर्मचारी चावल की कालाबाजारी में लगे रहे।

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1767 में भारत में अंग्रेजों की स्थिति

बंगाल के बाहर की राजनीतिक स्थिति भी क्लाइव के जाने के बाद बदल गई थी। मराठे
पानीपत की अपनी पराजय से उबर चुके थे और अब वे उत्तरी भारत के क्षेत्रों में छापे मारने
लगे थे। मुगल सम्राट उनकी संरक्षकता में इलाहाबाद से दिल्ली चला गया था। अवध के
नवाब के साथ जो मैत्री-संबंध स्थापित था, वह शिथिल पड़ गया।

कार्टियर के कार्यकाल (1769-72) की एक महत्वपूर्ण घटना थी- प्रथम आंग्ल-मैसूर युद्ध।


दक्षिण भारत में एक सैनिक हैदरअली ने 1761 में मैसूर राज्य पर अधिकार कर लिया था।
मैसूर की विस्तारवादी नीति से भयभीत होकर अंग्रेजों ने हैदराबाद के निजाम और मराठों
से मिलकर हैदरअली के विरुद्ध एक त्रिगुट बनाया था, लेकिन हैदर इस त्रिगुट में तोड़ने में
सफल रहा। हैदरअली ने कर्नाटक पर आक्रमण किया और वह मद्रास पहुँच गया। अंततः
कं पनी को 1769 में हैदरअली से संधि करना पड़ा और जरूरत के समय हैदर को सैनिक
सहायता देने का वादा करना पड़ा था। जब 1771-72 में पेशवा माधवराव ने हैदरअली पर
आक्रमण किया, तो 1769 की संधि के अनुसार मद्रास सरकार ने हैदर की कोई सहायता
नहीं की जिससे हैदरअली अंग्रेजों से नाराज था।

कर्नाटक में आंग्ल-फ्रांसीसी प्रतिद्वंद्विता (Anglo-French Rivalry in Karnataka)

वारे न हेस्टिंग्स (Warren Hastings)

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वारे न हेस्टिंग्स

वारे न हेस्टिंग्स का जन्म 1732 में हुआ था और वह 1750 में अठारह वर्ष की उम्र में पहली
बार ईस्ट इंडिया कं पनी के एक क्लर्क (लिपिक) के रूप में कलकत्ता आया था और अपनी
कार्यकु शलता के कारण 1761-64 तक कासिम बाजार का अध्यक्ष रहा था। 1764 में
कं पनी की सेवा से त्यागपत्र देकर वह इंग्लैंड चला गया था। वह 1768 में मद्रास कौंसिल
का सदस्य बनकर पुनः भारत आया और 1772 में कर्टियर के इंग्लैंड जाने के बाद बंगाल
का गवर्नर नियुक्त हुआ। 1773 के रे ग्युलेटिंग एक्ट के द्वारा उसे 1774 में बंगाल का
गर्वनर-जनरल नियुक्त किया गया।

इस प्रकार वारे न हेस्टिंग्ज ने दो वर्ष तक (1772-1774) बंगाल के गवर्नर के रूप में कार्य
किया। इस दौरान उसके द्वारा उठाये गये सुधारात्मक कदमों से कं पनी की शक्ति बहुत बढ़
गई। 1774 से 1785 तक जब वह रे ग्युलेटिंग ऐक्ट के अंतर्गत बंगाल में फोर्ट विलियम की
प्रेसीडेंसी का गवर्नर जनरल रहा और मद्रास एवं बंबई के ब्रिटिश प्रदेश भी गवर्नर-जनरल
के अधीन आ गये थे।

वारे न हेस्टिंग्स की समस्याएँ (Warren Hastings Problems)

वारे न हेस्टिंग्स के समक्ष आंतरिक और बाह्य दोनों प्रकार की चुनौतियाँ थीं। गवर्नर बनने के
बाद हेस्टिंग्स के लिए द्वैध शासन सबसे बड़ी चुनौती थी। क्लाइव द्वारा स्थापित इस दोहरी
शासन प्रणाली के कारण बंगाल में अशांति औोर अराजकता फै ल गई थी। लगान की ठे का
पद्धति ने कृ षि को नष्ट कर दिया था। कं पनी का खजाना खाला हो गया था और उसे ब्रिटिश
सरकार से 10 लाख पौंड का ऋण लेना पड़़ा था। दू सरी ओर कं पनी के कर्मचारी अनुचित
उपायों से दिन-ब-दिन धनवान होकर इंग्लैंड लौट रहे थे। वारे न ने बड़ी दृढ़ता से इन
समस्याओं सामना किया और नवस्थापित अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा करने में सफल रहा।

इसके अलावा, मराठे पानीपत की हार से उबर कर उत्तर भारत में धावे मारने लगे थे और
अंग्रेजी संरक्षण में रहने वाले मुगल सम्राट शाहआलम ने मराठों की संरक्षता स्वीकार कर
ली थी। अवध का नवाब भी कपनी से रुष्ट था और वह मराठों के साथ मिलकर अंग्रेजों के
लिए संकट पैदा कर सकता था। दक्षिण में मैसूर में हैदरअली की विस्तावादी नीति कं पनी
के लिए चिंता का कारण बनती जा रही थी । इस प्रकार वारे न हेस्टिंग्स ने 1773 के
रे ग्यूलेटिंग ऐक्ट के अधीन अपने परिषद के कु छ सदस्यों के सतत विरोध के बावजूद जिस
प्रकार वास्तविकता को पहचान कर आंतरिक और बाह्य समस्याओं का सामना किया,
उसके कारण उसकी गणना भारत के योग्यतम् प्रशासकों में की जाती है।

वारे न हेस्टिंग्स के सुधार (Warren Hastings Reforms)

वारे न हेस्टिंग्स को बंगाल में कामचलाऊ सरकार की व्यवस्था करनी थी और भूराजस्व


व्यवस्था में सुधार कर कं पनी की वित्तीय स्थिति को सुदृढ़ करना था। वारे न ने अपनी

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बहुमुखी प्रतिभा के बल पर बड़ी दृढता से प्रशासन के विभिन्न क्षेत्रों में सुधार कर उनका
पुनर्गठन किया और नवस्थापित अंग्रेजी राज्य की सुरक्षा करने में सफल रहा।

प्रशासनिक सुधार : प्रशासनिक सुधार के अंतर्गत वारे न हेस्टिंग्स ने सबसे पहले 1772 में
कोर्ट ऑफ़ डाइरे क्टर्स के आदेशानुसार बंगाल से द्वैध शासन प्रणाली की समाप्ति की
घोषणा की और बंगाल के प्रशासन को पुनर्गठित करने का प्रयास किया। उसने सरकारी
ख़ज़ाने को मुर्शिदाबाद से कलकत्ता स्थानांतरित किया और नवाब की पेंशन 32 लाख
वार्षिक से घटाकर 16 लाख वार्षिक कर दी। उसने मीरजाफर की विधवा मुन्नी बेगम को
अल्पवयस्क नवाब मुबारकु द्दौला का संरक्षक नियुक्त किया गया।

राजस्व-संबंधी सुधार : राजस्व सुधार के क्षेत्र में वारे न हेस्टिंग्स का मानना था कि समस्त
भूमि सरकार की है और जमींदार के वल कर-संग्रह करने वाला है, जिसे कर-संग्रह के
बदले के वल अपना कमीशन पाने का ही अधिकार था। उसने राजस्व की वसूली का
अधिकार कं पनी के अधीन कर दिया और राजस्व वसूली में सहायता देने वाले दोनों
भारतीय नायब दीवानों- मुहम्मद रजा ख़ाँ तथा शिताब राय को पदच्युत कर दिया। उसने
राजस्व संग्रह के लिए 1772 में बोर्ड ऑफ़ रे वेन्यू की स्थापना की, जिसमें कं पनी के राजस्व
संग्राहक नियुक्त किये गये। इस व्यवस्था के सुचारू संचालन के लिए छः प्रांतीय रे वेन्यू
परिषदें स्थापित की गईं जिनके कार्यालय कलकत्ता, बर्दवान, मुर्शिदाबाद, दीनाजपुर, ढाका
और पटना में थे। कर-संग्रहण के अधिकार ऊँ ची बोली बोलने वाले जमींदारों को पाँच वर्ष
के लिए नीलाम किये गये और जमींदारों को भू-स्वामित्व से मुक्त कर दिया गया। संपूर्ण
बंगाल को 36 जिलों में बाँटा गया और प्रत्येक जिले में अंग्रेज कलेक्टर नियुक्त किये गये जो
जमींदारों की सहायता से राजस्व-संग्रह के लिए उत्तरदायी थे। कलेक्टरों की सहायता हेतु
एक भारतीय अधिकारी की नियुक्ति की गई, जो रायरायन कहलाता था।

1773 में इस कर-संग्रह व्यवस्था में कु छ परिवर्तन करते हुए भ्रष्ट तथा निजी व्यापार में लगे
कलेक्टरों को पदमुक्त कर उनके स्थान पर जिलों में भारतीय दीवान नियुक्त किये गये।

किं तु पंचवर्षीय भू-राजस्व व्यवस्था सफल नहीं हुई और इससे कृ षकों को काफी नुकसान
हुआ। अधिकांश ठे के दार सट्टेबाज थे और उन्होंने कृ षकों से अधिकतम कर प्राप्त करने का
प्रयास किया। कं पनी के अधिकारियों ने भी अपने निजी नौकरों तथा गुमाश्तों की सहायता
से नीलामी में भाग लिया। हेस्टिंग्स ने स्वयं अपने एक भारतीय नौकर कुं तू बाबू के 10 वर्षीय
पुत्र के नाम से एक नीलामी पंजीकृ त कराया था। अंततः वारे न हेस्टिंग्स ने 1776 में
पंचवर्षीय ठे के की व्यवस्था समाप्त कर उसकी जगह एकवर्षीय ठे के की व्यवस्था लागू की।

1781 में पुनः भूमिकर-संग्रहण की व्यवस्था में परिवर्तन किया गया और प्रांतीय परिषदें
समाप्त कर दी गईं। कलेक्टरों को पुनः जिले में नियुक्त किया गया और सर्वोपरि निरीक्षण
का अधिकार कलकत्ता की राजस्व समिति को दिया गया। इस प्रकार अपनी कें द्रीयकरण

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की नीति के कारण वारे न हेस्टिंग्स एक निश्चित भूमिकर-व्यवस्था के निर्धारण में पूर्णतया


असफल रहा और अपने पीछे बंगाल में दुः ख, विद्रोह और अकालों की लड़ी छोड़ गया।

वस्तुतः राजस्व की मूल समस्या यह थी कि मालगुजारी की माँग बहुत अधिक थी और


जमींदार किसानों से बहुत सख्ती से लगान वसूलते थे। इससे कृ षि की अवनति हुई और
बकाया लगान की रकम बढ़ती गई। 1782 में सर जॉन शोर ने कहा था: ‘जिलों में
वास्तविक स्थिति की तथा भूमिकर की जानकारी आज हमें 1764 की तुलना में कम ही है।’

न्यायिक व्यवस्था में सुधार : वारे न हेस्टिंग्स के पूर्व बंगाल की न्याय व्यवस्था मुगल प्रणाली
पर आधारित थी और जमींदार ही दीवानी तथा फौजदारी का निर्णय करते थे। हेस्टिंग्स ने
जमींदारों के न्यायिक अधिकारों को समाप्त कर 1772 ई. में प्रत्येक जिले में एक फौजदारी
और एक दीवानी न्यायालय की स्थापना की। जिला दीवानी न्यायालय कलेक्टरों के अधीन
थे, जहाँ 500 रु. तक के मामलों की सुनवाई होती थी। 500 रुपये से ऊपर के मुकदमे तथा
जिलों की दीवानी अदालतों के निर्णयों के विरूद्ध अपीलें सदर दीवानी अदालत में सुनी
जाती थीं। इसका अध्यक्ष सर्वोच्च परिषद् का प्रधान गवर्नर जनरल होता था और परिषद के
दो सदस्य उसकी सहायता करते थे। उनकी सहायता के लिए रायरायान, मुख्य कानूनगो
तथा माल विभाग के भारतीय अधिकारी भी होते थे।

जिला फौजदारी अदालत एक भारतीय अधिकारी के अधीन होती थी जिसकी सहायता के


लिए मुफ्ती और काजी होते थे। इस अदालत के कार्यों का निरीक्षण कलेक्टर करता था।
जिला निजामत अदालत के विरुद्ध अपील सदर निजामत अदालत में होती थी, जिसका
अध्यक्ष उपनाजिम (दरोगा) होता था। उसको परामर्श देने के लिए एक काजी, एक मुख्य
मुफ्ती और तीन मौलवी होते थे। मृत्युदंड तथा संपत्ति की जब्ती के लिए सदर निजामत
अदालत को प्रमाणित करना आवश्यक होता था। सदर निजामत अदालत के कार्यों का
निरीक्षण परिषद् तथा उसके अध्यक्ष करते थे।

दीवानी तथा निजामत की मुख्य अदालतों को मुर्शिदाबाद से हटाकर कलकत्ता में स्थापित
किया गया और और उन्हें सदर दीवानी अदालत व सदर निजामत अदालत कहा गया।
हिंदुओं के मामलों का निपटारा हिंदू विधि से और मुसलमानों का मुस्लिम विधि से किया
जाता था।अब न्यायालयों के लिए रिकार्ड रखना आवश्यक किया गया। अभी तक जुर्माने
की रकम का चौथाई भाग न्यायाधीश को मिलने की परं परा थी, हेस्टिंग्स ने उसे बंद कर
दिया। उसने न्यायाधीशों को नकद वेतन देने की व्यवस्था की और उनके उपहार एवं शुल्क
लेने पर प्रतिबंध लगा दिया।

व्यावसायिक सुधार : आंतरिक व्यापार के क्षेत्र वारे न हेस्टिंग्स ने जमींदारों के क्षेत्र के


शुल्क-गृहों को बंद करवा दिया और के वल कलकत्ता, हुगली, मुर्शिदाबाद, ढाका तथा
पटना में पाँच शुल्क-गृहों की व्यवस्था की। दस्तक की प्रथा समाप्त कर दी गई और शुल्क
की दर 2.5 प्रतिशत कर दी गई जो सभी को देना अनिवार्य था। इससे कं पनी के गुमाश्तों

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द्वारा भारतीय जुलाहों का शोषण भी बंद हो गया। नमक तथा अफीम का व्यापार पूर्ण रूप
से सरकार के नियंत्रण में रखा गया। व्यापारियों की सहायता के लिए कलकत्ता में बैंक की
स्थापना की गई, कलकत्ता में सरकारी टकसाल भी स्थापित किया गया और निश्चित मूल्य
की मुद्राएँ ढाली जाने लगीं। वारे न हेस्टिंग्स ने एक व्यापारिक परिषद् का गठन किया जो
कं पनी के लिए माल खरीदने में सहायता करती थी। उसने तिब्बत तथा भूटान से भी व्यापार
बढ़ाने का प्रयास किया।

आरक्षी विभाग का पुनर्गठन : जिस समय वारे न हेस्टिंग्स ने भारत में गवर्नर का पद ग्रहण
किया, बंगाल में पूर्ण अराजकता छाई हुई थी। जनता के जान-माल की सुरक्षा का कोई
प्रबंध नहीं था। इसलिए बंगाल में शांति एवं व्यवस्था बनाये रखने हेतु हेस्टिंग्स ने आरक्षी
विभाग का पुनर्गठन किया। उसने प्रत्येक जिले में एक स्वतंत्र पुलिस अधिकारी की नियुक्ति
की तथा चोरों व डाकु ओं की गिरफ्तारी हेतु कठोर आदेश जारी किये। हेस्टिंग्स की इस
कार्यवाही से बंगाल में शांति एवं व्यवस्था स्थापित हो गई।

शैक्षिक सुधार : हेस्टिंग्स ने मुस्लिम शिक्षा के विकास के लिए 1781 में कलकत्ता में एक
मदरसा स्थापित किया और गीता के अंग्रेजी अनुवादक चार्ल्स विल्किन्स को संरक्षण दिया।
उसके समय में कलकत्ता और मद्रास में कॉलेज स्थापित हुए। प्राच्य कला और विज्ञान के
अध्ययन के लिए सर विलियम जोंस ने 1784 में ‘दि एशियाटिक सोसायटी ऑफ बंगाल’
जैसी प्रसिद्ध संस्था की स्थापना की। वारे न हेस्टिंग्स ने हिंदू तथा मुस्लिम कानूनों को भी एक
पुस्तक का रूप देने का प्रयत्न किया। 1776 में संस्कृ त में एक पुस्तक ‘कोड ऑफ जेण्टू
लॉ’ प्रकाशित की गई। 1791 में विलियम जोंस तथा कोलब्रुक की ‘डाइजेस्ट ऑफ हिंदू
लॉ’ छापी गई। इसी प्रकार ‘फतवा-ए-आलमगीरी’ का अंग्रेजी अनुवाद करने का भी
प्रयास हुआ। हेस्टिंग्स स्वयं अरबी, फारसी का जानकार था और बांगला भाषा बोल सकता
था।

सुधारों का मूल्यांकन (Evaluation of Reforms)

हेस्टिंग्स ने बंगाल प्रांत में कं पनी का प्रत्यक्ष शासन स्थापित करने के साथ-साथ विभिन्न
सुधारों द्वारा सुव्यवस्था स्थापित करने का प्रयास किया। किं तु वह समुचित बंदोबस्त करने
में असफल रहा। उसकी नीतियों के कारण कृ षि की अवनति हुई, किसानों और जमींदारों
की दरिद्रता में वृद्धि हुई और साहूकार मालामाल हुए। उसने मध्यम और निचली अदालतों
की स्थापना नहीं की थी जिससे सामान्य लोगों के लिए न्याय मिलना कठिन हो गया। यद्यपि
वह अपने सुधारों की अपूर्णता के कारण भ्रष्टाचार को रोकने में असफल रहा, किं तु सुधारों
के द्वारा उसने जो आधारशिला रखी, उसी पर बाद में ब्रिटिश साम्राज्य की स्थापना हुई।

रे ग्युलेटिंग ऐक्ट और परिषद् के झगड़े (Regulating Act and Council


Fights)

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इंग्लैंड की सरकार ने 1773 में रे ग्यूलेटिंग ऐक्ट पारित किया जिसका उद्देश्य भारत में ईस्ट
इंडिया कं पनी की गतिविधियों को ब्रिटिश सरकार की निगरानी में लाना और कं पनी के
व्यापारिक ढाँचे को राजनीतिक कार्यों के संचालन योग्य बनाना था। इस अधिनियम को
1774 में लागू किया गया।

इस ऐक्ट के अनुसार कोर्ट ऑफ प्रेसीडेंसी (बंगाल) के गवर्नर वारे न हेस्टिंग्स को अंग्रेजी


क्षेत्रों का ‘गवर्नर जनरल’ बना दिया गया तथा उसको सलाह देने हेतु चार सदस्यों की
एक परिषद् गठित की गई। अब मद्रास तथा बंबई के गवर्नर उसके अधीन हो गये। यद्यपि
गवर्नर जनरल परिषद् का अध्यक्ष था, किं तु उसे निर्णय बहुमत से करने होते थे। मतभेद
होने पर गवर्नर-जनरल को परिषद् की राय रद्द करने का अधिकार नहीं था। वह अपने
निर्णायक मत का प्रयोग के वल तभी कर सकता था जब मत बराबर हों, यद्यपि पाँच
सदस्यीय परिषद् में ऐसा होने की संभावना कम ही थी।

परिषद् के पाँचों सदस्यों के नाम रे ग्यूलेटिंग ऐक्ट में दिये गये थे, जिनमें गवर्नर जनरल वारे न
हेस्टिंग्स तथा बारवेल भारत में ही थे, शेष तीन सर फिलिप फ्रांसिस, क्लेवरिं ग व मॉनसन
1774 में भारत आये। इन्हें पाँच वर्ष के पूर्व कोर्ट ऑफ डायरे क्टर्स की सिफारिश पर के वल
ब्रिटिश सम्राट ही हटा सकता था।

अपनी परिषद् के असहयोग के कारण वारे न हेस्टिंग्स को अनेक व्यवहारिक कठिनाइयों


का सामना करना पड़ा। परिषद् के चार सदस्यों में से तीन- फ्रांसिस, क्लेवरिं ग और मॉनसन
हेस्टिंग्स के विरोधी थे। फ्रांसिस तो स्वयं गवर्नर जनरल बनने का महत्त्वाकांक्षी था। भारत
पहुँचते ही इन तीनों ने योजनाबद्ध तरीके से शासन-कार्य में व्यवधान डालना शुरू कर
दिया। पहली बैठक में ही तीनों सदस्यों ने हेस्टिंग्स के शासन की अनियमितताओं पर बहस
करने का प्रस्ताव रखा। उन्होंने बनारस के नवाब-वजीर से हुए पत्र-व्यवहार का ब्यौरा माँगा
और रुहेला युद्ध में कं पनी के सम्मिलित होने के बारे में जानकारी चाही। वारे न हेस्टिंग्स ने
ऐसा करने से मना कर दिया। इन तीनों ने पाँचवर्षीय राजस्व व्यवस्था को भी उचित नहीं
माना और फ्रांसिस ने स्थायी कर-योजना का सुझाव दिया। हेस्टिंग्स के फौजदारी अदालतों
की भी आलोचना की गई और एक प्रस्ताव द्वारा निजामत का अधिकार नवाब को दे दिया
गया।

हेस्टिंग्स की विदेश नीति के संबंध में भी बहुमत का विरोध था क्योंकि वे नहीं चाहते थे कि
कं पनी मराठों के आंतरिक झगड़ों में हस्तक्षेप करे । गवर्नर जनरल और उसकी परिषद् के
विरोधी सदस्यों के बीच चार वर्ष तक संघर्ष चलता रहा। परिषद् के इन तीनों सदस्यों ने
इतना धृष्टतापूर्ण तथा अमाननीय विरोध किया कि 1776 में हेस्टिंग्स ने त्यागपत्र तक देने की
सोच ली थी।

25 सितंबर, 1776 को मॉनसन की मृत्यु से वारे न हेस्टिंग्स को परिषद् में बहुमत प्राप्त हो
गया क्योंकि अब परिषद् के सदस्यों की संख्या 4 रह गई और वह बारवेल के सहयोग से

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अपने निर्णायक मत का प्रयोग कर सकता था। 1777 में क्लेवरिं ग की भी मृत्यु हो गई, किं तु
फ्रांसिस तब भी विरोध करता रहा। यहाँ तक दोनों में द्वंदयुद्ध भी हुआ जिसमें फ्रांसिस
पिस्तौल की गोली से घायल भी हुआ था। झगड़ा तब शांत हुआ, जब दिसंबर 1780 में
फ्रांसिस वापस लंदन लौट गया।

सुप्रीम कोर्ट की स्थापना: रे ग्यूलेटिंग ऐक्ट, 1773 के अनुसार कलकत्ते में एक सुप्रीम
कोर्ट की स्थापना की गई। कलकत्ता में रहने वाले सभी भारतीय तथा अंग्रेज इसकी परिधि
में आते थे। कलकत्ता से बाहर के मामले यहाँ तभी सुने जा सकते थे, जब दोनों पक्ष सहमत
हों। इस न्यायालय में न्याय अंग्रेजी कानूनों के अनुसार होता था, जबकि सदर निजामत और
सदर दीवानी अदालतों में हिंदू अथवा मुस्लिम कानून लागू होता था। इसके अलावा, गवर्नर
जनरल की परिषद् को भी कु छ नियम बनाने का अधिकार दिया गया। किं तु परिषद् और
सुप्रीम कोर्ट के अधिकारों की सीमा निर्दिष्ट न होने से उनके बीच झगड़ा पैदा होना अनिवार्य
था। न्यायालयों का कार्य क्षेत्र आपस में टकराता था, विशेषकर सुप्रीम कोर्ट तथा सदर
अदालतों का। इस झगड़े को कम करने के लिए हेस्टिंग्स ने 1778 में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य
न्यायाधीश इम्पे को 5,000 रुपये मासिक पर सदर अदालत का अधीक्षक नियुक्त किया,
किं तु संचालकों ने इसे अस्वीकृ त कर दिया जिसके कारण नवंबर, 1782 में इम्पे को
त्यागपत्र देना पड़ा। इस प्रकार न्याय-व्यवस्था में भी दोहरापन चलता रहा और भारतीय
प्रजा को, विशेषकर जमींदारों और किसानों को बहुत हानि उठानी पड़ी।

वारे न हेस्टिंग्स का भारतीय शक्तियों के साथ संबंध (Warren


Hastings’ Relationship with Indian Powers)

हेस्टिंग्स का मुख्य उद्देश्य ब्रिटिश हितों की रक्षा करना तथा कं पनी के राजनीतिक प्रभाव
का विस्तार करना था। इस समय भारत की राजनीतिक स्थिति में व्यापक परिवर्तन आ
चुका था। मराठे पानीपत की हार से उबर चुके थे और पुनः उत्तर भारत में उनकी
गतिविधियाँ बढ़ गई थीं। दिल्ली का सम्राट शाहआलम अंग्रेजों का संरक्षण छोड़कर मराठों
(सिंधिया) के संरक्षण में दिल्ली चला गया था। दक्षिण में हैदरअली कं पनी से प्रतिशोध लेने
की योजना बना रहा था। इस समय वारे न हेस्टिंग्स को इंग्लैंड से भी सहायता मिलने की
आशा नहीं थी क्योंकि इंग्लैंड अमेरीकी उपनिवेशों के साथ युद्ध में फँ सा था।

इस विषम परिस्थिति में भी हेस्टिंग्स ने कं पनी के हितों को सुरक्षित बनाये रखने के लिए
नैतिक-अनैतिक हरसंभव प्रयास किया। उसने अवध के नवाब शुजाउद्दौला से बनारस की
संधि कर अवध पर अपना नियंत्रण स्थापित किया और वहाँ की बेगमों से जबरन धन वसूल
किया। उसने बनारस के राजा चेतसिंह के साथ अन्यायपूर्ण तरीके से धनउगाही की और
अंत में उसे सत्ता से बेदखल कर दिया। इसके समय में ही रुहेला युद्ध (1774), प्रथम
मराठा युद्ध (1775-1782) तथा मैसूर का दू सरा युद्ध (1780-1784) भी लड़ा गया।

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शाहआलम से संबंध : क्लाइव ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले मुगल सम्राट शाहआलम


के निवास के लिए दिया था और संधि के अनुसार कं पनी 26 लाख वार्षिक शाहआलम को
दीवानी के बदले में देती थी, जो 1769 से नहीं दी गई थी। मुगल सम्राट शाहआलम को
अंग्रेजों की नीयत पर संदेह होने लगा था।

इस समय मराठों ने अपने योग्य और अनुभवी नेता सिंधिया तथा जसवंतराव होल्कर के
नेतृत्व में अपनी स्थिति सुदृढ़ कर लिया था। राजस्थान, आगरा के आसपास के जाटों तथा
दोआब के रुहेलों को हराकर फरवरी, 1771 में उन्होंने दिल्ली जीत लिया था। उन्होंने
मुगल सम्राट शाहआलम को अपने संरक्षण में लेकर दिल्ली के सिंहासन पर बिठा दिया।
इसके उपलक्ष्य में सम्राट ने कड़ा और इलाहाबाद के जिले मराठों को सौंप दिये। वारे न
हेस्टिंग्स ने इस अवसर का लाभ उठाकर अपनी आर्थिक समस्या को हल करने का प्रयास
किया। उसने शाहआलम को दी जानेवाली 26 लाख रुपये वार्षिक की पेंशन बंद कर दी
और बाद में कड़ा तथा इलाहाबाद के जिले शाहआलम से छीनकर 50 लाख रुपये में अवध
के नवाब शुजाउद्दौला को बेच दिया।

कु छ इतिहासकार वारे न हेस्टिंग्स के इस व्यवहार को अनुचित और अनैतिक मानते हैं।


किं तु वारे न हेस्टिंग्स का तर्क था कि ये जिले शाहआलम को अंग्रेजी संरक्षण में रहने के लिए
मिले थे और जब वह मराठों के संरक्षण में चला गया, तो इन जिलों पर उसका कोई
अधिकार नहीं रह गया था।

अवध से संबंध : क्लाइव ने अवध को मध्यवर्ती राज्य के रूप में स्थापित किया था। नवाब
बिना धन दिये प्रतिवर्ष कं पनी से सैनिक सहायता ले रहा था जिससे कं पनी पर अनावश्यक
वित्तीय बोझ पड़ रहा था। वारे न हेस्टिंग्स को लगा कि यदि अवध से संबंधों की पुनः समीक्षा
नहीं की गई तो वह मराठों के साथ चला जायेगा अथवा मराठों से मिलकर रुहेलखंड को
बाँट लेगा अवध का नवाब अंग्रेजों से असंतुष्ट भी था और फ्रांसीसी अधिकारी जेंटील के
द्वारा अपनी सेना को यूरोपीय ढं ग से प्रशिक्षित कर रहा था। 1768 में वेरे लस्ट ने नवाब के
साथ फै जाबाद की (पहली) संधि की थी कि नवाब 35,000 से अधिक सैनिक नहीं रखेगा।
किं तु अब वेरे लस्ट के विपरीत वारे न हेस्टिंग्ज अवध को शक्तिशाली बनाना चाहता था।

हेस्टिंग्स ने 1773 में स्वयं बनारस जाकर अवध के नवाब शुजाउद्दौला से बनारस की संधि
की। उसने 50 लाख रुपये के बदले इलाहाबाद और कड़ा के जिले नवाब को दे दिया।
नवाब ने आवश्यकता पड़ने पर एक बिग्रेड के लिए 30,000 रुपये मासिक के स्थान पर
कं पनी को 2,10,000 रुपये देना स्वीकार किया। हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को बनारस का
जमींदार मान लिया और नवाब को बनारस की जमीदारीं से 20 लाख की जगह 22 लाख
रुपया कर वसूलने की अनुमति दे दी। नवाब ने अपनी राजधानी में ब्रिटिश रे जीडेंट रखना
स्वीकार कर लिया। हेस्टिंग्ज ने मौखिक रूप से शुजा को रुहेलों के विरुद्ध सैनिक सहायता
देने का वादा किया, लेकिन इसके बदले नवाब को 40 लाख रुपये और देने पड़ते। इस

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1/3/23, 10:08 PM वारे न हेस्टिंग्स के सुधार और नीतियाँ (Reforms and Policies of Warren Hastings) » आधुनिक इतिहास » Historyguruji :: Reader Mode fo…

प्रकार वारे न हेस्टिंग्स ने न के वल शुजा और मराठों बीच मित्रता की संभावना को समाप्त


कर अवध पर नियंत्रण कर लिया बल्कि कं पनी की आर्थिक समस्या भी हल हो गई।

रुहेला युद्ध : अवध के उत्तर-पश्चिम में हिमालय की तलहटी में रुहेलखंड क्षेत्र था। रुहेलों
और अवध के नवाब दोनों को मराठों के आक्रमण का भय था। इसलिए रुहेला सरदार
हाफिज रहमत खाँ ने 17 जून, 1772 को अवध के नवाब से एक समझौता किया कि मराठा
आक्रमण होने की स्थिति में नवाब उसकी सैनिक सहायता करे गा और इसके बदले में
रहमत खाँ नवाब को 40 लाख रुपया देगा।

1773 में मराठों ने रुहेलखंड पर आक्रमण कर दिया। जब मराठों का सामना करने के लिए
कं पनी और नवाब की सेनाएँ पहुँचीं तो पेशवा माधवराव की मृत्यु के कारण मराठा सेनाएँ
वापस महाराष्ट्र लौट गईं। इस प्रकार युद्ध नहीं हुआ, लेकिन नवाब ने रहमत खाँ से 40
लाख रुपये की माँग की। रहमत खाँ का तर्क था कि जब युद्ध हुआ ही नहीं, तो 40 लाख
रुपये देने का कोई सवाल ही नहीं उठता।

नवाब ने रुपये की वसूली के लिए फरवरी, 1774 में हेस्टिंग्स से बात की। हेस्टिंग्स इस
समय आर्थिक संकट में था, इसलिए उसने नवाब से सौदा कर लिया कि अंग्रेजी सेना नवाब
को रुहेलखंड जीतने में सहायता करे गी और नवाब इसके बदले में 50 लाख रुपया देगा।
फलतः नवाब ने कं पनी की सेना की सहायता से अप्रैल, 1774 में रुहेलखंड पर आक्रमण
किया और मीरनकटरा के निर्णायक युद्ध में हाफिज रहमत खाँ को पराजित कर मार
डाला। रुहेलखंड अवध में मिला लिया गया और 20,000 रुहेले देश से निष्कासित कर दिये
गये।

हेस्टिंग्ज की रुहेलों के प्रति की गई कार्र वाई की व्यापक निंदा हुई और उस पर चले


महाभियोग में यह भी एक आरोप था। रुहेलों ने अंग्रेजों का कु छ नहीं बिगाड़ा था, बावजूद
इसके कं पनी की सेना का अन्यायपूर्वक प्रयोग किया गया। 1786 में पार्लियामेंट में बर्क ,
मैकाले और मिल ने हेस्टिंग्स की कटु आलोचना करते हुए कहा कि कं पनी के सैनिकों के
सामने रुहेला-ग्राम लूटे गये, बच्चे मार डाले गये तथा स्त्रियों के साथ बलात्कार किये गये।
आखिर रुहेलों ने अंग्रेजों का क्या बिगाड़ा था जो हेस्टिंग्ज ने शांतिप्रिय रुहेलों पर आक्रमण
करने के लिए नवाब को अंग्रेजी सेना किराये पर दे दी।

वारे न हेस्टिंग्स के पक्ष में सर जॉन स्ट्रेची और पेंड्र ल मून के तर्क बिल्कु ल हास्यास्पद हैं कि
रुहेलों का शासन नवाब के शासन से अधिक क्रू र और उत्पीड़क था। सच तो यह है कि
रुहेलों के खिलाफ हमला सिद्धांततः गलत था और यह कार्य के वल धन-लिप्सा से किया
गया था।

नंदकु मार का मुकदमा और फाँसी (Nandkumar’s Case and


Execution)

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नंदकु मार एक बंगाली जमींदार था। प्लासी युद्ध के पूर्व और मीरजाफर के शासनकाल में
उसने अंग्रेजों की बड़ी सेवा की थी। 1764 में ईस्ट इंडिया कं पनी ने उसे बर्दवान का मुख्य
राजस्व अधिकारी नियुक्त किया था।

नंदकु मार के मुकदमे तथा फाँसी के संबंध में कहा गया है कि नंदकु मार हेस्टिंग्स और
उसकी परिषद् के झगड़ों का शिकार हुआ और सुप्रीम कोर्ट के जज इम्पे ने हेस्टिंग्स के
प्रभाव में आकर उसे मृत्युदंड दिया था।

नंदकु मार ने 1775 में हेस्टिंग्स पर आरोप लगाया कि उसने अल्पवयस्क नवाब
मुबारकु द्दौला का संरक्षक बनाने के लिए मीरजाफर की विधवा मुन्नी बेगम से 3.5 लाख
रुपये घूस लिया था। परिषद ने इस आरोप की सत्यता की जाँच करनी चाही, लेकिन
हेस्टिंग्स ने आरोप का खंडन करते हुए कहा कि परिषद् को उसकी जाँच करने का कोई
अधिकार नहीं है और परिषद् की बैठक भंग कर दी।

दू सरी ओर वारे न हेस्टिंग्स और उसके सहयोगियों ने नंदकु मार पर जालसाजी के झूठे


मुकदमे बना दिये। 19 अप्रैल को कमालुद्दीन ने कहा कि नंदकु मार ने उस पर दबाव
डालकर वारे न हेस्टिंग्स और बारवेल के विरुद्ध प्रार्थनापत्र पर हस्ताक्षर करवाये थे। इसी
प्रकार कलकत्ता के एक व्यापारी मोहनलाल ने कहा कि नंदकु मार ने दिवंगत बुलाकीदास
के रत्नों को जालसाजी करके हड़प लिया है। 6 अप्रैल, 1775 को नंदकु मार को बंदी बना
लिया गया और कलकत्ता के सर्वोच्च न्यायालय ने जालसाजी के मुकदमे में अंग्रेज जूरी की
सहायता से बहुमत के निर्णय से उसे फाँसी पर लटका दिया।

आलोचकों ने नंदकु मार के मुकदमे और उसकी फाँसी की सजा को ‘न्यायिक हत्या’ की


संज्ञा दी है, जिसे वारे न हेस्टिंग्स ने न्यायाधीश इम्पे की सहायता से अंजाम दिया था ताकि
उसके ऊपर लगे भ्रष्टाचार के आरोपों की जाँच न हो सके । जे.एफ. स्टीफन का मानना है
कि इसमें वारे न हेस्टिंग्स का कोई हाथ नहीं था और नंदकु मार पर जालसाजी का आरोप
एक आकस्मिक घटना थी। पी. ई. राबर्ट्स इसे ‘न्यायिक भूल’ बताते हैं। जो भी हो, इसमें
नंदकु मार के साथ समुचित न्याय नहीं हुआ और यह वारे न हेस्टिंग्स के चरित्र पर एक काला
धब्बा है।

बनारस के राजा चेतसिंह के साथ दुर्व्यवहार (Abused King Chait


Singh of Benares)

बनारस का राजा चेतसिंह पहले अवध के नवाब की अधीनता में था जो शुजाउद्दौला की


मृत्यु के बाद 1775 में फै जाबाद संधि के द्वारा कं पनी के अधीन हो गया था और नवाब को
दिये जाने वाले 22.5 लाख रुपये का सालाना नजराना कं पनी को देना स्वीकार किया था।
इसके बदले में कं पनी ने वचन दिया था कि यदि राजा यह धनराशि नियमित देता रहा तो
कं पनी अतिरिक्त धन की माँग नहीं करे गी और किसी को भी राजा के अधिकार में दखल
देने अथवा उसके देश की शांति-भंग करने की इजाजत नहीं देगी।
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1778 में कं पनी जब फ्रांसीसियों के साथ युद्धरत थी और मैसूर तथा मराठों से भी उसकी
तनातनी चल रही थी, तो वारे न हेस्टिंग्स ने चेतसिंह से 5 लाख रुपये का एक विशेष
अंशदान युद्धकर के रूप में माँगा। राजा ने विरोध करते हुए भी धन दे दिया। 1779 में यह
माँग फिर दोहराई गई और 2 लाख जुर्माने के साथ फौजी कार्र वाई की धमकी भी दी गई।
जब 1780 में तीसरी बार माँग की गई तो चेतसिंह ने 2 लाख रुपये व्यक्तिगत उपहार (घूस)
के रूप में हेस्टिंग्स को इस उम्मीद के साथ भेजा कि उससे अतिरिक्त धन नहीं माँगा
जायेगा। हेस्टिंग्स ने यह धनराशि तो स्वीकार कर ली, किं तु उसने 5 लाख रुपया और
2,000 घुड़सवारों की अतिरिक्त माँग कर दी। राजा ने क्षमा-याचना कर 500 घुड़सवारों
और 500 तोड़दारों का प्रबंध कर गवर्नर-जनरल को सूचित कर दिया।

हेस्टिंग्स ने इसे अवज्ञा मानकर चेतसिंह पर 50 लाख रुपये जुर्माना कर दिया और सेना
लेकर उसे दंड देने के लिए स्वयं बनारस पहुँच गया। राजा ने बक्सर के स्थान पर उसका
स्वागत किया और अपनी पगड़ी उसके पाँव पर रख दी। गवर्नर-जनरल ने राजा को बंदी
बना लिया जिससे क्रु द्ध होकर चेतसिंह के सिपाहियों ने विद्रोह कर दिया। हेस्टिंग्स अपनी
जान बचा कर चुनार भागा और वहाँ से एक कु मुक लाकर बनारस पर फिर से अधिकार
कर लिया और चेतसिंह के महल को सिपाहियों से लुटवाया। किं तु चेतसिंह ग्वालियर भाग
गया।

हेस्टिंग्स ने चेतसिंह को पदच्युत कर उसके भतीजे महीप नारायण को इस शर्त पर राजा


बनाया कि वह 40 लाख रुपये वार्षिक कं पनी को देता रहेगा। राजा के लिए यह रकम बहुत
बड़ा बोझ थी और इससे उसकी आर्थिक स्थिति पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ा।

हेस्टिंग्स का चेतसिंह के प्रति बर्ताव अन्यायपूर्ण था क्योंकि हेस्टिंग्स को राजा से अतिरिक्त


धन माँगने का कोई अधिकार नहीं था। हेस्टिग्स ने तर्क दिया था कि मराठा युद्ध के कारण
कं पनी भीषण आर्थिक संकट में थी, इसलिए उसे यह उपाय अपनाया पड़ा। हेस्टिंग्स के
समर्थकों का कहना था कि चेतसिंह के वल जमींदार था और 22.5 लाख रुपया भूमिकर ही
था, शुल्क नहीं। इसलिए चेतसिंह को युद्धकर देना चाहिए था। किं तु यह सभी तर्क निराधार
हैं क्योंकि 1775 की संधि में यह स्पष्ट उल्लिखित था कि उससे 22.5 लाख रुपये के अलावा
कोई और राशि नहीं माँगी जायेगी। इस प्रकार वारे न हेस्टिंग्स का समस्त आचरण अनुचित,
निष्ठु र तथा प्रतिशोध की भावना से प्रेरित था।

अवध की बेगमों के साथ बर्बरतापूर्ण व्यवहार (Barbaric Behavior


with the Begums of Awadh)

अवध की बेगमें, नवाब आसफउद्दौला की माँ और दादी थीं। इन बेगमों को 2 करोड़ रुपया
और जागीर मिली थी। अवध की गद्दी पर बैठने के बाद आसफउद्दौला ने 1775 में कं पनी
के साथ फै जाबाद की संधि की थी, जिसके अनुसार उसने अवध में ब्रिटिश सेना रखने के

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बदले एक बड़ी धनराशि देना स्वीकार किया था। अवध का प्रशासन भ्रष्ट और कमजोर था,
इसलिए नवाब पर कं पनी का 15 लाख रुपया बकाया चढ़ गया था।

1781 तक मैसूर, मराठों तथा चेतसिंह से हुई लड़ाइयों के कारण कं पनी की वित्तीय स्थिति
खराब हो गई थी। इसलिए गवर्नर जनरल हेस्टिंग्स ने अवध के नवाब से बकाया रकम के
लिए दबाव डाला। नवाब ने भुगतान करने में अपनी असमर्थता व्यक्त करते हुए कहा कि
अगर अंग्रेज उसकी सहायता करें तो वह अपनी दादी और नानी से धन प्राप्त करके उन्हें दे
सकता है। अवध की बेगमें आसफउद्दौला को 5,60,000 पौंड की धनराशि पहले ही 1775
और 1776 में दे चुकी थीं। वारे न हेस्टिंग्स के विरोध के बावजूद कलकत्ता परिषद् ने बेगमों
को आश्वासन दिया था कि भविष्य में उनसे कोई माँग नहीं की जायेगी।

हेस्टिंग्स अवध की बेगमों से नाराज था, क्योंकि 1775 में उन्होंने परिषद् में उसके विरोधियों
का समर्थन प्राप्त किया था। जब 1781 में अवध के नवाब ने बेगमों के दौलत की माँग की,
तो उसको बेगमों से बदला लेने का बहाना मिल गया। वारे न हेस्टिंग्स के निर्देश पर ब्रिटिश
रे जिडेंट ब्रिस्टो ने अवध की बेगमों के साथ इतना बर्बरतापूर्ण व्यवहार किया कि उनकी
दुर्दशा देखकर स्वयं नवाब भी विचलित होने लगा। अंततः बेगमों को बाध्य होकर 105
लाख रुपया देना पड़ा।

अल्फ्रे ड लॉयल ने वारे न हेस्टिंग्स के इस आचरण की कठोर निंदा की है और कहा है कि


स्त्रियों और हिजड़ों से रुपये ऐंठने के ख्याल से ब्रिटिश अफसरों की निगरानी में शारीरिक
सख्तियों का बरता जाना एक अधम कार्य था। हेस्टिंग्स ने अपने बचाव में कहा कि खजाना
बेगमों का नहीं, बल्कि राज्य का था और अंग्रेजी राज्य की रक्षा के लिए धन की नितांत
आवश्यकता थी। उसका यह भी कहना था कि बेगमें चेतसिंह से मिलकर षड्यंत्र कर रही
थीं और कलकत्ता परिषद् द्वारा दी गई गारं टी समाप्त हो गई थी।

वास्तव में, हेस्टिंग्स ने बेगमों के विरुद्ध द्वेषवश कार्र वाई की थी। मैकाले भी स्वीकार करता
है कि हेस्टिंग्स ने बेगमों के साथ जो दुर्व्यवहार किया, उसका बचाव नहीं किया जा सकता
है। किं तु यह आश्चर्यजनक है कि लॉर्ड सभा ने हेस्टिंग्स को बेगमों पर अत्याचार करने के
आरोप से दोषमुक्त कर दिया।

वारे न हेस्टिंग्स की मराठा और मैसूर नीति (Maratha and Mysore


Policy of Warren Hastings)

हेस्टिंग्स की नीति का मुख्य उद्देश्य बंगाल प्रांत की सुरक्षा को सुद् ढ़ करना था और वह


विस्तारवादी नीति अपनाकर कं पनी की कठिनाइयों को बढ़ाने के पक्ष में कतई नहीं था।
इसके बावजूद उसे परिस्थितिवश दक्षिण भारत में दो युद्धों में उलझना पड़ा। एक युद्ध
मद्रास सरकार की महत्वाकांक्षा के कारण मराठों से करना पड़ा जो 1776 से 1782 तक
चला और दू सरा युद्ध मैसूर से हुआ जो 1780 से 1784 तक चलता रहा। इन युद्धों से

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कं पनी को कोई आर्थिक लाभ तो नहीं हुआ, लेकिन कं पनी की वित्तीय स्थिति खराब अवश्य
हो गई।

प्रथम आंग्ल-मराठा युद्ध (First Anglo-Maratha War, 1776-1782)

वारे न हेस्टिंग्स ने अवध से संधि करके प्रसिद्धि प्राप्त कर ली, तो मद्रास परिषद् ने कर्नाटक
तथा उत्तरी सरकार के क्षेत्रों पर अपना प्रभाव सुदृढ़ कर लिया। बंबई की परिषद् सालसीट,
बेसीन और थाणे पर अधिकार करके बंबई की सुरक्षा करना चाहती थी, किं तु मराठों के
भय से वह ऐसा नहीं कर पा रही थी। तभी मराठों के आंतरिक झगड़ों से अंग्रेजों को एक
अवसर मिल गया।

पेशवा माधवराव की मृत्यु (1772) तथा पेशवा नारायणराव की हत्या (1774) के बाद
महाराष्ट्र में आंतरिक झगड़े आरं भ हो गये। नारायण राव के चाचा रघुनाथ राव ने नारायण
राव के मरणोपरांत जन्मे पुत्र माधवराव नारायण के विरूद्ध कं पनी की सहायता माँगी।
बंबई की सरकार ने अपने उद्देश्यों को पूरा करने के लिए रघुनाथ राव से सूरत की संधि
(1775) कर ली। बंबई परिषद् को लगा कि कठपुतली रघुनाथराव के द्वारा बंगाल के
इतिहास को दोहराया जा सके गा। सूरत की संधि के अनुसार रघुनाथ राव को सैनिक
सहायता देकर पूना में पेशवा की गद्दी पर बिठाना था और उसके बदले में कं पनी को
सालसेट तथा बेसीन मिलने थे। इसके लिए बंबई सरकार ने संचालकों से सीधी अनुमति ले
ली।

कं पनी की सहायता लेकर रघुनाथराव पूना की ओर बढ़ा तथा मई, 1775 में अर्रास के
स्थान पर एक अनिर्णायक युद्ध हुआ। कलकत्ता परिषद् को सूरत संधि की प्रति युद्ध
आरं भ होने पर मिला। हेस्टिंग्स युद्ध के पक्ष में नहीं था, इसलिए कलकत्ता परिषद् ने सूरत
की संधि को अस्वीकार कर दिया और पूना दरबार से मार्च, 1776 में पुरं दर की संधि कर
ली। लेकिन यह संधि व्यर्थ रही क्योंकि बंबई की सरकार तथा संचालकों ने इसे स्वीकार
नहीं किया।

यद्यपि रे ग्यूलेटिंग एक्ट में युद्ध तथा शांति के मामलों में बंबई तथा मद्रास की सरकारों को
बंगाल में स्थित कें द्रीय सरकार के नियंत्रण में कर दिया गया था, परं तु तात्कालिक
आवश्यकता पड़ने पर संचालकों से सीधी आज्ञा प्राप्त कर लेने पर वे गवर्नर जनरल तथा
उसकी परिषद् की अनुमति के बिना कार्य कर सकती थीं। इन युद्धों में हेस्टिंग्स या उसकी
परिषद् से अनुमति नहीं ली गई थी, लेकिन कं पनी की प्रतिष्ठा की रक्षा के लिए हेस्टिंग्स को
इन युद्धों को स्वीकार करना पड़ा।

1775 मे अमरीका का स्वतंत्रता संग्राम आरं भ हो जाने के कारण अंग्रेज और फ्रांसीसी पुनः
एक-दू सरे के विरोधी हो गये। पूना दरबार में फ्रांसीसी प्रभाव की आशंका से हेस्टिंग्स ने
अपनी नीति बदल दी और गाडर्ड के नेतृत्व में एक सेना बंबई की सेना की सहायता के लिए
भेज दी। बंबई परिषद् ने लंदन से प्रोत्साहित होकर सूरत की संधि को पुनर्जीवित कर दिया।
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किं तु बंबई की अंग्रेजी सेना बड़गाँव स्थान पर पेशवा की सेना से हार गई और उसे जनवरी,
1779 में बड़गाँव की संधि करनी पड़ी। संधि के अनुसार अंग्रेजों ने 1773 के बाद जीते गये
सभी प्रदेशों को लौटाने का वादा किया।

उधर वारे न हेस्टिंग्स ने युद्ध जारी रखा। उसने एक सेना सिंधिया के आगरा-ग्वालियर क्षेत्र
पर तथा दू सरी सेना पूना पर आक्रमण करने के लिए भेजी। पूना भेजी गई सेना जनरल
गाडर्ड के नेतृत्व में अहमदाबाद, गुजरात को रौंदते हुए बड़ौदा पहुँच गई। अंग्रेजों का
सामना करने के लिए पूना सरकार के प्रमुख नाना फड़नबीस ने निजाम, हैदरअली और
नागपुर के भोंसले को मिलाकर एक गुट बना लिया। गाडर्ड ने गायकवाड़ को अपनी ओर
मिला लिया, किं तु वह पूना पर अधिकार नहीं कर सका और लौट गया। मध्य भारत में
महादजी सिंधिया ने अंग्रेजों से घोर युद्ध किया। हेस्टिंग्स को लगा कि वह मराठों को
पराजित नहीं कर सकता, इसलिए सिंधिया की मध्यस्थता में अंग्रेजों और मराठों के बीच
मई, 1782 में सालबाई की संधि हो गई। इस संधि के अनुसार दोनों ने एक-दू सरे के
विजित क्षेत्र लौटा दिये, के वल सालसेट और एलीफैं टा द्वीप अंग्रेजों के पास रह गये। अग्रेजों
ने रधुनाथराव का साथ छोड़ दिया और माधवराव नारायण को पेशवा स्वीकार कर लिया।
राघोबा को पेंशन दे दी गई। इस संधि से युद्ध के पूर्व की स्थिति स्थापित हो गई, किं तु
कं पनी को भारी वित्तीय क्षति उठानी पड़ी।

द्वितीय आंग्ल-मैसूर युद्ध (Second Anglo-Mysore War, 1780-84)

मैसूर का हैदरअली 1771 से ही अंग्रेजों से नाराज था। इसका कारण यह था कि अंग्रेजों ने


हैदरअली को मराठा-आक्रमण के समय उसकी सहायता का वचन दिया था। किं तु जब
1771 में मराठों ने मैसूर पर आक्रमण किया तो अंग्रेजों ने अपना वादा नहीं निभाया था।

आंग्ल-मैसूर युद्ध का तात्कालिक कारण यह था कि बंबई सरकार ने 1779 में मैसूर राज्य
के बंदरगाह माही पर अधिकार कर लिया। वारे न हेस्टिंग्स का तर्क था कि माही के द्वारा
हैदरअली को फ्रांसीसी सहायता मिल सकती थी। इससे हैदरअली बहुत रुष्ट हुआ और वह
नाना फड़नबीस के अंग्रेज-विरोधी गुट में शामिल हो गया।

हैदरअली ने जुलाई, 1780 में दो अंग्रेजी सेनाओं को पराजित करके अर्काट को जीत
लिया। इसके बाद उसने हैक्टर मुनरो की सेना को हरा दिया। इससे मद्रास सरकार के लिए
गंभीर संकट उत्पन्न हो गया और कं पनी की साख अपने न्यूनतम् स्तर पर पहुँच गई।

कलकत्ता से हेस्टिंग्स ने हैदरअली के विरुद्ध सेनाएँ भेजीं। सर आयरकू ट के अधीन अंग्रेजी


सेना ने हैदरअली को पोर्टोनोवो, पोलिलूर तथा सोलिंगपुर में कई स्थानों पर पराजित किया,
लेकिन उन्हें कोई विशेष सफलता नहीं मिली। अंग्रेजों के सौभाग्य से दिसंबर, 1782 में
हैदरअली की मृत्यु हो गई।

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हैदर के बेटे टीपू ने युद्ध को जारी रखा। उसने जनरल मैथ्यू को पराजित किया। जुलाई,
1783 में इंग्लैंड और फ्रांस के मध्य पेरिस की संधि से जब अमरीकी युद्ध समाप्त हो गया,
तो मद्रास के गवर्नर लॉर्ड लॉर्ड मैकार्टनी के प्रयास से मार्च, 1784 ई. में अंग्रेजों और टीपू
के बीच मंगलौर की संधि हो गई और दोनों ने एक-दू सरे के विजित प्रदेश लौटा दिये। इस
प्रकार आंग्ल-मैसूर युद्ध से भारत में अंग्रेजी राज्य के लिए जो गंभीर संकट उत्पन्न हुआ था,
वह वारे न हेस्टिंग्स की दू रदर्शिता से टल गया।

वारे न हेस्टिंग्स पर महाभियोग (Impeachment of Warren


Hastings)

वारे न हेस्टिंग्स पर महाभियोग, 1788

गवर्नर जनरल के रूप में वारे न हेस्टिंग्स की दो कारणों से बड़ी बदनामी हुई थी- एक,
बनारस के राजा चेतसिंह से अकारण अधिक रुपयों की माँग करने और उसे हटाकर
उसके भतीजे को बनारस की नवाबी देने के कारण एवं दू सरे , अवध की बेगमों को
शारीरिक यंत्रणा देकर उनका खजाना लूटने के कारण। जब पिट्स के इंडिया ऐक्ट के
विरोध में अपने पद से इस्तीफा देकर वारे न हेस्टिंग्स फरवरी, 1785 में इंग्लैंड पहुँचा तो
कॉमन सभा के सदस्य एडमंड बर्क ने उसके ऊपर महाभियोग लगाया। प्रारं भ में हेस्टिंग्स
के ऊपर ग्यारह आरोप थे, लेकिन बाद में इनकी संख्या बढ़कर बाईस हो गई थी।

ब्रिटिश पार्लियामेंट में महाभियोग की कार्यवाही सात वर्षों तक (1788 से 1795) तक


चलती रही। महाभियोग में न्यायोचित कार्यवाही की संभावना नहीं थी और अंत में वही हुआ
भी। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पिट ने माना कि चेतसिंह के मामले में हेस्टिंग्स का व्यवहार क्रू र,
अनुचित और दमनकारी था, किं तु 23 अप्रैल, 1795 को हेस्टिंग्स को सभी आरोपों से
ससम्मान बरी कर दिया गया गया।

वारे न हेस्टिंग्स का मूल्यांकन (Evaluation Warren Hastings)

वारे न हेस्टिंग्ज का व्यक्तित्व तथा कृ तित्व विवादास्पद रहा है। एक ओर उसे योग्य,
प्रतिभावान तथा साहसी प्रशासक के रूप में चित्रित किया जाता है, जिसने संकट के समय
भारत में ब्रिटिश साम्राज्य की रक्षा की थी, तो दू सरी ओर एक वर्ग उसे निष्ठर, अत्याचारी,
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भ्रष्ट और अनैतिक शासक मानता है जिसके कार्यों ने इंग्लैंड की राष्ट्रीय अस्मिता को आघात
पहुँचाया और मानवता को शर्मशार किया।

हेस्टिंग्स क्लाइव की ही भाँति व्यक्तिगत रूप से भ्रष्ट और लालची था। महाभियोग में उसके
आर्थिक भ्रष्टाचार पर विस्तृत बहस हुई थी। उसने 2 लाख रुपये चेतसिंह से तथा 10 लाख
रुपये नवाब से घूस लिया। मून के अनुसार उसने लगभग 30 लाख रुपये घूस अथवा
उपहार के रूप में लिया था। उसने नियुक्तियों तथा ठे के देने में घोर अनियमितताएँ की थी
और संचालकों के संबंधियों तथा अपने प्रिय पात्रों को अनुचित लाभ पहुँचाया था। हेस्टिंग्स ने
कोर्ट ऑफ डायरे क्टर्स के प्रधान सूलिवन के पुत्र को अफीम का ठे का दिया, जो उसने
40,000 पौंड में बेंच दिया। इसी प्रकार उसने बहुत सी अधिकारियों की भर्ती की, जिससे
असैनिक प्रशासन का व्यय 1776 के 251,533 पौंड से बढ़कर 1784 में 927,945 पौंड
हो गया था।

हेस्टिंग्स में मानवता या नैतिकता नाम की कोई भावना ही नहीं थी। मैकाले ने उसके बारे में
लिखा है कि ‘‘न्याय के नियम, मानवता की भावनाएँ , तथा संधियों में लिखे वचन इत्यादि का
उसके लिए कोई महत्त्व नहीं था, चाहे वे तात्कालिक राजनैतिक हितों के विरुद्ध ही हों।
उसका नियम के वल एक ही था, ‘जिसकी लाठी उसकी भैंस’। वह अपने पीछे बंगाल,
बनारस तथा अवध में दुः ख, उजाड़ तथा अकाल की लंबी कड़ियाँ छोड़ गया।’’

इसके विपरीत डेविस का विचार है कि भारत में ब्रिटिश शासन की सुरक्षा और स्थायित्व के
लिए हेस्टिंग्स ने जो कार्य किये, उनकी प्रशंसा करनी चाहिए। उसने भारत में बिखरे ब्रिटिश
साम्राज्य को एक शक्ति बना दिया, जो अन्य सभी राज्यों से अधिक शक्तिशाली हो गया।
डाडवेल का भी मानना है कि हेस्टिंग्स की महानता को कभी पूरी मान्यता नहीं मिल सकी।
इसके अनुसार यदि बर्क को महाभियोग चलाना था, तो यह अपने पुराने शत्रु लॉर्ड नार्थ पर
चलाना चाहिए था जो रे ग्यूलेटिंग ऐक्ट का प्रवर्तक था, न कि उस पर जो इस ऐक्ट का
शिकार हुआ। अल्फ्रे ड लायल ने भी हेस्टिंग्स की प्रशासनिक प्रतिभा की प्रशंसा की है
क्योंकि जिस समय अंग्रेजों को अपने शेष उपनिवेशों में विद्रोहों का सामना करना पड़ रहा
था, वहीं भारत में कठिनाइयों के होते हुए भी कं पनी की स्थिति अच्छी बनी रही।

यद्यपि हेस्टिंग्स ने भारत को लूटा, किं तु उसने भारत को समृद्ध भी बनाया। उसने प्राचीन
विद्या और साहित्य को संरक्षण दिया। उसने चार्ल्स विल्किन्स के गीता के प्रथम अनुवाद की
प्रस्तावना लिखी। उसकी प्रेरणा से प्राचीन भारतीय पुस्तकों का अध्ययन शुरू हुआ।
विल्किन्स ने फारसी तथा बांग्ला मुद्रण के लिए ढ़लाई के अक्षरों का आविष्कार किया और
हितोपदेश का भी अंग्रेजी अनुवाद किया।

इस प्रकार अंग्रेजों की दृष्टि में हेस्टिंग्स एक महान साम्राज्य निर्माता है। भारतीयों की दृष्टि में
वह धनलोलुप और अत्याचारी है जिसने ब्रिटिश साम्राज्य की लूट-खसोट, अत्याचार और
विश्वासघात की परं पराओं को मजबूत किया। वी.ए. स्मिथ का मत तर्क संगत लगता है कि

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उसके थोड़े से दोष उस राजनीतिज्ञ के दोष थे जिस पर सहसा ही संकट आ पड़ा हो और


कठिन उलझनों में कभी-कभी मानवीय समझ में भूल-चूक हो जानी लाजिमी थी। वैसे भी
साम्राज्य बनाने वालों से पूर्णतया नैतिक आचरण की आशा भी करना ठीक नहीं है, क्योंकि
साम्राज्य कभी बिना पाप के नहीं बनते हैं।

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