ृ के स्थान मत्ृ युन्जय महादे व कहते हैं .. हे महादे वि! मानव शरीर में सोलह ऐसे स्थान हैं जहाँ तिथियों के अनुसार क्रमशः अमत ृ वास होता है । अमतृ ेश्वरी विद्या के आचार्य इन अमत ृ स्थानों को जानकर दे वी का यजन-पज ु न करते हुए अमत ृ लाभ प्राप्त करते हैं । अमत ृ ेश्वरी विद्या उनके लिए अमत ृ रूपिणी होकर नौका के समान है जो क्लेश और आपदा के समुद्र में डूबते जा रहे हैं, आधि-व्याधि से परू ी तरह घिरे हुए हैं। स्त्री या पुरुष जिनकी भी शरीर मे प्रविष्ट किसी भी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा के प्रभाव को यह विद्या प्रशमित करने में समर्थ है । अमत ृ ेश्वरी विद्या सभी प्राणी के लिए हितकारी है । अमत ृ ेश्वरी विद्या षड्विधा है । जप, होम, अर्चा, तर्पण, ध्यान एवं यंत्रार्चन -- यही इसके षड् अंग हैं। अमत ृ ेश्वरी ध्यान - शुद्धस्फटिकसङ्काशां मौलिबद्धेन्दनि ु र्गतेः। अमत ृ ैरार्द्रदे हास्तास्त्वमला भरणान्विता: ॥ कुमद ु ं पण् ु डरीकञ्च राकेन्दम ु मत ृ ं करै ः। दधानाः स्मेरवदना मुक्ताभरणभूषिताः ॥ षोडशच्छदयुक्तानां पद्मानां दलमध्यगाः । ताभिः षष्टिशतार्णात्मशक्तिभिः परिवारिताः ।। अर्थात ् -- शुद्ध स्फटिक के समान वर्ण, शिर पर बद्धमौलि में चन्द्र से झरते अमत ृ से आर्द्र दे ह में शद्ध ु सन् ु दर आभष ू ण सश ु ोभित है , चार हाथों में कुमद ु , पण् ु डरीक, राकेन्द ु एवं अमत ृ है । मस् ु कुराते चेहरे में नाक -कान आभूषण से युक्त हैं। उन आभूषणों में मोती हैं। षोडशदल कमल के मध्य में शक्ति आसीन है जो अपनी १६० वर्णात्मक शक्तियों से परिवत्ृ त है । ठ्वं स्ह्ह्रीं ज्ह्रौं अमत ृ ेश्वरी।। (त्र्यक्षरी विद्या) 'ठ्वां ठ्वीं ठ्वूं ठ्वैं ठ्वौं ठ्वः ' से करन्यास और षङ्गन्यास होता है। अमत ृ ेश्वरी विद्या का अंगन्यास सोलह अमत ृ संस्थानों पर होता है अब अमत ृ संस्थान वाले अंग का वर्णन करते हैं, साथ ही प्रयुक्त मन्त्र को भी प्रकाशित करते हैं । त्र्यक्षरी विद्या रूप अमत ृ ेश्वरी विद्या को क्रमशः स्वरों से युक्त करते हुए प्रत्येक अंग में न्यास करते है। न्यास का क्रम शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्ष में क्रमशः अनुलोम और विलोम क्रम में होता है । ये स्थान है -- तिथि / शरीर अंग .. मन्त्र शुक्लपक्ष प्रतिपदा - पाद अंगुष्ठ (पुरुष का दांया और स्त्री का बांया)। ... ठ्वं स्ह्ह्रं झ्रं द्वितीया- पादपष्ृ ठ ... ठ्वां स्ह्ह्रां झ्रां तत ृ ीया -- टखना ... ठ्विं स्ह्ह्रिं झ्रिम ् चतर्थी ु -- घुटना .. ठ्वीँ स्ह्ह्रीँ झ्रीम ् पंचमी -- लिङ्ग/योनि -- ठ्वुं स्ह्ह्रुं झ्रम ु ् षष्ठी -- नाभि -- ठ्वूं स्ह्ह्रूं झ्रम ू ् सप्तमी -- ह्रदय -- ठ्वं ृ स्ह्हृम ् ज्ह्ऋं अष्टमी -- स्तन -- ठ्व.ृ म ् स्ह्हृ.म ् ज्ह्ऋ.म ् नवमी -- गला -- ठ्ल्वं ृ स्ह्ह्र्लम ृ ् झ्र्लम ृ ् दशमी -- नाक -- ठ्ल्व.ृ म ् स्ह्ह्र्ल.ृ म ् ज्ह्रल.ृ म ् एकादशी -- आँख -- ठ्वें स्ह्ह्रें झ्रें द्वादशी -- कर्ण -- ठ्वैं स्ह्ह्रैं झ्रैं त्रयोदशी -- भ्रू (भौंह) -- ठ्वों स्ह्ह्रों झ्रौं चतुर्द शी -- कपोल/कनपटी -- ठ्वौं स्ह्ह्रौं झ्रौं , पूर्णिमा -- ललाट/मस्तक (मर्धा ू )-- ठ्वं स्ह्ह्रं झ्र और सोलहवें मन्त्र से सभी पंद्रह स्थानों में न्यास करते हैं -- ठ्वः स्ह्ह्रः झ्र: कृष्ण पक्ष में ये क्रम उलट जाता है -- अर्थात ् कृष्ण पक्ष में मस्तक से आरम्भ होकर क्रमशः नीचे उतरते हुए अमावस्या को बाएं पैर के अंगूठे (स्त्री के दाहिने) में स्थित होता है । पन ु ः शुक्लप्रतिपदा को पुनरावर्ती क्रम में दायें अंगूठे से (स्त्री का बांये अंगठ ू े के क्रम से) क्रम आरम्भ हो जाता है । इस अंग सहित सम्बन्धित मन्त्र और विधि सब पर्व ू वर्ती ही रहते हैं। इस प्रकार षड्विध न्यास करने से अमत ृ ेश्वरी विद्या साधक के सभी कल्मषों का नाश कर दे ती है । .. ....(उत्तरार्ध खण्ड) क्रमशः । भगवत्कृपा हि केवलम ्