Drama

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कठ-पूतली

(एकोक्ति)

(कठ-पूतली मंच पर प्रवेश करती हुई)

तंग आ गई हूँ इस ताने-बाने के जगत से. पर में तो कठ-पूतली. करूँ तो क्या करूँ. डोर तो किसी और के हाथो में . वह जैसे नचाए वैसे नाचना. हँसाए
तब हसना और रुलाए तब रोना| मेरे दोनों हाथो बंधे हुए और फिर भी मझ
ु े ताली बजानी हे | पाओं में बेड़ियाँ फिर भी नाच ना| मेरे होंठ फाड़ कर स्मित
लाए और उस पर मेरी पलके खिंच कर पट-पटाए| तंग आ गई हूँ इस बंधी हुई ज़िन्दगी से| मझ
ु े निर्बाध होना हे | मझ
ु े पग-डंडी के उस पार जाना हे और
मेरा तमाशा दे ख कर किल्लोल करने वाले लोगो के मेले में शामिल हो कर मुझे भी किल्लोल का मज़ा लेना हे .

ये क्या हुआ? वोह पगड़ी वाला कह रहा था की अलक-मलक में फिरने वाली कोई दै वी आत्मा, किसी धन्य पल में अपनी इच्छा सन
ू ले तो सच हो
जाती हे | मेरे बंधन टूट रहे हे | मेरे चरण मुक्त हो गए, मेरे हाथ हवा को काट रहे हे और पट-पटाती हुई मेरी पलके निर्जन गली के सूनेपन को चीर कर उस
एक के बाद एक हार-बंध रखे हुए दिए, फूट-पाथ पर अंकुरित तारे नहीं आकाश पर, नहीं धरती पर|

चारो तरफ नीरव शान्ति हे | रात भी जैसे सो गई हे | दरू -दरू से आ रहा किसी तांगे के घुंघरू की जंकार| कितना शांत, कितना मधुर हे यह जगत|
यह सब छोड़ कर आज-तक में उस डोरी वाले के हाथो में जीती रही? ओह... कोई नहीं हे वो तो मेरे घुंघरू की जंकार हे |

अरे ... इस बाग़ के लोहे के बड़े दरवाज़े आज खुले हुए क्यूँ हे ? जैसे बांहों को फेला कर मुझे अन्दर बुला रहे हे | एक जैसी महें दी की बाड के बिच
मिटटी का बना मख-मली रास्ता, यह तो मकान हे या महल? वहाँ ऊपर एक खिड़की प्रज्वलित| बाकी सारा महल मह
ूं खोले हुए किसी बड़े भीमकाय प्राणी
जैसा विकराल| डर लगता हे |

इसकी ज़मीन इतनी नर्म क्यूँ? ओह... यह तो गालिचा, पैरो में गुदगुदी होती हे . संगे मरमर की सीडी, ज़ुमर का जंनकार| इतने बड़े घर में चार लोग
फ़ैल सके इतना बड़ा तो बिछाना हे | क्या कहा आपने? मेरी राह दे ख रहे थे... आप किसी का भी इंतज़ार नहीं कर रहे थे? बेटा-बेटी कोई नहीं हे ? सब हे | सच
ही तो हे , जवानी का मतलब मस्ती, ज़ल्दी, उमंग| आप को हुआ क्या हे ? मौत वह तो राग का परिणाम हे , रोग नहीं हे |

क्या? आप मर रहे हे ? अकेले, अकेले| मरना तो अकेले ही पड़ता हे | पर आखिर तक कोई तो पास हो न... जिस वक्त महत्व-कांक्षा पाल ली उसी पल
आप ने मत्ृ यु को पा लिया| अब तो सिर्फ साँसों का आना-जाना ही हे बस| पूरी ज़िन्दगी गिनाते रहे | रुपिया, मिल्कत, कारखाने ! गिनो तो गिन न सको और
चुनो तो चुन न सको इतना| अब आपकी जोली में नहीं समाते, गिन-गिन कर थक से गए हो| आखरी गिनती मुझे करनी हे ? क्या? बागीचे में खिले हुए
गल ु म्होर को में गिन?
ु म्होर के गल ू पर क्यँ?
ू क्या? उस पर जितने फुल हे उतनी आपकी ज़िन्दगी के तास बाकी हे | आपको जानना हे ? ठीक हे ... में कहूंगा
आपको... ठीक हे तो नहीं कहूंगा बस... में खुद समज जाउं गा और दस ू ा| कहो, और
ु रे दिन शाम को आ कर गुलम्होर के फूलो को आपके बिछाने पर रख दं ग
क्या बिनती करनी हे ? क्या? सब से कम फूलो वाला वक्ष
ृ पसंद करू? पर क्यँू?

अब भी बागीचे से आती रात-रानी की ख़ुशबू मेरे नाक़ में हे वही हे निर्जन, निर्मेक, सड़क पर में कदम पे कदम बढाए जा रही हूँ और पीछे मुड़कर
दे खा तो, पाओं के निशान बन ही नहीं रहे हे इस पक्की सड़क और में आगे ही आगे| मुड़ती हुई सड़क ख़तम हो गई| अब तो घोर अन्धकार हे | कुत्ते की
भोकने की आवाज़, रात-रानी की महक की जगह गटर की बदबू| छि... यह गन्दी खट्टी बास मुझे पसंद नहीं हे | पर वहाँ अंधकार को मिटाने का मिथ्या
प्रयत्न करता हुआ दिया जग-मग हो रहा हे | सब जग्गि
ु या शांत, नींद में भी यह लोग गाली-गलूच कर रहे हे | बच्चो का रोना, कुत्तो का रोना... रास्ते पर पड़े
कुत्ते, बकरे , आदमिओ|

ु औरत क्यों बड-बड़ा रही हे ? यह यातना के मारे नहीं हे | व्यथित मानवी की सिसकियाँ हे | से छलनी उसका चहे रा| वेदना के हल ने उसके
वह बुज़र्ग
चहे रे के खेत पर पड़े हुए चास, सक
ु ी आँखे, जिसमे आंसू नहीं हे , व्यथा नही, रोष नहीं, मात्र कटुता, एक में कटुता और दस
ु रे में निराशा – परु े जग्ु गी का खाली
पन एक ओथार बन कर चारो तरफ से हमें दबा रहा हे | मौत यहाँ की हवा के कण-कण में फ़ैल कर उसकी बंधी हुई काया की आस-पास गोल-गोल घूम रही
हे | दे खो, इस गोली को दध
ू के साथ लेना| अभी दध
ू लाती हूँ| दध ू ान के पास गई|
ू वाले की दक

अरे , इतनी बड़ी लाइन – अरे मुझे जाने दो| माजी बीमार हे , मुझे दध
ू चाहिए| नहीं – के के बात एक – में दध
ू लिया – फिर चीनी लेने गई वहा पर
भी एसी ही लाइन में खड़े हो कर... और फिर दौडती – दौड़ती उस माजी के पास आई| खुला हुवा मुह जाने दध
ू का इंतज़ार कर रहा हो| उसके पास| बैठा
हवा उसका पीया बेवडा बेटा बाद-बड़ा रहा था| “अच्छा हवा मर गई| अब उसे कभी दवा की ज़रूरत नहीं होगी और इसलिए दध
ू की भी – में दोड़ती ही रही
– वोह गन्दी गलिया, पक्की सदके, बड़े बड़े दरवाज़े, गिरा हुआ गल
ु म्होर का पेड़| राणोजी-हाँ, में खो गई थी इस सीमें ट के जड
ुं में फिर याद आ गई| हूँ-फिर
एक बार फिर एक बार – फिर एक बार (कठ-पत
ु ली का अभी ने करती हुई)

1
कठ-पत
ू ली (एकोक्ति)_RK_Oct’16

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