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एके�रवाद क� वास्त�वकता व

अपे�ाएं
[ �हन्द & Hindi & ‫] ﻫﻨﺪي‬

साइट इस्लाम धम

संशोधनः अताउरर्हमान �ज़याउल्ल

2014 - 1435
‫ﺣﻴﻘﺔ اﺘﻟﻮﺣﻴﺪ وﻣﻘﺘﻀﺎه‬
‫» ﺎلﻠﻐﺔ اﻬﻟﻨﺪﻳﺔ «‬

‫مﻮﻗﻊ دﻳﻦ اﻹﺳﻼم‬

‫مﺮاﺟﻌﺔ‪ :‬ﻄﺎء الﺮﻤﺣﻦ ﺿﻴﺎء اﷲ‬

‫‪2014 - 1435‬‬

�ब�स्मल्ला�हरर्हमािनरर
म� अ�त मेहरबान और दयालु अल्ला के नाम से आरम् करता हूँ।

‫ وﻧﻌﻮذ ﺑﺎﷲﻣﻦ ﺮﺷور‬،‫ن اﺤﻟﻤﺪ ﷲ �ﻤﺪه و�ﺴﺘﻌﻴﻨﻪ و�ﺴﺘﻐﻔﺮه‬


‫ وﻣﻦ ﻳﻀﻠﻞ‬،‫ ﻣﻦ ﻳﻬﺪه اﷲ ﻓﻼ مﻀﻞ ﻪﻟ‬،‫ وﺳيﺌﺎت أﻋﻤﺎﻨﻟﺎ‬،‫ﻔﺴﻨﺎ‬
:‫ و�ﻌﺪ‬،‫ﻼ ﻫﺎدي ﻪﻟ‬

हर �कार क� हम् व सना (�शंसा और गुणगान) केवल

अल्ला के िलए योग् है , हम उसी क� �शंसा करते ह� , उसी

से मदद मांगते और उसी से क्ष याचना करते ह� , तथा हम

अपने नफ् क� बुराई और अपने बुरे काम� से अल्ला क�

पनाह म� आते ह� , �जसे अल्ला तआला �हदायत �दान कर दे

उसे कोई पथ�� (गुमराह) करने वाला नह�ं, और �जसे गुमराह

कर दे उसे कोई �हदायत दे ने वाला नह�ं। हम् व सना के बाद

3
एके�रवाद क� वास्त�वकता व अपे�ाएं

और मानव-जीवन पर उसके प्रभ

मनुष्य क� �क ृित व �वृित और उसका अंतःकरण �कसी

परा-लौ�कक (Divine) श�� से उसके मानिसक,

भावनात्मक एवं व्यावहा�रक संबंध क� मांग करता है

उसी श�� को इन्सान चेतन व ज्ञान के स्तर पर,

अल्ला, ख़ुदा, गॉड आ�द कहता है । यहां तक �क �व� के

कुछ भाग�, जैसे अ��क़ा व भारत के कुछ क्षे�� म� कु

असभ्य वनवासी आ�दम जनजाितय� (Aborigine

tribes) म� भी ई�र क� एक धुंधली, अस्प� प�रकल्पन

पाई जाती है । ज्ञात मा-इितहास म� (वतर्मान काल के

कुछ ना�स्तक� को छोड़क) अने�रवाद� लोग कभी नह�ं

रहे । यह� तथ्य परालौ�कक श�� धमर् क ामूलतत्व


4
धािमर्क मान्यताओं कामूल केन्� रहा, और यह� ‘ई�र

म� �व�ास’ अथार् त् ’ई�रवाद’ शा�त सत्य धमर् क

मूलाधार रहा है ।

एके�रवाद (तौह�द) क� वास्त�वकत

‘एक ई�र है और मनुष्य के जीवन से उसका अप�रहायर

(नागुज़ीर, Inevitable) संबंध है ’ यह धारणा अगर

�व�ास बन जाए तो मनुष्य और उसके जीवन पर बहुत

गहरा, व्यापक और जीवंत व जीव-पय�त सकारात्मक

�भाव डालती है । ले�कन यह उसी समय संभव होता है

जब एके�रवाद क� वास्त�वकता भी भल-भांित मालूम हो

तथा उसक� अपेक्षाए(तक़ाज़े) अिधकािधक पूर� क� जाएं।

वरना ऐसा हो सकता है और व्यावहा�रक स्तर पर ऐस

होता भी है �क एक व्य��’एक’ ई�र को मानते हुए भी

5
जानते-बूझते या अनजाने म� (एके�रवाद� होते हुए भी)

अनेके�रवाद� (मुश�रक) बन जाता, तथा एके�रवाद के

फ़ायद� और सकारात्मक �भाव� से विचत रह जाता है ।

मानवजाित के इितहास म� यह एक बहुत बड़� गंभीर और

जघन्य �वडंबना रह� है �क लोग और क़ौम�’एके�र’ क�

धारणा रखते हुए भी अनेके�रवाद या बहुदेववाद (िशकर)

से �स्त होती रह� ह�। यह अनेके�रवाद क्या , इसे

समझ लेना एके�रवाद क� वास्त�वकता को मझने के

िलए अिनवायर् है

एके�रवाद क� �वरोधो��

ई�र से संबंध सामान्यतः उसक� पूज-उपासना तक

सीिमत माना जाता है । च�ूं क ई�र अदृश्(Invisible)


6
होता है , िनराकार होता है , इसिलए पूजा-उपासना म� उस

पर ध्यान के�न्�त करने के िलए उसके �तीक स्व

कुछ भौितक �ितमाएं बना ली जाती ह� । �फर ये �ितमाएं

ई�र का �ितिनिधत्व करती मान ली जाती ह�। यह�ं से

अनेके�रवाद का आरं भ हो जाता है । ‘�तीक’ ह� ‘अस्’

हो जाते ह� और ई�र के ई�रत्व म� शर�-साझीदार

बनकर स्वयं पूज-उपास्य बन जाते ह�। एके�रवाद

प�रवितत
र व �वकृत होकर ’िनयमवत ् अनेके�रवाद’ का

रूप धारण कर लेता है। सत-पथ से, इस ज़रा-से

�फसलने और �वचिलत होने के बाद, �फर क़दम ठहरते

नह�ं, और आदमी को न कह�ं क़रार िमलता है न संतोष

व संतु��। अतः धम� और धमार्वलं�बय� का इितहास

साक्षी है �क न, रसूल, ऋ�ष, मुिन, महापुरु, पीर,

7
औिलया सब पूज्-उपास्य बना िलए जाते रहे ह�। �फर

इन्सानी क़दम और अिधक �फसलत, �वचिलत व पथ��

होते ह� और इन्सान सूय, चन्�म, नक्ष, तारागण, अ�ग्न

को, �फर �ेतात्माओ, �ज़न्दा या मुदार् इन्स, समाज

सुधारक�, �ांितकार� �वभूितय�, माता-�पता, गुरुओं आ�द

को और �फर इससे भी आगे—वृक्, पवर्त, न�दय�,

पशुओं, यहां तक �क सांप क� भी पूजा होने लगती है ।

�फर जन्मभूि, रा�, धन-दौलत, पुरु-शर�र-अंग तथा

कारखान� म� काम करने वाले औज़ार भी पूजे जाने लगते

ह� । अनेके�र पूजा व अने�र पूजा कह�ं ठहरती नह�ं और

िनत नए-नए पूज्य� क� वृ�� होती रहती है। इस �कार

एके�रवाद का वह भव्य दपर्ण �जसम� मनुष्य अपने

ई�र के बीच यथाथर् संबंध का �ारूप स्वच्छ रूप म�

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सकता और उसी के अनुकूल एक सत्यिन, न्यायिन,

उ�म, शांितमय तथा ईशपरायण व्��गत, सामा�जक व

सामू�हक जीवन व्यतीत कर सकता थ, चकनाचरू होकर

रह गया। ‘एक ई�र’ के बजाए बहुसंख्य अनेके�र� के

आगे शीश नवाते-नवाते मनुष्य(जो ��ाण्ड क� तमाम

स�ृ �य� से �े�, महान, और उत्क ृ� व अनुपम थ) क�

ग�रमा और उसका गौरव टू ट-फूटकर, चकनाचरू होकर रह

गया। इन्सान के अन्, समाज के अन्दर तथा सामू�हक

व्यवस्थ ा म� ऐसी जो छो-बड़� अनेक ख़रा�बयां पाई

जाती ह� �जनके सुधार क� कोई भी कोिशश कामयाब नह�ं

हो पाती, उनके �त्यक्ष कारण व कारक जो भी, सच

यह है �क परोक्षतः उनक� जड़ म� अनेके�रवा (या

अने�रवाद), मूल कारक के तौर पर काम करता रहता है ।

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यह�ं से मानवीय मूल्य� क� महत्वह�न, मानव-च�र� का

पतन तथा मानव-सम्मान के �वघटन व �बखराव क�

उत्प�� होती है। मानवजाित पर छाई हुई इस �ासद� के

प�र�े�य म� यह बात अत्यंत महत्वपूणर् है �क स

�वकल्प तलाश �या जाए। संजीदगी और सत्यिन�ा के

साथ ग़ौर करने पर यह �वकल्प‘�वशु� एके�रवाद’ के

रूप म� सामने आता है

�वशुद्ध एके�रवा(तौह�दे ख़ा�लस)

इन्सान क� मूल �वृित उसे अशु, �िमत, िमलावट�,

खोट� और �दू�षत वस्तुओं के बजा, �वशु� (Pure) और

खर� चीज़� हािसल करने तथा इसके िलए �यासरत होने

का इच्छुक व �य�शील बनाती है। मनुष्य जब अपन

भौितक व शार��रक जीवन-साम�ी के �ित इस �दशा म�

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भरसक �य� करता है तो उसे आ�त्मक व आध्या�त्

जीवन-क्षे� म ‘�वशु�’ क� �ाि� के िलए और अिधक

�य�शील होना चा�हए, क्य��क यह� वह आयाम है जो

मनुष्य को सृ�� के अन्य जीव� से �े� व महान बनात

है । �जन सौभाग्यशाली लोग� को भौितकत-�स्त जीवन

�णाली क� चकाच�ध, हं गाम�, भाग-दौड़ और आपाधापी से

कुछ अलग होकर इस �दशा म� �यासरत होने क� �फ�

होती है , अक्सर ऐसा हुआ ह �क वे अनेक व �विभन्न

दशर्न� म� उलझ क, एक मानिसक व बौ��क च�व्यूह म�

खोकर, भटक कर रह जाते ह� । अगर यह तथ्य और

शा�त सत्य सामने रहे �क अत्यंत दयावान ई�र अपन

बन्द� को �दशाह�नता व भटकाव क� ऐसी प�र�स्थित म

बेसहारा व बेबस नह�ं छोड़ सकता और उसने ईशदूत� व

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ईशवाणी (ईश-�ंथ) के माध्यम से इन्सान� क� इ

महत्वपूणर् व बुिनयाद� आवश्यकता क� पूितर् का �य

व �बंध अवश्यावश्य �कया होगा तो एके�रवाद क� उलझ

हुई डोर का िसरा—�वशु� एके�रवाद—इन्सान के हाथ

लग सकता है । यह मा� एक कोर� कल्पना नह�ं है ब�ल्

इितहास के हर चरण म� और वतर्मान युग म� भ,

इन्सान� को‘‘ईशदूत तथा ईश-�ंथ’’ के माध्यम से इस

अभी� (Required) ‘�वशु� एके�रवाद’ का ज्ञान तथ

इसक� अनुभूित व �ाि� होती रह� है । इसे अलग-अलग

युग�, भूखड
ं �, क़ौम� और भाषाओं म� जो कुछ भी अलग-

अलग नाम �दए गए ह�, यह वतर्मान युग म� (�पछले

१४०० वष� से) ‘इस्ला’ के नाम से जाना जाता है ।

�वशुद्ध एके�रवाद और इस्

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इस्ला, �वशु� एके�रवाद क� व्याख्या को उलझ,

�ामकता, अस्प�त, अपारदिशर्ता से बचाने के िल, इसे

दाशर्िनक, �व�ान�, धमार्चाय, स्कलसर् और उलमा के

सुपुदर् नह�ं करता। यहां मूल रूप से स्वयं ई�र ने

अपने �ंथ (क़ुरआन) म�, जो �क ईशदूत हज़रत मुहम्मद

(सल्ल्लाहु अलै�ह व सल्) पर सन ् ६१० ई॰ से ६३२

ई॰ क� अविध म� अवत�रत हुआ, �वशु� एके�रवाद क�

व्याख्या कर द� है। क़ुरआन का अिधकांश ग �त्यक

या परोक्ष रूप से ऐसी ह� िशक्षाओं से भरा हुआ है।

ऐसी िसफ़र् दो व्याख्याओं के भावाथर् का अनुवाद �दया

रहा है —

• ''... वह अल्लाह ए, यकता है ।१ अल्लाह

स्वाध�रत व स्वाि�त ह२ वह न जिनता है , न

13
जन्य३ और कोई उसके समान, समकक्

नह�ं।४’’ (क़ुरआन, ११२:१-४)

• ‘‘अल्लाह वह जीवंत शा�त स�ा है जो संपूणर

जगत को संभाले हुए है ।५ उसके िसवा कोई

पूज्-उपास्य(इलाह) नह�ं है । वह न सोता है न

उसे ऊंघ लगती है ।६ ज़मीन और आसमान� म� जो

कुछ है , उसी का है । कौन है जो उसके सामने

उसक� अनुमित के �बना (�कसी क�) िसफा�रश

कर सके?७ जो कुछ इन्सान� के सामने है उसे

और जो कुछ उनसे ओझल है उसे भी वह ख़ब


जानता है और वे उसके (अपार व असीम) ज्ञा

म� से �कसी चीज़ पर हावी नह�ं हो सकते िसवाय

उस (ज्ञ) के �जसे वह ख़ुद (इन्सान� क) दे ना

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चाहे । उसक� कुस� आकाश� और धरती को समोए

हुए है । और उन क� दे ख-रे ख व सुरक्षा का का

उसके िलए कुछ भी भार�, क�ठन नह�ं। बस वह�

एक महान और सव�प�र स�ा है ।’’ (क़ुरआन,

२:२५५)

क़ुरआन क� उपयु�
र आयत� म� �वशु� एके�रवाद का जो

सं�क्ष� िच�ण �कया गया , य��प पूरे क़ुरआन म�

जगह-जगह उसे �वस्तार के सा, उदाहरण�, तकर् तथा

सबूत व �माण [जो मनुष्य के अपने अ�स्त—

‘अन्फु’—और ��ाण्—‘आफाक़’—म� फैले हुए ह�

(४१:५३)] के साथ व�णर्त �कया गया ह, �फर भी, उपयु�


सं�क्ष� व्याख्या भी बु��वान� तथा �ववेकशील� के

अनेके�रवाद क� तुलना म�, या �िमत व अस्प�

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एके�रवाद के प�रदृश्य म‘�वशु� एके�रवाद’ क� साफ़-

सुथर�, स्प� तथा सर, सहज व पारदश�

(Transparent) तस्वीर पेश करती है। इस तस्वीर क

दे खकर कोई भी सत्यिन� और पूवार्�हर�हत इन्,

एके�रवाद क� वास्त�वकता पा जाने से वंिचत या

असमथर् नह�ंरह सकता।

संदभर

1. अथार् त् वह ‘अनेक’ नह�ं है । श��, सामथ्य,

क्षमताओं और गुण� क� �जतनी भी अनेकताएं ,

वह सब िमलकर, एक होकर, उस ‘एक ई�र’ म�

समाई हुई ह� ।

2. अथार् त् वह �कसी पर आि�त व आधा�रत नह�,

�कसी का मुहताज नह�ं �क ��ाण्ड के सृज,


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संचालन व �बंधन म� उसे �कसी और क�

साझीदार�, सहयोग व सहायता क� आवश्यकता

हो।

3. अथार् त् न उसक� कोई संतान है न वह �कसी क�

संतान है ।

4. अथार् त् वह अपने आप म� संपूण, बेिमसाल

(Unique) है ।

5. संपूणर् ��ाण्ड को संभालने म� वह कुछ अन

�वभूितय� (दे वताओं, दे �वय�, गॉड आ�द) पर

िनभर्र नह�ं है

6. अथार् त् वह नीं, ऊंघ (और भूख-प्यास आ�)

आवश्यकताओं व कमज़ो�रय� से परे और उच्च ह

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7. अथार् त् उस तक पहुंचन, उसक� �सन्नता व

क्षमाका�रता पाने के ि, उसके �कोप से बचने

के िलए (सांसा�रक स�ाधा�रय� के दरबार म� अन्य

लोग� क� िसफा�रश क� तरह) �कसी क� िसफा�रश

काम नह�ं आती। परलोक-जीवन म� भी नह�ं,

िसवाय उस व्य��(अथवा नबी, रसूल) के �जसे

स्वयं ई�र �कसी के हक़ म� िसफा�रश करने क�

अनुमित दे ।

ई�र के गुण

ई�र के गुण� के संबंध म� दाशर्िनक� और धमर्�वन�

(Theologians) ने अपने म�स्तष्क काफ� थकाया है ।

अपने स्वतं� व स्वच ्छंद िच-मनन से (अथवा ई�र�य

माग्
र दशर्न से िनस्पृह या �वमु� ह) वे जब ध्या-ज्ञा

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क� ���या से गुज़रे तो इस िनष्कषर् पर पहुंचे �क ई�

गुणह�न है , अथार् त्‘िनगुर्’ है । इस िनष्कषर् से यह बा

अवश्यंभावी हो जाती है �क ‘ई�र वास्तव म� एक

िन�ष्�य(Idle, inert, non-potent) अ�स्तत्व ह’ इस

�वचारधारा के अनुसार ई�र और सृ�� (His creations)

मुख्यतः ‘मानव’—के बीच �कसी जीवंत संबंध क�

प�रकल्पना �वलीन और समा� हो जाती है। �फर मनुष,

ई�र से पूर� तरह कटकर रह जाता है तथा समाज व

सामू�हक व्यवस्था क� भी ऐसी ह� �स्थित हो जाती ह

मानवता तथा मानवजाित को बड़े -बड़े आघात और नैितक

व आध्या�त्मक क्षित इसी कारण पहुंच, क्य��क ई�र

और मनुष्य� के बीच चेतना के स्तर पर संब-�वच्छेद

‘मान�वक’ नह�ं अ�पतु ‘पा��क’ है (पशुओं का ई�र से

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संबंध उनक� चेतना के स्तर पर नह�, मा� भौितक व

शार��रक स्तर पर होता ह)।

इस्लाम क�‘�वशु� एके�रवाद’ क� अवधारणा ने उपयु�


र ,

स�दय� क� �बगड़� हुई �वचारधारा का शु��करण करके

गुणवान ई�र क� प�रकल्पना को इस �कार स

पुनस्थार्�पत �कया �क इन्सान का ई�र से टूटा हुआ

खोया हुआ �रश्ता �फर से क़ायम हो गया। यहां ई�र

अपने गुण� और सामथ्यर् के स, हर पल, हर अवस्था

म�, हर जगह, अपने बन्द� के साथ है। ई�र अ��तीय है

अथार्त �कसी भी �कार के िशकर् से परे। वह मनुष्

(तथा अन्य सभी �ा�णय) के �ित दयावान, कृपाशील है ।

वह बुरे काम� पर �ोिधत होता और नेक काम� पर

�सन्न होता है। वह स्वािमत्व वाला �भुत्व वाला है

20
मा� उसी के �ित दासताभाव व आज्ञापालन म� जीव

�बताना चा�हए। वह न्याय��य है अतः मनुष्य� क

न्याय�य, न्यायी व न्यायिन� होना चा�हए। वह न्याय

है अतः �जन लोग� के साथ इस सीिमत जीवन और

�ु�टपूणर् सांसा�रक न्य-क़ानून-व्यवस्थ ा म�पूरा न्य

(या आधा-अधूरा न्याय या कुछ भी न्य) नह�ं िमल

सका उन्ह� वह परलोक म� न्याय �दान कर देगा। व

इन्सान� केहर छोटे -बड़े काम, हर गित�विध हर ��या-

कलाप का िनगरां व िनर�क्षक है अतः कोई इन्सान अप

बुरे काम� के दषु ्प�रणाम (नरक) से ई�र के समक्

परलोक म� बच न सकेगा, न सद्कम� के पुरस्का(स्वग)

से वंिचत रहे गा। वह हर चीज़ का जानने वाला, हर बात

क� पूर� ख़बर रखने वाला है अतः उसक� पकड़ तथा

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उसके सामने उ�रदाियत्व से परलोक म� कोई भी व्य�

बच न सकेगा। वह अकेला पूज्-उपास्य है अतः वह

‘िशकर’ को बदार्श्त नह�ं करेगा और परलोक म� दंड देगा

वह सवर्सामथ्यर्, सवर्सक्षम है अतः कोई दूसरा उस

काम�, फ़ैसल� और अिधकार� म� उसका

साझीदार नह�ं...इत्या�द

इस �कार, ई�र के अनेक गुण� के साथ इस्लाम क�

‘एके�रवाद’ क� धारणा इन्सानी �ज़न्दगी और मा-

समाज को नेक�, नैितकता, सत्यिन�, न्या, उत्सग,

परोपकार, िनःस्वाथर्, अनुशासन और उ�रदाियत्-भाव

के आधार पर िनिमर्त व सुिनयो�त करने म� महत्वपूणर

व �भावी भूिमका िनभाती है ।

22
ई�र के अ�धकार, एके�रवाद क� अपे�ाएं

इस्लाम म� एके�रवाद क� धारणा के साथ ई�र के �ित

इन्सान� के कतर्, अ�वभाज्य रूप से जुड़े हुए ह�। य

कतर्व्यपरायणता ई�र और इन्सान के बीच एक जीव

संबंध का आधार बनती है तथा इन्सानी �ज़न्दगी म� ई�

क� भूिमका िशिथल, िन�ष्�, नह�ं मानी जाती। अपनी

जीवन-चयार् के हर क, हर पल, इन्सान को यह आभा,

एहसास और �व�ास रहता है �क ई�र से उसका

व्यावहा�रक संबंध घिन� है। ई�र हर पल उसके साथ है

(क़ुरआन, ५०:१६)। ई�र उसके हर कमर, कथन, आचार,

व्यवहार क� िनगरानी व िनर�क्षण कर , उसे अंधेरे

और एकांतवास म� भी दे ख रहा है । वह एक स्वतं� �ाणी

23
नह�ं, ब�ल्क ई�र के समक्ष अपने काम� का उ�रदायी

और परलोक म� ई�र उससे हर अच्छ -बुरे काम का �हसाब

करे गा, �फर या तो उसे स्गर् �दान करेगा या नरक म�

डाल दे गा।

ई�र के �ित मनुष्य� के कतर्व्य क ्य? ई�र के

अिधकार� का अदा करना। इन अिधकार� का सार कुछ

इस �कार है —

• ई�र क� पूजा-उपासना और इबादत क� जाए।

• पूजा-उपासना िसफर् ई�र ह� क� क जाए, �कसी

और क� हरिगज़ नह�ं। यह पूजा-उपासना क्या ह,

कैसी हो, कैसे क� जाए? यह मनुष्य स्वच ्छंद

से अपनी पसन्द व नापसन्द और अपनी आसान

के अनुसार तय न करे , ब�ल्क यह स्वयं ई�र�


24
आदे श� के अंतगर्त(जो ईश�ंथ क़ुरआन म� व�णर्त

ह� ) और ईशदूत हज़रत मुहम्मद (सल्ल्लाहु

अलै�ह व सल्ल) ने इसक� �जस �कार व्याख्य

कर द� है (जो ‘हद�स�’ म� उ�ल्ल�खत ह) के

अनुसार क� जाए, ता�क पूजा-उपासना और उसक�

प�ित व सीमा म� िन��तता (Certainty) और

अनुशासन (Discipline) रहे , उसम� �ामकता

(Ambiguity) का समावेश न हो और एक

व्यावहा�रक आदशर (Role Model) सदा सामने

रहे ।

• �ज़न्दगी के छोट-बड़े हर मामले म� ई�र का

आज्ञापालन �कया जा (तथा ईशदूत हज़रत

मुहम्मद(सल्ल्लाहु अलै�ह व सल्) का भी

25
आज्ञापा, (क़ुरआन, ३:३२, १३२, ४:५९, ८:१,

२०, ४६, २४:५४, ५६, ४७:३३, ५८:१३, ६४:१२,

१६ इत्या�)। इस आज्ञापालन का तात्पयर् यह

�क जीवन-संबंधी �जतने भी िनयम-क़ानून और

आदे श-िनद� श क़ुरआन और हद�स तथा हज़रत

मुहम्मद(सल्ल्लाहु अलै�ह व सल्) के आदशर्

म� मौजूद ह� उनका अनुपालन �कया जाए। (ये

आदे श-िनद� श जहां ई�र तथा ईशदूत, हज़रत

मुहम्मद(सल्ल) के �ित कतर्व्य� से संबंिधत ,

वह�ं मानव-अिधकार (हुक़ूक़-उल-इबाद) और जन-

सेवा (�ख़दमते ख़ल्) से भी संबंिधत ह� )।

ई�र के अिधकार� क� अदायगी क� अिनवायर्ता इसिलए

नह�ं है �क इसम� ई�र का अपना कोई �हत, कोई स्वाथ,

26
कोई फायदा है । क़ुरआन (११२:२) म� स्प� कर �दया गया

है �क ई�र क� हस्ती अपने आप म� स्वाि�त व

स्वाधा�रत ह, �कसी क� मोहताज या �कसी के आज्ञापाल

व पूजा-उपासना क� ज़रूरतमंद हरिगज़ नह�ं है। ईशदूत

हज़रत मुहम्मद(सल्ल्लाहु अलै�ह व सल्) के एक

कथन के अनुसार ‘समस्त संसार के सारे इन्सान ई�

क� इबादत और उसका आज्ञापालन क, तो भी उसका

कोई अपना व्य��गत लाभ नह�, उसक� महानता, गौरव

म� तिनक भी व�ृ � न होगी। और पूरे �व� के सारे

इन्सान उसक� इबादत और आज्ञापालन छोड़ द� तो

उसक� महानता, वैभव, गौरव और स�ा म� कोई कमी न

आएगी।’ वास्तव म� ई�र क� पूज-उपासना और

आज्ञापालन म� स्वयं मनुष्य और माित का ह� �हत

27
है । यह �वचारधारा और �व�ास मनुष्य के िल, इस्लामी

एके�रवाद का ऐसा अनुपम व अ��तीय पहलू है जो ग़ैर-

इस्लाम(Non-Islam) म� कह�ं भी नह�ं पाया जाता। इसम�

मानव-कल्याणका�रता क� पराका�ा (उच्चतम अवस्)

िन�हत है ।

एके�रवाद का मानव-जीवन पर प्रव

एके�रवाद क� वास्त�वकत, ई�र के गुण� और ई�र के

अिधकार� के सामंजस्य व समावेश से जो �स्थि

(इस्लामी प�र�े�य म) बनती है , उसका अवश्यंभावी

प�रणाम यह होना चा�हए �क �वशु� एके�रवाद क�

अवधारणा मानव-जीवन पर अपना ऐसा �भाव डाले जो

समाज के स्तर र जीवन-व्यवस्था क� ठोस ज़मीन प

स्प� और ��न्तकार� �भाव डाले (न �क इन्सान� के

28
मन-म�स्तष, आत्म, भावनाओं, ��ाओं, �वचार� और

आध्या�त्मकता क� दुिनया म� ह� िसम-िसकुड़� पड़� रहे )।

यह इस्लामी अवधारणा मान-जीवन पर जो अनेक और

वृहद व व्यापक �भाव डालत है उनम� से कुछ, संक्षेप म

िनम्निल�खत ह—

• च�रत-�नमार्ण : �वशु� एके�रवाद क� इस्लामी

अवधारणा, इन्सान को उस नैितकता से सुस�ज्ज

करती और आध्या�त्मक बल व आ�त्मक श

�दान करती है , जो �ितकूल प�र�स्थितय� म� भी

कमज़ोर और क्षित�स्त नह�ं होती �क उसके

पीछे ई�र�य श�� का सहयोग काम कर रहा

होता है । इस आ�त्मक श�� से इन्सान को ज

आत्-बल और आत्-�व�ास �ा� होता है वह

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उसके च�र� िनमार्ण म� �भावी भूिमका िनभाता

है ।

• मानवीय मूल्य : �ाकृितक रूप से जो शा�त

मानवीय मूल्य इन्सान क� �वृ का अंश तथा

उसके व्य��त्व म� र-बसे होते ह� ले�कन अनेक

आंत�रक व वा� कारण� से क्ष, जजर्र होकर

�वघ�टत व दोष यु� होने लगते ह� , ई�र से संबंध

क� घिन�ता उन्ह� लगातार बहाल करती रहती है

• उ�रदा�यत्व : �वकृ त मानिसकता और �ु�टपूणर्

सोच (लोभ-लालच, ईष्या-�े ष, �हसर-हवस और

स्वाथर् आ) के �भाव से इन्सान जब कोई ग़लत

काम, पाप-कमर् और अपराध आ�द करने का

इरादा करता है तो समाज और क़ानून-व्यवस्था क

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समक, उ�रदायी (Accountable) और जवाबदे ह

(Answerable) होने का एहसास उसे दषु ्कमर् करन

से रोक दे ता है । ले�कन समाज व क़ानून-व्यवस्थ

क� पहुंच व पकड़ क� सीमा व सामथ्यर् जहा

समा� हो जाती है उससे आगे बढ़ जाने के बाद

इन्सान �कसी पकड़ स, जवाबदे ह� से, उ�रदाियत्व

से या सज़ा के ख़ौफ़ से ख़ुद को परे और मु�

पाता है तो बड़े -बड़े पाप, दषु ्कमर् और अपराध क

गुज़रता है । यह �दन-�ित�दन का अनुभव है । इस

चरण म� पहुंचकर इन्सान को बुरे काम� से रोकने

का काम ‘�वशु� एके�रवाद’ क� अवधारणा इस

तरह करती है �क उसे परलोक म� ई�र के समक्

जवाबदे ह और उ�रदायी होने का, ई�र क� पकड़

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और सज़ा (नरक क� भीषण यातना) का ख़ौफ़

�दलाती है ।

• मानव-सम्मन : इन्सान �ायः अपनी ह� पहचान

को भूल जाता है �क ��ाण्ड म� उसक� हैिसयत व

मक़ाम क्या है। वह पूर� सृ�� म� �कतनी उच,

�े� व सम्मािनत क ृित है। �फर वह ख़ुद भी बहुत

िनम्न स्तर तक िगर जाता और जा, नस्,

वणर, वगर, सम्�दा, रं ग, भाषा और रा�ीयता

आ�द के आधार पर दूसरे इन्सान� के सम्मान प

डाके डालता, उन्ह� अपमािनत करत, उन्ह� अछूत

और त्याज् (Condemnable) क़रार दे दे ता है ।

मानव-इितहास मानव-सम्मान के ऐसे हनन से

भरा हुआ है । इस्लाम क� �वशु� एके�रवाद�

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अवधारणा म� इस घोर �ासद� का समाधान िन�हत

है । क़ुरआन (१७:७०) के अनुसार ई�र ने हज़रत

आदम (अलै�हस्सला) क� संतान (इन्सान) को

�े� व सम्मािनत बनाया। इतना सम्मािन

बनाया �क क़ुरआन ह� के अनुसार (२:३४, ७:११,

१७:६१, १८:५०) �थम मानव ‘आदम’ का सज


ृ न

करने के बाद ई�र ने, कुछ पहलुओं से इन्सान से

भी �े� ‘फ़�रश्त’ को हज़रत आदम

(अलै�हस्सला) के समक्ष -मस्तक हो जाने

का आदे श �दया था।

• मानव-समानता : कहने, िलखने और एलान व

दावा करने क� हद तक तो दे श� के सं�वधान� म�,

अन्तरार्�ीय उ�ोषणाओ (Declarations and

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charters) म� और आधुिनक समाजशा� म� सारे

इन्सान बराबर ह�। ले�कन यह एक सवर्�व�द

सत्य है �क पूर� मानवजाित म� व्यावहा�रक स्

पर करोड़� इन्सान असमानता (In-equality,

discrimination), शोषण (Exploitation),

अन्याय (Injustice) और अत्याचार

(Persecution) क� चक्क� म� �पस रह,

असमानता क� मार खा रहे ह� । इस्लाम क�

एके�रवाद� अवधारणा ह� है जो मानव-समानता

क� मज़बूत आधारिशला �दान करती है (क़ुरआन,

४९:१३) तथा मानव-समानता क� सह� व्याख्य

करती, उच्चतम मापदंड भी देती है

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• धैय् व संयम
र : �ितकूल प�र�स्थितय� म,

समस्याओं और चुनौितय� म, मुसीबत क� घ�ड़य�

म�, सत्य मागर् से �वचिलत कर देने वाल

(Provocating) हालात म� जब इन्सान मायू,

हताश (Frustrated) हो जाने, बाग़ी व उप�वी

बन जाने, आत्महत्या कर लेने क� �स्थित म�

जाता है और कोई चीज़ उसे सहारा दे ने वाली नह�ं

रह जाती तब उसे वह सहारा िमलता है �जसे

�वशु� एके�रवाद म� अ�डग �व�ास उसे �दान

करता है (क़ुरआन, ९४:५,६, ३९:५३)।

उपसंहार

उप�रिल�खत �ववेचन व पर�क्षण से यह बात स्प� रूप

िस� हो जाती है �क एके�रवाद के यथाथर् एवं शु�तम

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�ारू—‘�वशु� एके�रवाद’—क� इस्लामी अवधारणा का

हमारे जीवन के हर क्ष, हर �वभाग, हर अंश से �कतना

घिन�, जीवंत, सवा�गीण संबंध है । चाहे वह आ�त्मक क्ष

हो या भौितक, आध्या�त्मक हो या सांसा�, वैय��क हो

या सामा�जक व सामू�हक। इस्ला, मानवजाित के र-ब-

रू इसी का आहवाहक है। यह� इस्लाम का के-�बन् दु ह ,

इस्लामी आचारसं�हताव जीवन-�णाली क� धुर� (Axle),

इस्लामी जीव-व्यवस्था क� आधारिशल(Foundation

stone), इस्लाम क� आत्म(Spirit) है ।

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