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सयू र्िसद्धान्त में

इकाई 1 सूयर्िसद्धान्त में कालगणना कालगणना

इकाई क� �परेखा
1.0 उद्देश्य
1.1 प्रस्तावना
1.2 सयू र् िसद्धान्त में कालगणना
1.2.1 काल भेद
1.2.2 चन्द्र एवं सौरमास िन�पण
1.2.3 देव-असरु ों का िदन-राित्र मान
1.2.4 महायगु कालगणना प्रमाण
1.2.5 सिन्ध सिहत मनु काल प्रमाण
1.2.6 कल्प गणना प्रमाण
1.2.7 ब्र� िदवस गणना प्रमाण
1.2.8 ब्र� आयु गणना प्रमाण
1.2.9 वतर्मान काल मान
1.2.10 सृि�कालप्रमाण
1.3 सारांश
1.4 शब्दावली
1.5 कुछ उपयोगी पस्ु तकें
1.6 बोध / अभ्यास प्र�ो�र
1.0 उद्देश्य
इस इकाई के अध्ययन के प�ात आप :
• काल गणना के िवषय में �ान होगा ।
• स�ू म से लेकर स्थूल तक काल क� सभी इकाइयों का �ान होगा ।
• काल के िविभन्न �पों को समझ सकें गे ।
• काल के िवषय में बता सकें गे ।
• समझा सकें गे क� काल गणना का िवस्तृत स्व�प क्या है ।
1.1 प्रस्तावना
प्रस्ततु प्रथम इकाई “सयू र्िसद्धान्त में कालगणना” है। सयू र्िसद्धान्त में विणर्त काल के स�ू म एवं
स्थूल िजनको अमतू र् एवं मतू र् भी कहा गया है ऐसे काल मान क� िवस्तृत चचार् क� गई है। काल
भेद, चन्द्र एवं सौरमास िन�पण, देव-असरु ों का िदन-राित्र मान, महायगु कालगणना प्रमाण,
सिन्ध सिहत मनु काल प्रमाण, कल्प गणना प्रमाण, ब्रा� िदवस गणना प्रमाण, ब्र� आयु
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ऐितहािसक गणना प्रमाण, िजनमें त्रिु ट प्राणािद से लेकर ब्र�ा क� परम आयु महाकल्प तक क� िवस्तृत
कालगणना के गणना क� गई है। काल ही सृि� के संचालन का मल ू कारण है। ज्योितष को काल िवधान
प्राचीन एवं शा� भी कहा गया है जो िक महिषर् लगध ने भी कहा है “तस्मात् इदं काल िवधानशा�ं यो
अवार्चीन िसद्धांत ज्योितषं वेद स वेद य�म”् । इस प्रकार हम यहाँ सयू र्िसद्धान्त में विणर्त कालगणना के िवषय
में जानेंगे।
1.2 सयू र्िसद्धान्त में कालगणना
भारतीय काल- गणना क� व्यवस्था (System) को िजस सभ्यता ने िजस मात्रा और �प में
ग्रहण िकया उन्होंने उसी के अनसु ार ज्योितष और न�त्र िवद्या में प्रगित क� । आइये अब
आपको प्राचीन भारतीय काल- गणना व्यवस्था के कुछ प्रमख ु िबंदु से अवगत कराते हैं ।
भारतीय काल गणना िक िवशेषता ही ये है िक ये अचक ू एवं अत्यंत स�ू म है। िजसमें 'त्रटु ी' से
लेकर प्रलय तक क� काल गणना क� जा सकती है । ऐसी स�ू म काल गणना िव� के िकसी
और सभ्यता या सस्ं कृ ित में नहीं िमलती चाहे आप िकतना भी गहन अन्वेषण कर लीिजये ।
सयू र्िसद्धान्त के प्रथम अध्याय के प्रारम्भ में �ोक- 1 से लेकर �ोक 10 तक आख्यान शैली
में काल के आधार भतू सयू र् का मह�व बताते ह�ए सयू र् को प्रत्य� देवता कहा गया है यानी जो
हमें िदखाई देते हैं। मय क� तपस्या से प्रसन्न होकर सयू र्दवे ने उसे काल गणना का िवद्वान होने
का वरदान िदया था। मय ने सयू र् क� आराधना क�। मय उनसे कोई शि� प्रा� नहीं करना
चाहता था, वो िसफर् उनसे कालगणना और ज्योितष के रहस्यों का जानना चाहता था। उसक�
तपस्या से प्रसन्न होकर सयू र् ने उसक� इच्छा परू ी क�, लेिकन सयू र् कहीं ठहर नहीं सकते थे, सो
उन्होंने अपने शरीर से एक और प�ु ष क� उत्पि� क� और उसे आदेश िदया िक वो मय दानव
को कालगणना और ज्योितष के सारे रहस्यों को समझाए। सूयर् के प्रित�प से िमली िश�ा के
बाद मय दानव ने स्वयं भी ज्योितष और वास्तु के कई िसद्धांत िदए जो आज भी प्रामािणक हैं।
सयू र् के प्रितप�ु ष और मयासरु के बीच क� बातचीत को ही सयू र्िसद्धान्त का नाम िदया गया।
भारतीय सभ्यता के प्राचीनतम ग्रंथों में से एक 'सयू र्िसद्धान्त' में, भारतीय व्यवस्था के अनुसार
काल के दो �प बताये गए हैं-:
1.2.1 काल भेद
लोकानामन्तकृत् कालः कालोऽन्यः कलनात्मकः ।
स िद्वधा स्थूलसू�मत्वान्मूतर्�ामूतर् उच्यते ॥ 1/10 ॥
काल दो प्रकार का बताया गया है । िजनमें से एक प्रािणयों क� सृि� का सहं ार करने वाला
काल माना गया है और दसू रा गणना करने वाला काल माना गया है, इनमें से जो दसू रा गणना
करने वाला काल कहा गया है वह भी दो प्रकार का माना गया है- 1. पहला स्थल ू होने से मतू र्
सं�क माना गया है जो व्यवहार में िलया जाता है, 2. वहीं दसू रा स�ू म होने के कारण अमतू र्
अथार्त् व्यवहा�रक माना गया है।
प्राणािदः किथतो मूतर् �ुट्याद्यौमूतर्सं�कः ।
षड्िभः प्राणैिवर्नाडीस्या�त्ष�्या नािडका स्मृता ॥ 1/11 ॥
नाडीष�्या तु ना�त्रमहोरात्रं प्रक�ितर्तम् ।
तत् ित्रश
ं ता भवेन्मासः सावनोऽदयैस्तथा ॥ 1/12 ॥
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मतू र् और अमतू र् काल के िवषय में कहा गया है िक प्राण आिद काल मतू र् स�ं क तथा त्रिु ट आिद सयू र्िसद्धान्त में
काल अमतू र् सं�क कहे गए हैं। इन दोनों �ोकों का अथर् इस प्रकार है- कालगणना

 षड्िभः प्राणैिवर्नाडी: = छः प्राण क� एक िवनाड़ी अथार्त एक पल,


 तत्ष�्या नािडका स्मृता = साठ िवनाड़ी (पल) क� एक नाड़ी अथार्त एक घटी,
 नाडीष�्या तु = साठ नाड़ी (घटी) का
 ना�त्रमहोरात्रं प्रक�ितर्तम् = एक ना�त्र अहोरात्र माना गया है।
 तत् ित्रंशता भवेन्मासः = तीस अहोरात्र का एक मास कहा गया है।
 सावनोऽदयैस्तथा = दो सयू �दय के मध्य का काल सावन िदन कहलाता है।
�ोकों में दी गई काल क� इकाइयों को आधुिनक काल क� इकाइयों में िनम्न प्रकार
से समझ सकते हैं –
 1 प्राण = एक सामान्य स्वस्थ व्यि� के �ॉस लेने एवं छोड़ने का समय = 10 िवपल
= 4 सेकेण्ड । या 1 प्राण = 10 िवपल = 4 सेकेण्ड
 6 प्राण = 10× 6 = 60 िवपल = 24 सेकेण्ड = 1 पल
 ढाई पल = 24 सेकेण्ड × 2.5 = 60 सेकेण्ड = 1 िमनट
 60 पल (60 × 24 सेकेण्ड = 1440 सेकेण्ड) = 1 नाड़ी = 1 घड़ी या एक घटी =
24 िमनट [नाड़ी, घडी एवं घटी ये तीनों समान काल का ही बोध कराते हैं ।]
 60 घटी = 60 नाड़ी = 60 × 24 िमनट = 1440 िमनट = 24 घण्टा =1 ना�त्र
अहोरात्र
 30 अहोरात्र = 1 मास
 12 मास = 1 वषर्
काल क� इके यों के इन क्रम को िनम्न चाटर्-1 के माध्यम से समझा जा सकता है -

इस प्रकार से ये सभी उपर कई गई सभी काल क� इकाइयाँ सम्पणू र् स्थल


ू ( मतू र् ) कालगणना
पद्धित क� हैं ।
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ऐितहािसक 1.2.2 चन्द्र एवं सौरमास िन�पण
कालगणना के
प्राचीन एवं ऐन्दविस्तिथिभस्तद्वत् सक्र
ं ान्त्या सौर उच्यते ।
अवार्चीन िसद्धांत मासैदशिभवर्ष� िदव्यं तदह उच्यते ॥ 1/13 ॥
जैसे ितिथ एवं सक्रािं तयों से चान्द्र और सौर मास पवू र् में कहे गए हैं वैसे ही 30 चान्द्र ितिथयों
का एक चद्रं मास होता है, एक सक्रांित से दसू री सक्रांित पय�त एक सौर मास कहा जाता है
(िजतने समय तक सूयर् एक रािश पर रहता है)। बारह मासों का एक वषर् एवं एक वषर् का एक
िदव्य िदन होता है। इस �ोक में बताई गई काल क� इकाइयों को हम िवस्तार से िनम्न प्रकार
समझ सकते हैं-
 ऐन्दव ितिथ या चान्द्र ितिथ - चन्द्रमा आकाश में चक्कर लगाता ह�आ िजस समय सूयर्
के बह�त पास पह�चँ ता है उस समय अमावस्या होती है। एक अमावस्या से दसू री
अमावस्या तक के समय को चान्द्रमास कहते हैं। अमावास्या के बाद चन्द्रमा सयू र् से आगे
पवू र् क� ओर बढ़ता जाता है और जब 12 अश ं आगे हो जाता है तब पहली ितिथ बीतती
है, 12 अंश से 24 अंश तक का जब अन्तर रहता है। तब िद्वतीया ितिथ रहती है । जब
अन्तर 180 अश ं तक होता है तब पिू णर्मा होती है, 180 अश
ं से 162 अश ं तक जब
चन्द्रमा आगे रहता है तब 16वीं ितिथ अथवा प्रितपदा होती है। पिू णर्मा के बाद चन्द्रमा
सयू ार्स्त से प्रित िदन कोई 2 घड़ी (45 िमनट) पीछे िनकलता है। पिू णर्मा से अमावस्या
तक को कृ ष्णप� कहते हैं ।
 सौरमास - सयू र् िजस मागर् से चलता ह�आ आकाश में प�रक्रमा करता है उसको क्रािं तवृ�
कहते हैं। इसके बारहवें भाग को रािश कहते हैं। सयू र्मडं ल का के न्द्र िजस समय एक रािश
से दसू री रािश में प्रवेश करता है उस समय दसू री रािश क� सक्र
ं ािन्त होती है। एक संक्रािन्त
से दसू री सक्र
ं ािन्त तक के समय को सौरमास कहते हैं । 12 सौर मास प�रमाण में िभन्न-
िभन्न होते हैं; इसका कारण यह है िक सयू र् क� गित सवर्दा समान नहीं होती। जब सूयर् क�
गित तीव्र होती है तब वह एक रािश को जल्दी परू ा कर लेता है और वह सौरमास छोटा
होता है। इसके प्रितकूल जब सयू र् क� गित मन्द होती है तब सौरमास बड़ा होता है।
 वषर् – इस �ोक में दसू रे पद का सीधा अथर् यह है िक 12 मासों का वषर् होता है, िजसको
िदव्यिदन कहते हैं। इसिलए िजन बारह मासों का वषर् कहा गया है वह अन्य मास नहीं हैं,
के वल सौरमास हैं। इससे यह िसद्ध होता है िक सयू र् िसद्धान्त में के वल सौर वषर् क� चचार् है
और सौर वषर् को ही वषर् माना गया है, अन्य को नहीं ।
 िदव्यिदन - पृथ्वी के उ�री ध्रवु को देव- लोक तथा दि�णी ध्रवु को असरु लोक कहते हैं।
िजस समय सयू र् िवषवु वृ� पर आता है उस समय िदन और रात समान होते हैं। यह घटना
वषर् में के वल दो बार होती है। 6 महीने तक सयू र् िवषवु वृ� के उ�र तथा 6 महोने तक
दि�ण रहता है। पहली छमाही में उ�र गोल में िदन बड़ा और रात छोटी तथा दि�ण गोल
में िदन छोटा और रात बड़ी होती है। दसू री छमाही में ठीक इसका उलटा होता है। परन्तु
जब सयू र् िवषवु वृ� के उ�र रहता है तब वह उ�री ध्रवु पर (समु �े पवर्त पर ) 6 महीने तक
सदा िदखाई देता है और दि�णी ध्रवु पर इस समय में नहीं िदखाई पड़ता। इसिलए इस
छमाही को देवताओ ं का िदन तथा रा�सों क� रात कहते हैं। जब सयू र् 6 महीने तक
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िवषवु वृ� के दि�ण रहता है तब उ�री ध्रवु पर नहीं िदखाई पड़ता और 6 महीने तक सयू र्िसद्धान्त में
दि�णी ध्रवु पर बराबर िदखाई देता है। इसिलए इस छमाही को देवताओ ं क� रात और कालगणना
असरु ों का िदन कहा गया है। इसिलए हमारे अथार्त् मनष्ु यों के 12 महीने देवताओ ं अथवा
रा�सों के एक अहोरात्र के समान होते हैं।
1.2.3 देव-असुरों का िदन-राित्र मान
सुरासुराणामन्योन्यमहोरात्रं िवपयर्यात् ।
तत्षि� : षड्गुणा िदव्यं वषर्मासुरमेव च ॥ 1/14 ॥
देवताओ ं तथा असरु ों क� िदवस और राित्र (अहोरात्र) एक दसू रे के िवपरीत क्रम वाले होते हैं।
जब देवताओ ं का िदन होता है तब असरु ों क� राित्र होती है तथा जब देवताओ ं क� राित्र होती है
तब असरु ों का िदन होता है। 6 से गिु णत उन 60 अहोरात्रों के तल्ु य देवों तथा असरु ों का 1 वषर्
होता है। अथार्त् 6 × 60 = 360 सौर वष� का एक िदव्य वषर् होता है। इसका सीधा सा अथर्
यह ह�आ िक हमारे अथार्त् मनष्ु यों के 360 वषर् को एक देवता वषर् कहा जाता है।
1.2.4 महायुग कालगणना प्रमाण
तद्द्वादशसहस्रािण चतुयर्ुगमुदा�तम् ।
सूयार्ब्दसङ्ख्यया िद्वित्रसागरैरयुताहतैः ॥ 1/15 ॥
सन्ध्यासन्ध्यांशसिहतं िव�ेयं तच्चतुयर्ुगम् ।
कृतादीनां व्यवस्थे यं धमर्पादव्यवस्थया ॥ 1/16 ॥
महायगु के िवषय में बताते हैं िक देव तथा असरु ों के वषर् प्रमाण से 12000 िदव्य वष� का एक
चतयु र्गु अथार्त् महायुग कहा जाता है। वहीं सौरमान से दश हजार गिु णत 432 अथार्त्
4,32000 वष� का एक महायुग होता है। महा यगु में आने वाले प्रत्येक यगु ों के मध्य संिध
होती है। कृ तािद यगु ों के सध्ं या सध्ं याश
ं ों से य�
ु चतयु र्गु का मान कहा जाता है। कृ त् यगु
अथार्त् सतयगु , त्रेता, द्वापर तथा कलयुग क� पाद व्यवस्था धमर्पाद के अन� ु प बताई गई है।
िजनमें से एक धमर्पाद 1200 िदव्य वषर् का माना जाता है इसी के अनसु ार कृ त अथार्त सतयगु
के चार धमर्पाद, त्रेतायगु के तीन धमर्पाद, द्वापर के दो धमर्पाद तथा कलयगु का एक धमर्पाद
व्यवस्था है।
सरल शब्दों में कहा जा सकता है िक 14वें �ोक में बतलाया गया है िक सरु ों या असरु ों के
360 िदन का एक िदव्य वषर् होता है। तेरहवें �ोक में बतलाया गया है िक देवताओ ं का एक
िदन एक सौर वषर् के समान होता है इसिलए यह स्प� है िक देवताओ ं का एक वषर् 360 सौर
वष� के समान ह�आ । 15 वें �ोक के अनसु ार 12000 िदव्य वष� का अथवा 12000 × 360
(अथार्त् 4320000) सौर वष� का एक चतुयर्गु होता है। चतयु र्गु को महायगु भी कहते हैं। एक
महायगु में चार यगु - सत्ययुग, त्रेता, द्वापर और किलयुग होते हैं इसीिलए इसको चतुयर्गु भी
कहते हैं। सत्ययगु में धमर् चार चरण होता है, त्रेता में तीन चरण, द्वापर में दो चरण और किलयगु
में एक चरण।
युगस्य दशमो भाग�तिु �द्वेकसगं ण ु ः।
क्रमात् कृतयुगादीनां ष�ांशः सन्ध्ययोः स्वकः ॥ 1/17 ॥ 13
ऐितहािसक 12000 िदव्य वषर् अथार्त् एक महायगु के मान के दशमाश ं को क्रमशः 4, 3, 2 तथा 1 से गणु ा
कालगणना के करने पर क्रमशः कृ त अथार्त् सतयगु , त्रेता, द्वापर और कलयुग का मान होता है। अपने अपने
प्राचीन एवं यगु मान के छठे अशं के तल्ु य दोनों सिन्धयाँ होती हैं।
अवार्चीन िसद्धांत
यथा— चतयु र्गु ( महायगु ) = 12000 िदव्यवषर्
12000 ÷ 1/10 = 1200 िदव्यवषर् (महायगु का दशमांश) सौरवषर्
1200 × 4 = 4800 िदव्यवषर् कृ त ( सत्य ) यगु × 360 = 1728000
1200 × 3 = 3600 िदव्यवषर् त्रेतायगु × 360 = 1296000
1200 × 2 = 2400 िदव्यवषर् द्वापरयुग × 360 = 864000
1200 × 1 = 1200 िदव्य वषर् किलयुग × 360 = 432000
सिन्ध –
कृ त यगु 4800 × 1/6 = 800 िदव्य वषर् सिन्ध ( 400 प्रथम सिन्ध + 400 िद्वतीय सिन्ध )
त्रेतायगु 3600 × 1/6 = 600 िदव्य वषर् सिन्ध ( 300 + 300 )
द्वापर यगु 2400 × 1/6 = 400 िदव्य वषर् सिन्ध ( 200 + 200 )
किलयगु 1200 × 1/6 = 200 िदव्य वषर् सिन्ध ( 100 + 100 )

िदव्यवषर् सौरवषर्
4800 – 800 = 4000 × 360 = कृ त यगु 1440000
3600 – 600 = 3000 × 360 = त्रेतायगु 1080000
2400 – 400 = 2000 × 360 = द्वापर यगु 720000
1.2.5 सिन्ध सिहत मनु काल प्रमाण
युगानां स�ितः सैका मन्वन्तरिमहोच्यते ।
कृताब्दसङ्ख्यस्तस्यान्ते सिन्धः प्रो�ो जलप्लवः ॥ 1/18 ॥
71 महायगु ों अथार्त चतयु र्गु ों का एक मन्वतं र कहा गया है। यह काल का मतू र् और व्यावहा�रक
स्व�प है। एक मन्वतं र क� समाि� पर एक सतयगु (4800 िदव्यवषर्) के तल्ु य मनु क� संिध
होती है। यगु ों के मध्य होने वाली सिं धकाल को जलप्लव कहा जाता है। अथार्त जब एक मनु
के समा� हो जाने तथा दसू रे मनु के आरंभ होने से पवू र्, इन दोनों के मध्य 4800 िदव्य वष� का
समय होता है, इस मध्य इस पृथ्वी पर जल-प्लावन रहता है।
1.2.6 कल्प गणना प्रमाण
ससन्धयस्ते मनवः कल्पे �ेया�तदु र्श ।
कृतप्रमाण कल्पादौ सिन्धः प�चदशः स्मृत :।।1/19।।
संिध सिहत 14 मन्वतं र का एक कल्प होता है। कल्प के आिद में सतयगु के तल्ु य संिध होती
है। इस प्रकार से एक कल्प में सतयगु के समान 15 सिन्धयां होती हैं।
1 मनु = 71 महायुग
14 1 कल्प = 14 मनु + 15 ( कृ तयगु ) सिन्ध
1 महायगु = 12000 िदव्यवषर् = 4320000 सौरवषर् सयू र्िसद्धान्त में
1 मनु में 71 महायगु = 71 × 12000 = 852000 िदव्य वषर् = 306720000 सौरवषर् कालगणना
1 कल्प = 14 मनु + 15 ( कृ तयगु ) सिन्ध
= (14 × 852000) + (15 × 4800)
= (11928000) + (72000) = 12000000 िदव्यवषर्
= 4320000000 सौरवषर्
1.2.7 ब्रा� िदवस गणना प्रमाण
इत्थं युगसहस्रेण भूतसहं ारकारकः ।
कल्पो ब्रा�महः प्रो�ं शवर्री तस्य तावती ।।1/20।।
ब्र�ा के िदन-राित्र के िवषय में बताया गया है िक एक हजार महायगु का सृि� संहारक 1 कल्प
होता है, िजसे ब्र�ा का एक िदन कहा जाता है। इसी प्रकार जो ब्र�ा क� राित्र होती है वह भी 1
कल्प के समान ही मानी गई है। इस प्रकार से ब्र�ा का एक अहोरात्र अथार्त िदन और रात 2
कल्प के तुल्य होता है। सृि� का प्रलय होना ही ब्र�ा के 1 िदन का अंत होना माना जाता है।
ब्र�ा सपं णू र् सृि� को अपने में लय करके एक कल्प पय�त िनद्रा में िवलीन रहते हैं। िजसके
कारण कल्प के अतं में प्रलय होता है।
1.2.8 ब्र� आयु गणना-प्रमाण
परमायुः शतं तस्य तयाऽहोरात्रसङ्ख्यया ।
आयुषोऽधर्िमतं तस्य शेषकल्पोऽयमािदमः ॥ 1/21 ॥
काल गणना का वृहद �प हम ब्र�ा के परम आयु के �प में देख सकते हैं। जैसे कहा गया है
िक ब्र�ा के अहोरात्र में दो कल्पों का योग होता है। और ब्र�ा क� परम आयु 100 वषर् मानी
गई है। वतर्मान में ब्र�ा क� 50 वषर् क� आयु बीत चकु � है और जो शेष आयु अित�र� है उसमें
यह 51 वां वषर् चल रहा है उसमें भी यह प्रथम कल्प िदन है।
1.2.9 वतर्मान काल मान
कल्पादस्माच्च मनवः षड् व्यतीता ससंधय: ।
वैवस्वतस्य च मनोयर्ुगानां ित्रघनो गतः ॥1/22॥
अ�ािवंशाद्युगादस्माद्यातमेतम् कृतं युगम् ।
अतः कालं प्रसङ्ख्याय सङ्ख्यामेकत्र िपण्डयेत् ॥1/23॥
जो वतर्मान कल्प चल रहा है इस वतर्मान कल्प में सिन्धयों सिहत 6 मनु बीत चक ु े हैं। स�म जो
वैवस्वतः नामक मनु है उसके भी 27 महायगु बीत चक ु े हैं। वतर्मान अठ्ठाइसवें महायुग में
कृ तयुग अथार्त सत्ययगु भी बीत चक ु ा है। इसिलए कालमानों को एकत्र करके उनका योग कर
लेना चािहये अथार्त जोड़ देना है ।
कालगणनामान – 6 मनु +7 सिन्ध +27 महायगु + कृ तयुग = कल्पािद से सत्ययगु पयर्न्त
काल
15
ऐितहािसक जैसे – 1 मनु 852000 िदव्य वषर् = 306720000 सौरवषर्
कालगणना के मनु 6 × 852000 = 5112000
प्राचीन एवं
अवार्चीन िसद्धांत सिन्ध 7 × 4800 = 33600
महायगु 27× 12000 = 324000
कृ त(सत)यगु 4800 = 4800

योग = 5474400
िदव्य वषर् कल्पािद से सत्ययुग पयर्न्त िदव्यवषर् ।

सौर वष� में -


6 मनु =306720000 × 6 = 1840320000
7 सिन्ध = 1728000 × 7 = 12096000
27 महायगु = 4320000 × 27 = 116640000
1 कृ तयुग = 1728000 = 1728000

योग = 1970784000 सौरवषर् कल्पारम्भ से सत्य यगु ान्त वषर्गण ।


1.2.10 सिृ �कालप्रमाण
ग्रह�र् देव -दैत्यािद सज
ृ तोऽस्य चराचरम् ।
कृतािद्रवेदा िदव्याब्दाः शतघ्ना वेधसो गताः ॥1/24॥
ग्रह, न�त्र, देव, दैत्य आिद चर अथार्त जो जङ्गम जीव - जन्तु प्राणी हैं, अचर अथार्त जो
स्थावर वृ�, पवर्तािद क� रचना करने में ब्र�ा को कल्पारम्भ से सौ गिु णत 474 िदव्य वषर् 474
× 100 = 47400 िदव्य वषर् बीत गये । अथार्त् कल्पारम्भ से 47400 िदव्य वषर् के अनन्तर
सृि� काल का आरम्भ ह�आ है ।
1.3 सारांश
प्रस्ततु प्रथम इकाई सयू र्िसद्धान्त में कालगणना है। इसमें हमें काल गणना का िवस्तृत स्व�प
देखने को िमला। एक स�ू म से स�ू म काल मान क� इकाई से लेकर स्थल ू इकाइयों के प्रमाण
को जाना है, वहीं अमतू र् अथार्त् िजसे व्यि� देख नहीं सकता अथवा िजसे वह व्यवहार में नहीं
ला सकता ऐसे अमतू र् काल गणना हमें सयू र्िसद्धान्त में देखने को िमलतीहै। वही व्यवहा�रक
गणना में आने वाले ऐसे मतू र् और प्रत्य� कालगणना जो िक अहोरात्र, प�, मास,आयन, वषर्,
यगु , महायगु , मन्वतं र, कल्प, महाकल्प आिद जैसी बृहद कालगणना का �ान हमें सयू र्िसद्धान्त
से सीखने को िमलता है। काल मान के सभी प�ों का ग्रहण िकया गया है प्राचीन आचाय� एवं
िवद्वानों ने यह गणना पद्धित अमल्ू य िनिध के �प में हमारे सम्मख ु प्रस्तुत क� िजससे हम काल
के िवषय में और अिधकता से स्प� �प से समझ पाए।ं

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1.4 शब्दावली सयू र्िसद्धान्त में
कालगणना
• सौर – सयू र् के एक अश
ं का चलन
• चान्द्र – एक ितथ्यात्मक िदन को चान्द्रिदन अथवा चान्द्रमान कहते हैं
• सावन – एक सयू �दय से दसू रे सयू �दय तक के काल को सावनिदन कहते हैं
• ब्रा� - एक सबसे बड़ा कालमापन का प्रमाण
• अहोरात्र – िदवस और राित्र के योग को अहोरात्र कहते हैं
• संवत्सर – वषर्
• सावन िदन – दो सयू �दय के मध्य का काल
• प्राण - दस ग�ु अ�रों के उच्चारण में िजतना समय लगता है उसे प्राण कहा जाता है।
• घटी - 60 पलों क� एक घटी
• पल - 6 प्राणों का एक पल
1.5 कुछ उपयोगी पस्ु तकें
• सयू र्िसद्धान्त श्री किपले�र शा�ी , चौखम्बा सस्ं कृ त भवन, 2015
• सयू र्िसद्धान्त प्रो० रामचन्द्र पाण्डेय, चौखम्बा प्रकाशन, वाराणसी, 1999
• सयू र्िसद्धान्त स्व. महावीर प्रसाद श्रीवास्तव, िव�ान भाष्य, डॉ. रत्नकुमारी स्वाध्याय
सस्ं थान, इलाहबाद, 1982
1.6 बोध / अभ्यास प्र�ो�र
1. महायुग िकसे कहते हैं ?
A. कृ तयुग एवं त्रेता, B. द्वापर एवं किलयुग, C. चतयु र्गु ों के मान को
2. एक मन्वन्तर में िकतने महायुग ( चतुयर्ुग ) होते हैं ?
A.12, B. 71, C. 60
3. एक चतुयर्ुग में िकतने िदव्यवषर् होते हैं ?
A.1200 िदव्यवषर्, B. 12000 िदव्यवषर्, C. 8000 िदव्यवषर्
4. एक नाड़ी में िकतने पल होते हैं ?
A. 60, B. 30, C. 15
5. एक मास में िकतने अहोरात्र होते हैं ?
A. 15, B. 30, C. 31
उ�र – 1. उ�र – C, 2. उ�र – B, 3. उ�र – B, 4. उ�र – A, 5. उ�र – B
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