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प्राकृ तिक तितकत्सा

Sangyaharan एवInternational
Shodh: ं इसका इतिहासPeer Reviwed: Feb. 2022, Vol. 25, No.1/ ISSN 2278-8166, IJIFACTOR: 4.6883 83

प्राकृतिक तितकत्सा एवं इसका इतिहास

1गुप्ता, रजनीश कुमार, मौर्य, भोला नाथ


सार : मनष्ु य का शरीर एक अद्भुत और संपर्ू ण यंत्र है जब यह बबगड़ जाता है तो बबना बकसी दवा के अपने को सधु ार करने
की कोबशश करता है बशते उसे ऐसा करने का मौका बदया जाए।¹ प्राकृ बतक बिबकत्सा प्रर्ाली कोई नई प्रर्ाली नहीं है।
बहप्पोक्रेटीज को औषबध बिबकत्सा प्रर्ाली का जन्मदाता मानते हैं लेबकन जीवन प्रयत्न प्राकृ बतक बनयमों के अनसु ार रोग
उपिार का प्रिार करते रहने के ही कारर् उनको ख्याबत बमली थी। इन्होंने ही 'उभार की क्रिया के क्रिद्ाांत'*** पर अनसु ंधान
बकया जो प्राकृ बतक बिबकत्सा के दशणन की रीढ़ है और बजसे औषधोपिार रोग की खतरनाक अवस्था करते हैं। अक्सर देखा
गया है उपिार बजतना अबधक प्राकृ बतक होता है वह उभार उतना ही जोरदार होता है।² बजन पांि तत्वों से यह मनष्ु य रूपी
शरीर बना है वही नैसबगणक उपिारों के साधन है जैसे- पृथ्वी, जल, आकाश, अबनन और वायु से यह शरीर बना है इन्हीं साधनों
का उपयोग प्राकृ बतक बिबकत्सा में बिबकत्सक द्वारा बकया जाता है। गांधी जी ने "आत्मकथा" पस्ु तक में अपने प्राकृ बतक
बिबकत्सा प्रेम का भी उल्लेख बकया है और बताया है बक "ररटनण टू नेिर" पस्ु तक ने ही उनको प्राकृ बतक बिबकत्सा की ओर
आकृ ष्ट बकया तथा इसके प्रयोगों से बवशेषकर बमट्टी के प्रयोग से उन्होंने स्वयं तो लाभ उठाया ही औरों को भी लाभ पहिं ाने
का कायण बकया।
जैस-े जैसे मानव जीवन की प्रगबत हई उसी के साथ-साथ बिबकत्सा प्रर्ाबलयों में भी पररवधणन, पररवतणन तथा
बवशेषीकरर् आता गया। पहले लोग सादी जड़ी- बबू टयां व्यवहार में लाते थे बिर उनसे तरह-तरह की औषबधयां बनने लगी।
बवश्व में सबसे पहले औषबधयों तथा शल्य बिबकत्सा का कायण भारत में ही आबवष्कृ त हआ । सन 1808 में प्रकाबशत पस्ु तक
"बहस्री ऑफ़ मेबिबसन एमांग एबशयाबटक्स" (History of medicine among Asiatics) में वाइज (Wise) ने बलखा है
बक आयवु ेबदक औषबधयों का प्रिार कायण धाबमणक उद्देश्यों के साथ-साथ सबसे पहले भारत में प्रारंभ हआ।³
Keyword:- प्राकृ बतक बिबकत्सा, इबतहास,रोग, बवजातीय तत्व, पंि महातत्व
Conflict of Interest: No. Ethical Clearance: N/A
प्राकृ बतक बिबकत्सा में रोग बनवारर् के बलए उपवास,उबित भोजन, जल इत्याबद का उपयोग करने वाले बिबकत्सक
जानते हैं बक जब कोई रोगी अच्छा होने लगता है तब बकसी-बकसी रोगी को बीि में थोड़े समय के बलए कोई तीव्र रोग जैस-े
बखु ार,सदी-जख ु ाम, त्विा पर िोड़े-िंु बसयां आबद बनकल आते हैं। प्राकृ बतक उपादन शरीर से गदं गी बनकालने वाले मागों
को अपने कायण को तेजी से करने के बलए प्रेररत करते हैं पर यबद शरीर में ज्यादा बवजातीय तत्व /मल होते हैं जो उन मलमागों
के बस की नहीं होती तो शरीर को बववश होकर गंदगी दरू करने का कोई नया रास्ता बनकालना पड़ता है, बजसे प्राकृ बतक
बिबकत्सा में रोग प्रबतरोधक उभार कहते हैं।⁴


पी.एि.िी. (योग एवं जीवन बवज्ञान) स्कॉलर, अबसस्टेंट प्रोिे सर, संज्ञाहरर् बवभाग, आयवु ेद संकाय बिबकत्सा बवज्ञान संस्थान, काशी
बहदं ू बवश्वबवद्यालय, वारार्सी, उत्तर प्रदेश, भारत, 221005
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प्राकृतिक तितकत्सा-
प्राकृ बतक बिबकत्सा बवज्ञान अथवा प्राकृ बतक बिबकत्सा प्रर्ाली उतनी ही परु ानी है बजतनी की प्रकृ बत स्वयं।⁵
प्राकृ बतक बिबकत्सा एक ऐसी प्रािीन बिबकत्सा पद्धबत जो दवाओ ं का सहारा नहीं लेती बबल्क व्यायाम,आराम, स्वच्छता,
उपवास, खानपान, हवा, आकाश, पानी, बमट्टी, योग आबद के उपयोग पर बल देती है और जो स्वस्थ एवं दीर्ण जीवन का
मागण बदखाती है। प्रािीन काल की रोमन सभ्यता में यह ररवाज था बक बच्िा जब पैदा होता था तो उसे खल ु े वातावरर् में
रख देते थे सबु ह तक यबद बच्िा जीबवत रहता तो उसे जीबवत रहने के योनय माना जाता था बिलहाल यह परंपरा अमानवीय
थी बकंतु रोमवासी अपने इस तरीके से बच्िों में प्राकृ बतक प्रबतरक्षर् शबि यानी रोग प्रबतरोधक क्षमता का बवकास करना
िाहते थे। व्यवबस्थत प्राकृ बतक बिबकत्सा का प्रारंभ भले ही नया हो बकंतु यह सदा से हमारे जीवन की एक पद्धबत बनी रही
है। रामिररतमानस के कमणकांि में पंिमहाभतू ओ ं की मबहमा का वर्णन बकया गया है जो अग्रबलबखत है-
तिति जल पावक गगन समीरा।
पंि ित्व का रिा शरीर ।। ⁶ रा.ि.मा.4/10/2
अथाणत यह शरीर पिं तत्व यानी आकाश, वाय,ु जल, अबनन व पृथ्वी से बनी है।
प्राकृ बतक बिबकत्सा में समस्त बीमाररयों का मल ू कारर् प्रकृ बत के बनयमों का उल्लंर्न करना ही माना जाता है
यह उल्लंर्न वैिाररक, खानपान, कायण तथा बवश्राम, सांस लेने और छोड़ने, सोने-जागने सबं धं ी बकसी भी असतं ल ु न के
कारर् हो सकती है। बलंिल्हार के मतानसु ार बीमार होना बितं ा की बात नहीं है यह तो प्रकृ बत द्वारा रोग से लड़ने के सबतू है
बिंता की बात तो बीमारी का ठीक ना होना है। तमाम बीमाररयों जैसे िोड़े-िंु सी, सदी-जख ु ाम, बख
ु ार और मवाद बनकलने
के मामले इस बात का पक्का सबतू है बक शरीर को हाबन पहिं ाने वाली बवषैले पदाथों को बकसी न बकसी रूप में बाहर
बनकाला जा रहा है। प्राकृ बतक बिबकत्सक का उद्देश्य इस लड़ाई में शरीर की मदद करना है। प्राकृ बतक बिबकत्सा के बसद्धांतों
में सवणप्रथम यह माना जाता है बक बीमारी के पनपने के बलए कीटार्-ु रोगार्ु उतने बजम्मेदार नहीं बजतना बक शरीर में ऐसी
पररबस्थबतयों का उत्पन्न होना बजनमें बीमारी पनपती है। प्राकृ बतक बिबकत्सा से शरीर में जमा हाबनकारक पदाथण (बवजातीतत्व)
बनकल जाते हैं और बजस से प्रभाबवत अगं ों को सामान्य होने में मदद बमलती है। इस पद्धबत में दैबनक सिाई, व्यायाम, आराम,
बनद्रा, खानपान, पानी, हवा, सयू ण के रोशनी का बवबभन्न तरीकों से प्रयोग, बमट्टी का उपयोग,उपवास (आकाश तत्व का
संतुलन) , योग आबद का प्रयोग बकया जाता हैं।
प्राकृतिक तितकत्सा का इतिहास-
प्राकृ बतक बिबकत्सा का इबतहास अबत प्रािीन है, बजसका उल्लेख हमारे वेदों (ऋनवेद, यजवु ेद, सामवेद व
अथवणवेद) में बमलता है। वेदों के बाद परु ार्काल, बौद्ध धमण, जैन धमण आबद में भी प्राकृ बतक बिबकत्सा के प्रमार् बमलते हैं।
हड़प्पा सभ्यता जोबक लगभग 5000 साल परु ानी सभ्यता है वहां पर भी बड़े-बड़े स्नानागार बमले हैं बजससे जल बिबकत्सा
के प्रमार् बमलते हैं।
प्राकृ बतक बिबकत्सा के इबतहास को जानने के बलए हमें बनम्न बबदं ओ
ु ं को देखना होगा जो अग्रबलबखत है-
प्राकृतिक तितकत्सा एवं इसका इतिहास 85

ग्रीस में प्राकृतिक तितकत्सा-


ईसा के जन्म से लगभग 400 वषण पहले ग्रीस मे जन्मेे़ बहपोक्रेट्स प्राकृ बतक बिबकत्सा के जनक कहे जाते हैं। उनकी
बलखी पस्ु तको से ज्ञात होता है बक उनके समय में 265 औषबधयों का आबवष्कार हो िक ु ा था यद्यबप बहप्पोक्रेट्स इन
औषबधयों में बवश्वास रखते थे लेबकन उनकी धारर्ा थी बक प्रकृ बत में ही रोग बनवारर् करने की शबि है। बहप्पोक्रेट्स को जल
की भौबतक बवशेषताओ ं का परू ा- परू ा ज्ञान था उन्होंने उष्र् तथा शीतल दोनों प्रकार के जल का उपयोग ज्वर, अल्सर, हैमरे ज
तथा अन्य रोगों में बकया।
रोम में प्राकृतिक तितकत्सा-
रोम में जल स्नान पर बवशेष महत्व बदया जाता था राजा जनसामान्य के स्नान के बलए बड़ी-बड़ी स्नानागार बनवाते
थे बजनमें हजारों लोग एक साथ स्नान कर सकते थे। शीतल तथा उष्र् दोनों प्रकार के जल की व्यवस्था होती थी।
एक्लेबपयािेस ने रोगों के उपिार के बलए जल का बवबभन्न रूपों जैस-े उष्र् तथा शीतल स्नान, िूसेज, आबद में प्रयोग बकया।
तललनी-
यह एक यनू ानी-रोमन लेखक थे। इन्होंने प्रथम शताब्दी में "नेिरु ल बहस्री" नामक पस्ु तक बलखी। इसमें भारतीय
पशओ ु ,ं पेड़-पौधों, खबनज पदाथों आबद के बारे में बववरर् बमलते है। इनके अनसु ार रोम में बाथ् स (Baths) एकमात्र रोगों
के उपिार का तरीका था।सेल्सस (Celxus) तथा अन्य रोम के बिबकत्सकों ने बाथ् स का उल्लेख अपनी कृ बतयों में बकया
है। लयोन्स (Lyons) के एम० वारा (M. Barra) ने 1675 में एक पस्ु तक (L'usages dela gluce, de la. Neige, et
Du Froid) The use of ice, of snow and of cold) प्रकाबशत की। इस पस्ु तक में उन्होंने बिण , तथा शीतल जल का
बवबवध प्रकार से उपयोग करने की तकनीक का वर्णन बकया।
अरब में प्राकृतिक तितकत्सा-
मध्यकाल में अरब के बिबकत्सकों ने जल बिबकत्सा को महत्व बदया। रे जज ने ज्वर के ताप को कम करने के बलए
बिीला जल थोड़ा पीने की सलाह दी एवीसेंना (Avicenna) ने कब्ज बनवारर् हेतु शीतल जल का स्नान तथा बमट्टी को
लाभकारी बताया।
बरनारबिनों (Bernardino) ने अपि, स्नायबु वक बवकार, हैमरे ज आबद में जल बिबकत्सा का इतना अबधक
उपायोग करना प्रारम्भ बकया बक उन्हें "कोल्िवाटर िाक्टर" के नाम से जाना जाने लगा।
कुलेन (Cullen) ने बिबकत्सक के रूप में जल के संदभण में कुछ व्यावहाररक अवलोकन प्रस्तुत बकये। उन्होंने ज्वर
के उपिार के बलए जल के प्रभाव के सम्बन्ध में कहा बक जब प्रबतबक्रया की बहसं ा को कम करने के बलए (Moderate the
violence of reaction) जल का उपयोग बकया जाता है, तो उसका प्रभाव शांबतदायक (Sedetive) होता है, लेबकन जब
हृदय और धमबनयों के कायों को बढ़ाने तथा सबं ल देने के बलए जल का उपयोग बकया जाता है, तो वह टॉबनक का कायण
करता है।⁷
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इग्ं लैण्ड में प्राकृतिक तितकत्सा-


सन् 1697 ई० में सर जान फ्लोयर (Sir John Floyer) ने “बहस्री आि कोल्ि वेबदगं " (History of Cold
Bathing) नामक पस्ु तक प्रकाबशत की, बजसमें उन्होंने शीतल जल के महत्व व स्नान पर बवस्तार से प्रकाश िाला। उन्होंने
कहा बक शीतल जल के स्नान देने से पहले रोगी को पसीना अवश्य लाना िाबहये।
अमेररका में प्राकृतिक तितकत्सा-
िा० बेन्जाबमन रश (Benjamin Rush) जो बिलेिोबल्िया के रहने वाले थे, उन्होंने जल का सिल प्रयोग बकया
और उन्होंने सन् 1794 में ज्वर की दशा में बसर पर बिण की थैली रखने की प्रथा प्रारम्भ की। उन्होंने गबठया, वातरोग, िेिक,
खसरा, तथा अन्य रोगों में भी जल बिबकत्सा का सिल प्रयोग बकया। न्ययू ाकण बिबकत्सालय में 1795 के लगभग िा० बािण
तथा होसेक (Bard and Hosack ने ज्वर में ठंिे जल का प्रयोग करना आरम्भ बकया।
जममनी में प्राकृतिक तितकत्सा-
आधबु नक प्राकृ बतक बिबकत्सा के प्रर्ेता बवनसेन्ज प्रेसनीज (Vincenz preissnitz) माने जाते हैं। बप्रसनीज सन्
1829 में जल बिबकत्सा प्रर्ाली की स्थापना की। इनकी नयी बवबध से अच्छा होने के बलए बहत संख्या में दरू -दरू से रोगी
इनके पास आने लगे। बप्रसं नीज की बिबकत्सा प्रर्ाली में प्रधानता जल के व्यवहार और भोजन के सादगी की थी। इनका
आधारभतू बसद्धांत पसीना बनकाल कर ठंिे जल का प्रयोग था। इसके बाद वह रोगी की प्रबतरोधक क्षमता शबि को भी बढ़ाने
मे भी बवश्वास रखते थे।⁶
भारि में प्राकृतिक तितकत्सा का इतिहास-
भारत में प्राकृ बतक बिबकत्सा के प्रमार् अबत प्रािीन रूप में बमलते हैं। भारत में आधबु नक प्राकृ बतक बिबकत्सा के
जनक महात्मा गांधी जी को माना जाता है। वेदों में जो ससं ार के अबत प्रािीन ग्रथं है इसमें प्राकृ बतक बिबकत्सा जैसे- जल
बिबकत्सा, उपवास बिबकत्सा, वायु बिबकत्सा आबद का वर्णन बमलता है।
ऋग्वेद में प्राकृतिक तितकत्सा ⁹
ऋनवेद के अनसु ार उगते हए सयू ण की पहली बकरर् हृदय रोग, पीबलया तथा एनीबमया आबद रोग को ठीक करती है।⁸
अल्व १न्िरमृिमलसु भेषजमपामुि प्रश्िये। (ऋग्वेद 1/23/19)
जल के भीतर अमृत और औषबधयां बवद्यमान हैं।
अलसु मे सोमो अब्रवीदन्ितवमश्वातन भेषजा।
अतग्नं ि तवश्वशम्भुवमापश्च तवश्वभेषजी।। (ऋग्वेद 1/23/20)
सोमदेव ने कहां है जल में औषबधयां है, संसार को सख ु प्रदान करने वाली अबनन है और सभी प्रकार की जड़ी-
बबू टयां है बजससे रोगों का शमन बकया जा सकता है।
आपः पृणीि भेषजं वरूथं िन्वे३मम।
ज्योक् ि सयू म दृशे।। (ऋग्वेद 1/23/21)
प्राकृतिक तितकत्सा एवं इसका इतिहास 87

हे जल! मेरे शरीर के बलए रोग नष्ट करने वाली ओषबधयां पर्ू ण करो. बजससे मैं बहत समय तक सयू ण के दशणन कर सकंू और
स्वस्थ जीवन व्यतीत कर सकंू ।
द्रतवणोदा वीरविीतमषं नो द्रतवणोदा रासिे दीर्ममायुः।। (ऋग्वेद 1/96/8)
धन देने वाली अबनन हमें वीर परुु षों से यि
ु एवं दीर्ाणयु प्रदान करें ।
आप्रा द्यावापृतथवी अन्िररिं सयू म आत्मा जगि्थुषश्च।। (ऋग्वेद 1/115/1)
सयू ण परू े संसार की आत्मा है। संसार का संपर्ू ण भौबतक बवकास सयू ण की सत्ता पर बनभणर है।
आ वाि वातह भेषजं तव वाि वातह यद्रप:।
त्वं तह तवश्वभेषजो देवानां दूि ईयसे।। (ऋग्वेद 10/137/3)
इधर आने वाली वायु आप औषबधयां लाओ और उधर जाने वाली वायु तुम पापों (शारीररक व मानबसक इत्याबद
रोग) को ले जाओ। वायु सभी औषबधयों के समान है एवं यह देवों का दतू बनकर िलती है।
आपः सवम्य भेषजी्िा्िे कृण्वन्िु भेषजम।् । (ऋग्वेद 10/137/6)
जल ही भेषजं के समान रोगों को नष्ट करने वाले एवं सब प्राबर्यों के रोगो का नाश करने वाली हैं और जल हमारे
बलए औषबध का कायण करें ।
वाि आ वािु भेषजं शम्भु मयोभु नोl
हृदे. प्र ण आयूूँतष िाररषि।् । (ऋग्वेद 10/186/1)
वायु औषबध बनकर आए हमारे हृदय को रोगमि
ु करके सख
ु प्रदान करें और यह हमारी आयु को भी बढ़ायें।
यजुवेद में प्राकृतिक तितकत्सा ¹⁰
अन्िश्चरति रोिना्य प्राणादपानिी व्यख्यन् मतहषो तदवम।् । (यजुवेद 3/7)
अबनन का तेज प्रार्वायु और अपान वायु के रूप में सभी प्राबर्यों के भीतर िलाएं मान रहता है यह दोनों वायु
हमारे स्वास्थ्य में मख्ु य भबू मका बनभाते हैं।
यकासकौ शकुतन्िकाहलतगति वञ्िति।
आहतन्ि गधे पसो तनगलगलीति धारका।। (यजुवेद 23/22)
यह जल पक्षी की तरह प्रसन्नतादायी याबन हृदय को प्रिुबल्लत करने वाली बननाद (आवाज) करता है।यह जल तेजोमय हैं,
तेजस्वी जल कल-कल की बननाद करता है और यह जल शबिधारी है जो हमारे अनेक रोगों को कमजोर/ठीक करता है।
सामवेद में प्राकृतिक तितकत्सा ¹¹
वाि आ वािु भेषजं शम्भु मयोभु नो हृदे. प्र ण आयूूँतष िाररषि।् । (सामवेद 2/7/10)
वायु हमारे पास शांबत और सख
ु दायी ओषबधयां पहिं ाए,ं ये औषबधयां हमारी आयु
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बढ़ाएं। हे वाय!ु आप पधाररए, आप हमारे हृदय को बखलाइए (खश


ु रबखए ), आप हमारे बलए कल्यार्कारी
औषबधयां ले कर आइए, आप हमें दीर्ाणयु प्रदान कीबजए।
आपो तह ष्ठा मयोभुव्िा न ऊजे दधािन. महे रणाय ििसे।। (सामवेद 20/7/4)
यो वः तशविमो रस्ि्य भाजयिेह नः उशिीररव मािरः।। (सामवेद 20/7/5)
जल आप ऊजाण धारक व सख ु प्रदान करने वाले हैं और आप हमारे शरीर को बल प्रदान भी करते हैं। जैसे एक मां
अपने दधू से अपने बच्िे को हो पालती-पोसती है उसी तरह आप भी अपने पोषक तत्वों से मनष्ु य को रोगों से मबु ि दे और
बल प्रदान करें ।
यदयो वाि िे गृहे अमिृ ्य तनतधतहमिः ििोनोदेतह जीवसे।। (सामवेद 20/7/9)
वायु के पास गप्तु रूप से अमृत है। हे वायु हमें रोग मि
ु व स्वस्थ जीवन जीने के बलए जो अमृत आप ने छुपा के
रखा है वह हमें प्रदान करने की कृ पा करें ।
अथवमवेद में प्राकृतिक तितकत्सा ¹²
जालाषेणातभ तषञ्िि जालाषेणोप तसञ्िि।
जालाषमुग्रं भेषजं िेन नो मृड जीवसे।। (अथवम.6/57/4)
जल में गोमत्रू के िे न को बमलाकर र्ाव को धोने से र्ाव ठीक हो जाता है। जल और गोमत्रू के िे न का बमश्रर्
औषबध के रूप में प्रयोग करें जो र्ाव को ठीक करके सख ु ी का अनभु व कराता है।
वैश्वानरो रतममतभनमः पुनािु वािः प्राणेनेतषरो नभोतभः।
द्यावापृतथवी पयसा पय्विी ऋिावरी यतियेनः पुनीिाम।् । (अथवम.6/62/1)
सभी प्राबर्यों में जठराबनन के रूप में उपबस्थत अबनन मझु े बल प्रदान कर रोगमि ु करें , शरीर के मध्य बविरर् करते
हए वायु मझु े श्वासोच्छवास के द्वारा पबवत्र (रोगमि ु ) करें , जल के सार रस के द्वारा व सत्य से पर्ू ण द्यावा पृथ्वी मझु े प्रबवत्र
(स्वस्थ्य) करें ।
आयवु ेद में कहा गया है -
कदममों दाह, तपन्िाति शोध हनः शीिल सरः ।
नंगे पैरों से जल में सनी हई बमट्टी ठंि देने वाली होती है, शौि साि लाती है, जलन, बपत्त की पीड़ा और सजू न को
दरू करती है।
कृष्णमृि ििदाहास्त्र प्रदरश्ले ष्म तपत्तनुि ।।
काली बमट्टी, र्ाव, दाह, रिबवकार, प्रदर, कि तथा बपत्त को बमटाती है।
िरक सतं हिा -
िरकसबं हता में जल के महत्त्व का वर्णन बमलता है।
प्राकृतिक तितकत्सा एवं इसका इतिहास 89

जल के दोष से अनेकरोग हो जाते है।


तवतवधों हेिुव्यामतधजनकः प्रातणनां भवतिः साधारणः।
जीवधाररयों में दो प्रकार के कारक रोग उत्पन्न करते हैं साधारर् तथा असाधारर्। साधारर् के अन्तगणत वाय,ु जल,
भबू म तथा समय कारक आते हैं, जो सभी को प्रभाबवत करते हैं। जब इनकी कमी हो जाती है, तो रोग हो जाता है। असाधारर्
में आहार आता है। इसी प्रकार िरक सबं हता में रोगो को दरू करने के बलए गरम व ठंिे टव में स्नान करने की सलाह दी गयी
है।
तसन्धु र्ाटी की सभ्यिा-
इस काल में प्राकृ बतक बिबकत्सा का उपयोग होता था। मोहनजोदड़ों में पाये गये वृहद और सवणसल ु भ स्नानागार
बजसमें गरम-ठंिे दोनों ही प्रकार के स्नान का प्रबन्ध था। इस स्नानागार का आकार 11.88 मीटर लंबा, 7.01 मीटर िौड़ा
एवं 2.43 मीटर गहरा था। इससे ज्ञात होता है बक इस समय जल बिबकत्सा महत्त्वपर्ू ण स्थान रखती थी।¹³
भारि में सि
ं ातलि मख्
ु य प्राकृतिक तितकत्सालय :
अतिल भारिीय प्राकृतिक तितकत्सा पररषद-
1 जनवरी सन 1965 को अबखल भारतीय प्राकृ बतक बिबकत्सा पररषद की स्थापना हई तब से यह संस्था अपना
कायण सिु ारू रूप से कर रही है और इसको बवबभन्न स्थानों में िै ले हए प्राकृ बतक बिबकत्सकों और प्राकृ बतक बिबकत्सा
प्रेबमयों का भरपरू सहयोग भी बमल रहा है
भारिीय प्राकृतिक तितकत्सा तवद्यापीठ-
20 जनवरी 1963 को िायमंि हाबणर रोि, कोलकाता में इसकी नीवं पड़ी और 3 अगस्त 1964 से उसमें बवबधवत
बशक्षा प्रदान करना प्रारंभ हआ। यह बवद्यापीठ भारतवषण में ही नहीं अपने बवषय की संभवत समस्त एबशया में प्रथम बवद्यापीठ
है।
के न्द्रीय योग एवं प्राकृतिक तितकत्सा अनुसध
ं ान पररषद (Central Council for Research in Yoga and
Naturopathy) -
कें द्रीय योग एवं प्राकृ बतक बिबकत्सा अनसु ंधान पररषद को 30 मािण, 1978 को एक पंजीकृ त संस्था के रूप में
स्थाबपत की गयी। इसके शासी बनकाय के अध्यक्ष स्वास्थ्य एवं पररवार कल्यार् मत्रं ी तथा उपाध्यक्ष स्वास्थ्य एवं पररवार
कल्यार् राज्यमत्रं ी पदेन होते हैं।
राष्रीय प्राकृतिक तितकत्सा स्ं थान, पनू ा-
राष्रीय प्राकृ बतक बिबकत्सा सस्ं थान, "बापभू वन" पनू ा में बस्थत है। इस स्थान पर 1929 से 1952 तक िा० बदनशाह
के . मेहता द्वारा एक प्राकृ बतक बिबकत्सालय िलाया जाता था। गांधी जी भी यहााँ आकर ठहरते थे, तथा सलाह मशबवरा देते
थे। िा० मेहता ने भारत सरकार को "बापभू वन" में महात्मा गांधी की स्मृबत में राष्रीय प्राकृ बतक बिबकत्सा संस्थान स्थाबपत
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करने के बलए आग्रह बकया। भारत सरकार ने 29 बसतम्बर, 1984 को एक स्वतंत्र संस्था के रूप में भारत सरकार राष्रीय
प्राकृ बतक बिबकत्सा सस्ं थान बनाया।
तनष्कषम :
आधबु नक बवज्ञान ने बहत प्रगबत की है उसने हमें अनेकों अनदु ान बदए हैं। बिबकत्सा बवज्ञान के क्षेत्र में बनरोग बनाने
एवं आयु बढ़ाने सबं धं ी बजतने प्रयोग बपछले दो-तीन दशकों में सारे बवश्व में हए उतने सभं वतः गत 5 शताबब्दयों में भी नहीं
हए, बिर भी रोबगयों की सख्ं या में बढ़ोतरी होती जा रही है आबखर क्यों यह एक बितं ा का बवषय है।
प्राकृ बतक बिबकत्सा आज भारत ही नहीं परू े बवश्व मे कािी तेजी से प्रिबलत हो रहा है इसके प्रसार का मख्ु य कारर् लोगों का
इस बिबकत्सा के प्रबत बवश्वास ही है। अगर मनष्ु य तीव्र रोगों में प्राकृ बतक तरीके से बिबकत्सा अपनाने लगे तो जीर्ण रोग में
कािी हद तक कमी आ सकती है बजससे मनष्ु य के इनकम का एक बहत बड़ा बहस्सा जो बिबकत्सा के बलए खिण होता है
वह बि सकता है।
सदं भमग्रंथ सि
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प्राकृतिक तितकत्सा एवं इसका इतिहास 91

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