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Ghar Jamai Aur Dhikkar - PREMCHAND
Ghar Jamai Aur Dhikkar - PREMCHAND
ेमचंद
— काशक
ेमच द
— Publisher
By Premchand
© Sai ePublications
सवािधकार और अनुमितयाँ
घर जमाई
िधक् कार
लेखक प रचय
घर जमाई
1
ह रधन जेठ क दुपहरी म ऊख म पानी देकर आया और बाहर बैठा रहा। घर म से धुआँ
उठता नजर आता था। छन-छन क आवाज भी आ रही थी। उसके दोन साले उसके बाद
आये और घर म चले गए। दोन साल के लड़के भी आये और उसी तरह अंदर दािखल हो
गये; पर ह रधन अंदर न जा सका। इधर एक महीने से उसके साथ यहाँ जो बताव हो रहा
था और िवशेषकर कल उसे जैसी फटकार सुननी पड़ी थी, वह उसके पाँव म बेिड़याँ-सी
डाले ए था। कल उसक सास ही ने तो कहा, था, मेरा जी तुमसे भर गया, म तु हारी
जंदगी-भर का ठीका िलये बैठी ँ या ? और सबसे बढ़कर अपनी ी क िन ु रता ने
उसके दय के टु कड़े-टु कड़े कर दये थे। वह बैठी यह फटकार सुनती रही; पर एक बार तो
उसके मुँह से न िनकला, अ माँ, तुम य इनका अपमान कर रही हो ! बैठी गट-गट सुनती
रही। शायद मेरी दुगित पर खुश हो रही थी। इस घर म वह कै से जाय ? या फर वही
गािलयाँ खाने, वही फटकार सुनने के िलए ? और आज इस घर म जीवन के दस साल गुजर
जाने पर यह हाल हो रहा है। म कसी से कम काम करता ँ ? दोन साले मीठी न द सो
रहते ह और म बैल को सानी-पानी देता ;ँ छाँटी काटता ।ँ वहाँ सब लोग पल-पल पर
िचलम पीते ह, म आँख ब द कये अपने काम म लगा रहता ।ँ सं या समय घरवाले गाने-
बजाने चले जाते ह, म घड़ी रात तक गाय-भसे दुहता रहता ।ँ उसका यह पुर कार िमल
रहा है क कोई खाने को भी नह पूछता। उ टे गािलयाँ िमलती ह।
ह रधन ने डोल िलया और कु एँ से पानी भर लाया। उसे जोर क भूख लगी ई थी, समझा
अब खाने को बुलाने आवेगी; मगर ी डोल लेकर अंदर गयी तो वह क हो रही। ह रधन
थका-माँदा ुधा से ाकु ल पड़ा-पड़ा सो गया।
ह रधन ने देखा, उसके दोन साले और बड़े साले के दोन लड़के भोजन कये चले आ रहे
थे। उसक देह म आग लग गयी। मेरी अब यह नौबत प च ँ गयी क इन लोग के साथ
बैठकर खा भी नह सकता। ये लोग मािलक ह। म इनक जूठी थाली चाटने वाला ।ँ म
इनका कु ा ,ँ िजसे खाने के बाद एक टु कड़ा रोटी डाल दी जाती है। यही घर है जहाँ आज
से दस साल पहले उसका कतना आदर-स कार होता था। साले गुलाम बने रहते थे। सास
मुँह जोहती रहती थी। ी पूजा करती थी। तब उसके पास पये थे, जायदाद थी। अब वह
द र है, उसक सारी जायदाद को इ ह लोग ने कू ड़ा कर दया। अब उसे रो टय के भी
लाले ह। उसके जी म एक वाला-सी उठी क इसी व अंदर जाकर सास को और साल
को िभगो- िभगोकर लगाये; पर ज त करके रह गया। पड़े-पड़े बोला- मुझे भूख नह है।
आज न खाऊँगा।
गुमानी ने कहा- न खाओगे मेरी बला से, हाँ नह तो ! खाओगे, तु हारे ही पेट म जायगा,
कु छ मेरे पेट म थोड़े ही चला जायगा।
उसक सास आकर बोली- चलकर खा य नह लेते जी, ठते कस पर हो ? यहाँ तु हारे
नखरे सहने का कसी म बूता नह है। जो देते हो वह मत देना और या करोगे। तुमसे बेटी
याही है, कु छ तु हारी जंदगी का ठीका नह िलखा है।
ह रधन ने ममाहत होकर कहा- हाँ अ माँ, मेरी भूल थी क म यही समझ रहा था। अब मेरे
पास या है क तुम मेरी जंदगी का ठीका लोगी। जब मेरे पास भी धन था तब सब कु छ
आता था। अब द र ,ँ तुम य बात पूछोगी।
ब के िलए बाप एक फालतू-सी चीज - एक िवलास क व तु है, जैसे घोड़े के िलए चने
या बाबु के िलए मोहनभोग। माँ रोटी-दाल है। मोहनभोग उ -भर न िमले तो कसका
नुकसान है; मगर एक दन रोटी-दाल के दशन न ह , तो फर देिखए, या हाल होता है।
िपता के दशन कभी-कभी शाम-सबेरे हो जाते ह, वह ब े को उछालता है, दुलारता है,
कभी गोद म लेकर या उँ गली पकड़कर सैर कराने ले जाता है और बस, यही उसके कत
क इित है। वह परदेस चला जाय, ब े को परवाह नह होती; ले कन माँ तो ब े का
सव व है। बालक एक िमिनट के िलए भी उसका िवयोग नह सह सकता। िपता कोई हो,
उसे परवाह नह , के वल एक उछलने-कू दनेवाला आदमी होना चािहए; ले कन माता तो
अपनी ही होनी चािहए, सोलह आने अपनी; वही प, वही रं ग, वही यार, वही सब
कु छ। वह अगर नह है तो बालक के जीवन का ोत मानो सूख जाता है, फर वह िशव का
न दी है, िजस पर फू ल या जल चढ़ाना लािजमी नह , अि तयारी है। ह रधन क माता का
आज दस साल ए देहांत हो गया था; उस व उसका िववाह हो चुका था। वह सोलह
साल का कु मार था। पर माँ के मरते ही उसे मालूम आ, म कतना िन सहाय ।ँ जैसे उस
पर उसका कोई अिधकार ही न रहा हो। बहन के िववाह हो चुके थे। भाई कोई दूसरा न
था। बेचारा अके ले घर म जाते भी डरता था। माँ के िलए रोता था; पर माँ क परछा से
डरता था। िजस कोठरी म उसने देह- याग कया था, उधर वह आँख तक न उठाता। घर म
एक बुआ थी, वह ह रधन का ब त दुलार करती। ह रधन को अब दूध यादा िमलता, काम
भी कम करना पड़ता। बुआ बार-बार पूछती- बेटा ! कु छ खाओगे ? बाप भी अब उसे
यादा यार करता, उसके िलए अलग एक गाय मँगवा दी, कभी-कभी उसे कु छ पैसे दे देता
क जैसे चाहे खच करे । पर इन मरहम से वह घाव न पूरा होता था; िजसने उसक आ मा
को आहत कर दया था। यह दुलार और यार उसे बार-बार माँ क याद दलाता। माँ क
घुड़ कय म जो मजा था; वह या इस दुलार म था ? माँ से माँगकर, लड़कर, ठु नककर,
ठकर लेने म जो आन द था, वह या इस िभ ादान म था ? पहले वह व थ था,
माँगकर खाता, लड़-लड़कर खाता, अब वह बीमार था, अ छे-से-अ छे पदाथ उसे दये
जाते थे; पर भूख न थी।
ह रधन तो उधर भूखा - यासा, चंता-दाह म जल रहा था, इधर घर म सास जी और दोन
साल म बात हो रही थ । गुमानी भी हाँ-म-हाँ िमलाती जाती थी।
छोटे साले बोले- मजूर हो तो आदमी घुड़के भी, डाँटे भी, अब इनसे कोई या कहे। न जाने
इनसे कभी पंड छू टेगा भी या नह । अपने दल म समझते ह गे, मने दो हजार पये नह
दये ह ? यह नह समझते क उनके दो हजार कब के उड़ चुके। सवा सेर तो एक जून को
चािहए।
गुमानी माता के िसर से जूँ िनकाल रही थी। सुलगते ए दय से बोली- िनक मे आदमी
को खाने के िसवा और काम ही या रहता है ?
बड़े- खाने क कोई बात नह है। िजसक िजतनी भूख हो उतना खाय, ले कन कु छ पैदा भी
तो करना चािहए। यह नह समझते क प नई म कसी के दन कटे ह !
छोटे- म तो एक दन कह दूग
ँ ा, अब अपनी राह लीिजए, आपका करजा नह खाया है।
गुमानी घरवाल क ऐसी-ऐसी बात सुनकर अपने पित से ष े करने लगी थी। अगर वह
बाहर से चार पैसे लाता, तो इस घर म उसका कतना मान-स मान होता, वह भी रानी
बनकर रहती। न जाने य , कह बाहर जाकर कमाते उसक नानी मरती है। गुमानी क
मनोवृि याँ अभी तक िबलकु ल बालपन क -सी थ । उसका अपना कोई घर न था। उसी
घर का िहत-अिहत उसके िलए भी धान था। वह भी उ ह श द म िवचार करती, इस
सम या को उ ह आँख से देखती जैसे उसके घरवाले देखते थे। सच तो, दो हजार पये म
या कसी को मोल ले लगे ? दस साल म दो हजार होते ही या ह। दो सौ ही तो साल भर
के ए। या दो आदमी साल भर म दो सौ भी न खायगे। फर कपड़े-ल ,े दूध-घी, सभी
कु छ तो है। दस साल हो गये, एक पीतल का छ ला नह बना। घर से िनकलते तो जैसे
इनके ान िनकलते ह। जानते ह जैसे पहले पूजा होती थी वैसे ही जनम-भर होती रहेगी।
यह नह सोचते क पहले और बात थी, अब और बात है। ब तो पहले ससुराल जाती है
तो उसका कतना महातम होता है। उसके डोली से उतरते ही बाजे बजते ह, गाँव-मुह ले
क औरत उसका मुँह देखने आती ह और पये देती ह। महीन उसे घर भर से अ छा खाने
को िमलता है, अ छा पहनने को, कोई काम नह िलया जाता; ले कन छ: महीन के बाद
कोई उसक बात भी नह पूछता, वह घर-भर क ल डी हो जाती है। उनके घर म मेरी भी
तो वही गित होती। फर काहे का रोना। जो यह कहो क म तो काम करता ,ँ तो तु हारी
भूल है, मजूर क और बात है। उसे आदमी डाँटता भी है, मारता भी है, जब चाहता है,
रखता है, जब चाहता है, िनकाल देता है। कसकर काम लेता है। यह नह क जब जी म
आया, कु छ काम कया, जब जी म आया, पड़कर सो रहे।
ह रधन अभी पड़ा अंदर-ही-अंदर सुलग रहा था, क दोन साले बाहर आये और बड़े साहब
बोले- भैया, उठो तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे ? सारा खेत पड़ा आ है।
दोन साले ह ा-ब ा हो गये। िजस आदमी ने कभी जबान नह खोली, हमेशा गुलाम क
तरह हाथ बाँध हािजर रहा, वह आज एकाएक इतना आ मािभमानी हो जाय, यह उनको
च का देने के िलए काफ था। कु छ जवाब न सूझा।
बड़े ने फर उसी ढंग से कहा- अगर तुम यह चाहो क ज म-भर पा ने बने रहो और
तु हारा वैसा ही आदर-स कार होता रहे, तो यह हमारे वश क बात नह है।
ह रधन ने आँख िनकालकर कहा- या म तुम लोग से कम काम करता ँ ?
ह रधन- तो तु हारे घर क नीित है क जो सबसे यादा काम करे वही भूख मारा जाय ?
बड़े- तुम खुद खाने नह गये। या कोई तु हारे मुँह म कौर डाल देता ?
छोटे साले ने कहा- अ माँ भी तो आयी थ । तुमने कह दया, मुझे भूख नह है, तो या
करत ।
सास भीतर से लपक चली आ रही थी। यह बात सुनकर बोली- कतना कहकर हार गयी,
कोई उठे न तो म या क ँ ?
ह रधन परा त हो गया। बु ढ़या ने एक ही वाक् - हार म उसका काम तमाम कर दया।
उसक तनी ई भव ढीली पड़ गय , आँख क आग बुझ गयी, फड़कते ए नथुने शांत हो
गये। कसी आहत मनु य क भाँित वह जमीन पर िगर पड़ा। ' या तुम मेरे लड़क क
बराबरी करोगे ?' यह वा य एक लंबे भाले क तरह उसके दय म चुभता चला जाता था,
न दय का अंत था, न उस भाले का !
रात भीग चुक थी। अनंत काश म उ वल तारे बालक क भाँित ड़ा कर रहे थे। कोई
नाचता था, कोई उछलता था, कोई हँसता था, कोई आँखे भ चकर फर खोल देता, कोई
साहसी बालक सपाट भरकर एक पल म उस िव तृत े को पार कर लेता था और न जाने
कहाँ िछप जाता था। ह रधन को अपना बचपन याद आया, जब वह भी इसी तरह ड़ा
करता था। उसक बाल- मृितयाँ उ ह चमक ले तार क भाँित विलत हो गयी। वह
अपना छोटा - सा घर, वह आम के बाग, जहाँ वह के रयाँ चुना करता था, वह मैदान जहाँ
वह कब ी खेला करता था, सब उसे याद आने लगे। फर अपनी ेहमयी माता क सदय
मू त उसके सामने खड़ी हो गयी। उन आँख म कतनी क णा थी, कतनी दया थी। उसे
ऐसा जान पड़ा मानो माता आँख म आँसू भरे , उसे छाती से लगा लेने के िलए हाथ फै लाये
उसक ओर चली आ रही है। वह उस मधुर भावना म अपने को भूल गया। ऐसा जान पड़ा
मानो माता ने उसे छाती से लगा िलया है और उसके िसर पर हाथ फे र रही है। वह रोने
लगा, फू ट-फू टकर रोने लगा। उसी आ म-स मोिहत दशा म उसके मुँह से यह श द िनकला,
अ मा, तुमने मुझे इतना भुला दया। देखो, तु हारे यारे लाल क या दशा हो रही है ?
कोई उसे पानी को भी नह पूछता। या जहाँ तुम हो, वहाँ मेरे िलए जगह नह है ?
सहसा गुमानी ने आकर पुकारा- या सो गये तुम, नौज कसी को ऐसी रा सी न द आये।
चलकर खा य नह लेते ? कब तक कोई तु हारे िलए बैठा रहे ?
ह रधन उठ बैठा और मानो तलवार यान से िनकालकर बोला- भला तु ह मेरी सुध तो
आयी। मने तो कह दया था, मुझे भूख नह है।
गुमानी- तो कै दन न खाओगे ?
दृढ़ संक प से भरे ए इन श द को सुनकर गुमानी सहम उठी। बोली- कहाँ जा रहे हो।
ह रधन ने मानो नशे म कहा- तुझे इससे या मतलब ? मेरे साथ चलेगी या नह ? फर
पीछे से न कहना, मुझसे कहा नह ।
'तो मालूम हो गया, तू नह जाना चाहती। मुझे इतना ही पूछना था, नह अब तक म आधी
दूर िनकल गया होता।'
यह कहकर वह उठा और अपने घर क ओर चला। गुमानी पुकारती रही, 'सुन लो', 'सुन
लो'; पर उसने पीछे फर कर भी न देखा।
डाँटकर बोला- वहाँ बैठे-बैठे हँसोगे, तो आकर सारी हँसी िनकाल दूग
ँ ा, नह सीधे से उतर
आओ।
वह गािलयाँ देने जा रहा था क एक गुठली आकर उसके िसर पर लगी। िसर सहलाता आ
बोला- यह कौन सैतान है ? नह मानता, ठहर तो, म आकर तेरी खबर लेता ।ँ
उसने अपनी लकड़ी नीचे रख दी और बंदर क तरह चटपट ऊपर चढ़ गया। देखा तो
ह रधन बैठा मुस करा रहा है। च कत होकर बोला- अरे ह रधन ! तुम यहाँ कब आये ? इस
पेड़ पर कब से बैठे हो ?
मँग - सब चैनचान है भैया ! तुमने तो जैसे नाता ही तोड़ िलया। इस तरह कोई अपना
गाँव-घर छोड़ देता है ? जब से तु हारे दादा मरे सारी िगर ती चौपट हो गयी। दो छोटे-
छोटे लड़के ह, उनके कये या होता है ?
मँग ने अिव ास के भाव से कहा- अरे भैया कै सी बात करते हो, तु हारे िलए जान तक
हािजर है। या ससुराल म अब न रहोगे ? कोई चंता नह । पहले तो तु हारा घर ही है।
उसे सँभालो। छोटे-छोटे ब े ह, उनको पालो। तुम नयी अ माँ से नाहक डरते थे। बड़ी
सीधी है बेचारी। बस, अपनी माँ ही समझो, तु ह पाकर तो िनहाल हो जायगी। अ छा,
घरवाली को भी तो लाओगे ?
ह रधन- वह न आयेगी।
ह रधन अपने घर प च
ँ ा तो दोन भाई, 'भैया आये ! भैया आये !' कहकर भीतर दौड़े और
माँ को खबर दी।
एक दन उसने सुना, गुमानी ने दूसरा घर कर िलया। माँ से बोला- तुमने सुना काक !
गुमानी ने घर कर िलया।
अनाथ और िवधवा मानी के िलये जीवन म अब रोने के िसवा दूसरा अवलंब न था। वह
पाँच वष क थी, जब िपता का देहांत हो गया। माता ने कसी तरह उसका पालन कया।
सोलह वष क अव था म मुह ले वाल क मदद से उसका िववाह भी हो गया पर साल के
अंदर ही माता और पित दोन िवदा हो गये। इस िवपि म उसे उपने चचा वंशीधर के
िसवा और कोई नजर न आया, जो उसे आ य देता। वंशीधर ने अब तक जो वहार कया
था, उससे यह आशा न हो सकती थी क वहाँ वह शांित के साथ रह सके गी पर वह सब
कु छ सहने और सब कु छ करने को तैयार थी। वह गाली, िझड़क , मारपीट सब सह लेगी,
कोई उस पर संदहे तो न करे गा, उस पर िम या लांछन तो न लगेगा, शोहद और लु से
तो उसक र ा होगी । वंशीधर को कु ल मयादा क कु छ चंता ई। मानी क याचना को
अ वीकार न कर सके ।
मानी उसक आवाज सुनकर कोने म िछप गयी और गंभीर वर म बोली- या काम है?
मानी ने गदन झुकाकर कहा- इस दंड से कोई और दंड कठोर हो सकता है? िजसक सूरत से
लोग को घृणा है, उसे मरने के िलये भी अगर कठोर दंड दया जाय, तो म यही क ग
ँ ी क
ई र के दरबार म याय का नाम भी नह है। तुम मेरी दशा का अनुभव नह कर सकते।
इं नाथ क आँख सजल हो गय । मानी क बात म कतना कठोर स य भरा आ था ।
बोला- सदा ये दन नह रहगे मानी। अगर तुम यह समझ रही हो क संसार म तु हारा
कोई नह है, तो यह तु हारा म है। संसार म कम-से-कम एक मनु य ऐसा है, िजसे तु हारे
ाण अपने ाण से भी यांरे ह।
सहसा गोकु ल आता आ दखाई दया। मानी कमरे से िनकल गयी। इं नाथ के श द ने
उसके मन म एक तूफान-सा उठा दया। उसका या आशय है, यह उसक समझ म न
आया। फर भी आज उसे अपना जीवन साथक मालूम हो रहा था । उसके अंधकारमय
जीवन म एक काश का उदय हो गया।
इं नाथ को वहाँ बैठे और मानी को कमरे से जाते देखकर गोकु ल को कु छ खटक गया।
उसक यो रयाँ बदल गय । कठोर वर म बोला- तुम यहाँ कब आये?
इं नाथ ने अिवचिलत भाव से कहा- तु ह को खोजता आ यहाँ आया था। तुम यहाँ न
िमले तो नीचे लौटा जा रहा था, अगर चला गया होता तो इस व तु ह यह कमरा बंद
िमलता और पंखे के कड़े म एक लाश लटकती ई नजर आती।
गोकु ल ने समझा, यह अपने अपराध के िछपाने के िलये कोई बहाना िनकाल रहा है। ती
कं ठ से बोला- तुम यह िव ासघात करोगे, मुझे ऐसी आशा न थी।
इं नाथ का चेहरा लाल हो गया। वह आवेश म खड़ा हो गया और बोला- न मुझे यह आशा
थी क तुम मुझ पर इतना बड़ा लांछन रख दोगे। मुझे न मालूम था क तुम मुझे इतना नीच
और कु टल समझते हो। मानी तु हारे िलये ितर कार क व तु हो, मेरे िलये वह ाक
व तु है और रहेगी। मुझे तु हारे सामने अपनी सफाई देने क ज रत नह है, ले कन मानी
मेरे िलये उससे कह पिव है, िजतनी तुम समझते हो। म नह चाहता था क इस व
तुमसे ये बात क ।ँ इसके िलये और अनूकूल प रि थितय क राह देख रहा था, ले कन
मुआमला आ पड़ने पर कहना ही पड़ रहा है। म यह तो जानता था क मानी का तु हारे घर
म कोई आदर नह , ले कन तुम लोग उसे इतना नीच और या य समझते हो, यह आज
तु हारी माताजी क बात सुनकर मालूम आ। के वल इतनी-सी बात के िलये वह चढ़ावे के
गहने देखने चली गयी थी, तु हा्री माता ने उसे इस बुरी तरह िझड़का, जैसे कोई कु े को
भी न िझड़के गा। तुम कहोगे, इसम म या क ँ , म कर ही या सकता ।ँ िजस घर म एक
अनाथ ी पर इतना अ याचार हो, उस घर का पानी पीना भी हराम है। अगर तुमने
अपनी माता को पहले ही दन समझा दया होता, तो आज यह नौबत न आती। तुम इस
इ जाम से नह बच सकते। तु हारे घर म आज उ सव है, म तु हारे माता-िपता से कु छ
बातचीत नह कर सकता, ले कन तुमसे कहने म संकोच नह है क मानी को को म अपनी
जीवन सहचरी बनाकर अपने को ध य समझूँगा। मने समझा था, अपना कोई ठकाना
करके तब यह ताव क ँ गा पर मुझे भय है क और िवलंब करने म शायद मानी से हाथ
धोना पड़े, इसिलये तु ह और तु हारे घर वाल को चंता से मु करने के िलये म आज ही
यह ताव कये देता ।ँ
जब हम कसी के हाथ अपना असाधारण िहत होते देखते ह, तो हम अपनी सारी बुराइयाँ
उसके सामने खोलकर रख देते ह। हम उसे दखाना चाहते ह क हम आपक इस कृ पा के
सवथा यो य नह ह।
इं नाथ को यह शंका िब कु ल िनमूल जान पड़ी। बोले- तुम इस समय ब क -सी बात कर
रहे हो गोकु ल। यह मानी ई बात है क मानी आसानी से मंजूर न करे गी। वह इस घर म
ठोकर खायेगी, िझड़ कयाँ सहेगी, गािलयाँ सुनेगी, पर इसी घर म रहेगी। युग के सं कार
को िमटा देना आसान नह है, ले कन हम उसको राजी करना पड़ेगा। उसके मन से संिचत
सं कार को िनकालना पड़ेगा। म िवधवा के पुन ववाह के प म नह ।ँ मेरा खयाल है
क पित त का अलौ कक आदश संसार का अमू य र है और हम ब त सोच-समझकर
उस पर आघात करना चािहए; ले कन मानी के िवषय म यह बात नह उठती। ेम और
भि नाम से नह , ि से होती है। िजस पु ष क उसने सूरत भी नह देखी, उससे उसे
ेम नह हो सकता। के वल र म क बात है। इस आडंबर क , इस दखावे क , हम परवाह
नह करनी चािहए। देखो, शायद कोई तु ह बुला रहा है। म भी जा रहा ।ँ दो-तीन दन म
फर िमलूँगा, मगर ऐसा न हो क तुम संकोच म पड़कर सोचते-िवचारते रह जाओ और
दन िनकलते चले जायँ।
बारात िवदा हो गयी थी। मेहमान भी खसत हो गये थे। रात के नौ बज गये थे। िववाह के
बाद क न द मश र है। घर के सभी लोग सरे शाम से सो रहे थे। कोई चारपाई पर, कोई
त त पर, कोई जमीन पर, िजसे जहाँ जगह िमल गयी, वह सो रहा था। के वल मानी घर
क देखभाल कर रही थी और ऊपर गोकु ल अपने कमरे म बैठा आ समाचार पढ़ रहा था।
सहसा गोकु ल ने पुकारा- मानी, एक लास ठं डा पानी तो लाना, यास लगी है।
मानी पानी लेकर ऊपर गयी और मेज पर पानी रखकर लौटना ही चाहती थी क गोकु ल ने
कहा- जरा ठहरो मानी, तुमसे कु छ कहना है।
मानी ने कहा- अभी फु रसत नह है भाई, सारा घर सो रहा है । कह कोई घुस आये तो
लोटा-थाली भी न बचे।
गोकु ल ने कहा- घुस आने दो, म तु हारी जगह होता, तो चोर से िमलकर चोरी करवा
देता। मुझे इसी व इं नाथ से िमलना है। मने उससे आज िमलने का वचन दया है- देखो
संकोच मत करना, जो बात पूछ रहा ,ँ उसका ज द उ र देना। देर होगी तो वह
घबरायेगा। इं नाथ को तुमसे ेम है, यह तुम जानती हो न?
मानी ने मुँह फे रकर कहा- यही बात कहने के िलये मुझे बुलाया था? म कु छ नह जानती।
गोकु ल- खैर, यह वह जाने और तुम जानो। वह तुमसे िववाह करना चाहता है। वै दक रीित
से िववाह होगा। तु ह वीकार है?
मानी क गदन शम से झुक गयी। वह कु छ जवाब न दे सक ।
गोकु ल ने फर कहा- दादा और अ माँ से यह बात नह कही गयी, इसका कारण तुम
जानती ही हो । वह तु ह घुड़ कयाँ दे-देकर जला-जलाकर चाहे मार डाल, पर िववाह
करने क स मित कभी नह दगे। इससे उनक नाक कट जायेगी, इसिलये अब इसका
िनणय तु हारे ही ऊपर है। म तो समझता ,ँ तु ह वीकार कर लेना चािहए। इं नाथ
तुमसे ेम करता ही है, य भी िन कलंक च र का आदमी और बला का दलेर है । भय तो
उसे छू ही नह गया। तु ह सुखी देखकर मुझे स ा आनंद होगा।
गोकु ल ने अबक खीझकर कहा- देखो मानी, यह चुप रहने का समय नह है। या सोचती
हो?
शाम को गोकु ल ने अपनी माँ से कहा- अ माँ, इं नाथ के घर आज कोई उ सव है। उसक
माता अके ली घबड़ा रही थी क कै से सब काम होगा, मने कहा, म मानी को कल भेज दूगँ ा।
तु हारी आ ा हो, तो मानी का प च ँ ा दू।ँ कल-परस तक चली आयेगी।
गोकु ल ने मानी से कहा- कपड़े पहनकर तैयार हो जाओ, तु ह इं नाथ के घर चलना है।
गोकु ल क माँ ने कहा- चली य नह जाती, यार वहाँ कोई पहाड़ खोदना है?
मानी एक सफे द साड़ी पहनकर ताँगे पर बैठी, तो उसका दय काँप रहा था और बार-बार
आँख म आँसू भर आते थे। उसका दय बैठा जाता था, मान नदी म डु बने जा रही हो।
ताँगा कु छ दूर िनकल गया तो उसने गोकु ल से कहा- भैया, मेरा जी न जाने कै सा हो रहा है।
घर चलो, तु हारे पैर पड़ती ।ँ
गोकु ल ने कहा- तू पागल है। वहाँ सब लोग तेरी राह देख रहे ह और तू कहती है लौट चलो।
ताँगा प च
ँ गया। इं नाथ क माता िवचारशील मिहला थ । उ ह ने आकर वधू को उतारा
और भीतर ले गय ।
गोकु ल वहाँ से घर चला तो यारह बज रहे थे। एक ओर तो शुभ काय के पूरा करने का
आनंद था, दूसरी ओर भय था क कल मानी न जायगी, तो लोग को या जवाब दूग ँ ा।
उसने िन य कया, चलकर साफ-साफ कह दू।ँ िछपाना थ है । आज नह कल, कल नह
परस तो सब-कु छ कहना ही पड़ेगा। आज ही य न कह दू।ँ
यह िन य करके वह घर म दािखल आ।
माता ने कवाड़ खोलते ए कहा- इतनी रात तक या करने लगे? उसे भी य न लेते
आये? कल सवेरे चौका-बतन कौन करे गा?
गोकु ल ने िसर झुकाकर कहा- वह तो अब शायद लौटकर न आये अ माँ, उसके वह रहने
का बंध हो गया है।
माता ने आँख फाड़कर कहा - या बकता है, भला वह वहाँ कै से रहेगी?
माता मानो आकाश से िगर पड़ी। उ ह कु छ सुध न रही क मेरे मुँह से या िनकल रहा है,
कु लांगार, भड़वा, हरामजादा, न जाने या - या कहा । यहाँ तक क गोकु ल का धैय
चरमसीमा का उ लंघन कर गया । उसका मुँह लाल हो गया, यो रयाँ चढ़ गयी, बोला-
अ माँ, बस करो। अब मुझम इससे ज्यादा सुनने क साम य नह है। अगर मने कोई
अनुिचत कम कया होता, तो आपक जूितयाँ खाकर भी िसर न उठाता, मगर मने कोई
अनुिचत कम नह कया। मने वही कया जो ऐसी दशा म मेरा कत था और जो हर एक
भले आदमी को करना चािहए। तुम मूखा हो, तु ह नह मालूम क समय क या गित है।
इसीिलये अब तक मने धैय के साथ तु हारी गािलयाँ सुनी। तुमने, और मुझे दु:ख के साथ
कहना पड़ता है क िपताजी ने भी, मानी के जीवन को नारक य बना रखा था। तुमने उसे
ऐसी-ऐसी ताड़नाएँ दी, जो कोई अपने श ु को भी न देगा। इसीिलये न क वह तु हारी
आि त थी? इसीिलये न क वह अनािथनी थी? अब वह तु हारी गािलयाँ खाने न आवेगी।
िजस दन तु हारे घर िववाह का उ सव हो रहा था, तु हारे ही एक कठोर वा य से आहत
होकर वह आ मह या करने जा रही थी। इं नाथ उस समय ऊपर न प च ँ जाते तो आज
हम, तुम, सारा घर हवालात म बैठा होता।
माता ने आँख मटकाकर कहा- आहा ! कतने सपूत बेटे हो तुम, क सारे घर को संकट से
बचा िलया। य न हो ! अभी बहन क बारी है। कु छ दन म मुझे ले जाकर कसी के गले
म बांध आना। फर तु हारी चाँदी हो जायगी। यह रोजगार सबसे अ छा है। पढ़ िलखकर
या करोगे?
वंशीधर ने लपककर बु ढ़या के हाथ से प ले िलया, उनक छाती आशा से धक-धक करने
लगी। गोकु ल ने शायद यह प िलखा होगा। अंधेरे म कु छ न सुझा। पूछा- कहाँ से आयी है?
वंशीधर ने कमरे म जाकर लप जलाया और प पढ़ने लगे। मानी का खत था। िलखा था-
मुझे यह सुनकर अ यंत दु:ख आ क गोकु ल भैया कह चले गये और अब तक उनका पता
नह है। म ही इसका कारण ।ँ यह कलंक मेरे ही मुख पर लगना था वह भी लग गया। मेरे
कारण आपको इतना शोक आ, इसका मुझे ब त दु:ख है, मगर भैया आवगे अव य,
इसका मुझे िव ास है। म इसी नौ बजे वाली गाड़ी से बंबई जा रही ँ । मुझसे जो कु छ
अपराध आ है, उसे मा क िजएगा और चाची से मेरा णाम किहएगा। मेरी ई र से
यही ाथना है क शी ही गोकु ल भैया सकु शल घर लौट आव। ई र क इ छा ई तो
भैया के िववाह म आपके चरण के दशन क ँ गी।'
बंबई मेल लेटफाम पर खड़ी थी। मुसा फर म भगदड़ मची ई थी। खोमचे वाल क
चीख-पुकार से कान म पड़ी आवाज न सुनाई देती थी। गाड़ी छू टने म थोड़ी ही देर थी।
मानी और उसक सास एक जनाने कमरे म बैठी ई थ । मानी सजल ने से सामने ताक
रही थी। अतीत चाहे दुःखद ही य न हो, उसक मृितयाँ मधुर होती ह। मानी आज बुरे
दन को मरण करके दु:खी हो रही थी। गोकु ल से अब न जाने कब भट होगी। चाचाजी
आ जाते तो उनके दशन कर लेती। कभी-कभी िबगड़ते थे तो या, उसके भले ही के िलये
तो डाँटते थे। वह आवगे नह । अब तो गाड़ी छू टने म थोड़ी ही देर है। कै से आव, समाज म
हलचल न मच जायगी। भगवान क इ छा होगी, तो अबक जब यहाँ आऊँगी, तो ज र
उनके दशन क ँ गी।
एकाएक उसने लाला वंशीधर को आते देखा। वह गाड़ी से िनकलकर बाहर खड़ी हो गयी
और चाचाजी क ओर बढ़ी। चरण पर िगरना चाहती थी क वह पीछे हट गये और आँख
िनकालकर बोले- मुझे मत छू , दूर रह, अभिगनी कह क । मुँह म कािलख लगाकर मुझे प
िलखती है। तुझे मौत भी नह आती। तूने मेरे कु ल का सवनाश कर दया। आज तक गोकु ल
का पता नह है। तेरे कारण वह घर से िनकला और तू अभी तक मेरी छाती पर मूँग दलने
को बैठी है। तेरे िलये या गंगा म पानी नह है? म तुझे ऐसी कु लटा, ऐसी हरजाई
समझता, तो पहले दन ही तेरा गला घ ट देता। अब मुझे अपनी भि दखलाने चली है।
तेरे जैसी पािप ा का मरना ही अ छा है, पृ वी का बोझ कम हो जायगा।
मानी पाषाण-मू त के सामान खड़ी थी, मानो वह जम गयी हो। उसका सारा अिभमान
चूर-चूर हो गया। ऐसा जी चाहता था, धरती फट जाय और म समा जाऊँ, कोई व
िगरकर उसके जीवन- अधम जीवन- का अंत कर दे। इतने आदिमय के सामने उसका पानी
उतर गया। उसक आँख से पानी क एक बूँद भी न िनकली, दय म आँसू न थे। उसक
जगह एक दावानल-सा दहक रहा था, जो मानो वेग से मि त क क ओर बढ़ता चला जाता
था। संसार म कौन जीवन इतना अधम होगा !
9
गाड़ी चली तो माता ने कहा- ऐसा बेशम आदमी नह देखा। मुझे तो ऐसा ोध आ रहा था
क उसका मुँह नोच लू।ँ
मानी ने फर भी मुँह न खोला। शायद उसे कु छ सुनाई ही न दया था। शायद उसे अपने
अि त व का ान भी न था। वह टकटक लगाये िखड़क क ओर ताक रही थी। उस
अंधकार म उसे जाने या सूझ रहा था ।
माताजी सोई। मानी भी लेटी; पर चचा क वह सूरत आँख के सामने खड़ी थी और उनक
बात कान म गूँज रही थ - आह ! म इतनी नीच ,ँ ऐसी पितत, क मेरे मर जाने से पृ वी
का भार ह का हो जायगा? या कहा था, तू अपने माँ-बाप क बेटी है तो फर मुँह मत
दखाना। न दखाऊँगी, िजस मुँह पर ऐसी कािलमा लगी ई है, उसे कसी को दखाने क
इ छा भी नह है।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी ने अपना ंक खोला और अपने आभूषण
िनकालकर उसम रख दये। फर इं नाथ का िच िनकालकर उसे देर तक देखती रही ।
उसक आँख म गव क एक झलक-सी दखाई दी। उसने तसवीर रख दी और आप-ही-आप
बोली- नह -नह , म तु हारे जीवन को कलं कत नह कर सकती। तुम देवतु य हो, तुमने
मुझ पर दया क है। म अपने पूव सं कार का ायि त कर रही थी। तुमने मुझे उठाकर
दय से लगा िलया; ले कन म तु ह कलं कत न क ँ गी। तु ह मुझसे ेम है। तुम मेरे िलये
अनादर, अपमान, नंदा सब सह लोगे; पर म तु हारे जीवन का भार न बनूँगी।
गाड़ी अंधकार को चीरती चली जा रही थी। मानी आकाश क ओर इतनी देर तक देखती
रही क सारे तारे अदृ य हो गये और उस अंधकार म उसे अपनी माता का व प दखाई
दया-ऐसा उ वल, ऐसा य क उसने च ककर आँख बंद कर ल ।
10
न जाने कतनी रात गुजर चुक थी। दरवाजा खुलने क आहट से माता जी क आँख खुल
गय । गाड़ी तेजी से चलती जा रही थी; मगर ब का पता न था। वह आँख मलकर उठ
बैठ और पुकारा- ब ! ब ! कोई जवाब न िमला।
सहसा उसे खतरे क जंजीर याद आई। उसने जोर-जोर से कई बार जंजीर ख ची। कई
िमनट के बाद गाड़ी क । गाड आया। पड़ोस के कमरे से दो-चार आदमी और भी आये।
फर लोग ने सारा कमरा तलाश कया। नीचे त ते को यान से देखा। र का कोई िच न
न था। असबाब क जाँच क । िब तर, संदक ू , संदक
ु ची, बरतन सब मौजूद थे। ताले भी सब
बंद थे। कोई चीज गायब न थी। अगर बाहर से कोई आदमी आता, तो चलती गाड़ी से
जाता कहाँ? एक ी को लेकर गाड़ी से कू द जाना असंभव था। सब लोग इन ल ण से
इसी नतीजे पर प च ँ े क मानी ार खोलकर बाहर झाँकने लगी होगी और मु ठया हाथ से
छू ट जाने के कारण िगर पड़ी होगी। गाड भला आदमी था। उसने नीचे उतरकर एक मील
तक सड़क के दोन तरफ तलाश कया। मानी का कोई िनशान न िमला। रात को इससे
यादा और या कया जा सकता था? माताजी को कु छ लोग आ हपूवक एक मरदाने
िड बे म ले गये। यह िन य आ क माताजी अगले टेशन पर उतर पड़ और सबेरे इधर-
उधर दूर तक देख-भाल क जाय। िवपि म हम परमुखापे ी हो जाते ह। माताजी कभी
इसका मुँह देखती, कभी उसका। उनक याचना से भरी ई आँख मानो सबसे कह रही थ -
कोई मेरी ब ी को खोज य नह लाता?हाय, अभी तो बेचारी क चुंदरी भी नह मैली
ई। कै से-कै से साध और अरमान से भरी पित के पास जा रही थी। कोई उस दु वंशीधर
से जाकर कहता य नह - ले तेरी मनोिभलाषा पूरी हो गयी- जो तू चाहता था, वह पूरा
हो गया। या अब भी तेरी छाती नह जुड़ाती ।
11
इं नाथ ने मु कराकर कहा- यह तो तकदीर का खेल है, भाई, सोलह आना तकदीर का।
अगर एक दशा म वैवािहक जीवन नरकतु य है, तो दूसरी दशा म वग से कम नह ।
इं नाथ- इतनी या, इसका शतांश भी न रहेगी। अगर तुम रोज िसनेमा देखकर बारह बजे
लौटना चाहते हो, नौ बजे सोकर उठना चाहते हो और द तर से चार बजे लौटकर ताश
खेलना चाहते हो, तो तु ह िववाह करने से कोई सुख न होगा। और जो हर महीने सूट
बनवाते हो, तब शायद साल-भर म भी न बनवा सको।
'यह भी पूछने क बात है ! अब घर कौन जाता है, मगर कल दावत िखलानी पड़ेगी।'
इं नाथ का चेहरा िखल उठा। झट तार खोलकर पढ़ने लगा। एक बार पढ़ते ही उसका दय
धक हो गया, साँस क गयी, िसर घूमने लगा। आँख क रोशनी लु हो गयी, जैसे िव
पर काला परदा पड़ गया हो। उसने तार को िम के सामने फक दया ओर दोन हाथ से
मुँह ढाँपकर फू ट-फू टकर रोने लगा। दोन िम ने घबड़ाकर तार उठा िलया और उसे पढ़ते
ही हतबुि -से हो दीवार क ओर ताकने लगे। या सोच रहे थे और या हो गया !
तार म िलखा था- मानी गाड़ी से कू द पड़ी। उसक लाश लालपुर से तीन मील पर पायी
गयी। म लालपुर म ,ँ तुरंत आओ।
कई िमनट तीन आदमी िनवाक् िन पंद बैठे रहे। एकाएक इं नाथ खड़े हो गये और बोले-
म इस गाड़ी से जाऊँगा।
बंबई से नौ बजे रात को गाड़ी छू टती थी। दोन िम ने चटपट िब तर आ द बांधकर
तैयार कर दया। एक ने िब तर उठाया, दूसरे ने ंक। इं नाथ ने चटपट कपड़े पहने और
टेशन चले। िनराशा आगे थी, आशा रोती ई पीछे।
12
वंशीधर के उदास मुख पर हष का काश दौड़ गया। बोले- तो यहाँ य नह आये? तुमसे
कहाँ उसक भट ई? या बंबई चला गया था?
वह अंदर गया तो माता ने उसे िसर से पाँव तक देखा- तुम बीमार थे या भैया? चेहरा
य इतना उतरा है?
गोकु ल क माता ने पानी का लोटा रखकर कहा- हाथ-मुँह धो डालो बेटा, गोकु ल है तो
अ छी तरह? कहाँ रहा इतने दन ! तब से सैकड़ म त मान डाल । आया य नह ?
इं नाथ ने हाथ-मुँह धोते ए कहा- मने तो कहा था, चलो, ले कन डर के मारे नह आते।
माता ने अिव ास करके कहा- चल, नटखट कह का ! बेचारी को कोस रहा है, मगर इतनी
ज दी बंबई से लौट य आये?
' वामी'
माताजी ने प रख दया और आँख से आँसू बहने लगे। बरामदे म वंशीधर िन पंद खड़े थे
और जैसे मानी ल ानत उनके सामने खड़ी थी।
लेखक प रचय
े च द का ज म ३१ जुलाई सन् १८८० को बनारस शहर से चार मील दूर समही गाँव म
म
आ था। आपके िपता का नाम अजायब राय था। वह डाकखाने म मामूली नौकर के तौर
पर काम करते थे। आपके िपता ने के वल १५ साल क आयू म आपका िववाह करा दया।
िववाह के एक साल बाद ही िपताजी का देहा त हो गया। अपनी गरीबी से लड़ते ए
ेमच द ने अपनी पढ़ाई मै क तक प च ं ाई। जीवन के आरं भ म आप अपने गाँव से दूर
बनारस पढ़ने के िलए नंगे पाँव जाया करते थे। तेरह वष क उ म से ही ेमच द ने
िलखना आरं भ कर दया था। शु म आपने कु छ नाटक िलखे फर बाद म उदू म उप यास
िलखना आरं भ कया। इस तरह आपका सािहि यक सफर शु आ जो मरते दम तक साथ
- साथ रहा। सन् १९३६ ई० म ेमच द बीमार रहने लगे। अपने इस बीमार काल म ही
आपने " गितशील लेखक संघ" क थापना म सहयोग दया। आ थक क तथा इलाज
ठीक से न कराये जाने के कारण ८ अ टू बर १९३६ म आपका देहा त हो गया। और इस
तरह वह दीप सदा के िलए बुझ गया िजसने अपनी जीवन क ब ी को कण-कण जलाकर
भारतीय का पथ आलो कत कया।
Ghar Jamai Aur Dhikkar