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चाणक्य नीति

आचार्य चाणक्य

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चाणक्य नीति अध्याय 1
1. “तीनों लोकों के पालन करने वाले सर्वशक्तिमान विष्णु को सिर से प्रणाम करके अनेक शास्त्रों में से
निकालकर राजनीति समच्
ु चय नामक ग्रंथ कहता हूं।”
2. “जो इसको विधिवत पढ़कर धर्मशास्त्र में प्रसिद्ध शभ
ु कार्य और अशभ
ु कार्य को जानता है । वह अति
उत्तम गिना जाता है ।”
3. “मैं लोगों के हित की वांछा से उसको कहूंगा जिसके ज्ञान मात्र से सर्वज्ञता प्राप्त हो जाती है ।”
4. “निर्बुद्धि शिष्य को पढ़ाने से, दष्ु ट स्त्री के पोषण से और दखि
ु यों के साथ व्यवहार करने से पंडित भी दख

पाता है ।”
5. “दष्ु ट स्त्री, मर्ख
ू मित्र, उत्तर दे ने वाला दास और सांप वाले का घर में वास, ये मत्ृ यु स्वरूप ही है , इसमें कोई
संशय नहीं है ।”
6. “आपत्ती निवारण करने के लिए धन को बचाना चाहिए। धन से भी स्त्री की रक्षा करनी चाहिए। सब काल
में स्त्रियों और धनों से भी ऊपर, अपनी रक्षा करनी चाहिए।”
7. “विपत्ति निवारण के लिए धन की रक्षा करना उचित है क्योंकि श्री मानो कोमी आपत्ति आती है । हां, कभी
कभार दै वयोग और चंचल होने से संचित लक्ष्मी भी नष्ट हो जाती है ।”
8. “जिस दे श में ने आदर, न जीविका, न बंध,ु न विद्या का लाभ है , वहां वास नहीं करना चाहिए।”
9. “धनिक, वेद का ज्ञाता - ब्राह्मण, राजा, नदी और पांचवां वैद्य ने पांच जहां विद्यमान नहीं है । वहां एक
दिन भी वास नहीं करना चाहिए।”
10. “जीविका, भय, लज्जा, कुशलता, दे ने की प्रकृति, जहां ये पांच नहीं है , वहां के लोगों के साथ संगति नहीं
करनी चाहिए।”
11. “काम में लगाने पर सेवकों की, दख
ु आने पर बंधओ
ु ं की, विपत्ति काल में मित्र की और विभव के नाश होने
पर स्त्री की परीक्षा हो जाती है ।”
12. “अतरु होने पर, दख
ु प्राप्त होने पर, काल पड़ने पर, बैरियों से संकट आने पर, राजा के समीप और श्मशान
पर जो साथ रहता है , वही बंधु है ।”
13. “जो निश्चित वस्तओ
ु ं को छोड़कर अनिश्चित की सेवा करता है । उसकी निश्चित वस्तओ
ु ं का नाश हो जाता
है और अनिश्चित तो नष्ट ही है ।”
14. “बद्
ु धिमान उत्तम कुल की कन्या कुरुपा भी हो तो उसे अपनाएं, नीच कुल की सन्
ु दरी भी हो तो उसको नहीं,
इस कारण के विवाह तल्
ु य कुल में विहित है ।”
15. “नदियों का, शस्त्र धारियों का नाक वाले और सिंह वाले जंतओ
ु ं का, स्त्रियों में और राजकुल पर विश्वास
नहीं करना चाहिए।”
16. “विष में से भी अमत
ृ को,अशद्
ु ध पदार्थों में से भी सोने को,नीच से भी उत्तम विद्या को और दष्ु ट कुल से
भी स्त्री रत्न को लेना अयोग्य है ।”
17. “परु
ु ष से स्त्रियों का अहार दन
ू ा, लज्जा चौगन
ु ी, साहस 6 गन
ु ा और काम 8 गन
ु ा अधिक होता है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 2
1. “असत्य, बिना विचार किसी काम में झटपट लग जाना, छल, मर्ख
ू ता, लोभ, अपवित्रता और निर्दयता ये
स्त्रियों के स्वाभाविक दोष है ।”
2. “भोजन योग्य पदार्थ और भोजन की शक्ति, सद
ंु र स्त्री, और रति की शक्ति, ऐश्वर्य और दान शक्ति,
इनका होना छोड़े तप का फल नहीं है ।”
3. “जिसका पत्र
ु वश में रहता है और स्त्री इच्छा के अनस
ु ार चलता है और जो विभव में संतोष रखता है ,
उसको स्वर्ग यहाँ ही है ।”
4. “वही पत्र
ु है जो पिता का भक्त है , वही पिता है जो पालन करता है , वही मित्र है जिस पर विश्वास है , वही
स्त्री है जिससे सख
ु प्राप्त होता है ।”
5. “आंख के ओट होने पर काम बिगाड़े, सन्मख
ु होकर मीठी-मीठी बाते बना कर कहे , ऐसे मित्र को मह
ंु ु डे पर
दध
ू से और विष से भरे घड़े के समान छोड़ दे ना चाहिए।”
6. “कुमित्र पर विश्वास तो किसी प्रकार से नहीं करना चाहिए और समि
ु त्र पर भी विश्वास नहीं रखे हैं। इसका
कारण यह है कि कदाचित मित्र रुष्ट हो जाए तो सब बातों को प्रसिद्ध कर दे ।”
7. “मन से सोचे हुए काम का प्रकाश वचन से न करें ,
8. किंतु मंत्र से उसकी रक्षा करें और गप्ु त ही उस कार्य को काम में भी लावे।”
9. “मर्ख
ू ता दख
ु दे ती है और यव
ु ापन भी दख
ु दे ता है , परं तु दस
ू रे के गह
ृ का वास तो बहुत ही दख
ु दायक होता
है ।”
10. “सब पर्वतों पर माणिक्य नहीं होता और मोती सब हाथियों में नहीं मिलता। साधु लोग सब स्थानों में नहीं
मिलते और सब वन में चंदन नहीं होता।”
11. “बद्
ु धिमान लोग, लड़कों को नाना भांति कि सश
ु ीलता में लगावे। इसका कारण यह है कि नीति को जानने
वाले यदि शीलवान हो जाए तो वे कुल में पजि
ू त होते हैं।”
12. “वह माता शत्रु और पिता बैरी है जिसने अपने बालक को न पढ़ाया। इसका कारण यह है कि सभी के बीच
वे ऐसे शोभते हैं जैसे हं सों के बीच बकुल।”
13. “दल
ु ार दे ने से बहुत दोष होते हैं और दं ड दे ने से बहुत गण
ु । इस हे तु पत्र
ु और शिष्य को दं ड दे ना उचित है ,
लालना नहीं।”
14. “श्लोक या श्लोक के अर्थ को या अर्थ में से ज्ञान को प्रतिदिन पढ़ना उचित है । इसका कारण यह है कि
दान, अध्ययन आदि कर्म से दिन को सार्थक करना चाहिए।”
15. “स्त्री का विरह, अपने जनों से अनादर, यद्
ु ध करके बचा शत्र,ु कुत्सित राजा की सेवा, दरिद्रता और
अविवेकियों की सभा, ये सब बिना आग के ही शरीर को जलाते हैं।”
16. “नदी के तीर वक्ष
ृ , दस
ू रों के घर में जाने वाली स्त्री, मंत्रीरहित राजा, निश्चय है कि शीघ्र ही नष्ट हो जाते
हैं।”
17. “ब्राह्मणों का बल विद्या है , वैसे ही राजा का बल सेना, वैश्यों का बल धन और शद्र
ू ों का बल सेवा।”
18. “वैश्या निर्धन परु
ु ष को, प्रजा शक्तिहीन राजा को, पक्षी फलरहित वक्ष
ृ को और अभ्यागत भोजन करके घर
को छोड़ दे ते हैं।”

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19. “ब्राह्मण दक्षिणा लेकर यजमान को त्याग दे ते हैं, शिष्य विद्या प्राप्त हो जाने पर गरु
ु को, वैसे ही मग

जले हुए वन को छोड़ दे ते हैं ।”
20. “जिसका आचरण बरु ा है , जिसकी दृष्टि पाप में रहती हैं, बरु े स्थान में बसने वाला और दर्ज
ु न जैसे परु
ु षों
की मैत्री जिसके साथ की जाती है वह नर शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।”
21. “समान जन में प्रीति शोभती है और सेवा राजा की शोभती है , व्यवहारों में बनियाई, और घर में दिव्य सद
ंु र
स्त्री शोभती है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 3

1. “सद
ंु रता, तरुणता और बड़े कुल में जन्म होते हुए भी विद्याहीन परु
ु ष
बिना गंध पलाश ढाक के फूल के समान नहीं शोभते।”
2. “आचार कुल को बताता है , बोली दे श को जताती है ,
आदर प्रीति का प्रकाश करता है , शरीर भोजन को जताता है ।”
3. “कन्या को श्रेष्ठ कुल वालों को दे ना चाहिए, पत्र
ु को विद्या में लगाना चाहिए,
शत्रु को दख
ु पहुंचाना उचित है , और मित्र को धर्म का उपदे श करना चाहिए।”
4. “कोकिलों की शोभा स्वर है , स्त्रियों की शोभा पतिव्रता है ,
कुरूपों की शोभा विद्या है , तपस्वियों की शोभा क्षमा है ।”
5. “समर्थ को कौन वस्तु भारी है , कार्य में तत्पर रहने वाले को क्या दरू है ,
सद
ंु र विद्या वालों को कौन विदे श है , प्रियवादियों को अप्रिय कौन है ?”
6. “पत्र
ु को 5 वर्ष तक दल
ु ारे , उपरांत 10 वर्ष पर्यंत ताडन करें ,
16 वर्ष की प्राप्ति होने पर पत्र
ु से मित्र समान आचरण करें ।”
7. “विद्या यक्
ु त भला एक भी सप
ु त्र
ु हो उससे
सब कुल आनंदित हो जाता है , जैसे चंद्रमा से रात्रि।”
8. “दर्ज
ु न और सर्प, इन में सांप अच्छा दर्ज
ु न नहीं है
क्योंकि सांप काल आने पर काटता है जबकि दर्ज
ु न बार-बार काटता है ।”
9. “मर्ख
ू को दरू करना उचित है क्योंकि दे खने में वह मनष्ु य है परं तु यथार्थ दे खें
तो दो पांव का पशु है और वाक्य रूप कांटे को बेधता है , जैसे अंधे को कांटा।”
10. “समद्र
ु प्रलय के समय में अपनी मर्यादा को छोड़ दे ते हैं और सागर भेद की इच्छा रखते हैं
परं तु साधु लोग प्रलय होने पर भी अपनी मर्यादा को नहीं छोड़ते।”
11. “उपद्रव उठने पर, शत्रु के आक्रमण करने पर, अचानक काल पड़ने पर
और खल जन के संग होने पर जो भागता है वह जीवित रहता है ।”
12. “धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इनमें से जिसको कोई भी न भया
उसको मनष्ु य में जन्म होने का फल केवल मरण ही हुआ।”
13. “राजा कुलीन लोगों का संग्रह इस निमित्त करते हैं
कि वे उन्नति, साधारण और विपत्ति में राजा को नहीं छोड़ते।”
14. “किसके कुल में दोष नहीं है , व्याधि ने किसी पीड़ित न किया,
किसको दख
ु नहीं मिला, किसको सदा सख
ु ही रहा।”
15. “जहां मर्ख
ू नहीं पज
ू े जाते, जहां अन्न संचित रहता है ,
और जो स्त्री परु
ु ष में कलह नहीं होता वहां अपने आप ही लक्ष्मी विराजमान रहती हैं।”
16. “आग से जलते हुए एक ही सख
ू े वक्ष
ृ से सब वन ऐसे जल जाते हैं जैसे कुपत्र
ु से कुल।”

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17. “उपाय करने पर दरिद्रता नहीं रहती, जपने वाले को पाप नहीं रहता,
मौन रहने से कलह नहीं होता और जागने वाले के निकट भय नहीं होता।”
18. “अति सद
ंु रता के कारण सीता हरी गई, अति गर्व से रावण मारा गया,
बहुत दान दे कर बलि को बंधना पड़ा, इस हे तु अति को सब स्थल में छोड़ दे ना चाहिए।”
19. “एक भी अच्छे वक्ष
ृ से जिसमें सद
ंु र फल और गंद है
इससे सब वन सव
ु ासित हो जाता है जैसे सप
ु त्र
ु से कुल।”
20. “कुल के निमित्त एक को छोड़ दे ना चाहिए, ग्राम के हे तु कुल का त्याग उचित है ,
दे श के अर्थ ग्राम का और अपने अर्थ पथ्
ृ वी का अर्थात सब का त्याग ही उचित है ।”
21. “शोक संताप करने वाले उत्पन्न बहु पत्र
ु ों से क्या?
कुल को सहारा दे ने वाला एक ही पत्र
ु श्रेष्ठ है जिसमें कुल विश्राम पाता है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 4
1. “जबलों दे ह निरोग है और तबलग मत्ृ यु दरू है ,
तत्पर्यंत अपना हित पण्
ु यादि करना उचित है , प्राण के अंत हो जाने पर कोई क्या करे गा।”
2. “कुग्राम में वास, नीच कुल की सेवा, कुभोजन, कलही स्त्री, मर्ख
ू पत्र
ु , विधवा कन्या
ये छः बिना आग ही शरीर को जलाते हैं।”
3. “संसार के ताप से जलते हुए परु
ु षों के विश्राम के हे तु तीन जगह हैं - लड़का, स्त्री और सज्जनों की संगति।”
4. “वही भार्या है जो पवित्र और चतरु है , वही भार्या है जो पतिव्रता है ,
वही भार्या है जिस पर पति की प्रीति है , वही भार्या है जो सत्य बोलती हैं
अर्थात दान, मान, पोषण पालने के योग्य है ।”
5. “निपत्र
ु ी का घर सन
ू ा है , बंधु रहित दिशा शन्
ू य है ,
मर्ख
ू का हृदय शन्
ू य हैं और सर्व शन्
ू य दरिद्रता है ।”
6. “मनष्ु यों को बड्
ु ढा पन पथ है , घोड़ों को बांधे रखना वद्
ृ धता है ,
स्त्रियों को अमैथन
ु बढ़
ु ापा है और वस्त्रों को घाम वद्
ृ धता है ।”
7. “यह निश्चय है कि आयर्दा
ु य, कर्म, धन, विद्या, और मरण
ये पांचों जब जीव गर्भ ही में रहता है तभी लिख दिए जाते हैं।”
8. “विद्या में कामधेनु के समान गण
ु हैं क्योंकि यह अकाल में भी फल दे ती है ,
विदे श में माता के समान है , विद्या को गप्ु त धन कहते हैं।”
9. “उस गाय से क्या लाभ है जो न दध
ू दे वी न गाभिन होवे
ऐसे पत्र
ु हुए से क्या लाभ जो न विद्वान भया न शक्तिमान।”
10. “अकेले में तप, दो से पढ़ना, तीन से गाना, चार से पंथ में चलना,
पांच से खेती और बहुतों से यद्
ु ध भली भांति से बनते हैं।”
11. “दया रहित धर्म को छोड़ दे ना चाहिए, विद्या विहीन गरु
ु का त्याग उचित है ,
जिसके मह
ंु क्रोध प्रकट होता है ऐसी भार्या को अलग करना चाहिए और
बिना प्रीति बंधओ
ु ं का त्याग विहित है ।”
12. “किस काल में क्या करना चाहिए, मित्र कौन है , दे श कौन है , लाभ व्यय क्या है ,
किस का मैं हूं, मझ
ु में क्या शक्ति है , यह बार-बार विचारने योग्य है ।”
13. “पत्र
ु , मित्र, बंधु ये साधु जनों से निवत
ृ हो जाते हैं और जो उनका संग करते हैं
उनकी पण्
ु य से उनका कुल विकसित हो जाता है ।”
14. “मछली, कछुआ और पक्षी के दर्शन, ध्यान, और स्पर्श से बच्चों को सर्वदा पालते हैं
वैसे ही सज्जनों की संगति।”
15. “एक ही गण
ु ी पत्र
ु श्रेष्ठ है सौ सैकड़ों गण
ु -रहितों से क्या?
एक ही चांद अंधकार को नष्ट कर दे ता है , सहस्त्र तारों से नहीं।”
16. “मर्ख
ू जातक चिरं जीवी भी हो उससे उत्पन्न होते ही जो मर गया वह श्रेष्ठ है
क्योंकि जो मरा है वह थोड़े ही दख
ु का वह कारण होता है जब जवलों जीता है तबलों दाहता रहता है ।”

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17. “राजा लोग एक ही बार आज्ञा दे ते हैं, पंडित लोग एक ही बार बोलते हैं,
कन्यादान एक ही बार होता है , यह तीनों बात एक ही बार होती है ।”
18. “बिना अभ्यास से शास्त्र विष हो जाता है , बिना पचे भोजन विष हो जाता है ,
दरिद्र की गोष्टी विष और वद्
ृ ध को यव
ु ती विष जान पड़ती है ।”
19. “ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य उनका दे वता अग्नि है । मनष्ु य के हृदय में दे वता रहते है ,
अल्प बद्
ु धियों के मर्ति
ू और समदर्शियों को सब स्थान में दे वता है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 5

1. स्त्री का गरु
ु पति ही है , अभ्यागत सबका गरु
ु है , ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, इनका गरु
ु अग्नि है और चारों
वर्णों में गरु
ु ब्राह्मण है ।
2. घिसना, काटना, तपाना, पीटना इन चार प्रकारों से जैसे सोने की परीक्षा की जाती है वैसे ही दान, शील,
गण
ु और आचार इन चारों प्रकार से परु
ु ष की भी परीक्षा की जाती है ।
3. तब तक ही भय से डरना चाहिए जब तक भय नहीं आया, और आए हुए भय को दे खकर प्रहार करना
उचित है ।
4. एक ही गर्भ से उत्पन्न और एक ही नक्षत्र जायमान शील में समान नहीं होते जैसे बेर और उसके कांटे।
5. जिसको किसी विषय की वांछा नहीं होगी वह किसी विषय का अधिकारी नहीं होगा। जो कामी नहीं होगा,
वह शरीर की शोभा करने वाली वस्तओ
ु ं में प्रीति नहीं रखेगा। जो चतरु न होगा वह प्रिय नहीं बोल सकेगा
और स्पष्ट कहने वाला छली नहीं होगा।
6. मर्ख
ू पंडितों से, दरिद्री धनियों से, व्यभिचारिणी कुल स्त्रियों से और विधवा सह
ु ागिनों से बरु ा मानती हैं।
7. आलस्य से विद्या नष्ट हो जाती है , दस
ू रे के हाथ में जाने से धन निरर्थक जाता है , बीज की न्यन
ू ता से
खेत हत हो जाता है , सेनापति के बिना सेना नष्ट हो जाती है ।
8. अभ्यास से विद्या, सश
ु ीलता से कुल, गण
ु से भला मनष्ु य और नेत्र से कोप ज्ञात होता है ।
9. धन से धर्म की रक्षा होती है , यम नियम आदि योग से ज्ञान रक्षित रहता है , मद
ृ त
ु ा से राजा की रक्षा होती
है , भली स्त्री से घर की रक्षा होती है ।
10. वेद की पांडित्य को व्यर्थ प्रकाश करने वाला, शास्त्र और उसके आचार के विषय में व्यर्थ विवाद करने
वाला, शांत परु
ु ष को अन्यथा कहने वाला, ये लोग व्यर्थ ही क्लेश उठाते हैं।
11. दान दरिद्रता का नाश करता है , सश
ु ीलता दर्ग
ु ति का, बद्
ु धि अज्ञान का, भक्ति भय का नाश करती है ।
12. आग के सम्मान दस
ू री व्याधि नहीं है , अज्ञान के समान दस
ू रा वैरी नहीं है , क्रोध के तल्
ु य दस
ू री आग नहीं
है , ज्ञान से परे सख
ु नहीं है ।
13. यह निश्चय है कि एक ही परु
ु ष जन्म मरण पाता है , सख
ु -दख
ु एक ही भोगता है , एक ही नरको में पड़ता है
और एक ही मोक्ष पाता है , अर्थात इन कामों में कोई किसी की सहायता नहीं कर सकता।
14. ब्रह्म ज्ञानी को स्वर्ग तण
ृ है , शरू कों को जीवन तण
ृ है , जिसने इंद्रियों को वश में किया उसे स्त्री तण
ृ के
मल्
ू य जान पड़ती है , निस्पह
ृ को जगत तण
ृ है ।
15. विदे श में विद्या मित्र होती है , गह
ृ में भार्या मित्र है , रोगी का मित्र औषध है और मरे का मित्र धर्म है ।
16. समद्र
ु ों में वर्षा व्यर्थ है और भोजन से तप्ृ त को भोजन निरर्थक है , धनी को धन दे ना व्यर्थ है और दिन में
दीप व्यर्थ है ।
17. मेघ के जल के समान दस
ू रा जल नहीं है , अपने बल समान दस
ू रे का बल नहीं है इसका कारण यह है कि
वह समय पर काम आता है । नेत्र के तल्
ु य दस
ू रा प्रकाश करने वाला नहीं है और अन्न के सदृश्य दस
ू रा प्रिय
पदार्थ नहीं है ।
18. धनहीन धन चाहते हैं और पशु वचन, मनष्ु य स्वर्ग चाहते हैं और दे वता मक्ति
ु की इच्छा रखते हैं।

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19. सत्य से पथ्
ृ वी स्थिर है और सत्य ही से सर्य
ू तपते हैं। सत्य ही से वायु बहती है , सब सत्य से ही स्थिर हैं।
20. लक्ष्मी नित्य नहीं है , प्राण, जीवन और घर ये सब स्थिर नहीं हैं, निश्चय है कि इस चराचर संसार में केवल
धर्म ही निश्चित है ।
21. परु
ु षों में नापित, पक्षियों में कौवा बंचक होता है , पशओ
ु ं में सियार बंचक और स्त्रियों में मालिन धर्त
ू होती
है ।
22. जन्म दे ने वाला, यज्ञोपवीत आदि संस्कार कराने वाला, विद्या दे ने वाला, अन्न दे ने वाला, भय से बचाने
वाला ये पांच पिता गिने जाते हैं।
23. राजा की भार्या, गरु
ु की स्त्री, वैसे ही मित्र की पत्नी, सास और अपनी जननी इन पांचों को माता कहते हैं।

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चाणक्य नीति अध्याय 6
1. मनष्ु य शास्त्र को सन
ु कर धर्म को जानता है , दर्बु
ु द्धि को छोड़ता है , ज्ञान पाता है , मोक्ष पाता है ।
2. पक्षियों में कौवा, पशओ
ु ं में कुकुर चांडाल होता है , मनि
ु यों में चांडाल पाप है और सब में चांडाल निंदक है ।
3. कांसे का पात्र राख से, तांबे का मल खटाई से, स्त्री रजस्वला होने पर और नदी धारा के वेग से पवित्र होती
है ।
4. भ्रमण करने वाले राजा, ब्राह्मण, योगी पजि
ू त होते हैं परं तु स्त्री घम
ू ने से भ्रष्ट हो जाती है ।
5. जिसके धन है उसी का मित्र, उसी के बांधव होते हैं और वही परु
ु ष गिना जाता है और वही पंडित कहाता है ।
6. वैसी ही बद्
ु धि और वैसा ही उपाय होता है और वैसे ही सहायक मिलते हैं जैसा होनहार हैं।
7. काल सब प्राणियों को खा जाता है और काल ही इस सब प्रजा का नाश करता है । सब पदार्थ के लय हो जाने
पर काल जागता रहता है , काल को कोई नहीं टाल सकता।
8. जन्म का अंधा नहीं दे खता, काम से जो अंधा हो रहा है उसको सझ
ू ता नहीं, मद उन्मत्त किसी को दे खता
नहीं और अर्थी दोष को नहीं दे खता।
9. जीव आप ही कर्म करता है और उसका फल भी आप ही भोक्ता है , आप ही संसार में भ्रमता है और आप ही
उससे मक्
ु त भी होता है ।
10. अपने राज्य में किये हुए पाप को राजा और राजा के पाप को परु ोहित भोक्ता है , स्त्रीकृत पाप को स्वामी
भोक्ता है वैसे ही शिष्य के पाप को गरु
ु ।
11. ऋण करने वाला पिता शत्रु है , व्यभिचारिणी माता और सद
ंु र स्त्री शत्रु है और मर्ख
ू पत्र
ु वैरी है ।
12. लोभी को धन से, अहं कारी को हाथ जोड़ने से, मर्ख
ू को उसके अनस
ु ार वर्तन से और पंडित को सच्चाई से
वश में करना चाहिए।
13. राज्य न रहना यह अच्छा, परं तु कुराजा का राज्य होना यह अच्छा नहीं। मित्रता न होना यह अच्छा, परं तु
कुमित्र का मित्र करना अच्छा नहीं। शिष्य न हो यह अच्छा परं तु निंदित शिष्य कहलावे यह अच्छा नहीं।
भार्या न रहे यह अच्छा, पर कुभार्या का भार्या होना अच्छा नहीं।
14. दष्ु ट राजा के राज्य में प्रजा को सख
ु और कुमित्र से आनंद कैसे हो सकता है , दष्ु ट स्त्री से ग्रह में प्रीति और
कुशिष्य को पढ़ाने वाले की कीर्ति कैसे होगी।
15. सिंह से एक, बगल
ु े से एक, कुक्कुट से चार, कौवे से पांच, कुत्ते से छः और गधे से तीन गण
ु सीखना उचित
है ।
16. कार्य छोटा हो या बड़ा जो करणीय हो उसको सब प्रकार के प्रयत्न से करना उचित है , इस एक को सिंह से
सीखना कहते हैं।
17. विद्वान परु
ु ष को चाहिए कि, इंद्रियों का संयम करके दे श, काल और बल को समझकर बकुला के समान
सब कार्य को साधे।
18. उचित समय में जागना, रण में उद्यत रहना और बंधओ
ु ं को उनका भाग दे ना और आप आक्रमण करके
भोग करें , इन चार बातों को कुक्कुट से सीखना चाहिए।
19. छिपकर मैथन
ु करना, धैर्य करना, समय में घर संग्रह करना, सावधान रहना और किसी पर विश्वास नहीं
करना इन पांचों को कौवे से सीखना उचित है ।

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20. बहुत खाने की शक्ति रहते हुए भी थोड़े से संतष्ु ट होना, गाढ निंद्रा रहते भी झटपट जागना, स्वामी की
भक्ति और शरू ता इन छः गण
ु ों को कुत्ते से सीखना चाहिए।
21. अत्यंत थक जाने पर भी बोझ को ढोते जाना, शीत और उष्ण पर दृष्टि न दे ना, सदा संतष्ु ट होकर
विचरना, इन तीन बातों को गधे से सीखना चाहिए।
22. जो नर इन 22 गण
ु ों को धारण करे गा वह सदा सब कार्यों में विजयी होगा।

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चाणक्य नीति अध्याय 7
1. "अत्यंत सीधे स्वभाव से नहीं रहना चाहिए इसका कारण है कि
वन में जाकर दे खो, सीधे वक्ष
ृ काटे जाते हैं और टे ढ़े खड़े रहते हैं।"
2. "धन नाश का, मन का ताप, गहि
ृ णी का चरित्र, नीच का वचन
और अपमान इनको बद्
ु धिमान अपने मन में ना लावे।"
3. "अन्न और धन के व्यापार में , विद्या के संग्रह करने में ,
आहार और व्यवहार में जो परु
ु ष लज्जा को दरू रखेगा वही सख
ु ी रहे गा।"
4. "संतोष रूपी अमत
ृ से लोग तप्ृ त होते हैं, उनको शांति सख
ु होता है
परं तु जो धन के लोभ से इधर-उधर दौड़ा करते हैं उनको नहीं होता।"
5. "अपनी स्त्री, भोजन और धन इन तीनों में संतोष करना चाहिए।
पढ़ना, जप और दान इन तीनों में कभी संतोष नहीं करना चाहिए।"
6. "दो ब्राह्मण, ब्राह्मण और अग्नि, स्त्री परु
ु ष, स्वामी भत्ृ यहल और बैल,
इनके मध्य से होकर नहीं जाना चाहिए।"‌
7. "अग्नि, गरु
ु और ब्राह्मण, इनको पैर से कभी नहीं छूना चाहिए
और वैसे ही गाय को, कुमारी को, वद्
ृ ध को और बालक को,
पैर से कभी नहीं छूना होना चाहिए।"
8. "गाड़ी को पांच हाथ पर, घोड़े को दस हाथ पर, हाथी को हजार हाथ पर,
दर्ज
ु न को दे श त्याग करके छोड़ना चाहिए।"
9. "हाथी केवल अंकुश से, घोड़ा हाथ से, सींग वाले जंतु लाठी से
और दर्ज
ु न तरवार संयक्
ु त हाथ से दं ड पाते हैं।"
10. "भोजन के समय ब्राह्मण और मेघ के गरजने पर मयरू ,
दस
ू रों को संपत्ति प्राप्त होने पर साधु और
दस
ू रों को विपत्ति आने पर दर्ज
ु न संतष्ु ट होते हैं।"
11. "बली वैरी को उसके अनक
ु ू ल व्यवहार करने से,
यदि वह दर्ब
ु ल हो तो उसे प्रतिकूलता से वश में करें ।
बल में अपने समान शत्रु को विनय से अथवा बल से जीते।"
12. "राजा को बाहुवीर्य बल है और ब्राह्मण ब्रह्मज्ञानी या वेदपाठी बली होता है
और स्त्रियों को सद
ंु रता, तरुणता और मधरु ता अति उत्तम बल है ।"
13. "जहां जल रहता है वहां ही हं स बसते हैं वैसे ही सख
ू े तालाब को छोड़ दे ते हैं।
नर को हं स के समान नहीं रहना चाहिए कि वह बार-बार छोड़ दे ते हैं और बार-बार आश्रय लेते हैं।"
14. "अर्जित धन का उपयोग करना ही रक्षा है जैसे तालाब के भीतर के जल को बाहर निकालना।"
15. "जिसके पास धन होता है उसी के मित्र होते हैं
जिसके पास अर्थ होता है उसी के बंधु होते हैं जिसके पास धन रहता है
वही परु
ु ष गिना जाता है और जिसके अर्थ होता है वही जीता है ।"

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16. "संसार में आने पर स्वर्ग वासियों के शरीर में चार चिन्ह रहते हैं, दान का स्वभाव,
मीठा बचन, दे वता की पज
ू ा और ब्राह्मण को तप्ृ त करना अर्थात
जिन लोगों में दान आदि लक्षण रहे उनको जानना चाहिए कि वह
अपने पण्
ु य के प्रभाव से स्वर्गवासी मत्ृ यल
ु ोक में अवतार लिए हैं।"
17. "यदि कोई सिंह के गफ
ु ा में जा पड़े तो उसको हाथी के कपोल की मोती मिलते हैं
और सियार के स्थान में जाने पर बछवे की पछ
ंू और गधे के चमड़े का टुकड़ा मिलता है ।"
18. "कुत्ते की पछ
ंू के समान विद्या के बिना जीना व्यर्थ है ,
कुत्ते की पछ
ंू गोप्य इंद्रियों को ढक नहीं सकती है
और न ही मच्छर आदि जीवों को उड़ा सकती है ।"
19. "वचन की शद्
ु धि, मन की शद्
ु धि, इंद्रियों का संयम, सब जीव पर दया
और पवित्रता यह प्रार्थियों की शद्
ु धि है ।"
20. "जैसे फूल में गंध, तिल में तेल, काष्ठ में आग, दध
ू में घी, ऊष में गड़
ु ,
वैसे ही दे ह में आत्मा को विचार से दे खो।"
21. "अत्यंत क्रोध, कटु वचन, दरिद्रता, अपने जनों में वैर, नीच का संग,
कुल हीन की सेवा ये चिन्ह नरक वासियों के शरीर में रहते हैं।"

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चाणक्य नीति अध्याय 8
1. "गण
ु रूप को भषि
ू त करता है , शील कुल को अलंकृत करता है ,
सिद्धि विद्या को भषि
ू त करती है और भोग धन को भषि
ू त करता है ।"
2. "मर्ख
ू धन ही चाहते हैं, मध्यम इंसान धन और मान दोनों चाहते हैं
वहीं उत्तम परु
ु ष मान ही चाहते हैं क्योंकि महात्माओं का धन मान ही है ।"
3. "ऊष, जल, दध
ू मल
ू , पान, फल, और औषध इन वस्तओ
ु ं के भोजन करने पर भी
स्नान, दान आदि क्रिया करनी चाहिए।"
4. "दीप अंधकार को खा जाता है और काजल को जन्म दे ता है ,
जैसा अन्य सदा खाता है वैसे ही उसकी संतति होती है ।"
5. "हे मतिमन! गणि
ु यों को धन दो औरों को कभी भी मत दो।
समद्र
ु से मेघ के मख
ु में प्राप्त होकर जल सदा मधरु हो जाता है ,
पथ्
ृ वी पर चर अचर सब जीवों को पिला कर फिर दे खो
वही जल कोटिगण
ु होकर उसी समद्र
ु में चला जाता है ।"
6. "तत्व दर्शियों ने कहा है कि हजार चांडालों के तल्
ु य एक यवन होता है
और यवन से नीचे कोई नहीं है ।"
7. "तेल लगाने पर, चिता के धम
ू लगाने पर, स्त्री प्रसंग करने पर, बाल बनाने पर,
तब तक चांडाल ही बना रहता है जब तक स्नान नहीं करता है ।"
8. "अपच होने पर जल औषधि है , पचजाने पर जल बल को दे ता है ,
भोजन के समय पानी अमत
ृ के समान है और भोजन के अंत में विष का फल दे ता है ।"
9. "क्रिया के बिना ज्ञान व्यर्थ है , अज्ञान से नर मारा जाता है ,
सेनापति के बिना सेना मारी जाती है और स्वामी हीन स्त्री नष्ट हो जाती है ।"
10. "बढ़
ु ापे में मरी स्त्री, बंधु के हाथ में गया धन और दस
ू रे के अधीन भोजन
ये तीनों परु
ु षों की विडंबना है अर्थात दख
ु दायक होते हैं।"
11. "अग्निहोत्र के बिना वेद का पढ़ना व्यर्थ होता है , दान के बिना यज्ञ
आदि क्रिया नहीं बनती, भाव के बिना कोई सिद्धि नहीं होती इस हे तु प्रेम ही सब का कारण है ।"
12. "धात,ु काष्ठ, पाखान, भाव सहित सेवन करना, श्रद्धासेंति भगवत कृपा से जैसा भाव है
वैसा ही सिद्ध होता है ।"
13. "दे वता काठ में नहीं है , न पाषाण में है , न मर्ति
ू में है , निश्चय है कि दे वता भाव में विद्यमान है ,
इस हे तु भाव ही सब का कारण है ।"
14. "शांति के समान दस
ू रा तप नहीं, न संतोष से परे सख
ु , न तष्ृ णा से दस
ू री व्याधि है , न दया से अधिक
धर्म।"
15. "क्रोध यमराज है और तष्ृ णा वैतरणी नदी है , विद्या कामधेनु गाय है और संतोष इंद्र की वाटिका है ।"
16. "निर्गुण की सद
ंु रता व्यर्थ है , शीलहीन का कुल निंदित होता है ,
सिद्धि के बिना विद्या व्यर्थ है , भोग के बिना धन व्यर्थ है ।"

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17. "भमि
ू गत जल पवित्र होता है , पतिव्रता स्त्री पवित्र होती है ,
कल्याण करने वाला राजा पवित्र गिना जाता है , ब्राह्मण संतोषी शद्
ु ध होता है ।"
18. "असंतोषी ब्राह्मण निंदित गिने जाते हैं और संतोषी राजा, सलज्जा वेश्या और
लज्जा हीन कुल स्त्री निंदित गिनी जाती है ।"
19. "विद्या हीन बड़े कुल से मनष्ु यों को क्या लाभ है ? विद्वान का नीच कुल भी दे वताओं से पज
ू ा जाता है ।"
20. "संसार में विद्वान ही प्रसिद्ध होता है , विद्वान ही सब स्थानों में आदर पाता है ,
विद्या ही से सब मिलता है , विद्या ही स्थानों में पजि
ू त होती है ।"
21. "सद
ंु र, तरुणायक्
ु त और बड़े कुल में उत्पन्न भी विद्याहीन परु
ु ष ऐसे नहीं शोभते,
जैसे बिना गंध पलाश के फूल।"
22. "मांस के भक्षण और मदिरापान करने वाले, निरक्षर और मर्ख
ू , ऐसे परु
ु ष आकार के पशओ
ु ं के भार से पथ्
ृ वी
पीड़ित रहती है ।"
23. "यज्ञ यदि अन्न हीन हो तो, राज्य मंत्र हीन हो तो, ऋत्विजों का दान हीन हो तो यजमान को जलाता है
क्योंकि यज्ञ के समान कोई भी शत्रु नहीं है ।"

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चाणक्य नीति अध्याय 9
1. "हे भाई! यदि मक्ति
ु चाहते हो तो विषयों को विष के समान छोड़ दो! सहनशीलता, सरलता, दया, पवित्रता
और सच्चाई को अमत
ृ की तरह पियो।"
2. "जो नर अधम परस्पर अंतर आत्मा के दख
ु दायक बचन को भाषण करते हैं वे निश्चय करके नष्ट हो जाते
हैं जैसे विमीट में पड़कर सांप।"
3. "सव
ु र्ण में गंध, ऊष में फल, चंदन में फूल, विद्वान धनी और राजा चिरं जीवी न किया, इससे निश्चय है
कि विधाता के पहले कोई बद्
ु धिदाता न था।"
4. “सब औषधियों में गरु च गिलोह प्रधान है , सब सख
ु ों में भोजन श्रेष्ठ है ; सब इंद्रियों में आंख उत्तम है , सब
अंगों में सिर श्रेष्ठ है ।”
5. “आकाश में दत
ू नहीं जा सकता, न वार्ता की चर्चा चल सकती है , न पहले ही से किसी ने कह रखा है और
ना किसी से संगम हो सकता है ; ऐसी दशा में आकाश में स्थित सर्य
ू चंद्र के ग्रहण को जो द्विजवर स्पष्ट
जानता है वह कैसे विद्वान नहीं है ।”
6. “विद्यार्थी, सेवक, पथिक, भख
ू से पीड़ित, भय से कातर, भांडारी और द्वारपाल ये सात यदि सोते हो तो
जगा दे ना चाहिए।”
7. “सांप, राजा, व्याघ्र, बररै , वैसे ही बालक, दस
ू रे का कुत्ता और मर्ख
ू ये सात सो रहे हों तो नहीं जगाना
चाहिए।”
8. “जिन्होंने धन के अर्थ वेद को पढा, वैसे ही जो शद्र
ू का अन्न भोजन करते हैं वे ब्राह्मण विषहीन सर्प के
समान क्या कर सकते हैं।”
9. “जिसके क्रोध होने पर न भय है , प्रसन्न होने पर न धन का लाभ, न दं ड व अनग्र
ु ह हो सका है वह रुष्ट
होकर क्या करे गा।”
10. “विषहीन सांप को अपना फण बढ़ाना चाहिए क्योंकि विष हो या ना हो आडंबर भयजनक होता है ।”
11. “प्रातः काल में महाभारत से, मध्याह्न में रामायण से और रात्रि में भागवत से बद्
ु धिमानों का समय
बीतता है ।”
12. “अपने हाथ से गथ
ु ी माला, अपने हाथ से घिसा चंदन, अपने हाथ से लिखा स्तोत्र, ये इंद्र की लक्ष्मी को भी
हर लेते हैं।”
13. “उष, तिल, शद्र
ू , कांता, सोना, पथ्
ृ वी, चंदन, दही और पान इनका मर्दन गण
ु वर्धन है ।”
14. “दरिद्रता भी धीरता से सोभती है , स्वच्छता से कुवस्त्र सद
ंु र जान पड़ता है , कुअन्न भी उष्णता से मीठा
लगता है , कुरूपता भी सश
ु ीलता हो तो शोभा दे ती है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 10
1. “धनहीन हीन नहीं गिना जाता निश्चय है कि वह धनी ही है । विद्यारत्न से जो हीन है वह सब वस्तओ
ु ं में
हीन है ।”
2. “दृष्टि से शोध कर पांव रखना उचित है , वस्त्र से शद्
ु ध कर जल पीवे, शास्त्र से शद्
ु ध कर वाक्य बोले और
मन से सोच कर कार्य करें ।”
3. “यदि सख
ु चाहे तो विद्या को छोड़ दे , यदि विद्या चाहे तो सख
ु का त्याग करे तो सख
ु ार्थी को विद्या कैसे
होगी और विद्यार्थी को सख
ु कैसे होगा।”
4. “कवि क्या नहीं दे खते, स्त्री क्या नहीं कर सकती, मद्यपी क्या नहीं बकते और कौवे क्या नहीं खाते।”
5. “निश्चय है कि विधि रं क को राजा, राजा को रं क, धनी को निर्धन और निर्धन को धनी कर दे ती है ।”
6. “लोभियों को याचक और मर्खों
ू को समझाने वाला और पछ
ंू वाली स्त्रियों को पति और चोरों को चंद्रमा शत्रु
है ।”
7. “जिन लोगों में न विद्या है , न तप है , न दान है , न शील है , न गण
ु है और न धर्म है वे संसार में पथ्
ृ वी पर
भार रूप होकर मनष्ु य रूप से मग
ृ वत फिर रहे हैं।”
8. “गंभीरता विहीन परु
ु षों को शिक्षा दे ना सार्थक नहीं होता, मलयाचल के संगम बांस चंदन नहीं हो जाता।”
9. “जिसकी स्वाभाविक बद्
ु धि नहीं है उसको शास्त्र क्या कर सकता है , आंखों से हीन को दर्पण क्या करे गा।”
10. “दर्ज
ु न को सज्जन करने के लिए पथ्
ृ वी तल में कोई उपाय नहीं है , मल का त्याग करने वाली इंद्रिय सौ बार
भी धोई जाए तो भी श्रेष्ठ इंद्रिय न होगी।”
11. “बड़ों के द्वेष से मत्ृ यु होती है , शरू
ु से विरोध करने से धन का क्षय होता है , राजा के द्वेष से नाश और
ब्राह्मण के द्वेष से कुल का क्षय होता है ।”
12. “वन में बाघ और बड़े-बड़े हाथियों से सेवित वक्ष
ृ के नीचे के पत्ते, फल खाना या जल को पीना, घास पर
सोना, सो टुकडे के बकलों को पहनना ये श्रेष्ठ है , पर बंधओ
ु ं के मध्य में धनहीन का जीना श्रेष्ठ नहीं है ।”
13. “ब्राह्मण वक्ष
ृ है , उसकी जड़ संध्या है , वेद शाखा है , और धर्म के कर्म पत्ते हैं इसलिए प्रयत्न कर के जड़ की
रक्षा करनी चाहिए, जड़ कट जाने पर न शाखा रहे गी और न पत्ते।”
14. “जिसकी लक्ष्मी माता है और विष्णु भगवान पिता है और विष्णु के भक्त बांधव हैं उसको तीनो लोक
स्वदे श ही हैं।”
15. “नाना प्रकार के पखेरू एक वक्ष
ृ पर बैठते हैं प्रभात समय दश दिशा में हो जाते हैं उसमें क्या सोच है ।”
16. “जिसको बद्
ु धि है उसी को बल है ,निर्बुद्धि को बल कहां से होगा। दे खो वन में , मद से उन्मत्त सिंह सियार
से मारा गया।”
17. “मेरे जीवन में क्या चिंता है यदि हरि विश्व का पालने वाला कहलाता है , ऐसा न हो तो बच्चे के जीने के हे तु
माता स्तन में दध
ू कैसे बनाते? इसको बार-बार विचार करके हे य दप
ु ति है ! हे लक्ष्मीपति! सदा केवल
आपके चरण कमल के सेवा में समय को बिताता हूं।”
18. “यद्यपि संस्कृत भाषा में ही विशेष ज्ञान है तथापि दस
ू री भाषा का भी मैं लोभी हूं जैसे अमत
ृ के रहते भी
दे वताओं की इच्छा स्वर्ग की स्त्रियों के ओष्ट के आसव में रहती है ।”

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19. “चावल से 10 गन
ु ा पीसान/चन
ू में गण
ु है , पिसान से 10 गन
ु ा दध
ू में , दध
ू से 8 गन
ु ा मांस में और मांस से
10 गन
ु ा घी में ।”
20. “साग से रोग, दध
ू से शरीर, घी से वीर्य और मांस से मांस, बढ़ता है ।”

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चाणक्य नीति अध्याय 11
1. “काम, क्रोध, लोभ, मीठी वस्त,ु श्रग
ं ृ ार, खेल, अति निन्द्रा और अतिसेवा इन आठों को विद्यार्थी छोड़ दे वें।”
2. “उदारता, प्रिय बोलना, धीरता और उचित का ज्ञान ये अभ्यास से नहीं मिलते, ये चारों स्वाभाविक गण

हैं।”
3. “जो अपनी मंडली को छोड़ करके पराये वर्ग का आश्रय लेता है
वह अपने आप ही नष्ट हो जाता है जैसे राजा के राज्य अधर्म से।”
4. “हाथी का स्थल
ू शरीर है वह भी अंकुश के वश रहता है , तो क्या हस्ती के समान अंकुश है ?
दीप के जलने पर अंधकार अपने आप ही नष्ट हो जाता है तो क्या दीप के तल्
ु य अंधेरा है ?
बिजली के मारे पर्वत गिर जाते हैं तो क्या बिजली पर्वत के समान है ? जिसमें तेज विराजमान रहता है
वह बलवान गिना जाता है ।”
5. “कलयग
ु में दस हजार वर्ष के बीतने पर विष्णु पथ्
ृ वी को छोड़ दे ते हैं,
उसके आधे पर गंगा जी जल को, उसके आधे के बीतने पर ग्राम दे वता ग्राम को।”
6. “गह
ृ में आसक्त परु
ु षों को विद्या, मांस के आहारी को दया,
द्रव्य लोभी को सत्यता और व्यभिचारी को पवित्रता, नहीं होती है ।”
7. “निश्चय है कि दर्ज
ु न को अनेक प्रकार से सिखाया भी जाए पर उसमें साधत
ु ा नहीं आती,
दध
ू और घी से नीम का वक्ष
ृ सींचा जाए पर उस में मधरु ता नहीं आती।”
8. “जिसके हृदय में पाप है वही दष्ु ट है , वह तीर्थ में सौ बार स्नान से भी शद्
ु ध नहीं होता,
जैसे मदिरा का पात्र जलाया भी जाए तो भी शद्
ु ध नहीं होता।”
9. “जो जिसकी गण
ु की प्रकर्षता नहीं जानता वह निरं तर उसकी निंदा करता है ,
जैसे भिलिनी हाथी के मस्तक के मोती को छोड़ घघ
ंु च
ु ी को पहनती है ।”
10. “जो वर्ष भर नित्य चप
ु चाप भोजन करता है वह सहस्त्र कोटि यग
ु लों तक स्वर्ग लोक में पज
ू ा जाता है ।”
11. “बिना जोती भमि
ू से उत्पन्न फल या मल
ू को खाकर सदा वनवास करता हो
और प्रतिदिन श्राद्ध करें ऐसा ब्राह्मण ऋषि कहलाता है ।”
12. “एक समय के भोजन से संतष्ु ट रहकर पढ़ना पढ़ाना,
यज्ञ करना कराना, दान दे ना और लेना इन छः कर्मों में सदा रत हो
और ऋतु काल में स्त्री का संग करे तो ऐसे ब्राह्मण को द्विज कहते हैं।”
13. “सांसारिक कार्य में रत हो और पशओ
ु ं का पालन, बनियाई और
खेती करने वाला हो वह व्यक्ति वैश्य कहलाता है ।”
14. “लाख आदि पदार्थ, तेल, नीली कुसम
ु , मध,ु घी, मद्य और
मांस जो इनका बेचने वाला वह ब्राह्मण शद्र
ू कहा जाता है ।”
15. “दस
ू रे के काम का बिगड़ने वाला, दम्भी, अपने ही अर्थ का साधने वाला,
छली, द्वेषी, ऊपर मद
ृ ु और अन्तःकरण में क्रूर हो वह ब्राह्मण बिलार कहा जाता है ।”
16. “बावड़ी, कुआं, तालाब, वाटिका, दे वालय, इसके उच्छे द करने में जो निडर हो
वह ब्राह्मण म्लेच्छ कहा जाता है ।”

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17. “दे वता का द्रव्य और गरु
ु का द्रव्य जो हरता है और परस्त्री से संग करता है
और सब प्राणियों में निर्वाह कर लेता है वह व्यक्ति चांडाल कहलाता है ।”
18. “सक
ु ृ तियों को चाहिए कि भोगयोग धन को और द्रव्य को दे वे कभी न संचे, करण, बलि,
विक्रमादित्य इन राजाओं की कीर्ति इस समय पर्यंत वर्तमान है ,
दान भोग से रहित बहुत दिन से संचित हमारे लोगों का मधु नष्ट हो गया है ।
निश्चय है कि मधम
ु क्खियां मधु के नाश होने के कारण दोनों पैरों को घिसा करती हैं।”

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चाणक्य नीति अध्याय 12
1. “सत्य मेरी माता है और ज्ञान पिता, धर्म मेरा भाई है और दया मित्र,
शांति मेरी स्त्री है और क्षमा पत्र
ु , ये छः मेरे बंधु हैं।”
2. “यदि आनंद यक्
ु त घर मिले और लड़के पंडित हों, स्त्री मधरु भाषिणी हो,
इच्छा के अनस
ु ार धन हो, अपनी ही स्त्री में रति हो, आज्ञा पालक सेवक मिले,
अतिथि की सेवा और शिव की पज
ू ा हो, प्रतिदिन गह
ृ में मीठा अन्न और जल मिले,
सर्वदा साधु के संग उपासना ,यह गह
ृ स्थ आश्रम ही धन्य है ।”
3. “जो दयावान परु
ु षार्थ ब्राह्मणों को श्रद्धा से थोड़ा भी दान दे ता है
उस परु
ु ष को अनंत होकर वह मिलता है जो दिया जाता है वह ब्राह्मणों से नहीं मिलता।”
4. “अपने जन में दक्षता, दस
ू रे जन में दया, दर्ज
ु न में सदा दष्ु टता, साधु जन में प्रीति,
खल जन में अभिमान, विद्वानों में सरलता, शत्रज
ु न में शरू ता, बड़े लोगों के विषय में क्षमा,
स्त्री से काम पड़ने पर धर्त
ू ता, इस प्रकार से जो लोग कला में कुशल होते हैं उन्हीं लोगों की मर्यादा रहती
है ।”
5. “हाथ दान रहित है , कान वेद के विरोधी हैं, नेत्रों ने साधु का दर्शन नहीं किया,
पांव ने तीर्थ गमन नहीं किया, अन्याय से अर्जित धन से उदर भरा है और
गर्व से सिर ऊंचा हो रहा है रे रे शियार ऐसे नीच निंद्य शरीर को शीघ्र छोड़।”
6. “श्री यशोदा सत
ू के पद कमल में जिन लोगों की भक्ति नहीं रहती,
जिन लोगों की जीभ श्री कृष्ण के गण
ु गान में प्रीति नहीं रखती और
श्री कृष्ण जी की लीला की ललित कथा का आदर जिनके कान नहीं करते उन लोगों को धिक्कार है ।
ऐसे कीर्तन का मद
ृ ं ग सदा कहता है ।”
7. “यदि करील के वक्ष
ृ में पत्ते नहीं होते तो बसंत का क्या दोष है ? यदि उल्लू दिन में नहीं दे खता
तो सर्य
ू का क्या दोष है ? वर्षा चातक के मख
ु में नहीं पड़ती इसमें मेघ का क्या अपराध है ?
पहले ही ब्रह्मा ने जो कुछ ललाट में लिख रखा है उसे मिटाने को कौन समर्थ है ।”
8. “निश्चय है कि अच्छे के संग से दर्ज
ु नों में साधत
ु ा आ जाती है
परं तु साधओ
ु ं में दष्ु टों की संगति से असाधत
ु ा नहीं आती।
फूल के गंध को मिट्टी ले लेती है
परं तु मिट्टी के गंध को फूल कभी धारण नहीं करते।”
9. “साधु का दर्शन भी पण्
ु य है क्योंकि साधु तीर्थ रूप है ।
समय से तीर्थ फल दे ता है , साधओ
ु ं का संग शीघ्र ही काम कर दे ता है ।”
10. “हे इंसान! इस नगर में कौन बड़ा है ? ताड़ के पेड़ों का समद
ु ाय, दाता कौन है ?
धोबी प्रातः काल वस्त्र लेता है रात्रि में दे दे ता है , चतरु कौन है ? दस
ू रे के धन और स्त्री
के हरण में सभी कुशल है तो ऐसे नगर में आप कैसे जीते हो?
हे मित्र! विष का कीड़ा विष ही में जीता है वैसे ही मैं भी जीता हूं।”

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11. “जिन घरों में ब्राह्मण के पैरों के जल से कीचड़ में भया हो और न वेद शास्त्र के शब्द की गर्जना
और जो गह
ृ स्वाहा स्वधा से रहित हो उनको श्मशान के समान समझना चाहिए।”
12. “शरीर अनित्य है , विभव भी सदा नहीं रहता, मत्ृ यु सदा निकट ही रहती है
इसलिए धर्म का संग्रह करना चाहिए।”
13. “निमंत्रण ब्राह्मणों का उत्सव है और नवीन घास गायों का उत्सव है ,
पति के उत्साह से स्त्रियों को उत्साह होता है , हे कृष्ण! मझ
ु को और रण ही उत्सव है ।”
14. “दस
ू रे की स्त्री को माता के समान, दस
ू रे के द्रव्य को पत्थर कंकड़ समान
और अपने समान सब प्राणियों को जो दे खता है वही दे खता है ।”
15. “धर्म में तत्परता, मख
ु में मधरु ता, दान में उत्साहता, मित्र के विषय में निश्छलता,
गरु
ु से नम्रता, अंतः करण से गंभीरता, आचार में पवित्रता, गण
ु में रसिकता,
शास्त्रों में विशेष ज्ञान, रूप में सद
ंु रता और शिव की भक्ति, हो राघव! ये आप ही में है ।”
16. “कल्पवक्ष
ृ काठ है , सम
ु ेरू अचल है , चिंतामणि पत्थर है , सर्य
ू की किरण अत्यंत ऊष्ण है ,
चंद्रमा की किरण क्षीण हो जाती है ,समद्र
ु खारा है , काम के शरीर नहीं है , बलि दै त्य है ,
कामधेनु सदा पशु ही है इसलिए आपके साथ इनकी तल
ु ना नहीं की जा सकती।
हे रघप
ु ति! फिर आपको किसकी उपमा दी जाए।”
17. “प्रवास में विद्या हित करती है , घर में स्त्री मित्र है , रोगग्रस्त परु
ु ष का हित औषधि होती है
और धर्म मरे हुए का उपकार करता है ।”
18. “सश
ु ीलता राजा के लड़कों से, प्रिय वचन पंडितों से, असत्य जआ
ु डियों से और छल स्त्रियों से सीखना
चाहिए।”
19. “बिना विचारे व्यय करने वाला, सहायक के न रहने पर भी कलह में प्रीति रखने वाला
और सब जाति की स्त्रियों में भोग के लिये व्याकुल होने वाला परु
ु ष शीघ्र ही नष्ट हो जाता है ।”
20. “पंडित को आहार की चिंता नहीं करनी चाहिए। एक धर्म को निश्चिय से सोचना चाहिए,
इस हे तु कि, आहार मनष्ु यों को जन्म के साथ ही उत्पन्न होता है ।”
21. “धन धान्य के व्यवहार करने में , वैसे ही विद्या के पढ़ने पढ़ाने में , आहार में और
राजा की सभा में किसी के साथ विवाद करने में जो लज्जा को छोड़े रहे गा वही सख
ु ी होगा।”
22. “क्रम क्रम से जल की एक बद
ंू के गिरने से घड़ा भर जाता है , यही सब विद्या, धर्म और धन का भी कारण
है ।”
23. “वयस्क परिणाम पर भी जो मर्ख
ू रहता है वह मर्ख
ू ही बना रहता है ,
अत्यंत पक्की भी कड़वी लौकी मिठी नहीं होती।”

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चाणक्य नीति अध्याय 13
1. उत्तम कर्म से मनष्ु यों को मह
ु ू र्त भर का जीना भी श्रेष्ठ है । दोनों लोगों के विरोधी दष्ु ट क्रम से पल भर भी
जीना उत्तम नहीं है ।
2. गई वस्तु का शौक और भावी की चिंता नहीं करनी चाहिए। कुशल लोग वर्तमान काल के अनरु ोध से प्रवत्त

होते हैं।
3. निश्चय है कि दे वता सत्परु
ु ष और पिता ये प्रकृति से संतष्ु ट होते हैं, पर बंधु स्नान और पान से और पंडित
प्रिय वचन से संतष्ु ट होते हैं।
4. आयर्दा
ु य, कर्म, विद्या, धन और मरण यह पांच जब जीव गर्भ में रहता है उसी समय लिखे जाते हैं।
5. आश्चर्य है कि महात्माओं के विचित्र चरित्र हैं। लक्ष्मी को तण
ृ समान मानते हैं, यदि मिल जाती है तो
उसके भार से नम्र हो जाते हैं।
6. जिसको किसी में प्रीति रहती है उसी को भय होता है । स्नेही दख
ु का भाजन है और सब दख
ु का कारण
स्नेह ही है इस कारण उसे छोड़कर सख
ु ी होना उचित है ।
7. आने वाले दख
ु के पहले से उपाय करने वाला और जिसकी बद्
ु धि में भी विपत्ति आ जाने पर शीघ्र ही उपाय
भी आ जाता है , ये दोनों सख
ु से आगे बढ़ते हैं। और जो सोचता है कि भाग्यवश से जो होने वाला है अवश्य
ही अच्छा होगा, वह नष्ट हो जाएगा।
8. यदि धर्मात्मा राजा हो तो प्रजा भी धर्मी होती है यदि पापी हो तो प्रजा भी पापी होती है । सब प्रजा राजा के
अनस
ु ार चलती हैं, जैसा राजा होता है वैसी प्रजा भी होती है ।
9. धर्म रहित जीते हुए को मत
ृ क के समान समझता हूं, निश्चय है कि धर्मयत
ु मरा भी परु
ु ष चिरं जीवी है ।
10. धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष इनमें से जिस को एक भी नहीं चाहिए, बकरी के गल के स्थन के समान उसका
जन्म निरर्थक है ।
11. दर्ज
ु न दस
ू रे की कृतिरूप द:ु सह्र अग्नि से जलकर उसके पद को नहीं पाते इसलिए उसकी निंदा करने लगते
हैं।
12. विषय में आसक्त मन बन्ध का हे तू है , विषय से रहित मक्ति
ु का। मनष्ु यों के बन्ध और मोक्ष का कारण
मन ही‌है ।
13. परमात्मा के ज्ञान से, दे ह के अभिमान के नाश हो जाने पर जहां जहां मन जाता है वहां वहां समाधि ही है ।
14. मन का अभिलाषी सब सख
ु किसको मिलता है , जिस कारण सब दे व के वश है इससे संतोष पर भरोसा
करना उचित है ।
15. जैसे सहस्त्र धेनु के रहते बछड़ा अपनी माता ही के पास जाता है , वैसे ही कुछ कर्म किया जाता है तो उसका
फल कर्ता ही को मिलता है ।
16. जिसके कार्य की स्थिरता नहीं रहती वह न जन में और न वन में सख
ु पाता है । जन उसको संसर्ग से जराता
है और वन संग के त्याग से जराता है ।
17. जैसे खनन के साधन से खनके नर पाताल के जल को पाता है । वैसे ही गरु
ु गत विद्या को सेवक शिष्य
पाता है ।

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18. यद्यपि फल परु
ु ष के कर्म के अधीन रहता है और बद्
ु धि भी कर्म के अनस
ु ार ही चलती है । तथापि विवेकी
महात्मा लोग विचार करके ही काम करते हैं।
19. स्त्री, भोजन और धन इन तीनों में संतोष करना उचित है । पढ़ना, तप और दान इन तीनों में संतोष कभी
नहीं करना चाहिए।
20. जो एक अक्षर भी दे ने वाले गरु
ु की वंदना नहीं करता। वह कुत्ते की सौ योनि को भोगकर चांडालों में
जन्मता है ।
21. यग
ु के अंत में सम
ु ेरू चलाय मान होता है और कल्प के अंत में सातों सागर, परं तु साधु लोग स्वीकृत अर्थ
से कभी नहीं विचलते।

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चाणक्य नीति अध्याय 14
1. पथ्
ृ वी में जल, अन्न और प्रिय वचन ये तीन ही रत्न हैं। मर्खों
ू ने पाषाण के टुकड़ों में रत्न की गिनती की
है ।
2. जीवों को अपने अपराध रूप वक्ष
ृ के दरिद्रता, रोग, दख
ु , बंधन और विपत्ति फल होते हैं।
ृ वी ये फिर मिलते हैं किंतु मनष्ु य शरीर बार-बार नहीं मिलता।
3. धन, मित्र, स्त्री और पथ्
4. निश्चय है कि बहुत जनों का समद
ु ाय शत्रु को जीत लेता है । तण
ृ समह
ू वष्टि
ृ की धारा के धरने वाले मेघ
का निवारण करता है ।
5. जल में तेल, दर्ज
ु न में गप्ु त वार्ता, सप
ु ात्र में दान और बद्
ु धिमान में शास्त्र ये थोड़े भी हो तो भी वस्तु की
शक्ति से अपने आप से विस्तार को प्राप्त हो जाते हैं।
6. धर्म विषयक कथा के, शमशान पर और रोगियों को जो बद्
ु धि उत्पन्न होती है वह यदि सदा रहती है तो
कौन बंधन से मक्
ु त नहीं होता।
7. निंदित कर्म करने के पश्चात पछताने वाले परु
ु ष को जैसी बद्
ु धि उत्पन्न होती है वैसी बद्
ु धि यदि पहले
होती तो किस को बड़ी समद्
ृ धि ना होती।
8. दान में , तप में , शरू ता में , विज्ञता में , सश
ु ीलता में और नीति में विस्मय नहीं करना चाहिए क्योंकि पथ्
ृ वी
में बहुत रत्न है ।
9. जो जिसके हृदय में रहता है वह दरू भी हो तो भी वह दरू नहीं है । जो उसके मन में नहीं है वह समीप भी हो
तो भी वह दरू है ।
10. जिससे प्रिय की वांछा हो उसे सदा प्रिय बोलना उचित है । व्याघ मग
ृ के वध के लिए मधरु स्वर में संगीत
गाता है ।
11. अत्यंत निकट रहने पर विनाश के हे तु होते हैं। दरू रहने से फल नहीं दे त,े इस हे तु राजा, अग्नि, गरु
ु और
स्त्री उनको मध्यम अवस्था से सेवन करना चाहिए।
12. आग, जल, स्त्री, मर्ख
ू , सांप और राजा के कुल सदा सावधानता से सेवन के योग्य है । ये 6 शीघ्र प्राण के
हरने वाले होते हैं।
13. वही जीता है जिसके गण
ु हैं और वही जीता है जसका धर्म है । गण
ु और धर्म से हीन परु
ु ष का जीना व्यर्थ
है ।
14. जो एक ही कर्म से जगत को वश में करना चाहता है तो पहले 15 के (आंख, कान, नाक, जीभ, त्वचा, मख
ु ,
हाथ, पांव, लिंग, गद
ु ा, रूप, शब्द, रस, गंध, स्पर्श) उनके मख
ु से मन को निवारण करो।
15. प्रसंग के योग्य वाक्य, प्रकृति के समान प्रिय और अपनी शक्ति के अनस
ु ार कोप को जो जानता है वही
बद्
ु धिमान है ।
16. एक ही दे हरूप वस्तु तीन प्रकार की दिखाई पड़ती है । योगी लोग उसको अतिनिन्दित मत
ृ क रूप से, कामी
परु
ु ष कांतारूप से, कुत्ते मांस रूप से दे खते हैं।
17. सिद्ध औषध, धर्म अपने घर का, मैथन
ु , कुअन्न का भोजन और निंदित वचन इनका प्रकाश करना
बद्
ु धिमान को उचित नहीं है ।

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18. तवलौं कोकिल मौन साधना से दिन बिताती है । जबलो सब जनों को आनंद दे ने वाली वाणी का प्रारं भ नहीं
करती है ।
19. धर्म, धन, धान्य, गरु
ु का वचन और औषध यदि यह सग
ु ह
ृ ीत हों तो तोइन को भली-भांति से करना चाहिए
जो ऐसा नहीं करता वह नहीं जीता।
20. खल का संग छोड़, साधु की संगति स्वीकार कर, दिन रात पण्
ु य क्रिया कर और ईश्वर का नित्य स्मरण
कर क्योंकि संसार अनित्य है ।

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चाणक्य नीति अध्याय 15
1. जिसका चित्त सब प्राणियों पर दया से पिघल जाता है उसको ज्ञान से, मोक्ष से, जटा से और विभति
ू किए
लेपन से क्या है ।
2. जो गरु
ु शिष्य को एक भी अक्षर का उपदे श करता है , पथ्
ृ वी में ऐसा दृश्य नहीं है जिसको दे कर शिष्य उससे
उत्तीर्ण होय।
3. कल और कांटा उनका कोई प्रकार का उपाय है - जत्ता से मख
ु का तोड़ना तथा दरू से त्याग दे ना।
4. मलिन वस्त्र वाले को, जो दांतों के मल को दरू नहीं करता उसको, बहुत भोजन करने वाले को, कटु भाषी
को, सर्य
ू के उदय और अस्त के समय में सोने वाले को लक्ष्मी छोड़ दे ती है , चाहे वह विष्णु भी हो।
5. मित्र, स्त्री, सेवक और बंधओ
ु ं ये धनहीन परु
ु ष को छोड़ दे ते हैं और वही परु
ु ष यदि धनी हो जाता है तो फिर
उसी का आश्रय करते हैं अर्थात धन ही लोक में बंधु है ।
6. अनीति से अर्जित धन 10 वर्ष तक ठहरता है , 11वें वर्ष के प्राप्त होने पर मल
ू सहित नष्ट हो जाता है ।
7. अयोग्य वस्तु भी समर्थ को योग्य होती है और योग्य भी दर्ज
ु न को दष
ू ण। अमत
ृ ने राहु को मत्ृ यु दी, विष
भी शंकर को भष
ू ण हुआ।
8. वही भोजन है जो ब्राह्मण के भोजन से बचा है । वही मित्रता है जो दस
ू रे में की जाती है । वही बद्
ु धिमानी है
जो पाप नहीं करती और जो बिना दं भ के किया जाता है वही धर्म है ।
9. मणि पांव के आगे लौटती हो और कांच सिर पर भी रखा हो परं तु क्रय विक्रय के समय में कांच कांच ही
रहता है और मणि मणि ही है ।
10. शास्त्र अनंत है और विद्या बहुत, काल थोड़ा है और विघ्न बहुत। इस कारण जो सार है उसको ले लेना
उचित है जैसे हं स जल के मध्य से दध
ू को ले लेता है ।
11. दरू से आए को, पथ से थके हुए को और निरर्थक ग्रह पर आए को बिना पछ
ू े जो खाता है वह चांडाल ही
गिना जाता है ।
12. चारों वेद और अनेक धर्म शास्त्र पढ़ते हैं परं तु आत्मा को नहीं जानते जैसे करछी पाक के रस को।
13. यह ब्राह्मण रूप नाव धन्य है । संसार रूप समद्र
ु में इसकी उल्टी ही रीति है उसके नीचे रहने वाले सब तैरते
हैं और ऊपर रहने वाले नीचे गिरते हैं। अर्थात ब्राह्मण से जो नम्र रहता है वह तर जाता है और जो नम्र नहीं
रहता वह नरक में गिरता है ।
14. अमत
ृ का घर औषधियों का अधिपति जिसका शरीर अमत
ृ मय और शोभा यत
ु भी चंद्रमा सर्य
ू के मंडल में
जाकर निस्तेज हो जाता है दस
ू रे के घर में बैठकर कौन लघत
ु ा नहीं पाता।
15. यह भौंरा जब कमलिनी के पत्तों के मध्य था तब कमलिनी के फूल के रस से आलसी बना रहता था। अब
दे ववश से परदे श में आकर तोरै या‌के फूल को बहुत समझता है ।
16. बंधन तो बहुत है , परं तु प्रीति की रस्सी का बंधन और ही है । काठ के छे दने में कुशल भी भौंरा कमल के
कोश में निर्व्यापार हो जाता है ।
17. काटा चंदन का वक्ष
ृ गंध को त्याग नहीं दे ता, बड्
ु ढा भी गजपति विलास को नहीं छोड़ता। कोलू में पेरी भी
उं ख मधरु ता नहीं छोड़ती। दरिद्र भी कुलीन सश
ु ीलता का त्याग नहीं करता।

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चाणक्य नीति अध्याय 16
1. संसार से मक्
ु त होने के लिए विधि से, ईश्वर के पद का ध्यान मझ
ु से न हुआ, स्वर्गद्वार के कपाट के छोड़ने
में समर्थ धर्म का भी अर्जन न किया और स्त्री के स्तनों व जंघाओं को आलिंगन स्वप्न में भी ने किया। मैं
माता के यव
ु ापन रूप वक्ष
ृ के केवल काटने में कुल्हाड़ी उत्पन्न हुआ।
2. भाषण दस
ू रे के साथ करती है , दस
ू रे को विलास से दे खती है और हृदय में दस
ू रे ही की चिंता करती है ।
स्त्रियों की प्रीति एक में नहीं रहती।
3. जो मर्ख
ू है अविवेक से समझता है कि यह कामिनी मेरे ऊपर प्रेम करती है । वह उसके वश होकर खेल के
पक्षी के समान नाचा करता है ।
4. धन पाकर गर्वी कौन है ना हुआ, किस विषय की विपत्ति नष्ट हुई, पथ्
ृ वी में किस के मन को स्त्रियों ने
खंडित नहीं किया, राजा को प्रिय कौन हुआ, काल के वर्ष कौन हुआ, किस याचक ने गरु
ु ता पाई। दष्ु ट की
दष्ु टता में पड़कर संसार के पंथ में कुशलता से कौन गया।
5. सोने की मर्गी
ु ने पहले किसी ने रची, न दे खी और ना किसी को सन
ु पड़ती है तो भी रघन
ु द
ं न की तष्ृ णा उस
पर हुई। विनाश के समय बद्
ु धि विपरीत हो जाती है ।
6. प्राणी गण
ु ों से उत्तमता पाता है उच्चे आसन पर बैठकर नहीं। कोठों के ऊपर के भाग में बैठा कौवा क्या
गरूड़ हो जाता है ।
7. सब स्थानों में गण
ु पज
ू े जाते हैं बड़ी संपत्ति नहीं, पर्णि
ू मा का पर्ण
ू भी चंद्रमा क्या वैसा वंदित में होता है
जैसा बिना कलंक के विद्या का दर्ल
ु भ भी।
8. जिस के गण
ु ों को दस
ू रे लोग वर्णन करते हैं वह निर्गुण भी हो तो गण
ु वान कहा जाता है । इन्द्र भी यदि
अपने गण
ु ों की प्रशंसा करे तो उससे लघत
ु ा पाता है ।
9. विवेकी को पाकर गण
ु सद
ंु रता पाते हैं। जब रतन सोने में जड़ा जाता है तब अत्यंत सद
ंु र दिखाई पड़ता है ।
10. गण
ु ों से ईश्वर के सदृश्य भी निरालंब अकेला परु
ु ष दख
ु पाता है । अमोल भी माणिक्य सोना के आलंब की
अर्थ अर्थ उसमे जड़े जाने की उपेक्षा करता है ।
11. अत्यंत पीड़ा से, धर्म के त्याग से और वैरियों की प्रणति से जो धन होते हैं सो मझ
ु को नहीं।
12. उस संपत्ति से लोग क्या कर सकते हैं जो वधू के समान असाधारण है जो वेश्या के समान सर्वसाधारण हो।
वह पथिकों के भोग में आसक्ती है ।
13. सब दान, यज्ञ, होम, बली ये सब नष्ट हो जाते हैं। सत्पात्र को दान और सब जीवो को अभयदान यह छीन
नहीं होते।
14. तण
ृ सबसे लघु होता है तण
ृ से रुई हल्की होती है । रुई से भी याचक तो उसे वायु क्यों नहीं उड़ा ले जाती।
वह समझती है कि वह मझ
ु से भी मांगेगा।
15. मानभंग पर्व
ू क जीने से प्राण का त्याग श्रेष्ठ है । प्राण त्याग के समय क्षण भर दख
ु होता है , मान के नाश
होने पर दिन दिन।
16. मधरु वचन के बोलने से सब जीव संतष्ु ट होते हैं। इसी कारण उसी का बोलना योग्य है जो वचन में दरिद्रता
क्या।
17. संसार रूपकोट वक्ष
ृ के दो ही फल हैं रसीला प्रिय वचन और सजन के साथ संगति।

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18. जो जन्म जन्म दान, पढ़ना, तप, इनका अभ्यास किया जाता है उस अभ्यास के योग से दे हका फिर फिर
करता है ।
19. जो विद्या पस्
ु तकों में ही रहती है और दस
ू रों के हाथों में जो धन रहता है , काम पड़ जाने पर न विद्या है न
वह धन है ।

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चाणक्य नीति अध्याय 17
1. जिसने केवल पस्
ु तक के प्रतीक से पढ़ा, गरु
ु के निकट न पढ़ा। वे सभा के बीच व्यभिचार से गर्भवती
स्त्रियों के समान नहीं शोभते।
2. उपकार करने पर प्रत्यप
ु कार करना चाहिए और मारने पर मारना चाहिए। इसमें कोई अपराध नहीं होता
क्योंकि दष्ु टता करने पर दष्ु टता करना उचित होता है ।
3. जो दरू है उसकी आराधना नहीं हो सकती और जो दरू वर्तमान है । वह सब तप से सिद्ध हो सकते हैं
इसलिए सबसे प्रबल तप है ।
4. यदि लोभ है तो दस
ू रे दोष से क्या? यदि चग
ु ली है तो पापों से क्या? यदि मन सत्यता है तो तप से क्या?
यदि मन स्वच्छ है तो तीर्थ से क्या? यदि सज्जनता है तो दस
ू रे गण
ु से क्या? यदि महिमा है तो भष
ू णों से
क्या? विद्या है तो धन से क्या? और यदि अपयश है तो मत्ृ यु से क्या?
5. जिसका पिता रत्नों की खान समद्र
ु है लक्ष्मी जिसकी बहन है , ऐसा शंख भीख मांगता है सच है बिना दिया
नहीं मिलता।
6. शक्तिहीन साधु होता है , निर्धन ब्रह्मचारी, रोग ग्रस्त दे वता का भक्त होता है और वद्
ृ ध स्त्री पतिव्रता
होती है ।
7. अन्न जल के समान कोई दान नहीं है , न द्वादशी के समान तिथि गायत्री से बढ़कर कोई मंत्र नहीं है न
माता से बढ़कर कोई दे वता है ।
8. सांप के दांत में विष रहता है , मक्खी के सिर में विष है , बिच्छू की पछ
ंू में विष है ,सब अंगों में दर्ज
ु न विष से
भरा रहता है ।
9. पति की आज्ञा बिना उपवास व्रत करने वाली स्त्री स्वामी की आयु हरती है और वह स्त्री नर्क में जाती है ।
10. न दान से, न सैकड़ों उपवासों से, न तीर्थ के सेवन से स्त्री वैसे शद्
ु ध होती है , जैसे स्वामी के चरण स्पर्श से।
11. पांव धोने के बाद जो जल बचता है , पीने के बाद जो जल बच जाता है और संध्या करने पर जो अपशिष्ट
जल है , वह कुत्ते के मत्र
ू के समान है उसको पीकर चंद्रायण का व्रत करना चाहिए।
12. दान से हाथ शोभता है कंकण से नहीं, स्नान से शरीर शद्
ु ध होता है चंदन से नहीं, सन्मान से तप्ति
ृ होती है
भोजन से नहीं, ज्ञान से मक्ति
ु होती है छापा, तिलक आदि भष
ू ण से नहीं।
13. नाई के घर पर बाल बनवाने वाला, पत्थर पर से लेकर चंदन लेपन करने वाला, अपने रूप को पानी में
दे खने वाला इन्द्र भी हो तो उसकी लक्ष्मी को हर लेते हैं।
14. कंु दरू शीघ्र ही बद्
ु धि हर लेता है और बच झटपट बद्
ु धि दे ती है । स्त्री तरु ं त ही शक्ति हर लेती है और दध

शीघ्र ही बल दे ता है ।
15. यदि कांता है , यदि लक्ष्मी वर्तमान है , यदि पत्र
ु सशु ीलता गण
ु ों से यक्
ु त है और पत्र
ु के पत्र
ु की उत्पत्ति हुई हो
तो फिर दे वलोक में इससे अधिक क्या है ?
16. जिन सज्जनों के हृदय में परोपकार जागरुक है उनकी विपत्ति नष्ट हो जाती है और पद पद में संपत्ति होती
है ।
17. भोजन, निंद्रा, भय, मैथन
ु ये मनष्ु य और पशओ
ु ं के समान ही है । मनष्ु यों को केवल ज्ञान अधिक विशेष हैं
ज्ञान से रहित नर पशु के समान है ।

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18. यदि किसी निर्गुण मदांध राजा या धनी के निकट कोई गण
ु ी जा पड़े, उस समय मदान्धों का गण
ु ी को
आदर न करना मानो अपनी लक्ष्मी की शोभा की हानि करनी है । काल निरवधि है और पथ्
ृ वी अनंत है ।
गण
ु ु का आदर कहीं न कहीं किसी समय होगा ही होगा।
19. राजा, वेश्या, यम, अग्नि, चोर, बालक याचक और आठवां ग्राम कंटक अर्थात ग्रामनिवासियों को पीड़ा
दे कर अपना निर्वाह करने वाला, ये लोग दस
ू रे के दख
ु को नहीं जानते हैं।
20. हे बाला! तंू नीचे क्यों दे खती है पथ्
ृ वी पर तेरा क्या गिर पड़ा है ? तब स्त्री ने कहा, अरे मर्ख
ू तंू नहीं जानता
कि मेरा तरुण रूप मोती चला गया है ।
21. हे केतकी! यद्यपि तंू सांपों का घर है । विफल है तझ
ु में कांटे भी हैं। टे ढ़ी है कीचड़ में तेरी उत्पत्ति है और तू
दख
ु से मिलती भी है । तथापि एक गंध गण
ु से सब प्राणियों की बंधु हो रही है । निश्चय है कि एक भी गण

दोषों का नाश कर दे ता है ।

इति चाणक्य नीति

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