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सत्संगी का संग

एक सज्जन रे लवे स्टे शन पर बैठे गाड़ी की प्रतीक्षा कर रहे थे ।

तभी जत
ू े पॉलिश करने वाला एक लड़का आकर बोला : ‘‘साहब ! बट
ू पॉलिश ?’’

उसकी दयनीय सूरत दे खकर उन्होंने अपने जूते आगे बढ़ा दिये, बोले : ‘‘लो, पर ठीक से चमकाना
।’’

लड़के ने काम तो शरू


ु किया परं तु अन्य पॉलिशवालों की तरह उसमें स्फूर्ति नहीं थी।

वे बोले : ‘‘कैसे ढीले-ढीले काम करते हो, जल्दी-जल्दी हाथ चलाओ !’’ वह लड़का मौन रहा ।

इतने में दस
ू रा लड़का आया । उसने इस लड़के को तुरंत अलग कर दिया और स्वयं फटाफट
काम में जट
ु गया।

पहले वाला गँग


ू े की तरह एक ओर खड़ा रहा । दस
ू रे ने जूते चमका दिये ।

‘पैसे किसे दे ने हैं ?’ – इस पर विचार करते हुए उन्होंने जेब में हाथ डाला । उन्हें लगा कि ‘अब
इन दोनों में पैसों के लिए झगड़ा या मारपीट होगी !!’

फिर उन्होंने सोचा, ‘जिसने काम किया, उसे ही दाम मिलना चाहिए !!’ इसलिए उन्होंने बाद में
आने वाले लड़के को पैसे दे दिये !!!

उसने पैसे ले तो लिये परं तु पहले वाले लड़के की हथेली पर रख दिये । प्रेम से उसकी पीठ
थपथपायी और चल दिया !

वह आदमी विस्मित नेत्रों से दे खता रहा । उसने लड़के को तरु ं त वापस बल


ु ाया और पछ
ू ा : ‘‘यह
क्या चक्कर है ?’’

लड़का बोला : ‘‘साहब ! यह तीन महीने पहले चलती ट्रे न से गिर गया था । हाथ-पैर में बहुत चोटें
आयी थीं !!

ईश्वर की कृपा से बच गया, नहीं तो इसकी वद्ध


ृ ा माँ और पाँच बहनों का क्या होता !!’’
फिर थोड़ा रुककर वह बोला : ‘‘साहब ! यहाँ जूते पॉलिश करने वालों का हमारा ग्रुप है और उसमें
एक दे वता जैसे हम सबके प्यारे चाचाजी हैं, जिन्हें सब ‘सत्संगी चाचाजी’ कह के पक
ु ारते हैं ।

वे सत्संग में जाते हैं और हमें भी सत्संग की बातें बताते रहते हैं ।

उन्होंने सझ
ु ाव रखा कि ‘साथियों ! अब यह पहले की तरह स्फूर्ति से काम नहीं कर सकता तो
क्या हुआ..!!

ईश्वर ने हम सबको अपने साथी के प्रति सक्रिय हित, त्याग-भावना, स्नेह, सहानुभूति और एकत्व
का भाव प्रकटाने का एक अवसर दिया है !!

जैसे पीठ, पेट, चेहरा, हाथ, पैर भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी हैं एक ही शरीर के अंग, ऐसे ही हम
सभी शरीर से भिन्न-भिन्न दिखते हुए भी हैं एक ही आत्मा ! हम सब एक हैं !!

स्टे शन पर रहने वाले हम सब साथियों ने मिलकर तय किया कि हम अपनी एक जोड़ी जूते


पॉलिश करने की आय प्रतिदिन इसे दिया करें गे.. और जरूरत पड़ने पर इसके काम में सहायता
भी करें गे !!!

जूते पॉलिश करने वालों के ग्रुप में आपसी प्रेम, सहयोग, एकता तथा मानवता की ऐसी ऊँचाई
दे खकर वे सज्जन चकित रह गये !!!

एक सत्संगी व्यक्ति के सम्पर्क में आने वालों का जीवन मानवीयता, सहयोग और सहृदयता की
बगिया से महक जाता है !!

सत्संगी अपने सम्पर्क में आने वाले लोगों को अपने जैसा बना लेते है |
===============================================
!!!हमारे भारत के अंदर अलग-अलग प्रकार के अविष्कार होते रहते हैं, जो की गाय के गोबर से
विशेष प्रकार का पें ट बनाने की कोशिश की गई है । और साथ ही केंद्रीय सड़क परिवहन और
राजमार्ग और एमएसएमई मंत्री नितिन गडकरी ने दे श की पहली नए पें ट, लॉन्च किया है ।
जिसकी वजह से किसानों की आमदनी में बढ़ोतरी हो सकती है । इस पें ट को खादी और
ग्रामोद्योग आयोग ने अपने निवास पर विकसित किया है ।
पें ट की खास बात
इस पें ट की सबसे खास बात यह है , कि यह पहला ऐसा पेंट है जो की परू ी तरीके से पर्यावरण के
अनुकूल है । इसमें किसी भी प्रकार की कोई मिलावट नहीं कि गई है , जो की आमतौर पर काफी
पें टों में मिलाई जाती है । और साथ ही साथ यह गैर विषैले एंटिफंगल जीवाणुरोधी भी है । इसकी
की और भी सबसे खास बात यह है कि इसमें 20 से 30 प्रतिशत गाय का गोबर मिला हुआ है ।
यह प्रभावी लागत के साथ साथ किसी भी प्रकार का गंध भी नहीं दे ता।

यह पें ट भारतीय मानक ब्यूरो द्वारा प्रमाणित भी किया गया है ।

यह आपको दो तरीके के रूप में मिलेगा, डिस्टें पर और प्लास्टिक इमल्शन।

आइए जानते हैं क्या है डिस्टें पर ऑफ प्लास्टिक इमल्शन पें ट में अंतर

डिस्टें पर थोड़ा सा उन्नत संस्करण का होता है , जीसे लोग आज कल बहुत आम लोग करते हैं
क्योंकि यह किसी भी प्रकार के दीवार पर लगाया जाता है । लेकिन पलास्टिक इमल्शन अधिक
उन्नत संस्करण का होता है । प्लास्टिक एमुल्जन डिस्टें पर के मुकाबले थोड़ा महं गा भी होता है ।
इसे किसी भी दीवार पर नहीं लगाया जा सकता। इसके लिए एक अच्छी और उचित प्रकार की
दीवार होनी चाहिए जिसपर यह आसानी पें ट से चिपक जाता है ।

क्या यह वास्तव में पें ट की तरह काम करे गा?


यह पें ट सभी प्रकार की परीक्षा मापदं ड को सफल कर चुका है । यह पें ट दीवार के अनुसार पतला
आसानी से हो जाता है , जल्दी सुख जाता है और साथ ही साथ परिष्करण भी अच्छा दे ता है ।

हर एक चीज का सफलतापूर्वक परीक्षण किया गया है ।

जानकारी के मुताबिक यह 4 घंटे में पूरी तरीके से सूख जाता है । इसके अंदर आपको एक अलग
प्रकार की चमक और चिकनाई दे खने को मिलेगी। इसका इस्तेमाल घर के अंदर बाहर दोनों
जगहों पर किया जा सकता है ।
इस पें ट का आधार रं ग सफेद होगा। और इसको किसी भी रं ग के साथ मिलाकर आसानी से
कोई भी रं ग तैयार किया जा सकता है ।

इस पें ट का प्रयोग का परीक्षण तीन राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं में किया गया है । नेशनल टे स्ट हाउस
(मुंबई), श्रीराम इंस्टीट्यूट फॉर इंडस्ट्रियल रिसर्च(नई दिल्ली),नेशनल टे स्ट हाउस (गाजियाबाद)।

खासियत
जयपरु के वैज्ञानिक डॉक्टर मोहम्मद एसा खान ने बताया कि हमने 2018 से इस पें ट को बनाने
के लिए शरु
ु आत कर दी थी। इसके बारे में काफी अनस
ु ंधान किए, कई प्रकार के संयोजन और
गोबर का इस्तेमाल कर रहे थे। और अंत हमे सफलता मिल गई। अब इस खास बात यह है कि
अगर घर के बाहर बहुत गर्मी है तो यह घर के अंदर का तापमान ठं डा बनाए रखेगा। और अगर
घर के बाहर मौसम ठं डा है तो यह घर के अंदर का तापमान साधारण बनाए रहे गा। और इसके
साथ विकिरण की रोकथाम भी होगा अगर आप इस पें ट का इस्तेमाल करते हैं। ये सारे चीज़ें
इस पें ट में मिलेंगी इसीलिए यह पें ट विशिष्ट है ।
इसके अलावा यह स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा दे ने और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से
स्थायी स्थानीय रोजगार बनाने कि उम्मीद बढ़ावा दे सकता है । इससे किसानों को काफी फायदा
हो सकता है । साथ ही सरकार का यह कहना है कि अगर किसानों के पास एक गाय है तो इससे
लगभग हर साल 30,000 आय का फायदा हो सकता है ।
इसके अलावा यह स्थानीय विनिर्माण को बढ़ावा दे ने और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से
स्थायी स्थानीय रोजगार बनाने कि उम्मीद बढ़ावा दे सकता है । इससे किसानों को काफी फायदा
हो सकता है । साथ ही सरकार का यह कहना है कि अगर किसानों के पास एक गाय है तो इससे
लगभग हर साल 30,000 आय का फायदा हो सकता है ।
====================================================
यह लेख उनके लिए नहीं जो धान ,चावल और भात को चावल नाम से जानते हैं ।

उनको यह लेख नहीं पढ़ना चाहिए।


जो अगर आप धान ,चावल और भात अलग अलग समझते हैं ,पहचानते हैं तो अवश्य पढ़े ।

🙏🙏🙏

बहुत श्रम से लिखा गया है ।

साभार
🙏
चावल का जिक्र किसी भी बाइबिल में नहीं आता, ईजिप्ट की सभ्यता भी इसका जिक्र नहीं
करती। पश्चिम की ओर पहली बार इसे सिकंदर लेकर गया और अरस्तु ने इसका जि क्र
“ओरीज़ोन” नाम से किया है । नील की घाटी में तो पहली बार 639 AD के लगभग इसकी खेती
का जिक्र मिलता है । ध्यान दे ने लायक है कि पश्चिम में डिस्कवरी और इन्वेंशन दो अलग
अलग शब्द हैं और दोनों काम की मान्यता है । दस
ू री तरफ भारत में अविष्कार की महत्ता तो
है , लेकिन अगर पहले से पता नहीं था और किसी ने सिर्फ ढूंढ निकाला हो तो खोज के लिए कोई
विशेष सम्मान नहीं मिलता।

इस वजह से पश्चिमी दे शों के वास्को डी गामा और कोलंबस जैसों को समुद्री रास्ते ढूँढने के
लिए अविष्कारक के बदले खोजी की मान्यता मिलती है लेकिन भारत जिसने पूरी दनि
ु यां को
चावल की खेती सिखाई उसे स्वीकारने में भारतीय लोगों को ही हिचक होने लगती है । किसी
सभ्यता-संस्कृति में किसी चीज़ का महत्व उसके लिए मौजूद पर्यायवाची शब्दों में भी दिखता है ।
जैसे भारत में सूर्य के कई पर्यायवाची सूरज, अरुण, दिनकर जैसे मिलेंगे, सन (Sun) के लिए उतने
नहीं मिलते।

भारतीय संस्कृति में खेत से धान आता है , बाजार से चावल लाते हैं और पका कर भात परोसा
जाता है । शादियों में दल्
ु हन अपने पीछे परिवार पर, धान छिड़कती विदा होती है जो प्रतीकात्मक
रूप से कहता है तम
ु धान की तरह ही एकजट
ु रहना, टूटना मत। तल
ु सी के पत्ते भले गणेश जी
की पज
ू ा से हटाने पड़ें, लेकिन किसी भी पज
ू ा में से अक्षत (चावल) हटाना, तांत्रिक विधानों में भी
नामम
ु किन सा दिखेगा। विश्व भर में धान जंगली रूप में उगता था, लेकिन इसकी खेती का काम
भारत से ही शरूु हुआ। अफ्रीका में भी धान की खेती जावा के रास्ते करीब 3500 साल पहले
पहुंची। अमेरिका-रूस वगैरह के लिए तो ये 1400-1700 के लगभग, हाल की ही चीज़ है ।

जापान में ये तीन हज़ार साल पहले शायद कोरिया या चीन के रास्ते पहुँच गया था। वो संस्कृति
को महत्व दे ते हैं, भारत की तरह नकारते नहीं, इसलिए उनका नए साल का निशान धान के
पुआल से बांटी रस्सी होती है । धान की खेती के सदियों पुराने प्रमाण क्यों मिल जाते हैं ?
क्योंकि इसे सड़ाने के लिए मिट्टी-पानी-हवा तीनों चाहिए। लगातार हमले झेलते भारत के लिए
इस वजह से भी ये महत्वपूर्ण रहा। किसान मिट्टी की कोठियों में इसे जमीन में गहरे गाड़ कर
भाग जाते और सेनाओं के लौटने पर वापस आकर धान निकाल सकते थे। पुराने चावल का मोल
बढ़ता ही था, घटता भी नहीं था। हड़प्पा (लोथल और रं गपरु , गज
ु रात) जैसी सभ्यताओं के यग
ु से
भी दबे धान खद
ु ाई में निकल आये हैं।
नाम के महत्व पर ध्यान दे ने से भी इतिहास खुलता है । जैसे चावल के लिए लैटिन शब्द
ओरीज़ा (Oryza) और अंग्रेजी शब्द राइस (Rice) दोनों तमिल शब्द “अरिसी” से निकलते हैं। अरब
व्यापारी जब अरिसी अपने साथ ले गए तो उसे अल-रूज़ और अररुज़ बना दिया। यही स्पेनिश
में पहुंचते पहुँचते अर्रोज़ हो गया और ग्रीक में ओरिज़ा बन गया। इटालियन में ये रिसो (Riso),
in हो गया, फ़्रांसिसी में रिज़ (Riz)और लगभग ऐसा ही जर्मन में रे इज़ (Reis) बन गया। संस्कृत
में धान को व्रीहि कहते हैं ये तेलगु में जाकर वारी हुआ, अफ्रीका के पर्वी
ू हिस्सों में इसे वैरी
(Vary) बल
ु ाया जाता है । फारसी (ईरान की भाषा) में जो ब्रिन्ज (Brinz) कहा जाता है वो भी इसी
से आया है ।

साठ दिन में पकने वाला साठी चावल इतने समय से भारत में महत्वपूर्ण है कि चाणक्य के
अर्थशास्त्र में भी उसका जिक्र आता है । गौतम बुद्ध के पिता का नाम शुद्धोधन भी धान से आता
है और बुद्ध को ज्ञान प्राप्ति के समय भी सुजाता के खीर खिलाने का जिक्र आता है । एक
किस्सा ये भी है कि गौतम बुद्ध के एक शिष्य को किसी साधू का पता चला जो अपने तलवों पर
कोई लेप लगाते, और लेप लगते ही हवा में उड़कर गायब हो जाते। बुद्ध के शिष्य नागार्जुन भी
उनके पास जा पहुंचे और शिष्य बनकर चोरी छिपे ये विधि सीखने लगे। एक दिन उन्होंने चुपके
से साधू की गैरमौजद
ू गी में लेप बनाने की कोशिश शरू
ु कर दी।

लेप तैयार हुआ तो तलवों पर लगाया और उड़ चले, लेकिन उड़ते ही वो गायब होने के बदले
जमीन पर आ गिरे । चोट लगी लेकिन नागार्जुन ने पुनः प्रयास किया। गुरु जबतक वापस आते
तबतक कई बार गिरकर नागार्जुन खूब खरोंच और नील पड़वा चुके थे। साधू ने लौटकर उन्हें
इस हाल में दे खा तो घबराते हुए पछ
ू ा कि ये क्या हुआ ? नागार्जुन ने शर्मिंदा होते आने का
असली कारण और अपनी चोरी बताई। साधू ने उनका लेप सूंघकर दे खा और हं सकर कहा बेटा
बाकी सब तुमने ठीक किया है , बस इसमें साठी चावल नहीं मिलाये। मिलाते तो लेप बिलकुल
सही बन जाता !

सिर्फ किस्से-कहानियों में धान-चावल नहीं है , धान-चावल की नस्लों को सहे जने के लिए एक जीन
बैंक भी है । अपनी ही संस्कृति पर शर्मिंदा होते भारत में नहीं है ये इंटरनेशनल राइस रिसर्च
इंस्टिट्यूट (IRRI) फिल्लिपिंस में है । फिल्लिपिंस का ही बनाउ (Banaue) चावल की खेती के लिए
आठवें आश्चर्य की तरह दे खा जाता है । यहाँ 26000 स्क्वायर किलोमीटर के इलाके में चावल के
खेत हैं। ये टे रेस फार्मिंग जैसी जगह है , पहाड़ी के अलग अलग स्तर पर, कुछ खेत तो समुद्र तल
से 3000 फीट की ऊंचाई पर भी हैं। इनमें से कुछ खेत हजारों साल पुराने हैं और सड़ती
वनस्पति को लेकर पहाड़ी से बहते पानी से एक ही बार में खेतों में सिंचाई और खाद डालने,
दोनों का काम हो जाता है ।
इस आठवें अजूबे के साथ नौवां अजूबा ये है कि भारत में जहाँ चावल की खेती 16000 से
19000 साल पुरानी परम्परा होती है , वो अपनी परं परा को अपना कहने की हिम्मत नहीं जुटा
पाता ! कृषि पर शर्माने के बदले उसे भी स्वीकारने की जरूरत तो है ही।

चावल की दो किस्में होती है | कच्चा चावल और पक्का चावल कहते हैं कहीं कहीं, कहीं अरबा
और उसना | अगर धान को उबलने के बाद चावल बना है तो वो बेकार माना जाता है आयर्वे
ु द
में | कच्चा या अरबा चावल को अक्षत की तरह पज
ू ा में इस्तेमाल किया जाता है | जो तिलक
लगाते समय आपके सर पर चिपकाये जाते हैं | आयर्वे
ु द का हिसाब दे खें तो इन्हें पीस कर पिया
जाता है , या थोड़ी दे र भिगो कर खाया जाता है शक्ति के लिए | इसके साथ इस्तेमाल होती है
हल्दी | ये जख्म, चोट को ठीक करने के लिए इस्तेमाल होती है |
अब जो दस
ू री चीज़ उठाई जाती थी उसे दे खते हैं | पान उठाया जाता था | कहावत हो ती है आज
भी, किसी मुश्किल काम का बीड़ा उठाना |
भाई ये जो बारात निकलते समय की परम्पराएँ थी वो किसके लिए ? हमेशा से तो होती नहीं थी
ये ! फिर अचानक गजनवी के हमले के बाद से बारात के साथ निकलने वाले बीड़ा क्यों उठाने
लगे ? कौन सा भारी काम करने निकलते थे ? ये चावल एनर्जी के लिए ये हल्दी चोट के लिए ?
कौन हमला करता था बारात पर ? जाहिर है की जो लोग दामाद के पैर छूने को तैयार होते हैं वो
तो नहीं ही करते होंगे न ?
फिर कौन थे ?
समाज शास्त्र पढ़ा तो है आपने ! परम्पराएँ ऐसे ही नहीं बनती साहब | शरमाते क्यों हैं बताइए न,
कौन हमला करता था बारात पर ?

पिछले एक दशक के दौरान पता नहीं कब भटिंडा से बीकानेर जाने वाली एक ट्रे न का नाम
“कैं सर एक्सप्रेस” पड़ गया। लोग अब ऐसे नाम से ट्रे न को बुलाये जाने पर चौंकते नहीं। कोई
प्रतिक्रिया ही ना आना और भी अजीब लगता है । पंजाब के भटिंडा, फरीदकोट, मंसा, संगरूर जैसे
कुछ जिले जिनको मालवा भी कहा जाता था, वो पूरा इलाका ही कैंसर को आम बीमारी मानने
लगा है । इसकी वजह भी बिलकुल सीधी-साधारण सी है ।

हरित क्रांति लाने में जुटे, कृषि वैज्ञानिकों ने बताया कि इतने खेत में पचास मिलीलीटर
कीटनाशक लगेगा, उससे सुनकर आये किसान ने सोच ये चार पांच चम्मच में क्या होगा भला ?
तो उसने पचास का सौ कर दिया लेकिन पंजाब का “किसान” खद
ु तो खेती करता नहीं उसने
अपने बिहारी मजदरू को कीटनाशक छिड़कने दिया। मजदरू ने सोचा ये भी कम है , तो सौ बढ़कर
डेढ़ सौ मिलीलीटर हो गया।
जब ज्ञानी-गुनी जन चाय और तम्बाकू में कैं सर की वजह ढूंढ रहे थे तो उनके पेट में लीटर-
किलो के हिसाब से पेस्टीसाइड जा रहा था। पंजाब के किसान प्रति हे क्टे यर 923 ग्राम कीटनाशक
इस्तेमाल कर रहे होते हैं, जबकि दे श भर में ये औसत 570 ग्राम/हे क्टयेर है । पंजाब में सिर्फ
खाने का गेहूं ही नहीं उपज रहा होता यहाँ कपास भी उपजता है । वैज्ञानिक मानते हैं की कपास
पर इस्तेमाल होने इन वाले 15 कीटनाशकों में से 7 या तो स्पष्ट रूप से या परोक्ष रूप से कैं सर
की वजह होते हैं।

खेती भारत में एक परं परा है , संस्कृति है । संस्कृति वो नहीं होती जो आप कभी पर्व-त्यौहार पर
एक बार कभी साल छह महीने में करते हों, वो हर रोज़ सहज ही दोहराई जा रही चीज़ होती है ।
अपने मवेशी को चारा दे ना, खेतों को दे खने जाना, बीज संरक्षण, जल संसाधन ये सब रोज दोहराई
जा रही संस्कृति का ही हिस्सा हैं। खाने में गेहूं की रोटी ना हो, या पहनने को सूती-कपास ना हो
ऐसा एक दो दिन के लिए करना भी भारत के एक बड़े वर्ग के लिए अजीब सा हाल हो जाएगा।

इस संस्कृति को हमने छोड़ा कैसे ? ज्यादा उपज के लालच में प्रकृति से छे ड़छाड़ भर नहीं की है ।
सबसे पहले उसके लिए अपनी परम्पराओं को तिलांजलि दे डाली। बीज जो संरक्षित होते थे,
स्थानीय लाला के पास से खरीदे -कर्ज पे लिए जाते थे उनके लिए कहीं दरू की समाजवादी दिल्ली
पर आश्रित रहना शरू
ु किया। जो तकनीक दादा-दादी की गोद में बैठे सीख ली थी, वो बेकार मान
ली। फिल्मों ने बताया लाला धर्त
ू , पंडित पाखंडी, जमींदार जालिम है । हमने एक, दो, चार बार, बार-
बार दे खा और उसे ही सच मान लिया।

बार बार एक ही बात दे खते सुनते हमने मान लिया कि पुराना, परं परागत तो कोई ज्ञान-विज्ञान है
ही नहीं हमारे पास ! “स्वदे श” का इंजिनियर कहीं अमेरिका से आएगा तो पानी-बिजली लाएगा,
गाँव में इनका कोई पारं परिक विकल्प कैसे हो सकता है ? नतीजा ये हुआ कि रोग प्रतिरोधक,
कीड़े ना लगने वाली फसलें पिछले कुछ ही सालों में गायब हो गई। बीज खरीदे जाने लगे,
संरक्षित भी किये जाते हैं ये कोई सोचता तक नहीं। किसी ने जानने की जहमत नहीं उठाई की
आर.एच.रिछरिया के भारत के उन्नीस हज़ार किस्म के चावल कहाँ गए।

उनकी किताब 1960 के दशक में ही आकर खो गई और जब बरसों बाद कोरापुट (ओड़िसा) के
किसान डॉ. दे बल दे व के साथ मिलकर धान के परं परागत बीज संरक्षित करने निकले तो भी वो
करीब दो हज़ार बीज एक छोटे से इलाके से ही जुटा लेने में कामयाब हो गए। इसमें जो फसलें
हैं वो बीमारी-कीड़ों से ही मुक्त नहीं हैं। कुछ ऐसी हैं जो कम से कम पानी में , कोई दस
ू री खारे
पानी में , तो कोई बाढ़ झेलकर भी बच जाने वाली नस्लें हैं। इनमें से किसी को कीटनाशक की भी
जरूरत नहीं होती इसलिए इनको लगाने का खर्च भी न्यन
ू तम है ।

रासायनिक खाद-कीटनाशक के इस्तेमाल को बंद कर के उत्तर पूर्व का मनिपुर करीब करीब


100% जैविक (organic) खेती करने लगा है । अन्य राज्यों में भी किसानों ने समाजवादी भाषण
सुनना बंद कर के जैविक खेती की शुरुआत की है । कम पढ़े लिखे के मुकाबले अब शिक्षित युवा
भी खेती में आने लगे हैं। संस्कृति से कट चुके किसानों के परिवार जहाँ मजदरू ी के लिए शहरों
की तरफ पलायन कर रहे हैं, वहीँ युवाओं का एक बड़ा वर्ग खेती की तरफ भी लौटने लगा है ।

पंजाबी पुट लिए अक्षय कुमार अभिनीत एक फिल्म आई थी “चांदनी चौक टू चाइना”। वहां आलू
के अन्धविश्वास में जकड़े नायक को उसका मार्शल आर्ट्स का गुरु सिखाता है कि मुझे तुम्हारी
उन हज़ार मूव्स से खतरा नहीं जिसे तुमने एक बार किया है , मुझे उस एक मूव से डर है
जिसका अभ्यास तुमने हज़ार बार किया है । नैमिषारण्य में जब संस्कृति के रोज दोहराए जाने
वाली चीज़ की बात हो रही थी तो मेरे दिमाग में कोई कला-शिल्प, नाटक-नत्ृ य नहीं आ रहे थे।
मेरे दिमाग में रोटी-कपड़े के लिए की जा रही खेती चल रही थी जो रोज की जाती है । हमारी
संस्कृति तो कृषि है ।

बाकी संस्कृति को किसी आयातित विचारधारा ने कैं सर की तरह जकड़ लिया है , या फिर संस्कृति
को छोड़कर, आयातित खाते-सोचते-पहनते हम कैं सर की जकड़ में आ गए हैं, ये एक बड़ा सवाल
होता है । और बाकी जो है , सो तो है इये है !

रोटी तो पहचानते हैं ना हुज़ूर ?


~~~~~~~~
ये इसलिए पछु ा क्योंकि रोटी से जड़
ु ा कुछ पछ
ू ना था | रात में या सब
ु ह के नाश्ते में जब रोटी
आप खाते हैं तो वो कैसरोल में रखा होता है | नाम अंग्रेजी का है , Casserole तो जाहिर है ये
भारत का कोई परं परागत बर्तन तो है नहीं | आया कहाँ से ? जिन्हें भारत में टीवी का शरु
ु आती
दौर याद होगा उन्हें एक प्रसिद्ध पारिवारिक सीरियल भी याद होगा | उसका नाम था ‘बुनियाद’ |
रात में जिस वक्त आता था वो टाइम उस दौर में खाना खाने का समय होता था |

उसी सीरियल के बीच में कैसरोल का प्रचार आया करता था | लोग जब खाना खा रहे होते थे
रोटी उसी वक्त बनाई जाती थी | अब घर की महिलाएं अगर रोटियां सेक रहीं हों, और पुरुष भी
चौके में खाना खा रहे हों, तो टीवी पर ‘बनि
ु याद’ कैसे दे खेंगे ? उसी दौर में कैसरोल का प्रचार
आना शरू
ु हुआ जिसमें कहा जाता था कि रोटियां पहले ही बना के कैसरोल में रख लीजिये | वो
गर्म ही रहें गी तो आप आराम से बैठ कर टीवी दे ख सकती है | अब कई महिलाएं तो पड़ोसियों
के घर टीवी दे ख रही होती थी, कई जो अपने घर में दे ख रही होती थीं, उन्हें भी ये आईडिया सही
लगा |

इस तरह धीरे से भारत के हर घर में कैसरोल आ गया, और रोटियां पहले से बना के रखी जाने
लगी | यकीन ना हो तो मम्मी से पछि
ू ए, नानी के पास था क्या कैसरोल ? अभी कन्फर्म हो
जाएगा | खैर तो कैसरोल से जो समस्या आई वो ये थी कि रखी हुई रोटियां थोड़ी काली सी पड़
जाती थी | इसके लिए दसू रा तरीका इस्तेमाल होने लगा | मिल वाले आटे को पहले छलनी से
छान कर जो चोकर निकाला जाता था वो परथन में इस्तेमाल होता था | अब मैदे जैसा बारीक
आटा मिल से ही छनवा कर इस्तेमाल किया जाने लगा | मक्का, जौ जैसी चीज़ें जो गेहूं के साथ
ही मिला कर पिसवाई जाती थी वो भी बंद हो गया | इस तरह दिखने में खूबसूरत लगने वाले
आटे का फैशन आया | अस्सी के दशक के सीरियल और प्रचार के असर से पिछले करीब बीस
साल लोगों ने लाइफस्टाइल डिजीज को आमंत्रण दिया |

फिर धीरे लोगों को समझ आने लगा कि ये कम उम्र में डायबिटीज, हार्ट की प्रॉब्लम और ब्लड
प्रेशर की समस्याएँ है क्या ! ऐसी कई बिमारियों को मिला कर फिर लाइफस्टाइल डिजीज कहा
जाने लगा | लोग अब फिर से पंचरत्न आटे और ये मिक्स आटा तो वो मिक्स आटा खरीदने
लगे हैं | वो भी आम आटे से कहीं महं गे दामों पर ! आटे का चोकर भी अब उतनी घटिया चीज़
नहीं नहीं होती | दे र रात तक ना खाने के बदले, शाम में जल्दी खा लेना भी अब स्टे टस सिंबल
है | धीरे धीरे लोगों को समझ आने लगा है कि भारत की सांस्कृतिक परम्पराएँ बेहतर थी |
कांग्रेसी युग में कुछ मुट्ठी भर लोगों ने अपने कम्युनिस्ट चाटुकारों के जरिये जो फैलाया था वो
मोह माया ही थी |

भारत का बहुसंख्यक समाज अपनी परम्पराओं में ही इकोसिस्टम को शामिल रखता है | असली
मूर्ख वो थे जो परम्पराओं का वैज्ञानिक कारण ढूँढने के बदले उन्हें पोंगापंथ घोषित कर रहे थे |
उन्होंने कोई वैज्ञानिक जांच किये बिना ही जिन चीज़ों को सिरे से खारिज़ कर दिया था, उनके
बंद होते ही पर्यावरण और शरीर पर उनका असर भी दिखने लगा | तथाकथित प्रगतिशील जमात
को अब दिवाली पर वायु-प्रदष
ु ण और होली पर पानी की बर्बादी का रोना रोने के बदले वैज्ञानिक
तथ्य प्रस्तुत करने चाहिए | गाड़ियों से, फैक्ट्री से, ए.सी. से, फ्रिज से प्रदष
ु ण कितना ? पटाखों-दिए
से कितना ? दिए से कीड़े ना मरे तो इकोसिस्टम पर क्या असर होगा ? होली के समय भी बता
दीजियेगा | कार धोने से कितना पानी बर्बाद होगा, होली खेलने में कितना ? शेव करने में कितना
बहा दिया जाता ? अगर पानी ना छिड़का तो धूल उड़ने से होने वाले प्रदष
ु ण का क्या होगा ?
बाकी अधूरी तो कई साल हम सुन चुके हैं, और माफ़ी तो आप कैराना, डॉ. नारं ग, वेमुल्ला जैसे
संवेदनशील मामलों में भी नहीं मांगते ! इसमें भी आधा ही बताया होगा, सिर्फ अश्वत्थामा मर
गया तक, मनष्ु य कि हाथी भी बताते ना ?

जिन लोगों ने पिछले कई सालों से टीवी दे खा होगा उन्हें पुराने ज़माने के टीवी पर आने वाले
प्रचार भी याद होंगे | जब टीवी पर रामायण – महाभारत का युग था उस ज़माने के प्रचार ?
ं पाउडर निरमा” वाला प्रचार सबको याद होगा | उस प्रचार के पीछे बजने वाली धुन
“वाशिग
बदली नहीं है इसलिए याद रखना आसान है | एक प्रीति जिंटा वाला “लिरिल” का प्रचार भी कई
लोगों को याद होगा | हरे भरे से स्विम सट
ू में , झरने में इठलाती नवयौवना !

खैर हम जिस प्रचार की याद दिलाने बैठे हैं वो “कोलगेट” टूथ पेस्ट का था | उसमें शुरू में एक
पहलवान दिखाते थे जो खूब वर्जिश कर रहा होता है | अखाड़े में मुग्दर घुमाता हुआ | जैसे ही वो
कसरत के बाद, दाँतों से एक अखरोट तोड़ने की कोशिश करता है , वैसे ही वो दर्द के मारे जबड़ा
पकड़ लेता है | फ़ौरन एक दस
ू रा आदमी पूछता है दांत कैसे साफ़ करते हो ? जवाब में जब
पहलवान कोयला दिखता है तो दस
ू रा आदमी पछ
ू ता है , क्या पहलवान बदन के लिए इतना कुछ
और दांतों के लिए कोयला ?

ये कोयले के बदले टूथ पेस्ट नामक अभिजात्य वर्ग के प्रोडक्ट को बेचने का प्रयास था | अब
जरा अभी के उसी कोलगेट टूथ पेस्ट के प्रचार को दे खिये | चारकोल वाला टूथ पेस्ट का ऐड तो
दे खा ही होगा, क्यों ?

अब ये बताइये कि जौंडिस के लिए कौन सी दवा ली जाती है ? एलोपैथिक कम्पोजीशन है या


आयुर्वेदिक है दे खा तो नहीं होगा कभी ! दे ख लीजिये, लीवर के लिए एलोपैथी में दवाएं नहीं होती,
लगभग हरे क आयुर्वेदिक ही होती हैं | इसके अलावा प्लास्टिक सर्जरी के नाम से विख्यात जो
तरीका है वो भी 100% भारतीय है | कैसे शुरू हुआ था उसका किस्सा जब भी नेट पर या
मेडिकल जर्नल में ढूँढेंगे तो वही लिखा मिलेगा | भारत की दो तीन पीढियां यही दे ख दे ख कर
बड़ी हुई हैं कि जो भी भारतीय है वो बुरा है | बेकार है | इस सोच के साथ बड़े हुए बुढऊ,
सेक्युलर होने के नाम पर भारत की हर चीज़ की बुराई करते अभी भी दिखेंगे |

उन्हें संस्कृत बुरा लगेगा, गणित भी विदे शों से आया लगता है | सर्जरी नाई भी किया करते थे,
कह दो, तो कहें गे बिना पढ़े कैसे करते होंगे ? मगर फिर जब भयानक पँज
ू ी के जोर पर वही उन्हें
परोसा जाए तो वो उन्हें एलीट लगने लगेगा | ये दरअसल बरसों की कंडीशनिंग का नतीजा है ,
जिसने उन्हें बीमार, बहुत बीमार बना दिया है | ये बीमार मष्तिष्क और बिगड़ी हुई मानसिकता
का नतीजा है | मस्तिष्क सम्बन्धी रोगों के लिए अक्सर आयुर्वेद में ब्राह्मी और भंग
ृ राज जैसी
बटि
ू याँ दी जाती हैं | ये दोनों अक्सर नालियों के पास अपने आप उग आने वाली बटि
ू याँ हैं |

बाकी अपने गंदे नाले से सर निकाल कर एक विशेष प्रजाति के प्राणी अपने आप ब्राह्मी बट
ू ी
कभी नहीं चरते ये भी एक निर्विवाद सत्य है |
✍🏻आनन्द कुमार जी की पोस्टों से संग्रहीत

𝗖𝗵𝗶𝗻𝗮𝗮𝗻𝗱𝘁𝗵𝗲𝗵𝗶𝗷𝗮𝗰𝗸𝗼𝗳𝗮𝗰𝗮𝗱𝗲𝗺𝗶𝗰𝘀𝗲𝗰𝘁𝗼𝗿...

Please read this post till the end !!

1. In February 2020, an investigation by the Wall Street Journal found that two of the
largest and most famous universities of the USA had received a whopping $ 6.5
BILLION as "donation", contracts or gifts from China, Saudi, Qatar and UAE. 
(LINK : https://www.wsj.com/articles/education-department-investigating-harvard-yale-
over-foreign-funding-11581539042)
.
2. Of this, a Bloomberg investigation revealed that Harvard alone received a whopping $
1 BILLION as a donation from China. Many of these were in forms of "gifts". However,
Harvard only declared $ 97 Million. The rest of $ 903 Million were unaccounted for.
(LINK : https://www.bloomberg.com/news/articles/2020-02-06/harvard-leads-u-s-
colleges-that-received-1-billion-from-china?utm_source=url_link)
.
3. Investigations were initiated by US federal agencies and it was found that the large
part of these "donated" funds being donated and used by Harvard and Yale were
unaccounted for. 
Now, the question is why would these countries donate to Harvard and Yale without any
collateral ?
(LINK : https://www.npr.org/2020/02/13/805548681/harvard-yale-targets-of-education-
department-probe-into-foreign-donations?t=1592234349184)
.
4. After the investigations were started, a number of eminent professors, scientists and
faculty members of these universities and other universities in the US were either
arrested or sacked from jobs. It was discovered that they were illegally working for the
Chinese Universities, despite being professors at US universities. Almost all of them
had "UNDISCLOSED" ties with China.
(LINK : https://www.nbcboston.com/news/local/harvard-professor-charged-federally-
with-lying-about-income/2068591/?amp)
.
5. As of date, 54 TOP US scientists have been sacked for having confirmed
"undisclosed" and "hidden" ties with China, and engaged in illegal activities (such as
transferring intellectual properties to China while using the resources of USA).
(LINK : https://www.sciencemag.org/news/2020/06/fifty-four-scientists-have-lost-their-
jobs-result-nih-probe-foreign-ties)
.
6. Apparently, what China was doing was bribing the academicians in top US
universities (often at $ 50,000 per month) to work for Chinese universities secretly. A
number of intellectual properties were stolen and sent to China.
(LINK : https://boston.cbslocal.com/2020/06/10/charles-lieber-harvard-china-lying-
indictment/)
.
7. Now, do you know ?
It all started in 2010s when Xi Jinping's daughter Xi Mingzhe enrolled herself at Harvard
university. Yes, she studied at the Harvard University under a pseudonym to protect her
identity. That's when the Chinese "donations" and "gifts" to Harvard started to
skyrocket !!
.
8. Now, look at the countries that are donating to the top universities in the range of
BILLIONS of dollars -
a) CHINA 
b) SAUDI ARABIA
c) QATAR
d) UAE
Can you see the pumping of money to the best universities of the world, and the
promotion of certain ideologies ???
.
9. Now that the US enforcement agencies have totally busted the ring by:
-tracking the money trail, 
-sacking the professors and scientists illegally having ties with China, 
-detaining students who were enrolled in US universities but working as spies,
the new strategy, now it seems, is to shoot from the shoulders of Indian communists.
(LINK : https://edition.cnn.com/2019/02/01/politics/us-intelligence-chinese-student-
espionage/index.html)
.
10. NDTV has been a vocal supporter of China and went to the extent of defending the
country during Covid19. All of a sudden, the senior-most and the most influential
journalist of NDTV is sent to Harvard university as a faculty member.
.
PS - All the links here are from Bloomberg, CNN; Science; Wall Street Journal; NBC
and The Guardian. These are as credible as you can imagine. None of the links and
claims are from Whatsapp university. Feel free to read all of them !!

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