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ममता - - जयशंकर प्रसाद
ममता - - जयशंकर प्रसाद
ववधवा
थी। उसका यौवन शोण के समान ही उमड़ रहा था। मन में वेदना, मस्तक में आँ धी, आँ खोों में पानी की
बरसात विये, वह सुख के कण्टक-शयन में ववकि थी। वह रोहतास-दु र्गपवत के मन्त्री चू ड़ामवण की अकेिी
दु वहता थी, विर उसके विए कुछ अभाव होना असम्भव था, परन्तु वह ववधवा थी-वहन्दू -ववधवा सोंसार में
सबसे तु च्छ वनराश्रय प्राणी है -तब उसकी ववडम्बना का कहाँ अन्त था?
चू ड़ामवण ने चु पचाप उसके प्रकोष्ठ में प्रवेश वकया। शोण के प्रवाह में, उसके कि-नाद में अपना जीवन
वमिाने में वह बेसुध थी। वपता का आना न जान सकी। चूड़ामवण व्यवथत हो उठे । स्नेह-पाविता पुत्री के विए
क्या करें , यह स्थथर न कर सकते थे । िौटकर बाहर चिे र्ये। ऐसा प्राय: होता, पर आज मन्त्री के मन में
बड़ी दु विन्ता थी। पैर सीधे न पड़ते थे।
एक पहर बीत जाने पर वे विर ममता के पास आये। उस समय उनके पीछे दस सेवक चाँ दी के बड़े थािोों में
कुछ विये हुए खड़े थे ; वकतने ही मनुष्ोों के पद-शब्द सुन ममता ने घूम कर दे खा। मन्त्री ने सब थािोों को
रखने का सोंकेत वकया। अनुचर थाि रखकर चिे र्ये।
''ते रे विये बेटी! उपहार है ।''-कहकर चू ड़ामवण ने उसका आवरण उिट वदया। स्वणग का पीिापन उस
सुनहिी सन्ध्या में ववकीणग होने िर्ा। ममता चौोंक उठी-
''तो क्या आपने म्लेच्छ का उत्कोच स्वीकार कर विया? वपताजी यह अनथग है , अथग नहीों। िौटा दीवजये।
वपताजी! हम िोर् ब्राह्मण हैं , इतना सोना िे कर क्या करें र्े?''
''इस पतनोन्मु ख प्राचीन सामन्त-वोंश का अन्त समीप है , बेटी! वकसी भी वदन शेरशाह रोवहताश्व पर अवधकार
कर सकता है ; उस वदन मस्न्त्रत्व न रहे र्ा, तब के विए बेटी!''
''हे भर्वान! तब के विए! ववपद के विए! इतना आयोजन! परम वपता की इच्छा के ववरुद्ध इतना साहस!
वपताजी, क्या भीख न वमिे र्ी? क्या कोई वहन्दू भू-पृष्ठ पर न बचा रह जायेर्ा, जो ब्राह्मण को दो मु ठ्ठी अन्न दे
सके? यह असम्भव है । िेर दीवजए वपताजी, मैं काँ प रही हँ -इसकी चमक आँ खोों को अन्धा बना रही है ।''
दू सरे वदन जब डोवियोों का ताँ ता भीतर आ रहा था, ब्राह्मण-मन्त्री चू ड़ामवण का हृदय धक्-धक करने िर्ा।
वह अपने को रोक न सका। उसने जाकर रोवहताश्व दु र्ग के तोरण पर डोवियोों का आवरण खुिवाना चाहा।
पठानोों ने कहा-
''यह मवहिाओों का अपमान करना है ।''
बात बढ़ र्ई। तिवारें स्खोंचीों, ब्राह्मण वहीों मारा र्या और राजा-रानी और कोष सब छिी शेरशाह के हाथ
पड़े ; वनकि र्ई ममता। डोिी में भरे हुए पठान-सैवनक दु र्ग भर में िैि र्ये, पर ममता न वमिी।
काशी के उत्तर धमग चक्र ववहार, मौयग और र्ुप्त सम्राटोों की कीवतग का खोंडहर था। भग्न चू ड़ा, तृ ण-र्ुल्ोों से
ढके हुए प्राचीर, ईोंटोों की ढे र में वबखरी हुई भारतीय वशल्प की ववभू वत, ग्रीष्म की चस्िका में अपने को
शीति कर रही थी।
जहाँ पञ्चवर्ीय वभक्षु र्ौतम का उपदे श ग्रहण करने के विए पहिे वमिे थे, उसी स्तू प के भग्नावशेष की
मविन छाया में एक झोपड़ी के दीपािोक में एक स्त्री पाठ कर रही थी-
पाठ रुक र्या। एक भीषण और हताश आकृवत दीप के मन्द प्रकाश में सामने खड़ी थी। स्त्री उठी, उसने
कपाट बन्द करना चाहा। परन्तु उस व्यस्ि ने कहा-''माता! मु झे आश्रय चावहये।''
''मैं मु र्ि हँ । चौसा-युद्ध में शेरशाह से ववपन्न होकर रक्षा चाहता हँ । इस रात अब आर्े चिने में असमथग हँ ।''
''हाँ , माता!''
''परन्तु तु म भी वैसे ही क्रूर हो, वही भीषण रि की प्यास, वही वनष्ठु र प्रवतवबम्ब, तु म्हारे मु ख पर भी है !
सैवनक! मे री कुटी में थथान नहीों। जाओ, कहीों दू सरा आश्रय खोज िो।''
''र्िा सूख रहा है , साथी छूट र्ये हैं , अश्व वर्र पड़ा है -इतना थका हुआ हँ -इतना!''-कहते -कहते वह व्यस्ि
धम-से बैठ र्या और उसके सामने ब्रह्माण्ड घूमने िर्ा। स्त्री ने सोचा, यह ववपवत्त कहाँ से आई! उसने जि
वदया, मु र्ि के प्राणोों की रक्षा हुई। वह सोचने िर्ी-''ये सब ववधमी दया के पात्र नहीों-मे रे वपता का वध करने
वािे आततायी!'' घृणा से उसका मन ववरि हो र्या।
स्त्री ववचार कर रही थी-'मैं ब्राह्मणी हँ, मु झे तो अपने धमग-अवतवथदे व की उपासना-का पािन करना चावहए।
परन्तु यहाँ ...नहीों-नहीों ये सब ववधमी दया के पात्र नहीों। परन्तु यह दया तो नहीों .... कतग व्य करना है । तब?''
मु र्ि अपनी तिवार टे ककर खड़ा हुआ। ममता ने कहा-''क्या आियग है वक तुम भी छि करो; ठहरो।''
''छि! नहीों, तब नहीों-स्त्री! जाता हँ, तैमूर का वोंशधर स्त्री से छि करे र्ा? जाता हँ । भाग्य का खेि है।''
ममता ने मन में कहा-''यहाँ कौन दु र्ग है ! यही झोपड़ी न; जो चाहे िे -िे , मु झे तो अपना कतगव्य करना
पड़े र्ा।'' वह बाहर चिी आई और मु र्ि से बोिी-''जाओ भीतर, थके हुए भयभीत पवथक! तुम चाहे कोई हो,
मैं तु म्हें आश्रय दे ती हँ। मैं ब्राह्मण-कुमारी हँ ; सब अपना धमग छोड़ दें ,तो मैं भी क्योों छोड़ दू ँ ?'' मु र्ि ने चिमा
के मन्द प्रकाश में वह मवहमामय मु खमण्डि दे खा, उसने मन-ही-मन नमस्कार वकया। ममता पास की टू टी
हुई दीवारोों में चिी र्ई। भीतर, थके पवथक ने झोपड़ी में ववश्राम वकया।
प्रभात में खोंडहर की सस्न्ध से ममता ने दे खा, सैकड़ोों अश्वारोही उस प्रान्त में घूम रहे हैं । वह अपनी मू खगता
पर अपने को कोसने िर्ी।
शब्द सुनते ही प्रसन्नता की चीत्कार-ध्ववन से वह प्रान्त र्ूँज उठा। ममता अवधक भयभीत हुई। पवथक ने
कहा-''वह स्त्री कहाँ है ? उसे खोज वनकािो।'' ममता वछपने के विए अवधक सचे ष्ट हुई। वह मृ र्-दाव में चिी
र्ई। वदन-भर उसमें से न वनकिी। सन्ध्या में जब उन िोर्ोों के जाने का उपक्रम हुआ, तो ममता ने सुना,
पवथक घोड़े पर सवार होते हुए कह रहा है -''वमरजा! उस स्त्री को मैं कुछ दे न सका। उसका घर बनवा दे ना,
क्योोंवक मैं ने ववपवत्त में यहाँ ववश्राम पाया था। यह थथान भूिना मत।''-इसके बाद वे चिे र्ये।
चौसा के मु र्ि-पठान-युद्ध को बहुत वदन बीत र्ये। ममता अब सत्तर वषग की वृद्धा है । वह अपनी झोपड़ी में
एक वदन पड़ी थी। शीतकाि का प्रभात था। उसका जीणग-कोंकाि खाँ सी से र्ूँज रहा था। ममता की सेवा के
विये र्ाँ व की दो-तीन स्स्त्रयाँ उसे घेर कर बैठी थीों; क्योोंवक वह आजीवन सबके सुख-दु :ख की समभावर्नी
रही।
ममता ने जि पीना चाहा, एक स्त्री ने सीपी से जि वपिाया। सहसा एक अश्वारोही उसी झोपड़ी के द्वार पर
वदखाई पड़ा। वह अपनी धु न में कहने िर्ा-''वमरजा ने जो वचत्र बनाकर वदया है , वह तो इसी जर्ह का होना
चावहये। वह बुवढया मर र्ई होर्ी, अब वकससे पूछूँ वक एक वदन शाहों शाह हुमायूँ वकस छप्पर के नीचे बैठे
थे ? यह घटना भी तो सैंतािीस वषग से ऊपर की हुई!''
ममता ने अपने ववकि कानोों से सुना। उसने पास की स्त्री से कहा-''उसे बुिाओ।''
अश्वारोही पास आया। ममता ने रुक-रुककर कहा-''मैं नहीों जानती वक वह शाहों शाह था, या साधारण मु र्ि
पर एक वदन इसी झोपड़ी के नीचे वह रहा। मैं ने सुना था वक वह मे रा घर बनवाने की आज्ञा दे चु का था!
भर्वान् ने सुन विया, मैं आज इसे छोड़े जाती हँ । अब तुम इसका मकान बनाओ या महि, मैं अपने वचर-
ववश्राम-र्ृह में जाती हँ !''
वह अश्वारोही अवाक् खड़ा था। बुवढया के प्राण-पक्षी अनन्त में उड़ र्ये।