406 Notes

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नारी आज कई दृष्टियों से आजादी का मज़ा लूट रहे हैं पर इसे पाने के लिए

कइयों ने जी तोड़ मेहनत की थी। आज के स्त्री-पुरुष संबंध को समझने के लिए


पीछे मड़
ु कर दे खना जरूरी है ।
आदिमानव दिन ब दिन अपने को विकसित करता रहा। अपनी सुख-सुविधा के
लिए दनि
ु या का नक्शा बदलता रहा। वह अपनी जान जोखिम में डालकर खुद
को और अपनों को हर मुसीबत से बचाने लगा। जान लेने के लिए भी वह
कतराता नहीं था। “यही कारण है कि श्रेष्ठता मिली परु
ु ष को, जो मर सकता था
एवं मार सकता था। औरत तो केवल बच्चे को जन्म दे सकती थी। अतः जीवन
दे ने से ज्यादा जिंदगी को कायम रखने की जतन को एहमियत मिली। स्त्री के
मातत्ृ व ने स्त्री को बंधन में जकड़ लिया। ज़ाहिर है कि अब सत्ता पुरुष के हाथ
में आ गया। उसने जो मल्
ू य, धर्म, आचरण बनाएं, सब अपनी सवि
ु धा के अनस
ु ार
थे। स्त्री ने कभी पुरुष को चुनौती नहीं दी। वह नए-नए मूल्य गढ़ता गया और
उसे औरतों पर जबरदस्ती थोपता गया। वह तय करने लगा कि औरत कैसे
जिए। जब औरत इस स्थिति से अपने आपको अनुकूलित करती गई, तब से
धीरे -धीरे उसकी जिंदगी का डोर परु
ु ष के हाथों में आने लगी। एक ओर वह
मुश्किल से मश्कि
ु ल काम करता रहा, तो दस
ू री ओर औरत को अपना गुलाम
बनाता रहा।
सिमोन दी बोउवा ने अपनी किताब “दि सेकेंड सेक्स” में लिखा है कि शायद
मानव के प्रारं भिक दौर में वह इस बात से अनभिज्ञ था कि बच्चे के जन्म में
पुरुष की भी एक महत्वपूर्ण भागीदारी है । इसलिए वंश भी माँ के नाम से चलता
था। उस जमाने में वह स्त्री और प्रकृति में भेद नहीं करता था। स्त्री धरती की
तरह रहस्यमय थी। इसी वजह से स्त्री शक्ति के रूप में छायी हुई थी, कभी वह
निर्माता बनी तो कभी विनाशिनी। इससे यह बात साबित होती है कि समाज में
सत्ता स्त्रियों के हाथ में था।
पुरुष जब जन्म का रहस्य जान गया तब स्थिति का कायापलट हो गया। अब
स्त्री की है सियत मवेशियों (जानवरों) के सामान्य बन गई। अब औरत के हाथ में
न सत्ता थी न संपत्ति। वह परू ी तरह से परु
ु ष की मह
ु ताज बन गई।
पितस
ृ त्तात्मक समाज में औरत पुरुष की एक संपत्ति थी इसलिए अब उससे
पतिव्रता बनने और कौमार्य भंग न होने की उम्मीद की जाने लगी। पर गौर
करने की बात यह थी कि ये सब बातें पुरुषों पर लागू नहीं होती थी।
समाज में स्त्री संबंधी कई प्रथाएँ उभरने लगी। जैसे –
*नियोग की प्रथा - यानी पति के न रहने से या पति से पुत्र न उत्पन्न होने से
दे वर या पति के कुल के किसी भी व्यक्ति से संतान उत्पन्न करना ।
*सती प्रथा, आदि।

जब परिवार बनने लगा, तब परु


ु ष का मन जबरदस्ती एक स्त्री पर ठहरने की
नौबत आ गई। पर मनचला पुरुष यह ज्यादा दिन सह न सका। उसका मन
पर-स्त्री को तलाशने लगा। इस तरह व्यभिचार बढ़ने लगा। यहाँ पर बदनामी
होती है तो सिर्फ स्त्री की। गलत काम में जब दोनों शामिल हो तो सजा सिर्फ
एक को क्यों? यौन उत्तेजना के संदर्भ में सध
ु ा अरोड़ा जी कहती हैं – “औरतों के
कारण महान, पवित्र और धार्मिक संत भी अपना संयम खो दे ते हैं। यह बेहद
दिलचस्प स्थिति है कि हमारी संस्कृति और परं परा में पुरुषों को अपने पर
संयम रखना और अपनी इंद्रियों को नियंत्रित करना नहीं सिखाया जाता, बल्कि
औरतों को उनकी दृष्टि से दरू जाने पर ज़ोर दिया जाता है क्योंकि परु
ु षों पर
किसी तरह के नैतिक पतन की जिम्मेदारी नहीं डाली जा सकती।” हमारी
संस्कृति और परं परा इस बात का साथ दे ती हैं कि पुरुष को अपने इंद्रियों पर
काबू रखना बहुत मश्कि
ु ल होता है । पुरुष को किसी भी हद तक माफ़ किया
जाता है पर एक स्त्री को ज़रा सा भी छूट नहीं दी जाती। जब स्त्री का कोई
कसूर नहीं होता तब भी स्त्री को गुनहगार के रूप में दे खा जाता है । स्त्री
लगभग सभी क्षेत्रों में शोषण का शिकार बनती है चाहे वह पारिवारिक हो,
सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक हो। स्त्री के द्वारा सामना किए जाने
वाले अत्याचार हैं – बलात्कार, छे ड़खानी, एसिड फेंकना, नववधु को जलाना, घरे लू
हिंसा, दहे ज के नाम पर हत्या, बलपर्व
ू क गर्भपात, वेश्यावत्ति
ृ आदि।

जब से स्त्रियों ने अपने सामाजिक और पारिवारिक भूमिकाओं पर सोचना और


विचारना आरं भ किया, तब से स्त्री आंदोलन, और स्त्री विमर्श से जुड़े संदर्भों पर
बहसों की शुरुआत हुई।

स्त्री मुक्ति आंदोलन का प्रारं भ पश्चिमी से माना जाता है । सदियों से पूरे विश्व
में स्त्रियों पर जो शोषण होता रहा है उसी के खिलाफ़ यह आंदोलन अलग-अलग
जगहों पर अपनी-अपनी समस्याओं को लेकर होता आया है । उसका इतिहास भी
उतना ही परु ाना है । स्त्री के अधिकारों के प्रति जागति
ृ और चेतना का भाव
सर्वप्रथम पश्चिम में दिखाई दे ता है । इस बिंद ु के अंतर्गत हम स्त्री मक्ति

आंदोलन को दो भागों में दे खेंगे।। पहला पश्चिमी दे शों में हुए स्त्रियों द्वारा
आंदोलन और संघर्ष और दस
ू रा भारत में ऐतिहासिक रूप में स्त्री मुक्ति के लिए
हुए संघर्ष और आंदोलन।

पाश्चात्य संदर्भ में मुक्ति आंदोलन


पाश्चात्य स्त्री मुक्ति आंदोलन का इतिहास वर्षों पुराना है । स्त्रीवादी आंदोलन
अलग- अलग दे शों में अलग-अलग स्तर पर किया जाता है जिसमें प्रमुख रूप से
फ्रांस, इंग्लैंड और संयक्
ु त राज्य अमेरिका का आंदोलन रहा है । आज पश्चात ् के
दे शों में नारी की स्थिति बहुत मज़बूत और स्वतंत्र दिखाई दे ती है । परन्तु
प्रारं भिक काल में पाश्चात्य दे शों की स्त्रियां भी उतनी स्वतंत्र नहीं थी। स्त्री
आदिकाल से मध्यकाल तक बंधनों में जकड़ी रही। पाश्चात्य स्त्रियों को अपने
अधिकारों का ज्ञान, अस्तित्व और मक्ति
ु का ख्याल मध्यकाल में लगभग
अठारहवीं शताब्दी आते-आते होने लगा था। इस युग की स्त्रियों ने मुक्ति पाने
के लिए संघर्ष करना प्रारं भ कर दिया था जिसके परिणामस्वरूप स्त्री मुक्ति
आंदोलन की एक लंबी परं परा आज पूरे विश्व में दे खी जा सकती है ।
परू े विश्व में परु
ु ष सत्ता का ही आधिपत्य रहा है और नारी को सेविका, दासी
या वस्तु के रूप में दे खा और समझा गया है । यही भावना सभी स्थानों पर
व्याप्त रही है । पाश्चात्य दे शों में भी नारी की लगभग वही स्थिति रही है जैसे
भारत में रही है । प्रारं भिक काल से ही पुरुष को नारी का आदर्श एवं नारी की
नियति माना गया है । आर्थिक रूप से परु
ु ष पर आश्रित होने के कारण स्त्री को
सदै व दासी की दृष्टि से दे खा गया है । इसी वजह से स्त्रियां पुरुषों के समक्ष
झुक कर और सभी चीजों को सहन करते हुए चलती रही है । उन्हें इन्हीं कारणों
की वजह से शारीरिक और मानसिक शोषण का शिकार भी बनाया जाता रहा है ।
इसी शोषण और अन्याय के खिलाफ़ स्त्रियों ने अपनी लड़ाई लड़नी प्रारं भ की।

फ्रांसीसी क्रांति के समय आजादी और समानता का व्यवहार बना किसी लिंक


भेज के लागू करने के लिए महिला रिपब्लिकन क्लबों ने मांग की थी परं तु उस
समय नेपोलियन की संहिता आ जाने के कारण यह मांग शांत पड़ गयी। उत्तरी
ं टन और
अमेरिका के अबीजेल एडम्स और मेरी ऑस्टीस वारे न ने जॉर्ज वाशिग
टामस जैफ़्रासन पर दबाव डाला था कि नारी मक्ति
ु के मामले को संविधान में
शामिल किया जाए। इसके बाद नारी आन्दोलन सन ् 1848 में प्रारं भ हुआ। उस
समय एलिजाबेथ कैं डी स्टैंटन, लुक्रेसिया कफिन मोर और कुछ अन्य महिलाओं
ने न्यय
ू ॉर्क में एक महिला सम्मेलन करके नारी स्वतंत्रता पर एक घोषणापत्र
जारी किया, जिसमें पूर्ण कानूनी समानता, पूर्ण शैक्षिक और व्यावसायिक अवसर,
समान मुआवजा और मजदरू ी कमाने का अधिकार तथा वोट दे ने के अधिकार
की मांग की गई थी। यह आंदोलन तीव्र गति से पूरे यरू ोप में फैल गया। इसके
बाद इसमें उच्च शिक्षा, सभी व्यापार और पेशों में प्रवेश, विवाहित स्त्री की
संपत्ति और अन्य अधिकार को भी शामिल कर लिया गया। संयुक्त राज्य
अमेरिका में जब 1920 में नारी मताधिकार की जीत हुई तब तक महिलाओं ने
पुरुष के समक्ष स्त्रियों की बराबरी के सवाल को लेकर दो दल बन गए। एक
दल राष्ट्रीय महिला पार्टी का था, जो पुरुष के समक्ष स्त्रियों की बराबरी की
वकालत करता था जबकि दस
ू रा दल यह मानता था कि महिलाओं की रक्षा के
लिए कुछ कानून बनाए जाए। तत्पश्चात उन्नीसवीं सदी में कानून के विविध
रूप अमल में लाए जा चक
ू े थे जैसे स्त्रियों के लिए संभव साप्ताहिक कार्य घंटों
को सीमित करना तथा उन्हें कुछ खतरनाक कार्यों से दरू रखना।

पश्चिमी साहित्य ने स्त्री से संबंधित मिथक को बनाए रखने का प्रयास लगातार


जारी रखा। एक फ़्रेंच लेखक स्त्री के संदर्भ में मानते हैं कि स्त्री और पुरुष दोनों
को भिन्न-भिन्न शिक्षा मिलनी चाहिए। रूसो भी इस बात पर ज़ोर दे ते हैं कि
मस्तिष्क से रहित एक युवा स्त्री की काया अधिक आकर्षक होती है । इस प्रकार
की बातों से मेरी वॉल्सटन क्राफ़्ट मानती हैं कि शिक्षा के संदर्भ में समाज के ये
पक्षपात पूर्ण तर्क ही स्त्री को दमघोटू वातावरण में जीने के लिए प्रेरित करते
हैं। इसकी वजह से मेरी वॉल्सटन क्राफ़्ट ने रूसों की इस आदर्श व्यवस्था का
विरोध किया और सार्वजनिक शिक्षा प्रणाली को बदलने पर बल दिया। उन्होंने
इंग्लैंड में नारी के अधिकारों के लिए आवाज उठाई थी । इसके बाद फ्रांस में
सन ् 1844 में फ्लोरा ट्रिस्टन ने महिलाओं की मांगों को प्रस्तुत करने के लिए
एक महिला संगठन की स्थापना की। इंग्लैंड की एक महिला ने महिलाओं को
पुरुष के समान अधिकार दिए जाने की मांग को लेकर आंदोलन प्रारं भ किया
परं तु इस आंदोलन को दबाकर कुचल दिया गया । इंग्लैंड में जॉन स्टुअर्ट मिल
ने अपनी पुस्तक “द सब्जेक्शन ऑफ विमेन” द्वारा नारी मक्ति
ु और उसके
मताधिकारों के लिए आवाज उठाई।

न्यय
ू ार्क की सड़कों पर 8 मार्च सन ् 1857 में कपड़ा मिलों में काम करने वाली
स्त्रियों ने अधिक वेतन और काम करने के घंटे को कम करने के लिए मांग की
और प्रदर्शन भी किया जिसे उस दौर के ट्रे ड यनि
ू यनों के व्यक्तियों ने पसंद
नहीं किया । यह आंदोलन पुलिस द्वारा कुचल दिया गया परिणामस्वरूप
प्रदर्शन और मांग असफल रहा किंतु यह इतिहास में दर्ज हो गया और आज भी
8 मार्च का दिन अंतरराष्ट्रीय महिला संघर्ष दिवस के रूप में मनाया जाता है ।

अमेरिका में महिला आंदोलन की शुरुआत सन ् 1865 में एलिजाबेथ मिलर और


लुसी स्टोन ने प्रारं भ की थी। इसके बाद सन ् 1869 में हे ग में महिलाओं द्वारा
एक युद्ध विरोधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन हुआ। सन ् 1910 में समाजवादी महिलाओं
द्वारा एक सम्मेलन में पहली बार 8 मार्च का दिन महिला संघर्ष दिवस के रूप
में स्वीकृत किया गया।

द्वितीय विश्व युद्ध के पश्चात पश्चिमी दे शों में आंदोलनों ने बहुत ज़ोर पकड़ा।
सन ् 1945 में पेरिस में विमिन इंटरनेशनल डेमोक्रेटिक फ़ेडरे शन की स्थापना की
गई थी। सभी दे शों की इस स्त्रियों द्वारा आंदोलन को विश्वस्तर पर संगठित
रूप में चलाने का निश्चय किया गया। सन ् 1946 से 1966 तक बीस वर्षों के
मध्य महिला अधिकारों की लड़ाई के साथ निर स्त्रीकरण और शांति के पक्ष में
जोरदार आवाज उठाई जाने लगी। इस लड़ाई को बल दे ने के लिए अनेक महिला
संगठन सामने आए। इसी दौर में कुछ स्त्रीवादी महिलाएं, परिवार, विवाह, एक
तरफा प्रेम, आदि को स्त्री उत्पीड़न की मूल जड़ मानकर उनका विरोध करने
लगी।

स्त्री मक्ति
ु आंदोलन के दौर में ऐलेन सोबोलटा जैसी स्त्रीवादी लेखिका ने अपनी
किताब “ए लिटरे चर ऑफ दे अर ऑन” (A Literature of their Own) में यह भी
स्पष्ट किया कि स्त्री दमन के मुख्य कारण पितस
ृ त्ता नहीं बल्कि पँज
ू ीवाद है ।
इसके बाद स्त्री मुक्ति के लिए पज
ूं ी को आवश्यक माना गया और यह भी
विचार किया गया कि आर्थिक रूप आत्मनिर्भर स्त्री ही परु
ु ष की बराबरी कर
सकती है । इसके बाद अनेक संगठनों का गठन हुआ। स्त्री को पुरुष के समान
दर्जा दिए जाने की मांग की जाने लगी। इसके परिणाम स्वरूप स्त्री मुक्ति
आंदोलन के उद्देश्य सामने आये । जैसे:
*स्त्रियों ने जागति
ृ लाना
*सभी क्षेत्रों में पुरुषों के जैसा समान अधिकार की मांग
*गर्भपात से संबधि
ं त अनक
ु ू ल कानन

*बच्चों के लिए झूलाघर आदि योजना जहाँ बच्चों को रखा जा सके और माताएं
काम पर जा सकें
*स्त्रियों को दे खने का दृष्टिकोण सामाजिक रूप से बदला जाए

अतः दे खा जा सकता है कि पाश्चात्य दे शों में स्त्रियों ने अपने जीवन को सरल


बनाने और बराबरी के हक के लिए संघर्ष करते हुए मुक्ति आन्दोलन चलाया
ताकि उन्हें समाज और परिवार में बराबरी का अधिकार मिले, अपने अस्तित्व के
प्रति उनकी चेतना जागत
ृ हो, समाज में स्त्री-पुरुष के मध्य समानता हो ताकि
दोनों को समान अवसर प्राप्त हो सके।

भारतीय संदर्भ में मक्ति


ु आंदोलन

ं े का नाम विशेष महत्त्व रखता है ।


उन्नीसवीं सदी में भारत में ताराबाई शिद
इन्होंने सन ् 1882 में “स्त्री-पुरुष तुलना” नामक किताब की रचना की। इसमें
पित्रसत्ता के तमाम शोषणात्मक कार्यों की आलोचना की गई जो पुरुष वर्ग
स्त्रियों के साथ अपने जीवन में करता है । यह किताब स्त्रीवादी विचारधारा का
महत्वपूर्ण दस्तावेज भी है ।

पंडिता रमाबाई ने भारत की स्त्रियों को शिक्षा के क्षेत्र में आगे बढ़ाने हे तु प्रयास
किए हैं। रमाबाई ने पहले महिला आर्य समाज का गठन महाराष्ट्र में 1882 में
किया था। स्वामी विवेकानंद जी की एक शिष्या थी सिस्टर निवेदिता। सिस्टर
निवेदिता 1895 में लंदन में स्वामी जी से मुलाकात के बाद 1898 में कलकत्ता
चली गई थी। उन्होंने रामकृष्ण परमहं स और विवेकानंद के साथ मिलकर नव
स्थापित रामकृष्णा मिशन में अपना सहयोग दिया। उन्होंने विधवाओं तथा
ज़्यादा उम्र की महिलाओं के लिए नियमित पाठ्यक्रमों, नर्सिंग, सिलाई, सेवा,शिक्षा
इत्यादि की व्यवस्था भी की।
सन ् 1906 में मद्रास में तमिल महिला संगठन अस्तित्व में आए। सन ् 1908 में
गज
ु राती स्त्री मण्डल, 1909 में बंग महिला समाज, सन ् 1917 में स्त्रियों का
भारतीय संघ,1925 में महिलाओं का राष्ट्रीय परिषद और सन 1927 में सरला दे वी
चौधरानी, मुथुलक्ष्मी रे ड्डी, सुशीला नायर, अरुणा आसफ अली, विजय लक्ष्मी
पंडित, स्वर्णकुमारी घोषाल, महिला उपन्यासकार कादं गरी गांगुली, सरोजनी नायडू,
इत्यादि संगठनों एवं स्त्रियों ने अपना योगदान दे कर भारतीय समाज में
सांस्कृतिक जागरण लाने में अपनी महत्वपर्ण
ू भमि
ू का निभाई।

प्रगतिशील महिला आंदोलन ने सन ् 1929 में कुछ राष्ट्रीय नेताओं के सहयोग से


शारदा एक्ट और बाल विवाह नियंत्रण अधिनियम पास करवाया और बाल
विवाह के विरुद्ध कानून पास किए गए। महिलाओं के समर्थन में मुस्लिम
पर्सनल लॉ, विनियोग अधिनियम सन ् 1927 तथा मस्लि
ु म विवाह विच्छे द
अधिनियम सन ् 1929 आदि अन्य कानून भी पास किए गए।

भारत में सन ् 1915 से 1947 तक का समय स्त्रियों के लिए जागति


ृ भरा रहा है ।
स्त्रियों ने राष्ट्रवाद को समझा और वे स्वतंत्रता आंदोलन की लड़ाई में
सम्मिलित हुईं। महात्मा गाँधी जी के नेतत्ृ व में ऑल इंडिया विमेन कॉन्फ्रेन्स,
भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस से जुड़ी। इस आंदोलन में महिलाओं ने घर से बाहर
निकलकर अपनी सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाया और अपनी महत्ता को
सिद्ध किया।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान योगदान दे ने वाली सरोजिनी नायडू ने शिक्षा को
नारी मुक्ति का द्वार बताया है । उन्होंने समाज में नारी के प्रति रखी जाने
वाली दोहरी मानसिकता का खंडन किया, स्त्रियों पर होनेवाले अन्याय और
अत्याचारों का जमकर विरोध किया और स्त्रियों की समस्याओं के समाधान के
लिए अखिल भारतीय महिला परिषद से जुड़कर दे श की स्त्रियों को उनके
अधिकारों के लिए जागरूक करने का प्रयास किया ।

आयरिश महिला एनी बेसेंट को एक प्रमख


ु समाजसेवी, लेखक और प्रभावी वक्ता
के रूप में जाना जाता है । भारत में इन्होंने थियोसॉफिकल सोसाइटी के माध्यम
से भौतिक तथा बौद्धिक अवरोधों को दरू किया। सन ् 1914 में वह भारतीय
राष्ट्रीय कांग्रेस का हिस्सा बनी। होम रूल आंदोलन में भी उन्होंने महत्वपूर्ण
भमि
ू का निभाई। कमला नेहरू का नाम एक साहसी और दृढ़ संकल्म वाली
महिला के रूप में लिया जाता है । इसी प्रकार अन्य महिलाओं में दीदी
सुब्बुलक्ष्मी, अरुणा आसफ अली, कमला दे वी, विजया लक्ष्मी पंडित आदि के नाम
भी उल्लेखनीय है ।

स्वाधीनता आंदोलन जिन दिनों तेजी पर था उन्हीं दिनों बाबा साहे ब आम्बेडकर
का स्त्री मुक्ति के संदर्भ में विशेष योगदान रहा। उन्होंने दलित और स्त्री वर्ग
के उद्धार के लिए ही नहीं बल्कि पूरे दे श के उत्थान और उन्नति के लिए सार्थक
कार्य किए। उन्होंने स्त्री मक्ति
ु के सन्दर्भ में अनेक भाषण दिए। 28 जल
ु ाई
1928 को मुंबई विधान परिषद में डॉक्टर अम्बेडकर ने मील, फैक्टरी, तथा अन्य
संस्थाओं में मजदरू महिलाओं को प्रसूति अवकाश की सुविधा उपलब्ध कराने के
लिये अधिनियम पास करवाने के प्रयास किए।
सन ् 1928 में डॉक्टर अंबेडकर ने माँग की कि 21 वर्ष के ऊपर के सभी भारतीय
स्त्री और पुरुष को मतदान का अधिकार मिलना चाहिए। उनके सामाजिक संघर्षों
और आंदोलनों से महिलाओं में भी जागति
ृ आती गई और वे जागत
ृ महिलाएं
विभिन्न आंदोलनों में सक्रिय भी रहीं हैं।

सन 1942 में डॉक्टर अंबेडकर को गवर्नर जनरल की कार्यकारिणी में श्रम सदस्य
के रूप में नियुक्त किया गया था । उन्होंने उस पद का कार्य करते हुए पहली
बार महिलाओं के लिए प्रसूति अवकाश की व्यवस्था की। उन्होंने संविधान प्रारूप
समिति के अनुच्छे द चौदह में ऐसा प्रावधान रखा कि लिंक के आधार पर
महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार का भेदभाव नहीं किया जाएगा। आज़ादी के
बाद बनी केंद्रीय सरकार में डॉ आम्बेडकर जब कानून मंत्री के रूप में कार्य कर
रहे थे, तब उन्होंने “हिन्द ू कोड बिल” संसद में पेश किया लेकिन यह हिंद ू कोड
बिल तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार ने पास नहीं किया। यह
हिंद ू कोड बिल अगर पास हो जाता तो समाज में शोषित-प्रताड़ित होने वाली
स्त्रियां कानन
ू के आधार पर अन्याय-अत्याचारों से पीछा छुड़ा सकती थी। पति
द्वारा होने वाले शोषण से मुक्ति पाकर किसी दस
ू रे व्यक्ति से विवाह भी कर
सकती थी।

बाबा साहे ब आम्बेडकर ने जनवरी 1928 में मुंबई में महिला मंडल की स्थापना
भी की थी। डॉक्टर आम्बेडकर की पत्नी रमाबाई आम्बेडकर उसकी अध्यक्षा थी।
सन ् 1920 में नागपुर में डिप्रेस्ड क्लासेस (depressed classes) सम्मेलन के समय
महिलाओं की ओर से उन्होंने एक अलग सम्मेलन भी कराया था जिसमें सैकड़ों
महिलाएं आई थीं।

उधर गाँधीजी ने सती प्रथा, बाल विवाह, दहे ज प्रथा, छुआछूत और हिंद ू विधवाओं
के उत्पीड़न का विरोध किया। वे सदै व महिला मुक्ति और महिला विकास के
कार्यों में अग्रसर रहें ।
भारतीय महिलाओं की राजनीतिक जागरूकता और सहभागिता का श्रेय गाँधी जी
द्वारा शुरू किए आंदोलनों को जाता है । सन ् 1920 में सविनय अवज्ञा आंदोलन
के बाद उभरे संघर्ष में महिलाओं के अनेक संगठनों का निर्माण हुआ था जिसमें
महत्वपूर्ण संगठन है -दे श सेविका संघ, महिला राष्ट्रीय संघ, स्वयं सेविका आदि।

सन ् 1926 में ऑल इंडिया विमें स कॉन्फ्रेंस (All India Women’s Conference) की


स्थापना महिलाओं में शिक्षा प्रसार के लिये की गयी थी । इसके बाद इसका
नाम बदलकर ऑल इंडिया वीमेन्स कान्फ्रेंस फॉर एजक
ु े शनल ऐंड सोशल
रिफॉर्म्स (All India Wimen’s Conference for Educational and social reform) कर
दिया गया था।

एक स्त्री के जीवन में असली स्वतंत्रता तब सार्थक सिद्ध होगी जब परु


ु ष समाज
उसके साथ हो, उसके कार्य में उसका हाथ बंटाएं, सहयोग करें , आगे बढ़ाने के
लिए मार्गदर्शन दे , और सम्मान के साथ व्यवहार करे । , उसे केवल एक स्त्री,
वस्तु या काम करने वाली औरत न समझें बल्कि उसे भी अपनी तरह एक
मनष्ु य समझा जाए।

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