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Premchand
Premchand
Premchand
कथा-क्रम
अमत
ृ : 3
अपनी करनी : 12
गैरत की कटार : 22
घमंड का पत
ु ला : 29
2
अमत
ृ
नै
२
रं ग’ के शरु
ु करते हुए ही मझ
ु े एक आश्कियदजनक और दिल तोड़ने
वाला अनुभव हुआ। ईश्कवर जाने क्यों मेरी अक्ल और मेरे चिंतन पर
पिाद पड़ गया। घंटों तबबयत पर जोर डालता मगर एक शेर भी ऐसा न
ननकलता कक दिल फड़के उठे । सूझते भी तो िररद्र, पपटे हुए पवर्य, जजनसे
मेरी आत्मा भागती थी। मैं अक्सर झझ ु लाकर उठ बैठता, कागज फाड़
डालता और बड़ी बेदिली की हालत में सोिने लगता कक क्या मेरी
काव्यशजक्त का अंत हो गया, क्या मैंने वह खजाना जो प्रकृनत ने मुझे सारी
उम्र के ललए दिया था, इतनी जल्िी लमटा दिया। कहां वह हालत थी कक
पवर्यों की बहुतायत और नाजक ु खयालों की रवानी ़लम को िम नहीं लेने
िे ती थी। कल्पना का पंछी उड़ता तो आसमान का तारा बन जाता था और
कहां अब यह पस्ती! यह करुण िररद्रता! मगर इसका कारण क्या है ? यह
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ककस ़सूर की सज़ा है। कारण और कायद का िस
ू रा नाम िनु नया है । जब
तक हमको क्यों का जवाब न लमले, दिल को ककसी तरह सब्र नहीं होता,
यहां तक कक मौत को भी इस क्यों का जवाब िे ना पड़ता है । आखखर मैंने
एक डाक्टर से सलाह ली। उसने आम डाक्टरों की तरह आब-हवा बिलने की
सलाह िी। मेरी अक्ल में भी यह बात आयी कक मुमककन है नैनीताल की
ठं डी आब-हवा से शायरी की आग ठं डी पड़ गई हो। छ: महीने तक लगातार
घूमता-कफरता रहा। अनेक आकर्दक दृश्कय िे ख,े मगर उनसे आत्मा पर वह
शायराना कैकफयत न छाती थी कक प्याला छलक पड़े और खामोश कल्पना
खुि ब खुि िहकने लगे। मुझे अपना खोया हुआ लाल न लमला। अब मैं
जजंिगी से तंग था। जजंिगी अब मुझे सूखे रे चगस्तान जैसी मालूम होती
जहां कोई जान नहीं, ताज़गी नहीं, दिलिस्पी नहीं। हरिम दिल पर एक
मायस
ू ी-सी छायी रहती और दिल खोया-खोया रहता। दिल में यह सवाल पैिा
होता कक क्या वह िार दिन की िांिनी खत्म हो गयी और अंधेरा पाख आ
गया? आिमी की संगत से बेजार, हमजजंस की सूरत से नफरत, मैं एक
गुमनाम कोने में पड़ा हुआ जजंिगी के दिन पूरे कर रहा था। पेड़ों की िोदटयों
पर बैठने वाली, मीठे राग गाने वाली चिडड़या क्या पपंजरे में जज़ंिा रह सकती
हैं? मुमककन है कक वह िाना खाये, पानी पपये मगर उसकी इस जजंिगी और
मौत में कोई फकद नहीं है।
आखखर जब मझ
ु े अपनी शायरी के लौटने की कोई उम्मीि नहीं रही,
तो मेरे दिल में यह इरािा पक्का हो गया कक अब मेरे ललए शायरी की
िनु नया से मर जाना ही बेहतर होगा। मि
ु ाद तो हूुँ ही, इस हालत में अपने को
जजंिा समझना बेवकूफी है। आखखर मैने एक रोज कुछ िै ननक पत्रों का अपने
मरने की खबर िे िी। उसके छपते ही मुल्क में कोहराम मि गया, एक
तहलका पड़ गया। उस वक्त मुझे अपनी लोकपप्रयता का कुछ अंिाजा हुआ।
यह आम पक ु ार थी, कक शायरी की िनु नया की ककस्ती मंझधार में डूब गयी।
शायरी की महकफल उखड़ गयी। पत्र-पबत्रकाओं में मेरे जीवन-िररत्र प्रकालशत
हुए जजनको पढ़ कर मुझे उनके एडीटरों की आपवष्कार-बुद्चध का ़ायल
होना पड़ा। न तो मैं ककसी रईस का बेटा था और न मैंने रईसी की मसनि
छोड़कर फकीरी अजख्तयार की थी। उनकी कल्पना वास्तपवकता पर छा गयी
थी। मेरे लमत्रों में एक साहब ने, जजन्हे मझ
ु से आत्मीयता का िावा था, मुझे
पीने-पपलाने का प्रेमी बना दिया था। वह जब कभी मुझसे लमलते, उन्हें मेरी
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आखें नशे से लाल नजर आतीं। अगरिे इसी लेख में आगे िलकर उन्होनें
मेरी इस बुरी आित की बहुत हृियता से सफाई िी थी क्योंकक रुखा-सूखा
आिमी ऐसी मस्ती के शेर नहीं कह सकता था। ताहम हैरत है कक उन्हें यह
सरीहन गलत बात कहने की दहम्मत कैसे हुई।
खैर, इन गलत-बयाननयों की तो मुझे परवाह न थी। अलबत्ता यह बड़ी
कफक्र थी, कफक्र नहीं एक प्रबल जजज्ञासा थी, कक मेरी शायरी पर लोगों की
जबान से क्या फतवा ननकलता है । हमारी जजंिगी के कारनामे की सच्िी
िाि मरने के बाि ही लमलती है क्योंकक उस वक्त वह खुशामि और बरु ाइयों
से पाक-साफ होती हैं। मरने वाले की खश
ु ी या रं ज की कौन परवाह करता
है । इसीललए मेरी कपवता पर जजतनी आलोिनाऍ ं ननकली हैं उसको मैंने बहुत
ही ठं डे दिल से पढ़ना शरु
ु ककया। मगर कपवता को समझने वाली दृजष्ट की
व्यापकता और उसके ममद को समझने वाली रुचि का िारों तरफ अकाल-सा
मालूम होता था। अचधकांश जौहररयों ने एक-एक शेर को लेकर उनसे बहस
की थी, और इसमें शक नहीं कक वे पाठक की हैलसयत से उस शेर के
पहलुओं को खूब समझते थे। मगर आलोिक का कहीं पता न था। नजर की
गहराई गायब थी। समग्र कपवता पर ननगाह डालने वाला कपव, गहरे भावों
तक पहुुँिने वाला कोई आलोिक दिखाई न दिया।
ए
३
क रोज़ मैं प्रेतों की िनु नया से ननकलकर घूमता हुआ अजमेर की
पजब्लक लाइब्रेरी में जा पहुुँिा। िोपहर का वक्त था। मैंने मेज पर
झक
ु कर िे खा कक कोई नयी रिना हाथ आ जाये तो दिल बहलाऊुँ। यकायक
मेरी ननगाह एक सुंिर पत्र की तरफ गयी जजसका नाम था ‘कलामें अख्तर’।
जैसे भोला बच्िा खखलौने कक तरफ लपकता है उसी तरह झपटकर मैंने उस
ककताब को उठा ललया। उसकी लेखखका लमस आयशा आररफ़ थीं। दिलिस्पी
और भी ज्यािा हुई। मैं इत्मीनान से बैठकर उस ककताब को पढ़ने लगा। एक
ही पन्ना पढ़ने के बाि दिलिस्पी ने बेताबी की सरू त अजख्तयार की। कफर
तो मैं बेसुधी की िनु नया में पहुुँि गया। मेरे सामने गोया सूक्ष्म अथो की
एक निी लहरें मार रही थी। कल्पना की उठान, रुचि की स्वच्छता, भार्ा
की नमी। काव्य-दृजष्ट ऐसी थी कक हृिय धन्य-धन्य हो उठता था। मैं एक
ॉँ
पैराग्राफ पढ़ता, कफर पविार की ताज़गी से प्रभापवत होकर एक लंबी स स
लेता और तब सोिने लगता, इस ककताब को सरसरी तौर पर पढ़ना
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असम्भव था। यह औरत थी या सुरुचि की िे वी। उसके इशारों से मेरा
कलाम बहुत कम बिा था मगर जहां उसने मुझे िाि िी थी वहां सच्िाई के
मोती बरसा दिये थे। उसके एतराजों में हमििी और प्रशंसा में भजक्त था।
शायर के कलाम को िोर्ों की दृजष्टयों से नहीं िे खना िादहये। उसने क्या
नहीं ककया, यह ठीक कसौटी नहीं। बस यही जी िाहता था कक लेखखका के
हाथ और कलम िम
ू लुँ ।ू ‘सफ़ीर’ भोपाल के िफ्तर से एक पबत्रका
प्रकालशत हुई थी। मेरा पक्का इरािा हो गया, तीसरे दिन शाम के वक्त मैं
लमस आयशा के खूबसूरत बंगले के सामने हरी-हरी घास पर टहल रहा था।
मैं नौकरानी के साथ एक कमरे में िाखखल हुआ। उसकी सजावट बहुत सािी
थी। पहली िीज़ पर ननगाहें पड़ीं वह मेरी तस्वीर थी जो िीवार पर लटक
रही थी। सामने एक आइना रखा हुआ था। मैंने खि ु ा जाने क्यों उसमें अपनी
सरू त िे खी। मेरा िेहरा पीला और कुम्हलाया हुआ था, बाल उलझे हुए, कपड़ों
पर गिद की एक मोटी तह जमी हुई, परे शानी की जजंिा तस्वीर थी।
उस वक्त मुझे अपनी बुरी शक्ल पर सख्त शलमिंिगी हुई। मैं सुंिर न
सही मगर इस वक्त तो सिमुि िेहरे पर फटकार बरस रही थी। अपने
ललबास के ठीक होने का यकीन हमें खुशी िे ता है । अपने फुहड़पन का जजस्म
पर इतना असर नहीं होता जजतना दिल पर। हम बज
ु दिल और बेहौसला हो
जाते हैं।
मझ
ु े मजु श्ककल से पांि लमनट गज
ु रे होंगे कक लमस आयशा तशरीफ़
लायीं। सांवला रं ग था, िेहरा एक गंभीर घल
ु ावट से िमक रहा था। बड़ी-बड़ी
नरचगसी आंखों से सिािार की, संस्कृनत की रोशनी झलकती थी। ़ि
मझोले से कुछ कम। अंग-प्रत्यंग छरहरे , सुथरे , ऐसे हल्की-फुल्की कक जैसे
प्रकृनत ने उसे इस भौनतक संसार के ललए नहीं, ककसी काल्पननक संसार के
ललए लसरजा है। कोई चित्रकार कला की उससे अच्छी तस्वीर नही खींि
सकता था।
लमस आयशा ने मेरी तरफ िबी ननगाहों से िे खा मगर िे खते-िे खते
उसकी गिद न झक
ु गयी और उसके गालों पर लाज की एक हल्की-परछाईं
नािती हुई मालम
ू हुई। जमीन से उठकर उसकी ऑ ंखें मेरी तस्वीर की तरफ
गयीं और कफर सामने पिे की तरफ जा पहुुँिीं। शायि उसकी आड़ में
नछपना िाहती थीं।
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लमस आयशा ने मेरी तरफ िबी ननगाहों से िे खकर पछ
ू ा—आप स्वगीय
अख्तर के िोस्तों में से हैं?
मैंने लसर नीिा ककये हुए जवाब दिया--मैं ही बिनसीब अख्तर हूुँ।
आयशा एक बेखि ु ी के आलम में कुसी पर से खड़ी हुई और मेरी तरफ
है रत से िे खकर बोलीं—‘िनु नयाए हुस्न’ के ललखने वाले?
अंधपवश्कवास के लसवा और ककसने इस िनु नया से िले जानेवाले को
िे खा है ? आयशा ने मेरी तरफ कई बार शक से भरी ननगाहों से िे खा। उनमें
अब शमद और हया की जगह के बजाय है रत समायी हुई थी। मेरे कब्र से
ननकलकर भागने का तो उसे यकीन आ ही नहीं सकता था, शायि वह मुझे
िीवाना समझ रही थी। उसने दिल में फैसला ककया कक इस आिमी मरहूम
शायर का कोई ़रीबी अजीज है । शकल जजस तरह लमल रही थी वह िोनों
के एक खानिान के होने का सबत
ू थी। मम
ु ककन है कक भाई हो। वह
अिानक सिमे से पागल हो गया है । शायि उसने मेरी ककताब िे खी होगी
ओर हाल पछ
ू ने के ललए िला आया। अिानक उसे ख़याल गज
ु रा कक ककसी
ने अखबारों को मेरे मरने की झूठी खबर िे िी हो और मुझे उस खबर को
काटने का मौका न लमला हो। इस ख़याल से उसकी उलझन िरू हुई, बोली—
अखबारों में आपके बारे में एक ननहायत मनहूस खबर छप गयी थी? मैंने
जवाब दिया—वह खबर सही थी।
अगर पहले आयशा को मेरे दिवानेपन में कुछ था तो वह िरू हो गया।
आखखर मैने थोड़े लफ़्जो में अपनी िास्तान सन
ु ायी और जब उसको यकीन
हो गया कक ‘िनु नयाए हुस्न’ का ललखनेवाला अख्तर अपने इन्सानी िोले में
है तो उसके िेहरे पर खुशी की एक हल्की सुखी दिखायी िी और यह हल्का
रं ग बहुत जल्ि खुििारी और रुप-गवद के शोख रं ग से लमलकर कुछ का
कुछ हो गया। गाललबन वह शलमिंिा थी कक क्यों उसने अपनी ़द्रिानी को
हि से बाहर जाने दिया। कुछ िे र की शमीली खामोशी के बाि उसने कहा—
मुझे अफसोस है कक आपको ऐसी मनहूस खबर ननकालने की जरुरत हुई।
मैंने जोश में भरकर जवाब दिया—आपके ़लम की जबान से िाि
पाने की कोई सरू त न थी। इस तऩीि के ललए मैं ऐसी-ऐसी कई मौते मर
सकता था।
मेरे इस बेधड़क अंिाज ने आयशा की जबान को भी लशष्टािार और
संकोि की ़ैि से आज़ाि ककया, मुस्कराकर बोली—मुझे बनावट पसंि नहीं
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है । डाक्टरों ने कुछ बतलाया नहीं? उसकी इस मुस्कराहट ने मुझे दिल्लगी
करने पर आमािा ककया, बोला—अब मसीहा के लसवा इस मजद का इलाज
और ककसी के हाथ नहीं हो सकता।
आयशा इशारा समझ गई, हुँसकर बोली—मसीहा िौथे आसमान पर
रहते हैं।
मेरी दहम्मत ने अब और किम बढ़ाये---रुहों की िनु नया से िौथा
आसमान बहुत िरू नहीं है।
आयशा के खखले हुए िेहरे से संजीिगी और अजनबबयत का हल्का रं ग
उड़ गया। ताहम, मेरे इन बेधड़क इशारों को हि से बढ़ते िे खकर उसे मेरी
जबान पर रोक लगाने के ललए ककसी ़िर खुििारी बरतनी पड़ी। जब मैं
कोई घंटे-भर के बाि उस कमरे से ननकला तो बजाय इसके कक वह मेरी
तरफ अपनी अंग्रेजी तहज़ीब के मत
ु ाबबक हाथ बढ़ाये उसने िोरी-िोरी मेरी
तरफ िे खा। फैला हुआ पानी जब लसमटकर ककसी जगह से ननकलता है तो
उसका बहाव तेज़ और ता़त कई गुना ज्यािा हो जाती है आयशा की उन
ननगाहों में अस्मत की तासीर थी। उनमें दिल मुस्कराता था और जज्बा
नाजता था। आह, उनमें मेरे ललए िावत का एक परु जोर पैगाम भरा हुआ
था। जब मैं मजु स्लम होटल में पहुुँिकर इन वा़यात पर गौर करने लगा तो
मैं इस नतीजे पर पहुुँिा कक गो मैं ऊपर से िे खने पर यहां अब तक
अपररचित था लेककन भीतरी तौर पर शायि मैं उसके दिल के कोने तक
पहुुँि िक
ु ा था।
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अपनी करनी
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लौटता था तो मुझे कैसे-कैसे बहाने सूझते थे, ननत नये हीले गढ़ता था,
शायि पवद्याथी जीवन में जब बैडड के मजे से मिरसे जाने की इजाज़त न
िे ते थे, उस वक्त भी बद्
ु चध इतनी प्रखर न थी। और क्या उस क्षमा की
िे वी को मेरी बातों पर य़ीन आता था? वह भोली थी मगर ऐसी नािान न
थी। मेरी खुमार-भरी आंखे और मेरे उथले भाव और मेरे झूठे प्रेम-प्रिशदन का
रहस्य क्या उससे नछपा रह सकता था? लेककन उसकी रग-रग में शराफत
भरी हुई थी, कोई कमीना ख़याल उसकी जबान पर नहीं आ सकता था। वह
उन बातों का जजक्र करके या अपने संिेहों को खल
ु े आम दिखलाकर हमारे
पपवत्र संबंध में खखिाव या बिमज़गी पैिा करना बहुत अनचु ित समझती थी।
मुझे उसके पविार, उसके माथे पर ललखे मालूम होते थे। उन बिमज़चगयों के
मक
ु ाबले में उसे जलना और रोना ज्यािा पसंि था, शायि वह समझती थी
कक मेरा नशा खि
ु -ब-खि
ु उतर जाएगा। काश, इस शराफत के बिले उसके
स्वभाव में कुछ ओछापन और अनुिारता भी होती। काश, वह अपने
अचधकारों को अपने हाथ में रखना जानती। काश, वह इतनी सीधी न
होती। काश, अव अपने मन के भावों को नछपाने में इतनी कुशल न होती।
काश, वह इतनी मक्कार न होती। लेककन मेरी मक्कारी और उसकी मक्कारी
में ककतना अंतर था, मेरी मक्कारी हरामकारी थी, उसकी मक्कारी
आत्मबललिानी।
एक रोज मैं अपने काम से फुसरत पाकर शाम के वक़् मनोरं जन के
ललए आनंिवादटका मे पहुुँिा और संगमरमर के हौज पर बैठकर मछललयों
का तमाशा िे खने लगा। एकाएक ननगाह ऊपर उठी तो मैंने एक औरत का
बेले की झाडड़यों में फूल िुनते िे खा। उसके कपड़े मैले थे और जवानी की
ताजगी और गवद को छोड़कर उसके िेहरे में कोई ऐसी खास बात न थीं
उसने मेरी तरफ आंखे उठायीं और कफर फूल िुनने में लग गयी गोया उसने
कुछ िे खा ही नहीं। उसके इस अंिाज ने, िाहे वह उसकी सरलता ही क्यों न
रही हो, मेरी वासना को और भी उद्िीप्त कर दिया। मेरे ललए यह एक नयी
बात थी कक कोई औरत इस तरह िे खे कक जैसे उसने नहीं िे खा। मैं उठा
और धीरे -धीरे , कभी जमीन और कभी आसमान की तरफ ताकते हुए बेले की
झाडड़यों के पास जाकर खि ु भी फूल िन
ु ने लगा। इस दढठाई का नतीजा यह
हुआ कक वह माललन की लड़की वहां से तेजी के साथ बाग के िस
ू रे दहस्से में
िली गयी।
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उस दिन से मालूम नहीं वह कौन-सा आकर्दण था जो मझ
ु े रोज शाम
के वक्त आनंिवादटका की तरफ खींि ले जाता। उसे मुहब्बत हरचगज नहीं
कह सकते। अगर मझ
ु े उस वक्त भगवान ् न करें , उस लड़की के बारे में
कोई, शोक-समािार लमलता तो शायि मेरी आंखों से आंसू भी न ननकले,
जोचगया धारण करने की तो ििाद ही व्यथद है । मैं रोज जाता और नये -नये
रुप धरकर जाता लेककन जजस प्रकृनत ने मुझे अच्छा रुप-रं ग दिया था उसी
ने मुझे वािालता से वंचित भी कर रखा था। मैं रोज जाता और रोज लौट
जाता, प्रेम की मंजजल में एक ़िम भी आगे न बढ़ पाता था। हां, इतना
अलबत्ता हो गया कक उसे वह पहली-सी खझझक न रही।
आखखर इस शांनतपण
ू द नीनत को सफल बनाने न होते िे ख मैंने एक
नयी यजु क्त सोिी। एक रोज मैं अपने साथ अपने शैतान बल
ु डाग टामी को
भी लेता गया। जब शाम हो गयी और वह मेरे धैयद का नाश करने वाली
फूलों से आंिल भरकर अपने घर की ओर िली तो मैंने अपने बुलडाग को
धीरे से इशारा कर दिया। बुलडाग उसकी तरफ़ बाज की तरफ झपटा,
फूलमती ने एक िीख मारी, िो-िार किम िौड़ी और जमीन पर चगर पड़ी।
अब मैं छड़ी दहलाता, बुलडाग की तरफ गुस्से-भरी आंखों से िे खता और
हांय-हांय चिल्लाता हुआ िौड़ा और उसे जोर से िो-तीन डंडे लगाये। कफर मैंने
बबखरे हुए फूलों को समेटा, सहमी हुई औरत का हाथ पकड़कर बबठा दिया
और बहुत लजज्जत और िख ु ी भाव से बोला—यह ककतना बड़ा बिमाश है ,
अब इसे अपने साथ कभी नहीं लाऊंगा। तम्
ु हें इसने काट तो नहीं ललया?
फूलमती ने िािर से सर को ढ़ांकते हुए कहा—तमु न आ जाते तो वह
मुझे नोि डालता। मेरे तो जैसे मन-मन-भर में पैर हो गये थे। मेरा कलेजा
तो अभी तक धड़क रहा है।
यह तीर लक्ष्य पर बैठा, खामोशी की मुहर टूट गयी, बातिीत का
लसललसला ़ायम हुआ। बांध में एक िरार हो जाने की िे र थी, कफर तो मन
की उमंगो ने खुि-ब-खुि काम करना शरु
ु ककया। मैने जैसे-जैसे जाल फैलाये,
जैसे-जैसे स्वांग रिे, वह रं गीन तबबयत के लोग खूब जानते हैं। और यह
सब क्यों? मह
ु ब्बत से नहीं, लसफद जरा िे र दिल को खश
ु करने के ललए,
लसफद उसके भरे -परू े शरीर और भोलेपन पर रीझकर। यों मैं बहुत नीि प्रकृनत
का आिमी नहीं हूुँ। रूप-रं ग में फूलमती का इंि ु से मक
ु ाबला न था। वह
सुंिरता के सांिे में ढली हुई थी। कपवयों ने सौंियद की जो कसौदटयां बनायी
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हैं वह सब वहां दिखायी िे ती थीं लेककन पता नहीं क्यों मैंने फूलमती की
धंसी हुई आंखों और फूले हुए गालों और मोटे -मोटे होठों की तरफ अपने
दिल का ज्यािा खखंिाव िे खा। आना-जाना बढ़ा और महीना-भर भी गज ु रने
न पाया कक मैं उसकी मह
ु ब्बत के जाल में परू ी तरह फंस गया। मझ
ु े अब
घर की सािा जजंिगी में कोई आनंि न आता था। लेककन दिल ज्यों-ज्यों घर
से उिटता जाता था त्यों-त्यों मैं पत्नी के प्रनत प्रेम का प्रिशदन और भी
अचधक करता था। मैं उसकी फ़रमाइशों का इंतजार करता रहता और कभी
उसका दिल िख
ु ानेवाली कोई बात मेरी जबान पर न आती। शायि मैं अपनी
आंतररक उिासीनता को लशष्टािार के पिे के पीछे नछपाना िाहता था।
धीरे -धीरे दिल की यह कैकफ़यत भी बिल गयी और बीवी की तरफ से
उिासीनता दिखायी िे ने लगी। घर में कपड़े नहीं है लेककन मझ
ु से इतना न
होता कक पछ
ू लं।ू सि यह है कक मझु े अब उसकी खानतरिारी करते हुए एक
डर-सा मालूम होता था कक कहीं उसकीं खामोशी की िीवार टूट न जाय और
उसके मन के भाव जबान पर न आ जायं। यहां तक कक मैंने चगरस्ती की
जरुरतों की तरफ से भी आंखे बंि कर लीं। अब मेरा दिल और जान और
रुपया-पैसा सब फूलमती के ललए था। मैं खुि कभी सुनार की िक
ु ान पर न
गया था लेककन आजकल कोई मुझे रात गए एक मशहूर सुनार के मकान
पर बैठा हुआ िे ख सकता था। बजाज की िक
ु ान में भी मुझे रुचि हो गयी।
ए
२
क रोज शाम के वक्त रोज की तरह मैं आनंिवादटका में सैर कर रहा
था और फूलमती सोहलों लसंगार ककए, मेरी सन
ु हरी-रुपहली भें टो से
लिी हुई, एक रे शमी साड़ी पहने बाग की क्याररयों में फूल तोड़ रही थी,
बजल्क यों कहो कक अपनी िुटककंयो मे मेरे दिल को मसल रही थी। उसकी
छोटी-छोटी आंखे उस वक्त नशे के हुस्न में फैल गयी ,थीं और उनमें शोखी
और मुस्कराहट की झलक नज़र आती थी।
अिानक महाराजा साहब भी अपने कुछ िोस्तों के साथ मोटर पर
सवार आ पहुुँिे। मैं उन्हें िे खते ही अगवानी के ललए िौड़ा और आिाब बजा
लाया। बेिारी फूलमती महाराजा साहब को पहिानती थी लेककन उसे एक
घने कंु ज के अलावा और कोई नछपने की जगह न लमल सकी। महाराजा
साहब िले तो हौज की तरफ़ लेककन मेरा िभ
ु ादग्य उन्हें क्यारी पर ले िला
जजधर फूलमती नछपी हुई थर-थर कांप रही थी।
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महाराजा साहब ने उसकी तरफ़ आश्कियद से िे खा और बोले—यह कौन
औरत है ? सब लोग मेरी ओर प्रश्कन-भरी आंखों से िे खने लगे और मुझे भी
उस वक्त यही ठीक मालम
ू हुआ कक इसका जवाब मैं ही िं ू वनाद फूलमती
न जाने क्या आफत ढ़ा िे । लापरवाही के अंिाज से बोला—इसी बाग के
माली की लड़की है, यहां फूल तोड़ने आयी होगी।
फूलमती लज्जा और भय के मारे जमीन में धंसी जाती थी। महाराजा
साहब ने उसे सर से पांव तक गौर से िे खा और तब संिेहशील भाव से मेरी
तरफ िे खकर बोले—यह माली की लड़की है ?
मैं इसका क्या जवाब िे ता। इसी बीि कम्बख्त िज़
ु नद माली भी अपनी
फटी हुई पाग संभालता, हाथ मे कुिाल ललए हुए िौड़ता हुआ आया और सर
को घट
ु नों से लमलाकर महाराज को प्रणाम ककया महाराजा ने जरा तेज लहजे
में पछ
ू ा—यह तेरी लड़की हैं?
माली के होश उड़ गए, कांपता हुआ बोला--हुजूर।
महाराज—तेरी तनख्वाह क्या है ?
िज
ु न
द —हुजूर, पांि रुपये।
महाराज—यह लड़की कंु वारी है या ब्याही?
िज
ु न
द —हुजूर, अभी कंु वारी है
महाराज ने गुस्से में कहा—या तो तू िोरी करता है या डाका मारता है
वनाद यह कभी नहीं हो सकता कक तेरी लड़की अमीरजािी बनकर रह सके।
मझ
ु े इसी वक्त इसका जवाब िे ना होगा वनाद मैं तझ
ु े पलु लस के सप
ु ि
ु द कर
िुँ ग
ू ा। ऐसे िाल-िलन के आिमी को मैं अपने यहां नहीं रख सकता।
माली की तो नघग्घी बंध गयी और मेरी यह हालत थी कक काटो तो
बिन में लहू नहीं। िनु नया अंधेरी मालूम होती थी। मैं समझ गया कक आज
मेरी शामत सर पर सवार है । वह मझ ु े जड़ से उखाड़कर िम लेगी। महाराजा
साहब ने माली को जोर से डांटकर पछ
ू ा—तू खामोश क्यों है , बोलता क्यों
नहीं?
िजु न
द फूट-फटकर रोने लगा। जब ज़रा आवाज सुधरी तो बोला—हुजरू ,
बाप-िािे से सरकार का नमक खाता हूुँ, अब मेरे बढ़
ु ापे पर िया कीजजए, यह
सब मेरे फूटे नसीबों का फेर है धमादवतार। इस छोकरी ने मेरी नाक कटा िी,
कुल का नाम लमटा दिया। अब मैं कहीं मुंह दिखाने लायक नहीं हूुँ, इसको
सब तरह से समझा-बुझाकर हार गए हुजरू , लेककन मेरी बात सुनती ही नहीं
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तो क्या करूं। हुजूर माई-बाप हैं, आपसे क्या पिाद करूं, उसे अब अमीरों के
साथ रहना अच्छा लगता है और आजकल के रईसों और अमींरों को क्या
कहूुँ, िीनबंधु सब जानते हैं।
महाराजा साहब ने जरा िे र गौर करके पछ
ू ा—क्या उसका ककसी
सरकारी नौकर से संबंध है ?
िज
ु न
द ने सर झक
ु ाकर कहा—हुजूर।
महाराज साहब—वह कौन आिमी है, तुम्हे उसे बतलाना होगा।
िज
ु न
द —महाराज जब पछ
ू ें गे बता िं ग
ू ा, सांि को आंि क्या।
मैंने तो समझा था कक इसी वक्त सारा पिादफास हुआ जाता है लेककन
महाराजा साहब ने अपने िरबार के ककसी मुलाजजम की इज्जत को इस तरह
लमट्टी में लमलाना ठीक नहीं समझा। वे वहां से टहलते हुए मोटर पर बैठकर
महल की तरफ िले।
३
िू सरे दिन मैं ज्यों ही िफ्तर में पहुंिा िोबिार ने आकर कहा-महाराज
साहब ने आपको याि ककया है।
मैं तो अपनी ककस्मत का फैसला पहले से ही ककये बैठा था। मैं खूब समझ
गया था कक वह बदु ढ़या खकु फ़या पुललस की कोई मख़
ु बबर है जो मेरे घरे लू
मामलों की जांि के ललए तैनात हुई होगी। कल उसकी ररपोट आयी होगी
और आज मेरी तलबी है । खौफ़ से सहमा हुआ लेककन दिल को ककसी तरह
संभाले हुए कक जो कुछ सर पर पड़ेंगी िे खा जाएगा, अभी से क्यों जान िं ,ू
मैं महाराजा की खखिमत में पहुुँिा। वह इस वक्त अपने पजू ा के कमरे में
अकेले बैठै हुए थे, ़ागजों का एक ढे र इधर-उधर फैला हुआ था ओर वह
खि
ु ककसी ख्याल में डूबे हुए थे। मझ
ु े िे खते ही वह मेरी तरफ मख ु ानतब हुए,
उनके िेहरे पर नाराज़गी के लक्षण दिखाई दिये, बोले कंु अर श्कयामलसंह, मुझे
बहुत अफसोस है कक तुम्हारी बावत मुझे जो बातें मालूम हुईं वह मुझे इस
बात के ललए मजबरू करती हैं कक तम्
ु हारे साथ सख्ती का बतादव ककया जाए।
तुम मेरे पुराने वसी़ािार हो और तुम्हें यह गौरव कई पीदढ़यों से प्राप्त है।
तुम्हारे बुजग
ु ों ने हमारे खानिान की जान लगाकार सेवाएं की हैं और उन्हीं
के लसलें में यह वसी़ा दिया गया था लेककन तुमने अपनी हरकतों से अपने
को इस कृपा के योग्य नहीं रक्खा। तम्
ु हें इसललए वसी़ा लमलता था कक
तम
ु अपने खानिान की परवररश करों, अपने लड़कों को इस योग्य बनाओ
कक वह राज्य की कुछ खखिमत कर सकें, उन्हें शारीररक और नैनतक लशक्षा
िो ताकक तुम्हारी जात से ररयासत की भलाई हो, न कक इसललए कक तुम
19
इस रुपये को बेहूिा ऐशपस्ती और हरामकारी में खिद करो। मझ
ु े इस बात से
बहुत तकलीफ़ होती है कक तुमने अब अपने बाल-बच्िों की परवररश की
जजम्मेिारी से भी अपने को मक्
ु त समझ ललया है। अगर तम्
ु हारा यही ढं ग
रहा तो यकीनन वसी़ािारों का एक परु ाना खानिान लमट जाएगा। इसललए
हाज से हमने तुम्हारा नाम वसी़ािारों की फ़ेहररस्त से खाररज कर दिया
और तुम्हारी जगह तम्
ु हारी बीवी का नाम िजद ककया गया। वह अपने लड़कों
को पालने-पोसने की जजम्मेिार है । तुम्हारा नाम ररयासत के माललयों की
फ़ेहररस्त मे ललया जाएगा, तुमने अपने को इसी के योग्य लसद्ध ककया है
और मुझे उम्मीि है कक यह तबािला तम्
ु हें नागवार न होगा। बस, जाओ
और मुमककन हो तो अपने ककये पर पछताओ।
५
21
गौरत की कटारे
23
३
है िर ने अपनी झेंप को गुस्से के पिे में नछपाकर कहा- हां, मैं हूुँ है िर!
नईमा लसर झुकाकर हसरत-भरे ढं ग से बोली—तुम्हारे हाथों में यह
िमकती हुई तलवार िे खकर मेरा कलेजा थरथरा रहा है। तम् ु हीं ने मझ
ु े
नाज़बरिाररयों का आिी बना दिया है । ज़रा िे र के ललए इस कटार को मेरी
ऑ ंखें से नछपा लो। मैं जानती हूुँ कक तम
ु मेरे खन
ू के प्यासे हो, लेककन मझ
ु े
24
न मालूम था कक तुम इतने बेरहम और संगदिल हो। मैंने तुमसे िगा की है,
तुम्हारी खतावार हूं लेककन है िर, य़ीन मानो, अगर मुझे िन्ि आखखरी बातें
कहने का मौ़ा न लमलता तो शायि मेरी रूह को िोज़ख में भी यही आरजू
रहती। मौत की सज़ा से पहले आपने घरवालों से आखखरी मल
ु ा़ात की
इजाज़त होती है। क्या तुम मेरे ललए इतनी ररयायत के भी रवािार न थे?
माना कक अब तुम मेरे ललए कोई नहीं हो मगर ककसी वक्त थे और तुम
िाहे अपने दिल में समझते हो कक मैं सब कुछ भूल गयी लेककन मैं मुहब्बत
को इतनी जल्िी भूल जाने वाली नहीं हूुँ। अपने ही दिल से फैसला करो।
तुम मेरी बेवफ़ाइयां िाहे भून जाओ लेककन मेरी मह
ु ब्बत की दिल तोड़नेवाली
यािगारें नहीं लमटा सकते। मेरी आखखरी बातें सुन लो और इस नापाक
जजन्िगी का दहस्सा पाक करो। मैं साफ़-साफ़ कहती हूुँ इस आखखरी वक्त में
क्यों डरूं। मेरी कुछ िग
ु त
द हुई है उसके जजम्मेिार तम
ु हो। नाराज न होना।
अगर तुम्हारा ख्याल है कक मैं यहां फूलों की सेज पर सोती हूुँ तो वह गलत
है । मैंने औरत की शमद खोकर उसकी ़द्र जानी है । मैं हसीन हूं, नाजुक हूं;
िनु नया की नेमतें मेरे ललए हाजज़र हैं, नालसर मेरी इच्छा का गल
ु ाम है लेककन
मेरे दिल से यह खयाल कभी िरू नहीं होता कक वह लसफ़द मेरे हुस्न और
अिा का बन्िा है। मेरी इज्जत उसके दिल में कभी हो भी नहीं सकती। क्या
तुम जानते हो कक यहां खवासों और िस
ू री बीपवयों के मतलब-भरे इशारे मेरे
खन
ू और जजगर को नहीं लजाते? ओफ् , मैंने अस्मत खोकर अस्मत की ़द्र
जानी है लककन मैं कह िक
ु ी हूं और कफर कहती हूं, कक इसके तम
ु जजम्मेिार
हो।
है िर ने पहलू बिलकर पछ
ू ा—क्योंकर?
नईमा ने उसी अन्िाज से जवाब दिया-तुमने बीवी बनाकर नहीं,
माशूक बनाकर रक्खा। तुमने मुझे नाजुबरिाररयों का आिी बनाया लेककन
फ़जद का सबक नहीं पढ़ाया। तुमने कभी न अपनी बातों से, न कामों से मुझे
यह खयाल करने का मौ़ा दिया कक इस मुहब्बत की बुननयाि फ़जद पर है ,
तुमने मुझे हमेशा हुसन और मजस्तयों के नतललस्म में फंसाए रक्खा और
मझु े ख्वादहशों का गल
ु ाम बना दिया। ककसी ककश्कती पर अगर फ़जद का
मल्लाह न हो तो कफर उसे िररया में डूब जाने के लसवा और कोई िारा
नहीं। लेककन अब बातों से क्या हालसल, अब तो तुम्हारी गैरत की कटार मेरे
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खून की प्यासी है ओर यह लो मेरा लसर उसके सामने झुका हुआ है। ह ,ॉँ
मेरी एक आखखरी तमन्ना है, अगर तुम्हारी इजाजत पाऊुँ तो कहूुँ।
यह कहते-कहते नईमा की आंखों में आंसओ
ु ं की बाढ़ आ गई और
है िर की गैरत उसके सामने ठहर न सकी। उिास स्वर में बोला—क्या कहती
हो?
नईमा ने कहा-अच्छा इजाज़त िी है तो इनकार न करना। मझ
ु ें एक
बार कफर उन अच्छे दिनों की याि ताज़ा कर लेने िो जब मौत की कटार
नहीं, मुहब्बत के तीर जजगर को छे िा करते थे, एक बार कफर मुझे अपनी
मुहब्बत की बांहों में ले लो। मेरी आखख़री बबनती है , एक बार कफ़र अपने
हाथों को मेरी गिद न का हार बना िो। भल
ू जाओ कक मैंने तुम्हारे साथ िगा
की है , भल
ू जाओ कक यह जजस्म गन्िा और नापाक है, मझ
ु े मह
ु ब्बत से गले
लगा लो और यह मझ
ु े िे िो। तम्
ु हारे हाथों में यह अच्छी नहीं मालम
ू होती।
तुम्हारे हाथ मेरे ऊपर न उठें गे। िे खो कक एक कमजोर औरत ककस तरह
गैरत की कटार को अपने जजगर में रख लेती है।
यह कहकर नईमा ने है िर के कमजोर हाथों से वह िमकती हुई
तलवार छीन ली और उसके सीने से ललपट गयी। है िर खझझका लेककन वह
लसफ़द ऊपरी खझझक थी। अलभमान और प्रनतशोध-भावना की िीवार टूट गयी।
िोनों आललंगन पाश में बंध गए और िोनों की आंखें उमड़ आयीं।
नईमा के िेहरे पर एक सह
ु ानी, प्राणिानयनी मस्
ु कराहट दिखायी िी
और मतवाली आंखों में खश
ु ी की लाली झलकने लगी। बोली-आज कैसा
मब
ु ारक दिन है कक दिल की सब आरजए
ु ं परू ीि होती हैं लेककन यह कम्बख्त
आरजुएं कभी पूरी नहीं होतीं। इस सीने से ललपटकर मुहब्बत की शराब के
बगैर नहीं रहा जाता। तुमने मुझे ककतनी बार प्रेम के प्याले हैं। उस सुराही
और उस प्याले की याि नहीं भूलती। आज एक बार कफर उल्फत की शराब
के िौर िलने िो, मौत की शराब से पहले उल्फ़त की शराब पपला िो। एक
बार कफर मेरे हाथों से प्याला ले लो। मेरी तरफ़ उन्हीं प्यार की ननगाहों से
िं खकर, जो कभी आंखों से न उतरती थीं, पी जाओ। मरती हूं तो खुशी से
मरूं।
नईमा ने अगर सतीत्व खोकर सतीत्व का मल्
ू य जाना था, तो है िर ने
भी प्रेम खोकर प्रेम का मूल्य जाना था। उस पर इस समय एक मिहोशी
छायी हुई थी। लज्जा और यािना और झुका हुआ लसर, यह गुस्से और
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प्रनतशोध के जानी िश्कु मन हैं और एक गौरत के नाजक
ु हाथों में तो उनकी
काट तेज तलवार को मात कर िे ती है। अंगरू ी शराब के िौर िले और है िर
ने मस्त होकर प्याले पर प्याले खाली करने शरू
ु ककये। उसके जी में बार-
बार आता था कक नईमा के पैरों पर लसर रख िं ू और उस उजड़े हुए
आलशयाने को आिाब कर िं ।ू कफर मस्ती की कैकियत पैिा हुई और अपनी
बातों पर और अपने कामों पर उसे अजख्ययार न रहा। वह रोया, चगड़चगड़ाया,
लमन्नतें कीं, यहां तक कक उन िगा के प्यालों ने उसका लसर झक
ु ा दिया।
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लहमे में उसे मसल सकती हूं और अगर मैं ऐसा करूं तो तुम्हें मेरा
शुक्रगज़
ु ार होना िादहये क्योंकक एक मिद के ललए गैरत की मौत बेगरै ती की
जजन्िगी से अच्छी है। लेककन मैं तम्
ु हारे ऊपर रहम करूंगी: मैं तम्
ु हारे साथ
फ़ैयाजी का बतादव करूंगी क्योंकक तम
ु गैरत की मौत पाने के ह़िार नहीं
हो। जो गैरत िन्ि मीठी बातों और एक प्याला शराब के हाथों बबक जाय
वह असली गैरत नहीं है । है िर, तुम ककतने बेवकूफ़ हो, क्या तुम इतना भी
नहीं समझते कक जजस औरत ने अपनी अस्मत जैसी अनमोल िीज िे कर
यह ऐश ओर तकल्लफ़
ु पाया वह जजन्िा रहकर इन नेमतों का सख
ु जूटना
िाहती है। जब तुम सब कुछ खोकर जजन्िगी से तंग नहीं हो तो मैं कुछ
पाकर क्यों मौत की ख्वादहश करूं? अब रात बहुत कम रह गयी है । यहां से
जान लेकर भागो वनाद मेरी लसफ़ाररश भी तम्
ु हें नालसर के गस्
ु से की आग से
रन बिा सकेगी। तम्
ु हारी यह गैरत की कटार मेरे ़ब्जे में रहेगी और तम्
ु हें
याि दिलाती रहेगी कक तुमने इज्जत के साथ गैरत भी खो िी।
-‘जमाना’, जुलाई, १९९५
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घमण्ड का पुतला
शा म हो गयी थी। मैं सरयू निी के ककनारे अपने कैम्प में बैठा हुआ
निी के मजे ले रहा था कक मेरे फुटबाल ने िबे पांव पास आकर
मुझे सलाम ककया कक जैसे वह मुझसे कुछ कहना िाहता है ।
फुटबाल के नाम से जजस प्राणी का जजक्र ककया गया वह मेरा अिद ली
था। उसे लसफद एक नजर िे खने से य़ीन हो जाता था कक यह नाम उसके
ललए परू ी तरह उचित है । वह लसर से पैर तक आिमी की शकल में एक गें ि
था। लम्बाई-िौड़ाई बराबर। उसका भारी-भरकम पेट, जजसने उस िायरे के
बनाने में खास दहस्सा ललया था, एक लम्बे कमरबन्ि में ललपटा रहता था,
शायि इसललए कक वह इन्तहा से आगे न बढ़ जाए। जजस वक्त वह तेजी से
िलता था बजल्क यों कदहए जुढ़कता था तो साफ़ मालूम होता था कक कोई
फुटबाल ठोकर खाकर लुढ़कता िला आता है । मैंने उसकी तरफ िे खकर पछ
ू -
क्या कहते हो?
इस पर फुटबाल ने ऐसी रोनी सूरत बनायी कक जैसे कहीं से पपटकर
आया है और बोला-हुजूर, अभी तक यहां रसि का कोई इन्तजाम नहीं हुआ।
जमींिार साहब कहते हैं कक मैं ककसी का नौकर नहीं हूुँ।
में ने इस ननगाह से िे खा कक जैसे मैं और ज्यािा नहीं सन
ु ना िाहता।
यह असम्भव था कक मललस्रे ट की शान में जमींिार से ऐसी गुस्ताखी होती।
यह मेरे हाककमाना गुस्से को भड़काने की एक बितमीज़ कोलशश थी। मैंने
पूछा, ज़मीिार कौन है ?
ॉँ खखल गयीं, बोला-क्या कहूुँ, कंु अर सज्जनलसंह। हुजूर,
फुटबाल की ब छें
बड़ा ढीठ आिमी है। रात आयी है और अभी तक हुजरू के सलाम को भी
नहीं आया। घोड़ों के सामने न घास है न िाना। लश्ककर के सब आिमी भख
ू े
बैठे हुए हैं। लमट्टी का एक बतदन भी नहीं भेजा।
मझु े जमींिारों से रात-दिन साब़ा रहता था मगर यह लशकायत कभी
सुनने में नहीं आयी थी। इसके पवपरीत वह मेरी ख़ानतर-तवाजों में ऐसी
ॉँ
ज कफ़शानी से काम लेते थे जो उनके स्वालभमान के ललए ठीक न थी। उसमें
दिल खोलकर आनतथ्य-सत्कार करने का भाव तननक भी न होता था। न
उसमें लशष्टािार था, न वैभव का प्रिशदन जो ऐब है । इसके बजाय वह ॉँ बेजा
रसूख की कफ़क्र और स्वाथद की हवस साफ़ दिखायी िे ती भी और इस रसख
ू
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बनाने की कीमत काव्योचित अनतशयोजक्त के साथ गरीबों से वसूल की
जाती थी, जजनका बेकसी के लसवा और कोई हाथ पकड़ने वाला नहीं। उनके
बात करने के ढं ग में वह मल
ु ालमयत और आजजजी बरती जाती थी जजसका
स्वालभमान से बैर है और अक्सर ऐसे मौके आते थे, जब इन खानतरिाररयों
से तंग होकर दिल िाहता था कक काश इन खुशामिी आिलमयों की सरू त न
िे खनी पड़ती।
मगर आज फुटबाल की ज़बान से यह कैकफयत सुनकर मेरी जो हालत
हुई उसने साबबत कर दिया कक रोज-रोज की खानतरिाररयों और मीठी-मीठी
बातों ने मुझ पर असर ककये बबना नहीं छोड़ा था। मैं यह हुक्म िे नेवाला ही
था कक कंु अर सज्जनलसंह को हाजजर करो कक एकाएक मुझे खयाल आया कक
इन मफ़्
ु तखोर िपरालसयों के कहने पर एक प्रनतजष्ठत आिमी को अपमाननत
करना न्याय नहीं है । मैंने अिद ली से कहा-बननयों के पास जाओ, ऩि िाम
िे कर िीजें लाओ और याि रखो कक मेरे पास कोई लशकायत न आये।
अिद ली दिल में मुझे कोसता हुआ िला गया।
मगर मेरे आश्कियद की कोई सीमा न रही, जब वहां एक हफ्ते तक
रहने पर भी कंु अर साहब से मेरी भेंट न हुई। अपने आिलमयों और
लश्ककरवालों की ज़बान से कंु अर साहब की दढठाई, घमडड और हेकड़ी की
कहाननय ॉँ रोलु सुना करता। और मेरे िनु नया िे खे हुए पेशकार ने ऐसे
अनतचथ-सत्कार-शन्
ू य गांव में पड़ाव डालने के ललए मझ
ु े कई बार इशारों से
समझाने-बझ
ु ाने की कोलशश की। गाललबन मैं पहला आिमी था जजससे यह
भलू हुई थी और अगर मैंने जजले के नक्शे के बिले लश्ककरवालों से अपने
िौरे का प्रोग्राम बनाने में मिि ली होती तो शायि इस अपप्रय अनुभव की
नौबत न आती। लेककन कुछ अजब बात थी कक कंु अर साहब को बुरा-भला
कहना मुझ पर उल्टा असर डालता था। यह ॉँ तक कक मुझे उस अिमी से
मुलामात करने की इच्छा पैिा हुई जो सवदशजक्तमान ् आफ़सरों से इतना
ज्यािा अलग-थलग रह सकता है ।
२
सू बह का वक्त था, मैं गढ़ी में गढ़ी में गया। नीिे सरयू निी लहरें मार
रही थी। उस पार साखू का जंगल था। मीलों तक बािामी रे त, उस पर
ू और तरबूज़ की क्याररय ॉँ थीं। पीले-पीले फूलों-से लहराती हुई बगुलों
खरबज़
और मुगादबबयों के गोल-के-गोल बैठे हुए थे! सूयद िे वता ने जंगलों से लसर
30
ननकाला, लहरें जगमगायीं, पानी में तारे ननकले। बड़ा सुहाना, आजत्मक
उल्लास िे नेवाला दृश्कय था।
मैंने खबर करवायी और कंु अर साहब के िीवानखाने में िाखखल हुआ
लम्बा-िौड़ा कमरा था। फशद बबछा हुआ था। सामने मसनि पर एक बहुत
लम्बा-तड़ंगा आिमी बैठा था। सर के बाल मुड़े हुए, गले में रुद्राक्ष की माला,
लाल-लाल, ऊंिा माथा-पुरुर्ोचित अलभमान की इससे अच्छी तस्वीर नहीं हो
सकती। िेहरे से रोबिाब बरसता था।
कुअंर साहब ने मेरे सलाम को इस अन्िाज से ललया कक जैसे वह
इसके आिी हैं। मसनि से उठकर उन्होंने बहुत बड़प्पन के ढं ग से मेरी
अगवानी की, खैररयत पछ
ू ी, और इस तकलीफ़ के ललए मेरा शकु क्रया अिा
ररने के बाि इतर और पान से मेरी तवाजो की। तब वह मझ
ु े अपनी उस
गढ़ी की सैर कराने िले जजसने ककसी ज़माने में ज़रूरर आसफुद्िौला को
जज़ि ककया होगा मगर इस वक्त बहुत टूटी-फीटी हालत में थी। यहां के
एक-एक रोड़े पर कंु अर साहब को नाज़ था। उनके खानिानी बड़प्पन ओर
रोबिाब का जजक्र उनकी ज़बान से सुनकर पवश्कवास न करना असम्भव था।
बयान करने का ढं ग य़ीन को मजबरू करता था और वे उन कहाननयों के
लसफद पासबान ही न थे बजल्क वह उनके ईमान का दहस्सा थीं। और जहां
तक उनकी शजक्त में था, उन्होंने अपनी आन ननभाने में कभी कसर नहीं
की।
कंु अर सज्जनलसंह खानिानी रईस थे। उनकी वंश-परं परा यहां-वहां
टूटती हुई अन्त में ककसी महात्मा ऋपर् से जाकर लमल जाती थी। उन्हें
तपस्या और भजक्त और योग का कोई िावा न था लेककन इसका गवद उन्हें
अवश्कय था कक वे एक ऋपर् की सन्तान हैं। पुरखों के जंगली कारनामे भी
उनके ललए गवद का कुछ कम कारण न थे। इनतहास में उनका कहीं जजक्र न
हो मगकर खानिानी भाट ने उन्हें अमर बनाने में कोई कसर न रखी थी
और अगर शब्िों में कुछ ताकत है तो यह गढ़ी रोहतास या काललंजर के
ककलों से आगे बढ़ी हुई थी। कम-से-कम प्रािीनता और बबादिी के बाह्म
लक्षणों में तो उसकी लमसाल मजु श्ककल से लमल सकती थी, क्योंकक परु ाने
जमाने में िाहे उसने मह
ु ासरों और सरु ं गों को हे ि समझा हो लेककन वक्त
वह िीदटयों और िीमकों के हमलों का भी सामना न कर सकती थी।
31
कंु अर सज्जनलसंह से मेरी भें ट बहुत संक्षक्षप्त थी लेककन इस दिलिस्प
आिमी ने मुझे हमेशा के ललए अपना भक्त बना ललया। बड़ा समझिार,
मामले को समझनेवाला, िरू िशी आिमी था। आखखर मझ
ु े उसका बबन पैसों
का गल
ु ाम बनना था।
ब
३
रसात में सरयू निी इस जोर-शोर से िढ़ी कक हज़ारों गांव बरबाि हो
गए, बड़े-बड़े तनावर िरख़् नतनकों की तरह बहते िले जाते थे।
िारपाइयों पर सोते हुए बच्िे-औरतें , खूंटों पर बंधे हुए गाय और बैल उसकी
गरजती हुई लहरों में समा गए। खेतों में नाि िलती थी।
शहर में उड़ती हुई खबरें पहुंिीं। सहायता के प्रस्ताव पास हुए। सैकड़ों
ने सहानभ
ु नू त और शौक के अरजेडट तार जजल के बड़े साहब की सेवा में
भेजे। टाउनहाल में ़ौमी हमििी की परु शोर सिाएं उठीं और उस हं गामे में
बाढ़-पीडड़तों की ििद भरी पुकारें िब गयीं।
सरकार के कानों में फररयाि पहुुँिी। एक जांि कमीशन तेयार ककया
गया। जमींिारों को हुक्म हुआ कक वे कमीशन के सामने अपने नक
ु सानों को
पवस्तार से बतायें और उसके सबूत िें । लशवरामपुर के महाराजा साहब को
इस कमीशन का सभापनत बनाया गया। जमींिारों में रे ल-पेल शरू हुई।
नसीब जागे। नुकसान के तखमीन का फैलला करने में काव्य-बुद्चध से काम
लेना पड़ा। सब
ु ह से शाम तक कमीशन के सामने एक जमघट रहता।
आनरे बल
ु महाराजा सहब को सांस लेने की फुरसत न थी िलील और शाहित
का काम बात बनाने और खश
ु ामि से ललया जाता था। महीनों यही कैकफ़यत
रही। निी ककनारे के सभी जमींिार अपने नुकसान की फररयािें पेश कर गए,
अगर कमीशन से ककसी को कोई फायिा नहीं पहुुँिा तो वह कंु अर
सज्जनलसहं थे। उनके सारे मौजे सरयू के ककनारे पर थे और सब तबाह हो
गए थे, गढ़ी की िीवारें भी उसके हमलों से न बि सकी थीं, मगर उनकी
जबान ने खश
ु ामि करना सीखा ही न था और यहां उसके बगैर रसाई
मुजश्ककल थी। िुनांिे वह कमीशन के सामने न आ सके। लमयाि खतम होने
पर कमीशन ने ररपोटद पेश की, बाढ़ में डूबे हुए इलाकों में लगान की आम
माफी हो गयी। ररपोटद के मत
ु ाबबक लसफद सज्जनलसंह वह भाग्यशाली जमींिार
थे। जजनका कोई नक
ु सान नहीं हुआ था। कंु अर साहब ने ररपोटद सुनी, मगर
माथे पर बल न आया। उनके आसामी गढ़ी के सहन में जमा थे, यह हुक्म
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सुना तो रोने-धोने लगे। तब कंु अर साहब उठे और बुलन्ि आवाजु में बोले-
मेरे इलाके में भी माफी है। एक कौड़ी लगान न ललया जाए। मैंने यह वाकया
सन
ु ा और खि
ु ब खि
ु मेरी आंखों से आंसू टपक पड़े बेशक यह वह आिमी
है जो हुकूमत और अजख्तयार के तफ
ू ान में जड़ से उखड़ जाय मगर झक
ु े गा
नहीं।
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मैं अपना िौरा करके सिर लौटता था। रास्ते में कंु अर सज्जनलसंह से
लमलने का िाव मुझे उनके घर तक ले गया, जहां अब मैं बड़ी बेतकल्लुफी
से जाता-आता था।
मैं शाम के वक्त निी की सैर को िला। वह प्राणिानयनी हवा, वह
उड़ती हुई लहरें , वह गहरी ननस्तबधता-सारा दृश्कय एक आकर्दक सुहाना
सपना था। िांि के िमकते हुए गीत से जजस तरह लहरें झूम रही थीं, उसी
तरह मीठी चिन्ताओं से दिल उमड़ा आता था।
मुझे ऊंिे कगार पर एक पेड़ के नीिे कुछ रोशनी दिखायी िी। मैं
ऊपर िढ़ा। वहां बरगि की घनी छाया में धूनी जल रही थी। उसके सामने
एक साधू पैर फैलाये बरगि की एक मोटी जटा के सहारे लेटे हुए थे। उनका
िमकता हुआ िेहरा आग की िमक को लजाता था। नीले तालाब में कमल
खखला हुआ था।
उनके पैरों के पास एक िसू रा आिमी बैठा हुआ था। उसकी पीठ मेरी
तरफ थी। वह उस साधू के पेरों पर अपना लसर रखे हुए था। पैरों को िूमता
था और आंखों से लगता था। साधू अपने िोनों हाथ उसके लसर पर रखे हुए
थे कक जैसे वासना धैयद और संतोर् के आंिल में आिय ढूंढ़ रही हो। भोला
लड़का मां-बाप की गोि में आ बैठा था।
एकाएक वह झक ु ा हुआ सर उठा और मेरी ननगाह उसके िेहरे पर
पड़ी। मझ
ु े सकता-सा हो गया। यह कंु अर सज्जनलसंह थे। वह सर जो झक
ु ना
न जानता था, इस वक्त जमीन छू रहा था।
वह माथा जो एक ऊंिे मंसबिार के सामने न झक
ु ा, जो एक प्रतानी
वैभवशाली महाराज के सामने न झक
ु ा, जो एक बड़े िे शप्रेमी कपव और
िाशदननक के सामने न झूका, इस वक्त एक साधु के ़िमों पर चगरा हुआ
था। घमडड, वैराग्य के सामने लसर झक
ु ाये खड़ा था।
मेरे दिल में इस दृश्कय से भजक्त का एक आवेग पैिा हुआ। आंखों के
सामने से एक परिा-सा हटा और कंु अर सज्जन लसंह का आजत्मक स्तर
दिखायी दिया। मैं कंु अर साहब की तरफ से ललपट गया और बोला-मेरे
िोस्त, मैं आज तक तम्
ु हारी आत्मा के बड़प्पन से बबल्कुल बेखबर था। आज
तम
ु ने मेरे हुिय पर उसको अंककत कर दिया कक वैभव और प्रताप, कमाल
और शोहरत यह सब घदटया िीजें हैं, भौनतक िीजें हैं। वासनाओ में ललपटे
हुए लोग इस योग्य नहीं कक हम उनके सामने भजक्त से लसर झुकायें,
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वैराग्य और परमात्मा से दिल लगाना ही वे महान ् गण
ु हैं जजनकी ड्यौढ़ी पर
बड़े-बड़े वैभवशाली और प्रतापी लोगों के लसर भी झक
ु जाते हैं। यही वह
ता़त है जो वैभव और प्रताप को, घमडड की शराब के मतवालों को और
जड़ाऊ मक
ु ु ट को अपने पैरों पर चगरा सकती है। ऐ तपस्या के एकान्त में
बैठनेवाली आत्माओ! तुम धन्य हो कक घमडड के पत
ु ले भी पैरों की धूल को
माथे पर िढ़ाते हैं।
कंु अर सज्जनलसंह ने मुझे छाती से लगाकर कहा-लमस्टर वागले, आज
आपने मुझे सच्िे गवद का रूप दिखा दिया और में कह सकता हूुँ कक सच्िा
गवद सच्िी प्राथदना से कम नहीं। पवश्कवास माननये मुझे इस वक्त ऐसा मालम
ू
होता है कक गवद में भी आजत्मकता को पाया जा सकता है । आज मेरे लसर में
गवद का जो नशा है, वह कभी नहीं था।
-‘ज़माना’, अगस्त, १९९६
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