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प्रेमचंद

1
कथा-क्रम

आत्माराम : 1
दर्
ु ाा का मंददर : 11
बड़ें घर की बेटी : 22
पंच- परमेश्वर : 31
शंखनाद : 43
नार् पज
ू ा : 49

2
आत्माराम

वेदों-ग्राम म़ें महादे व सोनार एक सवु वख्यात आदमी था। वह अपने


सायबान म़ें प्रात: से संध्या तक अँर्ीठी के सामने बैठा हुआ खटखट ककया
करता था। यह लर्ातार ध्वनन सुनने के लोर् इतने अभ्यस्त हो र्ये थे कक
जब ककसी कारण से वह बंद हो जाती, तो जान पडता था, कोई चीज र्ायब
हो र्यी। वह ननत्य-प्रनत एक बार प्रात:काल अपने तोते का वपंजडा ललए कोई
भजन र्ाता हुआ तालाब की ओर जाता था। उस धँधले प्रकाश म़ें उसका
जजार शरीर, पोपला मुँह और झुकी हुई कमर दे खकर ककसी अपररचचत
मनष्ु य को उसके वपशाच होने का भ्रम हो सकता था। ज्यों ही लोर्ों के
कानों म़ें आवाज आती—‘सत्त र्रु
ु दत्त लशवदत्त दाता,’ लोर् समझ जाते कक
भोर हो र्यी।
महादे व का पाररवाररक जीवन सख
ू मय न था। उसके तीन पुत्र थे, तीन
बहुऍ ं थीं, दजानों नाती-पाते थे, लेककन उसके बोझ को हल्का करने-वाला कोई
न था। लडके कहते—‘तब तक दादा जीते हैं, हम जीवन का आनंद भोर् ले,
किर तो यह ढोल र्ले पडेर्ी ही।’ बेचारे महादे व को कभी-कभी ननराहार ही
रहना पडता। भोजन के समय उसके घर म़ें साम्यवाद का ऐसा र्र्नभेदी
ननघोष होता कक वह भखू ा ही उठ आता, और नाररयल का हुक्का पीता हुआ
सो जाता। उनका व्यापसानयक जीवन और भी आशांनतकारक था। यद्यवप
वह अपने काम म़ें ननपण
ु था, उसकी खटाई औरों से कहीं ज्यादा
शुद्चधकारक और उसकी रासयननक कियाऍ ं कहीं ज्यादा कष्टसाध्य थीं,
तथावप उसे आये ददन शक्की और धैया-शून्य प्राणणयों के अपशब्द सुनने
पडते थे, पर महादे व अववचचललत र्ाम्भीया से लसर झक
ु ाये सब कुछ सुना
करता था। ज्यों ही यह कलह शांत होता, वह अपने तोते की ओर दे खकर
पुकार उठता—‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्तदाता।’ इस मंत्र को जपते ही उसके चचत्त
को पण
ू ा शांनत प्राप्त हो जाती थी।

एक ददन संयोर्वश ककसी लडके ने वपंजडे का द्वार खोल ददया। तोता
उड र्या। महादे व ने लसह उठाकर जो वपंजडे की ओर दे खा, तो उसका
कलेजा सन्न-से हो र्या। तोता कह ॉँ र्या। उसने किर वपंजडे को दे खा, तोता
र्ायब था। महादे व घबडा कर उठा और इधर-उधर खपरै लों पर ननर्ाह दौडाने

3
लर्ा। उसे संसार म़ें कोई वस्तु अर्र प्यारी थी, तो वह यही तोता। लडके-
बालों, नाती-पोतों से उसका जी भर र्या था। लडको की चुलबल
ु से उसके
काम म़ें ववघ्न पडता था। बेटों से उसे प्रेम न था; इसललए नहीं कक वे
ननकम्मे थे; बल्ल्क इसललए कक उनके कारण वह अपने आनंददायी कुल्हडों
की ननयलमत संख्या से वंचचत रह जाता था। पडोलसयों से उसे चचढ़ थी,
इसललए कक वे अँर्ीठी से आर् ननकाल ले जाते थे। इन समस्त ववघ्न-
बाधाओं से उसके ललए कोई पनाह थी, तो यही तोता था। इससे उसे ककसी
प्रकार का कष्ट न होता था। वह अब उस अवस्था म़ें था जब मनुष्य को
शांनत भोर् के लसवा और कोई इच्छा नहीं रहती।
तोता एक खपरै ल पर बैठा था। महादे व ने वपंजरा उतार ललया और
उसे ददखाकर कहने लर्ा—‘आ आ’ सत्त र्ुरुदत्त लशवदाता।’ लेककन र् वॉँ और
घर के लडके एकत्र हो कर चचल्लाने और ताललय ॉँ बजाने लर्े। ऊपर से
ॉँ
कौओं ने क व-क वॉँ की रट लर्ायी? तोता उडा और र् वॉँ से बाहर ननकल कर
एक पेड पर जा बैठा। महादे व खाली वपंजडा ललये उसके पीछे दौडा, सो दौडा।
लोर्ो को उसकी द्रनु तर्ालमता पर अचम्भा हो रहा था। मोह की इससे सुन्दर,
इससे सजीव, इससे भावमय कल्पना नहीं की जा सकती।
दोपहर हो र्यी थी। ककसान लोर् खेतों से चले आ रहे थे। उन्ह़ें
ववनोद का अच्छा अवसर लमला। महादे व को चचढ़ाने म़ें सभी को मजा आता
था। ककसी ने कंकड ि़ेंके, ककसी ने ताललय ॉँ बजायीं। तोता किर उडा और
वहाँ से दरू आम के बार् म़ें एक पेड की िुनर्ी पर जा बैठा । महादे व किर
ॉँ उचकता चला। बार् म़ें पहुँचा तो पैर के
खाली वपंजडा ललये म़ें ढक की भ नत
तलओ
ु ं से आर् ननकल रही थी, लसर चक्कर खा रहा था। जब जरा सावधान
हुआ, तो किर वपंजडा उठा कर कहने लर्े—‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त दाता’ तोता
िुनर्ी से उतर कर नीचे की एक डाल पी आ बैठा, ककन्तु महादे व की ओर
सशंक नेत्रों से ताक रहा था। महादे व ने समझा, डर रहा है। वह वपंजडे को
छोड कर आप एक दस
ू रे पेड की आड म़ें नछप र्या। तोते ने चारों ओर र्ौर
से दे खा, ननश्शंक हो र्या, अतरा और आ कर वपंजडे के ऊपर बैठ र्या।
महादे व का हृदय उछलने लर्ा। ‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त दाता’ का मंत्र जपता
हुआ धीरे -धीरे तोते के समीप आया और लपका कक तोते को पकड ल़ें , ककन्तु
तोता हाथ न आया, किर पेड पर आ बैठा।

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शाम तक यही हाल रहा। तोता कभी इस डाल पर जाता, कभी उस
डाल पर। कभी वपंजडे पर आ बैठता, कभी वपंजडे के द्वार पर बैठे अपने
दाना-पानी की प्याललयों को दे खता, और किर उड जाता। बुड्ढा अर्र
मनू तामान मोह था, तो तोता मनू तामयी माया। यह ॉँ तक कक शाम हो र्यी।
माया और मोह का यह संग्राम अंधकार म़ें ववलीन हो र्या।

रात हो र्यी ! चारों ओर ननबबड अंधकार छा र्या। तोता न जाने पत्तों
म़ें कह ॉँ नछपा बैठा था। महादे व जानता था कक रात को तोता कही उडकर
नहीं जा सकता, और न वपंजडे ही म़ें आ सकता हैं, किर भी वह उस जर्ह
से दहलने का नाम न लेता था। आज उसने ददन भर कुछ नहीं खाया। रात
के भोजन का समय भी ननकल र्या, पानी की बूँद भी उसके कंठ म़ें न
र्यी, लेककन उसे न भूख थी, न प्यास ! तोते के बबना उसे अपना जीवन
ननस्सार, शष्ु क और सन
ू ा जान पडता था। वह ददन-रात काम करता था;
इसललए कक यह उसकी अंत:प्रेरणा थी; जीवन के और काम इसललए करता
था कक आदत थी। इन कामों मे उसे अपनी सजीवता का लेश-मात्र भी ज्ञान
न होता था। तोता ही वह वस्तु था, जो उसे चेतना की याद ददलाता था।
उसका हाथ से जाना जीव का दे ह-त्यार् करना था।
ॉँ
महादे व ददन-भर का भूख-प्यासा, थका-म दा, रह-रह कर झपककय ॉँ ले
लेता था; ककन्तु एक क्षण म़ें किर चौंक कर ऑ ंखे खोल दे ता और उस
ववस्तत
ृ अंधकार म़ें उसकी आवाज सुनायी दे ती—‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त दाता।’
आधी रात र्ज
ु र र्यी थी। सहसा वह कोई आहट पा कर चौका। दे खा,
एक दस
ू रे वक्ष
ृ के नीचे एक धँध
ु ला दीपक जल रहा है , और कई आदमी बैंठे
हुए आपस म़ें कुछ बात़ें कर रहे हैं। वे सब चचलम पी रहे थे। तमाखू की
महक ने उसे अधीर कर ददया। उच्च स्वर से बोला—‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त
दाता’ और उन आदलमयों की ओर चचलम पीने चला र्या; ककन्तु ल्जस
प्रकार बंदक
ू की आवाज सुनते ही दहरन भार् जाते हैं उसी प्रकार उसे आते
दे ख सब-के-सब उठ कर भार्े। कोई इधर र्या, कोई उधर। महादे व चचल्लाने
लर्ा—‘ठहरो-ठहरो !’ एकाएक उसे ध्यान आ र्या, ये सब चोर हैं। वह जारे
से चचल्ला उठा—‘चोर-चोर, पकडो-पकडो !’ चोरों ने पीछे किर कर न दे खा।
महादे व दीपक के पास र्या, तो उसे एक मलसा रखा हुआ लमला जो
मोचे से काला हो रहा था। महादे व का हृदय उछलने लर्ा। उसने कलसे मे

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हाथ डाला, तो मोहऱें थीं। उसने एक मोहरे बाहर ननकाली और दीपक के
उजाले म़ें दे खा। ह ॉँ मोहर थी। उसने तुरंत कलसा उठा ललया, और दीपक
बुझा ददया और पेड के नीचे नछप कर बैठ रहा। साह से चोर बन र्या।
उसे किर शंका हुई, ऐसा न हो, चोर लौट आव़ें , और मझ ु े अकेला दे ख
ॉँ
कर मोहऱें छीन ल़ें। उसने कुछ मोहर कमर म़ें ब धी, किर एक सख ू ी लकडी
से जमीन की की लमटटी हटा कर कई र्ड्ढे बनाये, उन्ह़ें माहरों से भर कर
लमटटी से ढँ क ददया।

महादे व के अतनेत्रों के सामने अब एक दस
ू रा जर्त ् था, चचंताओं और
कल्पना से पररपण
ू ।ा यद्यवप अभी कोष के हाथ से ननकल जाने का भय था;
पर अलभलाषाओं ने अपना काम शुरु कर ददया। एक पक्का मकान बन र्या,
सरािे की एक भारी दक
ू ान खुल र्यी, ननज सम्बल्न्धयों से किर नाता जुड
र्या, ववलास की सामचग्रय ॉँ एकबत्रत हो र्यीं। तब तीथा-यात्रा करने चले, और
वह ॉँ से लौट कर बडे समारोह से यज्ञ, ब्रह्मभोज हुआ। इसके पश्चात एक
लशवालय और कुऑ ं बन र्या, एक बार् भी लर् र्या और वह ननत्यप्रनत
कथा-पुराण सुनने लर्ा। साधु-सन्तों का आदर-सत्कार होने लर्ा।
अकस्मात उसे ध्यान आया, कहीं चोर आ जायँ , तो मैं भार्ँर्
ू ा क्यों-
कर? उसने परीक्षा करने के ललए कलसा उठाया। और दो सौ पर् तक
बेतहाशा भार्ा हुआ चला र्या। जान पडता था, उसके पैरो म़ें पर लर् र्ये
हैं। चचंता शांत हो र्यी। इन्हीं कल्पनाओं म़ें रात व्यतीत हो र्यी। उषा का
आर्मन हुआ, हवा जार्ी, चचडडय ॉँ र्ाने लर्ीं। सहसा महादे व के कानों म़ें
आवाज आयी—
‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त दाता,
राम के चरण म़ें चचत्त लर्ा।’
यह बोल सदै व महादे व की ल्जह्वा पर रहता था। ददन म़ें सहस्रों ही
बार ये शब्द उसके मुँह से ननकलते थे, पर उनका धालमाक भाव कभी भी
उसके अन्त:कारण को स्पशा न करता था। जैसे ककसी बाजे से रार् ननकलता
हैं, उसी प्रकार उसके मुँह से यह बोल ननकलता था। ननरथाक और प्रभाव-
शन्
ू य। तब उसका हृदय-रुपी वक्ष
ृ पत्र-पल्लव ववहीन था। यह ननमाल वायु उसे
र्ंज
ु ररत न कर सकती थी; पर अब उस वक्ष
ृ म़ें कोपल़ें और शाखाऍ ं ननकल
आयी थीं। इन वायु-प्रवाह से झम
ू उठा, र्ंल्ु जत हो र्या।

6
अरुणोदय का समय था। प्रकृनत एक अनुरार्मय प्रकाश म़ें डूबी हुई
थी। उसी समय तोता पैरों को जोडे हुए ऊँची डाल से उतरा, जैसे आकाश से
कोई तारा टूटे और आ कर वपंजडे म़ें बैठ र्या। महादे व प्रिुल्ल्लत हो कर
दौडा और वपंजडे को उठा कर बोला—आओ आत्माराम तम ु ने कष्ट तो बहुत
ददया, पर मेरा जीवन भी सिल कर ददया। अब तम् ॉँ के वपंजडे म़ें
ु ह़ें च दी
रखर्
ंू ा और सोने से मढ़ दँ र्
ू ा।’ उसके रोम-रोम के परमात्मा के र्ण
ु ानव
ु ाद
की ध्वनन ननकलने लर्ी। प्रभु तुम ककतने दयावान ् हो ! यह तम्
ु हारा असीम
वात्सल्य है , नहीं तो मुझ पापी, पनतत प्राणी कब इस कृपा के योग्य था !
इस पववत्र भावों से आत्मा ववन्हल हो र्यी ! वह अनुरक्त हो कर कह
उठा—
‘सत्त र्ुरुदत्त लशवदत्त दाता,
राम के चरण म़ें चचत्त लार्ा।’

उसने एक हाथ म़ें वपंजडा लटकाया, बर्ल म़ें कलसा दबाया और घर


चला।

महादे व घर पहुँचा, तो अभी कुछ अँधेरा था। रास्ते म़ें एक कुत्ते के
लसवा और ककसी से भ़ें ट न हुई, और कुत्ते को मोहरों से ववशेष प्रेम नहीं
होता। उसने कलसे को एक नाद म़ें नछपा ददया, और कोयले से अच्छी तरह
ढँ क कर अपनी कोठरी म़ें रख आया। जब ददन ननकल आया तो वह सीधे
पुरादहत के घर पहुँचा। परु ोदहत पज
ू ा पर बैठे सोच रहे थे—कल ही मक
ु दम़ें
की पेशी हैं और अभी तक हाथ म़ें कौडी भी नहीं—यजमानो म़ें कोई स स ॉँ
भी लेता। इतने म़ें महादे व ने पालार्न की। पंडडत जी ने मह
ँु िेर ललया। यह
अमंर्लमूनता कह ॉँ से आ पहुँची, मालमू नहीं, दाना भी मयस्सर होर्ा या
नहीं। रुष्ट हो कर पछू ा—क्या है जी, क्या कहते हो। जानते नहीं, हम इस
समय पूजा पर रहते हैं।
महादे व ने कहा—महाराज, आज मेरे यह ॉँ सत्यनाराण की कथा है ।
पुरोदहत जी ववल्स्मत हो र्ये। कानों पर ववश्वास न हुआ। महादे व
के घर कथा का होना उतनी ही असाधारण घटना थी, ल्जतनी अपने घर से
ककसी लभखारी के ललए भीख ननकालना। पछ
ू ा—आज क्या है ?

7
महादे व बोला—कुछ नहीं, ऐसा इच्छा हुई कक आज भर्वान की कथा
सुन लँ ।ू
ॉँ म़ें सूपारी
प्रभात ही से तैयारी होने लर्ी। वेदों के ननकटवती र् वो
किरी। कथा के उपरांत भोज का भी नेवता था। जो सन
ु ता आश्चया करता
आज रे त म़ें दब
ू कैसे जमी।
संध्या समय जब सब लोर् जमा हो, और पंडडत जी अपने लसंहासन
पर ववराजमान हुए, तो महादे व खडा होकर उच्च स्वर म़ें बोला—भाइयों मेरी
सारी उम्र छल-कपट म़ें कट र्यी। मैंने न जाने ककतने आदलमयों को दर्ा
दी, ककतने खरे को खोटा ककया; पर अब भर्वान ने मुझ पर दया की है , वह
मेरे मुँह की काललख को लमटाना चाहते हैं। मैं आप सब भाइयों से ललकार
कर कहता हूँ कक ल्जसका मेरे ल्जम्मे जो कुछ ननकलता हो, ल्जसकी जमा
मैंने मार ली हो, ल्जसके चोखे माल का खोटा कर ददया हो, वह आकर
ु ा ले, अर्र कोई यह ॉँ न आ सका हो, तो आप लोर्
अपनी एक-एक कौडी चक
उससे जाकर कह दील्जए, कल से एक महीने तक, जब जी चाहे , आये और
अपना दहसाब चुकता कर ले। र्वाही-साखी का काम नहीं।
सब लोर् सन्नाटे म़ें आ र्ये। कोई मालमाक भाव से लसर दहला कर
बोला—हम कहते न थे। ककसी ने अववश्वास से कहा—क्या खा कर भरे र्ा,
हजारों को टोटल हो जायर्ा।
एक ठाकुर ने ठठोली की—और जो लोर् सरु धाम चले र्ये।
महादे व ने उत्तर ददया—उसके घर वाले तो होंर्े।
ककन्तु इस समय लोर्ों को वसल
ू ी की इतनी इच्छा न थी, ल्जतनी यह
जानने की कक इसे इतना धन लमल कह ॉँ से र्या। ककसी को महादे व के पास
आने का साहस न हुआ। दे हात के आदमी थे, र्डे मुदे उखाडना क्या जाऩें।
किर प्राय: लोर्ों को याद भी न था कक उन्ह़ें महादे व से क्या पाना हैं , और
ऐसे पववत्र अवसर पर भूल-चूक हो जाने का भय उनका मुँह बन्द ककये हुए
था। सबसे बडी बात यह थी कक महादे व की साधुता ने उन्हीं वशीभूत कर
ललया था।
अचानक पुरोदहत जी बोले—तुम्ह़ें याद हैं, मैंने एक कंठा बनाने के
ललए सोना ददया था, तम
ु ने कई माशे तौल म़ें उडा ददये थे।
महादे व—ह ,ॉँ याद हैं, आपका ककतना नक
ु सान हुआ होर्।
परु ोदहत—पचास रुपये से कम न होर्ा।

8
महादे व ने कमर से दो मोहऱें ननकालीं और पुरोदहत जी के सामने रख
दीं।
पुरोदहतजी की लोलुपता पर टीकाऍ ं होने लर्ीं। यह बेईमानी हैं, बहुत
हो, तो दो-चार रुपये का नकु सान हुआ होर्ा। बेचारे से पचास रुपये ऐंठ
ललए। नारायण का भी डर नहीं। बनने को पंडडत, पर ननयत ऐसी खराब
राम-राम !
लोर्ों को महादे व पर एक श्रद्धा-सी हो र्ई। एक घंटा बीत र्या पर
ॉँ
उन सहस्रों मनुष्यों म़ें से एक भी खडा न हुआ। तब महादे व ने किर कह —
मालूम होता है , आप लोर् अपना-अपना दहसाब भल ू र्ये हैं, इसललए आज
कथा होने दील्जए। मैं एक महीने तक आपकी राह दे खर्
ूँ ा। इसके पीछे तीथा
यात्रा करने चला जाऊँर्ा। आप सब भाइयों से मेरी ववनती है कक आप मेरा
उद्धार कऱें ।
एक महीने तक महादे व लेनदारों की राह दे खता रहा। रात को चोंरो के
भय से नींद न आती। अब वह कोई काम न करता। शराब का चसका भी
छूटा। साध-ु अभ्यार्त जो द्वार पर आ जाते, उनका यथायोग्य सत्कार
करता। दरू -दरू उसका सुयश िैल र्या। यह ॉँ तक कक महीना पूरा हो र्या
और एक आदमी भी दहसाब लेने न आया। अब महादे व को ज्ञान हुआ कक
संसार म़ें ककतना धमा, ककतना सद्व्यवहार हैं। अब उसे मालूम हुआ कक
संसार बुरों के ललए बरु ा हैं और अच्छे के ललए अच्छा।

इस घटना को हुए पचास वषा बीत चक ु े हैं। आप वेदों जाइये, तो दरू
ही से एक सनु हला कलस ददखायी दे ता है । वह ठाकुरद्वारे का कलस है ।
उससे लमला हुआ एक पक्का तालाब हैं, ल्जसम़ें खूब कमल णखले रहते हैं।
उसकी मछललय ॉँ कोई नहीं पकडता; तालाब के ककनारे एक ववशाल समाचध
है । यही आत्माराम का स्मनृ त-चचन्ह है , उसके सम्बन्ध म़ें ववलभन्न
ककंवदं नतय ॉँ प्रचललत है । कोई कहता हैं, वह रत्नजदटत वपंजडा स्वर्ा को
चला र्या, कोई कहता, वह ‘सत्त र्ुरुदत्त’ कहता हुआ अंतध्याान हो र्या, पर
यथााथ यह हैं कक उस पक्षी-रुपी चंद्र को ककसी बबल्ली-रुपी राहु ने ग्रस
ललया। लोर् कहते हैं, आधी रात को अभी तक तालाब के ककनारे आवाज
आती है—
‘सत्त र्रु
ु दत्त लशवदत्त दाता,

9
राम के चरण म़ें चचत्त लार्ा।’
महादे व के ववषय म़ें भी ककतनी ही जन-श्रुनतय ॉँ है । उनम़ें सबसे मान्य
यह है कक आत्माराम के समाचधस्थ होने के बाद वह कई संन्यालसयों के
साथ दहमालय चला र्या, और वह ॉँ से लौट कर न आया। उसका नाम
आत्माराम प्रलसद्ध हो र्या।

10
दर्
ु ाा का मन्ददर

बाबू ब्रजनाथ कानन


ू पढ़ने म़ें मग्न थे, और उनके दोनों बच्चे लडाई
करने म़ें । श्यामा चचल्लाती, कक मुन्नू मेरी र्ुडडया नहीं दे ता। मुन्नु रोता था
कक श्यामा ने मेरी लमठाई खा ली।
ब्रजनाथ ने िुद्घ हो कर भामा से कहा—तुम इन दष्ु टों को यह ॉँ से
हटाती हो कक नहीं? नहीं तो मैं एक-एक की खबर लेता हूँ।
भामा चूल्ह़ें म़ें आर् जला रही थी, बोली—अरे तो अब क्या संध्या को
भी पढ़तेही रहोर्े? जरा दम तो ले लो।
ब्रज०--उठा तो न जाएर्ा; बैठी-बैठी वहीं से कानन
ू बघारोर्ी ! अभी
एक-आध को पटक दं र् ू ा, तो वहीं से र्रजती हुई आओर्ी कक हाय-हाय !
बच्चे को मार डाला !
भामा—तो मैं कुछ बैठी या सोयी तो नहीं हूँ। जरा एक घडी तुम्हीं
लडको को बहलाओर्े, तो क्या होर्ा ! कुछ मैंने ही तो उनकी नौकरी नहीं
ललखायी!
ब्रजनाथ से कोई जवाब न दे ते बन पडा। िोध पानी के समान बहाव
का मार्ा न पा कर और भी प्रबल हो जाता है । यद्यवप ब्रजनाथ नैनतक
लसद्धांतों के ज्ञाता थे; पर उनके पालन म़ें इस समय कुशल न ददखायी दी।
मद्
ु दई और मद् ॉँ
ु दालेह, दोनों को एक ही लाठी ह का, और दोनों को रोते-
चचल्लाते छोड कानून का ग्रंथ बर्ल म़ें दबा कालेज-पाका की राह ली।

सावन का महीना था। आज कई ददन के बाद बादल हटे थे। हरे -भरे
वक्ष
ृ सुनहरी चादर ओढ़े खडे थे। मद
ृ ु समीर सावन का रार् र्ाता था, और
बर्ुले डाललयों पर बैठे दहंडोले झूल रहे थे। ब्रजनाथ एक ब़ेंच पर आ बैठे और
ककताब खोली। लेककन इस ग्रंथ को अपेक्षा प्रकृनत-ग्रंथ का अवलोकन अचधक
चचत्ताकषाक था। कभी आसमान को पढ़ते थे, कभी पवत्तयों को, कभी छववमयी
हररयाली को और कभी सामने मैदान म़ें खेलते हुए लडकों को।
एकाएक उन्ह़ें सामने घास पर कार्ज की एक पडु डया ददखायी दी।
माया ने ल्जज्ञासा की—आड म़ें चलो, दे ख़ें इसम़ें क्या है।
बुद्चध ने कहा—तुमसे मतलब? पडी रहने दो।

11
लेककन ल्जज्ञासा-रुपी माया की जीत हुई। ब्रजनाथ ने उठ कर पुडडया
उठा ली। कदाचचत ् ककसी के पैसे पडु डया म़ें ललपटे चर्र पडे हैं। खोल कर
दे खा; सावरे न थे। चर्ना, पुरे आठ ननकले। कुतूहल की सीमा न रही।
ब्रजनाथ की छाती धडकने लर्ी। आठों सावरे न हाथ म़ें ललये सोचने
लर्े, इन्ह़ें क्या करुँ ? अर्र यहीं रख दँ ,ू तो न जाने ककसकी नजर पडे; न
ू कौन उठा ले जाय ! नहीं यह ॉँ रखना उचचत नहीं। चलँ ू थाने म़ें इत्तला
मालम
कर दँ ू और ये सावरे न थानेदार को सौंप दँ ।ू ल्जसके होंर्े वह आप ले जायर्ा
या अर्र उसको न भी लमल़ें , तो मुझ पर कोई दोष न रहेर्ा, मैं तो अपने
उत्तरदानयत्व से मुक्त हो जाऊँर्ा।
माया ने परदे की आड से मंत्र मारना शुरु ककया। वह थाने नहीं र्ये,
सोचा—चलूं भामा से एक ददल्लर्ी करुँ । भोजन तैयार होर्ा। कल इतमीनान
से थाने जाऊँर्ा।
भामा ने सावरे न दे खे, तो हृदय मे एक र्द
ु र्द
ु ी-सी हुई। पछ
ू ा ककसकी
है ?
ब्रज०--मेरी।
भामा—चलो, कहीं हो न !
ब्रज०—पडी लमली है ।
भामा—झूठ बात। ऐसे ही भाग्य के बली हो, तो सच बताओ कह ॉँ
लमली? ककसकी है ?
ब्रज०—सच कहता हूँ, पडी लमली है।
भामा—मेरी कसम?
ब्रज०—तम्
ु हारी कसम।
भामा चर्न्नयों को पनत के हाथ से छीनने की चेष्टा करने लर्ी।
ब्रजनाथ के कहा—क्यों छीनती हो?
भामा—लाओ, मैं अपने पास रख लँ ू।
ब्रज०—रहने दो, मैं इसकी इत्तला करने थाने जाता हूँ।
भामा का मखु मललन हो र्या। बोली—पडे हुए धन की क्या इत्तला?
ब्रज०—ह ,ॉँ और क्या, इन आठ चर्ल्न्नयों के ललए ईमान बबर्ाडूँर्ा?
भामा—अच्छा तो सवेरे चले जाना। इस समय जाओर्े , तो आने म़ें दे र
होर्ी।

12
ब्रजनाथ ने भी सोचा, यही अच्छा। थानेवाले रात को तो कोई कारवाई
कऱें र्े नहीं। जब अशकिा यों को पडा रहना है , तब जेसे थाना वैसे मेरा घर।
चर्ल्न्नय ॉँ संदक
ू म़ें रख दीं। खा-पी कर लेटे, तो भामा ने हँस कर
कहा—आया धन क्यों छोडते हो? लाओ, मैं अपने ललए एक र्ल
ु ब
ू ंद बनवा लँ ू,
बहुत ददनों से जी तरस रहा है ।
माया ने इस समय हास्य का रुप धारण ककया।
ॉँ
ब्रजनाथ ने नतरस्कार करके कहा—र्ुलूबंद की लालसा म़ें र्ले म़ें ि सी
लर्ाना चाहती हो क्या?

प्रात:काल ब्रजनाथ थाने के ललए तैयार हूए। कानून का एक लेक्चर
छूट जायेर्ा, कोई हरज नहीं। वह इलाहाबाद के हाईकोटा म़ें अनुवादक थे।
नौकरी म़ें उन्ननत की आशा न दे ख कर साल भर से वकालत की तैयारी म़ें
मग्न थे; लेककन अभी कपडे पहन ही रहे थे कक उनके एक लमत्र मंश
ु ी
र्ोरे वाला आ कर बैठ र्ये, ओर अपनी पाररवाररक दल्ु श्चंताओं की ववस्मनृ त
की रामकहानी सुना कर अत्यंत ववनीत भाव से बोले—भाई साहब, इस समय
मैं इन झंझटों मे ऐसा िँस र्या हूँ कक बुद्चध कुछ काम नहीं करती। तुम
बडे आदमी हो। इस समय कुछ सहायता करो। ज्यादा नहीं तीस रुपये दे दो।
ककसी न ककसी तरह काम चला लँ ूर्ा, आज तीस तारीख है। कल शाम को
तुम्ह़ें रुपये लमल जायँर्े।
ॉँ रखी थी।
ब्रजनाथ बडे आदमी तो न थे; ककन्तु बडप्पन की हवा ब ध
यह लमथ्यालभमान उनके स्वभाव की एक दब
ु ल
ा ता थी। केवल अपने वैभव का
प्रभाव डालने के ललए ही वह बहुधा लमत्रों की छोटी-मोटी आवश्यकताओं पर
अपनी वास्तववक आवश्यकताओं को ननछावर कर ददया करत थे, लेककन
भामा को इस ववषय म़ें उनसे सहानुभूनत न थी, इसललए जब ब्रजनाथ पर
इस प्रकार का संकट आ पडता था, तब थोडी दे र के ललए उनकी पाररवाररक
शांनत अवश्य नष्ट हो जाती थी। उनम़ें इनकार करने या टालने की दहम्मत
न थी।
वह सकुचाते हुए भामा के पास र्ये और बोले—तुम्हारे पास तीस
रुपये तो न होंर्े? मश ॉँ रहे है ।
ंु ी र्ोरे लाल म र्
भामा ने रुखाई से रहा—मेरे पास तो रुपये नहीं।
ब्रज०—होंर्े तो जरुर, बहाना करती हो।

13
भामा—अच्छा, बहाना ही सही।
ब्रज०—तो मैं उनसे क्या कह दँ ू !
भामा—कह दो घर म़ें रुपये नहीं हैं, तुमसे न कहते बने, तो मैं पदे
की आड से कह दँ ।ू
ब्रज०--कहने को तो मैं कह दँ ,ू लेककन उन्ह़ें ववश्वास न आयेर्ा।
समझ़ेंर्े, बहाना कर रहे हैं।
भामा--समझ़ेंर्े; तो समझा कऱें ।
ब्रज०—मुझसे ऐसी बमुरौवती नहीं हो सकती। रात-ददन का साथ ठहरा,
कैसे इनकार करुँ ?
भामा—अच्छा, तो जो मन म़ें आवे, सो करो। मैं एक बार कह चक
ु ी,
मेरे पास रुपये नहीं।
ब्रजनाथ मन म़ें बहुत णखन्न हुए। उन्ह़ें ववश्वास था कक भामा के पास
रुपये है ; लेककन केवल मझ ु े लल्ज्जत करने के ललए इनकार कर रही है ।
ू से दो चर्ल्न्नय ॉँ ननकालीं और
दरु ाग्रह ने संकल्प को दृढ़ कर ददया। संदक
र्ोरे लाल को दे कर बोले—भाई, कल शाम को कचहरी से आते ही रुपये दे
जाना। ये एक आदमी की अमानत हैं, मैं इसी समय दे ने जा रहा था --यदद
कल रुपये न पहुँचे तो मुझे बहुत लल्ज्जत होना पडेर्ा; कहीं मुँह ददखाने
योग्य न रहूँर्ा।
र्ोरे लाल ने मन म़ें कहा—अमानत स्त्री के लसवा और ककसकी होर्ी,
और चर्ल्न्नय ॉँ जेब मे रख कर घर की राह ली।

आज पहली तारीख की संध्या है। ब्रजनाथ दरवाजे पर बैठे र्ोरे लाल
का इंतजार कर रहे है।
ॉँ बज र्ये, र्ोरे लाल अभी तक नहीं आये। ब्रजनाथ की ऑ ंखे रास्ते
पच
की तरि लर्ी हुई थीं। हाथ म़ें एक पत्र था; लेककन पढ़ने म़ें जी नहीं लर्ता
था। हर तीसरे लमनट रास्ते की ओर दे खने लर्ते थे; लेककन सोचते थे—
आज वेतन लमलने का ददन है । इसी कारण आने म़ें दे र हो रही है। आते ही
होंर्े। छ: बजे, र्ोरे लाल का पता नहीं। कचहरी के कमाचारी एक-एक करके
चले आ रहे थे। ब्रजनाथ को कोई बार धोखा हुआ। वह आ रहे हैं। जरुर वही
हैं। वैसी ही अचनक है । वैसे ही टोपी है । चाल भी वही है । ह ,ॉँ वही हैं। इसी
तरि आ रहे हैं। अपने हृदय से एक बोझा-सा उतरता मालम
ू हुआ; लेककन

14
ननकट आने पर ज्ञात हुआ कक कोई और है । आशा की कल्ल्पत मूनता दरु ाशा
म़ें बदल र्यी।
ब्रजनाथ का चचत्त णखन्न होने लर्ा। वह एक बार कुरसी से उठे ।
बरामदे की चौखट पर खडे हो, सडक पर दोनों तरि ननर्ाह दौडायी। कहीं
पता नहीं। दो-तीन बार दरू से आते हुए इक्कों को दे ख कर र्ोरे लाल का भ्रम
हुआ। आकांक्षा की प्रबलता !
सात बजे; चचरार् जल र्ये। सडक पर अँधेरा छाने लर्ा। ब्रजनाथ
सडक पर उद्ववग्न भाव से टहलने लर्े। इरादा हुआ, र्ोरे लाल के घर चलँ ू,
उधर कदम बढाये; लेककन हृदय क पॉँ रहा था कक कहीं वह रास्ते म़ें आते हुए
न लमल जायँ, तो समझ़ें कक थोडे-से रुपयों के ललए इतने व्याकुल हो र्ये।
थोडी ही दरू र्ये कक ककसी को आते दे खा। भ्रम हुआ, र्ोरे लाल है , मुडे और
सीधे बरामदे म़ें आकर दम ललया, लेककन किर वही धोखा ! किर वही भ्रांनत !
तब सोचले लर्े कक इतनी दे र क्यों हो रही हैं? क्या अभी तक वह कचहरी
से न आये होंर्े ! ऐसा कदावप नहीं हो सकता। उनके दफ्तर-वाले मद्
ु दत हुई,
ननकल र्ये। बस दो बात़ें हो सकती हैं, या तो उन्होंने कल आने का ननश्चय
कर ललया, समझे होंर्े, रात को कौन जाय, या जान-बूझ कर बैठे होंर्े, दे ना
न चाहते होंर्े, उस समय उनको र्रज थी, इस समय मुझे र्रज है । मैं ही
ककसी को क्यों न भेज दँ ?ू लेककन ककसे भेजँ?ू मुन्नू जा सकता है । सडक ही
पर मकान है । यह सोच कर कमरे म़ें र्ये, लैप जलाया और पत्र ललखने बैठे,
मर्र ऑ ंख़ें द्वार ही की ओर लर्ी हुई थी। अकस्मात ् ककसी के पैरों की
आहट सनु ाई दी। परन्तु पत्र को एक ककताब के नीचे दबा ललया और
बरामद म़ें चले आये। दे खा, पडोस का एक कँु जडा तार पढ़ाने आया है। उससे
बोले—भाई, इस समय िुरसत नहीं हैं; थोडी दे र म़ें आना। उसने कहा--बाबू
जी, घर भर के आदमी घबराये हैं, जरा एक ननर्ाह दे ख लील्जए। ननदान
ब्रजनाथ ने झँुझला कर उसके हाथ से तार ले ललया, और सरसरी नजर से
दे ख कर बोले—कलकत्ते से आया है। माल नहीं पहुँचा। कँु जडे ने डरते-डरते
कहा—बाबू जी, इतना और दे ख लील्जए ककसने भेजा है । इस पर ब्रजनाथ ने
तार ि़ेंक ददया और बोले--मुझे इस वक्त िुरसत नहीं है।
आठ बज र्ये। ब्रजनाथ को ननराशा होने लर्ी—मन्
ु नू इतनी रात बीते
नहीं जा सकता। मन म़ें ननश्चय ककया, आज ही जाना चादहए, बला से बरु ा
माऩेंर्े। इसकी कह ॉँ तक चचंता करुँ स्पष्ट कह दँ र्
ू ा मेरे रुपये दे दो।

15
भलमानसी भलेमानसों से ननभाई जा सकती है । ऐसे धत
ू ो के साथ भलमनसी
का व्यवहार करना मख
ू त
ा ा हैं अचकन पहनी; घर म़ें जाकर माया से कहा—
जरा एक काम से बाहर जाता हूँ, ककवाडे बन्द कर लो।
चलने को तो चले; लेककन पर्-पर् पर रुकते जाते थे। र्ोरे लाल का
घर दरू से ददखाई ददया; लैंप जल रहा था। दठठक र्ये और सोचने लर्े चल
कर क्या कहूँर्ा? कहीं उन्होंने जाते-जाते रपए ननकाल कर दे ददये, और दे र
ॉँ तो मुझे बडी झ़ेंप होर्ी। वह मझ
के ललए क्षमा म र्ी ु े क्षुद्र, ओछा, धैयह
ा ीन
समझ़ेंर्े। नहीं, रुपयों की आतचीत करँ? कहूंर्ा—भाई घर म़ें बडी दे र से पेट
ददा कर रहा है । तुम्हारे पास पुराना तेज लसरका तो नहीं है मर्र नहीं, यह
बहाना कुछ भद्दा-सा प्रतीत होता है । साि कलई खुल जायर्ी। ऊंह ! इस
झंझट की जरुरत ही क्या है । वह मुझे दे खकर आप ही समझ जाय़ेंर्े। इस
ववषय म़ें बातचीत की कुछ नौबत ही न आवेर्ी। ब्रजनाथ इसी उधेडबुन म़ें
आर्े बढ़ते चले जाते थे जैसे नदी म़ें लहऱें चाहे ककसी ओर चल़ें , धारा अपना
मार्ा नहीं छोडती।
र्ोरे लाल का घर आ र्या। द्वार बंद था। ब्रजनाथ को उन्ह़ें पुकारने
का साहस न हुआ, समझे खाना खा रहे होंर्े। दरवाजे के सामने से ननकले ,
और धीरे -धीरे टहलते हुए एक मील तक चले र्ए। नौ बजने की आवाज
कान म़ें आयी। र्ोरे लाल भोजन कर चक
ु े होंर्े, यह सोचकर लौट पडे; लेककन
द्वार पर पहुंचे तो, अंधेरा था। वह आशा-रपी दीपक बुझ र्या था। एक
लमनट तक दवु वधा म़ें खडे रहे । क्या करँ। अभी बहुत सबेरा है । इतनी जल्दी
थोडे ही सो र्ए होंर्े? दबे प वॉँ बरामदे पर चढ़े । द्वार पर कान लर्ा कर
सन
ु ा, चारों ओर ताक रहे थे कक कहीं कोई दे ख न ले। कुछ बातचीत की
भनक कान म़ें पडी। ध्यान से सुना। स्त्री कह रही थी-रुपये तो सब उठ रए,
ब्रजनाथ को कह ॉँ से दोर्े? र्ोरे लाल ने उत्तर ददया-ऐसी कौन सी उतावली है ,
किर दे द़ें र्े। और दरख्वास्त दे दी है , कल मंजरू हो ही जायर्ी। तीन महीने
के बाद लौट़ें र्े तब दे खा जायर्ा।
ब्रजनाथ को ऐसा जान पडा मानों मुँह पर ककसी न तमाचा मार ददया।
िोध और नैराश्य से भरे हुए बरामदे म़ें उतर आए। घर चले तो सीधे
कदम न पडते थे, जैसे कोई ददन-भर का थका-म दा ं पचथक हो।


16
ब्रजनाथ रात-भर करवट़ें बदलते रहे। कभी र्ोरे लाल की धुतत
ा ा पर
िोध आता था, कभी अपनी सरलता पर; मालूम नहीं; ककस र्रीब के रुपये
हैं। उस पर क्या बीती होर्ी ! लेककन अब िोध या खेद रो क्या लाभ?
सोचने लर्े--रुपये कह ॉँ से आव़ेंर्े? भाभा पहले ही इनकार कर चक
ु ी है , वेतन
म़ें इतनी र्ंज ॉँ रुपये की बात होती तो कतर ब्योंत करता।
ु ाइश नहीं। दस-प च
तो क्या कर? ककसी से उधार लँ ।ू मर्र मझ
ु े कौन दे र्ा। आज तक ककसी से
ॉँ
म र्ने का संयोर् नहीं पडा, और अपना कोई ऐसा लमत्र है भी नहीं। जो लोर्
हैं, मुझी को सताया करते हैं, मुझे क्या द़ें र्े। ह ,ॉँ यदद कुछ ददन कानून
छोडकर अनुवाद करने म़ें पररश्रम करँ, तो रुपये लमल सकते हैं। कम-से-कम
एक मास का कदठन पररश्रम है । सस्ते अनुवादकों के मारे दर भी तो चर्र
र्यी है ! हा ननदा यी ! तूने बडी दर्ा की। न जाने ककस जन्म का बैर
चुकाया है। कहीं का न रखा !
दस
ू रे ददन ब्रजनाथ को रुपयों की धन ु सवार हुई। सबेरे कानन ू के
लेक्चर म़ें सल्म्मललत होते, संध्या को कचहरी से तजवीजों का पलु लंदा घर
लाते और आधी रात बैठे अनुवाद ककया करते। लसर उठाने की मुहलत न
लमलती ! कभी एक-दो भी बज जाते। जब मल्स्तष्क बबलकुल लशचथल हो
जाता तब वववश होकर चारपाई पर पडे रहते।
लेककन इतने पररश्रम का अभ्यास न होने के कारण कभी-कभी लसर म़ें
ददा होने लर्ता। कभी पाचन-किया म़ें ववध्न पड जाता, कभी ज्वर चढ़
आता। नतस पर भी वह मशीन की तरह काम म़ें लर्े रहते। भाभा कभी-कभी
झँझ
ु ला कर कहती--अजी, लेट भी रहो; बडे धमाात्मा बने हो। तम्
ु हारे जैसे
ॉँ आदमी और होते, तो संसार का काम ही बन्द हो जाता। ब्रजनाथ
दस-प च
इस बाधाकारी व्यंर् का उत्तर न दे ते, ददन ननकलते ही किर वही चरखा ले
बैठते।
यह ॉँ तक कक तीन सप्ताह बीत र्ये और पचीस रुपये हाथ आ र्ए।
ब्रजनाथ सोचते थे--दो तीन ददन म़ें बेडा पार है ; लेककन इक्कीसव़ें ददन उन्ह़ें
प्रचंड ज्वर चढ़ आया और तीन ददन तक न उतरा। छुट्टी लेनी पडी,
शय्यासेवी बन र्ए। भादों का महीना था। भाभा ने समझा, वपत्त का, प्रकोप
है ; लेककन जब एक सप्ताह तक डाक्टर की औषचध सेवन करने पर भी ज्वर
न उतरा तब घबरायी। ब्रजनाथ प्राय: ज्वर म़ें बक-झक भी करने लर्ते।
भाभा सन
ु कर डर के मारे कमरे म़ें से भार् जाती। बच्चों को पकड कर दस
ू रे

17
कमरे म़ें बन्द कर दे ती। अब उसे शंका होने लर्ती थी कक कहीं यह कष्ट
उन्हीं रुपयों के कारण तो नहीं भोर्ना पड रहा है ! कौन जाने, रुपयेवाले ने
कुछ कर धर ददया हो ! जरर यही बात है , नहीं तो औषचध से लाभ क्यों
नहीं होता?
संकट पडने पर हम धमा-भीरु हो जाते हैं, औषचधयों से ननराश होकर
दे वताओं की शरण लेते हैं। भाभा ने भी दे वताओं की शरण ली। वह
जन्माष्टमी, लशवराबत्र का कदठन व्रत शुर ककया।
आठ ददन पूरे हो र्ए। अंनतम ददन आया। प्रभात का समय था। भाभा
ने ब्रजनाथ को दवा वपलाई और दोनों बालकों को लेकर दर्
ु ाा जी की पज
ू ा
करने के ललए चली। उसका हृदय आराध्य दे वी के प्रनत श्रद्धा से पररपण
ू ा
था। मल्न्दर के ऑ ंर्न म़ें पहुँची। उपासक आसनों पर बैठे हुए दर्ु ाापाठ कर
रहे थे। धूप और अर्र की सुर्ंध उड रही थी। उसने मल्न्दर म़ें प्रवेश ककया।
सामने दर्
ु ाा की ववशाल प्रनतमा शोभायमान थी। उसके मख
ु ारववंद पर एक
ववलक्षण दीप्त झलक रही थी। बडे-बडे उज्जल नेत्रों से प्रभा की ककरण़ें
नछटक रही थीं। पववत्रता का एक सम -सा ॉँ छाया हुआ था। भाभा इस
दीप्तवणा मनू ता के सम्मुख साधी ऑ ंखों से ताक न सकी। उसके अन्त:करण
म़ें एक ननमाल, ववशुद्ध भाव-पूणा भय का उदय हो आया। उसने ऑ ंख़ें बन्द
कर लीं। घुटनों के बल बैठ र्यी, और हाथ जोड कर करुण स्वर से बोली—
माता, मुझ पर दया करो।
उसे ऐसा ज्ञात हुआ, मानों दे वी मुस्कराई। उसे उन ददव्य नेत्रों से एक
ज्योनत-सी ननकल कर अपने हृदय म़ें आती हुई मालम ू हुई। उसके कानों म़ें
दे वी के मह
ँु से ननकले ये शब्द सन
ु ाई ददए—पराया धन लौटा दे , तेरा भला
होर्ा।
भाभा उठ बैठी। उसकी ऑ ंखों म़ें ननमाल भल्क्त का आभास झलक रहा
था। मुखमंडल से पववत्र प्रेम बरसा पडता था। दे वी ने कदाचचत ् उसे अपनी
प्रभा के रं र् म़ें डूबा ददया था।
इतने म़ें दस
ू री एक स्त्री आई। उसके उज्जल केश बबखरे और मुरझाए
हुए चेहरे के दोनों ओर लटक रहे थे। शरीर पर केवल एक श्वेत साडी थी।
हाथ म़ें चडू डयों के लसवा और कोई आभष
ू ण न था। शोक और नैराश्य की
साक्षात ् मनू ता मालम
ू होती थी। उसने भी दे वी के सामने लसर झक
ु ाया और

18
दोनों हाथों से ऑ ंचल िैला कर बोली—दे वी, ल्जसने मेरा धन ललया हो,
उसका सवानाश करो।
जैसे लसतार लमजराब की चोट खा कर थरथरा उठता है , उसी प्रकार
भाभा का हृदय अननष्ट के भय से थरथरा उठा। ये शब्द तीव्र शर के समान
उसके कलेजे म़ें चभ
ु र्ए। उसने दे वी की ओर कातर नेत्रों से दे खा। उनका
ज्योनतमाय स्वरप भयंकर था, नेत्रों से भीषण ज्वाला ननकल रही थी। भाभा
के अन्त:करण म़ें सवाथा आकाश से, मंददर के सामने वाले वक्ष
ृ ों से; मंददर के
स्तंभों से, लसंहासन के ऊपर जलते हुए दीपक से और दे वी के ववकराल मुँह
से ये शब्द ननकलकर र्ँज ू ने लर्े--पराया धन लौटा दे , नहीं तो तेरा सवानाश
हो जायर्ा।
भाभा खडी हो र्ई और उस वद्
ृ धा से बोली-क्यों माता, तुम्हारा धन
ककसी ने ले ललया है ?
वद्
ृ धा ने इस प्रकार उसकी ओर दे खा, मानों डूबते को नतनके का
सहारा लमला। बोली—ह ं बेटी !
भाभा--ककतने ददन हुए ?
वद्
ृ धा--कोई डेढ़ महीना।
भामा--ककतने रुपये थे?
वद्
ृ धा--पूरे एक सौ बीस।
भामा--कैसे खोए?
वद्
ृ धा--क्या जाने कहीं चर्र र्ए। मेरे स्वामी पलटन म़ें नौकर थे।
आज कई बरस हुए, वह परलोक लसधारे । अब मझ ु े सरकार से आठ रुपए
साल पेन्शन लमलती है । अक्की दो साल की पेन्शन एक साथ ही लमली थी।
ू नहीं, कब और कह ॉँ चर्र पडे।
खजाने से रुपए लेकर आ रही थी। मालम
आठ चर्ल्न्नय ॉँ थीं।
भामा--अर्र वे तुम्ह़ें लमल जायँ तो क्या दोर्ी।
वद्
ृ धा--अचधक नहीं, उसम़ें से पचास रुपए दे दँ र्
ू ी।
भामा रुपये क्या होंर्े, कोई उससे अच्छी चीज दो।
वद्
ृ धा--बेटी और क्या दँ ू जब तक जीऊँर्ी, तुम्हारा यश र्ाऊँर्ी।
भामा--नहीं, इसकी मझ
ु े आवश्यकता नहीं !
वद्
ृ धा--बेटी, इसके लसवा मेरे पास क्या है ?
भामा--मझ
ु े आशीवाद दो। मेरे पनत बीमार हैं, वह अच्छे हो जायँ।

19
वद्
ृ धा--क्या उन्हीं को रुपये लमले हैं?
भामा--ह ,ॉँ वह उसी ददन से तुम्ह़ें खोज रहे हैं।
वद्
ृ धा घुटनों के बल बैठ र्ई, और ऑ ंचल िैला कर कल्म्पत स्वर से
बोली--दे वी ! इनका कल्याण करो।
भामा ने किर दे वी की ओर सशंक दृल्ष्ट से दे खा। उनके ददव्य रप पर
प्रेम का प्रकाश था। ऑ ंखों म़ें दया की आनंददानयनी झलक थी। उस समय
भामा के अंत:करण म़ें कहीं स्वर्ालोक से यह ध्वनन सुनाई दी--जा तेरा
कल्याण होर्ा।
संध्या का समय है । भामा ब्रजनाथ के साथ इक्के पर बैठी तल
ु सी के
घर, उसकी थाती लौटाने जा रही है । ब्रजनाथ के बडे पररश्रम की कमायी जो
डाक्टर की भ़ें ट हो चक
ु ी है , लेककन भामा ने एक पडोसी के हाथ अपने कानों
के झुमके बेचकर रुपये जुटाए हैं। ल्जस समय झुमके बनकर आये थे, भामा
बहुत प्रसन्न हुई थी। आज उन्ह़ें बेचकर वह उससे भी अचधक प्रसन्न है ।
जब ब्रजनाथ ने आठों चर्ल्न्नय ॉँ उसे ददखाई थीं, उसके हृदय म़ें एक
र्ुदर्ुदी-सी हुई थी; लेककन यह हषा मख
ु पर आने का साहस न कर सका
था। आज उन चर्ल्न्नयों को हाथ से जाते समय उसका हाददाक आनन्द ऑ ंखों
म़ें चमक रहा है , ओठों पर नाच रहा है , कपोलों को रं र् रहा है , और अंर्ों
पर ककलोल कर रहा है ; वह इंदद्रयों का आनंद था, यह आत्मा का आनंद है ;
वह आनंद लज्जा के भीतर नछपा हुआ था, यह आनंद र्वा से बाहर ननकला
पडता है ।
तल
ु सी का आशीवााद सिल हुआ। आज परू े तीन सप्ताह के बाद
ब्रजनाथ तककए के सहारे बैठे थे। वह बार-बार भामा को प्रेम-पण
ू ा नेत्रों से
दे खते थे। वह आज उन्ह़ें दे वी मालूम होती थी। अब तक उन्होंने उसके
बाह्य सौंदया की शोभ दे खी थी, आज वह उसका आल्त्मक सौंदया दे ख रहे हैं।
तुलसी का घर एक र्ली म़ें था। इक्का सडक पर जाकर ठहर र्या।
ब्रजनाथ इक्के पर से उतरे , और अपनी छडी टे कते हुए भामा के हाथों के
सहारे तुलसी के घर पहुँचे। तुलसी ने रुपए ललए और दोनों हाथ िैला कर
आशीवााद ददया--दर्
ु ाा जी तुम्हारा कल्याण कऱें ।
तल ु सी का वणाहीन मख ु वैसे ही णखल र्या, जैसे वषाा के पीछे वक्ष
ृ ों
की पवत्तय ॉँ णखल जाती हैं। लसमटा हुआ अंर् िैल र्या, र्ालों की झरु रा य ॉँ
लमटती दीख पडीं। ऐसा मालम
ू होता थ, मानो उसका कायाकलप
ू हो र्या।

20
वह ॉँ से आकर ब्रजनाथ अपवने द्वार पर बैठे हुए थे कक र्ोरे लाल आ
कर बैठ र्ए। ब्रजनाथ ने मुँह िेर ललया।
र्ोरे लाल बोले--भाई साहब ! कैसी तबबयत है ?
ब्रजनाथ--बहुत अच्छी तरह हूँ।
र्ोरे लाल--मझ ु े क्षमा कील्जएर्ा। मझ
ु े इसका बहुत खेद है कक आपके
रुपये दे ने म़ें इतना ववलम्ब हुआ। पहली तारीख ही को घर से एक आवश्यक
पत्र आ र्या, और मैं ककसी तरह तीन महीने की छुट्टी लेकर घर भार्ा।
वह ॉँ की ववपवत्त-कथा कहूँ, तो समाप्त न हो; लेककन आपकी बीमारी की
शोक-समाचार सुन कर आज भार्ा चला आ रहा हूँ। ये लील्जये, रुपये हाल्जर
हैं। इस ववलम्ब के ललए अत्यंत लल्ज्जत हूँ।
ब्रजनाथ का िोध शांत हो र्या। ववनय म़ें ककतनी शल्क्त है ! बोले -जी
ह ,ॉँ बीमार तो था; लेककन अब अच्छा हो र्या हूँ, आपको मेरे कारण व्यथा
कष्ट उठाना पडा। यदद इस समय आपको असवु वधा हो, तो रुपये किर दे
दील्जएर्ा। मैं अब उऋण हो र्या हूँ। कोई जल्दी नहीं है ।
र्ोरे लाल ववदा हो र्ये, तो ब्रजनाथ रुपये ललये हुए भीतर आये और
भामा से बोले--ये लो अपने रुपये; र्ोरे लाल दे र्ये।
भामा ने कहा--ये मरे रुपये नहीं तुलसी के हैं; एक बार पराया धन
लेकर सीख र्यी।
ब्रज०--लेककन तुलसी के परू े रुपये तो दे ददये र्ये !
भामा--दे ददये तो क्या हुआ? ये उसके आशीवााद की न्योछावर है ।
ब्रज०-कान के झमु के कह ॉँ से आव़ेंर्े?
भामा--झम
ु के न रह़ें र्े, न सही; सदा के ललए ‘कान’ तो हो र्ये।

21
बडे घर की बेटी

बेनीमाधव लसंह र्ौरीपरु र् वॉँ के जमींदार और नम्बरदार थे। उनके


वपतामह ककसी समय बडे धन-धान्य संपन्न थे। र् वॉँ का पक्का तालाब और
मंददर ल्जनकी अब मरम्मत भी मुल्श्कल थी, उन्हीं के कीनता-स्तंभ थे। कहते
हैं इस दरवाजे पर हाथी झूमता था, अब उसकी जर्ह एक बूढ़ी भैंस थी,
ल्जसके शरीर म़ें अल्स्थ-पंजर के लसवा और कुछ शेष न रहा था; पर दध

ॉँ ललए उसके लसर पर
शायद बहुत दे ती थी; क्योंकक एक न एक आदमी ह डी
सवार ही रहता था। बेनीमाधव लसंह अपनी आधी से अचधक संपवत्त वकीलों
को भ़ें ट कर चक
ु े थे। उनकी वतामान आय एक हजार रुपये वावषाक से अचधक
न थी। ठाकुर साहब के दो बेटे थे। बडे का नाम श्रीकंठ लसंह था। उसने बहुत
ददनों के पररश्रम और उद्योर् के बाद बी.ए. की डडग्री प्राप्त की थी। अब
एक दफ्तर म़ें नौकर था। छोटा लडका लाल-बबहारी लसंह दोहरे बदन का,
सजीला जवान था। भरा हुआ मुखडा,चौडी छाती। भैंस का दो सेर ताजा दधू
वह उठ कर सबेरे पी जाता था। श्रीकंठ लसंह की दशा बबलकुल ववपरीत थी।
इन नेत्रवप्रय र्ुणों को उन्होंने बी०ए०--इन्हीं दो अक्षरों पर न्योछावर कर
ददया था। इन दो अक्षरों ने उनके शरीर को ननबाल और चेहरे को कांनतहीन
बना ददया था। इसी से वैद्यक ग्रंथों पर उनका ववशेष प्रेम था। आयव
ु ेददक
औषचधयों पर उनका अचधक ववश्वास था। शाम-सबेरे उनके कमरे से प्राय:
खरल की सुरीली कणामधुर ध्वनन सुनायी ददया करती थी। लाहौर और
कलकत्ते के वैद्यों से बडी ललखा-पढ़ी रहती थी।
श्रीकंठ इस अँर्रे जी डडग्री के अचधपनत होने पर भी अँर्रे जी सामाल्जक
प्रथाओं के ववशेष प्रेमी न थे; बल्ल्क वह बहुधा बडे जोर से उसकी ननंदा और
नतरस्कार ककया करते थे। इसी से र् वॉँ म़ें उनका बडा सम्मान था। दशहरे के
ददनों म़ें वह बडे उत्साह से रामलीला होते और स्वयं ककसी न ककसी पात्र का
पाटा लेते थे। र्ौरीपरु म़ें रामलीला के वही जन्मदाता थे। प्राचीन दहंद ू सभ्यता
का र्ण
ु र्ान उनकी धालमाकता का प्रधान अंर् था। सल्म्मललत कुटुम्ब के तो
वह एक-मात्र उपासक थे। आज-कल ल्स्त्रयों को कुटुम्ब को कुटुम्ब म़ें लमल-
जुल कर रहने की जो अरुचच होती है , उसे वह जानत और दे श दोनों के ललए
हाननकारक समझते थे। यही कारण था कक र् वॉँ की ललनाऍ ं उनकी ननंदक
थीं ! कोई-कोई तो उन्ह़ें अपना शत्रु समझने म़ें भी संकोच न करती थीं !

22
स्वयं उनकी पत्नी को ही इस ववषय म़ें उनसे ववरोध था। यह इसललए नहीं
कक उसे अपने सास-ससुर, दे वर या जेठ आदद घण
ृ ा थी; बल्ल्क उसका ववचार
था कक यदद बहुत कुछ सहने और तरह दे ने पर भी पररवार के साथ ननवााह
न हो सके, तो आये-ददन की कलह से जीवन को नष्ट करने की अपेक्षा यही
उत्तम है कक अपनी णखचडी अलर् पकायी जाय।
आनंदी एक बडे उच्च कुल की लडकी थी। उसके बाप एक छोटी-सी
ररयासत के ताल्लक
ु े दार थे। ववशाल भवन, एक हाथी, तीन कुत्ते, बाज, बहरी-
लशकरे , झाड-िानूस, आनरे री मल्जस्रे ट और ऋण, जो एक प्रनतल्ष्ठत
ताल्लुकेदार के भोग्य पदाथा हैं, सभी यह ॉँ ववद्यमान थे। नाम था भूपलसंह।
बडे उदार-चचत्त और प्रनतभाशाली पुरुष थे; पर दभ
ु ााग्य से लडका एक भी न
था। सात लडककय ॉँ हुईं और दै वयोर् से सब की सब जीववत रहीं। पहली
उमंर् म़ें तो उन्होंने तीन ब्याह ददल खोलकर ककये; पर पंद्रह-बीस हजार
रुपयों का कजा लसर पर हो र्या, तो ऑ ंख़ें खल
ु ीं, हाथ समेट ललया। आनंदी
चौथी लडकी थी। वह अपनी सब बहनों से अचधक रपवती और र्ण
ु वती थी।
इससे ठाकुर भूपलसंह उसे बहुत प्यार करते थे। सुन्दर संतान को कदाचचत ्
उसके माता-वपता भी अचधक चाहते हैं। ठाकुर साहब बडे धमा-संकट म़ें थे कक
इसका वववाह कह ॉँ कऱें ? न तो यही चाहते थे कक ऋण का बोझ बढ़े और न
यही स्वीकार था कक उसे अपने को भाग्यहीन समझना पडे। एक ददन श्रीकंठ
ॉँ
उनके पास ककसी चंदे का रुपया म र्ने आये। शायद नार्री-प्रचार का चंदा
था। भूपलसंह उनके स्वभाव पर रीझ र्ये और धूमधाम से श्रीकंठलसंह का
आनंदी के साथ ब्याह हो र्या।
आनंदी अपने नये घर म़ें आयी, तो यह ॉँ का रं र्-ढं र् कुछ और ही
दे खा। ल्जस टीम-टाम की उसे बचपन से ही आदत पडी हुई थी, वह यहां
नाम-मात्र को भी न थी। हाथी-घोडों का तो कहना ही क्या, कोई सजी हुई
सुंदर बहली तक न थी। रे शमी स्लीपर साथ लायी थी; पर यह ॉँ बार् कह ।ॉँ
मकान म़ें णखडककय ॉँ तक न थीं, न जमीन पर िशा, न दीवार पर तस्वीऱें ।
यह एक सीधा-सादा दे हाती र्ह
ृ स्थी का मकान था; ककन्तु आनंदी ने थोडे ही
ददनों म़ें अपने को इस नयी अवस्था के ऐसा अनक
ु ू ल बना ललया, मानों
उसने ववलास के सामान कभी दे खे ही न थे।

23
एक ददन दोपहर के समय लालबबहारी लसंह दो चचडडया ललये हुए आया
और भावज से बोला--जल्दी से पका दो, मुझे भूख लर्ी है । आनंदी भोजन
बनाकर उसकी राह दे ख रही थी। अब वह नया व्यंजन बनाने बैठी। हांडी म़ें
दे खा, तो घी पाव-भर से अचधक न था। बडे घर की बेटी, ककिायत क्या
जाने। उसने सब घी मांस म़ें डाल ददया। लालबबहारी खाने बैठा, तो दाल म़ें
घी न था, बोला-दाल म़ें घी क्यों नहीं छोडा?
ॉँ म़ें पड र्या। लालबबहारी जोर से बोला--
आनंदी ने कहा--घी सब म स
अभी परसों घी आया है । इतना जल्द उठ र्या?
आनंदी ने उत्तर ददया--आज तो कुल पाव--भर रहा होर्ा। वह सब मैंने
मांस म़ें डाल ददया।
ल्जस तरह सख
ू ी लकडी जल्दी से जल उठती है , उसी तरह क्षुधा से
बावला मनुष्य जरा-जरा सी बात पर नतनक जाता है । लालबबहारी को भावज
की यह दढठाई बहुत बरु ी मालम
ू हुई, नतनक कर बोला--मैके म़ें तो चाहे घी
की नदी बहती हो !
स्त्री र्ाललय ॉँ सह लेती हैं, मार भी सह लेती हैं; पर मैके की ननंदा
उनसे नहीं सही जाती। आनंदी मुँह िेर कर बोली--हाथी मरा भी, तो नौ
लाख का। वह ॉँ इतना घी ननत्य नाई-कहार खा जाते हैं।
लालबबहारी जल र्या, थाली उठाकर पलट दी, और बोला--जी चाहता
है , जीभ पकड कर खींच लँ ू।
आनंद को भी िोध आ र्या। मुँह लाल हो र्या, बोली--वह होते तो
आज इसका मजा चखाते।
अब अपढ़, उजड्ड ठाकुर से न रहा र्या। उसकी स्त्री एक साधारण
जमींदार की बेटी थी। जब जी चाहता, उस पर हाथ साि कर ललया करता
था। खडाऊँ उठाकर आनंदी की ओर जोर से ि़ेंकी, और बोला--ल्जसके र्ुमान
पर भूली हुई हो, उसे भी दे खूँर्ा और तुम्ह़ें भी।
आनंदी ने हाथ से खडाऊँ रोकी, लसर बच र्या; पर अँर्ली म़ें बडी
चोट आयी। िोध के मारे हवा से दहलते पत्ते की भ नतॉँ ॉँ
क पती हुई अपने
कमरे म़ें आ कर खडी हो र्यी। स्त्री का बल और साहस, मान और मयाादा
पनत तक है । उसे अपने पनत के ही बल और परु
ु षत्व का घमंड होता है ।
आनंदी खन
ू का घँट
ू पी कर रह र्यी।

24
श्रीकंठ लसंह शननवार को घर आया करते थे। वह
ृ स्पनत को यह घटना
हुई थी। दो ददन तक आनंदी कोप-भवन म़ें रही। न कुछ खाया न वपया,
उनकी बाट दे खती रही। अंत म़ें शननवार को वह ननयमानक
ु ू ल संध्या समय
घर आये और बाहर बैठ कर कुछ इधर-उधर की बात़ें , कुछ दे श-काल संबंधी
समाचार तथा कुछ नये मक
ु दमों आदद की चचाा करने लर्े। यह वाताालाप
दस बजे रात तक होता रहा। र् वॉँ के भद्र परु
ु षों को इन बातों म़ें ऐसा आनंद
लमलता था कक खाने-पीने की भी सुचध न रहती थी। श्रीकंठ को वपंड छुडाना
मुल्श्कल हो जाता था। ये दो-तीन घंटे आनंदी ने बडे कष्ट से काटे ! ककसी
तरह भोजन का समय आया। पंचायत उठी। एकांत हुआ, तो लालबबहारी ने
कहा--भैया, आप जरा भाभी को समझा दील्जएर्ा कक मँह
ु सँभाल कर
बातचीत ककया कऱें , नहीं तो एक ददन अनथा हो जायर्ा।
बेनीमाधव लसंह ने बेटे की ओर साक्षी दी--ह ,ॉँ बहू-बेदटयों का यह
स्वभाव अच्छा नहीं कक मदों के मँह
ू लऱ्ें ।
लालबबहारी--वह बडे घर की बेटी हैं, तो हम भी कोई कुमी-कहार नहीं
है । श्रीकंठ ने चचंनतत स्वर से पछ
ू ा--आणखर बात क्या हुई?
लालबबहारी ने कहा--कुछ भी नहीं; यों ही आप ही आप उलझ पडीं।
मैके के सामने हम लोर्ों को कुछ समझती ही नहीं।
श्रीकंठ खा-पीकर आनंदी के पास र्ये। वह भरी बैठी थी। यह हजरत
भी कुछ तीखे थे। आनंदी ने पछ
ू ा--चचत्त तो प्रसन्न है।
श्रीकंठ बोले--बहुत प्रसन्न है ; पर तुमने आजकल घर म़ें यह क्या
उपद्रव मचा रखा है ?
आनंदी की त्योररयों पर बल पड र्ये, झँझ
ु लाहट के मारे बदन म़ें
ज्वाला-सी दहक उठी। बोली--ल्जसने तुमसे यह आर् लर्ायी है , उसे पाऊँ,
मुँह झुलस दँ ।ू
श्रीकंठ--इतनी र्रम क्यों होती हो, बात तो कहो।
आनंदी--क्या कहूँ, यह मेरे भाग्य का िेर है ! नहीं तो र्ँवार छोकरा,
ल्जसको चपरासचर्री करने का भी शऊर नहीं, मुझे खडाऊँ से मार कर यों न
अकडता।
श्रीकंठ--सब हाल साि-साि कहा, तो मालम
ू हो। मझ
ु े तो कुछ पता नहीं।
आनंदी--परसों तम्
ु हारे लाडले भाई ने मझ
ु से मांस पकाने को कहा। घी
ॉँ म़ें पाव-भर से अचधक न था। वह सब मैंने मांस म़ें डाल ददया। जब
ह डी

25
खाने बैठा तो कहने लर्ा--दल म़ें घी क्यों नहीं है ? बस, इसी पर मेरे मैके
को बुरा-भला कहने लर्ा--मुझसे न रहा र्या। मैंने कहा कक वह ॉँ इतना घी
तो नाई-कहार खा जाते हैं, और ककसी को जान भी नहीं पडता। बस इतनी
सी बात पर इस अन्यायी ने मझ
ु पर खडाऊँ ि़ेंक मारी। यदद हाथ से न
रोक लँ ,ू तो लसर िट जाय। उसी से पछ
ू ो, मैंने जो कुछ कहा है , वह सच है
या झठ
ू ।
श्रीकंठ की ऑ ंख़ें लाल हो र्यीं। बोले--यह ॉँ तक हो र्या, इस छोकरे
का यह साहस ! आनंदी ल्स्त्रयों के स्वभावानुसार रोने लर्ी; क्योंकक ऑ ंसू
उनकी पलकों पर रहते हैं। श्रीकंठ बडे धैयव
ा ान ् और शांनत परु
ु ष थे। उन्ह़ें
कदाचचत ् ही कभी िोध आता था; ल्स्त्रयों के ऑ ंसू पुरुष की िोधाल्ग्न
भडकाने म़ें तेल का काम दे ते हैं। रात भर करवट़ें बदलते रहे। उद्ववग्नता के
कारण पलक तक नहीं झपकी। प्रात:काल अपने बाप के पास जाकर बोले --
दादा, अब इस घर म़ें मेरा ननबाह न होर्ा।
इस तरह की ववद्रोह-पण
ू ा बात़ें कहने पर श्रीकंठ ने ककतनी ही बार
अपने कई लमत्रों को आडे हाथों ललया था; परन्तु दभ
ु ााग्य, आज उन्ह़ें स्वयं वे
ही बात़ें अपने मुँह से कहनी पडी ! दस
ू रों को उपदे श दे ना भी ककतना सहज
है !
बेनीमाधव लसंह घबरा उठे और बोले--क्यों?
श्रीकंठ--इसललए कक मुझे भी अपनी मान--प्रनतष्ठा का कुछ ववचार है ।
आपके घर म़ें अब अन्याय और हठ का प्रकोप हो रहा है। ल्जनको बडों का
आदर--सम्मान करना चादहए, वे उनके लसर चढ़ते हैं। मैं दस
ू रे का नौकर
ठहरा घर पर रहता नहीं। यह ॉँ मेरे पीछे ल्स्त्रयों पर खडाऊँ और जत
ू ों की
बौछाऱें होती हैं। कडी बात तक चचन्ता नहीं। कोई एक की दो कह ले , वह ॉँ
तक मैं सह सकता हूँ ककन्तु यह कदावप नहीं हो सकता कक मेरे ऊपर लात-
घूँसे पड़ें और मैं दम न मारुँ ।
बेनीमाधव लसंह कुछ जवाब न दे सके। श्रीकंठ सदै व उनका आदर
करते थे। उनके ऐसे तेवर दे खकर बूढ़ा ठाकुर अवाक् रह र्या। केवल इतना
ही बोला--बेटा, तुम बुद्चधमान होकर ऐसी बात़ें करते हो? ल्स्त्रय ं इस तरह
घर का नाश कर दे ती है । उनको बहुत लसर चढ़ाना अच्छा नहीं।
श्रीकंठ--इतना मैं जानता हूँ, आपके आशीवााद से ऐसा मख ू ा नहीं हूँ।
आप स्वयं जानते हैं कक मेरे ही समझाने-बझु ाने से, इसी र् वॉँ म़ें कई घर

26
सँभल र्ये, पर ल्जस स्त्री की मान-प्रनतष्ठा का ईश्वर के दरबार म़ें उत्तरदाता
हूँ, उसके प्रनत ऐसा घोर अन्याय और पशुवत ् व्यवहार मुझे असह्य है । आप
सच माननए, मेरे ललए यही कुछ कम नहीं है कक लालबबहारी को कुछ दं ड
नहीं होता।
अब बेनीमाधव लसंह भी र्रमाये। ऐसी बात़ें और न सन
ु सके। बोले--
लालबबहारी तम्
ु हारा भाई है। उससे जब कभी भल
ू --चक
ू हो, उसके कान पकडो
लेककन.
श्रीकंठ—लालबबहारी को मैं अब अपना भाई नहीं समझता।
बेनीमाधव लसंह--स्त्री के पीछे ?
श्रीकंठ—जी नहीं, उसकी िूरता और अवववेक के कारण।
दोनों कुछ दे र चुप रहे। ठाकुर साहब लडके का िोध शांत करना चाहते
थे, लेककन यह नहीं स्वीकार करना चाहते थे कक लालबबहारी ने कोई
अनचु चत काम ककया है । इसी बीच म़ें र् वॉँ के और कई सज्जन हुक्के-चचलम
के बहाने वह ॉँ आ बैठे। कई ल्स्त्रयों ने जब यह सनु ा कक श्रीकंठ पत्नी के
पीछे वपता से लडने की तैयार हैं, तो उन्ह़ें बडा हषा हुआ। दोनों पक्षों की
मधुर वाणणय ॉँ सुनने के ललए उनकी आत्माऍ ं नतललमलाने लर्ीं। र् वॉँ म़ें कुछ
ऐसे कुदटल मनुष्य भी थे, जो इस कुल की नीनतपूणा र्नत पर मन ही मन
जलते थे। वे कहा करते थे—श्रीकंठ अपने बाप से दबता है , इसीललए वह
दब्बू है। उसने ववद्या पढ़ी, इसललए वह ककताबों का कीडा है । बेनीमाधव
लसंह उसकी सलाह के बबना कोई काम नहीं करते, यह उनकी मख
ू त
ा ा है । इन
महानभु ावों की शभ
ु कामनाऍ ं आज परू ी होती ददखायी दीं। कोई हुक्का पीने के
बहाने और कोई लर्ान की रसीद ददखाने आ कर बैठ र्या। बेनीमाधव लसंह
पुराने आदमी थे। इन भावों को ताड र्ये। उन्होंने ननश्चय ककया चाहे कुछ
ही क्यों न हो, इन द्रोदहयों को ताली बजाने का अवसर न दँ र्
ू ा। तुरंत कोमल
शब्दों म़ें बोले--बेटा, मैं तुमसे बाहर नहीं हूँ। तम्हारा जो जी चाहे करो, अब
तो लडके से अपराध हो र्या।
इलाहाबाद का अनुभव-रदहत झल्लाया हुआ ग्रेजुएट इस बात को न
समझ सका। उसे डडबेदटंर्-क्लब म़ें अपनी बात पर अडने की आदत थी, इन
हथकंडों की उसे क्या खबर? बाप ने ल्जस मतलब से बात पलटी थी, वह
उसकी समझ म़ें न आया। बोला—लालबबहारी के साथ अब इस घर म़ें नहीं
रह सकता।

27
बेनीमाधव—बेटा, बुद्चधमान लोर् मूखों की बात पर ध्यान नहीं दे ते।
वह बेसमझ लडका है । उससे जो कुछ भूल हुई, उसे तुम बडे होकर क्षमा
करो।
श्रीकंठ—उसकी इस दष्ु टता को मैं कदावप नहीं सह सकता। या तो वही
घर म़ें रहे र्ा, या मैं ही। आपको यदद वह अचधक प्यारा है , तो मझ
ु े ववदा
कील्जए, मैं अपना भार आप सॅंभाल लँ र्
ू ा। यदद मझ
ु े रखना चाहते हैं तो
उससे कदहए, जह ॉँ चाहे चला जाय। बस यह मेरा अंनतम ननश्चय है ।
लालबबहारी लसंह दरवाजे की चौखट पर चुपचाप खडा बडे भाई की बात़ें
सुन रहा था। वह उनका बहुत आदर करता था। उसे कभी इतना साहस न
हुआ था कक श्रीकंठ के सामने चारपाई पर बैठ जाय, हुक्का पी ले या पान
खा ले। बाप का भी वह इतना मान न करता था। श्रीकंठ का भी उस पर
हाददाक स्नेह था। अपने होश म़ें उन्होंने कभी उसे घुडका तक न था। जब
वह इलाहाबाद से आते, तो उसके ललए कोई न कोई वस्तु अवश्य लाते।
मर्
ु दर की जोडी उन्होंने ही बनवा दी थी। वपछले साल जब उसने अपने से
ड्यौढ़े जवान को नार्पंचमी के ददन दं र्ल म़ें पछाड ददया, तो उन्होंने
ॉँ रुपये के
पुलककत होकर अखाडे म़ें ही जा कर उसे र्ले लर्ा ललया था, प च
पैसे लुटाये थे। ऐसे भाई के मुँह से आज ऐसी हृदय-ववदारक बात सुनकर
लालबबहारी को बडी ग्लानन हुई। वह िूट-िूट कर रोने लर्ा। इसम़ें संदेह
नहीं कक अपने ककये पर पछता रहा था। भाई के आने से एक ददन पहले से
उसकी छाती धडकती थी कक दे खूँ भैया क्या कहते हैं। मैं उनके सम्मुख कैसे
जाऊँर्ा, उनसे कैसे बोलँ र्
ू ा, मेरी ऑ ंख़ें उनके सामने कैसे उठे र्ी। उसने
समझा था कक भैया मझ
ु े बल
ु ाकर समझा द़ें र्े। इस आशा के ववपरीत आज
उसने उन्ह़ें ननदा यता की मूनता बने हुए पाया। वह मूखा था। परं तु उसका मन
कहता था कक भैया मेरे साथ अन्याय कर रहे हैं। यदद श्रीकंठ उसे अकेले म़ें
बुलाकर दो-चार बात़ें कह दे ते; इतना ही नहीं दो-चार तमाचे भी लर्ा दे ते तो
कदाचचत ् उसे इतना द:ु ख न होता; पर भाई का यह कहना कक अब मैं इसकी
सूरत नहीं दे खना चाहता, लालबबहारी से सहा न र्या ! वह रोता हुआ घर
आया। कोठारी म़ें जा कर कपडे पहने, ऑ ंख़ें पोंछी, ल्जसम़ें कोई यह न
समझे कक रोता था। तब आनंदी के द्वार पर आकर बोला—भाभी, भैया ने
ननश्चय ककया है कक वह मेरे साथ इस घर म़ें न रह़ें र्े। अब वह मेरा मह
ँु

28
नहीं दे खना चाहते; इसललए अब मैं जाता हूँ। उन्ह़ें किर मुँह न ददखाऊँर्ा !
मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, उसे क्षमा करना।
यह कहते-कहते लालबबहारी का र्ला भर आया।


ल्जस समय लालबबहारी लसंह लसर झक
ु ाये आनंदी के द्वार पर खड था,
उसी समय श्रीकंठ लसंह भी ऑ ंख़ें लाल ककये बाहर से आये। भाई को खडा
दे खा, तो घण
ृ ा से ऑ ंख़ें िेर लीं, और कतरा कर ननकल र्ये। मानों उसकी
परछाही से दरू भार्ते हों।
आनंदी ने लालबबहारी की लशकायत तो की थी, लेककन अब मन म़ें
पछता रही थी वह स्वभाव से ही दयावती थी। उसे इसका तननक भी ध्यान
न था कक बात इतनी बढ़ जायर्ी। वह मन म़ें अपने पनत पर झँुझला रही
थी कक यह इतने र्रम क्यों होते हैं। उस पर यह भय भी लर्ा हुआ था कक
कहीं मझ
ु से इलाहाबाद चलने को कह़ें , तो कैसे क्या करुँ र्ी। इस बीच म़ें जब
उसने लालबबहारी को दरवाजे पर खडे यह कहते सन ु ा कक अब मैं जाता हूँ,
मुझसे जो कुछ अपराध हुआ, क्षमा करना, तो उसका रहा-सहा िोध भी पानी
हो र्या। वह रोने लर्ी। मन का मैल धोने के ललए नयन-जल से उपयुक्त
और कोई वस्तु नहीं है ।
श्रीकंठ को दे खकर आनंदी ने कहा—लाला बाहर खडे बहुत रो रहे हैं।
श्रीकंठ--तो मैं क्या करँ?
आनंदी—भीतर बुला लो। मेरी जीभ म़ें आर् लर्े ! मैंने कह ॉँ से यह
झर्डा उठाया।
श्रीकंठ--मैं न बल
ु ाऊँर्ा।
आनंदी--पछताओर्े। उन्ह़ें बहुत ग्लानन हो र्यी है , ऐसा न हो, कहीं
चल द़ें ।
श्रीकंठ न उठे । इतने म़ें लालबबहारी ने किर कहा--भाभी, भैया से मेरा
प्रणाम कह दो। वह मेरा मुँह नहीं दे खना चाहते; इसललए मैं भी अपना मुँह
उन्ह़ें न ददखाऊँर्ा।
लालबबहारी इतना कह कर लौट पडा, और शीघ्रता से दरवाजे की ओर
बढ़ा। अंत म़ें आनंदी कमरे से ननकली और उसका हाथ पकड ललया।

29
लालबबहारी ने पीछे किर कर दे खा और ऑ ंखों म़ें ऑ ंसू भरे बोला--मुझे जाने
दो।
आनंदी कह ॉँ जाते हो?
लालबबहारी--जह ॉँ कोई मेरा मह
ुँ न दे खे।
आनंदी—मैं न जाने दँ र्
ू ी?
लालबबहारी—मैं तम ु लोर्ों के साथ रहने योग्य नहीं हूँ।
आनंदी—तुम्ह़ें मेरी सौर्ंध अब एक पर् भी आर्े न बढ़ाना।
लालबबहारी—जब तक मुझे यह न मालूम हो जाय कक भैया का मन
मेरी तरि से साि हो र्या, तब तक मैं इस घर म़ें कदावप न रहूँर्ा।
आनंदी—मैं ईश्वर को साक्षी दे कर कहती हूँ कक तुम्हारी ओर से मेरे
मन म़ें तननक भी मैल नहीं है ।
अब श्रीकंठ का हृदय भी वपघला। उन्होंने बाहर आकर लालबबहारी को
र्ले लर्ा ललया। दोनों भाई खब
ू िूट-िूट कर रोये। लालबबहारी ने लससकते
हुए कहा—भैया, अब कभी मत कहना कक तम् ु हारा मँह
ु न दे खँर्
ू ा। इसके
लसवा आप जो दं ड द़ें र्े, मैं सहषा स्वीकार करँर्ा।
ॉँ
श्रीकंठ ने क पते हुए स्वर म़ें कहा--लल्लू ! इन बातों को बबल्कुल भूल
जाओ। ईश्वर चाहे र्ा, तो किर ऐसा अवसर न आवेर्ा।
बेनीमाधव लसंह बाहर से आ रहे थे। दोनों भाइयों को र्ले लमलते
ु ककत हो र्ये। बोल उठे —बडे घर की बेदटय ॉँ ऐसी ही
दे खकर आनंद से पल
होती हैं। बबर्डता हुआ काम बना लेती हैं।
र् वॉँ म़ें ल्जसने यह वत्त
ृ ांत सन
ु ा, उसी ने इन शब्दों म़ें आनंदी की
उदारता को सराहा—‘बडे घर की बेदटय ॉँ ऐसी ही होती हैं।‘

30
पंच परमेश्वर

जुम्मन शेख अलर्ू चौधरी म़ें र्ाढ़ी लमत्रता थी। साझे म़ें खेती होती
थी। कुछ लेन-दे न म़ें भी साझा था। एक को दस
ू रे पर अटल ववश्वास था।
जुम्मन जब हज करने र्ये थे, तब अपना घर अलर्ू को सौंप र्ये थे, और
अलर्ू जब कभी बाहर जाते, तो जुम्मन पर अपना घर छोड दे ते थे। उनम़ें
न खाना-पाना का व्यवहार था, न धमा का नाता; केवल ववचार लमलते थे।
लमत्रता का मल
ू मंत्र भी यही है ।
इस लमत्रता का जन्म उसी समय हुआ, जब दोनों लमत्र बालक ही थे,
और जुम्मन के पूज्य वपता, जुमराती, उन्ह़ें लशक्षा प्रदान करते थे। अलर्ू ने
र्ुर जी की बहुत सेवा की थी, खूब प्याले धोये। उनका हुक्का एक क्षण के
ललए भी ववश्राम न लेने पाता था, क्योंकक प्रत्येक चचलम अलर्ू को आध घंटे
तक ककताबों से अलर् कर दे ती थी। अलर्ू के वपता पुराने ववचारों के मनुष्य
थे। उन्ह़ें लशक्षा की अपेक्षा र्ुरु की सेवा-शुश्रूषा पर अचधक ववश्वास था। वह
कहते थे कक ववद्या पढ़ने ने नहीं आती; जो कुछ होता है , र्ुरु के आशीवााद
से। बस, र्रु
ु जी की कृपा-दृल्ष्ट चादहए। अतएव यदद अलर्ू पर जम
ु राती
शेख के आशीवााद अथवा सत्संर् का कुछ िल न हुआ, तो यह मानकर
संतोष कर लेना कक ववद्योपाजान म़ें मैंने यथाशल्क्त कोई बात उठा नहीं
रखी, ववद्या उसके भाग्य ही म़ें न थी, तो कैसे आती?
मर्र जुमराती शेख स्वयं आशीवााद के कायल न थे। उन्ह़ें अपने सोटे
ॉँ म़ें
पर अचधक भरोसा था, और उसी सोटे के प्रताप से आज-पास के र् वों
जुम्मन की पजू ा होती थी। उनके ललखे हुए रे हननामे या बैनामे पर कचहरी
का मुहररार भी कदम न उठा सकता था। हल्के का डाककया, कांस्टे बबल और
तहसील का चपरासी--सब उनकी कृपा की आकांक्षा रखते थे। अतएव अलर्ू
का मान उनके धन के कारण था, तो जम्
ु मन शेख अपनी अनमोल ववद्या से
ही सबके आदरपात्र बने थे।

जुम्मन शेख की एक बूढ़ी खाला (मौसी) थी। उसके पास कुछ थोडी-सी
लमलककयत थी; परन्तु उसके ननकट संबचं धयों म़ें कोई न था। जुम्मन ने
लम्बे-चौडे वादे करके वह लमलककयत अपने नाम ललखवा ली थी। जब तक

31
दानपत्र की रल्जस्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार
ककया र्या; उन्ह़ें खब
ू स्वाददष्ट पदाथा णखलाये र्ये। हलवे-पुलाव की वषाा-
सी की र्यी; पर रल्जस्री की मोहर ने इन खानतरदाररयों पर भी मानों मुहर
लर्ा दी। जम्
ु मन की पत्नी करीमन रोदटयों के साथ कडवी बातों के कुछ
तेज, तीखे सालन भी दे ने लर्ी। जम्
ु मन शेख भी ननठुर हो र्ये। अब बेचारी
खालाजान को प्राय: ननत्य ही ऐसी बात़ें सन
ु नी पडती थी।

बुदढ़या न जाने कब तक ल्जयेर्ी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे ददया,


मानों मोल ले ललया है ! बघारी दाल के बबना रोदटय ॉँ नहीं उतरतीं ! ल्जतना
रुपया इसके पेट म़ें झोंक चुके, उतने से तो अब तक र् वॉँ मोल ले लेते।

कुछ ददन खालाजान ने सुना और सहा; पर जब न सहा र्या तब


जुम्मन से लशकायत की। तुम्मन ने स्थानीय कमाचारी—र्ह
ृ स्वांमी—के प्रबंध
दे ना उचचत न समझा। कुछ ददन तक ददन तक और यों ही रो-धोकर काम
चलता रहा। अन्त म़ें एक ददन खाला ने जम्
ु मन से कहा—बेटा ! तम्
ु हारे
साथ मेरा ननवााह न होर्ा। तम
ु मझ
ु े रुपये दे ददया करो, मैं अपना पका-खा
लँ ूर्ी।

जुम्मन ने घष्ृ टता के साथ उत्तर ददया—रुपये क्या यहाँ िलते हैं?

खाला ने नम्रता से कहा—मुझे कुछ रखा-सूखा चादहए भी कक नहीं?

जुम्मन ने र्म्भीर स्वर से जवाब़ ददया—तो कोई यह थोडे ही समझा


था कक तु मौत से लडकर आयी हो?

खाला बबर्ड र्यीं, उन्होंने पंचायत करने की धमकी दी। जुम्मन हँसे,
ल्जस तरह कोई लशकारी दहरन को जाली की तरि जाते दे ख कर मन ही
मन हँसता है । वह बोले—ह ,ॉँ जरर पंचायत करो। िैसला हो जाय। मझ
ु े भी
यह रात-ददन की खटखट पसंद नहीं।
पंचायत म़ें ककसकी जीत होर्ी, इस ववषय म़ें जुम्मन को कुछ भी
ॉँ म़ें ऐसा कौन था, उसके अनग्र
संदेह न थ। आस-पास के र् वों ु हों का ऋणी
न हो; ऐसा कौन था, जो उसको शत्रु बनाने का साहस कर सके? ककसम़ें
इतना बल था, जो उसका सामना कर सके? आसमान के िररश्ते तो पंचायत
करने आव़ेंर्े ही नहीं।

32

इसके बाद कई ददन तक बूढ़ी खाला हाथ म़ें एक लकडी ललये आस-
ॉँ म़ें दौडती रहीं। कमर झुक कर कमान हो र्यी थी। एक-एक
पास के र् वों
पर् चलना दभ
ू र था; मर्र बात आ पडी थी। उसका ननणाय करना जररी
था।
बबरला ही कोई भला आदमी होर्ा, ल्जसके समाने बदु ढ़या ने द:ु ख के
ऑ ंसू न बहाये हों। ककसी ने तो यों ही ऊपरी मन से हूँ-ह ॉँ करके टाल ददया,
और ककसी ने इस अन्याय पर जमाने को र्ाललयाँ दीं। कहा—कब्र म़ें प वॉँ
जटके हुए हैं, आज मरे , कल दस
ू रा ददन, पर हवस नहीं मानती। अब तुम्ह़ें
क्या चादहए? रोटी खाओ और अल्लाह का नाम लो। तम्ु ह़ें अब खेती-बारी से
क्या काम है ? कुछ ऐसे सज्जन भी थे, ल्जन्ह़ें हास्य-रस के रसास्वादन का
अच्छा अवसर लमला। झक ु ी हुई कमर, पोपला मुँह, सन के-से बाल इतनी
सामग्री एकत्र हों, तब हँसी क्यों न आवे? ऐसे न्यायवप्रय, दयाल,ु दीन-वत्सल
परु
ु ष बहुत कम थे, ल्जन्होंने इस अबला के दख
ु डे को र्ौर से सन
ु ा हो और
उसको सांत्वना दी हो। चारों ओर से घूम-घाम कर बेचारी अलर्ू चौधरी के
पास आयी। लाठी पटक दी और दम लेकर बोली—बेटा, तुम भी दम भर के
ललये मेरी पंचायत म़ें चले आना।
अलर्ू—मुझे बुला कर क्या करोर्ी? कई र् वॉँ के आदमी तो आव़ेंर्े
ही।
खाला—अपनी ववपद तो सबके आर्े रो आयी। अब आनरे न आने का
अल्ख्तयार उनको है।
अलर्—
ू यों आने को आ जाऊँर्ा; मर्र पंचायत म़ें मह
ँु न खोलँ र्
ू ा।
खाला—क्यों बेटा?
अलर्ू—अब इसका कया जवाब दँ ?ू अपनी खुशी। जुम्मन मेरा पुराना
लमत्र है। उससे बबर्ाड नहीं कर सकता।
खाला—बेटा, क्या बबर्ाड के डर से ईमान की बात न कहोर्े?
हमारे सोये हुए धमा-ज्ञान की सारी सम्पवत्त लुट जाय, तो उसे खबर
नहीं होता, परन्तु ललकार सुनकर वह सचेत हो जाता है। किर उसे कोई
जीत नहीं सकता। अलर्ू इस सवाल का काई उत्तर न दे सका, पर उसके
हृदय म़ें ये शब्द र्ँज
ू रहे थे-

33
क्या बबर्ाड के डर से ईमान की बात न कहोर्े?

संध्या समय एक पेड के नीचे पंचायत बैठी। शेख जुम्मन ने पहले से
ही िशा बबछा रखा था। उन्होंने पान, इलायची, हुक्के-तम्बाकू आदद का
प्रबन्ध भी ककया था। ह ,ॉँ वह स्वय अलबत्ता अलर्ू चौधरी के साथ जरा दरू
पर बैठेजब पंचायत म़ें कोई आ जाता था, तब दवे हुए सलाम से उसका
स्वार्त करते थे। जब सूया अस्त हो र्या और चचडडयों की कलरवयुक्त
पंचायत पेडों पर बैठी, तब यह ॉँ भी पंचायत शुर हुई। िशा की एक-एक अंर्ल

जमीन भर र्यी; पर अचधकांश दशाक ही थे। ननमंबत्रत महाशयों म़ें से केवल
वे ही लोर् पधारे थे, ल्जन्ह़ें जुम्मन से अपनी कुछ कसर ननकालनी थी। एक
कोने म़ें आर् सुलर् रही थी। नाई ताबडतोड चचलम भर रहा था। यह ननणाय
करना असम्भव था कक सुलर्ते हुए उपलों से अचधक धऑ ु ं ननकलता था या
चचलम के दमों से। लडके इधर-उधर दौड रहे थे। कोई आपस म़ें र्ाली-र्लौज
करते और कोई रोते थे। चारों तरि कोलाहल मच रहा था। र् वॉँ के कुत्ते इस
जमाव को भोज समझकर झुंड के झुंड जमा हो र्ए थे।
पंच लोर् बैठ र्ये, तो बूढ़ी खाला ने उनसे ववनती की--
‘पंचों, आज तीन साल हुए, मैंने अपनी सारी जायदाद अपने भानजे
जुम्मन के नाम ललख दी थी। इसे आप लोर् जानते ही होंर्े। जुम्मन ने
मुझे ता-हयात रोटी-कपडा दे ना कबूल ककया। साल-भर तो मैंने इसके साथ
रो-धोकर काटा। पर अब रात-ददन का रोना नहीं सहा जाता। मझ
ु े न पेट की
रोटी लमलती है न तन का कपडा। बेकस बेवा हूँ। कचहरी दरबार नहीं कर
सकती। तम्
ु हारे लसवा और ककसको अपना द:ु ख सुनाऊँ? तम
ु लोर् जो राह
ननकाल दो, उसी राह पर चलँ ू। अर्र मझ
ु म़ें कोई ऐब दे खो, तो मेरे मुँह पर
थप्पड मारी। जुम्मन म़ें बुराई दे खो, तो उसे समझाओं, क्यों एक बेकस की
आह लेता है ! मैं पंचों का हुक्म लसर-माथे पर चढ़ाऊँर्ी।’
रामधन लमश्र, ल्जनके कई असालमयों को जम् ु मन ने अपने र्ांव म़ें बसा
ललया था, बोले—जुम्मन लमयां ककसे पंच बदते हो? अभी से इसका ननपटारा
कर लो। किर जो कुछ पंच कह़ें र्े, वही मानना पडेर्ा।
जम्
ु मन को इस समय सदस्यों म़ें ववशेषकर वे ही लोर् दीख पडे, ल्जनसे
ककसी न ककसी कारण उनका वैमनस्य था। जम् ु मन बोले—पंचों का हुक्म
अल्लाह का हुक्म है। खालाजान ल्जसे चाह़ें , उसे बद़ें । मझ
ु े कोई उज्र नहीं।

34
खाला ने चचल्लाकर कहा--अरे अल्लाह के बन्दे ! पंचों का नाम क्यों
नहीं बता दे ता? कुछ मुझे भी तो मालूम हो।
जुम्मन ने िोध से कहा--इस वक्त मेरा मह
ुँ न खुलवाओ। तुम्हारी बन
पडी है , ल्जसे चाहो, पंच बदो।
खालाजान जम्
ु मन के आक्षेप को समझ र्यीं, वह बोली--बेटा, खद
ु ा से
डरो। पंच न ककसी के दोस्त होते हैं, ने ककसी के दश्ु मन। कैसी बात कहते
हो! और तुम्हारा ककसी पर ववश्वास न हो, तो जाने दो; अलर्ू चौधरी को तो
मानते हो, लो, मैं उन्हीं को सरपंच बदती हूँ।
जुम्मन शेख आनंद से िूल उठे , परन्तु भावों को नछपा कर बोले--अलर्ू
ही सही, मेरे ललए जैसे रामधन वैसे अलर्।ू
अलर्ू इस झमेले म़ें िँसना नहीं चाहते थे। वे कन्नी काटने लर्े।
बोले--खाला, तुम जानती हो कक मेरी जुम्मन से र्ाढ़ी दोस्ती है ।
खाला ने र्म्भीर स्वर म़ें कहा--‘बेटा, दोस्ती के ललए कोई अपना
ईमान नहीं बेचता। पंच के ददल म़ें खद
ु ा बसता है । पंचों के मह
ँु से जो बात
ननकलती है , वह खुदा की तरि से ननकलती है ।’
अलर्ू चौधरी सरपंच हुएं रामधन लमश्र और जुम्मन के दस
ू रे ववरोचधयों
ने बुदढ़या को मन म़ें बहुत कोसा।
अलर्ू चौधरी बोले--शेख जुम्मन ! हम और तुम पुराने दोस्त हैं ! जब
काम पडा, तुमने हमारी मदद की है और हम भी जो कुछ बन पडा, तुम्हारी
सेवा करते रहे हैं; मर्र इस समय तुम और बुढ़ी खाला, दोनों हमारी ननर्ाह
म़ें बराबर हो। तम
ु को पंचों से जो कुछ अजा करनी हो, करो।
जम्
ु मन को परू ा ववश्वास था कक अब बाजी मेरी है। अलर् यह सब
ददखावे की बात़ें कर रहा है । अतएव शांत-चचत्त हो कर बोले--पंचों, तीन साल
हुए खालाजान ने अपनी जायदाद मेरे नाम दहब्बा कर दी थी। मैंने उन्ह़ें ता-
हयात खाना-कप्डा दे ना कबल
ू ककया था। खुदा र्वाह है , आज तक मैंने
खालाजान को कोई तकलीि नहीं दी। मैं उन्ह़ें अपनी म ॉँ के समान समझता
हूँ। उनकी णखदमत करना मेरा िजा है; मर्र औरतों म़ें जरा अनबन रहती
ॉँ
है , उसम़ें मेरा क्या बस है ? खालाजान मुझसे माहवार खचा अलर् म र्ती है ।
जायदाद ल्जतनी है ; वह पंचों से नछपी नहीं। उससे इतना मन
ु ािा नहीं होता
है कक माहवार खचा दे सकँू । इसके अलावा दहब्बानामे म़ें माहवार खचा का

35
कोई ल्जि नही। नहीं तो मैं भूलकर भी इस झमेले मे न पडता। बस, मुझे
यही कहना है। आइंदा पंचों का अल्ख्तयार है , जो िैसला चाह़ें , करे ।
अलर्ू चौधरी को हमेशा कचहरी से काम पडता था। अतएव वह पूरा
कानन
ू ी आदमी था। उसने जम्
ु मन से ल्जरह शर
ु की। एक-एक प्रश्न जम्
ु मन
के हृदय पर हथौडी की चोट की तरह पडता था। रामधन लमश्र इस प्रश्नों पर
मग्ु ध हुए जाते थे। जम्
ु मन चककत थे कक अलर्ू को क्या हो र्या। अभी यह
अलर्ू मेरे साथ बैठी हुआ कैसी-कैसी बात़ें कर रहा था ! इतनी ही दे र म़ें
ऐसी कायापलट हो र्यी कक मेरी जड खोदने पर तुला हुआ है । न मालूम
कब की कसर यह ननकाल रहा है ? क्या इतने ददनों की दोस्ती कुछ भी काम
न आवेर्ी?
जुम्मन शेख तो इसी संकल्प-ववकल्प म़ें पडे हुए थे कक इतने म़ें
अलर्ू ने िैसला सुनाया--
जम्
ु मन शेख तो इसी संकल्प-ववकल्प म़ें पडे हुए थे कक इतने म़ें
अलर्ू ने िैसला सन
ु ाया--
जुम्मन शेख ! पंचों ने इस मामले पर ववचार ककया। उन्ह़ें यह नीनत
संर्त मालूम होता है कक खालाजान को माहवार खचा ददया जाय। हमारा
ववचार है कक खाला की जायदाद से इतना मुनािा अवश्य होता है कक
माहवार खचा ददया जा सके। बस, यही हमारा िैसला है। अर्र जुम्मन को
खचा दे ना मंजूर न हो, तो दहब्वानामा रद्द समझा जाय।
यह िैसला सुनते ही जुम्मन सन्नाटे म़ें आ र्ये। जो अपना लमत्र हो,
वह शत्रु का व्यवहार करे और र्ले पर छुरी िेरे , इसे समय के हे र-िेर के
लसवा और क्या कह़ें ? ल्जस पर परू ा भरोसा था, उसने समय पडने पर धोखा
ददया। ऐसे ही अवसरों पर झूठे-सच्चे लमत्रों की परीक्षा की जाती है । यही
कललयर्
ु की दोस्ती है । अर्र लोर् ऐसे कपटी-धोखेबाज न होते, तो दे श म़ें
आपवत्तयों का प्रकोप क्यों होता? यह हैजा-प्लेर् आदद व्याचधय ॉँ दष्ु कमों के ही
दं ड हैं।
मर्र रामधन लमश्र और अन्य पंच अलर्ू चौधरी की इस नीनत-
परायणता को प्रशंसा जी खोलकर कर रहे थे। वे कहते थे--इसका नाम
पंचायत है ! दध
ू का दध
ू और पानी का पानी कर ददया। दोस्ती, दोस्ती की
जर्ह है , ककन्तु धमा का पालन करना मख्
ु य है । ऐसे ही सत्यवाददयों के बल
पर पथ्
ृ वी ठहरी है , नहीं तो वह कब की रसातल को चली जाती।

36
इस िैसले ने अलर्ू और जुम्मन की दोस्ती की जड दहला दी। अब वे
साथ-साथ बात़ें करते नहीं ददखायी दे ते। इतना पुराना लमत्रता-रपी वक्ष

सत्य का एक झोंका भी न सह सका। सचमुच वह बालू की ही जमीन पर
खडा था।
उनम़ें अब लशष्टाचार का अचधक व्यवहार होने लर्ा। एक दस
ू रे की
आवभर्त ज्यादा करने लर्ा। वे लमलते-जल
ु ते थे, मर्र उसी तरह जैसे
तलवार से ढाल लमलती है ।
जुम्मन के चचत्त म़ें लमत्र की कुदटलता आठों पहर खटका करती थी।
उसे हर घडी यही चचंता रहती थी कक ककसी तरह बदला लेने का अवसर
लमले।

अच्छे कामों की लसद्चध म़ें बडी दरे लर्ती है ; पर बरु े कामों की
लसद्चध म़ें यह बात नहीं होती; जम्
ु मन को भी बदला लेने का अवसर जल्द
ही लमल र्या। वपछले साल अलर्ू चौधरी बटे सर से बैलों की एक बहुत
अच्छी र्ोई मोल लाये थे। बैल पछाहीं जानत के सुंदर, बडे-बडे सीर्ोंवाले थे।
महीनों तक आस-पास के र् वॉँ के लोर् दशान करते रहे । दै वयोर् से जुम्मन
की पंचायत के एक महीने के बाद इस जोडी का एक बैल मर र्या। जुम्मन
ने दोस्तों से कहा--यह दगाबाजी की सजा है । इन्सान सब्र भले ही कर जाय,
पर खुदा नेक-बद सब दे खता है। अलर्ू को संदेह हुआ कक जुम्मन ने बैल
को ववष ददला ददया है । चौधराइन ने भी जुम्मन पर ही इस दघ ु ट
ा ना का
दोषारोपण ककया उसने कहा--जम्
ु मन ने कुछ कर-करा ददया है । चौधराइन
और करीमन म़ें इस ववषय पर एक ददन खब ु ही वाद-वववाद हुआ दोनों
दे ववयों ने शब्द-बाहुल्य की नदी बहा दी। व्यंर्य, वक्तोल्क्त अन्योल्क्त और
उपमा आदद अलंकारों म़ें बात़ें हुईं। जुम्मन ने ककसी तरह शांनत स्थावपत
की। उन्होंने अपनी पत्नी को ड ट-डपटॉँ कर समझा ददया। वह उसे उस
रणभूलम से हटा भी ले र्ये। उधर अलर्ू चौधरी ने समझाने-बझ
ु ाने का काम
अपने तका-पण
ू ा सोंटे से ललया।
अब अकेला बैल ककस काम का? उसका जोड बहुत ढूँढ़ा र्या, पर न
लमला। ननदान यह सलाह ठहरी कक इसे बेच डालना चादहए। र् वॉँ म़ें एक
ॉँ
समझू साहु थे, वह इक्का-र्ाडी ह कते थे। र् वॉँ के र्ड
ु -घी लाद कर मंडी ले
जाते, मंडी से तेल, नमक भर लाते, और र् वॉँ म़ें बेचते। इस बैल पर उनका

37
मन लहराया। उन्होंने सोचा, यह बैल हाथ लर्े तो ददन-भर म़ें बेखटके तीन
खेप हों। आज-कल तो एक ही खेप म़ें लाले पडे रहते हैं। बैल दे खा, र्ाडी म़ें
दोडाया, बाल-भौरी की पहचान करायी, मोल-तोल ककया और उसे ला कर
ॉँ ही ददया। एक महीने म़ें दाम चक
द्वार पर ब ध ु ाने का वादा ठहरा। चौधरी
को भी र्रज थी ही, घाटे की परवाह न की।
समझू साहु ने नया बैल पाया, तो लर्े उसे रर्ेदने। वह ददन म़ें तीन-
तीन, चार-चार खेप़ें करने लर्े। न चारे की किि थी, न पानी की, बस खेपों से
काम था। मंडी ले र्ये, वह ॉँ कुछ सख
ू ा भूसा सामने डाल ददया। बेचारा
जानवर अभी दम भी न लेने पाया था कक किर जोत ददया। अलर्ू चौधरी के
घर था तो चैन की बंशी बचती थी। बैलराम छठे -छमाहे कभी बहली म़ें जोते
जाते थे। खूब उछलते-कूदते और कोसों तक दौडते चले जाते थे। वह ॉँ
बैलराम का रानतब था, साि पानी, दली हुई अरहर की दाल और भूसे के साथ
खली, और यही नहीं, कभी-कभी घी का स्वाद भी चखने को लमल जाता था।
शाम-सबेरे एक आदमी खरहरे करता, पोंछता और सहलाता था। कह ॉँ वह
सुख-चैन, कह ॉँ यह आठों पहर कही खपत। महीने-भर ही म़ें वह वपस-सा
र्या। इक्के का यह जुआ दे खते ही उसका लहू सूख जाता था। एक-एक पर्
चलना दभ ू र था। हडडडय ॉँ ननकल आयी थी; पर था वह पानीदार, मार की
बरदाश्त न थी।
एक ददन चौथी खेप म़ें साहु जी ने दनू ा बोझ लादा। ददन-भरका थका
जानवर, पैर न उठते थे। पर साहु जी कोडे िटकारने लर्े। बस, किर क्या था,
बैल कलेजा तोड का चला। कुछ दरू दौडा और चाहा कक जरा दम ले लँ ू; पर
साहु जी को जल्द पहुँचने की किि थी; अतएव उन्होंने कई कोडे बडी
ननदा यता से िटकारे । बैल ने एक बार किर जोर लर्ाया; पर अबकी बार
शल्क्त ने जवाब दे ददया। वह धरती पर चर्र पडा, और ऐसा चर्रा कक किर
न उठा। साहु जी ने बहुत पीटा, ट र् ॉँ पकडकर खीचा, नथनों म़ें लकडी ठूँस
दी; पर कहीं मत ृ क भी उठ सकता है ? तब साहु जी को कुछ शक हुआ।
उन्होंने बैल को र्ौर से दे खा, खोलकर अलर् ककया; और सोचने लर्े कक
र्ाडी कैसे घर पहुँचे। बहुत चीखे-चचल्लाये; पर दे हात का रास्ता बच्चों की
ऑ ंख की तरह स झ होते ही बंद हो जाता है। कोई नजर न आया। आस-
पास कोई र् वॉँ भी न था। मारे िोध के उन्होंने मरे हुए बैल पर और दरु े
लर्ाये और कोसने लर्े--अभार्े। तझ
ु े मरना ही था, तो घर पहुँचकर मरता !

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ससुरा बीच रास्ते ही म़ें मर रहा। अब र्डी कौन खीचे? इस तरह साहु जी
खूब जले-भुने। कई बोरे र्ुड और कई पीपे घी उन्होंने बेचे थे, दो-ढाई सौ
रुपये कमर म़ें बंधे थे। इसके लसवा र्ाडी पर कई बोरे नमक थे; अतएव छोड
कर जा भी न सकते थे। लाचार वेचारे र्ाडी पर ही लेटे र्ये। वहीं रतजर्ा
करने की ठान ली। चचलम पी, र्ाया। किर हुक्का वपया। इस तरह साह जी
आधी रात तक नींद को बहलाते रह़ें । अपनी जान म़ें तो वह जार्ते ही रहे ;
पर पौ िटते ही जो नींद टूटी और कमर पर हाथ रखा, तो थैली र्ायब !
घबरा कर इधर-उधर दे खा तो कई कनस्तर तेल भी नदारत ! अिसोस म़ें
बेचारे ने लसर पीट ललया और पछाड खाने लर्ा। प्रात: काल रोते-बबलखते घर
पहँचे। सहुआइन ने जब यह बरू ी सुनावनी सुनी, तब पहले तो रोयी, किर
अलर्ू चौधरी को र्ाललय ॉँ दे ने लर्ी--ननर्ोडे ने ऐसा कुलच्छनी बैल ददया कक
जन्म-भर की कमाई लुट र्यी।
इस घटना को हुए कई महीने बीत र्ए। अलर्ू जब अपने बैल के दाम
ॉँ
म र्ते तब साहु और सहुआइन, दोनों ही झल्लाये हुए कुत्ते की तरह चढ़ बैठते
और अंड-बंड बकने लर्ते—वाह ! यह ॉँ तो सारे जन्म की कमाई लुट र्ई,
सत्यानाश हो र्या, इन्ह़ें दामों की पडी है। मुदाा बैल ददया था, उस पर दाम
ॉँ
म र्ने ॉँ ददया, हम़ें
चले हैं ! ऑ ंखों म़ें धूल झोंक दी, सत्यानाशी बैल र्ले ब ध
ननरा पोंर्ा ही समझ ललया है ! हम भी बननये के बच्चे है , ऐसे बुद्धू कहीं
और होंर्े। पहले जाकर ककसी र्डहे म़ें मुँह धो आओ, तब दाम लेना। न जी
मानता हो, तो हमारा बैल खोल ले जाओ। महीना भर के बदले दो महीना
जोत लो। और क्या लोर्े?
चौधरी के अशभ
ु चचंतकों की कमी न थी। ऐसे अवसऱें पर वे भी एकत्र
हो जाते और साहु जी के बराने की पुल्ष्ट करते। परन्तु डेढ़ सौ रुपये से इस
तरह हाथ धो लेना आसान न था। एक बार वह भी र्रम पडे। साहु जी
बबर्ड कर लाठी ढूँढ़ने घर चले र्ए। अब सहुआइन ने मैदान ललया। प्रश्नोत्तर
होते-होते हाथापाई की नौबत आ पहुँची। सहुआइन ने घर म़ें घस
ु कर ककवाड
बन्द कर ललए। शोरर्ुल सुनकर र् वॉँ के भलेमानस घर से ननकाला। वह
परामशा दे ने लर्े कक इस तरह से काम न चलेर्ा। पंचायत कर लो। कुछ
तय हो जाय, उसे स्वीकार कर लो। साहु जी राजी हो र्ए। अलर्ू ने भी हामी
भर ली।

39

पंचायत की तैयाररय ॉँ होने लर्ीं। दोनों पक्षों ने अपने-अपने दल बनाने
शुर ककए। इसके बाद तीसरे ददन उसी वक्ष
ृ के नीचे पंचायत बैठी। वही
संध्या का समय था। खेतों म़ें कौए पंचायत कर रहे थे। वववादग्रस्त ववषय
था यह कक मटर की िललयों पर उनका कोई स्वत्व है या नही, और जब तक
यह प्रश्न हल न हो जाय, तब तक वे रखवाले की पक
ु ार पर अपनी
अप्रसन्नता प्रकट करना आवश्यकत समझते थे। पेड की डाललयों पर बैठी
शुक-मंडली म़ें वह प्रश्न नछडा हुआ था कक मनुष्यों को उन्ह़ें वेसुरौवत कहने
का क्या अचधकार है , जब उन्ह़ें स्वयं अपने लमत्रों से दर्ां करने म़ें भी संकोच
नहीं होता।
पंचायत बैठ र्ई, तो रामधन लमश्र ने कहा-अब दे री क्या है ? पंचों का
चुनाव हो जाना चादहए। बोलो चौधरी ; ककस-ककस को पंच बदते हो।
अलर्ू ने दीन भाव से कहा-समझू साहु ही चन
ु ल़ें।
समझू खडे हुए और कडकर बोले-मेरी ओर से जम्ु मन शेख।
जुम्मन का नाम सन
ु ते ही अलर्ू चौधरी का कलेजा धक् -धक् करने
लर्ा, मानों ककसी ने अचानक थप्पड मारा ददया हो। रामधन अलर्ू के लमत्र
थे। वह बात को ताड र्ए। पछ
ू ा-क्यों चौधरी तुम्ह़ें कोई उज्र तो नही।
चौधरी ने ननराश हो कर कहा-नहीं, मुझे क्या उज्र होर्ा?
अपने उत्तरदानयत्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचचत व्यवहारों का
सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लर्ते हैं तब यही ज्ञान
हमारा ववश्वसनीय पथ-प्रदशाक बन जाता है ।
पत्र-संपादक अपनी शांनत कुटी म़ें बैठा हुआ ककतनी धष्ृ टता और
स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंबत्रमंडल पर आिमण करता है :
परं तु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंबत्रमंडल म़ें सल्म्मललत होता है ।
मंडल के भवन म़ें पर् धरते ही उसकी लेखनी ककतनी ममाज्ञ, ककतनी
ववचारशील, ककतनी न्याय-परायण हो जाती है । इसका कारण उत्तर-दानयत्व का
ज्ञान है । नवयुवक यव
ु ावस्था म़ें ककतना उद्दं ड रहता है । माता-वपता उसकी
ओर से ककतने चचनतनत रहते है ! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थौडी
हीी समय म़ें पररवार का बौझ लसर पर पडते ही वह अव्यवल्स्थत-चचत्त
उन्मत्त यव
ु क ककतना धैयश
ा ील, कैसा शांतचचत्त हो जाता है , यह भी
उत्तरदानयत्व के ज्ञान का िल है।

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जुम्मन शेख के मन म़ें भी सरपंच का उच्च स्थान ग्रहण करते ही
अपनी ल्जम्मेदारी का भाव पेदा हुआ। उसने सोचा, मैं इस वक्त न्याय और
धमा के सवोच्च आसन पर बैठा हूँ। मेरे मह ुँ से इस समय जो कुछ
ननकलेर्ा, वह दे ववाणी के सदृश है -और दे ववाणी म़ें मेरे मनोववकारों का
कदावप समावेश न होना चादहए। मझ
ु े सत्य से जौ भर भी टलना उचचत
नही!
पंचों ने दोनों पक्षों से सवाल-जवाब करने शुर ककए। बहुत दे र तक दोनों
दल अपने-अपने पक्ष का समथान करते रहे । इस ववषय म़ें तो सब सहमत थे
कक समझू को बैल का मूल्य दे ना चादहए। परन्तु वो महाशय इस कारण
ररयायत करना चाहते थे कक बैल के मर जाने से समझू को हानन हुई। उसके
प्रनतकूल दो सभ्य मूल के अनतररक्त समझू को दं ड भी दे ना चाहते थे,
ल्जससे किर ककसी को पशओ
ु ं के साथ ऐसी ननदा यता करने का साहस न हो।
अन्त म़ें जम्
ु मन ने िैसला सन
ु ाया-
अलर्ू चौधरी और समझू साहु। पंचों ने तम्
ु हारे मामले पर अच्छी तरह
ववचार ककया। समझू को उचचत है कक बैल का परू ा दाम द़ें । ल्जस वक्त
उन्होंने बैल ललया, उसे कोई बीमारी न थी। अर्र उसी समय दाम दे ददए
जाते, तो आज समझू उसे िेर लेने का आग्रह न करते। बैल की मत्ृ यु केवल
इस कारण हुई कक उससे बडा कदठन पररश्रम ललया र्या और उसके दाने-
चारे का कोई प्रबंध न ककया र्या।
रामधन लमश्र बोले-समझू ने बैल को जान-बूझ कर मारा है , अतएव
उससे दं ड लेना चादहए।
जम्
ु मन बोले-यह दस
ू रा सवाल है । हमको इससे कोई मतलब नहीं !
झर्डू साहु ने कहा-समझू के साथं कुछ ररयायत होनी चादहए।
जुम्मन बोले-यह अलर्ू चौधरी की इच्छा पर ननभार है । यह ररयायत
कऱें , तो उनकी भलमनसी।
अलर्ू चौधरी िूले न समाए। उठ खडे हुए और जोर से बोल-पंच-
परमेश्वर की जय!
इसके साथ ही चारों ओर से प्रनतध्वनन हुई-पंच परमेश्वर की जय! यह
मनष्ु य का काम नहीं, पंच म़ें परमेश्वर वास करते हैं, यह उन्हीं की मदहमा
है । पंच के सामने खोटे को कौन खरा कह सकता है ?

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थोडी दे र बाद जुम्मन अलर्ू के पास आए और उनके र्ले ललपट कर
बोले-भैया, जब से तुमने मेरी पंचायत की तब से मैं तुम्हारा प्राण-घातक शत्रु
बन र्या था; पर आज मुझे ज्ञात हुआ कक पंच के पद पर बैठ कर न कोई
ककसी का दोस्त है , न दश्ु मन। न्याय के लसवा उसे और कुछ नहीं सझ
ू ता।
आज मझ
ु े ववश्वास हो र्या कक पंच की जबान से खद
ु ा बोलता है। अलर्ू
रोने लर्े। इस पानी से दोनों के ददलों का मैल धल
ु र्या। लमत्रता की
मुरझाई हुई लता किर हरी हो र्ई।

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शंखनाद

भानु चौधरी अपने र् वॉँ के मणु खया थे। र् वॉँ म़ें उनका बडा मान था।
दारोर्ा जी उन्ह़ें टाटा बबना जमीन पर न बैठने दे त।े मुणखया साहब को ऐसी
धाक बँधी हुई थी कक उनकी मजी बबना र् वॉँ म़ें एक पत्ता भी नहीं दहल
सकता था। कोई घटना, चाहे , वह सास-बहु का वववाद हो, चाहे मेड या खेत
का झर्डा, चौधरी साहब के शासनाचधकारी को पण
ू रु
ा प से सचते करने के
ललए कािी थी, वह तुरन्त घटना स्थल पर पहुँचते, तहकीकात होने लर्ती
र्वाह और सबत
ू के लसवा ककसी अलभयोर् को सिलता सदहत चलाने म़ें
ल्जन बातों की जरुरत होती है , उन सब पर ववचार होता और चौधरी जी के
दरबार से िैसला हो जाता। ककसी को अदालत जाने की जरुरत न पडी। ह ,ॉँ
इस कष्ट के ललए चौधरीसाहब कुछ िीस जरुर लेते थे। यदद ककसी अवसर
पर िीस लमलने म़ें असुववधा के कारण उन्ह़ें धीरज से काम लेना पडता तो
र् वॉँ म़ें आित मच जाती थी; क्योंकक उनके धीरज और दरोर्ा जी के िोध
म़ें कोई घननष्ठ सम्बन्ध था। सारांश यह है कक चौधरी से उनके दोस्त-
दश्ु मन सभी चौकन्ने रहते थे।

चौधरी माहश्य के तीन सय
ु ोग्य पत्र
ु थे। बडे लडके बबतान एक सलु शक्षक्षत
मनष्ु य थे। डाककये के रल्जस्टर पर दस्तखत कर लेते थे। बडे अनभ
ु वी, बडे
नीनत कुशल। लमजाई की जर्ह कमीज पहनते, कभी-कभी लसर्रे ट भी पीते,
ल्जससे उनका र्ौरव बढ़ता था। यद्यवप उनके ये दव्ु यासन बूढ़े चौधरी को
नापसंद थे, पर बेचारे वववश थे; क्योंकक अदालत और कानन
ू के मामले
बबतान के हाथों म़ें थे। वह कानून का पत
ु ला था। कानून की दिाएँ उसकी
जबान पर रखी रहती थीं। र्वाह र्ढ़ने म़ें वह पूरा उस्ताद था। मँझले लडके
शान चौधरी कृवष-ववभार् के अचधकारी थे। बुद्चध के मंद; लेककन शरीर से
बडे पररश्रमी। जह ॉँ घास न जमती हो, वह ॉँ केसर जमा द़ें । तीसरे लडके का
नाम र्म
ु ान था। वह बडा रलसक, साथ ही उद्दं ड भी था। मह
ु रा म म़ें ढोल
इतने जोरों से बजाता कक कान के पदे िट जाते। मछली िँसाने का बडा
शौकीन था बडा रँर्ील जवान था। खँजडी बजा-बजाकर जब वह मीठे स्वर से
ख्याल र्ाता, तो रं र् जम जाता। उसे दं र्ल का ऐसा शौक था कक कोसों तक
धावा मारता; पर घरवाले कुछ ऐसे शुष्क थे कक उसके इन व्यसनों से तललक

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भी सहानुभूनत न रखते थे। वपता और भाइयों ने तो उसे ऊसर खेत समझ
रखा था। घुडकी-धमकी, लशक्षा और उपदे श, स्नेह और ववनय, ककसी का उस
पर कुछ भी असर नहीं हुआ। ह ,ॉँ भावज़ें अभी तक उसकी ओर से ननराश न
हुई थी। वे अभी तक उसे कडवी दवाइय ॉँ वपलाये जाती थी; पर आलस्य वह
राज रोर् है ल्जसका रोर् कभी नहीं सँभलता। ऐसा कोई बबराल ही ददन
ॉँ र्म
जाता होर्ा कक ब क ु ान को भावजों के कटुवाक्य न सन
ु ने पडते हों। ये
बबषैले शर कभी-कभी उसे कठोर ह्रदय म़ें चुभ जाते; ककन्तु यह घाव रात
भर से अचधक न रहता। भोर होते ही थकना के साथ ही यह पीडा भी शांत
हा जाती। तडका हुआ, उसने हाथ-मुँह धोया, बंशी उठायी और तालाब की ओर
चल खडा हुआ। भावज़ें िूलों की वषाा ककया करती; बूढ़े चौधरी पैतरे बदलते
रहते और भाई लोर् तीखी ननर्ाह से दे खा करते, पर अपनी धुन का परू ा
ॉँ
ब का र्ुमान उन लोर्ों के बीच से इस तरह अकडता चला जाता, जैसे कोई
मस्त हाथी कुत्तों के बीच से ननकल जाता है । उसे सम
ु ार्ा पर लाने के ललए
क्या-क्या उपाय नही ककये र्ये। बाप समझाता-बेटा ऐसी राह चलो ल्जसम़ें
तुम्ह़ें भी पैस़ें लमल़ें और र्ह
ृ स्थी का भी ननवााह हो। भाइयों के भरोसे कब
तक रहोर्े? मैं पका आम हूँ-आज टपक पडा या कल। किर तुम्हारा ननबाह
कैसे होर्ा ? भाई बात भी न पछ
ू े र्े; भावजों का रं र् दे ख रहे हो। तुम्हारे भी
लडके बाले है , उनका भार कैसे सँभालोर्े ? खेती म़ें जी न लर्े, काल्स्ट-बबली
म़ें भरती करा दँ ू ? बाँका र्ुमनान खडा-खडा यह सब सुनता, लेककन पत्थर
का दे वता था, कभी न पसीजता ! इन माहश्य के अत्याचार का दं ड उसकी
स्त्री बेचारी को भोर्ना पडता था। मेहनत के घर के ल्जतने काम होते, वे
उसी के लसर थोपे जाते। उपले पाथती, कंु ए से पानी लाती, आटा पीसती और
नतस पर भी जेठानाननय ॉँ सीधे मुँह बात न करती, वाक्य बाणों से छे दा
ॉँ े र्ुमान कुछ
करतीं। एक बार जब वह पनत से कई ददन रुठी रही, तो ब क
नमा हुए। बाप से जाकर बोले-मुझे कोई दक
ू ान खोलवा दील्जए। चौधरी ने
परमात्मा को धन्यवाद ददया। िूले न समाये। कई सौ रुपये लर्ाकर कपडे
की दक
ू ान खुलवा दी। र्ुमान के भार् जर्े। तनजेब के चन्
ु नटदार कुरते
बनवाये, मलमल का सािा धानी रं र् म़ें रँर्वाया। सौदा बबके या न बबके, उसे
लाभ ही होना था! दक
ू ान खल
ु ी हुई है , दस-पाँच र्ाढ़े लमत्र जमे हुए हैं, चरस
की दम और खयाल की ताऩें उड रही हैं—
चल झपट री, जमन
ु ा-तट री, खडो, नटखट री।

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ॉँ े र्ुमान ने खूब ददल खोल कर
इस तरह तीन महीने चैन से कटे । ब क
अरमान ननकाले, यह ॉँ तक कक सारी लार्त लाभ हो र्यी। टाट के टुकडे के
लसवा और कुछ न बचा। बूढ़े चौधरी कुऍ ं म़ें चर्रने चले, भावजों ने घोर
आन्दोलन मचाया—अरे राम ! हमारे बच्चे और हम चीथडों को तरस़ें, र्ाढ़े
का एक कुरता भी नसीब न हो, और इतनी बडी दक
ू ान इस ननखट्टू का
कफ़न बन र्ई। अब कौन मह
ँु ददखायेर्ा? कौन मँह
ु लेकर घर म़ें पैर रखेर्ा?
ॉँ े र्ुमान के तेवर जरा भी मैले न हुए। वही मुँह ललए वह किर घर
ककंतु ब क
आया और किर वही पुरानी चाल चलने लर्ा। कानन ू दां बबताने उनके ये
ठाट-बाट दे कर जल जाता। मैं सारे ददन पसीना बहाऊँ, मुझे नैनसुख का
कुरता भी न लमले, यह अपादहज सारे ददन चारपाई तोडे और यों बन-ठन कर
ननकाले? एसे वस्त्र तो शायद मुझे अपने ब्याह म़ें भी न लमले होंर्े। मीठे
शान के ह्रदय म़ें भी कुछ ऐसे ही ववचार उठते थे। अंत म़ें यह जलन सही न
र्यी, और अल्ग्न भडकी; तो एक ददन कानन
ू दाँ बबतान की पत्नी र्म
ु नाम के
सारे कपडे उठा लायी और उन पर लमट्टी का तेल उँ डेल कर आर् लर्ा दी।
ज्वाला उठी, सारे कपडे दे खत-दे खते जल कर राख हो र्ए। र्म
ु ान रोते थे।
दोनों भाई खडे तमाशा दे खते थे। बूढ़े चौधरी ने यह दृश्य दे खा, और लसर
पीट ललया। यह द्वेषाल्ग्न हैं। घर को जलाकर तक बुझेर्ी।


यह ज्वाला तो थोडी दे र म़ें शांत हो र्यी, परन्तु ह्रदय की आर् ज्यों की
त्यों दहकती रही। अंत म़ें एक ददन बूढ़े चौधरी ने घर के सब मेम्बरों को
एकत्र ककया और र्ढ़
ू ववषय पर ववचार करने लर्े कक बेडा कैसे पार हो।
बबतान से बोले- बेटा, तम
ु ने आज दे खा कक बात की बात म़ें सैकडों रुपयों पर
पानी किर र्या। अब इस तरह ननवााह होना असम्भव है । तुम समझदार हो,
मुकदमे-मामले करते हो, कोई ऐसी राह ननकालो कक घर डूबने से बचे। मैं तो
चाहता था कक जब तक चोला रहे , सबको समेटे रहूँ, मर्र भर्वान ् के मन म़ें
कुछ और ही है ।
बबतान की नीनतकुशलता अपनी चतरु सहार्ालमनी के सामने लुप्त हो
जाती थी। वह अभी उसका उत्तर सोच ही रहे थे कक श्रीमती जी बोल उठीं —
दादा जी! अब समुझाने-बुझाने से काम नहीं चलेर्ा, सहते-सहते हमारा कलेजा
पक र्या। बेटे की ल्जतनी पीर बाप को होर्ी, भाइयों को उतनी क्या, उसकी

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आधी भी नहीं हो सकती। मैं तो साि कहती हूँ—र्ुमान को तुम्हारी कमाई
ॉँ के दहंडाले म़ें झुलाओ।
म़ें हक है , उन्ह़ें कंचन के कौर णखलाओ और च दी
हमम़ें न इतना बूता है , न इतना कलेजा। हम अपनी झोपडी अलर् बना
लेऱ्ें। ह ,ॉँ जो कुछ हमारा हो, वह हमको लमलना चादहए। ब ट-बखरा
ॉँ कर
दील्जए। बला से चार आदमी हँसेर्े, अब कह ॉँ तक दनु नया की लाज ढोव़ें?
नीनतज्ञ बबतान पर इस प्रबल वक्तत
ृ ा का जो असर हुआ, वह उनके
ववकालसत और पुमुददत चेहरे से झलक रहा था। उनम़ें स्वयं इतना साहस न
था कक इस प्रस्ताव का इतनी स्पष्टता से व्यक्त कर सकते। नीनतज्ञ
महाशय र्ंभीरता से बोले—जायदाद मुश्तरका, मन्कूला या र्ैरमन्कूला, आप
के हीन-हायात तकसीम की जा सकती है , इसकी नजीऱें मौजूद है । जमींदार
को साककतुललमल्ल्कयत करने का कोई इस्तहकाक नहीं है ।
अब मंदबुद्चध शान की बारी आयी, पर बेचारा ककसान, बैलों के पीछे
ऑ ंख़ें बंद करके चलने वाला, ऐसे र्ढ़
ू ववषय पर कैसे मँह
ु खोलता। दवु वधा म़ें
पडा हुआ था। तब उसकी सत्यवक्ता धमापत्नी ने अपनी जेठानी का
अनुसरण कर यह कदठन काया सम्पन्न ककया। बोली—बडी बहन ने जो कुछ
कहा, उसके लसवा और दस
ू रा उपाय नहीं। कोई तो कलेजा तोड-तोड कर
ॉँ
कमाये मर्र पैसे-पैसे को तरसे, तन ढ कने को वस्त्र तक न लमले, और कोई
सुख की नींद सोये, हाथ बढ़ा-बढ़ा के खाय! ऐसी अंधेरे नर्री म़ें अब हमारा
ननबाह न होर्ा।
शान चौधरी ने भी इस प्रस्ताव का मुक्तकंठ से अनुमोदन ककया। अब
बढ़
ू े चौधरी र्म
ु ान से बोले—क्यों बेटा, तम्
ु ह़ें भी यह मंजरू है ? अभी कुछ नहीं
बबर्डा। यह आर् अब भी बझ
ु सकती है। काम सबको प्यारा है , चाम ककसी
को नहीं। बोलो, क्या कहते हो ? कुछ काम-धंधा करोर्े या अभी ऑ ंख़ें नहीं
खुलीं ?
र्ुमान म़ें धैया की कमी न थी। बातों को इस कान से सुन कर उस
कान से उडा दे ना उसका ननत्य-कमा था। ककंतु भाइयों की इस जन-मुरीदी पर
उसे िोध आ र्या। बोला—भाइयों की जो इच्छा है , वही मेरे मन म़ें भी लर्ी
हुई है । मैं भी इस जंजाल से भार्ना चाहता हूँ। मुझसे न मंजूरी हुई, न
होर्ी। ल्जसके भाग्य म़ें चक्की पीसना बदा हो, वह पीसे! मेरे भाग्य म़ें चैन
करना ललखा है , मैं क्यों अपना लसर ओखली म़ें दँ ू ? मैं तो ककसी से काम

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करने को नहीं कहता। आप लोर् क्यों मेरे पीछे पडे हुए है । अपनी-अपनी
किि कील्जए। मुझे आध सेर आटे की कमी नही है।
इस तरह की सभाऍ ं ककतनी ही बार हो चुकी थीं, परन्तु इस दे श की
सामाल्जक और राजनीनतक सभाओं की तरह इसम़ें भी कोई प्रयोजन लसद्ध
नहीं होता था। दो-तीन ददन र्म
ु ान ने घर पर खाना नहीं खाया। जतन लसंह
ठाकुर शौकीन आदमी थे, उन्हीं की चौपाल म़ें पडा रहता। अंत म़ें बढ़
ू े चौधरी
र्ये और मना के लाये। अब किर वह परु ानी र्ाडी अडती, मचलती, दहलती
चलने लर्ी।

पांडे घर के चूहों की तरह, चौधरी के धर म़ें बच्च़ें भी सयाने थे। उनके
ललए घोडे लमट्टी के घोडे और नाव़ें कार्ज की नाव़ें थीं। िलों के ववषय म़ें
उनका ज्ञान असीम था, र्ूलर और जंर्ली बेर के लसवा कोई ऐसा िल न था
ल्जसे बीमाररयों का घर न समझते हों, लेककन र्रु दीन के खोंचे म़ें ऐसा प्रबल
आकषाण था कक उसकी ललकार सन
ु ते ही उनका सारा ज्ञान व्यथा हो जाता
साधारण बच्चों की तरह यदद सोते भी हो; तो चौंक पडते थे। र्ुरदीन उस
था। र् वॉँ म़ें साप्तादहक िेरे लर्ाता था। उसके शुभार्मन की प्रतीक्षा और
आकांक्षा म़ें ककतने ही बालकों को बबना ककंडरार्ाटा न की रं र्ीन र्ोललयों के
ही, संख्याऍ ं और ददनों के नाम याद हो र्ए थे। र्ुरदीन बूढ़ा-सा, मैला-कुचैला
आदमी था; ककन्तु आस-पास म़ें उसका नाम उपद्रवी लडकों के ललए हनुमान-
मंत्र से कम न था। उसकी आवाज सुनते ही उसके खोंचे पर लडकों का ऐसा
धावा होता कक मल्क्खयों की असंख्य सेना को भी रण-स्थल से भार्ना पडता
था। और जह ॉँ बच्चों के ललए लमठाइय ॉँ थीं, वह ॉँ र्रु दीन के पास माताओं के
ललए इससे भी ज्यादा मीठी बात़ें थी। म ॉँ ककतना ही मना करती रहे , बार-बार
पैसा न रहने का बहाना करे पर र्ुरदीन चटपट लमठाईयों का दोनों बच्चों के
हाथ म़ें रख ही दे ता और स्नहे -पूणा भाव से कहता---बहू जी, पैसों की कोई
चचन्ता न करो, किर लमलते रह़ें र्े, कहीं भार्े थोडे ही जाते हैं। नारायण ने
तुमको बच्चे ददए हैं, तो मुझे भी उनकी न्योछावर लमल जाती है , उन्हीं की
बदौलत मेरे बाल-बच्चे भी जीते हैं। अभी क्या, ईश्वर इनका मौर तो ददखावे,
किर दे खना कैसा ठनर्न करता हूँ।
र्रु दीन का यह व्यवहारा चाहे वाणणज्य-ननयमों के प्रनतकूल ही क्यों न
हो, चाहे , ‘नौ नर्द सही, तेरह उधार नही’ वाली कहावत अनभ
ु व-लसद्ध ही

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क्यों न हो, ककन्तु लमष्टाभाषी र्ुरदीन को कभी अपने इस व्यवहार पर
पछताने या उसम़ें संशोन करने की जरुरत नहीं हुई।
मंर्ल का शुभ ददन था। बच्चे बडे बेचन ै ी से अपने दरवाजे पर खडे
र्रु दीन की राह दे ख रहे थे। कई उत्साही लडके पेड पर चढ़ र्ए और कोई-
कोई अनरु ार् से वववश होकर र् वॉँ के बाहर ननकल र्ए थे। सय
ू ा भर्वान ्
अपना सनु हला र्ाल ललए परू ब से पल्श्चम जा पहुँचे थे, इतने म़ें ही र्रु दीन
आता हुआ ददखाई ददया। लडकों ने दौडकर उसका दामन पकडा और आपस
म़ें खींचातानी होने लर्ी। कोई कहता था मेरे घर चलो; कोई अपने घर का
न्योता दे ता था। सबसे पहले भानु चौधरी का मकान पडा। र्रु दीन अपना
खोंचा उतार ददया। लमठाइयों की लूट शुरु हो र्यी। बालको और ल्स्त्रयों का
ठट्ट लर् र्या। हषा और ववषाद, संतोष और लोभ, ईष्याा ओर क्षोभ, द्वेष
ू द ॉँ बबतान की पत्नी अपने तीनों
और जलन की नाट्यशाला सज र्यी। कनन
लडकों को ललए हुए ननकली। शान की पत्नी भी अपने दोनों लडकों के साथ
उपल्स्थत हुई। र्रु दीन ने मीठी बात़ें करनी शरु
ु की। पैसे झोली म़ें रखे, धेले
की लमठाई दी और धेले का आशीवााद। लडके दोनो ललए उछलते-कूदते घर म़ें
दाणखल हुए। अर्र सारे र् वॉँ म़ें कोई ऐसा बालक था ल्जसने र्रु दीन की
उदारता से लाभ उठाया हो, तो वह ब क ॉँ े र्म
ु ान का लडका धान था।
यह कदठन था कक बालक धान अपने भाइयों-बहनों को हँस-हँस और
उलल-उछल कर लमठाइय ॉँ खाते दे ख कर सब्र कर जाय! उस पर तरु ाा यह कक
वे उसे लमठाइय ॉँ ददख-ददख कर ललचाते और चचढ़ाते थे। बेचारा धान
चीखता और अपनी मात का ऑ ंचल पकड-पकड कर दरवाजे की तरि
खींचता था; पर वह अबला क्या करे । उसका ह्रदय बच्चे के ललए ऐंठ-ऐंठ कर
रह जाता था। उसके पास एक पैसा भ्री नहीं था। अपने दभ
ु ााग्य पर, जेठाननयों
की ननष्ठुरता पर और सबसे ज्यादा अपने पनत के ननखट्टूपन पर कुढ़-कुढ़
कर रह जाती थी। अपना आदमी ऐसा ननकम्मा न होता, तो क्यों दस
ू रों का
मुँह दे खना पडता, क्यों दस
ू रों के धक्के खाने पडते ? उठा ललया और प्यार से
ददलासा दे ने लर्ी—बेटा, रोओ मत, अबकी र्ुरदीन आवेर्ा तो तुम्ह़ें बहुत-सी
लमठाई ले दँ र्
ू ी, मैं इससे अच्छी लमठाई बाजार से मँर्वा दँ र्
ू ी, तुम ककतनी
लमठाई खाओर्! यह कहते कहते उसकी ऑ ंख़ें भर अयी। आह! यह मनहूस
मंर्ल आज ही किर आवेर्ा; और किर ये ही बहाने करने पडेर्े! हाय, अपना
प्यारा बच्चा धेले की लमठाई को तरसे और घर म़ें ककसी का पत्थर-सा

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कलेजा न पसीजे! वह बेचारी तो इन चचंताओं म़ें डूबी हुई थी ओर धान
ककसी तरह चुप ही न होता था। जब कुछ वश न चला, तो म ॉँ की र्ोद से
जमीन पर उतर कर लोठने लर्ा और रो-रो कर दनु नया लसर पर उठा ली।
म ॉँ ने बहुत बहलाया, िुसलाया, यह ॉँ तक कक उसे बच्चे के इस हठ पर िोध
भी आ र्या। मानव ह्रदय के रहस्य कभी समझ म़ें नहीं आते। कह ॉँ तो
बच्चे को प्यार से चचपटाती थी, ऐसी झल्लायी की उसे दो-तीन थप्पड जोर
से लर्ाये और घुडकर कर बोली—चुप रह आभर्े! तेरा ही मुँह लमठाई खाने
का है ? अपने ददन को नहीं रोता, लमठाई खाने चला है ।
बाँका र्ुमान अपनी कोठरी के द्वार पर बैठा हुआ यह कौतक
ु बडे ध्यान
से दे ख रहा था। वह इस बच्चे को बहुत चाहता था। इस वक्त के थप्पड
उसके ह्रदय म़ें तेज भाले के समान लर्े और चुभ र्या। शायद उसका
अलभप्राय भी यही था। धुननया रुई को धन ॉँ पर चोट लर्ाता
ु ने के ललए त त
है ।
ल्जस तरह पत्थर और पानी म़ें आर् नछपी रहती है , उसी तरह मनष्ु य
के ह्रदय म़ें भी, चाहे वह कैसा ही िूर और कठोर क्यों न हो, उत्कृष्ट और
कोमल भाव नछपे रहते हैं। र्ुमान की ऑ ंख़ें भर आयी। ऑ ंसू की बूँद़ें बहुधा
हमारे ह्रदय की मुललनता को उज्जवल कर दे ती हैं। र्ुमान सचेत हो र्या।
उसने जा कर बच्चे का र्ोद म़ें उठा ललया और अपनी पत्नी से
करुणोत्पादक स्वर म़ें बोला—बच्चे पर इतना िोध क्यों करती हो ? तुम्हारा
दोषी मैं हूँ, मुझको जो दं ड चाहो, दो। परमात्मा ने चाहा तो कल से लोर् इस
घर म़ें मेरा और मेरे बाल-बच्चों का भी आदर कऱें र्े। तम
ु ने आज मझ
ु े सदा
के ललए इस तरह जर्ा ददया, मानों मेरे कानों म़ें शंखनाद कर मझ
ु े कमा-पथ
म़ें प्रवेश का उपदे श ददया हो।

49
नार्-पज
ू ा

प्रात:काल था। आषढ़ का पहला दौंर्डा ननकल र्या था। कीट-पतंर् चारों
तरि ऱें र्ते ददखायी दे ते थे। नतलोत्तमा ने वादटका की ओर दे खा तो वक्ष
ृ और
पौधे ऐसे ननखर र्ये थे जैसे साबुन से मैने कपडे ननखर जाते हैं। उन पर
एक ववचचत्र आध्याल्त्मक शोभा छायी हुई थी मानों योर्ीवर आनंद म़ें मग्न
पडे हों। चचडडयों म़ें असाधारण चंचलता थी। डाल-डाल, पात-पात चहकती
ॉँ
किरती थीं। नतलोत्तमा बार् म़ें ननकल आयी। वह भी इन्हीं पक्षक्षयों की भ नत
चंचल हो र्यी थी। कभी ककसी पौधे की दे खती, कभी ककसी िूल पर पडी हुई
जल की बूँदो को दहलाकर अपने मुँह पर उनके शीतल छींटे डालती। लाज
बीरबहूदटय ॉँ ऱें र् रही थी। वह उन्ह़ें चुनकर हथेली पर रखने लर्ी। सहसा उसे
एक काला वहृ त्काय स पॉँ ऱें र्ता ददखायी-ददया। उसने वपल्लाकर कहा—अम्म ,ॉँ
नार्जी जा रहे हैं। लाओ थोडा-सा दध
ू उनके ललए कटोरे म़ें रख दं ।ू
अम्म ॉँ ने कहा—जाने दो बेटी, हवा खाने ननकले होंर्े।
नतलोत्तमा—र्लमायों म़ें कह ॉँ चले जाते हैं ? ददखायी नहीं दे ते।
ॉँ
म —कहीं ॉँ म़ें पडे रहते हैं।
जाते नहीं बेटी, अपनी ब बी
नतलोत्तमा—और कहीं नहीं जाते ?
ॉँ टी, हमारे दे वता है और कहीं क्यों जायेऱ्ें ? तुम्हारे जन्म के साल
म —बे
से ये बराबर यही ददखायी दे त़ें हैं। ककसी से नही बोलते। बच्चा पास से
ननकल जाय, पर जरा भी नहीं ताकते। आज तक कोई चदु हया भी नहीं
पकडी।
नतलोत्तमा—तो खाते क्या होंर्े ?
ॉँ टी, यह लोर् हवा पर रहते हैं। इसी से इनकी आत्मा ददव्य हो
म —बे
जाती है । अपने पव
ू ज
ा न्म की बात़ें इन्ह़ें याद रहती हैं। आनेवाली बातों को भी
जानते हैं। कोई बडा योर्ी जब अहंकार करने लर्ता है तो उसे दं डस्वरुप इस
योनन म़ें जन्म लेना पडता है। जब तक प्रायल्श्चत परू ा नहीं होता तब तक
वह इस योनन म़ें रहता है। कोई-कोई तो सौ-सौ, दो-दो सौं वषा तक जीते रहते
हैं।
नतलोत्तमा—इसकी पज
ू ा न करो तो क्या कऱें ।
ॉँ टी, कैसी बच्चों की-सी बात़ें करती हो। नाराज हो जायँ तो लसर
म —बे
पर न जाने क्या ववपवत्त आ पडे। तेरे जन्म के साल पहले-पहल ददखायी ददये
50
ॉँ बार अवश्य दशान दे जाते हैं। इनका ऐसा
थे। तब से साल म़ें दस-प च
प्रभाव है कक आज तक ककसी के लसर म़ें ददा तक नहीं हुआ।

कई वषा हो र्ये। नतलोत्तमा बाललका से युवती हुई। वववाह का शुभ


अवसर आ पहुँचा। बारात आयी, वववाह हुआ, नतलोत्तमा के पनत-र्ह
ृ जाने का
मह
ु ू ता आ पहुँचा।
नयी वधू का श्रंर्
ृ ार हो रहा था। भीतर-बाहर हलचल मची हुई थी, ऐसा
जान पडता था भर्दड पडी हुई है। नतलोत्तमा के ह्रदय म़ें ववयोर् द:ु ख की
तरं र्े उठ रही हैं। वह एकांत म़ें बैठकर रोना चाहती है । आज माता-वपता,
ॉँ
भाईबंद, सणखय -सहे ललय ॉँ सब छूट जायेर्ी। किर मालूम नहीं कब लमलने का
संयोर् हो। न जाने अब कैसे आदलमयों से पाला पडेर्ा। न जाने उनका
स्वभाव कैसा होर्ा। न जाने कैसा बतााव कऱें र्े। अममाँ की ऑ ंख़ें एक क्षण
भी न थम़ेंर्ी। मैं एक ददन के ललए कही, चली जाती थी तो वे रो-रोकर
व्यचथत हो जाती थी। अब यह जीवनपयान्त का ववयोर् कैसे सह़ें र्ी ? उनके
लसर म़ें ददा होता था जब तक मैं धीरे -धीरे न मलँ ू, उन्ह़ें ककसी तरह कल-चैन
ही न पडती थी। बाबूजी को पान बनाकर कौन दे र्ा ? मैं जब तक उनका
भोजन न बनाऊँ, उन्ह़ें कोई चीज रुचती ही न थी? अब उनका भोजन कौन
बानयेर्ा ? मुझसे इनको दे खे बबना कैसे रहा जायर्ा? यह ॉँ जरा लसर म़ें ददा
भी होता था तो अम्म ं और बाबज ू ी घबरा जाते थे। तुरंत बैद-हकीम आ जाते
थे। वह ॉँ न जाने क्या हाल होर्ा। भर्वान ् बंद घर म़ें कैसे रहा जायर्ा ? न
जाने वह ॉँ खल
ु ी छत है या नहीं। होर्ी भी तो मझ
ु े कौन सोने दे र्ा ? भीतर
घट ु कर मरुँ र्ी। जर्ने म़ें जरा दे र हो जायर्ी तो ताने लमल़ेंर्े। यह ॉँ
ु -घट
सुबह को कोई जर्ाता था, तो अम्म ॉँ कहती थीं, सोने दो। कच्ची नींद जार्
जायर्ी तो लसर म़ें पीडा होने लर्ेर्ी। वह ॉँ व्यंर् सुनने पड़ेंर्े, बहू आलसी है ,
ददन भर खाट पर पडी रहती है। वे (पनत) तो बहुत सुशील मालूम होते हैं।
ह ,ॉँ कुछ अलभमान अवश्य हैं। कहों उनका स्वाभाव ननठुर हुआ तो............?
सहसा उनकी माता ने आकर कहा-बेटी, तुमसे एक बात कहने की याद
न रही। वह ं नार्-पज
ू ा अवश्य करती रहना। घर के और लोर् चाहे मना कऱें ;
पर तुम इसे अपना कताव्य समझना। अभी मेरी ऑ ंख़ें जरा-जरा झपक र्यी
थीं। नार् बाबा ने स्वप्न म़ें दशान ददये।

51
नतलोत्तमा—अम्म ,ॉँ मुझे भी उनके दशान हुए हैं, पर मुझे तो उन्होंले बडा
ववकाल रुप ददखाया। बडा भंयक ं र स्वप्न था।
ॉँ खना, तुम्हारे धर म़ें कोई स पॉँ न मारने पाये। यह मंत्र ननत्य
म —दे
पास रखना।
नतलोत्तमा अभी कुछ जवाब न दे ने पायी थी कक अचानक बारात की
ओर से रोने के शब्द सन
ु ायी ददये, एक क्षण म़ें हाहाकर मच र्या। भंयकर
शोक-घटना हो र्यी। वर को सौंप ने काट ललया। वह बहू को बबदा कराने
आ रहा था। पालकी म़ें मसनद के नीचे एक काला साँप नछपा हुआ था। वर
ज्यों ही पालकी म़ें बैठा, साँप ने काट ललया।
चारों ओर कुहराम मच र्या। नतलात्तमा पर तो मनों वज्रपात हो र्या।
उसकी म ॉँ लसर पीट-पीट रोने लर्ी। उसके वपता बाबू जर्दीशचंद्र मूल्च्छा त
होकर चर्र पडे। ह्रदयरोर् से पहले ही से ग्रस्त थे। झाड-िँू क करने वाले
आये, डाक्टर बल
ु ाये र्ये, पर ववष घातक था। जरा दे र म़ें वर के होंठ नीले
पड र्ये, नख काले हो र्ये, मछ
ू ाा आने लर्ी। दे खते-दे खते शरीर ठं डा पड
र्या। इधर उषा की लाललमा ने प्रकृनत को अलोककत ककया, उधर दटमदटमाता
हुआ दीपक बुझ र्या।
जैसे कोई मनुष्य बोरों से लदी हुई नाव पर बैठा हुआ मन म़ें झँझ
ु लाता
है कक यह और तेज क्यों नहीं चलती , कहीं आराम से बैठने की जर्ह नहीं,
राह इतनी दहल क्यों रही हैं, मैं व्यथा ही इसम़ें बैठा; पर अकस्मात ् नाव को
भँवर म़ें पडते दे ख कर उसके मस्तूल से चचपट जाता है , वही दशा नतलोत्तमा
की हुई। अभी तक वह ववयोर्ी द:ु ख म़ें ही मग्न थी, ससरु ाल के कष्टों और
दव्ु यावस्थाओं की चचंताओं म़ें पडी हुई थी। पर, अब उसे होश आया की इस
नाव के साथ मैं भी डूब रही हूँ। एक क्षण पहले वह कदाचचत ् ल्जस पुरुष पर
झँुझला रही थी, ल्जसे लुटेरा और डाकू समझ रही थी, वह अब ककतना प्यारा
था। उसके बबना अब जीवन एक दीपक था; बुझा हुआ। एक वक्ष ृ था; िल-
िूल ववहीन। अभी एक क्षण पहले वह दस
ू रों की इष्याा का कारण थी, अब
दया और करुणा की।
थोडे ही ददनों म़ें उसे ज्ञात हो र्या कक मैं पनत-ववहीन होकर संसार के
सब सख
ु ों से वंचचत हो र्यी।

52
एक वषा बीत र्या। जर्दीशचंद्र पक्के धमाावलम्बी आदमी थे, पर
नतलोत्तमा का वैधव्य उनसे न सहा र्या। उन्होंने नतलोत्तमा के पुनववावाह का
ननश्चय कर ललया। हँसनेवालों ने ताललय ॉँ बाजायीं पर जर्दीश बाबू ने हृदय
से काम ललया। नतलात्तमा पर सारा घर जान दे ता था। उसकी इच्छा के
ववरुद्ध कोई बात न होने पाती यह ॉँ तक कक वह घर की मालककन बना दी
र्ई थी। सभी ध्यान रखते कक उसकी रं ज ताजा न होने पाये। लेककन उसके
चेहरे पर उदासी छायी रहती थी, ल्जसे दे ख कर लोर्ों को द:ु ख होता था।
पहले तो म ॉँ भी इस सामाल्जक अत्याचार पर सहमत न हुई; लेककन
बबरादरीवालों का ववरोध ज्यों-ज्यों बढ़ता र्या उसका ववरोध ढीला पडता
र्या। लसद्धांत रुप से तो प्राय: ककसी को आपवत्त न थी ककन्तु उसे व्यवहार
म़ें लाने का साहस ककसी म़ें न था। कई महीनों के लर्ातार प्रयास के बाद
एक कुलीन लसद्धांतवादी, सुलशक्षक्षत वर लमला। उसके घरवाले भी राजी हो
र्ये। नतलोत्तमा को समाज म़ें अपना नाम बबकते दे ख कर द:ु ख होता था।
वह मन म़ें कुढ़ती थी कक वपताजी नाहक मेरे ललए समाज म़ें नक्कू बन रहे
हैं। अर्र मेरे भाग्य म़ें सुहार् ललखा होता तो यह वज्र ही क्यों चर्रता। तो
उसे कभी-कभी ऐसी शंका होती थी कक मैं किर ववधवा हो जाऊँर्ी। जब
वववाह ननल्श्चत हो र्या और वर की तस्वीर उसके सामने आयी तो उसकी
ऑ ंखों म़ें ऑ ंसू भर आये। चेहरे से ककतनी सज्जनता, ककतनी दृढ़ता, ककतनी
ववचारशीलता टपकती थी। वह चचत्र को ललए हुए माता के पास र्यी और
शमा से लसर झुकाकर बोली-अम्म ,ं मुँह मुझे तो न खोलना चादहए, पर
अवस्था ऐसी आ पडी है कक बबना मह
ँु खोले रहा नहीं जाता। आप बाबज
ू ी
को मना कर द़ें । मैं ल्जस दशा म़ें हूँ संतष्ु ट हूँ। मझ
ु े ऐसा भय हो रहा है कक
अबकी किर वही शोक घटना.............
म ॉँ ने सहमी हुई ऑ ंखों से दे ख कर कहा—बेटी कैसी अशर्ुन की बात
मुँह से ननकाल रही हो। तुम्हारे मन म़ें भय समा र्या है , इसी से यह भ्रम
होता है । जो होनी थी, वह हो चुकी। अब क्या ईश्वर क्या तम्
ु हारे पीछे पडे
ही रह़ें र्े ?
नतलोत्तमा—ह ,ॉँ मुझे तो ऐसा मालूम होता है ?
ॉँ
म —क्यों, तम्
ु ह़ें ऐसी शंका क्यों होती है ?
नतलोत्तमा—न जाने क्यो ? कोई मेरे मन मे बैठा हुआ कह रहा है कक
किर अननष्ट होर्ा। मैं प्रया: ननत्य डरावने स्वप्न दे खा करती हूँ। रात को

53
मुझे ऐसा जान पडता है कक कोई प्राणी ल्जसकी सूरत स पॉँ से बहुत लमलती-
जुलती है मेरी चारपाई के चारों ओर घूमता है । मैं भय के मारे चुप्पी साध
लेती हूँ। ककसी से कुछ कहती नहीं।
म ॉँ ने समझा यह सब भ्रम है । वववाह की नतचथ ननयत हो र्यी। यह
केवल नतलोत्तमा का पन
ु संस्कार न था, बल्ल्क समाज-सध
ु ार का एक
कियात्मक उदाहरण था। समाज-सध
ु ारकों के दल दरू से वववाह सल्म्मललत
होने के ललए आने लर्े, वववाह वैददक रीनत से हुआ। मेहमानों ने खूब
वयाख्यान ददये। पत्रों ने खूब आलोचनाऍ ं कीं। बाबू जर्दीशचंद्र के नैनतक
साहस की सराहना होने लर्ी। तीसरे ददन बहू के ववदा होने का मुहूता था।
जनवासे म़ें यथासाध्य रक्षा के सभी साधनों से काम ललया र्या था।
बबजली की रोशनी से सारा जनवास ददन-सा हो र्या था। भूलम पर ऱें र्ती
हुई चींटी भी ददखाई दे ती थी। केशों म़ें न कहीं लशकन थी, न लसलवट और न
झोल। शालमयाने के चारों तरि कनात़ें खडी कर दी र्यी थी। ककसी तरि से
कीडो-मकोडों के आने की संम्भावना न थी; पर भावी प्रबल होती है ।
प्रात:काल के चार बजे थे। तारार्णों की बारात ववदा हो रही थी। बहू की
ववदाई की तैयारी हो रही थी। एक तरि शहनाइय ॉँ बज रही थी। दस ू री तरि
ववलाप की आत्ताध्वनन उठ रही थी। पर नतलोत्तमा की ऑ ंखों म़ें ऑ ंसू न थे,
समय नाजक
ु था। वह ककसी तरह घर से बाहर ननकल जाना चाहती थी।
उसके लसर पर तलवार लटक रही थी। रोने और सहे ललयों से र्ले लमलने म़ें
कोई आनंद न था। ल्जस प्राणी का िोडा चचलक रहा हो उसे जरााह का घर
बार् म़ें सैर करने से ज्यादा अच्छा लर्े, तो क्या आश्चया है।
वर को लोर्ों ने जर्या। बाजा बजने लर्ा। वह पालकी म़ें बैठने को
चला कक वधू को ववदा करा लाये। पर जूते म़ें पैर डाला ही था कक चीख मार
कर पैर खींच ललया। मालूम हुआ, प वॉँ चचनर्ाररयों पर पड र्या। दे खा तो
एक काला साँप जूते म़ें से ननकलकर ऱें र्ता चला जाता था। दे खते-दे खते
र्ायब हो र्या। वर ने एक सदा आह भरी और बैठ र्या। ऑ ंखों म़ें अंधेरा
छा र्या।
एक क्षण म़ें सारे जनवासे म़ें खबर िैली र्यी, लोर् दौड पडे। औषचधय ॉँ
पहले ही रख ली र्यी थीं। स पॉँ का मंत्र जाननेवाले कई आदमी बल
ु ा ललये
र्ये थे। सभी ने दवाइय ॉँ दीं। झाड-िँू क शरु
ु हुई। औषचधय ॉँ भी दी र्यी, पर
काल के समान ककसी का वश न चला। शायद मौत स पॉँ का वेश धर कर

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आयी थी। नतलोत्तमा ने सुना तो लसर पीट ललया। वह ववकल होकर जनवासे
की तरि दौडी। चादर ओढ़ने की भी सुचध न रही। वह अपने पनत के चरणों
को माथे से लर्ाकर अपना जन्म सिल करना चाहती थी। घर की ल्स्त्रयों ने
रोका। माता भी रो-रोकर समझाने लर्ी। लेककन बाबू जर्दीशचन्द्र ने कहा-
कोई हरज नहीं, जाने दो। पनत का दशान तो कर ले। यह अलभलाषा क्यों रह
जाय। उसी शोकाल्न्वत दशा म़ें नतलोत्तमा जनवासे म़ें पहुँची, पर वह ॉँ उसकी
ॉँ थी। उन अधखुले नेत्रों म़ें असह्य
तस्कीन के ललए मरनेवाले की उल्टी स स़ें
आत्मवेदना और दारुण नैराश्य।

इस अद्भुत घटना का सामाचार दरू -दरू तक िैल र्या। जडवादोर्ण
चककत थे, यह क्या माजरा है । आत्मवाद के भक्त ज्ञातभाव से लसर दहलाते
थे मानों वे चचत्रकालदशी हैं। जर्दीशचन्द्र ने नसीब ठोंक ललया। ननश्चय हो
र्या कक कन्या के भाग्य म़ें ववधवा रहना ही ललखा है । नार् की पज
ू ा साल
म़ें दो बार होने लर्ी। नतलोत्तमा के चररत्र म़ें भी एक ववशेष अंतर दीखने
लर्ा। भोर् और ववहार के ददन भल्क्त और दे वाराधना म़ें कटने लर्े। ननराश
प्राणणयों का यही अवलम्ब है ।
तीन साल बीत थे कक ढाका ववश्वववद्यालय के अध्यापक ने इस ककस्से
को किर ताजा ककया। वे पशु-शास्त्र के ज्ञाता थे। उन्होंने साँपों के आचार-
व्यवहार का ववशेष रीनत से अध्ययन ककया। वे इस रहस्य को खोलना चाहते
थे। जर्दीशचंद्र को वववाह का संदेश भेजा। उन्होंने टाल-मटोल ककया।
दयाराम ने और भी आग्रह ककया। ललखा, मैने वैज्ञाननक अन्वेषण के ललए यह
ननश्चय ककया है। मैं इस ववषधर नार् से लडना चाहता हूँ। वह अर्र सौ
दतॉँ ले कर आये तो भी मुझे कोई हानन नहीं पहुँचा सकता, वह मझ
ु े काट
कर आप ही मर जायेर्ा। अर्र वह मुझे काट भी ले तो मेरे पास ऐसे मंत्र
और औषचधय ॉँ है कक मैं एक क्षण म़ें उसके ववष को उतार सकता हूँ। आप
इस ववषय म़ें कुछ चचंता न ककल्जए। मैं ववष के ललए अजेय हूँ। जर्दशीचंद्र
को अब कोई उज्र न सूझा। ह ,ॉँ उन्होंने एक ववशेष प्रयत्न यह ककया कक ढाके
म़ें ही वववाह हो। अतएब वे अपने कुटुल्म्बयों को साथ ले कर वववाह के एक
सप्ताह पहले र्ये। चलते समय अपने संदक
ू , बबस्तर आदद खब
ू दे खभाल कर
रखे कक स पॉँ कहीं उनम़ें उनम़ें नछप कर न बैठा जाय। शभ
ु लर्न म़ें वववाह-
संस्कार हो र्या। नतलोत्तमा ववकल हो रही थी। मख
ु पर एक रं र् आता था,

55
एक रं र् जाता था, पर संस्कार म़ें कोई ववध्न-बाधा न पडी। नतलोत्तमा रो धो-
कर ससुराल र्यी। जर्दीशचंद्र घर लौट आये, पर ऐसे चचंनतत थे जैसे कोई
आदमी सराय मे खुला हुआ संदक ू छोड कर बाजार चला जाय।
नतलोत्तमा के स्वभाव म़ें अब एक ववचचत्र रुपांतर हुआ। वह औरों से
हँसती-बोलती आराम से खाती-पीती सैर करने जाती, चथयेटरों और अन्य
सामाल्जक सम्मेलनों म़ें शरीक होती। इन अवसरों पर प्रोिेसर दया राम से
भी बडे प्रेम का व्यवहार करती, उनके आराम का बहुत ध्यान रखती। कोई
काम उनकी इच्छा के ववरुद्ध न करती। कोई अजनबी आदमी उसे दे खकर
कह सकता था, र्दृ हणी हो तो ऐसी हो। दस
ू रों की दृल्ष्ट म़ें इस दम्पवत्त का
जीवन आदशा था, ककन्तु आंतररक दशा कुछ और ही थी। उनके साथ
शयनार्ार म़ें जाते ही उसका मख
ु ववकृत हो जाता, भौंह़ें तन जाती, माथे पर
ॉँ जलने लर्ता, पलक़ें खल
बल पड जाते, शरीर अल्ग्न की भ नत ु ी रह जाती, नेत्रों
से ज्वाला-सी ननकलने लर्ती और उसम़ें से झल
ु सती हुई लपट़ें ननकलती,
मखु पर काललमा छा जाती और यद्यवप स्वरुप म़ें कोई ववशेष अन्तर न
ददखायी दे खायी दे ता; पर न जाने क्यों भ्रम होने लर्ता, यह कोई नाचर्न है ।
कभी –कभी वह िँु कारने भी लर्तीं। इस ल्स्थनत म़ें दयाराम को उनके
समीप जाने या उससे कुछ बोलने की दहम्मत न पडती। वे उसके रुप-
लावण्य पर मुग्ध थे, ककन्तु इस अवस्था म़ें उन्ह़ें उससे घण
ृ ा होती। उसे इसी
उन्माद के आवेर् म़ें छोड कर बाहर ननकल आते। डाक्टरों से सलाह ली,
स्वयं इस ववषय की ककतनी ही ककताबों का अध्ययन ककया; पर रहस्य कुछ
समझ म़ें न आया, उन्ह़ें भौनतक ववज्ञान म़ें अपनी अल्पज्ञता स्वीकार करनी
पडी।
उन्ह़ें अब अपना जीवन असह्य जान पडता। अपने दस्
ु साहस पर
पछताते। नाहक इस ववपवत्त म़ें अपनी जान िँसायी। उन्ह़ें शंका होने लर्ी
कक अवश्य कोई प्रेत-लीला है ! लमथ्यावादी न थे, पर जह ॉँ बुद्चध और तका
का कुछ वश नहीं चलता, वह ॉँ मनुष्य वववश होकर लमथ्यावादी हो जाता है।
शनै:-शनै: उनकी यह हालत हो र्यी कक सदै व नतलोत्तमा से सशंक
रहते। उसका उन्माद, ववकृत मुखाकृनत उनके ध्यान से न उतरते। डर लर्ता
कक कहीं यह मझ
ु े मार न डाले। न जाने कब उन्माद का आवेर् हो। यह
चचन्ता ह्रदय को व्यचथत ककया करती। दहप्नादटज्म, ववद्यत्ु शल्क्त और कई

56
नये आरोग्यववधानों की परीक्षा की र्यी । उन्ह़ें दहप्नादटज्म पर बहुत भरोसा
था; लेककन जब यह योर् भी ननष्िल हो र्या तो वे ननराश हो र्ये।


एक ददन प्रोिेसर दयाराम ककसी वैज्ञननक सम्मेलन म़ें र्ए हुए थे। लौटे
तो बारह बज र्ये थे। वषाा के ददन थे। नौकर-चाकर सो रहे थे। वे नतलोत्तमा
के शयनर्ह ू ने र्ये कक मेरा भोजन कह ॉँ रखा है। अन्दर कदम
ृ म़ें यह पछ
रखा ही था कक नतलोत्तमा के लसरं हाने की ओर उन्ह़ें एक अनतभीमकाय काला
स पॉँ बैठा हुआ ददखायी ददया। प्रो. साहब चुपके से लौट आये। अपने कमरे
म़ें जा कर ककसी औषचध की एक खरु ाक पी और वपस्तौल तथा साँर्ा ले कर
किर नतलोत्तमा के कमरे म़ें पहुँचे। ववश्वास हो र्या कक यह वही मेरा परु ाना
शत्रु है । इतने ददनों म़ें टोह लर्ाता हुआ यह ॉँ आ पहुँचा। पर इसे नतलोत्तामा
से क्यों इतना स्नेह है । उसके लसरहने यों बैठा हुआ है मानो कोई रस्सी का
टुकडा है । यह क्या रहस्य है ! उन्होंने साँपों के ववषय म़ें बडी अदभत
ू कथाऍ ं
पढ़ी और सन
ु ी थी, पर ऐसी कुतह
ू लजनक घटना का उल्लेख कहीं न दे खा
था। वे इस भ नत ॉँ सशसत्र हो कर किर कमरे म़ें पहुँचे तो साँप का पात न
था। ह ,ॉँ नतलोत्तमा के लसर पर भूत सवार हो र्या था। वह बैठी हुई आग्ये
हुई नेत्रों के द्वारा की ओर ताक रही थी। उसके नयनों से ज्वाला ननकल रही
थी, ल्जसकी ऑ ंच दो र्ज तक लर्ती। इस समय उन्माद अनतशय प्रचंड था।
दयाराम को दे खते ही बबजली की तरह उन पर टूट पडी और हाथों से
ॉँ से काटने की चेष्टा करने लर्ी। इसके
आघात करने के बदले उन्ह़ें द तों
साथ ही अपने दोनों हाथ उनकी र्रदन डाल ददये। दयाराम ने बहुतेरा चाहा,
ऐडी-चोटी तक का जोर लर्ा कक अपना र्ला छुडा ल़ें, लेककन नतलोत्तमा का
ॉँ कठोर एवं संकुचचत होता जाता
बाहुपाश प्रनतक्षण साँप की केडली की भ नत
था। उधर यह संदेह था कक इसने मझ ु े काटा तो कदाचचत ् इसे जान से हाथ
धोना पडे। उन्होंने अभी जो औषचध पी थी, वह सपा ववष से अचधक घातक
थी। इस दशा म़ें उन्ह़ें यह शोकमय ववचार उत्पन्न हुआ। यह भी कोई जीवन
है कक दम्पनत का उत्तरदानयत्व तो सब लसर पर सवार, उसका सुख नाम का
नहीं, उलटे रात-ददन जान का खटका। यह क्या माया है। वह स पॉँ कोई प्रेत
तो नही है जो इसके लसर आकर यह दशा कर ददया करता है। कहते है कक
ऐसी अवस्था म़ें रोर्ी पर चोट की जाती है , वह प्रेत पर ही पडती हैं नीचे

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जानतयों म़ें इसके उदाहरण भी दे खे हैं। वे इसी हैंसंबैस म़ें पडे हुए थे कक
उनका दम घुटने लर्ा। नतलात्तमा के हाथ रस्सी के िंदे की भ नत ॉँ उनकी
र्रदन को कस रहे थ़ें वे दीन असहाय भाव से इधर-उधर ताकने लर्े।
क्योंकर जान बचे, कोई उपाय न सझ
ू पडता था। साँस लेना। दस्
ु तर हो र्या,
दे ह लशचथल पड र्यी, पैर थरथराने लर्े। सहसा नतलोत्तमा ने उनके बाँहों की
ँु बढ़ाया। दयाराम क पॉँ उठे । मत्ृ यु ऑ ंख़ें के सामने नाचने लर्ी। मन
ओर मह
म़ें कहा—यह इस समय मेरी स्त्री नहीं ववषैली भयंकर नाचर्न है : इसके ववष
से जान बचानी मुल्श्कल है । अपनी औषचध पर जो भरोसा था, वह जाता रहा।
चूहा उन्मत्त दशा म़ें काट लेता है तो जान के लाले पड जाते है। भर्वान ् ?
ककतन ववकराल स्वरुप है ? प्रत्यक्ष नाचर्न मालूम हो रही है । अब उलटी पडे
या सीधी इस दशा का अंत करना ही पडेर्ा। उन्ह़ें ऐसा जान पडा कक अब
चर्रा ही चाहता हूँ। नतलोत्तमा बार-बार स पॉँ की भ नत
ॉँ िँु कार मार कर जीभ
ननकालते हुए उनकी ओर झपटती थी। एकाएक वह बडे ककाश स्वर से
बोली—‘मखू ा ? तेरा इतना साहस कक तू इस सद
ु ं री से प्रेमललंर्न करे ।’ यह
कहकर वह बडे वेर् से काटने को दौडी। दयाराम का धैया जाता रहा। उन्होंने
ददहना हाथ सीधा ककया और नतलोत्तमा की छाती पर वपस्तौल चला ददया।
नतलोत्तमा पर कुछ असर न हुआ। बाह़ें और भी कडी हो र्यी; ऑ ंखों से
चचनर्ाररय ॉँ ननकलने लर्ी। दयाराम ने दस
ू री र्ोली दार् दी। यह चोट पूरी
पडी। नतलोत्तमा का बाहु-बंधन ढीला पड र्या। एक क्षण म़ें उसके हाथ नीचे
को लटक र्ये, लसर झ्रक
ु र्या और वह भूलम पर चर्र पडी।
तब वह दृश्य दे खने म़ें आया ल्जसका उदाहराण कदाचचत ् अललिलैला
चंद्रकांता म़ें भी न लमले। वही फ्लँ र् के पास, जमीन पर एक काला दीघाकाय
सपा पडा तडप रहा था। उसकी छाती और मुँह से खून की धारा बह रही थी।
दयाराम को अपनी ऑ ंखों पर ववश्वास न आता था। यह कैसी अदभत

प्रेत-लीला थी! समस्या क्या है ककससे पूछूँ ? इस नतलस्म को तोडने का
ॉँ से स पॉँ की
प्रयत्न करना मेरे जीवन का एक कत्ताव्य हो र्या। उन्होंने स र्े
दे ह मे एक कोचा मारा और किर वे उसे लटकाये हुए ऑ ंर्न म़ें लाये।
बबलकुल बेदम हो र्या था। उन्होंने उसे अपने कमरे म़ें ले जाकर एक खाली
संदक
ू म़ें बंदकर ददया। उसम़ें भस
ु भरवा कर बरामदे म़ें लटकाना चाहते थे।
इतना बडा र्ेहुँवन साँप ककसी ने न दे खा होर्ा।

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तब वे नतलोत्तमा के पास र्ये। डर के मारे कमरे म़ें कदम रखने की
दहम्मत न पडती थी। ह ,ॉँ इस ववचार से कुछ तस्कीन होती थी कक सपा प्रेत
मर र्या है तो उसकी जान बच र्यी होर्ी। इस आशा और भय की दशा म़ें
वे अन्दर र्ये तो नतलोत्तमा आईने के सामने खडी केश सँवार रही थी।
दयाराम को मानो चारों पदाथा लमल र्ये। नतलोत्तमा का मख
ु -कमल
णखला हुआ था। उन्होंने कभी उसे इतना प्रिुल्ल्लत न दे खा था। उन्ह़ें दे खते
ही वह उनकी ओर प्रेम से चली और बोली—आज इतनी रात तक कह ॉँ रहे ?
दयाराम प्रेमोन्नत हो कर बोले—एक जलसे म़ें चला र्या था। तुम्हारी
तबीयत कैसी हे ? कहीं ददा नहीं है ?
नतलोत्तमा ने उनको आश्चया से दे ख कर पूछा—तुम्ह़ें कैसे मालम
ू हुआ ?
मेरी छाती म़ें ऐसा ददा हो रहा है , जैस चचलक पड र्यी हो।

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